नये कवि/पहली बार
एक
डरे हुए लोग एक दूसरे को देखते हैं शक से उनकी हंसी में होता है एक करुणा पूर्ण अकेलापन जिसे छिपाने के लिए वो बेतहाशा कोशिश करते हैं अपने साथी की खुशी को रौंदने की दड़बे में खचा खच भरे मुर्गे चोट करते हैं एक दूसरे पर
डरे हुए लोग सपने देखते हैं आज़ादी के, उड़ान के और हर रोज़ झुण्ड में खड़े हो दबा लेते हैं अपने विरोध के सुरों को यही उनकी खुशी है, आज़ादी और उड़ान भी
डरे हुए लोग खुद को सफल मानते हैं पर हर पल उन्हें खाये जाता है एक डर दरवाज़े बंद कर बैठते हैं एक विशाल कमरे के छोटे से कोने में यही उनका साम्राज्य है। जहाँ से देखते हैं बाहर के लोगों, हवाओं को और लम्बी सांस भर के बार बार कहते हैं खुद से वो सब आज़ादी और असफलताएं हमारे लिए नहीं इस तरह डरे हुए लोग/समाज के सफल लोगों में शुमार हो जाते हैं
दो
हमने देखा एक शहर जिसमें चारों ओर भंवर लोगों के दूकानों के बाज़ारों के खरीदारों के पीछे छूटते जाते जिनके बंजर सुनसान से घर
बदहवास लोग घायल थे दर्द छिपाने में माहिर थे सिरहाने सपने छोड़ के उठते लुटते-लूटते गिरके हँसते किसे पड़ी है कौन बताता अंधेरों की ठोकरें-ठीकर हमने जीया एक शहर न सपने परियों के लायक थे न जीवन सपनों के कायल थे खेल-खेल में टूटते बनते वे रिश्तों के धागे थे देहरी पे गुमसुम बैठा रहता सर झुका के प्रेम का ढाई आखर हमने ढोया एक शहर।
तीन
हरी चंपा
एक स्पर्श की ऊष्मा खुशनुमा बदलाव की हल्की सी चमक लिए धूप में चांदनी से सरोबोर करते स्मृतियों की तरह अपनी गैरमौजूदगी में सृष्टि को समेटे छोटे, बहुत छोटे फूल इनको छूने का लालच बढ़ाती खुशबू, झक्क सफेद पर छाया आवेग, उन्माद का कच्चा हरा रंग हाथ में आने के बाद धूमिल एक सांस में भीतर तक जागते जगमगाते दूसरी ही सांस में हवा में मिल जाते
एक मौसम में एक बार फिर मिलने का वादा करते चंपा के हरे फूल
2 अगस्त 1967 को जन्मी प्रगति का एक कविता संग्रह 'आश्चर्य लोक' प्रकाशित। हिन्दी और अंग्रेजी से अनुवाद तथा पत्रकारिता करती है। दिल्ली में रहती है। |