भूत जो कुछ चाहते थे वह पूरा हो चुका था..

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    सितम्बर 2014
श्रेणी विभाजन की त्रासदी
संस्करण सितम्बर 2014
लेखक का नाम प्रियम अंकित





विभाजन की त्रासदी/अगली बार शानी




हम लोग खैरियत से पहुंच गये हैं। नयी जगह है। नया माहौल है। नये सिरे से जमने का मसला है। इसमें कुछ वक्त तो लगेगा ही। लेकिन दिल को यहां बहुत सुकून है। दंगे फसाद का कोई खौफ नहीं। किसी गैर की गुलामी नहीं है। जो कुछ है, सब अपना है, मुसलमानों का है। बंगाली मुसलमानों का रहन-सहन और तौर-तरीके हम लोगों जैसे नहीं हैं। इन पर हिंदुओं का बहुत असर है। नमाज़-रोज़े के पाबंद ज़रूर हैं। पहचानना मुश्किल हो जाता है कि कौन हिंदू है और कौन मुसलमान है। उर्दू ये बिल्कुल नहीं जानते। कल्चर के लिहाज से, इन्हें हिंदू कहना ज़्यादा सही होगा। हिंदुओं के दबाव ने इन्हें इस्लामी तहज़ीब से बिल्कुल अलग कर दिया है। खैर, अब गैर-बंगाली मुसलमानों के आ जाने की वजह से इनकी हालत भी सुधर जायेगी।
- छाको की वापसी

बदीउज़्ज़मा का उपन्यास छाको की वापसी, कई स्तरों पर, पाकिस्तान बनने के पहले और बाद में, मुस्लिम समाज के निम्नमध्यम वर्ग में, साम्प्रदायिक तंगनज़री द्वारा निर्मित विभाजन के रुमानी ख्वाबों की निरर्थकता को अभिव्यक्त करता है। पूरे उपन्यास में 'एब्सर्डिटी' या 'निरर्थकता' का बोध हावी है। ऐसा नहीं है कि यह निरर्थकता विभाजन के कारण है। मुसलमानों के बीच प्रबोधन की जो परंपरा सर सैय्यद अहमद खान से शुरू हुई, वह आखिर तक मुस्लिम अभिजातवर्ग और उच्चमध्यवर्ग तक ही सीमित रही। मुस्लिम लीग का 'द्व्विराष्ट्र सिद्धांत' भी मुस्लिम अभिजातवर्ग के हितों द्वारा ही अनुशासित था। अत: 'प्रबोधन' और 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' मुस्लिम जनसंख्या के बड़े हिस्से, यानि निम्न-मध्यवर्ग और निम्न वर्ग, के लिए ऐसे रुमानी ख्वाब की तरह रहे, जिन्हें हर कदम पर ज़मीनी सच्चाईयों से टकराकर चकनाचूर होना था। बदीउज़्ज़मा का यह उपन्यास मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज के ठहरे हुए जीवन में विभाजन के विक्षोभ द्वारा उत्पन्न हलचलों, इन हलचलों द्वारा लाये गये परिवर्तनों को दर्ज़ करता है। मगर इस तरह कि, इन परिवर्तनों की सतह दिखने वाली गति अंतत: भ्रम साबित होती है। जो हाथ आता है, वह है चिर-परिचित ठहराव, और परिवर्तन की निरर्थकता।
इयान स्टीफेंस ने अपनी पुस्तक पाकिस्तान में यह ध्यान दिलाया है कि विभाजन की हिंसा में भारतीय उपमहाद्वीप में हलाक हुए लोगों की संख्या की तुलना द्वितीय विश्व-युद्ध में संपूर्ण ब्रिटिश कॉमनवेल्थ में मारे गये लोगों की संख्या में की जा सकती है। विभाजन बीसवीं सदी के भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास का सबसे क्रूर, हिंसक और त्रासद यथार्थ था। लेकिन यथार्थ को अंजाम दिया सांप्रदायिक घृणा और विद्वेष के रूमानी ज्वार ने। छाकों की वापसी घृणा और नफरत के ज्वार से उपजे यथार्थ को यों दर्ज़ करता है, ''बहुत थोड़े से लोग थे जो कह रहे थे कि यह सब गलत हो रहा है। लेकिन उनकी कोई सुनता नहीं था। सबके सिरों पर जैसे भूत सवार हो गये थे और सब भूतों की जबान में ही बोल रहे थे। लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद एकाएक भूत जैसे उन्हें छोड़कर अलग हो गये थे। भूत जो कुछ चाहते थे वह पूरा हो चुका था और उन्हें, इन लोगों की अब कोई ज़रूरत नहीं थी।''
छाकों की वापसी में जो मुस्लिम समाज है, वह देश के उस सीमावर्ती भाग का हिस्सा नहीं है, जहां विभाजन की हिंसा का खूनी खेल सीधे-सीधे खेला गया था। यह गया शहर की मुस्लिम आबादी की दास्तां है जिसने सांप्रदायिक उन्माद के ज़हर और बंटवारे की हिंसा के खूनी छींटों को बड़ी शिद्दत से महसूस किया था। पाकिस्तान के स्वप्न को एक जुनून की तरह हाथों हाथ लिया गया था। देश के जो आम मुस्लिम जन सांप्रदायिकता के उन्माद में शरीक थे, वे इससे अंजान थे कि बंटवारा अपने साथ विस्थापन लायेगा, अपने पुरखों की ज़मीन-जायदाद छोड़कर दर-बदर होना पड़ेगा। यह विस्थापन संशय और अविश्वास के माहौल के बीच उन्हीं के गले की हड्डी बन जायेगा - ''पाकिस्तान तो बन गया, अब क्या करें? यह सवाल हर दिमाग में उभरता था लेकिन किसी के पास भी इसका माकूल जबाव नहीं था। कोई कहता, पाकिस्तान चले जाना चाहिये लेकिन घर बार छोड़कर नयी जगह जायें तो कैसे जायें? जाने कैसे लोग हों, कैसी आबोहवा हो, कैसी ज़बान हो, कैसी तहजीब हो? कोई कहता, हिंदुस्तान में ही रहना चाहिये। हमारा मकसद पाकिस्तान बनवाना था। वह पूरा हो गया। मुसलमानों को एक मुल्क मिल गया। हमारे लिये यही बड़ी बात है। हमारा वहां जाना क्या ज़रूरी है? लेकिन दूसरे ही क्षण उनका दिल आने वाले खतरों के खौफ से भर जाता। हिंदुस्तान में जान-माल की हिफाज़त हो भी सकेगी या नहीं?''
पाकिस्तान को मुसलमानों के लिये एक जन्नत के रूप में परिकल्पित किया गया था। यहां उन जन्नत की हकीकत नमूदार होती है। मज़हबी बुनियाद पर मिलने वाली मुक्ति का रूमान तार-तार होता है।
पाकिस्तान नयी जन्मी एक भौगोलिक इकाई मात्र नहीं था। इसे एक राष्ट्र के रूप में कल्पित किया गया था - मुस्लिम राष्ट्र के रूप में। हर भौगोलिक इकाई को वैधता मिलती है राष्ट्रवाद की सिद्धांतबद्ध प्रेरणाओं द्वारा। ये राष्ट्रवादी प्रेरणायें अपने बरक्स किसी विदेशी और अपने से विषमांगी 'अन्य' को गढ़ती हैं। इस 'अन्य' के प्रति असहिष्णुता जितनी अधिक होगी, राष्ट्रवादी प्रेरणायें उतनी ही पुष्ट होंगी। पाक्सितान के संदर्भ में यह 'अन्य' हिंदू था। बदीउज़्ज़मा पूरी साफगोयी से इसे स्पष्ट करते हैं कि पाकिस्तान बनने के बाद हिंदू-मुस्लिम विद्वेष का अंत नहीं होना था, बल्कि एक राष्ट्र के रूप में हिंदुस्तान और पाकिस्तान का अस्तित्व ही इस द्वेष के तीव्र होने, खिंचने और गहराने पर ही निर्भर था। तब से लेकर आज तक यह विद्वेष लगातार बढ़ा है। सैंतालीस के बाद भारत और पाकिस्तान की राजनीति में उग्र राष्ट्रवादी फासीवादी हस्तक्षेप लगातार बढ़ा है। आज़ादी के पैंसठ साल बाद भी विभाजन अब भी बदस्तूर ज़ारी है। भारत में रहने वाले मुसलमानों में खौफ भरा जा रहा था हिंदुओं के प्रति। मगर इस खौफ की असली वजह थी एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान का निर्माण, जिसने भारत में रूके मुसलमानों के मन में असुरक्षा का बोध उत्पन्न कर दिया था - ''हबीब भाई को हाल ही में रेलवे की नौकरी मिली थी। बनारस में रेलवे ट्रैफिक अकाउंट्स में काम करते थे। छोटे अब्बा रोज़ अपना फैसला बदल रहे थे। छोटी अम्मा का असर जब हावी हो जाता तो वह हिंदुस्तान में ही रहने की ठान लेते। लेकिन आफिस के बहुत से मुसलमान साथी, जब हिंदुस्तान में मुसलमानों को पेश आने वाली मुसीबतों का बड़ा ही खौफनाक और डरावना नक्शा खींचते तो छोटी अम्मा का असर भाप की तरह उड़ जाता।''
छोटी अम्मा की तरह बहुत से लोग थे, जो सांप्रदायिक उन्माद के ज्वार से अछूते तो नहीं थे, मगर उसके असर से इतना प्रभावित भी नहीं थे कि इस ज्वार का हिस्सा बन सकते। मुस्लिम निम्नमध्यवर्ग में से कई लोग पाकिस्तान जा चुके थे, लेकिन, ''जुलाहे, दर्ज़ी, राज मज़दूर, कसाई और इस तरह के निचले तबके, वे दूसरे लोग मुहल्ले में वैसे ही मौजूद थे, जैसे पहले थे। इतनी तादाद बढ़ी ही थी, घटी नहीं थी।'' छाको इन्हीं में से एक है। वह मुस्लिम निम्न वर्गीय परिवार से है और पेशे से दर्ज़ी है। कपड़े सिलना उसका खानदारी पेशा है, लेकिन अपने अब्बा से उसकी नहीं बनती। वह देश के अलग-अलग शहरों में कुछ-कुछ दिन ठहर कर दर्ज़ी की दुकानों में काम करके जो कुछ भी कमाता है, उसमें से वह अपनी बेवा बहन जनवा को कुछ भेजता रहता है।
मुस्लिम लीग के 'पाकिस्तान' का जो अभिजातवर्गीय मिजाज था, वह सीमावर्ती क्षेत्रों में मुस्लिम निम्न वर्ग पर कहर बनकर टूटा, उसे ज़बरदस्ती वतनबदर होना पड़ा। लेकिन दूसरी तरफ, अन्य हिस्सों में यह 'पाकिस्तान' निम्नवर्गीय मुसलमानों को अपने से जोड़ नहीं पाया। देश के वह हिस्से जो विभाजन के नाटक में सीधे-सीधे शरीक नहीं थे, वहीं इससे प्रभावित होने वाली जो मुस्लिम जनसंख्या थी, उसमें उच्च और मध्यमवर्ग के लोगों की संख्या ही अधिक थी। उपन्यास इसकी तस्दीक यों करता है - ''जानेवालों में तकरीबन सब के सब पढ़े-लिखे नौकरी-पेशा लोग थे या फिर वे लोग थे जिनके पास काफी रूपया-पैसा था। हमारे मुहल्ले के हाजी अब्दुल करीम पाकिस्तान बनने के तुरंत बाद ही ढाका चले गये थे और सुनते हैं कि वहां उनका लाखों का कारोबार है। वैसे हिंदुस्तान में भी उन्होंने कुछ कम तरक्की नहीं की थी।'' इसलिये छाको के खत का पाकिस्तान से आना और यह पता चलना कि वह वहीं पहुंच गया है, 'अजीब-सा' लगता है - ''जैसे कोई ऐसी घटना घटी हो, जिसकी उमीद न हो।''
उपन्यास इसका विश्वसनीय साक्ष्य देता है कि विभाजन दरअसल भूगोल से लेकर मानव-संस्कृति के अनेकानेक स्तरों पर चलने वाली प्रक्रिया है। मुहल्ले और फल्गू नदी के घाट का बंटवारा भयानक सच्चाई है। मुहल्ले और नदी के घाट, सहिष्णुता की मानवीय सांस्कृतिक विरासत पर आधारित सामूहिकता हो, साकार करते हैं - ''ख्वाज़ा खिजर की फातिहा सिर्फ मुसलमान ही नहीं दिलाते थे। हिंदू मल्लाह और हिंदू धोबी भी यह फातिहा कराते थे। वे भी फल्गू नदी में ख्वाजा खिजर के बेड़े बहाया करते थे।'' फिर भी मोहल्ला दो अलग-अलग हिस्सों में बंट गया, फल्गू नदी के भी दो घाट बन गये - एक हिंदुओं का और दूसरा मुसलमानों का। मोहल्लों और नदी-घाटों के बंटवारे से शुरू हुआ यह सिलसिला देश के बंटवारे तक चला, और आज भी चल रहा है - बाबरी विध्वंस और गोधरा दंगों में।
छाको की वापसी मानव जीवन में धर्म की अहमियत के रूमान को भी ध्वस्त करता है। उपन्यास यह सवाल उठाता है की धर्म की रचनात्मक भूमिका का सदियों पुराना बखान क्या आज के संदर्भों में सही साबित हो रहा है? यदि धर्म की रचनात्मक भूमिका आज  के संदर्भों में वास्तव में प्रासंगिक होती तो क्या विभाजन अपने खूनी नरसंहार के साथ अस्तित्व में आ पाता? कौन हैं भारतीय उपमहाद्वीप के वे मुसलमान जिनके लिये पाकिस्तान बना? क्या उनके और हिंदुओं के पुरखे एक नहीं थे? क्या मज़हब बदल जाने से इंसानी रिश्ते खत्म हो जाते हैं। उपन्यास चेतना-प्रवाह शैली में इन प्रश्नों को संबोधित करता है। ढल्लनसिंह का चरित्र, जिसने मुस्लिम स्त्री निजयनी से प्रेम में पड़कर इस्लाम धर्म कबूल कर लिया था, वाचक के इन्हीं प्रश्नों के बीच आकार लेता है - ''कभी-कभी उस स्थिति की कल्पना मुझे खासी दिलचस्प लगती है, जब कुछ लोगों ने अपना मजहब छोड़कर, दूसरा मजहब अपना लिया होगा। इनकी बिरादरी के बहुत सारे लोग,अपने पुराने धर्म को ही मानते रहे होंगे। नये मुसलमान, जो अब उनके सहधर्मी नहीं थे, उनसे किस तरह मिलते जुलते होंगे? क्या ये अपनी बिरादरी से बिल्कुल कट गये होंगे या उनसे संपर्क बना रहा होगा? शायद इनका संपर्क तो बना रहा होगा लेकिन दोनों के बीच एक तरह की दूरी भी ज़रूर आ गयी होगी। और कुछ नहीं तो शादी ब्याह के संबंध तो जरूर ही खत्म हो गये होंगे। धीरे-धीरे यह दूरी और भी बढ़ती गयी होगी और कई पीढिय़ां गुज़र जाने जाने पर दोनों बिल्कुल भूल गये होंगे कि दोनों एक ही नस्ल और एक ही बिरादरी के हैं। धर्म बदल जाने की वजह से दोनों इस हद तक एक दूसरे से दूर चले गये होंगे। लेकिन इस अलगाव के बावजूद कुछ ऐसे तत्व बाकी भी रह गये होंगे। जिसकी हैसियत दोनों की सम्मिलित विरासत की रही होगी, चाहे दोनों में से किसी को भी ऐसा एहसास न हो।''
उपन्यास इस कड़वी सच्चाई का साक्षात्कार कराता है कि धर्म का जुनून ऐसी दीवारें पैदा करता है जो नस्ल और बिरादरी के नैसर्गिक संबंधों पर किस कदर भारी पड़ती हैं और इंसान, इंसान का दुश्मन बन जाता है। लेकिन सबसे बुनियादी सवाल यह है कि क्या धर्म मनुष्य को मनुष्य से दूर करके, उसे नफरत के ज्वार में उलझा कर, उसकी आकांक्षाओं को तृप्त कर पाता है - ''एक दूसरे से निरंतर अलग होते जाने की यह प्रक्रिया कितनी पेचीदा और उलझी रही होगी। जो चहारदीवारी सदियों से चली आ रही थी, उससे बाहर निकलकर इन नये मुसलमानों ने कैसा महसूस किया होगा। उन्होंने अपने लिये जो नयी चहारदीवारी बनाई थी, वह किस हद तक उनकी पुरानी चहारदीवारी से मेल खाती थी? क्या सचमुच नये धर्म में उनकी आकांक्षाओं को तृप्त किया होगा या एक छलावे की तरह अपनी चमक-दमक दिखाकर उन्हें हताश कर दिया होगा?''
मुस्लिम भाईचारे के जिस स्वप्न को पाकिस्तान अवधारित करता था, क्या वह भारतीय महाद्वीप के मुसलमानों के सामाजिक संदर्भों में प्रासंगिक था? ऊंच-नीच और वर्गीय अंतर्विरोधी की जो दीवारें भारतीय मुसलमानों के मानस में पहले से मौजूद थीं, उनके रहते मुस्लिम भाईचारे का वह उग्र तेवर, जिसका इस्तेमाल अन्य संप्रदायों के खिलाफ मुसलमानों को एकजुट करने के लिये किया गया था, क्या एक छलावा या भ्रम के अलावा कुछ और साबित हो सकता था? जिस दौरान मुस्लिम भाईचारे का नारा देकर पाकिस्तान को संकल्पित किया जा रहा था, उसके संदर्भ में वाचक के अब्बा का यह विचार एक तल्ख सच्चाई को प्रस्तावित करता है - ''खून और जात बेबुनियाद चीज़ें नहीं हैं। जानवरों तक की नस्ल देखी जाती है। इंसान क्या जानवरों से भी गया-गुजरा है? जब जानवरों की कद्र भी, उनकी नस्ल के लिहाज से की जाती है तो इंसान की नस्ल को अहमियत देना किस तरह गलत हो सकता है।'' ये अब्बा के निजी विचार हैं जो उनके व्यक्तित्व का अटूट हिस्सा बन चुके हैं। वे स्पष्ट मानते हैं कि जुलाहे, जुलाहे ही रहेंगे, और सैयद, सैयद ही रहेंगे। लेकिन यह बातें, वह मोहल्ले के लोगों के सामने नहीं किया करते। उनके सामने तो वह मुस्लिम भाईचारे की दिखावटी और लुभावनी बातें ही करते, जैसे कि नीची जाति के महम्दू खलीफा से यह कहना कि ''आदमी की असली बड़ाई तो उसके अमल में है। अच्छे काम करने से ही, इंसान अच्छा माना जाता है। वली के घर में शैतान पैदा हो जाये तो वह वली तो नहीं हो जायेगा। इस्लाम ने तो सबको बराबर दर्ज़ा दिया है। कोई बड़ा है न छोटा। बस आमाल अच्छे होने चाहिए।'' हबीब मियां जिस नज़र से पाकिस्तान के बसने का ख्वाब देख रहे हैं वह तो इस तथाकथित मुस्लिम भाईचारे की पोल ही खोल देता है - ''उनका खयाल था कि जाहिल और गंवार मुसलमान पाकिस्तान ही जायें तो अच्छा है। पढ़े-लिखे मुसलमानों को ही वहां जाना चाहिये। ये लोग पाकिस्तान के लिये मुफीद होंगे और इनको भी पाकिस्तान से फायदा पहुंचेगा। छाको जैसे लोग वहां पहुंचने लगे तो मुसलमानों का यह नया मुल्क क्या खाक तरक्की करेगा। इस तरह के लोग हिंदुस्तान में ही रहें तो अच्छा है।'' ऐसी स्थिति में यदि पाकिस्तान बनने के बाद भी चटगांव (पूर्वी पाकिस्तान) में बिहारी मुसलमानों और बंगाली मुसलमानों के बीच दंगा भड़क उठता है तो कैसा आश्चर्य!
मुस्लिम भाईचारे से ही जुड़ा हुआ रूमान है जेहाद का। मुसलमानों को विधर्मियों के खिलाफ उग्र रूप से लामबंद करने में जेहाद की भावना का इस्तेमाल किया जाता है। सदियों पुराने धर्मयुद्ध के अरबी जेहादियों की रूमानी मूर्तियां गढ़ी गयीं। उपन्यास अरबी जेहादियों से जुड़े रूमानी मिथकों पर ऐतिहासिक यथार्थ के हथौड़े से करारी चोट करता है - ''...अरब जब किसी शहर या मुल्क को फतह करते थे तो गनीमत का माल सिपाहियों में बांट दिया करते थे। सोना-चांदी, हीरे-जवाहरात खूबसूरत औरतें, - ईमा की कूवत के अलावा, इन चीज़ों की हवस भी उन्हें नयी दुनियाओं की तरफ खींचकर ले जाती थी। लेकिन हमेशा फतह और कामयाबी के फूलों से ही इनके दामन नहीं भरते थे। शिकस्त और पसपाई के कांटे भी, इनके जिस्म और चेहरे को लहूलुहान कर देते थे। पराजित होकर, जब ये अपने घर को लौटते थे तो इनके चेहरों पर निराशा, अपमान और क्षोभ की अमिट रेखायें दिखाई देती थीं...।''
पाकिस्तान बनने के बाद भी क्या आम मुसलमान को इसी शिकस्त और पसपाई का सामना नहीं करना पड़ा? उसके चेहरे पर भी निराशा, अपमान और क्षोभ की अमिट रेखायें नहीं दिखाई पड़ीं।
उपन्यास विभाजन के दौरान मुस्लिम राजनीति की यथार्थ पड़ताल करता है। यह लीग के मुस्लिम भाईचारे वाले उन्मादी रूमान की ही पोल नहीं खोलता, वरन कांग्रेस की हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की दोगली राजनति का भी भंडाफोड़ करता है। गांधी भाई का चरित्र इसी प्रसंग में महत्वपूर्ण है। गांधी भाई हैं तो मुसलमान, मगर कांग्रेस का सदस्य होने के कारण और लीग का विरोध करने के कारण उन्हें व्यंग्य में यह नाम दिया गया है। गांधी भाई हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर हैं और इसके लिये अपनी जान भी दे देते हैं। कांग्रेस ऐसे ईमानदार ज़ज़्बतों वाले मुसलमानों का इस्तेमाल अपनी हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की छवि गढऩे के लिये बड़ी कुशलता से करती है। लेकिन ऐसे ईमानदार लोगों के हाथ आती है मुफसिली, ज़िल्लत और अपने सहधर्मियों की गालियां। वहीं दूसरी तरफ ''और भी तो कांग्रेसी लोग थे। कोई भी तो ऐसा लापरवाह और बेफिक्र नहीं था। सब राजनीति में हिस्सा लेते थे और जेल भी जाते थे। लेकिन बीवी-बच्चों को भूखों मारकर नहीं। सबने ही खानदान के लोगों के लिये अच्छा इंतज़ाम कर रखा था। सत्यानंद सिन्हा को ही देख लीजिये। गांधी के अच्छे दोस्त थे। पक्के कांग्रेसी थे। हमेशा खादी के कपड़े पहनते थे और कई बार जेल जा चुके थे। लेकिन क्या मजाल जो बीवी-बच्चों को उनकी गैरमौजूदगी में रोटी कपड़े की कोई दिक्कत हो। थोड़े दिन के लिये ही जिला बोर्ड के चेयरमैन बने थे। लेकिन इस थोड़े से अरसे में ही इतना कुछ जोड़ लिया था कि बीवी बच्चे आराम से रह सकते थे। बिसार तालाब पर कितनी बड़ी दो मंज़िला कोठी बनवा ली थी। ऊपर का हिस्सा किराये पर उठा रखा था। नकद था सो अलग। लीडरी भी चल रही थी और बाल-बच्चे भी मज़े से पल रहे थे।'' लीगी और कांग्रेसी भ्रष्टाचार की पूरी बानगी मौजूद है उपन्यास में।
उपन्यास में वाचक के नितांत निजी अनुभवों और चेतना-प्रवाह शैली द्वारा संपूर्ण कथा का ताना-बाना बुना गया है। वास्तव में निजी अनुभवों और चेतना-प्रवाह द्वारा कथा को गढऩा आधुनिकतावादियों और अस्तित्ववादियों की मनपसंद तकनीक है। लेकिन उपन्यास में बदीउज़्ज़मा ने इस तकनीक का इस्तेमाल इस तरह किया है कि 'वाचक के यह निजी अनुभव और चेतना प्रवाह शैली, उस पूरे सामाजिक संदर्भ को जीवंत कर देती है जिसमें विभाजन की प्रक्रिया होकर गुज़रते मुसलमानों के जीवन की नीयति का साक्षात्कार किया जा सकता है। चेतना-प्रवाह शैली के कुशल इस्तेमाल द्वारा लेखक मध्यवर्गीय मुसलमानों की जड़ता और आत्मग्रस्तता के बरक्स छाको जैसे निम्नवर्गीय मुसलमानों की जीवंतता और बहिर्मुखता को आमने-सामने ('जक्सटापोज़') रख देता है। छाको को धोखे से पाकिस्तान पहुंचाया जाता है, अपने अंजाने ही वह पाकिस्तान का नागरिक बन जाता है। लेकिन वह पाकिस्तान में रहना नहीं चाहता। वह अपने मोहल्ले के प्रति जीवंत लगाव को कभी कम नहीं होने देता। अपने खतों में वह अपनी मिट्टी के लिये बिलखता है, एकदम बच्चों की तरह मोहर्रम के जुलूस की यादों का जिक्र करता है। लेकिन राष्ट्र के रूप में उभरते भारत और पाकिस्तान को उसका यह बचपना अखरता है। भारत और पाकिस्तान दोनों ही अपने नागरिकों से समझदारी बरतने की अपेक्षा रखते हैं। समझदार वही हैं जो वीज़ा और पासपोर्ट के कानूनों से इत्तेफाक रखते हैं। जो समझते हैं कि अपनी संवेदनशील मन:स्थिति के अनुसार काम करना भावनाओं में बह जाना है। जो इस मन:स्थिति पर काबू पाकर अपने दिल और दिमाग को आश्वस्त करते हैं कि वीज़ा की मियाद खत्म होने के बाद भी रूक जाना, 'फारेनर्स एक्ट' का उल्लंघन है, और इसकी सज़ा कानून के मुताबिक दी जानी चाहिये - ''छाको का पासपोर्ट मेरे सामने खुला रखा है। वह पाकिस्तान का नागरिक है। कानून मेरे दिल और दिमाग पर हावी हो चुका है। मैं बड़ी रूखाई से कहता हूं - 'नहीं भाई यह कैसे मुमकिन है? तुम इस मुल्क के बाशिंदे अब नहीं हो। हां, वीज़ा लेकर तुम ज़रूर आ सकते हो। लेकिन मुल्क तुम्हारा पाकिस्तान ही है।' लेकिन छाको कहता है - ''जेहल दे दे चाहे फासी, हम तो छोड़ के न जैबई अपन घरवा।'' इसे छाको का बचपना माना जाता है, मगर यह 'बचपना' उस 'समझदारी' के मुँह पर तमाचे की तरह पड़ता है जो भारत और पाकिस्तान को मानवीय नज़रिये से निहायत संकीर्ण सींखचों में कैद करके राष्ट्रों के रूप में विकसित करना चाहती है।
उपन्यास का एक अंश है -
''लेकिन यह भी तो नहीं कहा जा सकता कि इस दीवार ने पुराने, अविभाजित घाट के अस्तित्व को ही खत्म कर दिया था। दीवार यह अहसास जगाये बगैर नहीं रहती थी कि कभी एक ही घाट था, जो अब दीवार की वजह से दो हिस्सों में बंटा नजर आता है।
घाट दो हिस्सों में बंट ज़रूर गया था लेकिन अक्सर यह विभाजन अपना असर खोने लगता था। एक घाट के लोग नदी के लंबे चौड़े सीने पर तैरते हुए अक्सर दूसरे घाट पर पहुंच जाते थे। लेकिन जब झगड़े फसाद का डर होता तो लोग अपने-अपने घाट पर ही जमे रहते, दूसरे घाट पर क़दम न रखते। ऐसी स्थितियों में घाट को बांटने वाली दीवार सचमुच बहुत कारगर और सार्थक साबित होने लगती थी।''
यह अंश हमारी साझा विरासत की नदी, जिसके सीने लंबे चौड़े हैं, पर बने भारत और पाकिस्तान रूपी घाटों की व्यंजना करता है। रैडक्लिफ रेखा नाम की दीवार को कितनी बार मानवीय संवेदना की लहरों में धुंधलाया है, और कितनी बार मजहबी तंगनज़री ने नफरत की कुदालें चला-चला कर इस रेखा को और गहरा बनाया गया है।

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