ज़हर बुझे तीर के बाद भी

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    सितम्बर 2014
श्रेणी लम्बी कहानी
संस्करण सितम्बर 2014
लेखक का नाम तरुण भटनागर





लम्बी कहानी/तीन

बस्तर के जंगलों में घटित एक सत्य घटना पर आधारित


पुलिसवाले को अन्दाज़ नहीं था कि शाम इतनी जल्दी आ सकती है। जंगल में अक्सर उसके अनुमान गड़बड़ा जाते थे। जंगल इतने घने थे, कि उनके भीतर बहुत कम रौशनी पहुंच पाती। इतनी कम रौशनी कि जब पुलिसवाला तफ्तीश के लिए जंगल के भीतर जाता वह दोपहर को शाम समझने की भूल कर बैठता। फिर जब शाम घिरती उसे लगता मानो रात आ गई है। यह दीगर बात थी, कि जब वह लौटता तब भी बहुत सारा समय बचा होता। रौशनी कम हो जाती, पर समय बचा रहता। अंधेरा घिर आता, पर समय बचा रहता। लगता रात हो रही है, पर रात होने में अभी समय बचा होता है। वह अपनी घड़ी देखता। सचमुच समय बचा होता। वह जंगल से घिरे आकाश को देखता, वहाँ अंधेरा घिर रहा होता। जंगल ऐसी जगह था, जहाँ पेड़ों में छुपे आकाश और पत्तों के घनेपन को भेदकर आती सूरज की मद्धम रोशनी की बजाय वह घड़ी पर ज़्यादा भरोसा करता था। वह एक ऐसी जगह थी, जहां सूरज की रौशनी और घड़ी के समय में तालमेल न था। रौशनी घड़ी को और घड़ी रौशनी को बरगलाते रहते। समय और प्रकाश एक दूसरे के साथ छुप्पम-छुपाई का खेल खेलते रहते। वह जंगल के इस खेल से अनभ्यस्त था। वह इस खेल को जंगल का धोखा कहता था। धीरे-धीरे उसे अहसास हुआ कि यह धोखा सिर्फ समय और प्रकाश तक ही नहीं है। कुछ और चीजें भी इसमें शामिल हैं। जैसे दूरियां। जंगल में दूरियां भी बड़ी दगाबाज थीं। बहुत चलकर भी कुछ ही दूर जाया जा सकता था। जंगल इतने दुर्गम थे, कि वहां चलना कठिन था। वे इतने तन्हा थे, कि वहां दूर-दूर तक किसी इंसान का कोई निशान न दिखता। चलने की कठिनाई और सन्नाटा दोनों मिलकर दूरियों को बढ़ा देते थे। इस तरह वहां तय की जाने वाली दूरियां बेहद दुर्गम थी। वह पगडंडियों पर रेडियो सुनता चलता चला जाता। कभी कुछ गुनगुनाता, तो कभी रुककर जंगल के घनेपन को देखता, तो कभी किसी नदी नाले के किनारे रुककर थकान मिटाता। कभी चिडिय़ों की आवाजें सुनता, तो कभी  मधुमक्खियों की भिनभिनाहट, तो कभी पत्तों की सरसराहट, तो कभी किसी जंगली जानवर के चलने की आवाज़ें। वह थोड़ा-थोड़ा आवाजों के भेद समझने लगा था, एक साथ बहुत सी चरचराहटें या धप्प-धप्प की एक के बाद एक कई आवाजें जो कई बार एक तरह की लय में लगतीं और वह समझ जाता कि कोई खतरा नहीं है। वह उस तरफ के जंगल को देखता और न दिखने पर भी उसकी कल्पना में सांबर, चीतल और नीलगाय के दौड़ते झुण्ड तैर जाते। कभी कोई इकहरी आवाज आती, चलने या अक्सर दबे पांव चलने की, वह चौकन्ना हो जाता। उसने एक बार पेड़ पर दबे पांव ऊपर सरकते तेंदुए को देखा था। वह क्षण भर को सन्न उसे देखता रहा था। तेंदुए ने भी गर्दन घुमाकर उसे देखा था। बस एक पल को। वह पत्थर के मानिंद खड़ा रहा। तेंदुआ गुर्राया और फिर पेड़ पर सरकने लगा। जंगल के सन्नाटे में सबकुछ साफ सुनाई देता। तेंदुये और जंगल के लोगों के चलने की आवाज एक सी होती, धीमी सरकती सी, सकुचाती सी, बिना किसी शोर के...। तभी वे अचानक मिल जाते, कहीं कोई तेंदुआ या कहीं कोई जंगल का प्रस्तर देह वाला बाशिंदा और दोनों ही उसे देखकर उससे दूर चले जाते, जबकि कोई चीतल या नीलगाय उसे देखकर उसे ताकती, खड़ी रहती। जंगल में हर आवाज का एक कायदा था, जो आवाज के साथ-साथ चलता था। जंगल की तनहाई हर आवाज को झाड़-पोंछकर और भी साफ करती रहती थी।
उन दिनों रेडियो नये-नये चले थे। कभी-कभी वह यह अंदाज लगाने के लिए कि वह कितनी दूरी चला है, जोर-जोर से अपने कदम गिनता। इससे मन बहलता और एक उम्मीद भी बनती कि अब ज़्यादा दूर नहीं चलना है। जंगल में दूरियां बहुत बढ़ जाती थीं। उसे लगता जैसे वह मीलों चल आया है। वह भ्रमित होता। पर वह कुछ ही दूर चला होता। वह अक्सर तड़के निकल जाता। कभी अकेला, तो कभी अपने मातहत कांस्टेबल के साथ। उसे अन्दाज था कि वह सात मिनट में एक किलोमीटर चल लेता है, पर जंगल के कठिन और असम्भव रास्तों पर उसका गणित गड़बड़ा जाता। वीरान और घने दरख्तों के बीच गोल चक्करदार घूमती, टीलों, पहाड़ों, चट्टानों, नदी-नालों... को पार करती पगडण्डियों पर वह चलता चला जाता। उसे लगता कि वह बहुत जल्द ही मुकाम पर पहुंच जायेगा। पर वह चलता जाता। वह अक्सर बहुत लेट पहुंचता। कभी-कभी पूरे दिन, कभी पूरी रात लेट। कभी-कभी दो-दो रात लेट। कमतर रौशनी समय को बचाती थी और दुर्गमता में चलते-चलते वही समय खत्म होता जाता था।
उन दिनों बस्तर की पुलिस चौकियों को एक-एक मोटर साइकिल दी गई थी। वे पुलिस चौकियां पहली-पहली पुलिस चौकियां थीं, जिन्हें मोटर साइकिलें दी गई थीं। तब मोटर साइकिलें एक बिल्कुल नई चीज थीं। जंगल ही क्या, यहां तक कि शहरों में भी अगर कहीं से दिख जातीं तो लोग उसे देखने, उसे छूने मजमा लगा लेते। बस्तर विशिष्ट था। उसकी पुलिस चौकियां भी विशिष्ट जानी गई। इस तरह वे पहली पुलिस चौकियां बनी थीं जिन्हें बेहद कीमती और एकदम अनोखी चीज, याने मोटर साइकिलें मिल पाईं। पर यह तय था कि जंगल में वे नहीं चल सकतीं। पगडण्डियों पर वे असम्भव थीं। पेड़ों-झाडिय़ों के बीच उनके लिए रास्ते की कोई गुंजाइश न थी।
फिर एक और खतरा यह था कि अगर किसी जंगली गांव में पहुंच जायें तो इस अजूबे को देखकर गांव के लोग भाग खड़े हों। मोटर साइकिल उनकी कल्पना के बाहर की चीज थी। यहां तक कि इस तरह कि कोई मशीन उनके सपनों में भी नहीं आई थी, जिस पर बैठकर इंसान फट-फटाता हुआ तेजी से, बहुत तेजी से, बहुत-बहुत तेजी से, इतनी तेजी से कि जिसकी कल्पना भी न की हो, हवा से बात करता सर्राटे से गुजरता जाये। तफ्तीश पर जाने के लिए मोटर साइकिलें निरर्थक थीं। मोटरसाइकिलों के बारे में एक बार एक अजीब वाकया हुआ था। यह वाकया उसे किसी ने बताया था। बताया था कि एक बार एक पुलिसवाले को जंगल के बहुत भीतर एक जगह मोटर साइकिल खड़ा करके गांव तक पैदल जाना पड़ा था। जब वह लौटा तो उसने पाया कि उसकी मोटर साइकिल क्षत विक्षत पड़ी है। उसके सारे अस्थिपंजर अलग-अलग गिरे पड़े हैं। उसे शीघ्र ही समझ आ गया कि जंगल के कुछ लोगों ने तीरों से मोटर साइकिल पर हमला कर दिया था। ज़हर बुझे तीर। उसकी सीट के चिथड़े उड़ गये थे और पहियों के स्पोक टूट गये थे। जब तीरों के लगातार हमले से मोटर साइकिल गिर गई तब जंगल के लोगों ने कुल्हाड़ी से उपर हमला बोल दिया। उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उसके कुछ टुकड़े वे अपने साथ ले गये। जंगल के लोग अचरज में थे। उन्होंने ऐसा कोई जंगली जानवर तब तक नहीं देखा था, जिसके शरीर से रक्त और मांस न निकले। जो हमला होने पर गुर्राये या चिल्लाये नहीं। हमले से डरकर भागे नहीं। मोटर साइकिल एक ऐसा जीव था, जिसने खड़े-खड़े उसके सारे वार सहे।
थाने के लोग अक्सर यह किस्सा सुनाते थे।
इस तरह जंगल की फितरत में मोटर साइकिल एक असम्भव चीज़ थी। पुलिस वाला यह जानता था।
उसे जंगलों में होने वाली तफ्तीश भी निरर्थक लगती। वैसे तो जंगल में बहुत कम अपराध होते। होते भी तो अपराधी को पकडऩा बिल्कुल आसान होता। जैसे एक दिन किसी की गाय चोरी हो गई। कुछ दिनों बाद चोर खुद उसे वापस लाकर उसके मालिक को दे गया। उसे दूध की जरूरत थी। जरूरत पूरी हुई और वह वापस करने चला आया। पुलिसवाला पशोपेश में रहता। यह जंगल में किसी बड़े अपराध की तलाश में रहता। पर बस्तर के जंगल थे, कि वहां कोई बड़ा अपराध होता ही नहीं था। अक्सर किसी अपराध की विवेचना करते-करते वह फंस जाता। किताबें पलटता। कभी बड़े शहर जाने पर सरकारी वकील की सलाह लेता। पर सबकुछ कर लेने के बाद भी वह कायमी नहीं कर पाता। पिछले एक साल से उसके इलाके में अपराध की एक भी कायमी नहीं हो पाई। उसके बड़े अफसर उस पर नाराज़ होते। कहते वह काम नहीं करता है। अगर ठीक से देखा जाये तो जंगल में भी अपराध होते दिखेंगे। जंगल कोई दुनिया से अलग थोड़े ही है, कि वहां चोरी न हो, हत्या न हो, बलात्कार न हो...। ठीक है, कि उसने गाय वापस कर दी। पर आखिर चोरी भी तो की न। अपराध तो अपराध है। भले कोई भलमनसाहत में, अज्ञानता में या भोलेपन में कर जाये तो भी, वह अपराध ही है। कानून के मुताबिक तो अपराध है ही। वह कहता कि वहां भी यह सब होता है, पर मुद्दा यह है कि इसे अपराध माना भी जाये या नहीं। अपराध होने के लिए अपराध की प्रवृत्ति होना जरूरी है। बिना इरादे के किया गया अपराध, अपराध तो नहीं। यद्यपि कानून में गैर इरादतन अपराध जैसी चीज भी है। पर उसे लगता कि जंगल की फितरत में जब इरादतन का अस्तित्व ही नहीं है, तब गैर इरादतन कैसे हो? गैर इरादतन के लिए, पहले इरादतन का शब्द जंगल में आना चाहिए। अगर इरादतन की चेतना होगी तभी इसके विलोम याने गैर इरादतन की। इसकी कोई तो बूझ हो कि यह इरादा था और इससे यह अपराध हुआ। जब तक इरादतन चीज़ शून्य होगी, तब तक गैर इरादतन भी शून्य ही होगा। वह अधिकारियों को बहुत साधारण उदाहरणों से यह बात समझाता। पर कोई उसकी बात समझ नहीं पाता।
वह एक बेहद दुर्गम काम कर रहा था। एक कठिन काम। एक थोड़ा असंभव काम। उसे जंगल में अपराध ढूंढऩा था। फिर उस अपराध की कायमी भी करनी थी। फिर कागज़ों में दर्ज करना था कि जो घटित हुआ वह अपराध था। शब्दों में उस अपराध को लिखना था। कुछ इस तरह लिखना था, कि उन शब्दों का अर्थ वही अर्थ हो जाये जो कानून की किताब में अपराध का अर्थ है। कुछ इस तरह कि न्यायालय में भी वह मामला अपराध का मामला सिद्ध हो और अपराधी दण्डित हो।
कुछ ही दिनों में ऐसा एक मामला उसे पता चला।
हुआ यूं कि वह जिस थाने पर था, वहां से एक कच्ची रोड जाती थी। थाने की वह रोड कई मील बाद पहाड़ों के बीच जाकर गुमती हुई दिखती थी। मीलों और घण्टों तक अनगिनत पहाड़ों को पार कर जब वह रोड उतरती तो एक बाहरी घाटी में सांप की तरह बल खाती पहाडिय़ों में छुपती दिखती, नीचे की तरफ जाती थी। नीचे वह कई मील उतरकर घने जंगलों में चली जाती थी। घने जंगलों में एक गांव था, जहां लगभग डेढ़ सौ लोग रहते थे। जनसंख्या के मान से वह एक बड़ा गांव था। उन दिनों जंगल में डेढ़ सौ एक बड़ी संख्या होती। बस्तर के गांवों में तब ऐसे गांव खासे आबाद गांव होते। दूसरे गांवों की तरह यहां भी एक अनियतकालीन बस चलती थी। रोड कई-कई जगह जंगली नालों में उतरकर फिर ऊपर को चढ़कर उसे पार करती थी। ऐसे असंख्य नदी-नाले थे, जिन पर कोई रपटा या पुल नहीं था। जब बारिश नहीं होती, वे नदी-नालियां सूखी रहतीं। पर जब बारिश होती तो वे उफना जाती। जब बादल धीरे-धीरे लौट जाते, उनकी धार भी धीरे-धीरे कमज़ोर हो जाती। जब आकाश नीला होकर चमकता, उनका पानी इतना कम हो जाता, कि बस उसमें से निकल जाती। जब कुछ घण्टों तक आकाश नीला और चमकदार बना रहता, नदी-नाले सूखने लगते। ये नदी-नाले, पहाड़ों-जंगलों का पानी निकालकर इन्द्रावती नदी तक ले जाने का काम करते। जैसे ड्रेनेज पाइप होता है, जहां पानी बंद हुआ वह सूख जाता है, कुछ-कुछ वैसे ही।
एक तो बसें हफ्ते में बस कुछ ही दिन चलती थीं, दूसरे बारिश तथा कठिन रास्तों के खराब हो जाने के कारण वे उन कुछ दिनों में भी नियमित नहीं चल पाती थीं। सबसे बड़ी मुसीबत वे नदियां और नाले थे जिनके कारण बस का आना और जाना कभी तय नहीं होता था। वे दो-दो तीन-तीन दिनों तक लेट होतीं। लोग उनके आने के लिए कई-कई दिनों तक इंतजार करते। बसें कई बार उफनाती नदी या नाले के किनारे फंस जातीं। लोग कई कई दिनों तक बस के साथ जंगली बियाबान में फंसे होते। पर उन दिनों उन लोगों के पास समय होता था। जंगल का समय जो कभी खत्म होने को नहीं था। जो हर दिन बच जाता था थोड़ा-थोड़ा और इस तरह रोज बच-बचकर इकट्ठा होकर वह समय बहुत सारा हो जाता था। उन्हें कई-कई बार नदियों के किनारे पानी उतरने का इन्तजार करना पड़ता। लोग अभ्यस्त थे। लोगों के पास समय था। धैर्य था। वे इन्तजार कर सकते थे। कभी-कभी ऐसे इन्तज़ार में रात हो जाती। बाहरी दुनिया से कहीं कोई संचार मुनासिब न था। वे बाहरी दुनिया से संचार के बारे में सोचते भी नहीं थे। वे नदी के लकदक बहते पानी को देखते। कुछ लोग अपने साथ अनाज लेकर चलते। जंगल की लकडिय़ां बटोरकर अनाज पकाते। साथ-साथ खाते। ड्राइवर को यह अन्दाज़ होता था कि नदी का पानी कब उतरेगा। वह लोगों को बता देता कि कितना इन्तजार अभी करना है। ड्राइवर अपने साछ कुछ ऐसी चीजें भी रखता, जो अमूमन ड्राइवर नहीं रखते। तीन चार एक्स्ट्रा टायर, कुल्हाड़ी, गुलेल, एक जोड़ा बिस्तर, बरसाती, मच्छरदानी, बर्तन... आदि। इन चीज़ों के बिना बस का सफर शुरू नहीं हो सकता था। हर चीज काम की थी। अक्सर बड़े पेड़ गिरकर रोड को ब्लॉक कर देते, ऐसे में कुल्हाड़ी काम आती। सरकार ने ड्राइवरों को सांप काटने के एण्टी वीनम और सेडेटिव इंजेक्शनों के साथ दवाओं का एक डिब्बा भी दे रखा था और उसके प्रयोग का तरीका भी उन्हें सिखाया गया था।
हुआ यूं कि जहां घाट खत्म होती थी, वहां से एक पगडण्डी जंगल के भीतर के एक गांव तक जाती थी। मीलों लम्बी पगडण्डी। गांव में एक प्राथमिक स्कूल था। स्कूल में दो शिक्षक थे, जो बरसों से इस प्रयास में रहे कि किस तरह जंगल की संततियों को पढ़ाया जाये। फिर वे थक हार गये। दोनों सुबह-शाम ताड़ी, सल्फी पीते और स्कूल में पड़े रहते। स्कूल को उन्होंने अपना घर बना लिया था। वहां उनके लाख चाहने पर भी कभी कोई पढऩे नहीं आया। गांव के लोग उन्हें अजूबा समझते। गांव की एक औरत जो उनके लिए ताड़ी और महुआ की शराब ला देती थी, उनकी चीज़ों को कौतुहल से देखती थी। ख़ासकर किताबों को। उनमें से पहले शिक्षक ने उसे एक दिन वह किताब देने की कोशिश की। वह शरमा गई। वह थोड़ा डर भी गई कि जाने यह क्या है? जाते समय उसे थोड़ी हँसी भी आ गई - 'जाने बाहर की दुनिया के लोग कैसी-कैसी चीज रखते हैं। अब यह किताब है। अजूबी पर कितनी फालतू सी चीज। जाने क्या है?' उसने जंगल की टूटी-फूटी जबान में उसे वह किताब ले लेने को कहा। उसने बड़े संकोच से वह किताब पकड़ ली। दूसरे शिक्षक ने देखा कि उसके हाथ में वह किताब कांप रही है। उसने उसे उसकी जबान में समझाया कि यह एक अच्छी चीज़ है। इसे किताब कहते हैं।
फिर वह भीतर से एक और किताब उठा लाया। दूसरे शिक्षक ने उस औरत को समझाया कि किताब किस तरह खोलते हैं। किस तरह इसके पन्नों को पलटा जाता है। औरत के हाथ बेतरह कांपने लगे। पहले शिक्षक ने दूसरे शिक्षक से कहा कि वह जो कर रहा है, वह ठीक नहीं है। इसके कुछ भी घातक परिणाम हो सकते हैं। उसे जंगल आने के पहले उसके एक साथी ने बताया था, कि जंगल के आदमी और औरत को बाहरी दुनिया की कोई चीज देने से पहले दस बार सोचना। उसने कहा था, कि ऐसा करने के घातक परिणाम भी हो सकते हैं। कोई ऐसी चीज जो अब तक कल्पना में भी न आ पाई हो, अगर वह साक्षात सामने आ जाये तो क्या अनर्थ हो सकता है, इसका तो बस अनुमान ही लगाया जा सकता है। वह बताता कि ऐसे हादसे सिर्फ बस्तर में ही नहीं बल्कि दुनिया में कहीं भी हो सकते हैं। यहां तक की खासे विकसित समाज में भी। अगर वहां भी कोई ऐसी चीज अचानक आ जाये जिसकी कल्पना भी उन्होंने न की हो तो एकदम से कुछ अप्रत्याशित घटित होता है, जैसे जर्मनी में जब पहली बार फिल्म दिखाई गई थी, तो पूरे हॉल में हड़कंप मच गया था। लोग भाग खड़े हुए। औरतें आश्चर्य और भय से चीखने लगीं। वे बुरी तरह घबरा गये, क्योंकि यह उनकी कल्पना के बाहर था कि सफेद दीवार पर चलते फिरते इंसान दिख सकते हैं। इंसान की क्या पूरी दुनिया दिख सकती है, चलती फिरती। फिर बस्तर तो बाहर की दुनिया से बहुत दूर और अछूता है। यहां के जंगल समय में बहुत पीछे छूट गये हैं। शिक्षक के उस दोस्त का दावा था, कि समय में जो सबसे पीछे छूट गई जगह है, वह बस्तर ही है। ऐसी जगह में बाहर की दुनिया से आने वाली तमाम चीजें ऐसी चीजें हैं जो अभी तक जंगल में आना तो दूर जंगल के लोगों की कल्पना में भी नहीं आ पाई हैं। ऐसी चीजें अगर एकदम से आ जायें, तो कयामत आ जाये, पता नहीं क्या हो जाये? वह यह भी कहता कि यह एक तरह से गलत भी है, कि जो चीज़ अभी कल्पना से भी परे है, उसे एकदम से साक्षात कर दिया जाये। उसे लगता पता नहीं ये सब चीजें किस तरह से जंगल की दुनिया में आ पायेंगी, पता नहीं इनके आने का क्या उपाय होगा? एक अबूझ पहेली की तरह है, यह बात। एक समस्या भी जिसका कोई समाधान नहीं दिखता। इसलिए वह शिक्षक को बार-बार कहता था, कि जंगल के आदमी को बाहर की कोई चीज देने से पहले दस बार सोचना। पर उस दिन...।
उस दिन वह दूसरा शिक्षक नशे में था। उसने सोच लिया था, कि आज तो वह जंगल के हाथों में किताब पकड़ा ही देगा और उसने वह किताब औरत को पकड़ा ही दी। औरत ने डरते-सकुचाते हुए किताब का पन्ना पलटा। पन्ने पर वर्णमाला का पहला अक्षर 'अ' लिखा था और नीचे गुलाबी रंग का बड़ा-सा अनार बना था। औरत भौंचक-सी उस पेज को देखती रही। फिर उसने धीरे-से अनार के गुलाबी रंग को अपनी उंगलियों से छुआ। बार-बार छुआ। फिर अपनी उंगली को देखा। उसकी काली उंगली पर वह गुलाबी रंग नहीं उतरा था। फिर उसने थोड़े दबाव के साथ रंग पर अपनी उंगलियां सरकाई। वह रंग फिर भी उसकी उंगली पर नहीं आया। उसने अपनी उंगलियों को थूक से गीला किया और कुछ देर तक अपनी उंगली उस गुलाबी रंग पर टिकाये रखी। उसने देखा अब भी वह रंग उसकी उंगलियों पर नहीं आया था। वह ऐसा पहला रंग था, जो थूक से सनी उंगली पर भी नहीं उतरा था। औरत की आंखें अचरज से फैल गई। वह धीरे-धीरे उस किताब के पन्ने पलटती गई। वह 'औ' औरत पर देर तक रुकी रही। उसके होंठ कांपने लगे। वह नीली चुनरी ओढ़ी औरत को देखते हुए एक अजीब सा कौतुहल उसके चेहरे पर उतर आया था। उसने 'क' कबूतर, 'ख' खरगोश, 'ब' बकरी और 'व' वन को बहुत गौर से देखा। उन पर उंगली फिरा-फिरा कर देखा। पहला शिक्षक डर के मारे दूर चला गया। दूसरा शिक्षक किताब के कौतुहल से डरती, अचरज करती उस अर्धनग्न जंगली औरत को देखकर मुस्कुराता रहा। पहले शिक्षक ने कहा- ''यह तुमने ठीक नहीं किया?'' दूसरे शिक्षक ने उसकी बात को अनसुना कर दिया।
उसने औरत को कुछ और किताबें थमा दीं। रंगीन चित्रों वाली किताबें।
...औरत चीखना चाहती थी। वह खिलखिलाकर हंसना चाहती थी। वह हाथ में किताब उठाकर दौडऩा चाहती थी। वह 'ध' धनुष पर हल्ला कर अपनी बिरादरी के सभी लोगों को इकट्ठा करना चाहती थी। पर वह कांपते होंठ और फैली आँखों के साथ दूसरे शिक्षक को घूरती रही। कौतुहल के मारे औरत के रोंगटे खड़े हो गये थे।
...जंगल को किताब एक अद्भुत चीज़ थी। वह पन्ने उलटने को थी, पर फटने को नहीं। वह रंगों को थी, पर अक्षरों को नहीं। वह चित्रों को थी, पर उनके मतलब को नहीं। वह घूरने को थी, पर जानने को नहीं। वह सकुचाने, हंसने, रोने को थी, पर पढ़कर शिक्षित होने को नहीं। वह महसूस करने को थी, विद्वत्ता को नहीं। शायद चाहने को, प्यार को भी, पर ज्ञान को नहीं।
औरत रंगीन चित्रों वाली किताब ले गई।
एक दिन पहला शिक्षक शाम को डरा-घबराया हुआ आया। वह सीधे दूसरे शिक्षक के पास गया और उसे बताने लगा, कि उसने क्या देखा?
उसने देखा कि वह किताब जो औरत ले गई थी, वह गांव की देवमढ़ी पर रखी थी। जंगल के लोगों ने बकायदा उस किताब को शराब का तर्पण किया। फिर उस किताब को दो मुर्गों की बली दी गई। किताब के पास शराब से भरा एक पात्र रख दिया गया। जंगल का ओझा किताब के सामने बैठकर मंत्र बुदबुदा रहा था और बीच-बीच में अपने हाथ से उस किताब को छू रहा था। जंगल की औरतें उस किताब से थोड़ा दूर खड़े होकर दबे कण्ठ से कुछ गुनगुना रही थीं। दो लोग मिट्टी के पात्र में बली चढ़ाये गये मुर्गे का मांस काट-काटकर रख रहे थे। एक छोटे पात्र में मुर्गे की गर्दन से निकाला खून इकट्ठा किया गया था। जंगल का एक आदमी दूसरे आदमी को जो देवमढ़ी का रक्षक था, ताकीद कर रहा था कि जिस तरह दूसरे देवों की रक्षा की जाती है, वैसे ही किताब की रक्षा भी होगी।
दूसरा शिक्षक सर पकड़कर खटिया पर बैठ गया। पहला शिक्षक स्कूल के कमरे में गया। उसने वहां रखी सारी किताबें, कापियां, रजिस्टर, कैलेण्डर, चार्ट... एक पेटी में डाल दिये। पहले उसने पेटी पर ताला लगाया और फिर कमरे की कुण्डी चढ़ाकर वापस आ गया। दोनों शिक्षक हैरान-परेशान हो गये। वे देर तक इस समस्या पर बात करते रहे। फिर तय हुआ कि दूसरा शिक्षक जब बड़े शहर जायेगा तब कॉपी-किताबों से भरी यह पेटी भी अपने साथ ले जायेगा। उसे शहर में छोड़ आयेगा। तय हुआ कि स्कूल में एक भी कॉपी या किताब न रखी जाये। शाला को किताबों से मरहूम रखा जाये। दोनों इस बात का ध्यान रखेंगे कि कभी कोई किताब या कॉपी इस स्कूल में न आ पाये।
घटना इसी दूसरे शिक्षक के साथ घटी थी।
जंगल के इतिहास में बरसों से कुछ ऐसा घटित होता आ रहा था, जो इस दूसरे शिक्षक के साथ घटी घटना का अहम हिस्सा बनने जा रहा था। जंगल और बाहरी दुनिया के बीच बहुत कम संबंध थे। इतने कम कि इन दो जगहों को एक दूसरे से बिल्कुल विलग दुनिया मानना ही ठीक होगा। दशकों बाद जंगल सिर्फ अपनी दो जरूरतों के लिए ही बाहरी दुनिया से जुड़ पाया था। पहली जरूरत नमक और दूसरी मिट्टी का तेल। जंगल का आदमी इन दो चीजों को पाने दूर-दूर तक जाता। बहुत दूर जहां कोई हाट लगता या नमक या मिट्टी के तेल की दुकान होती। उस जगह से वह अपनी जरूरत भर नमक और मिट्टी के तेल पा जाता। पर इसे पाना इतना आसान न था। तब जंगल को नमक और मिट्टी के तेल जैसी चीज भी मुनासिब नहीं थी। जंगल में आज भी हजारों किस्से हैं, नमक और मिट्टी के तेल के। सबसे बड़ी मुसीबत थी, कि ये दोनों चीजें जंगल की चीजों की तरह मुफ्त में नहीं आती थीं। जंगल में तब सब मुफ्त था, या यों कहें कि चीजों के दाम लगने ठीक तरह से शुरू नहीं हुए थे। महुआ, ताडी, मांस, फल, मछली, लकड़ी... सब बेपनाह था और जंगल के आदमी को इसे पाने के लिये कोई दाम नहीं देना पड़ता था। वास्तव में तब दाम देने याने खरीदने और बेचने की अवधारणा ठीक तरह से विकसित नहीं हुई थी। वहां खर्च करने का गणित नहीं था। पर बाहर की दुनिया के नमक और मिट्टी का तेल खरीदने के लिए खर्च करना पड़ता था और खर्चने के लिए पैसे होना जरूरी था।
कहते हैं, जंगल में सबसे पहले सिक्के आये। सिक्के इसलिए क्योंकि सिक्के आकर्षिक करते थे। जंगल तब तक पैसों के आकर्षण भर को समझ पाया था। वह उसके असली और प्रचलित महत्व याने वह धन कितना है, क्या है, उसका मूल्य क्या है, नहीं समझ पाया था। सिक्के इसलिये आ पाये क्योंकि वे सुंदर दिखते थे। वे नोटों की तरह अनाकर्षक नहीं थे। वे नोट की तरह नाजुक और कटने-फटने वाले भी नहीं थे। वे चमकते थे। वे खनकते थे और सबसे बड़ी बात कि उन्हें संभालकर रखने का मन होता था, जबकि नोट सूखे पत्तों की तरह थे, अर्थहीन और बेजान। सिक्के टिकाऊ थे। वे मोहक थे, नि:संदेह। जंगल का आदमी सिक्के चाहता था, नोट नहीं। एक कारण यह भी था, कि नोट को संभालकर रखना कठिन था। वे भीग सकते थे। जल सकते थे। उन्हें दीमक खा सकती थी। उनके गिरने और गुमने में कोई ऐसी खनक नहीं थी, जो जंगल के आदमी को चौंका दे। उसके लिए नोट किसी झंझट की तरह थे। वह बांस के टुकड़े में खोल बनाता और उस खोल में सिक्के रखता। उस बांस को घर की दीवार पर शान से लटकाता। बाहर का आदमी जब उसे नोट देता तब वह उससे सिक्कों की मांग करता। बाहर का आदमी उसकी इस नादानी पर हंसता। पर वह बाहर के आदमी को अच्छा मानता, क्योंकि वह उसे एक नोट के बदले कई सारे सिक्के देता। एक अजीब सी रजामंदी थी वह बाहर के आदमी और जंगल के आदमी के बीच। बाहर का आदमी उसे सिर्फ सिक्के देता। वह सिर्फ सिक्के लेता। दोनों खुश थे। एक सिक्के से ज्यादा दो सिक्के, दो से ज्यादा तीन, तीन से ज्यादा चार... वे कई हो सकते थे, पर वे नोट नहीं हो सकते थे। इन सिक्कों में सब कुछ आ जाता था। अठन्नी में खूब सारा नमक और दो अठन्नी में खूब सारा मिट्टी का तेल। ...जंगल की दुनिया के लिए मुद्रा का मतलब तब सिर्फ इतना ही था। सिक्के और सिर्फ सिक्के। रोजक, खनकदार और मोहक सिक्के। वह मुद्रा की किसी और कीमत से वाकिफ नहीं था।
दूसरा शिक्षक हर महीने दो दिन की लम्बी यात्रा पर ब्लॉक मुख्यालय पहुंचता था। वह गांव से पैदल-पैदल मीलों चलकर घाट के नीचे कच्ची सड़क तक पहुंचता। वहां पहुंचकर वह उस अनियतकालीन बस का इन्तजार करता। कभी-कभी सुबह से लेकर शाम तक इंतजार करता। कभी रात भर रुकता। बस अगर सिर्फ चार-पांच घण्टे लेट से मिल जाये तो यह एक खबर होती, जिसे वह दूसरे शिक्षक को बताता, खुशी-खुशी कि आज सिर्फ चार घण्टे बाद ही बस मिल गई। बस मिल जाने पर घण्टों का लम्बा सफर कर वह ब्लॉक मुख्यालय पहुंचता। वहां पहुंचकर वह दोनों शिक्षकों की पगार लेता। महीने भर के लिए राशन-गल्ला लेता और फिर एक लम्बा सफर तय कर गांव लौट आता।
उस दिन भी वह लौट रहा था। उसकी जेब में दो सौ पच्चीस रुपये और चार अठन्नियां थीं। पहले शिक्षक की पगार के एक सौ पच्चीस रुपये, उसकी पगार के सौ रुपये और सामान खरीदने के बाद बची चार अठन्नियां। एक बड़े थैले में उसने महीने भर के लिए चावल और दूसरे में भी चावल और थोड़ी सी दाल भर रखी थी। एक थैले को कंधे से और दूसरे को हाथ से उठाये वह बस से घाट के नीचे जंगल के भीतर उसी जगह उतरा, जहां से वह पगडण्डी मीलों का रास्ता तय कर जंगल के अन्दर उस गांव तक आती थी। पलभर सुस्ताने के बाद वह पगडण्डी-पगडण्डी चल पड़ा। थोड़ी ही दूर पर एक पथरीला छलछलाते, उछलते, बिखरते, फुहार होकर छिटकते चमकीले पानी वाला एक नाला था। उस नाले पर पहुंचकर वह फिर थोड़ी देर को रुका। उसने दोनों थैले एक चट्टान पर रखे। नाले के पानी से प्यास बुझाई। मुंह हाथ धोये और अंगोछे से अपने चेहरे को पोंछा। एक छोटा-सा बैग उसने अपनी बगल में दबा रखा था। बैग में पैसे थे।
...तभी वहां चार लोग आये। जंगल के लोग। जहर बुझे तीर-धनुष वाले लोग। उन लोगों ने सिर्फ एक-एक लंगोटी पहन रखी थी। दूसरे शिक्षक ने पलभर उनको देखा और वापस जाने लगा। तभी अचानक उनमें से एक उसके सामने आकर खड़ा हो गया। उसने शिक्षक पर अपना तीर तान दिया। उसके चेहरे पर शिक्षक के लिए अजीब-सी वितृष्णा का भाव था। शिक्षक डर गया। उसने उस बैग को उलट-पलटकर देखा। बैग में रखे सिक्के और नोट चट्टान पर गिर पड़े। नोट फैल गये और सिक्के टन्न की आवाज कर इधर-उधर उछल गये। एक सिक्का लुढ़कता हुआ नाले के किनारे की गीली मिट्टी में खड़ा हो गया। एक सिक्का चक्कर खाता हुआ टनटन की आवाज करता हुआ नाचने लगा। बाकी दो सिक्के चट्टान से टकराकर उछले और मिट्टी में जा गिरे। उनमें से एक आदमी उन सिक्कों की टनटनाती आवाज से चौंक गया। फिर उसने धीरे से एक एक कर उन सिक्कों को बटोर लिया। उसने क्षण भर को दो सौ पच्चीस रुपये के नोटों को देखा। उसमें एक रुपये, पांच रुपये और दस रुपये के नोट थे। पेड़ों की छाया के नीचे वे सूखे पत्तों की तरह दिख रहे थे। वे हवा में तितली के पंख के मानिंद फडफ़ड़ा रहे थे। वह उन नोटों को यहीं छोड़कर दूसरे शिक्षक की तरफ आ गया। शिक्षक के पास एक और बैग था। बैग चमड़े का था। काले रंग का था। उसमें एक चैन लगी थी। उसने चैन पर अपनी उँगली फिराई। फिर बैग को उलट-पलटकर देखने लगा। उसे चैन खोलनी नहीं आती थी। वह थोड़ी देर तक धातु कि चेन पर अपनी उंगलियां फिराता रहा। फिर बैग को उलट-पलटकर देखा। थोड़ी देर मुआयना करने के बाद उसने बैग को एक तरफ फेंक दिया। चट्टान पर अनाज से भरे दो थैले लावारिस की तरह पड़े थे। उनमें से एक ने उन थैलों को उड़ती नजर से देखा और फिर शिक्षक को घूरने लगा।
उन्हें थैलों से भरे अनाज में कोई रूचि नहीं थी। उन्हें थैला बड़ी बौडम-सी चीज लग रहा था। उनकी नजर शिक्षकों के कपड़ों पर थी। उन लोगों ने इसके पहले भी कपड़े पहने इंसान देखे थे। वे उत्सुक थे। वे कपड़ों के लिए उत्सुक थे। खासकर उनमें से दो। जो अजीब सी हंसी के साथ शिक्षक के उन कपड़ों को देख रहे थे। उन कपड़ों का अहसास करने के लिए लालायित थे। वे कपड़े के स्पर्श को अपने शरीर पर महसूस करना चाहते थे। शिक्षक ने कुर्ता-पायजामा पहन रखा था। गले में अंगोछा था और पैरों में प्लास्टिक की चप्पलें। उन्हें चप्पलों की जरूरत नहीं थी। चप्पल शायद उनके पैरों को गड़ती। उनके नग्न पैरों को वह तकलीफ देती। वे बस कुर्ता-पायजामा और अंगोछा चाहते थे।
दूसरा शिक्षक जब गांव पहुंचा, पहला शिक्षक उसका इन्तजार कर रहा था। दूसरा शिक्षक सिर्फ एक अण्डरवियर पहने चला आ रहा था। अपने बगल में उसने नोटों भरा बैग दबा रखा था। कंधे पर अनाज से लदा एक थैला लटका था। अनाज से भरा हुआ दूसरा थैला उसके हाथ में था। उसी थैले में चैन वाला चमड़े का छोटा बैग था। जब वह गांव आया तो गांव के एक बुजुर्ग ने उसे देखा। बुजुर्ग को उस अर्धनग्न शिक्षक को देखकर कुछ भी अजीब नहीं लगा।
उसने पहले शिक्षक को पूरी आपबीती बतायी। आपबीती बताते-बताते वह रुआंसा हो गया। जंगल में यह अपने तरह का पहला वाक्या था। पहले शिक्षक ने दूसरे को सलाह दी कि उन्हें पुलिस में रिपोर्ट करनी चाहिए।
दोनों शाम ढलते पुलिस चौकी पहुंचे थे। पुलिसवाला घर पर था। उसने उन्हें वहीं बुला लिया। पूरी कहानी सुनने के बाद पुलिसवाले ने उन्हें रात भर वहीं रुकने की सलाह दी। पुलिसवाला खुश था। जंगल में लूट हो चुकी थी। उसे जंगल में पहली बार इतना बड़ा अपराध का वाक्या मिला था। उसने उन दोनों को यह भी कहा कि कल सुबह-सुबह मौका-ए-वारदात पर चलेंगे। जो माल असबाब लूटा गया है, उसे खोजना पहले जरूरी है। एक बार लूट में गया माल मिल जाये तो समझो अपराध का होना पुख्ता हुआ। उसके बाद ही दमदारी से बात की जा सकती है कि अपराध हुआ। माल-असबाब याने सबूत। जिसके बिना पर अपराध की कायमी भी की जा सकती है।
अगले दिन वे तीनों मौका-ए-वारदात पर थे। मौका-ए-वारदात अजीब-सी जगह थी। वहां अनवरत बहता कलकल करता पहाड़ी नाला था। दूर-दूर तक सिर्फ जंगल थे। वहां पंछियों का कलरव था। वहां दूर-दूर तक इंसान के होने की सम्भावना शून्य थी। वहां मीलों दूर तक कोई घर गांव नहीं था। वहां सांप, बिच्छुओं का भय था। वहां जंगली घास से भरी पड़ी पगडण्डी थी, जिस पर बहुत भूले-बिसरे कभी कोई जाता था। बस सिर्फ पगडण्डी का रास्ता तय था। शेष सब जंगल था। शेष सब निर्विकार था। विच्छिन्न था। गुमनाम था। पर फिर भी वह मौका-ए-वारदात था।
दोपहर बाद पुलिस वाला और दोनों शिक्षक जंगल के भीतर उसी तरफ बढ़ते गये, जहां वे चारों गये थे। दूसरे शिक्षक ने चेताया था कि यह सब निरर्थक है। जंगल के भीतर चले गये इंसान को भी भला कभी कोई खोज पाया है। उसके पीछे-पीछे जाना जंगल की अनन्तता में गुम होते जाना है। हर जगह पसरे सन्नाटे के बीच गुम होते जाना। खत्म हो चुकी रोशनी के बीच गुम होते जाना। इस तरह गुम होते जाना, कि अचानक खयाल आये कि पता नहीं अब लौटना सम्भव हो भी या नहीं। जंगली घनापन जहां गुम हो जाती हैं दिशाएं। जहां नहीं मिलते पदचिन्ह। जहां नहीं होते हैं मील के पत्थर और संकेतक। जहां नहीं होते हैं रास्ते। जहां हर-पल, हर-क्षण गुमती जाती है, लौटने की दिशा। जंगल के आदमी की खोज में उसके पीछे-पीछे जाना निरर्थक है। इस तरह जाकर कहीं नहीं पहुंचा जा सकता है।
''...अनुमान के भरोसे हम कहां तक जा सकते हैं?''
दूसरे शिक्षक ने पहले से कहा। पुलिस वाला कहने लगा -
''जाना तो पड़ेगा। ठीक है, कि वह कठिन है सिद्ध कर पाना कि जो अपराध हुआ वह जंगल में हुआ, पर फिर भी...।''
''यह यात्रा निरर्थक लग रही है।''
''यात्रा। हां, यह यात्रा ही है। मैं कभी इसे अपराध का अन्वेषण नहीं मान पाया। जंगल में अपराध का अनुसंधान एक यात्रा है...।''
''मेरा मतलब है कि हमें अब लौटना चाहिए।''
''काम अभी शुरू हुआ है। इसमें समय लगेगा।''
''मैं थक गया हूँ।''
''थोड़ा सुस्ता लो।''
''मैं इतना थक गया हूं, कि अब लौटना चाहता हूं।''
'यह मुमकिन नहीं। फिलहाल तो बिलकुल भी नहीं। आपको चलना ही पड़ेगा। वर्ना लूटे गये माल-असबाब को पहचानेगा कौन। फिर आप पीडि़त पक्ष हैं।'
पुलिसवाला और दोनों शिक्षक थोड़ी देर को रुक गये। दूसरे शिक्षक ने एक शब्द को गुना- पीडि़त पक्ष। उसे चार अठन्नी और कपड़े लूटने को उत्सुक दो आंखें दिखीं, जो थोड़ा-थोड़ा मुस्कुरा भी रही थीं। जो बड़े इत्मिनान से उसे घूर रही थीं। काले चेहरे पर दो सफेद आंखें जो उसे डरा नहीं रही थीं। आज भी दिखती हैं तो डराती नहीं। उनमें एक अजीब सी उत्सुकुता, उतावलापन और अचरज था। वे हड़बड़ी में नहीं थी। वे लूटकर भागने की फिराक में नहीं थीं। वे चौकन्नी नहीं थीं। उनमें घृणा और डराने के भाव नहीं थे। वे किसी लुटेरे की आंखें नहीं थीं। उन्होंने उस पर तीर धनुष ताना था, पर थोड़ी देर बाद उन्होंने यकीन कर लिया कि वह भागेगा नहीं। पुलिसवाले ने भी एक शब्द गुना - लूट, फिर एक और शब्द - माल असबाब। वह उस लूट का अनुसंधान कर रहा था, जहां लुटेरा सैंकड़ों रुपयों को यूं ही छोड़ गया था। जो उस धन को फालतू मानकर छोड़ गया था। वह उस माल-असबाब को ढूंढ रहा था, जो सिर्फ और सिर्फ उत्सुकता और मोहकता के कारण ले लिये गये थे। उसे क्षण भर को लगा कि उसकी नौकरी कितनी फालूत किस्म की है।
''मैं पीडि़त नहीं। यह बस अनैतिकता का प्रश्न है।''
''अनैतिकता?''
पुलिसवाले ने फिर कहा। इस बार धीरे से। शिक्षक उससे मुखातिब नहीं था। वह खुद से भी मुखातिब नहीं था। वह बस कह रहा था।
'हां। अनैतिकता। यह जंगल के लिए उसूल की बात भी है। जंगल को अनैतिकता से बचाना होगा। जंगल में अनैतिकता नहीं रही है। जिन्होंने अपराध किया उन्हें दण्डित करना जरूरी हैं।'
'उसूल?'
पुलिसवाले ने फिर धीरे से कहा।
दूर तक सागौन ही सागौन के पेड़े थे। जमीन सूखे पत्तों और कंटीली झाडिय़ों से अटी पड़ी थी। पुलिसवाले ने क्षण भर को दूर तक पसरे अंतहीन सन्नाटे को सुना। शिक्षक ने देखा घने पेड़ों के नीचे एक बामी है और बामी में एक सांप और चींटियां एक साथ घुस रही हैं। दूर से आती मधुमक्खियों की भिनभिनाहट की मरगिली सी आवाज उस सन्नाटे को तोड़ रही थी जिसे पुलिसवाला सुन रहा था। दूर असंख्य पहाड़ थे और जंगल और पहाड़ों के बीच घाटियां थीं। वहां कोई रास्ता नहीं था। लूटने के बाद वे वहीं से गये थे। वहां सिर्फ जंगल थे और एक बारगी यकीन करना मुमकिन न था, कि कोई यहां से भी जा सकता है, कि यहां से जाकर किसी अज्ञात और अचिन्ही जगह पर पहुंचकर मुकाम मिल सकता है। पुलिस वाले ने अपने मुंह के दोनों और हथेलियां लगाईं और जोर से चिल्लाया - उसूल। फिर दुबार चिल्लाया - उसूल। घाटी और पहाड़ से टकराकर जंगल के रास्ते गोल-गोल होकर आवाज प्रतिध्वनित होकर वापस लौटी, दो बार, तीन बार, हर बार और कमजोर होती- उसूल, उसूल, उसूल...।
पुलिसवाला और दूसरा शिक्षक एक दूसरे को देखकर मुस्कुराये। उस जंगल में उस समय उसूल जैसा शब्द बेहद बौड़म लग रहा था। जंगल के लिए बाहरी दुनिया का उसूल तक बेमानी ही था। उस बियावान और दुनिया से हमेशा विलग रही सृष्टि के लिए उसूल एक अजीब और थोड़ा हास्यास्पद शब्द था। पता नहीं तब तक वह जंगल की भाषा में आया भी था या नहीं। दोनों को पता था, कि जंगल के किसी भी अर्थ का अर्थ वह उसूल नहीं है, जो बाहरी दुनिया का है।
''यह कवायत अर्थहीन है।''
पुलिसवाले ने कहा। दूसरे शिक्षक ने क्षणभर को रुरकर उसे देखा और फिर उसके साथ चलने लगा।
'नहीं यह आपका दायित्व है।'
'देखिए, हम यहां आपका कुर्ता, पायजामा और अंगोछा ढूंढने आये हैं...।'
'पैसे भी।'
'हां चार अठन्नियां। सिर्फ चार।'
'पर वह लूट थी।'
'उस तन को जो एक बार अपनी देह ढंक लेने की इच्छा से कपड़े ले लें...।'
'...'
'...और हां चार अठन्नियां भी। इसलिए नहीं की पैसा है, बल्कि शायद इसलिए कि वह सुंदर है, खनकता है...।'
'पुलिस का काम अपराध को देखना है। आप भटक रहे हो।'
'मेरा बॉस भी यही कहता है, कि हर जगह बस एक ही चीज देखो, अपराध सिर्फ अपराध...। अपराध पर सोचो नहीं। पर क्यों न सोचूं, कहां दर्ज है कि पुलिसवाला अपराध के बारे में, उसके बनने के बारे में, उसके अपराध होने के बारे में नहीं सोच सकता। मैं सोचता हूं। पुलिसवाले को सोचना चाहिए...।'
'मुझे इन सब बातों से मतलब नहीं। आप बस मेरा काम कर दो।'
'मैं इस बात को समझना चाहता हूं। इस उसूल को जिसके दायरे में कीमती चीजें तुच्छ हैं और कुर्ता-पायजामा को इसलिए सिर्फ इसलिए ले जाना चाहता है, क्योंकि वह उत्सुक है, समझना चाहता है, महसूस करना चाहता है...। जहां आज भी पैसे निरर्थक है।'
''इस बात का मतलब?''
दूसरा शिक्षक थोड़ा झल्लाने लगा।
''मतलब यह कि जहर बुझे तीर के बाद भी घनघोर एकान्त में किसी वारदात को अन्जाम देने की सुरक्षा के बाद भी, वह सिर्फ और सिर्फ उत्सुक है।''
''आपको मेरी मदद करनी ही होगी।''
दूसरा शिक्षक थोड़ा अधीर हो गया।
''जब वह ताने था आपकी छाती पर जहर बुझा तीर तब उसकी आंखों में एक बेहद मासूम सी लिप्सा थी। जब आप डर रहे थे, कि वह मार ही डालेगा, तब वह बस इतना ही चाहता था कि बरसों से नग्नता पर वह कपड़ों का स्पर्श पा ले। भले एक बार ही।''
''नहीं। आप गलत हो। बिल्कुल गलत। यह अपराध है। अपराध।''
''मेरा बॉस भी यही कहता है।''
''वह सही है।''
''किताबें यही कहती हैं। हमारे तमाम शब्द, सत्य, न्याय और नैतिकता भी यही कहते हैं। कहते हैं कि यह अपराध है।''
''इसमें कोई प्रश्न नहीं। हमारी महान सभ्यता के कायदे जिन्होंने तय किया मूल्यों को। इंसान के हजारों साल के इतिहास में तय होते आये मूल्य, कि अपराध है। सिर्फ अपराध।''
पुलिसवाला चलते-चलते रुक गया। उसने क्षण भर को सोचा और फिर कहने लगा-
''आपकी पहली बात सही थी।''
''कौन-सी बात?''
''यही कि अनुमान के भरोसे हम कहां तक जायेंगे।''
वह लौटने लगा। दूसरा शिक्षक थोड़ी देर तक तो उसे देखता रहा, फिर मन मारकर उसके पीछे-पीछे चलने लगा। पुलिसवाले ने धीरे से कहा- पुलिसवाले को सोचना नहीं चाहिए...। रुककर फिर दुबारा गुना... पुलिसवाले को सोचना नहीं चाहिए। फिर रुका और मुड़ा। दृश्य अभी भी वही था, जंगल के पार पहाड़ और पहाड़ और जंगल के बीच गहरी घाटी। उसने अपने मुंह के दोनों ओर हथेली लगाई और जोर से गंदी गाली देता चिल्लाया इसकी मां का...। जंगल के रास्ते आवाज वापस आई, एक बार, दो बार, तीन बार... इसकी मां का...। उसने शिक्षक को घृणा भरी नज़रों से देखा और एक तरफ थूक दिया। दूसरा शिक्षक बुरी तरह घबरा गया।
वे बिना माल-असबाब के लौट गये।
उस रात पुलिसवाले ने उस अपराध की डायरी लिखी। पहले कुछ और लिखा फिर यह सोचकर कि यह बात शायद ही किसी को समझ आये पहले लिखे को काटकर दुबारा कुछ और लिखने लगा। वह कुछ इस तरह लिखना चाहता था, कि पढऩे वाले को वह बात समझ आ जाये जिसे वह लिखना चाहता है। पर जैसे वह हर बार असफल हो रहा था। अक्सर असफल हो जाता था। वह लिखकर ठीक से बता नहीं पाता था। उसे पता था, कि निरपराधी के पक्ष में लिखना कितना तो कठिन है। यह बता पाना बेहद जटिल और रिस्की है, कि जो आरोपी था, वह निरपराध था। बेगुनाह के पक्ष में होना कितना भयावह और उलझाव भरा काम है, वह सोचता। एक ऐसे समय में जब सारी दुनिया जंगल में अपराध की तलाश कर रही है, यह काम और भी कठिन हो जाता है। हर कोई चाहता है, कि यह बार-बार प्रमाणित हो कि जंगल में भी अपराध होते हैं। कि जंगल भी उतने ही अपराधी हैं, जितनी बाहर की दुनिया। हर कोई चाहता है, कि यह सत्य हो जाये कि जंगल में भी उसी तरह अपराध होते हैं, जैसे कि बाहर की दुनिया में। जंगल के लोग भी उतने ही हत्यारे, लुटेरे और बलात्कारी हैं, जितने की बाहर की दुनिया के लोग। हर बार की तरह उसने ठीक-ठीक लिखने की कोशिश की। उसने लिखा कि, कपड़े जैसी सर्वव्याप्त, सर्वउपलब्ध और कितनी तो सामान्य-सी चीज़ को महसूस कर लेने, सिर्फ़ महसूस भर कर लेने की कितनी भोली इच्छा। क्या नग्न शरीर को कपड़े के स्पर्श को, जीवन में कभी कहीं महसूस कर लेने की इच्छा को, गैर-इरादतन मानते हुए अपराध जाना जा सकता है.... वे जिनके लिए धन निरर्थक है, गैर-इरादतन भी, लूट के अपराधी नहीं... अत: यह सही ही होगा, अगर इस मामले में खात्मा लगा दिया जाये।
...न्यायालय ने पुलिसवाले का तर्क नहीं माना।
...बड़े अधिकारी याने पुलिसवाले के बॉस ने विवेचना देखकर घोषणा कर दी कि पुलिसवाला अन्वेषण नहीं जानता, व्याख्याएं नहीं समझता। उसने यहां तक कहा कि उसकी जंगल के लोगों से सांठगांठ हैं।
पुलिसवाले को सस्पैण्ड कर दिया गया।
दूसरे शिक्षक ने एक पत्रकार को जो इस मामले में उससे हकीकत जानना चाहता था, बहुत जोर देकर बार-बार कहा कि पुलिसवाला अपना काम ठीक से नहीं करता था, ठीक है कि वह जंगल की मासूमियत, निर्लिप्तता और सादगी की बात करता था, पर वह कानून का पालन भी नहीं करना चाहता था। उसे दण्ड मिलना ही चाहिए था।

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