सम्पूर्णता की तलाश में

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    सितम्बर 2014
श्रेणी पाठ्यालोचन/लीलाधरजगूड़ी
संस्करण सितम्बर 2014
लेखक का नाम अमिताभ राय









चूंकि मैं पाठ को सबसे ज्यादा महत्व देता हूं और समाज, राजनीति, इतिहासबोध यहां तक कि अपने निजी अनुभव तक को भी पाठ तक पहुंचने की कुंजी मानता हूं, इसीलिए मैं पाठक के इर्द-गिर्द ही रहता हूं। परन्तु लीलाधर जगूड़ी की पुस्तक पर बात की शुरुआत मैं आलोचना की दयनीय स्थिति से करना चाहता हूं। इसकी गुंजाइश भी पाठ के बहाने ही है। वे 'नीरस जमाने में सरस कवि' नामक अपनी कविता में लिखते हैं -
''आलोचना में यह बंजर
लोकार्पण के बहाने प्रायोजित समालोचना के बावजूद फैल रहा है''
इस 'बंजर' का संदर्भ कविता में ही है और कविता के बाहर हमारे आलोचनात्मक विवेक में भी है। आलोचना का यह बंजर 'नासमझ की सराहना और समझदार की चुप्पी से' फैल रहा है। साथ ही यह 'लोकार्पण के बहाने प्रायोजित समालोचना के बावजूद' नहीं, के साथ फैल रहा है। संभवत: उसके कारण ही फैल रहा है। आलोचक साहस के साथ अपने युग के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक परिदृश्य के साथ पाठ का विश्लेषण न कर उसकी अंध प्रशंसा अथवा तीखी आलोचना करता है। यह प्रवृत्ति व्यक्तिगत राग द्वेष की मात्रा के अनुसार निर्धारित होती है। वह किसी समस्या के आलोक में पाठ को विश्लेषित नहीं करता। इसका तात्पर्य यह है कि आलोचना में तार्किक विश्लेषण पद्धति का अभाव होता जा रहा है। रचनाकार भी समीक्षा और आलोचना के नाम पर केवल प्रशंसा चाहता है। हर समीक्षा या आलोचना प्रत्येक कृति को महान, शानदार साबित करती है। इस लोकतांत्रिक समय में रुचियों की विभिन्नता को देखते हुए ऐसा हो भी सकता है,परन्तु महानता अंतर्विरोधविहीन नहीं होती। महानतम तथ्यों, व्यक्तियों, प्रवृतियों में भी अंतर्विरोध होते हैं। महानता अंतर्विरोधों के साथ और अंतर्विरोधों के बावजूद होती है। आलोचक बस इन अंतर्विरोधों की ओर ध्यान नहीं देते या देना चाहते। इस प्रवृति का एक दूसरा रूप भी है। जो चतुर आलोचक हैं वे इन अंतर्विरोधों को समझते हैं पर इन्हें उजागर करने के स्थान पर चुप रह जाते हैं। उनकी चुप्पी इसी कारण अज्ञान का पर्याय नहीं है। इस कारण आलोचना युग और रचना का वास्तविक परिदृश्य उपस्थित नहीं कर पा रही है। वैसे विचारधाराविहीन, उपभोग को ही जीवनमूल्य की तरह स्वीकार करती और सामाजिक-राजनैतिक अवमूल्यन की शिकार समाज व्यवस्था में पल रहा व्यक्ति (लेखक पहले सामाजिक नागरिक और व्यक्ति ही होता है) उपर्युक्त प्रवृतियों का शिकार हो जाए तो यह बहुत बड़ी बात नहीं। आलोचक और साहित्यकार भी तो सामाजिक संबंधों के बीच ही निर्मित होता है। आलोचना की बुरी स्थिति के बारे में तमाम रचनाकार और आलोचक बात करते हैं, उसकी दयनीय स्थिति की ओर संकेत करते हुए भाषण देते हैं, परन्तु जब खुद समीक्षा या आलोचना लिखते हैं, तो वहां भी कमोबेश वे ही स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं। यह हमारे समय की आलोचना की विडम्बना है।
लीलाधर जगूड़ी का काव्य संसार लगभग पचपन वर्षों में फैला है। इन वर्षों में इनके बारह संग्रह प्रकाशित हुए हैं। वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी का सद्य: प्रकाशित काव्य संग्रह 'जितने लोग, उतने प्रेम' उनका बारहवाँ संग्रह है। इसके पूर्व 'ईश्वर की अध्यक्षता में', 'रात अब भी मौजूद है', 'बची हुई पृथ्वी', 'घबराए हुए शब्द', 'भय भी शक्ति देता है', 'अनुभव के आकाश में चांद', 'महाकाव्य के बिना', 'खबर का मुंह विज्ञापन से ढका है' आदि संग्रह प्रकाशित हुए हैं। 'अनुभव के आकाश में चांद' के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ है। वरिष्ठ कवि अपने संग्रह की पहली कविता 'मेरे बहाने' में लिखते हैं -
''संघर्ष हो, आराम हो सबको कलाओं में बदला गया मेरे बहाने
इस दुनिया में हमेशा रहना चाहता हूं
एक और दुनिया ढूँढऩे के बहाने
इस तरह अपने बहाने बनाए रखना चाहता हूं सारी पुरानी दुनिया।''
पुराने काव्यशास्त्र में काव्य को ब्रह्मानंद स्वाद सहोदर कहा गया है। इस नाते काव्य का सर्जक या रचयिता कवि ब्रह्म के समान हुआ। ब्रह्म सर्जक की भूमिका के कारण विशिष्ट माना जाता है, परन्तु ब्रह्म की स्थिति और उपस्थिति संदिग्ध है। कवि सर्जक है और हमारे सामाजिक संबंधों के भीतर से निर्मित है, प्रत्यक्ष है। वह सर्जक के नाते सारी स्थितियों, वस्तुगत सच्चाइयों के साथ ही मानवता के कलुष पक्ष को भी रेखांकित करता है। यहां जितने संदर्भों में और जितने अर्थों में 'मेरे बहाने' शब्दबंध का इस्तेमाल हुआ है वह किसी की वैयक्तिक क्षमता के नितांत परे है और सामान्य सहज जीवन में व्यक्ति को इतने संदर्भों में खुद को जोतने की जरूरत भी नहीं है। यह कविकर्म के साथ मानव जीवन के सांस्कृतिक विकास की अन्नयता का विशिष्ट बोध है। इसी कारण वह कहता है कि संघर्ष हो या आराम सबको मेरे बहाने कला में बदला गया। यहां संघर्ष और आराम दो ध्रुव हैं, विपरीत संदर्भ हैं और नितांत विपरीत ध्रुवों को भी कला में बदलना कवि की विशिष्ट सांस्कृतिक भूमिका है। कवि कहता है कि 'मेरे जिस भूख के बहाने फसलें उगाई गईं/जिस स्वाद के मारे अन्नों को पकवानों में बदला गया/वह भूख मेले से मॉल तक पहुँच गयी मेरे बहाने' जब कवि मेरी भूख कहता है तब वह व्यक्ति वाचक नहीं रह जाता क्योंकि एक व्यक्ति मात्र के भूख के निवारण के लिए तो फसल नहीं उगायी जाती। इसमें पूरे समाज की भूख का सामूहिक निवारण होता है। हां उस फसल को पकवान में एक व्यक्ति के कारण बदला जा सकता है। परन्तु यह भूख व्यक्ति समूहों के कारण जब मेले से मॉल तक पहुंचती है तो इसकी पहचान और परख आवश्यक हो जाती है। मेले की उत्सवधर्मिता का मॉल कल्चर में विकसित होना या उसमें तब्दील हो जाना सामाजिक आस्वाद में आए बदलाव का सूचक है। कवि ने इस बदलाव का विवरण नहीं दिया है। शायद कविता में इसकी गुंजाइश भी नहीं होती है। यह बदलाव उग्र पूंजीवादी विकास के कारण संभव हुआ है। इस पूंजीवादी विकास में मुनाफाखोरी ही संभवत: सबसे बड़ा मूल्य है। जो भूख मेले से मॉल तक पहुंची है, वह अन्नहीन लोगों की भूख नहीं है। वह स्वादलोलुप लोगों की भूख है और बिना भूख के ही स्वाद के लिए पकवानों के क्रय में सक्षम लोगों की भूख है। यह भूख क्रय क्षमता पर निर्भर करती है। समाज का ऐसा सुविधाभोगी वर्ग वैयक्तिकता को सामाजिक संबंधों से कटे किसी मूल्य की तरह प्रवर्तित करता है। जबकि व्यक्ति अथवा वैयक्तिकता सामाजिक संबंधों का समुच्चय होता है। व्यक्ति सामाजिक संबंधों के बिना न जी सकता है, न विकसित हो सकता है और न मर ही सकता है। यह कहने का तात्पर्य यह कतई नहीं है कि मैं व्यक्ति की निजता को अस्वीकार कर रहा हूं। इसका एक प्राइवेट स्पेस होता है, परन्तु उसका विकास समाज के भीतर ही संभव है। कवि ने कहा है कि 'व्यक्तिगत सुरक्षा भी सामूहिक का बोझ उठाए बिना नहीं हो सकती'।
भाषा हो या सामाजिक आचार-व्यवहार या व्यक्ति की अन्य प्रवृत्तियां - वे शुभ-शोभन हो या अशुभ और कलुष, सबकी उत्पत्ति का आगार समाज ही होता है। व्यक्ति की व्यक्तिगत प्रतिभा उसमें बहुत थोड़ा परिवर्तन ही कर पाती है या कर सकती है। गीता में जब कृष्ण  (वेद व्यास) कहते हैं कि यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता तो यह व्यक्ति के निर्माण में व्यक्ति की न्यूनतम भूमिका को ही दर्शाता है, प्रत्यक्षीकृत करता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि विकास की धार्मिक सरणियों को मैं स्वीकार कर रहा हूं। यह व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया को दर्शाता है और इससे बहुत साफ है कि व्यक्ति का विकास स्वायत्त और निरपेक्ष न होकर किन्हीं और व्यवस्थाओं के साथ संदर्भित होता है। मनुष्य का विकास समाज के बिना संभव ही नहीं है। कवि कहता है -
''नश्वर लोगों के इतिहास में यश-अपयश, दाग धब्बों सहित
जैसे जीवन का प्रतिनिधित्व असर किया जा रहा हो
लाखों वर्षों से झांकता उतनी दूर का चेहरा
देख रहा है हर समय चट्टान के पीछे से हमें''
इतिहास नश्वर लोगों का है। पर अपने दार्शनिक धरातल पर इतिहास अनश्वर है क्योंकि मानव सभ्यता का इतिहास निरंतरता और सातत्यता में है। अनश्वर शब्द इस संदर्भ मात्र में इतिहास के अनुरूप है अन्यथा यह शब्द इतिहास की प्रकृति के अनुरूप नहीं है। यह जब जीवन के हास-परिहास को, गुण-दोष को, राग-द्वेष को बताता है तब इतिहास पाठ्य पुस्तक की सामग्री न रहकर जीवन के स्पंदन का विषय बनने लगता है। नश्वर लोगों के इतिहास में जीवन का प्रतिनिधित्व केवल शुभ और शुभ्र तत्व नहीं कर रहे हैं। यश-अपयश, दाग-धब्बों सहित जीवन का प्रतिनिधित्व है, और उसी रूप में वह सतत है, अत: अमर है। 'काली चट्टान' दिन-रात हमारा पीछा कर रही है तो यह काली चट्टान परम्परा के शुभ-अशुभ सबका समुच्चय है।
कम से कम इस संग्रह में लीलाधर जगूड़ी सम्पूर्णता पर बहुत बल देते हैं। ऊपर मैंने विरोधी स्थितियों को दिखाने की कोशिश की है, वह सम्पूर्णता की आकांक्षा का ही पर्याय है। इस सम्पूर्णता की आकांक्षा के कारण ही कवि धुर विरोधी स्थितियों के सामंजस्य की परिकल्पना करता है। इस क्षणभंगुर जीवन और संसार में पीढिय़ों के माध्यम से सातत्य की बात करता है, नए में पुरानेपन को तलाशता है और पुरानेपन की नवता को तलाशता है-
'पुरानेपन की उम्र पुरानों से भी पुरानी-धुरानी है
फिर भी आग जो वर्तमान में नहीं है इतिहास से
चुरानी है इसको आधुनिक राख में बदलने के लिए
आधुनिक राख का मिट्टी बनना
थोड़ा-थोड़ा उसका पुराना बनना है
कुछ नयी प्रजाति के बेल-बूटे हैं
वाकई थोड़ा-थोड़ा पुराना हुआ हूं मैं।'
इसे केवल शाब्दिक कलाबाजी न मानकर गहराई से विचार किया जाए तो इससे सम्पूर्णता की आकांक्षा स्पष्ट हो जाती है। यहां यह भी स्पष्ट है कि यह सम्पूर्णता की आकांक्षा है, सम्पूर्णता की सिद्धि नहीं। सम्पूर्णता वर्तमान में सिद्ध हो सकती है, अतीत और भविष्य से उसका विशेष संबंध नहीं होता। अगर सम्पूर्णता का संबंध भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों से होता है तो यह मानव सभ्यता की भौतिकवादी ऐतिहासिक प्रक्रिया का अंग बन जाती। ऐसा नहीं होने के कारण ही इन कविताओं में भी पूर्णता क्षण में ही घटित होती है। इस क्षण के बाहर फिर वहीं अपूर्णता है और इस अपूर्णता से कवि भर उठता है-
''उत्तर की ओर जाना हुआ तो भूकंप भूस्खलन और बाढ़ के कारण लौट आना हुआ
दक्षिण की ओर जाना हुआ तो सुनामी ने तटीय जीवन का नामोनिशान मिटा दिया
तब फिर एक और लौट आना हुआ''
इन कविताओं में यह सम्पूर्णता द्वैत के सातुल्यता से उपजाने की कोशिश की गयी है, न कि द्वैत की समाप्ति के द्वारा। यह मध्ययुगीन और आधुनिक मानव के विवेक का फर्क है। मध्ययुगीन मानसिकता द्वैत को समाप्त कर सम्पूर्ण होती है। इन द्वैतों की समाप्ति के उपरान्त जीवन धवल, निष्कलुष और स्वायत्त-सम्पूर्ण हो जाता है। परन्तु जीवन के भौतिक धरातल पर द्वैत कभी समाप्त नहीं होते। जैसे चुम्बक के दो ध्रुव कभी समाप्त नहीं होते। उन्हें चाहे जहां से और जितनी बार तोड़ा जाए दो ध्रुव सदैव मौजूद रहते हैं, वैसे ही जीवन का द्वैत कभी समाप्त नहीं होता। सदैव मौजूद इन द्वैतों को किसी विधि से समाप्त नहीं किया जा सके तो एक बैलेंस के निर्माण की जरूरत होती है। यह बैलेंस ही सम्पूर्णता का आधार है जगूड़ी जी की कविताओं में। इस संग्रह में प्रेम के जो विविध रूप दिखायी देते हैं वह प्रेमी युगल की सामान्य क्रिया-कलापों, इच्छाओं-आकांक्षाओं से अधिक व्यापक हैं। कवि प्रेम के माध्यम से मनुष्य की सम्पूर्णता को तलाशने की कोशिश करता है, उसे उद्दात मानवीय वृत्तियों का पर्याय बनाता है। तब प्रेम केवल स्त्री-पुरुष के बीच का मनोभाव नहीं रह जाता है, वह युग की स्थितियों से संघर्ष का साधन बनता है -
''धर्मसंकट की तरह पूरे समाज में
उसे एक व्यक्ति से शुरू होना है
व्यक्ति जो एक दुर्लभ कोना है प्रेम का
व्यक्ति भी एक समाज हो जाता है प्रेम में
इतिहास और भूगोल फिर हिलते-डुलते दिखते हैं।''
व्यक्ति जब प्रेम में समाज हो जाए तो यह स्वाभविक ही है कि उसमें इतिहास और भूगोल की ऐतिहासिक प्रक्रियाएं पुन: प्रतिभाषित होने लगती हैं। क्या इस पुनर्भासन में केवल शुभ और राग के ही दर्शन होंगे? क्या इसमें खाप पंचायतों अथवा मध्ययुगीन सामंती व्यवस्था की झलक नहीं उभरेगी जो प्रेम को या तो येनकेन प्रकारेण दबा देती हैं अथवा जब इससे भी काम नहीं चलता तो प्रेमी युगल की हत्या करवा देती हैं? क्या इसमें उन लोगों के दर्शन नहीं होते जो प्रेम को सेक्स का पर्याय मानते हैं और इस इच्छा की पूर्ति के बाद प्रेमी का त्याग कर देते हैं? इन पुनर्भासन में शुभ और शुभ्र के साथ अशुभ और अशोभन के भी दर्शन होते हैं। इसके बावजूद प्रेम के उद्दात और धवल रूप को कवि कभी नहीं छोड़ता। यहां एक बात बहुत स्पष्ट है कि कवि को समाज की मौजूद प्रवृतियों में अपनी पक्षधरता साफ रखनी पड़ती है। इसके लिए समस्यात्मकता को स्वीकार कर संघर्ष की अपेक्षित योग्यता के साथ ही साथ ऐतिहासिक विवेक के साथ अपने पक्ष का चयन करना पड़ता है। ऐतिहासिक विवेक कहने का तात्पर्य यह कि परिस्थितियों के मकडज़ाल और संश्लिष्टता में सही और गलत का खाका सदैव साफ और स्पष्ट नहीं होता है। इन उलझी और संश्लिष्ट स्थितियों के बीच अपने पक्ष का चयन ऐतिहासिक विवेक के बिना संभव नहीं है। इस विवेक की परीक्षा भी व्यक्तियों को हमेशा देनी पड़ती है और इसका कोई फार्मूला भी नहीं है। उपर्युक्त पंक्तियों में लीलाधार जगूड़ी अपनी पक्षधरता साफ करते है और यह उनके कवि की सिद्धि ही कही जाएगी। संभवत: इसी कारण कवि कहता है कि 'कुछ प्रसिद्ध प्रेम याद रह जाते हैं/जिनमें से कई फिर से इस हिली हुई दुनिया को/जमाने में लगे दिखते हैं।' अर्थात् समाज को व्यवस्थित करने का कार्य प्रेम ही करता है। तब प्रेम और प्रेम के प्रकारांतर से कविता जीवन को योग्य बनाने की प्रस्तावना बनती है और गैरमानवीय परिस्थितियों के विरुद्ध खड़ी हो जाती है। फिर यह प्रेम सद्भाव, भाईचारे, बंधुत्व सबका पर्याय बनने लगता है -
''शादी-ब्याह वाले प्रेम से थोड़ी फुर्सत निकालकर
बर्फ किस तरह गलती है
नदी किस तरह बहती है
फूलों में क्या खिलता दिखता है आंखों को
फलों में क्या पकता है जीभ के लिए

फूल मुरझाते हैं, फल टपक पड़ते हैं
पके (पत्ते) झर जाते हैं, पेड़ उखड़ जाते हैं
प्रेमी मरते है, प्रेम नहीं मरता।''
प्रेम भाव है, भौतिक शरीर (प्रेमी) के नष्ट हो जाने पर भी भाव नहीं मरता। यह भावों की निरंतरता और सातत्यता को ही प्रदर्शित करता है, जो कि उदारता और मानवीयता आदि गुणों से सम्पुष्ट होता है। कवि कहता है कि प्रेम 'बिना दिए हिस्से नहीं आता।'
यहां ठहर कर यह विचारना होगा कि उदारता, उद्दात्तता, महानता जैसे तत्व जो आधुनिकता के साथ आए हैं, क्या इस भूमंडलीकृत पूंजीवादी और उत्तर आधुनिक व्यवस्था में जीवित रह गए हैं? कवि जब कहता है कि 'बहुत फैलाया जा रहा है कि प्रेम भी मर गया है/मतलब कि प्रेम भी कहीं अफवाह तो नहीं?' तब पहला प्रश्न उठता है कि यह अफवाह कौन फैला रहा है कि प्रेम मर गया है? निश्चित रूप से यह भूमंडलीकृत पूंजीवादी व्यवस्था ही फैला रही है, जो कि प्रत्येक भाव, विचार, मूल्य, तत्व, तथ्य को वस्तु में बदलकर उसे लाभकारी विनिमय के लिए इस्तेमाल करती है। यह डिस्कोर्स के रूप में पश्चिमी मुल्कों से आया है। वहां लगभग सभी के अंत की घोषणा की जा चुकी है - इतिहास का अंत, विचारधारा का अंत आदि-आदि। भारतीय समाजों में जहां अभी आधुनिकता के दर्शन ठीक से नहीं हो पाए हैं, उत्तर आधुनिकता के छिटपुट लक्षणों के सहारे पश्चिमी मूल्यों को प्रस्तावित करना किसी बड़े मूल्य का संकेत नहीं है। आधुनिकता तो दूर की बात है, भारत के अधिकांश हिस्सों में अभी सामंती जड़ता के अनगिनत अवशेष शेष हैं। इन सामंती अवशेषों का पूंजीवादी शक्तियों से गठजोड़ है। ये शक्तियां महानता, उदारता, उदात्तता के सारे संदर्भों को खारिज कर रही हैं। ऊपर कवि स्टेटमेंट देता है कि प्रेम 'बिना दिए कभी हिस्से नहीं आता' और फिर प्रश्न करता है कि 'मतलब कि प्रेम भी कहीं अफवाह तो नहीं?' तो यहां कवि की निष्ठा का ज्ञान तो होता ही है साथ ही इस प्रश्न के साथ प्रेम के विरोधी शक्तियों के प्रतिकार की आवश्यकता भी प्रस्तावित करता है। इसी कारण कवि कहता है -
''देखो, फूल नए का बीज होने को मुरझाते हैं
बीज खोते हैं दुबारा पैदा होने को
जितना हमने लड़ा उससे कहीं ज्यादा जीवन जड़ा है स्मृतियों में
मेरी तरह मोक्ष नहीं फिर से जन्म चाहती होओगी तुम''
पूरे उपभोक्तावादी मूल्यों के समानांतर विरोध और संघर्ष की कितनी गहरी ताकत इन पंक्तियों में है। फूल नए का बीज होने के लिए मुरझाता है। नए का बीज भविष्य की संभावनाशीलता का पर्याय है। क्या इस नयी संभावनाशीलता के एवज में बीज का कोई गुप्त लाभ होता है? खुद को नष्टकर क्या वह नि:स्वार्थ भाव से भविष्य की संभाव्यता को प्रस्तावित नहीं करता? क्या आज की भूमंडलीकृत पूंजीवादी व्यवस्था की डिक्शनरी में नि:स्वार्थ जैसे शब्द रह गए हैं? वह चैरिटी भी करता है तो इंकमटैक्स बचाने के लिए। कवि कहता है -
''शब्द और मौन के बीच में
होंठों की पंखुडिय़ों से इजहार के लिए कहा गया था
नाखून, दांत और हथियार मारने को नहीं कहा गया था

ऐसे बरतने के लिए कहा गया था
कि स्वार्थ भी निस्वार्थ लगने लगे
ऐसे करना था प्रेम के बराबर तुले रहें''
स्त्री-पुरुष की सीमा के बाहर निकलकर कवि का ध्यान बारम्बार बाजार और लाभ की ओर जाता है तो इसकी वजह समय का गहरा बोध है। कवि के अनुसार प्रेमी - 'प्रेम की बढ़ती जाती सशुल्क शैली को न समझते हुए/बाजार से ऐसे गुजरे/जैसे गर्मियों में बर्फ की भारी-भारी सिल्लयां/ढोने वाले गधे हैं।' बाजारवादी और उपभोक्तावादी दौर में इंसानों के संबंधों की परस्परता, सौहाद्र्र का स्थान उनके एक-दूसरे का इस्तेमाल कर लेने की प्रवृत्ति ने लिया है। यह सशुल्क शैली है। इसका बढऩा बदलती सामाजिक प्रक्रिया है। यह इस्तेमाल की शैली पहले भी रही होगी पर आज के बाजारवादी दौर में बढ़ गयी है। इसको न समझना मूर्खता भी हो सकती है क्योंकि अगर आप इस प्रवृत्ति को पहचानेंगे नहीं तो उसका विरोध भी नहीं कर सकते। परन्तु अगर सुख के श्रोत को पहचानता है तो युग को भी समझता है। तब इसे न समझना भी एक किस्म की मौकापरस्ती है और इसी कारण वह बाजारवादी प्रवृत्तियों को अनदेखा कर देता है। इसीलिए वह 'किसी बड़े मुनाफे के लिए' प्रेम का जीवन में नहीं, 'जीवन का प्रेम में निवेश' करता है। ये पंक्तियां युग धर्म के सामानांतर ही सार्थक होती हैं।
इन कविताओं में कवि व्यवस्था और प्रेम (प्रेम की शक्ल चाहे जो हो) के बीच आवाजाही करता है। वह कविता में अनेक ऐसे संदर्भ छोड़ता है जो इस आवाजाही को स्पष्ट रूप से प्रस्तावित करे। 'प्रेम में स्थानीयता' में कवि कहता है कि 'इस तरह सारे भूमंडलीकरण से निकलकर/बार-बार आना पड़ा मुझे अपनी स्थानीयता में।' विकास का जो मॉडल आज अपनाया गया है वह क्षेत्रवाद के संदर्भ में क्षेत्रीयता को तो बढ़ावा दे रहा है, स्थानीयता को नहीं। स्थानीयता शहरों के बाजारों में और अमीरों के ड्राइंग रूम में सुशोभित होती है, जीवन में उसको अपनाया नहीं जाता। भूमंडलीकरण के साथ विकसित हो रहे मॉडल में विकास के सारे अवसर शहरों तक सीमित हो गए हैं। ऐसे में व्यक्ति जीवन-यापन, जीवन की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए इस व्यवस्था के साथ हो लेता है। चूंकि इस संग्रह में संवेदनशील कवि उदारता, उद्दात्तता, मानवीयता के आदर्श गुणों का पूर्ण परित्याग नहीं कर पाता, इसीलिए स्थानीयता और उससे जुड़े मूल्यों का भी त्याग नहीं कर पाता। इससे जो दूसरी बात उभरती है, वह है विभिन्न सामाजिक और व्यक्तिगत मनोभाव व्यवस्था के गिर्द ही आकार पाते हैं। व्यवस्था और प्रेम की आवाजाही के कारण ही कवि प्रेम के अतिरिक्त अन्य विषयों और प्रवृत्तियों पर भी ध्यान दे पाता है। जब कवि सामाजिक प्रवृत्तियों पर बात करता है तो बात सीधे-सीधे नहीं करता, वह दृष्टांत या अन्योक्ति का सहारा लेता है-
''दुनिया की सारी चंचल लहरों से बनी नदी के संक्षिप्त शरीर-सी गिलहरी
पूंछ के अन्तिम बाल तक धुली-खिली, मुंह से दुम तक की
स्पन्दित लहरियों में गिन नहीं पा रहा मैं जिसकी एक भी लहर

स्थितप्रज्ञता की अन्तिम स्थिति में छोटी गिलहरी की चंवराई
चंचलता क्या याक की, घंटे जैसी लटकी ध्यानस्थ दुम बन सकती है?
जो अपनी पीठ पर बैठने वाली मक्खियों को वैसे ही उड़ा देती है
जैसे हम उसे चंवर बनाकर भगवानों पर डुलाते हैं
दुनिया के अनर्थों को उन तक न पहुंचने देने के लिए।''
अथवा
पतन से यदि कुछ सीखना हो तो
पानी और पत्ते के पतन से भी कुछ सीखो
* * *
''पानी का गिरना ही नहीं रमना और समाना भी देखो
उगना ही नहीं गिरना भी देखो पत्ते का
उड़-उड़कर धूल से लिपटना और गलना भी देखो
प्राणों से कैसे मिट्टी को प्राणवान बनाता है''
साफ है कि कवि की प्रवृति यहां भी उद्दात्ततावादी मानवीय मूल्यों के साथ ही है। समाज के साथ ही वह प्रेम के संदर्भ में भी ऐसे ही मनोभावों को अभिव्यक्त करता है-
''प्रेम खुद एक भोग है जो प्रेम करने वालों को
भोगता है
प्रेम खुद एक रोग है जिसमें प्रेम करने वाले
रहे हैं बीमार

थोड़ा भी बन्धनों से मुक्त करे वह मुश्किल प्रेम
कहीं दिखता नहीं
प्रेमीजन बचें किसी एकमुखी प्रेम में गिरफ्तार
होने से''
जब प्रेम बंधनों से युक्त होता है तो प्रेम भोग और रोग की तरह है परन्तु जो बंधनों से मुक्त करे वह व्यक्तित्व को विकसित करने वाला होता है। परन्तु इस प्रेम को कवि 'मुश्किल प्रेम' कहता है। ऐसा उन्हीं बाजारवादी स्थितियों के कारण है जिसका जिक्र कवि 'प्रेम की स्थानीयता' में करता है। ऐसी पंक्तियों में कवि में संदेश देने का भाव प्रत्यक्ष नजर आता है। यह संदेश देने की प्रवृत्ति काव्योत्कर्ष में बाधक है। इनके काव्य में जो बहुत ज्यादा सूक्तियां मिलती हैं, उसकी वजह यह प्रवृत्ति ही है।
भाव के धरातल पर कवि सम्पूर्णता की तलाश करता नजर आता है, परन्तु यह बात हम इनके काव्य शिल्प के संदर्भ में नहीं कह सकते। इनके शिल्प में फैलाव है, विस्तार है। सामान्यत: यह देखा गया है कि सम्पूर्णता की तलाश वाले कवियों का शिल्प संकेन्द्रित होता है। यहां यह अंतर्विरोध कैसे उत्पन्न हो रहा है? क्या यह आधुनिकतावादी और उत्तर आधुनिकतावादी स्थितियों के एक साथ पनपने का अंतर्विरोध नहीं है? उत्तर आधुनिक और भूमंडलीकृत पूंजीवादी विकास ने संचार, बाजार और मीडिया का अत्यंत विकास किया है। इस विकास ने जीवन में घटनात्मकता और विवरणात्मकता को बढ़ावा दिया है। कवि का शिल्प संभवत: इन्हीं का काव्यात्मक प्रस्फुरण हो।
लीलाधर जगूड़ी की कविताएं एक विचार अथवा एक भाव के कौंध से निर्मित प्रतीत होती हैं। वह आज की कविता का सामान्यीकृत पैटर्न है। शास्त्रीय शब्दावली में आज की कविता संचारी भाव की कविता कही जा सकती है। परन्तु प्रत्येक कवि का इन क्षणिक भावों के अथवा विचारों के प्रस्तुतीकरण का विधान अलग है। यह अलगाव केवल कला का प्रश्न नहीं है। कला उसका एक अंग मात्र है। इसमें कवि की विचारधारा और इस विचारधारा का मनुष्यों, समाज और उसके विभिन्न उपादानों तथा अपने समय के साथ कैसा संबंध है - इसकी महती भूमिका है। लीलाधर जगूड़ी के विधान की विशेषता यह है कि वे अपने विचारात्मक कौंध को अतिरिक्त आयास के साथ चराचर जगत के साथ जोड़ते हैं। यहभी उनकी सम्पूर्णता प्राप्त करने की प्रवृत्ति का ही परिणाम है। पूर्णता की यह तलाश केवल भाव तक सीमित नहीं है अपितु यह कविता में विवरण के स्तर पर भी है। इसीलिए कविता के चयनित विषय के इर्द-गिर्द कवि उनके संदर्भों की सर्जना करता है और अनेक टिप्पणियों की सहायता लेता है। इनकी सम्पूर्णता अपने आप, अपने भीतर नहीं उपजती। ऐसी प्रवृत्ति को लुकाच ने ठीक ही 'सेल्फ साइकिक सिस्टम' कहा है। यह सम्पूर्णता समाज और उसके विभिन्न अवयवों तथा विभिन्न प्राकृतिक अवस्थाओं से खुद को जोड़कर प्राप्त की गयी है। शिल्प के स्तर पर जो विवरणात्मकता है उसकी एक दूसरी वजह यह भी है। जगूड़ी जी विचार से विवरण के विस्तार में जाते हैं और फिर विचार में लौट जाते हैं। जहां इस पद्धति को नहीं अपनाया गया है वहां भी कविता का आधार विचार ही है। विचार को समाज, व्यक्ति अथवा समस्त चराचर जगत में विस्तार देने की आकांक्षा का लाभ यह है कि विचार को जीवन से जुड़ा हुआ दिखाया जा सकता है। जहां वह जुड़ पाता है वहां तो कविता सिद्ध हो जाती है परन्तु कहीं-कहीं विचार का फैलाव अतिरिक्त हो गया है। जहां ऐसा हुआ है वहीं कविता जटिल और दुरुह हुई है। इस अंतर को 'नए जूते' अथवा 'सरल नदी' की तुलना में 'प्रेम में' की जटिलता से समझा जा सकता है। यह जटिलता तब और बढ़ जाती है जब संदर्भों का क्षीप्र परिवर्तन होता है। इसके बावजूद इन विवरणों के बीच काव्य की कौंध सदैव मौजूद रहती है। इन विचारों के निर्माण में इतिहास और सामाजिक संबंधों की विशिष्ट भूमिका होती है। इसी कारण ये काल्पनिक नहीं हो जाते, ठोस स्थितियों के प्रस्तुतकर्ता होते हैं। यह जगूड़ी जी की कविताओं की अपनी विशेषता और संरचना है। इस संदर्भ में इनकी कविताओं में एक बात और रेखांकित की जा सकती है। इन कविताओं में जो विवरण है वह किसी नैरेटिव का हिस्सा नहीं है। 'पुरुषोत्तम की जनानी' जैसी कुछ कविताएं हैं जिसमें विवरण है वह किसी नैरेटिव का अंग होकर प्रत्यक्षीकृत हुए हैं। अन्यथा इनके यहां विवरण केन्द्रीय विचार को संपुष्ट करने के साधन हैं। इसी कारण इनकी कविता संवेदना से ज्यादा तार्किक आरोहण से निर्मित होती है।
कवि ने प्रतीकों का बहुत इस्तेमाल किया है। जब काव्य में प्रतीकों का इस्तेमाल होगा, काव्य में संदर्भ ग्राह्यता आ जाती है। ये संदर्भ ही कविता को सामयिक और अर्थगर्भी बनाते हैं। जब कवि कहता है कि 'इस शक्ल में कई रेगिस्तान हैं/सवारों सहित कई ऊंट मरे पड़े हैं' तो रेगिस्तान प्रतीक होने के कारण व्यापक अर्थ ग्रहण करता है। यह रेगिस्तान भूगोल का नहीं है - शक्ल का है। विचार की प्रधानता के बावजूद प्रतीकों के कारण ही इनकी कविता सपाट बयान होने से बच जाती है, ये संदर्भ ग्रहण करती हैं, अर्थ का विस्तार करती हैं।
इस संग्रह की भूमिका में कवि आलोचकों के समक्ष एक चुनौती भी रखता है - 'जीवन भाषा के नए अनुभव, नए औज़ार किसी आलोचक को इन कविताओं में तभी मिल सकता है जब वह शब्द सन्दर्भ की संवेदना के माध्यम से नए रास्ते बनाना जानता हो और किवाड़ों वाली परिकल्पना के नए दरवाजे खोलना भी।' यह चुनौती अपनी जगह है और कविता अपनी जगह। इसे कोई चाहे तो कवि का अहंकार भी कह सकता है अथवा अपनी कविता की उत्कृष्टता के प्रति अतिरिक्त आस्वश्ति। जबकि कवि विनम्र बने रहने का प्रयास भी भरपूर करता है - ''अपनी कविता के बारे में मैं क्या कहूं? कविता में ही सब कुछ कहने के चक्कर में मैं कविता को क्या बनाना चाह रहा हूं और कविता मुझे किस तरह बना रही है यह तो कोई दूसरा मर्मज्ञ ही बता सकता है।'' यह अंतर्विरोध आलोचना की स्थिति के कारण ही उभरता है जिसकी ओर मैंने शुरुआत में ही इशारा किया और उपर्युक्त चुनौती संभवत: इसी कारण है। एक बात और कि चुुनौती पाठकों को नहीं सिर्फ आलोचकों को दी गयी है। परन्तु इसका अर्थ यह कतई नहीं कि आलोचकों को इनकी कविता में अंतर्विरोध नहीं दिख सकता और वह उसका उल्लेख नहीं कर सकता। इनकी कविता शुद्ध गद्य की कविता है। गद्य की ताकत से लबरेज ये कविताएं विषय के धरातल पर विविधवर्णी हैं और यह कवि के विचारधारात्मक और संवेदनात्मक समृद्धि का पर्याय है, जो सुदीर्घ काव्य यात्रा का परिणाम है।

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