बाँचना तद्भव का दु:ख अर्थात् होना केदारनाथ सिंह

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    सितम्बर 2014
श्रेणी पाठ्यालोचन
संस्करण सितम्बर 2014
लेखक का नाम जितेन्द्र श्रीवास्तव











सन्त कवि
चलने से पहले का नमन स्वीकार हो
दिल्ली से आया हूँ
चाहूँ न चाहूं
जाना होगा दिल्ली ही
और दिल्ली आज की सीकरी है सन्तप्रवर
तब तो एक थी
अब एक के अन्दर एक
जाने कितनी सीकरियाँ हैं!
(कवि कुम्भनदास के प्रति, सृष्टि पर पहरा, पृष्ठ-16)

केदारनाथ सिंह समकालीन हिन्दी कविता के शिखर कवि हैं, इससे शायद ही किसी को इंकार हो। कविता/साहित्य की राजनीति करने वाले लोगों से निरपेक्ष, कुम्भनदास और कबीरदास जैसे संत कवियों के प्रति गहरी कृतज्ञता से भरे, ऐसी कविताएं लिखते हैं जिनमें हमारी भाषा और उस भाषा में जीवन जी रहे लोगों का स्वाभिमान और संघर्ष वाणी पाता है। उनकी कविताएं 'राजनीतिक कविता' होने का शोर नहीं राजनीति की लालिमा से वह रसायन तैयार होता है जो केदारनाथ सिंह की कविता की जीवद्रव्य बनता है। एक ऐसे कवि की कविता का जीवद्रव्य जो 'आप्तवचन' रचने के अहंकार का हर समय प्रतिवाद करता है और एक पुरखे के समक्ष अपना प्रश्न इस तरह रखता है -
जानता हूँ-समाधि से फूटकर
आता नहीं कोई उत्तर
फिर भी कविवर जाते-जाते पूछ लूँ
यह कैसी अनबन है-
कविता और सीकरी के बीच
कि सदियाँ गुजर गई
और दोनों में आज तक पटी ही नहीं!

और यह भी तय है, जब तक 'सीकरियाँ' सत्ता के दंभ और दमन-शोषण के आक्सीजन पर चलेंगी। यह पटरी बैठने वाली नहीं है। कविता सभी प्रकार की सीकरियों का सर्वाधिक पुरातन और स्थायी प्रतिपक्ष हैं। केदारनाथ सिंह की कविताएं पिछले साठ वर्षों से न सिर्फ इस मनुष्यधर्मी प्रतिपक्ष का निरंतर सृजन कर रही है बल्कि उसे शक्ति-सम्पन्न भी बनाती रही हैं।
केदार जी अस्सी पार के कवि हैं। अक्सर यह देखा गया है कि वय के इस मुकाम पर (जब कोई अनुभव के शिखर पर होता है फिर भी) कवि जाने-अनजाने दुहराव के शिकार होने लगते हैं। पाठकों-आलोचकों को महसूस होता है कि उस कवि के संसार में वे पहले भी कुछ उसी तरह की ध्वनियां सुन चुके हैं। लेकिन केदारसिंह के नए संग्रह 'सृष्टि पर पहरा' को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत नहीं होता। एक ऐसी उम्र जब थकान स्थायी भाव बन जाती है तब केदारनाथ सिंह का कवि उम्र के बोध के बावजूद सूर्य को अपना समकालीन बताता है। वह उसे अपने पहले प्रेम के प्रतिद्वन्द्वी की जगह रेखांकित करते हुए धीरे से यह भी कहता है -
मैं उसे इसलिए भी जानता हूँ
कि वह बह्मांड का
सबसे सम्पन्न सौदागर है
जो मेरी पृथ्वी के साथ
ताप और ऊर्जा की तिजारत करता है
ताकि उसका मोबाइल
होता रहे चार्ज।
कुछ बातों को कई कवि असाधारण चिल्लाहट के साथ कहते हैं, फिर भी बात अनसुनी रह जाती है। इसके समानान्तर केदार जी बहुत संयत ढंग से अपनी बात कहते  हैं और वह सुनने वाले/वालियों को अपनी बात लगने लगती है। वह 'स्व' के 'अन्य' में विलोपन से नि:सृत कला है जो कविता को अपेक्षित उष्मा से भर देती है।
दो
केदारनाथ सिंह की कविताओं में विद्रोह के कई रूप हैं। वे एक ऐसे कवि है जो 'वस्तु' और 'निष्प्राण' मान ली गई चीजों की चेतना को रेखांकित करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह 'अति साधारण' के प्रति निष्ठा का प्रमाण है। 'विद्रोह' शीर्षक कविता में बिस्तर अपने कपास में वापस जाना चाहता है। 'कुर्सी और मेज' संवेदनहीनता की इस अकाल बेला को इस तरह परिभाषित करते हैं-
आपको सहते-सहते
हमें बेतरह याद आ रहे हैं हमारे पेड़
और उनके भीतर का यह जिन्दा द्रव
जिसकी हत्या कर दी है आपने।

केदारसिंह की कविताएं उन चीजों और संवेदनाओं का पुनराविष्कार करती हैं जो हमारे जीवन में गहरे शामिल हैं लेकिन जिनको हम भूल गए हैं। वे 'कपास' के फूलों पर कविता लिखते हुए उन पक्षों पर विचार करते हैं, जिन पर किसी की दृष्टि लगभग जाती ही नहीं। कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं-
वे देवता तो पसन्द नहीं
लेकिन आश्चर्य इस पर नहीं
आश्चर्य तो ये हैं कि कविगण भी
लिखते नहीं कविता कपास के फूल पर
प्रेमीजन भेंट देते नहीं उसे
कभी एक-दूसरे को
जबकि यह है कि नंगा होने से
बचाता है सबको
और सुतर गया मौसम
तो भूख और प्यास से भी
बचाता है वह
ईश्वर को तो ठंड लगती नहीं
वैसे नंगा होना भी
वहाँ उतना ही सहज है
उतना ही दिव्य
इसलिए इतना तय है कि ठंड के विरुद्ध
आदमी ने ही खोजा होगा
पृथ्वी पर पहला कपास का फूल।

यह पूरी कविता साहचर्य, सौन्दर्यबोध और विस्मरण की नयी व्याख्या करने के साथ ही बहुत तेजी से अर्थहीन हो रहे एक शब्द 'कृतज्ञता' को अपने पाठकों की स्मृति की हिस्सा बनाती है। जो खो रहा है लेकिन जिसे हर हाल में बचना चाहिए, केदारनाथ सिंह की कविताएं अपनी पूरी सामथ्र्य से उसके साथ और उसके पक्ष में खड़ी हैं। वे पृथ्वी से उसके घर का पता पूछते हुए घास के पास जाते हैं, उसकी परेशानी को समझने की कोशिश करते हैं और अपने समय की सबसे जरूरी इबारत लिखते हैं -
कुछ सूचनाएँ हैं उसके पास
कुछ बातें जरूरी
जो वह बुदबुदाना चाहती है
तुम्हारे कान में
कभी भी...
कहीं से भी उग आने की
एक ज़िद है वह
दुनिया की सबसे खूबसूरत ज़िद
ताकि 'उगना' शब्द जिन्दा रहे तुम्हारे शब्दकोश में।

देखना चाहिए कि केदारनाथ सिंह किस प्रकार दूब जैसी मामूली घास को विद्रोह, स्वाभिमान और सृजन के एक बड़े प्रतीक में बदल देते हैं। यही वह दृष्टि है जो उन्हें विशेष और अग्रणी बनाती है। इन दिनों हमारे देश में जनतंत्र की जो स्थिति है, उसमें इन पंक्तियों के गहरे राजनीतिक आशयों को समझा जा सकता है-
कभी-कभी लगता है
और पिछले कुछ समय से
कुछ ज्यादा ही लगता है
कि आदमी के जनतंत्र में
घास के सवाल पर
होना चाहिए लम्बी एक अखंड बहस

पर जब तक वह न हो
शुरूआत के तौर पर मैं घोषित करता हूँ
कि अगले चुनाव में
मैं घास के पक्ष में
मतदान करूँगा

कोई चुने या न चुने
एक छोटी-सी पत्ती का बैनर उठाए हुए
वह तो हमेशा मैदान है।

वही एक सर्जक का प्रतिपक्ष है। कविता का श्लाध्य सौन्दर्य-बोध।
तीन
दुनिया में तीन तरह के कवि होते हैं। एक, जो उधार की सम्पदा पर अपने जन्मकाल से ही वैश्विक होते हैं। दो, जो सिर्फ स्थानीय होते हैं और उसी के साथ बीत जाते हैं। तीन, जो स्थानीयता के महत्व के साथ वैश्विक भाव-बोध से भरे होते हैं। इस तीसरे ढंग के कवि ही हर भाषा में पहली पंक्ति के कवि माने जाते हैं। हिन्दी में इस तीसरे ढंग की व्याख्या के लिए केदारनाथ सिंह की कविताएं विश्वसनीय आधार सामग्री का कार्य करती हैं। 'गीता-शैली' में लिखी उनकी कविता 'एक पुरबिहा का आत्मकथ्य' स्थानीय और वैश्विक भाव-बोध का सुन्दर उदाहरण है। यह कविता भारतीय होने (अन्य राष्ट्रवादी के अर्थ में नहीं) को भी सुन्दर ढंग से व्यंजित करती है। उसकी अंतिम पंक्तियाँ हैं-
इस समय यहाँ हूँ
पर ठीक इसी समय
बगदाद में जिस दल को
चीर गयी गोली
वहाँ भी हूँ
हर गिरा खून
अपने अँगोछे से पोंछता
मैं वही पुरबिहा हूँ
जहां भी हूँ।

इस पूरी कविता में सीधे-सीधे कहीं जिक्र नहीं आया है लेकिन इसे पढ़ते हुए  अहिंसा के महान प्रस्तोता महात्मा बुद्ध और मनुष्यता के अमर गायक कबीर जैसे विश्व-चेतस पुरबियों की स्मृति स्वाभाविक रूप से उभर जाती है। काव्य मर्मज्ञों से अलग से यह कहने की जरूरत नहीं पड़ती कि इस कविता का सर्जक बुद्ध और कबीर की धरती से आया है।
केदारनाथ सिंह की काव्य-कला का एक प्रमुख रूप तब देखने में आता है जब वे किसी साधारण सी बात से कविता शुरू करते हैं लेकिन उसे पूर्णता एक ऐसी सूक्ति में ले जाकर देते हैं जो पाठक के लिए न सिर्फ समकालीन होती है बल्कि अर्थ की बहुस्तरीयता उसे असाधारम उच्चता प्रदान करती है। 'विज्ञान और नींद' एक ऐसी ही कविता है।
एक कवि के पूरे जीवन में कुछ कविताएं ऐसी होती है जिसका महत्व उस कवि के लिए जितना होता है, उतना ही उस भाषा के लिए भी जिसमें वह कवि संभव हुआ होता है। केदार जी के लम्बे कवि-जीवन में ऐसी कई कविताएं हैं। इन्हीं में एक है- मंच और मंचान। कविता के आरंभ में एक छोटी-सी टिप्पणी है जो भिक्षु के बहाने यह कविता मनुष्य, मनुष्यता, घर और राजनीति की अंधेरी गलियों तक अथक और अथक आवाजाही सम्पन्न करती है। कह सकते हैं कि 'मंच और मंचान' कविता एक विशेष कालखण्ड का काव्यात्मक दस्तावेज है। कवि ने चीना बाबा का जो परिचय दिया है उसमें जितनी कविता है, उतनी ही जीवन की आभा -
पत्तों की तरह बोलते
और तने की तरह चुप
एक ठिंगने से चीनी भिक्खु थे वे
जिन्हें उस जनपद के लोग कहते थे
चीनी बाबा

कब आये थे वे रामाभार स्तूप पर
यह कोई नहीं जानता था
पर जानना जरूरी भी नहीं था
उनके लिए तो बस इतना ही बहुत था
कि वहां स्तूप पर खड़ा है
चिडिय़ों से जगर-मगर एक युवा बरगद
बरगद पर मचान है
और मचान पर रहते हैं वे
जाने कितने समय से।

आगे इस कविता में प्रधानमंत्री का जिक्र आया है। कविता की पंक्तियां हैं-
प्रधानमंत्री!
खिल गए लोग
जैसे कुछ मिल गया हो सुबह-सुबह
पर कैसी विडम्बना
कि वे जो लोग थे
सिर्फ नेहरू को जानते थे
प्रधानमंत्री को नहीं!

कहने की आवश्यकता है कि यहाँ नेहरू की स्मृति सिर्फ कविता की जरूरत नहीं है। आज हमारा लोकतंत्र जिन परिस्थितियों में है, उनमें नेहरू जैसे स्वप्नदर्शी की धर्मनिरपेक्ष अगुवा को याद करना उम्मीद के चिराग को जलाए रखना है। कविता में आगे नेहरू की उदासी का भी संदर्भ है। वह किसी प्रधानमंत्री की नहीं, एक ईमानदार राष्ट्र निर्माता की उदासी है। एक विकसित हो रहे नवजात राष्ट्र का मुखिया अपनी आँखों का सपना दिखा सकता था, दंभ से भरकर छप्पन इंच का सीना नहीं। नेहरू बनने के लिए धर्म के व्यापार की नहीं, आत्मा का पहरूआ होने की जरूरत है। बहरहाल, यह कविता कुशीनगर से दिल्ली और दिल्ली से बीजिंग होती हुई 'घर' के प्रश्न से टकराती है। एक वृक्ष को काटकर गिराए जाने पर यह सिर्फ एक बौद्ध भिक्षु की चिल्लाहट भर नहीं है -
'घर है... ये ...ये... मेरा घर है'

वह कविता मनुष्य को धर्म के ऊपर स्थापित करती हुई एक अस्थाई घर को भी किसी स्थायी स्तूप से अधिक महत्व देती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा' में एक प्रसंग है। बाणभट्ट, निऊनिया, भट्टिनी सब नाव से जा रहे हैं। अचानक बोझ से नाव डूबने की स्थिति आ जाती है। अब नदी में कौन कूदे? भट्ट रक्षक हैं, कूद नहीं सकते। भट्टिनी को कूदने के लिए कहा नहीं जा सकता। बचे निऊनिया और 'वाराह'। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने निऊनिया के जीवन को भगवान बाराह पर भारी पाया। भट्ट भगवान वाराह की मूर्ति को जल में प्रवाहित कर देते है और जाति व्यवस्था में निम्न मानी गई निऊनिया के जीवन को राजकुमारी भट्टिनी के समकक्ष स्थापित करते है। यह साहित्य का न्याय है। 'सुझाव' कविता में केदार जी लिखते हैं-
भारत का सृजन
अगर फिर से करना
तो जाति नामक रद्दी को
फेंक देना अपनी टेबुल के नीचे की
टोकरी में!

जाति रहित भारत का पुनर्सृजन डॉ. भीमराव अम्बेडकर का स्वप्न था। यह कितना सुखद है कि डॉ. अम्बेडकर का स्वप्न एक माक्र्सवादी कवि का स्वप्न बन गया है। मनुष्यधर्मी विचारों के बीच की ऐसी ही आवाजाही कवि-कर्म को महत्वपूर्ण और प्रासंगिक बनाती है।
अपनी एक अन्य कविता 'अगर इस बस्ती से गुजरो' में पितृसत्ता पर चोट करते हुए केदारनाथ सिंह कहते हैं-
थोड़ा आगे जाने पर
एक छोटा-सा जर्जर घर तुम्हें मिलेगा
कुछ समय पहले तक
उसमें एक बुढिय़ा रहती थी -
मर्दो की दुनिया से लड़ती-झगड़ती
एक निपट अकेली खुद्दार औरत

वह इस बस्ती की
सबसे दमदार आवाज थी

जरा सोचना इस पर
क्या यह सम्भव नहीं कि उस घर को
कर दिया जाय घोषित
एक राष्ट्रीय धरोहर।

जाहिर है, ये पंक्तियाँ सिर्फ संस्कृति समीक्षा का उद्यम नहीं करतीं बल्कि ये एक नई संस्कृति की प्रस्तावना भी तैयार करती हैं। इस संग्रह में कई ऐसे प्रसंग और पंक्तियां हैं जो जाति व्यवस्था और पितृसत्ता के समूह नाश का उद्घोष करती हैं।

चार
केदारनाथ सिंह अपने कवि जीवन के आरंभ से ही उम्मीद के कवि है लेकिन वे अपने समय की कुरूपता को ढकने की कोशिश नहीं करते। 'सृष्टि पर पहरा' कविता में एक सूखते वृक्ष पर बचे तीन-चार पत्ते यदि उन्हें रोकते और लुभाते है तो बबूल के नीचे एक मजदूर स्त्री का सौ रहा बच्चा भी उन्हें रोकता और व्यथित करता है। वे निहायत सादा दिखती 'पड़ोसी' कविता में अपने समय की विडम्बना को चीन्हते हुए पाठक को संवेदना का थर्मामीटर थमा देते हैं। ऐसा वही कवि कर सकता है, जिसकी कला सीझ गई हो। अधकचरा कवि ऐसी कविताओं में मुंह के बल गिरता है।
'पत्नी की अट्ठाइसवीं पुण्यतिथि पर' शीर्षक कविता इस संग्रह में एक अलग तरह की रचना है। यह कविता गहरे आत्मालोचन से नि:सृत है। अपनी पत्नी को याद करते हुए केदार जी लिखते हैं-'
पहले वह गई
फिर बारी-बारी चले गए
बहुत से दिन
और ढेर सारे पक्षी
और जाने कितनी भाषाएं
कितने जलस्रोत चले गए दुनिया से
जब वह गई।
फिर आगे केदार जी लिखते हैं-
एक दिन यह सोचकर
कि जो खाली है
शायद कुछ भर जाए
वाया कविता हो आया क्रेमलिन
देख आया-
लन्दन
पेरिस
और सात समुन्दर पार का
लिबर्टी स्टेच्यू...
यानी एक बूढ़ी चिडिय़ा की
चूँ...चूँ...चूँ...चूँ...

और जो खाली था
होता रहा खाली और खाली।

कुछ रिक्तियों को यात्राएं, पद, पुरस्कार-सब मिलकर भी नहीं भर पाते। यही मनुष्य होने की निशानी भी है। अपनी एक छोटी-सी कविता 'आँसू का वजन' में केदार जी जो कहते है उसे इस कविता के साथ मिलाकर पढऩा चाहिए। 'आँसू का वजन' की पंक्तियाँ है-
कितनी लाख चीखों
कितने करोड़ विलापों-चीत्कारों के बाद
किसी आँख से टपकी
एक बूँद को नाम मिला-
आँसू

कौन बताएगा
बूँद से आँसू
कितना भारी है!
पाँच
चुप्पी लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा है। हम एक ऐसे समय में हैं जब चुप्पी धीरे-धीरे एक धर्मनिरपेक्ष आचरण में बदलती जा रही है। जिधर देखिए लोग अपनी-अपनी चुप्पी में अपना भला ढूँढ रहे हैं। यह एक ऐसी समस्या है जिसे अलग-अलग कवि अलग-अलग दृष्टि से देखते और अभिव्यक्त करते हैं। केदारनाथ सिंह इसे बिल्कुल जुदा लेकिन बेहद प्रभावी ढंग से कविता में लाते हैं। 'चुप्पियाँ' शीर्षक कविता में जब इन पक्तियों के साथ वे आते हैं, तब पाठक के भीतर कुछ टूटता है-
चुप्पियाँ बढ़ती जा रही हैं
उन सारी जगहों पर
जहाँ बोलना जरूरी था
बढ़ती जा रही हैं वे
जैसे बढ़ते हैं बाल
जैसे बढ़ते हैं नाखून
और आश्चर्य कि किसी को वह गड़ता नहीं।

'एक चुप्पी' एक व्यक्ति या परिवार को खाती है लेकिन 'चुप्पियाँ' अन्तत: एक राष्ट्र को गूंगा कर देती हैं। केदारजी की यह कविता बिना अतिरिक्त बोले हुए चुप्पियों के विरुद्ध आवाज उठाती है। एक बड़ा कवि (उस्ताद कवि) सिर्फ कविता नहीं लिखता, वह अपने बाद आने वाले कवियों के लिए सबक भी तैयार करता है। कहने की जरूरत नहीं कि केदारनाथ सिंह की कविताएं कविता भी हैं और कविता की पाठशाला भी। 'सृष्टि पर पहरा' में एक कविता 'कवि देवेन्द्र कुमार' शीर्षक से है। यह कविता केदार जी के समकालीन और अभिन्न मित्र देवेन्द्र कुमार (बंगाली जी) के बारे में है। वे मूलत: दलित समाज से थे। उनकी कविताओं में ऐसे प्रसंग और संकेत भरे पड़े हैं जो तथाकथित सवर्ण समाज में जनमे कवियों के वहां संभव ही नहीं हो सकते। मार्मिक पंक्तियों और स्मृतियों से भरी यह कविता एक साथ श्रद्धांजलि, भावांजलि और काव्यांजलि है। इस कविता की ये पंक्तियाँ शब्दों में समाए अर्थ से कुछ अधिक कहती हैं-
चलते थे सड़क पर
तो इतने अनन्य साधारण
कि अँट नहीं सकते थे
किसी महाकाव्य में
पर मिल सकते थे आपको
किसी भी मोड़ पर

यद्यपि उनको गए
काफी दिन हुए
पर चौंकिएगा मत
अगर किसी दिन सहसा
उन-सा कोई दिख जाय
किसी जातक-कथा में।
छ:
केदारनाथ सिंह की कविताओं में संघर्षशील जीवन के अनेक चित्र हैं। वे बगुलों पर लिखते हुए मजदूरों के जीवन में प्रवेश करते हैं। यह रेखांकित करते हैं कि मजदूरी में भी स्त्री-पुरुष का भेद कितना गहरा है। शाम को थके-हारे लौट रहे बगुलों के झुण्ड को देखकर उन्हें 'खेत मजूर' याद आते हैं। उनकी संवेदना इसी तरह अपना विस्तार रचती है।
इस संग्रह में संकलित 'कंधे की मृत्यु' शीर्षक कविता महज इस संग्रह की नहीं, हिन्दी कविता की एक उपलब्धि है। मेरी अधिकतम जानकारी में एक 'हलवाहे' के औदात्य पर लिखी गई यह हिन्दी की अकेली कविता है। यह कविता उस व्यवस्था पर प्रश्न उछाती है जिसमें खेत का 'मालिक' कोई और होता है और उसमें अन्न उपजाने वाला, उसे अपने पसीने से सींचने वाला महज नौकर होता है- एक हलवाहा। इस कविता के 'लालमोहर' 'एक' होते हुए भी मात्र 'एक' नहीं हैं। वे इस देश के करोड़ों खेतिहर मजदूरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। धरती को ऊर्वर बनाने वाले, अन्न उपजाने वाले अन्नदाता लालमोहर का घर आप भी देखिए-
घर तो क्या था
पर दूसरा कोई शब्द है नहीं मेरी भाषा में
इसलिए 'घर' ही कहूँगा।

और इसी घर में गहरी मूच्र्छा में लेटे हुए हैं धीरोदत्त नायक लालमोहर, जिनके बारे में सब जानते हैं-
एक बार जब भरे आषाढ़ में
वे चला रहे थे हल
और आधी से ज्यादा हो चुकी थी बोआई
तो अचानक ऐसा हुआ
कि धसककर बैठ गया बायाँ बैल
'असगुन है ये' - वे बुदबुदाए
फिर बाएँ को प्यार से पुचकारा
जुए को हटाया उसके कंधे से
और उसके नीचे रख दिया अपना कंधा
अब बाएँ आदमी
दाहिने बैल
कहते हैं-उस बरस
ऐसी फसल हुई
जैसी कभी नहीं हुई थी।

लेकिन सब जानते हैं, इसके बदले लालमोहर को कुछ नहीं मिला होगा। तय है, इसके बाद भी उनका परिवार कभी आधे पेट और कभी भूखे पेट ही सोया होगा। केदार जी ने इस अमानवीय और शोषण पर आधारित असमान व्यवस्था को रेखांकित करते हुए लिखा है-
-तो अब ये वही कंधे थे
वही लालमोहर-
जो बरसों तक किसी और के खेत में
हल चलाने के बाद
इस समय सो रहे थे गहरी मूच्र्छा में
अपनी ही खाल की खरहरी खटिया पर
इस तरह-जैसे मरना भी कोई दिया गया काम हो जरूरी
जिसे पूरी जिम्मेदारी से पूरा ही करना था साँझ होते-होते।

एक ऐसा जीवन जिसमें अपने श्रम पर अपना अधिकार न हो, मरते हुए भी देखकर ऐसा लगे जैसे यह किसी और का दिया काम है, मनुष्य जीवन की इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी! केदारनाथ सिंह की यह कविता इस विडम्बना को जिस आवरणरहित ढंग से सामने रखती है, उसे देख-पढ़कर आत्मा का मुंह खुला रह जाता है। पूरी कविता में एक शब्द भी अतिरिक्त नहीं है। कह सकते हैं, यह कविता हमारी संवेदना की बुनावट पर प्रहार करते हुए एक ऐसा आईना सामने रख देती है, जिसमें हमारे सभी सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक छद्म मुँह छिपाते दिख जाते है।
सात
एक कवि और चिंतक के रूप में केदारनाथ सिंह मातृभाषाओं के पक्षधर हैं। वे अपनी कविताओं में भाषिक साम्राज्यवाद का प्रतिकार करते हैं। 'भोजपुरी' पर लिखी उनकी कविताओं को इसी दृष्टि से देखना चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि आर्थिक साम्राज्यवाद और भाषिक साम्राज्यवाद एकदूसरे के प्रबल पक्षधर और सहयोगी हैं। पूरी दुनिया में यदि आर्थिक साम्राज्यवाद के साथ-साथ भाषिक साम्राज्यवाद को सफलता मिल जाएगी तो तय है कि एक बड़ी आबादी मुँह में जुबान के बावजूद गूंगी हो जाएगी। माँ के अंतिम संस्कार के बाद गंगा से निवेदन में कही गई इन पंक्तियों में जो है, वह मात्र अपनी माँ के प्रति व्यक्त की गई चिन्ता नहीं है बल्कि आने वाले एक बड़े खतरे का संकेतक है-
मैंने भागीरथी से कहा -
मां,
माँ का ख्याल रखना
उसे सिर्फ भोजपुरी आती है।

इस संग्रह में 'भोजपुरी' शीर्षक से एक स्वतंत्र कविता ही है। एक और कविता 'देश और घर' शीर्षक से है जिसमें दो भाषाओं में सामानान्तर जीवन जीने के सुख और द्वन्द्व का प्रभावी अंकन है। 'देवनागरी' शीर्षक कविता में भाषा सिद्धांतों को धता बताते हुए जो जीवन राग विन्यस्त है, वह केदारनाथ सिंह की असल पहचान है। ऐसा जीवन राग गहरी सामाजिक संलग्नता की कोख से पैदा होता है। ऐसा कम कविताओं के साथ होता है कि उसकी प्रत्येक पंक्ति आपको अंकवार देती चले। इस कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए -
'न' एक स्थायी प्रतिरोध है
हर अन्याय का।

या इन पंक्तियों को देखिए-
'स' के संगीत में
संभव है एक हल्की-सी सिसकी
सुनाई पड़े तुम्हें
हो सकता है एक खड़ीपाई के नीचे
किसी लिखते हुए हाथ की
तकलीफ दबी हो

कभी देखना ध्यान से
किसी अक्षर में झाँककर
वहाँ रोशनाई के तल में
एक ज़रा-सी रोशनी
तुम्हें हमेशा दिखाई पड़ेगी

यह मेरे लोगों का उल्लास है
जो ढल गया है मात्राओं में
अनुस्वार में उतर आया है
कोई कंठावरोध

पर कौन कह सकता है
इसके अन्तिम वर्ण 'ह' में
कितनी हँसी है
कितना हाहाकार!

केदार जी का लेखन बताता है कि वे भारतीय भाषाओं के बीच आवाजाही के समर्थक हैं। वे हिन्दी को प्यार करते हैं लेकिन साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति गहरा अनुराग रखते हैं। इस संग्रह में 'हिन्दी' शीर्षक से एक कविता है जो मलयालय के प्रसिद्ध कवि के. सच्चिदानन्दन को समर्पित है। यह समर्पण अपने आप में एक पूरा विचार है। 'अन्य' के प्रति आदर का सूचक है। यह कविता 'राजभाषा' के सरकारी खेल से पर्दा उठाती है। इसमें एक अनन्य हिन्दी प्रेमी (जो हिन्दी का बड़ा कवि भी है) लगभग आर्तनाद करते हुए कहता है-
मेरा अनुरोध है
भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध
कि राज नहीं-भाषा
भाषा-भाषा सिर्फ भाषा रहने दो मेरी भाषा को
इसमें भरा है पास-पड़ोस
और दूर-दराज की इतनी ध्वनियों का
बूँद-बूँद अर्क
कि मैं जब भी उसे बोलता हूँ
तो जैसे कहीं गहरे
अरबी-तुर्की बांग्ला तेलुगू
यहां तक कि एक पत्ती के हिलने की आवाज़ भी
मैं सब बोलता हूँ ज़रा-ज़रा
जब बोलता हूँ हिन्दी

और जब भी बोलता हूँ
यही लगता है-
सारे व्याकरण में
एक कारक की बेचैनी हूँ
एक तद्भव का दुख
तत्सम के पड़ोस में।

कहना होगा, केदारनाथ सिंह की भाषा संबंधी सभी कविताएं सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का तीक्ष्ण प्रतिवाद करते हुए भाषिक लोकतंत्र का परिवेश सृजित करती है।
आठ
केदार जी के लेखन का आरंभ गीतों से हुआ था। यह अकारण नहीं है कि उनकी कविताएं कविता की शर्त पर 'कविता' हैं। उन्हें बलात् कविता सिद्ध करने की जरूरत नहीं पड़ती। उनकी कविताओं में गहरा अनुशासन विन्यस्त होता है लेकिन उनमें रूप और अन्तर्वस्तु को अलगाकर देखना असंभव है। केदार जी में रूप का आग्रह है लेकिन अपनी पूर्णता में वे अन्तर्वस्तु के सौन्दर्य के कवि हैं। उनमें उनकी कविताओं से गुजरते हुए सि$र्फ विषय का चयन नहीं, शब्दों का चयन और भाषिक विन्यास भी देखना चाहिए। उनकी 'बाजार में आदिवासी' कविता हो या कैलाशपति निषाद, शुभनारायण शर्मा और निजामुद्दीन जैसे इस महादेश के साधारण लोगों को समर्पित 'जहाँ से अनहद शुरू होता है' शीर्षक कविता हो, उनकी असंदिग्ध प्रतिबद्धता अपने पाठकों का स्वागत करती मिलती है। उनकी कविताओं में महाकवि निराला की आवाज का स्मरण है तो 'आदमी और पशु के बीच पुल बने हीरा भाई' का भी स्मरण है, जिन्हें कोई नहीं जानता। यह याद रखने की बात है कि केदारनाथ सिंह मूलत: उन लोगों के कवि हैं जो दुनिया बनाते हैं लेकिन जिन्हें यह दुनिया न जानती है, न जानना चाहती है। इस अर्थ में वे महात्मा गांधी के 'आखिरी आदमी' और डॉक्टर अम्बेडकर के सपनों के कवि हैं। वे 'एक ठेठ किसान के सुख' को काव्य-विषय बनाते हैं और उदारीकरण के इस दौर में जब स्त्री को महज एक वस्तु में बदलने की हर संभव कोशिश की जा रही है तब कृतज्ञता का आदिम राग सुनाते हैं-
किसी को प्यार करना
तो चाहे चले जाना सात समुंदर पार
पर भूलना मत
कि तुम्हारी देह ने एक देह का
नमक खाया है।

इस संग्रह में कई कविताएं छन्द में हैं और आखिरी कविता में जीवन का छन्द है। अमरता की पारम्परिक समझ और धारणा का प्रत्याख्यान करते हुए साधारण के औदात्य का गीत सुनाने वाला यह कवि धीरे से कहता है-
जाऊँगा कहाँ
रहूँगा यहीं

किसी किवाड़ पर
हाथ के निशान की तरह
पड़ा रहूँगा

किसी पुराने ताखे
या संदूक की गंध में
छिपा रहूँगा मैं

दबा रहूँगा किसी रजिस्टर में
अपने स्थायी पते के
अक्षरों के नीचे
या बन सका
तो ऊँची ढलानों पर
नमक ढोते खच्चरों की
घंटी बन जाऊँगा
या फिर माँझी के पुल की
कोई कील
जाऊँगा कहाँ
देखना
रहेगा सब जस का दस
सिर्फ मेरी दिनचर्या बदल जाएगी
साँझ को जब लौटेंगे पक्षी
लौट आऊँगा मैं भी
सुबह जब उड़ेंगे
उड़ जाऊँगा उनके संग-

कहना होगा, 'सृष्टि पर पहरा' हमारे समय की हिन्दी कविता का प्रतिनिधि चेहरा है।

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