कहीं कुछ गलत हुआ है!

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    सितम्बर 2014
श्रेणी लम्बी कहानी
संस्करण सितम्बर 2014
लेखक का नाम कैलास चन्द्र





लम्बी कहानी/दो








राहुल बीमार हैं।
अवसाद में घिरे हैं राहुल। न किसी से ठीक से बोल रहे हैं और न ढंग से कुछ खा-पी रहे हैं। उस सितारा हॉस्पिटल की तीसरी मंजिल पर स्थित अपने वार्ड में दिन भर और देर रात उनकी पलकें नींद से भारी होकर जब तक मुंदने नहीं लगतीं वे चुपचाप पड़े रहते हैं सीधे चित्त और कभी-कभी देर तक अपलक रुफिंग की सफेदी को ताकते रहते हैं। हॉस्पिटल की उस सफेदी में प्राण नहीं हैं। वह उदास और निचाट सफेदी हैं जिसमें जीवन का स्पंदन गुम हो जाता है।
हॉस्पिटल के बाहर यद्यपि मंद समीर है और उस समीर में नीम के पेड़ की हिलती हुई पत्तियां हैं और अदम्य शोर के बीच भी मिट्टी की सुगंध का आभास है। पर उस वार्ड की खिड़की से एक बेहूदा संगीत लम्बी-चौड़ी मल्टीप्लेक्स बिल्डिंग अपनी पूरी भयावह विराटता में दिखती है। दिखना जैसे क्रूरता की बाराखड़ी है जिसे बांचना राहुल के लिए दुर्दान्त हो गया है। भीतर की एसी कूलित घुटी हवा में राहुल जैसे कैद होकर जी रहे हैं। रोज अपनी फेरी के वक्त डा. सिद्धनाथ उनसे कहना नहीं भूलते हैं- स्माइल मि. राहुल। क्यों अपनी खुशियों को कैद करके बैठ गए हो। जीवन जियो। देखो यह आसपास का संसार कितना दिलचस्प और सम्भावनाओं से भरा है।
पर राहुल जवाब नहीं देते। जैसे डाक्टर की सलाह को सुनते ही नहीं।
उनके चेहरे पर कोई परछांई भी नहीं। एकदम निर्विकार चेहरा बुद्ध की तरह, पर प्रकाशवान नहीं। इस स्थितप्रज्ञता में एक जबरदस्त ठण्डक है। उनकी पत्नी संगीता दिन के अधिकांश समय उनके बेड के पास बैठी रहती हैं इस प्रत्याशा में अभी राहुल कुछ मांगेगे, पानी, कॉफी, चाकलेट। जो उनका मन हो। पर उनको निराशा होती है। राहुल कुछ नहीं मांगतें। अपरान्ह के तीन बजे एक लेडी फिजियोथेरिस्ट आती है। कुछ एक्सरसाईज कराती है। राहुल से बात करती है, उनको जोक्स सुनाती है या कुछ छोटी कविताएं, कभी मुल्ला नसीरुद्दीन के कुछ दिमागी किस्से। उनको बातों में घेरने की कोशिश करती है। बस इतना परिवर्तन होता है राहुल में कि वे उसका चेहरा देखने लगते हैं। जाते-जाते वह संगीता से कहती जाती है- प्लीज मेडम! उन्हें इस बेरहम चुप्पी से बाहर निकालिए। ये अपने आप में घुट रहे हैं। इनके कुछ फेवरिट टीवी शो होंगे। उनको दिखाइए। टीवी है ही  यहां। इनको वापस जीवन में लौटा लाइए। यह आप ही बेहतर ढंग से कर सकती हैं। करिए...
संगीता ज्यादा चिंतित हो जाती हैं। वे अभी से स्थूल होने लगीं है जब कि उमर मुश्किल से 23 साल पूरी की है। अभी से उनका बीपी हनुमान टौरिया चढऩे लगा है।
राहुल बीमार हैं। अपने भीतर की अंधेरी पर्तों से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं अथवा ऐसी कोई कोशिश ही उन्होंने बंद कर दी है। डाक्टरों की बुलेटिन जारी होती है रोज ही। सायंकाल को वे उनके करीबियों को बताते रहते हैं- हालत स्थिर बनी हुई है। उनके सभी अंग ठीक काम कर रहे हैं - गुर्दा, वृक्क, हृदय। मस्तिष्क शांत है एकदम जैसे देर रात किसी सरोवर का जल शांत हो जाता है। विचारों की कोई हलचल नहीं, कोई आहट नहीं। मस्तिष्क की कोशिकाएं और न्यूरॉन्स एकदम जीवित और चैतन्य हैं। पर पूरे मस्तिष्क में कहीं संदेशों की आवाजाही नहीं हो रही है। वे अतल अवसाद और अपनी ही असमर्थता में गहरे डूबे हुए हैं।
तो राहुल बीमार हैं। शरीर और मन से एकदम दुरुस्त। पर अवसाद में जिसका जाल वे नहीं काट पा रहे हैं। सभी उनके लिए चिंतित है। संगीता उनकी पत्नी, उनके ससुर जगमोहनलाल, उनके दोनों साले- शरदेंन्दु और नवेन्दु, साली पंखुरी और उसके पति नवागत। सास कौशिल्या का देहांत दो साल पहले हुआ है। राहुल के अवसाद की कोई वजह समझ में नहीं आ रही है- मनोचिकित्सक बताते हैं। लेकिन आश्चर्य यह लगता है कि 30 वर्ष के राहुल के साथ ऐसा क्या हादसा हुआ कि वे गहरे अवसाद में चले गए। उनका अपना सुखी परिवार है और अपने दो बच्चों को वे बेइन्तिहां प्यार करते हैं। उनके प्यार का कौन सा भरा कोश खाली हो गया है और वे एकदम तन्हा हो गए हैं और उनको गहरी न टूटने वाली उदासी ने घेर लिया है। हॉस्पिटल में भरती होने के पहले तक तो सब कुछ ठीक ठाक था। कोई हादसा भी नहीं हुआ जिसकी वजहें उनके चित्त पर जा चिपकीं हों।
किशोर राहुल ने आंगन में उतर कर धमाचौकड़ी मचाने वाले गिलहरी का नाम चींचीं रख दिया है। वहां उस पत्थर के पटियों से पटे सरकारी बंगले के विस्तीर्ण आंगन में तीन चार गिलहरियां थीं जो दिन भर उस आंगन में बेतहाशा दौड़ती रहतीं थीं। इनमें सबसे ढीठ यह चींचीं ही थी। इतनी ढीठ और चतुर कि राहुल की गदेली पर रखी बादाम की गिरी को झपट कर ले जाती और उसको पकडऩे की ताक में लगे राहुल को मौका नहीं मिलता था। राहुल जब भी आंगन में जाता चींचीं उसे देख कर फौरन प्रकट हो जाती।
आंगन में एक सूख गया बड़ा पीपल का पेड़ था जो केवल अस्थिपंजर के रुप में खड़ा था। उसके तने से सटकर एक नीम का पेड़ भी उग आया था और उसकी शाखाएं आसपास फैल रहीं थीं। नीम की थोड़ी सी छांव आंगन की निचाट धूप को दुलरा जातीं थीं। अन्य गिलहरियां तो नीम के पेड़ पर ही धमाचौकड़ी मचातीं थीं पर चींचीं पीपल और नीम दोनों पेड़ों पर दौड़ लगाती थी। उसे दोनों पेड़ प्रिय थे। नवागत और पुरातन दोनों।
चींचीं नाम राहुल का दिया था।
जब वे इस घर में आए थे तो राहुल यह देख कर बहुत खुश था कि उस बंगले के पीछे दूर तक हरियाली थी और आसमान धूल रहित निरभ्र था। साफ शफाक धूप चारों तरफ छिटकती थी। पानी बरसता था धारासार। चटखती गरमी पड़ती थी और सरदी के दिनों में आंगन की धूप घर भर को अपने आगोश में खींचती थी। वैसे आंगन काफी विस्तीर्ण था। उनके आने के पहले भी उस आंगन में पंछियों और गिलहरियों की धमाचौकड़ी मचती रहती थी। पर राहुल ने उनकी शैतानियों और चहल-पहल में प्राण भर दिए थे। उसे यह सब पसंद था।
पापा नहाने के बाद ध्यान पूजा से फारिग होकर पीपल के उस सूखे पेड़ वासुदेव को जल चढ़ाने लगे थे। आधी बाल्टी पानी राहुल भी डाल देता था। साल भर भी नहीं बीता कि उस सूखे पीपल में दो टहनियों के जोड़ पर किसलय उग आए हल्के ललछौंह से। सूखे तने में कुछेक कोशिकाएं शायद अभी जीवित थीं और उसी के सहारे धरती का सत खींच कर पेड़ पुनर्जीवन पाने की आहट दे रहा था। चींचीं उन पत्तों से अठखेलियां कर आती थी। अब वह आंगन से सीधे सरसराती चढ़ती और उन पत्तों के पीछे छुपने की कोशिश में लग जाती- ढूंढो मुझे। यह कहती शायद।
नए पत्ते इतनी ऊंचाई पर उगे थे कि राहुल चाह कर भी उनको सहला नहीं सकता था। जब कि उनका मन ललकता रेशम से मुलायम उन पत्तों को सहलाने का। एक दिन उसे लकड़ी की एक सीढ़ी मिल गई। कुछ दिनों पहले उस बंगले में पुताई हुई थी और मजदूर उस सीढ़ी को हाल-फिलहाल वहीं छोड़ गए थे। सबसे ऊपर डण्डे पर राहुल ने पांव रखा ही था कि किसी काम से गुंजन मौसी बाहर आंगन में आ गई थीं। उन्होंने राहुल को देख लिया तो नाराज हुईं- का करते हो राहुल। सीढ़ी से कहां चढ़ रहे हो? गिर पड़ोगे।
बस उन पत्तों तक मौसी। उन्हें छू कर उतर आउंगा - राहुल ने सफाई पेश की। वैसे गुंजन मौसी राहुल की सबसे अच्छी सखी थीं।
इस पर गुंजन खीझ गईं और उन्होंने अपनी बड़ी बहन यानि राहुल की ममा संजना को आवाज दे दी- दीदी! देखो तो राहुल कहां चढ़े हुए हैं।
मां जानती हैं कि राहुल वैसे कोई शरारत नहीं करता। पर गुंजन की अपील पर वे आंगन में चली आईं। देखा राहुल को तो उनकी सांस ऊपर चढ़ गई।
उतरो राहुल। पांव फिसल गया तो चोट लग जाएगी- उनके स्वर में चिंता की गहराई थी। राहुल उतरा भी तो ऊपर से नीचे कूद कर। दोनों बहनों के मुंह से हाय निकल गया।
पत्ते छूने चढ़ा था। छूने नहीं दिया - राहुल बैठक में चला गया जैसे रुठकर। पेड़ की डाल पर चींचीं बैठी उसे ललकार रही थी। जब कि राहुल के दोस्त बाहर के ग्राउण्ड में क्रिकेट खेल रहे थे।

गुंजन मौसी विधवा हैं। कम उम्र में ही विधवा हो गईं। घर में मां-बाप पहले ही खतम हो गए थे। दो भाई थे। दोनों ही विधवा बहन का भार उठाने से मना कर रहे थे। लिहाजा संजना बड़ी बहन ने उसे अपने पास बुला लिया था। संजना एक बड़े बैंक में मैनेजर हैं और उसके पति यानि कि राहुल के डैडी एक हायर सेकेंड्री स्कूल में व्याख्याता हैं। उस बड़े शहरनुमा कस्बे में पुराना सरकारी बंगला बुक रेण्ट पर डैडी को मिला हुआ था। कमरे छोटे पड़े थे और सामान ज्यादा था। पर संतोष यही था कि बिना किसी झंझट के एकांत में रह रहे हैं।
गुंजन मौसी ने आकर घर संभाल लिया था। बहन बहनोई दोनों नौकरी पेशा और घर में किशोर राहुल। अब घर में गुंजन की ही चलती थी। किराना का सामान खरीदने वही जाती थी। साथ में थैला पकड़े कभी राहुल भी साथ लग लेता था। तिराहे पर सब्जी लेने गुंजन ही जाती थी। दुपहर या शाम को सब्जी में क्या पकना है वही तय करती थी। इसमें कभी-कभी राहुल से उसकी तकरार हो जाती थी। जैसे राहुल को घुईयां और लौकी बिलकुल पसंद नहीं आती थीं। जब ये सब्जी बनती तो गुंजन राहुल भर के लिए उसकी पसंद की सब्जी अलग से बना देती थीं और तब दोनों में सुलह हो जाती थी।
जब कभी कपड़े खरीदने की नौबत आती तब भी दोनों में तकरार हो जाती थी। राहुल को सादे कपड़े ज्यादा पसंद आते थे। गुंजन स्वाभाविक रुप से चटख रंग पसंद करती थी। तब संजना को बीच बचाव करना पड़ता था - अपने हिसाब से जो कपड़े राहुल को लेना हो उसी रंग और पसंद के कपड़े ले लो। बाकी कपड़े गुंजन पसंद करेगी।
इस वजह से घर में गुंजन और राहुल में नोंक-झोंक चलती रहती थी। पर रात को अपना होमवर्क पूरा करने के बाद वह सोता अपनी मौसी के संग ही। एक बड़ा सा पलंग जिस पर मोटा क्वायर का गद्दा और एक खूबसूरत सी मुलायम चादर बिछी होती थी।
गुंजन की निगाहों में पूरे समय स्कूल से लौटता राहुल रहता था। उसकी किसी परेशानी से वह चिंता में पड़ जाती थी। जितनी देर वह स्कूल में रहता उसके प्राण धक-धक करते रहते थे।
एक बार संजना ने लोहे की आलमारी के ऊपर रखा जूते का डिब्बा बाहर बने गैरेज में रखवा दिया था। एक चुहिया ने उसमें पांच बच्चे दिए थे। बच्चों की आंखें अभी नहीं खुली थीं। राहुल रोज ही स्टूल पर चढ़ कर बच्चों को देख लेता था। गुंजन ने दीदी को मना भी किया कि डिब्बे को बाहर न फैंको राहुल गुस्सा होगा। पर संजना चिढ़ी हुई थी कि अभी एक चुहिया पूरे घर में कुछ न कुछ काटती रहती है अब इसके पांच बच्चे और हो गए हैं।
राहुल स्कूल से लौटा और उसकी निगाह आलमारी के ऊपर गई और डिब्बा को अपनी जगह न पाकर सबसे पहले मौसी से ही जवाब तलब किया। गुंजन ने उसको गैरेज की वह जगह दिखा दी जहां संजना ने डिब्बा रखा था। राहुल ने वह डिब्बा उठा कर फिर आलमारी के ऊपर रख दिया।
देर शाम संजना लौटी और फिर जब अचानक उनकी निगाह आलमारी के ऊपर गई तो गुंजन ने बता दिया कि राहुल ने फिर उठा कर रखा है। राहुल से पूछा तो उसने कहा-ममा! जैसे तुम अपने बच्चे को यानि मेरी फिकर करती हो, वैसे ही वह चुहिया भी करती है। उसने सुरक्षित जगह तलाश ली और उसी में अपने बच्चे दे दिए। उन बच्चों को बाहर कोई बिल्ली और कुत्ता खा जाता तो?
अब इस तर्क पर ममा क्या कहतीं जब गुंजन की भी इस कृत्य में सहमति थी।
अक्सर चारदीवारी की काई लगी मुंडेर पर चार-छह: गलगलियां कहीं पीछे हार से उड़ कर आतीं और बैठ कर चहचहाने लगतीं थीं। गुंजन जो रसोई में नाश्ता तैयार कर रही होतीं या सफाई में लगी होतीं इन आवाजों से चिढ़ जातीं। वे बाहर आकर सभी को उड़ा देतीं। राहुल कमरे में होता और मौसी से कहता- मौसी क्यों उड़ा दिया। तुम्हारा क्या लिए थीं भला। वे आपस में कोई बातचीत कर रहीं होंगी।
वे शोर मचा रही थीं- गुंजन खीझ कर जवाब देती।
और जो तुम बोल बोल कर चखचख करती रहती हो दिन भर तो कुछ नहीं- राहुल और गुंजन मौसी में दिन भर ऐंसी रार चलती रहती थी और कभी-कभी तो संजना को इस रार में दखल देना पड़ता था।
मौसी गुंजन ने किसी छुट्टी के दिन मूंग की बड़ी डालीं और सूखने के लिए एक चारपाई पर चादर बिछा कर आंगन में रख दीं। राहुल आंगन में कुर्सी पर बैठा पढ़ रहा था। गुंजन ने हिदायत दी कि देखे रहना- चिडिय़ां और गिलहरियां न खा पाएं। एक छड़ी भी राहुल की कुर्सी के पास रख दी।
कुछ देर बाद गुंजन जब किसी काम से वहां आई तो देखा कि बडिय़ों पर चिडिय़ों और तीन-चार गिलहरियों का हमला हो रहा है।
गुंजन बिगड़ पड़ी- सब बडिय़ां खबा लीं। किसी को भगाया क्यों नहीं।
अरे मौसी भूख लगी होगी उनको। क्यों नाराज होती हो। तुमको लगती है तो चपड़-चपड़ करके खाती हो। चिडिय़ों और गिलहरियों पर फालतू में गुस्सा निकालती हो।
तब तक मां संजना भी निकल आई थीं। दोनों की मुंहजोरी देख कर हंस पड़ी- न नाराज हो मेरी बहना! और डाल लेना।
मुझे क्या। बड़ी की सब्जी बनाने को न कहना। गुंजन खीझ से भरी भीतर चली गई। राहुल मौसी को मनाने उठ कर भीतर चला गया।
सुबह आंगन में धूप उतरती आसमान से और आंगन गिलहरियों की दौड़ों से भर जाता था। राहुल आंगन में दाने बिखेर देता। कभी-कभी वह गिलहरियों को बादाम की गिरी देता। गौरेयों और कभी कभी तोतों की पांत उतर आती आंगन में। पीपल के सूखे ठूंठ पर उग आई कोमल लाल पत्तियों में सुबह की धूप घुसती तो रंगों का आर्केस्ट्रा बजने लगता था।
क्वार्टर के पीछे कृषि उद्यान विभाग का तालाब था। वहां पांच बत्तखें पली थीं। वे प्राय: बगल की बाड़ में बनाए गए रास्ते से निकल आतीं और कतार में एक के पीछे एक सामने से निकलतीं। उनकी क्वाक क्वाक की आवाज सुन कर राहुल बाहर निकल आता और दौड़ कर उनके लिए दाने बिखेर देता। गुंजन समझाती उसे कि बत्तखें चोंच मार कर मांस निकाल लेती हैं। इनसे बच कर रहना। पर राहुल क्यों चेतने लगा। उसकी उनसे दोस्ती हो गई थी। वह भी गले से क्वाक की आवाज उनके पीछे से निकालता तो बत्तखें ठिठक कर खड़ी हो जातीं थीं।
गुंजन मौसी अब राहुल को आंगन में खाना नहीं देती थीं। राहुल खीझता, ममी संजना से शिकायत तक करता। पर गुंजन नहीं सुनती। राहुल धूप, गिलहरियों, गौरइयों और पीपल के पेड़ की ललछोंही रंग की पत्तियों की आभा के बीच खाना खाना चाहता था। इसी पर रार होती। वह कहता यह पेड़ अगर पत्तियों से भरा होता तो गर्मियों में पूरा आंगन इसकी छाया से भरा होता। इस पर गुंजन का जवाब होता- पर सर्दियों में तो इस छांव के कारण ठिठुरते। पीछे का दरवाजा खोलकर राहुल उद्यान को देखता, उसमें बने सरोवर को निहारता, उद्यान के पीछे शायद मीलों तक फैले जंगल और हार को देखता, खेतो में खड़ी पकी फसलों को सूंघने की कोशिश करता, आम, महुआ, गूलर, कैथे, शीशम और नीम के पेड़ों को देखता और अपनी गुंजन मौसी से कहता - चलों इनके बीच घूमने चलें। कितने सुंदर लगते हैं पेड़ पौधे। झरबेरियों के बेरों का स्वाद तो अलग और अनूठा होता है। चने की खौंटी हुई भाजी होंठों और जीभ पर जो नमक छिड़कती है उसका स्वाद बताया नहीं जा सकता है।
गुंजन मौसी उसके कुदरत प्रेम से पिण्ड छुड़ा लेती- हटो राहुल कितना काम पड़ा है। इतनी फुरसत कहां है? राहुल उदास हो जाता। उसकी दिन भर की सखी-सहेली, मौसी गुंजन ही भर तो है। जिनसे वह लाड़ लड़ा सकता है, जिद कर सकता है, अपनी बात मनवा सकता है। उनको अपने साथ बैठा कर बग्घा-गोटी या लूडो खेल सकता है।
बेचारी गुंजन। जिसने जब महकना चाहा तो पतझड़ टूट पड़ा उसके ऊपर। राहुल सोचता है वह मौसी की खुशियां लौटाएगा। पर कैसे उसे पता नहीं है। वह उनके दुखों के बारे में इतना ही जानता है कि वे विधवा हैं, उनका जीवन सूना है। बड़ी जीजी के अलावा उनका दुनिया में अब कोई नहीं है। कहने को उनकी ससुराल भी है पर उनको सम्पत्ति में कुछ देना पड़ेगा इसलिए वे चाहते हैं कि यह बला दूर ही रहे तो अच्छा है।
जीजी संजना ने गुंजन को अपने पास बुला लिया। उनका भी अपना स्वार्थ है। पति-पत्नी दोनों नौकरी पेशा हैं। राहुल बड़ा हो रहा है। उसे सहारा और साथी दोनों चाहिए। सूने घर में कोई जिम्मेदार प्राणी रहना चाहिए। वह जिम्मेदारी उन्होंने गुंजन को दे दी है और निश्ंिचत हो गई हैं। गुंजन ने सब कुछ संभाल लिया है। इस घर में उनको सब कुछ मिल गया है। बस पति की याद उसको जब तब बेचैन कर देती है।
गुंजन मौसी राहुल को अब बरामदे में ही खाना देती है। वह लाख जिद करे पर वह नहीं सुनती है। बाहर गौरइया और गिलहरियां राहुल के खाना में हिस्सा बंटा लेती हैं। वह कुर्सी के सामने स्टूल रख देती है और स्टूल पर थाली सजा देती हैं। गरम-गरम रोटियां सेंक कर देती है खूब घी चुपड़ कर। मेहनत से पढ़ाई करता है तो दिमाग को गिजाँ तो मिलनी ही चाहिए। रात को सोने के पहले दूध देना और उसमें एक चम्मच घी डालना वे नहीं भूलतीं। पर वह गिलहरी जिसे राहुल चींचीं कह कर पुकारता है शरारत करने से नहीं चूकती। दरवाजे से घुस कर सतर्क निगाहों से यहां-वहां देखती है शायद गुंजन मौसी की उपस्थिति को सूंघने की कोशिश करती है। पर वे दिखती नही। वे रसोई में है राहुल के लिए रोटिया सैंक रही है खूब फूली हुई। फिर चींचीं राहुल को देख लेती है। भोजन की सुगंध उसे पीपल की ऊंची डगालों से नीचे खींच लाती है। उसके घौंसले तक खूशबू हवा की पीठ पर सवार होकर पहुंच जाती है। वह पत्तों के बीच हो फिर भी सुगंध वहां तक रिस जाती है। वह सर्र से नीचे उतरती है आंगन में और यहीं सतर्क हो जाती है। आसपास कहीं मौसी तो नहीं है जो छू कह कर उसे भगा देती है।
वह तेजी से आगे बढ़ती है। स्टूल के पाए के पास पहुंच जाती है। फिर सतर्क निगाहों से माहौल को परखती है। एक झपाटे में स्टूल पर चढ़ जाती है। सामने चावल दाल और सब्जी से भरी थाली है। कुर्सी पर राहुल बैठा है। चींची निश्चिंत है उसे देख कर। वह दो पांव थाली में जमा कर चावल में मुंह मारने लगती है। राहुल कुछ नहीं बोलता उसकी इस हरकत पर। वह तो मुदित है उसे देखकर। चींचीं जल्दी-जल्ती चावल मुंह में भर रही है। उसे मौसी का डर सता रहा है। वह भलें ही वहां बरामद में उपस्थित नहीं है पर रसोई में उसकी खटर-पटर सुनाई दे रही है।
वे सहसा गरम फूली रोटी उस पर घी चुपड़े आ जाती है और चींचीं की इस हरकत पर जोर से छू कहती है और राहुल को भी हल्की झिड़की देती है- उसे भगा नहीं सकते थे। इस बीच चींचीं रफूचक्कर। अब दोबारा शायद ही आए। मुंह में कौर चबाता राहुल मौसी की झिड़की पर हल्का सा मुस्करा देता है। रोटी थाली में रखकर मौसी फिर से रसोई में चली जाती है। अब राहुल दबे पांव उठता है। उसके हाथ में घी चुपड़ी गरम रोटी का एक बड़ा टुकड़ा है। वह आंगन में चींचीं को तलाशता है। वह नहीं दिखती। पेड़ या मुड़ेर के पीछे होगी या अपने घौंसले में चली गई होगी। राहुल रोटी का टुकड़ा एक ईंट पर रखकर लौट आता है। पर उसे डर सताता रहता है कि कोई कौवा न हड़प ले। उसके पंखों की फडफ़ड़ाहट से ही अंदाजा लग जाता है कि ले उड़ा। अपना-अपना भाग्य।
कभी-कभी चींचीं ढीठ भी हो जाती है और मौसी की परवाह नहीं करती। वह आ जातीं है और वह भागती नहीं है। वह छू कह कर उसे भगाने की कोशिश करती है। वह नहीं जाती। वहीं चक्कर काटती रहती है। वह राहुल को दोष देती है कि उसने चींची को ढीठ कर दिया है। आंगन में लगे मोटे तार की अलगनी पर सूखते कपड़ों पर वह ऐन मौसी की आंखों के सामने यहां से वहां दौड़ लगा देती है। जैसे गुंजन को उसे पकडऩे की चुनौती दे रही हो। गुंजन उसे अचरज से देखती रह जाती है। वह समझती है कि चींचीं ने अपने गंदे पैरों से कपड़ों में दाग लगा दिए हैं। पर ऐसा होता कभी नहीं।
राहुल स्कूल की पढ़ाई के अंतिम सोपान पर इस साल पहुंच गया है। परीक्षा में बहुत मेहनत का ही नतीजा है कि आखिरी पेपर खत्म होते ही राहुल बीमार पड़ गया। उसे टायफायड हो गया। कम खाना, पढ़ाई की चिंता और बहुत मेहनत ने उसे झकझोर डाला है। राहुल बिस्तर से लग गया  है। वह बहुत कमजोर हो गया है। बरामदे के दक्षिण के कमरे में राहुल लेटा हैं। उसे उठने की मनाही है। राहुल की बीमारी से चींचीं कम परेशान नहीं है। उसे अब चावल, दाने, बादाम की गिरी और फूले हुए मक्के के दाने नहीं मिलते। एक दिन वह छानबीन की धुन में कमरे की चौखट तक चली आई। पर वहां राहुल की खाट के पैताने गुंजन मौसी कुर्सी डाले बैठी थी। उसको देख कर चींचीं ठिठक गई। भीतर जाकर राहुल का हालचाल पूछे या फिर मौसी के कोप के डर से यहां से खिसक ले। उसने ऐसे दिखाया जैसे अनायास वहां आ गई हो।
पर राहुल की निगाह उस पर पड़ गई, बोला-प्लीज मौसी! चींचीं को डपट कर भगाना नहीं। मौसी के दिल में ममता उतर आई, बोली-नहीं डपटूंगी। फिर भी चींचीं सशंकित रही आई। तब राहुल ने इसरार किया-प्लीज मौसी! इसे कुछ खाने को दे दो।
मौसी ने बैठे बैठे ही अलमारी से बादाम का डिब्बा उठाया और एक बादाम के चार टुकड़े कर देहरी के पास फैंक दिए। चींचीं अचम्भित। क्या हो गया आज मौसी को। डरते डरते उसने दो टुकड़े उठाए और रफूचक्कर। अब मौसी आंगन में ही दाने बिखेर देती रोज-चिडिय़ों, गिलहरियों और नेवलों के लिए। चींचीं फिर भी आती राहुल का हालचाल जानने। पर देहरी की चौखट उसकी लक्ष्मण रेखा थी जैसे। कभी नहीं फलांगती। पर जब देखा कि मौसी ने डपटना छोड़ दिया है तो एक दिन मौसी की अनुपस्थिति में राहुल की खाट के पाए तक चली आई। मुंह ऊपर उठाकर उसने शायद राहुल को देखने की कोशिश की पर उसे छत की पपडिय़ां हीं नजर आईं।
राहुल की नजर पड़ी, क्षीण आवाज में बोला-जल्दी ठीक हो जाऊंगा चींचीं। तुम फिकर न करना। फिर तुम्हारे साथ पूरी गर्मियों खेलूंगा।
पता नहीं चींचीं ने कुछ समझा या नहीं। अपनी ही भाषा में बोली- मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करुंगी प्रकृति पुरुष। तुमको फूलों, पत्तियों, मिट्टी, हवा और रोशनी से गठबंधन करना है।
चींचीं चली गई हवा और डूबती रोशनी के बीच। सांझ घिर आई थी और रात तेजी से उस आंगन में उतर रही थी। उन गर्मियों की शुरुआत से अंत के बीच में ही चींचीं, वासुदेव के ललछौंह पत्तों, गौरेयों-गलगलियों, बत्तखों की क्वाक-क्वाक, फसलों के बीच विचरती भीनी हवाओं, सरोवर के बीच से उठती शीतलताओं, झरबेरी के खट्टे-मीठे बेरों और चने के होरो के बीच राहुल ने स्कूल की अंतिम पढ़ाई बानवे प्रतिशत की चमकदार मेरिट के साथ पास कर ली।
मां संजना राहुल को टैक्नोक्रेट बनाना चाहतीं हैं। कोई अगर उनसे पूछे क्यों भला- डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस-आईपीएस अथवा महाविद्यालय का असिस्टेण्ट प्रोफेसर क्यों नहीं तो शायद उनके पास इस ख्वाहिश का कोई जवाब नहीं होगा। अचानक दिमाग में ख्वाहिश उठी और उन्होंने प्रकट कर दी। राहुल से पूछने की जरूरत इस वजह से महसूस नहीं की कि वह तो लड़का है, उसका कैरियर बनाने की जिम्मेदारी मम्मी-पापा की है। पत्नी की हर बात में सिर हिलाने वाले उसके पापा यानि कि संजना के पति ने हामी भर दी। उस पूरी गर्मियों में संजना ने केवल एक काम किया-एक अच्छा, उच्च एवं प्रतिष्ठित प्रोद्यौैगकी संस्थान खोजने का काम। इसके लिए उन्होंने तमाम जर्नल्स, वीकली और डेली मेगजीन्स खंगाल डालीं। पर उन्हें कोई मुकम्मल सूचना नहीं मिल पाई। अचानक एक बहुत बड़े शहर में ब्याही उनकी ननद अर्थात् पति महोदय की एकलौती छोटी बहिन श्रीमती रमा देवी का फोन आया और उन्होंने अनायास उनसे इस बारे में पूछ डाला।
रमादेवी ने उनको निराश नहीं किया। उन्होंने उनकी ख्वाहिश के अनुरुप उसी शहर के सर जानकीदास प्रोद्यौगिकी संस्थान का पता उनको दे दिया और यह भी बताया कि पिछले वर्ष आखिरी दाखिले की प्रतिशत अस्सी थी। संजना निश्ंिचत थीं। मेरिट के मामले में राहुल का परफार्मेन्स लाजवाब माना जा सकता था। प्रवेश परीक्षा की भी कोई समस्या नहीं थी। आनन फानन में राह निकल आई थी।
हुआ वही। राहुल को प्रवेश मिल गया इस प्रतिष्ठित संस्थान में। प्रवेश परीक्षा में सर्वोच्च अंक। अब राहुल को अपनी पूजनीय बुआ और फूफा जी की छत्रछाया में आगे की पढ़ाई उस बड़े शहर में करनी थी। उसे एक टैक्नोक्रेट बनना था एक प्रतिष्ठित और उपजाऊ प्रोद्यौगिक। मां संजना का सपना था यह और सपना पूरा होने में कोई कठिनाई भी नहीं थी। मम्मी-पापा दोनों उच्च वेतन कमाऊ थे। बुआ-फूफा का शानदार अपार्टमेन्ट था जो फूफा जी को एक इलेक्ट्रॉनिक कम्पनी के डायरेक्टर होने के कारण मिला था। अपार्टमेन्ट दो मंजिला था। सामने रोड के उस पार मल्टीप्लेक्स बिल्डिंग्स की कतारें थीं।
संस्थान फूफा के अपार्टमेन्ट से सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है। संस्थान की बैटरी चालित ईको फ्रेण्डली बसें चलतीं हैं। अधिकतर छात्र बस से ही आते-जाते हैं। इतने बड़े शहर में इतनी सुरक्षा काफी मानी जा सकती है। वैसे तो यह विशाल शहर हर एक को लीलने के लिए आतुर दिखता है। पर एक वर्ग छात्रों का ऐसा भी था जो महंगी मोटरसाईकिलों या कारों में आता था जिनको भविष्य की कोई चिंता नहीं सताती थी। उनका सामाजिक और आर्थिक स्तर बहुत ऊंचा था। जैसे हीरा व्यापारी झुम्मकलाल जावेरी का बेटा शानदार केडलॉक में संस्थान में आता और उसका सोफर दिन भर स्टीयरिंग पर सिर रखे सोता रहता था- पता नहीं बाबा को कब कहीं चलने की धुन सवार हो जाए। कैम्पस के दक्षिण में एक शानदार केण्टीन थी। राहुल को शुरू में बहुत घबड़ाहट हुई थी इस माहौल में। केण्टीन के खाने से राहुल बेटे का पेट खराब न हो जाए इसलिए बुआ ने खाना बनाने वाली शांताबाई हालदार को घर का खाना तैयार कर टिफन में भरने के निर्देश दे दिए थे। निर्देश ये भी थे कि रोज-रोज एक ही प्रकार के व्यंजन न टिफन में ठूंसे जाएं। उनमें वेरायटी और स्वाद दोनो रहे।
जब भी राहुल अपना टिफन खोलता उसे अपना गोपालदास स्कूल याद आ जाता। वह एक समाजसेवी स्कूल था सादगी से भरा। रीसिस में वहां के शिक्षक अपनी अपनी कक्षा के लड़कों के टिफन खोलवा के देख लेते थे कि कहीं उनके भीतर बहुत चूजी और महंगे किस्म के पकवान तो नहीं रखे गए हैं जिनसे किसी बच्चे की स्टेटस की दुर्गंध आती हो। स्कूल ने स्तर बना रखा था- चपाती या पराठे, एक सूखी सब्जी, अचार या चटनी और एकाध टुकड़ा मिठाई। बस इससे भिन्न नहीं। पर इस संस्थान में ऐसा कोई प्रतिबंध लागू नहीं था। वैसे अधिकतर छात्र केण्टीन में ही खाना या नाश्ता लेते थे। उतनी देर वे संस्थान की कठिन पढ़ाई से छुटकारा पा लेते थे।
कोर्स कठिन था और विस्तृत भी। राहुल को अपार्टमेण्ट में लौट कर दो-तीन घण्टे नियमित रुप से दिन भर की पढ़ाई के बाद दोहराने के लिए देने पड़ते थे। अपार्टमेण्ट के भीतर कोई आंगन नहीं था। बस प्रथम खण्ड में एक बड़ी टैरेस थी जिसमें धूप का थोड़ा सा आगाज होता था। भूतल के सामने एक बड़ा लॉन था जिसमें अधिकतर विदेशी फूल और घासें लगीं थीं। हवाएं पता नहीं कब तेज चलतीं थीं राहुल को अपने कमरे में पता नहीं चलता था। धूप कब आकर उतर जाती थी वह नहीं जान पाता था। उसकी जो आदतें थीं कि वह हवा और घास-फूलों की गंध सूंघता पढ़ता रहता था यहां आकर सब छूट गया था। यहां चींचीं की सरपट दौड़ और उसकी ढीठता नहीं थी। गाती चिडिय़ों और गलगलियों का शोर नहीं था। कौओ की काकचेष्टा नदारत थी। अपार्टमेन्ट के पीछे तालाब नहीं विशाल इमारतों का सिलसिला था। वहां न कोई बगुले थे और न क्वाक-क्वाक का बत्तखों का शोर और उनका शाही ढंग से चलने का अंदाज भी नदारत था।
सबसे ऊपर गुंजन मौसी की फिकर भरी ममता नहीं थी जो हर खीझ में उसके लिए ही विसर्जित हो जातीं थीं।
उस मुक्त छंद से कट कर राहुल यहां पढऩे आ गया था। प्रकृति के जंगल से निकलकर इस कंकरीट के जंगल में चला आया था जहां वह किसी बीम या पिलर में एक ललछोंह पत्ता भी उगा नहीं देख सकता था। अपने उस कस्बेनुमा शहर की उबड़ खाबड़ सड़कों की तुलना में यहां की सड़कें धूप में आईना बन जातीं थीं। चौड़ी और टार से भरी इतनी चिकनी और एकसार कि चलते समय हाथ में पकड़े पानी से लबालब भरे कटोरे की एक बूंद भी न छलके। अनगिनत कारें दिन भर और देर रात तक सड़कों पर भागती रहतीं। पता नहीं ये लोग कहां जाते और कहां से आते। कैसी लालसा और लोलुपता भरी यह दौड़ थी जो रुकने का नाम ही नहीं लेती थी। जन समुद्र अपने भीतर अपूर्व ध्वनियाँ समाए रहता। जैसे शोरों का आर्केस्ट्रा हो। जीवन के अथक भागदौड़ की कानफाडू सिम्फनी उसमें  गुंथीं हो। किसी छुट्टी के दिन टैरेस पर बैठकर राहुल ने इस आर्केस्ट्रा को समझने की कोशिश की थी पर उसके पास इन गुत्थियों को उकेलने के लिए पास में न गुंजन मौसी थीं और न चींचीं की स्फूर्तिवान दौड़ें। बुआ बस इतनी सजग थीं कि उसके भाई का लड़का दुबला-पतला न हो जाए। इसलिए वे उसके खाने में गिजां और वैराइटी बढ़ाने के फेर में रहतीं। राहुल को बहुत तेज दर्द होने लगा और उसने शोर की इस प्रमेय से हाथ खींच लिया।
सेक्टरों, स्ट्रीटों, ब्लाकों और फ्लैट नम्बरों से अंटे उस शहर में, जहां मनुष्यों की पहचान सिर्फ इनसे होती थी, पढ़ाई करते राहुल ने स्फूर्तिहीन उदासी से भरे चार साल बिता दिये। पर किसी दिन वह उत्ताप में नहीं जिया जब उसने पूरे दिन की खुशी अपनी जेबों में भर ली हो। जब एक मजेदार लम्हे के स्मरण से पूरा हफ्ता गुजार दिया हो। एक तो पढ़ाई ही इतनी बेढब और मेहनत वाली कि उसे कुछ सोचने और देखने का मौका ही नहीं मिलता था। फिर उस माहौल ने उसे जकड़ लिया था जहां व्यवहारिकता ही सब कुछ थी। दो क्षण अपने लिए जीने का अवकाश नहीं था। अपार्टमेण्ट में बुआ का व्यवहार एकदम मशीनी था जिसमें ममता और दुलार की छौंक बिल्कुल नहीं होती थी। जब भी राहुल उनके और फूफा जी के साथ नाश्ते पर डायनिंग टेबल पर बैठता बुआ जैसे उलाहना सा देतीं राहुल को टोकती रहतीं थी- कोई संकोच न करना राहुल बेटे। तुम मेरे प्यारे ब्रदर के सन हो। ब्रेड में खूब मक्खन लगाकर खाना।
इन यांत्रिक तरीके से बोले गए वचनों का राहुल कोई जवाब नहीं देता और चुपचाप खाता रहता। वे हंसती-बहुत संकोची लड़का है। बेटे एक्सट्रोवर्ट बनो। दुनियादार। बाहर के कायदे न सीखोगे तो जिंदगी में सक्सेस नहीं मिलेगी। यहां सक्सेस ही सब कुछ है। वही आज का हीरो है।
राहुल जब कभी अपनी मम्मी संजना के पास एकाध दिन के लिए लौटता और बुआ की इन उबाऊ बातों को बताता तो वे उल्टे बुआ की ही तारीफ करतीं थीं - उन्हें तुम्हारी कितनी फिकर है राहुल। वे तुम्हे एक सफल इंसान के रुप में तकसीम करना चाहतीं हैं। व्हाट अ वण्डरफुल विश!
राहुल कहना चाहता- मम्मी! उनकी बात-व्यवहार में उष्मा और ममता नहीं होती। वे एकदम सपाट हैं। यह सपाटता ही सफलता है?
पर वह कह नहीं पाता। उन्हीं दिनों उसे एक दिन फोन पर मम्मी ने बताया कि गुंजन ने दूसरा विवाह कर लिया है। हसबेन्ड पशुपालन विभाग में हेडक्लर्क हैं और एक स्कूल में शिक्षिका की नौकरी गुंजन को मिल गई है। हम सब उसके इस ब्याह से बहुत खुश हैं।
सुनकर राहुल को बहुत अच्छा लगा था कि मौसी ने अपने लिए खुशियां ढूंढ़ लीं हैं। वे सम्बन्धों को जीना चाहती हैं। अपने अंधेरे जीवन में उन्होंने रोशनी भर ली है। राहुल के उन दिनों सेमिस्टर चल रहे थे इसीलिए शायद राहुल को संजना ने गुंजन के ब्याह की सूचना देना मुनासिब नहीं समझा था। उसकी पढ़ाई में हर्ज होता। राहुल उस मंगल क्षण की खुशी को मौसी के चेहरे पर चमकता हुआ देखना चाहता था।  वह उनके साहस को सराहना चाहता था। उनका यह कारा से मुक्ति का साहस था। फिर कई बार उसने चाहा कि लौट कर एक बार गुंजन मौसी की गोदी में सिर रख कर लेट जाए और वे अपनी ममता भरी गदेली से हल्की थाप उसके सिर पर देती रहें। उनकी खुशी का जज्बा वह महसूस करना चाहता था। पर ऐसा एक बार भी नहीं हो सका।
इस शहर के लोगों में खुशी कहां बसी है। राहुल ढूंढऩे की कोशिश करता पर नहीं ढूंढ़ पाता था। क्या स्टेटस से खुशी मिलती है? एक से एक स्टेटस वाले यहां इस शहर में रहते थे। अकूत पैसे और पूंजी की वैतरणी यहां बहती थी। सुख-सुविधाओं की जैसे कोई कमी नहीं थी। अभाव शब्द उसके शब्दकोशों से गायब हो गया था। फिर भी न जाने क्यों नर्सिंग होम्स और हॉस्पिटल्स में वे सम्पन्न और ऊंचे लोग इतनी विकट भीड़ लगाए रहते हैं। इन स्टेटस वालों का एक अपना प्राईवेट डाक्टर क्यों है? ब्यूटीपार्लर्स शहर के हर कॉर्नर पर इतनी इफरात में खुल गए हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल है। एकदम स्मार्ट और अपनी वास्तविक उमर से कम दिखने की मैराथन चलती रहती है। ब्यूटीशियन्स के भाव आसमान छूते हैं पर उनकी जबरदस्त मांग बनी हुई है। बाजारों में इतनी चकाचौंध भर गई है कि सूरज भी उससे डरने लगा है। कहना चाहिए कि यह चकाचौंध ही सूरज बन गई है। एक तीव्र जगनर उनके रक्तचाप को बढ़ाए दे रहा है। गला काट काम्पटीशन के मारे वे ठीक से सो नहीं पाते। सपनों में ग्रोथ के ऊंचे उठते ग्राफ, प्रबंधन की स्किल उन्हें सोने नहीं देती। स्लीपिंग पिल्स उनकी खुराकों में शामिल हैं।
यहां सब कुछ समय से बंधा है। जितनी तेजी से समय भाग रहा है वे भी हांफते हुए उसके पीछे भाग रहे हैं। रात-दिन सड़कों पर महंगी से महंगी कारें दौड़ती रहतीं हैं। पर काम है कि खत्म ही नहीं होता। बंगलों, अपार्टमेण्टों, फ्लेटों, ड्यूपलेक्सों और ट्रिप्लैक्सों में बर्तन वाली महरी का टाइम बंधा है। वह ठीक समय पर आएगी और काम खत्म कर चल देगी। फिर खानसामा आयेगा और कुक कर चला जाएगा। अपने समय पर आया आएगी और बेबी-बाबा को दिन भर के लिए अपनी सुपुर्दगी में ले लेगी। रात को बच्चों को सौंप कर चल देगी। कहीं कोई भावना और सम्बन्ध नहीं बनते। यांन्त्रिक सा सब कुछ। बेबी-बाबा अपने डैडी की सूरत नहीं देख पाते। सुबह उनके उठने के पहले डैडी काम पर चल देते हैं और रात उनके सोने के बाद लौटते हैं। उनका लाड़ बस इतना उमड़ता है कि सोते हुए बेबी-बाबा के गाल थपथपा देते हैं। उनके स्पेस में बच्चों के लिए जगह नहीं है। ठीक तारीख पर घर लगे हुओं का पेमेण्ट कर दीजिए अन्यथा दूसरा बंगला तलाशने में काम वालों को कोई परेशानी नहीं होती। आया को माथे पर बाम लगाने को कहिए वह इन्कार देगी। उसे इस काम के पैसे नहीं मिलते। वैसे गोल मारने पर कोई स्पष्टीकरण भी नहीं देती। आपने सफाई मांगी और उसने काम छोड़ा फिर चाहे घर में कोई बीमार ही क्यों न हो। हर त्यौहार पर बख्शीश भी चाहिए। नहीं तो आपकी कन्जूसी की बिरुदावली पूरी कॉलोनी में गाई जाएगी यह तय है।
एक दिन बड़ी जोर की आंधी आई। साथ में तेज बारिश भी। बारिश खत्म होने पर वह नमी और गीलापन कहीं नहीं दिखा जो देर तक वातावरण में छाया रहता है। राहुल ने देखा कि तेज हवा में पेड़ कैसे दुहरे हो जाते थे और बरखा की तेज लड़ी तिरछी होकर बरछियों सी धरती में धसंती दिखती थी। पर यहां इस शहर में मल्टीप्लेक्स थे दस-पन्द्रह... पचास मंजिलों वाले। इस तेज हवा में वे निस्संग खड़े रहते किंचित कांपते भी नहीं थे। सड़क के दोनों ओर पेड़ों का अता पता ही गुम होता था। हवाएं मजबूरी में विलाप करती हुई सी सरसरा के दीवारों, खम्भों के पार निकल जाती थीं। क्या बिगाड़ सकती थीं हवाएं उस मजबूती का। यहां कुछ नहीं डोलता-हिलता। प्रकृति का इतना घोर अपमान। तेज बारिश भी सड़कों पर आवागमन बाधित नहीं कर पाती थी। कुछ देर के लिए पैदल चलने वाले थम जाते थे। वनस्पति के नाम पर बंगलों के टेरसों पर कायदे से गमलों में उगाए गए कैक्टस दिखते थे। सम्बन्धों को बेधते से इतनी वैरायटी उनकी कि गिनते और देखते आंखें थक जाती थी। किसके पास कितनी और दुर्लभ वैरायटी। यही बन जाता स्टेटस सिबंल। इसको हासिल करने के लिए मनुहारें, प्रयास और पैसे खर्च करने की स्पद्र्धाएं चलती ही रहतीं। तेज आधियाँ कैक्टसों का कुछ नहीं बिगाड़ पातीं। वे निर्लिप्त भाव में अपने पैरों पर डोलते भी नहीं। वे संवेदनाहीन मूर्ख कैक्टस। राहुल को शहर में आई आंधी ने निराश ही किया।
एक दिन जब राहुल दुपहर में पीरियड्स ऑफ होने के कारण अपार्टमेन्ट में लौटा तो फूफा जी तो रोज की तरह अपने काम पर थे। अलबत्ता बुआ घर पर मौजूद थीं और डीवीडी पर कोई तेज संगीत लगाए सोफे पर बैठी पांव हिला कर आनंद ले रही थीं। गायक के चीखते स्वर समझ से परे थे और पूरी कर्कशता के साथ जॉज बज रहा था।
बिना अपनी सुधि दिए राहुल पहली मंजिल के अपने कमरे में चला गया। वह प्राय: टैरेस पर बैठ कर अपना खाली समय गुजारता था जब हवाओं में एक विकटता होती थी। सड़क पर ट्रैफिक अपनी पूरी निर्ममता में बह रहा होता अबाध और निस्पृह गति से। गाडिय़ों के इंजन में हालांकि कोई शोर नहीं उठता था पर आसपास किसी अव्यक्त शोर की उपस्थिति बनी रहती थी जो देर रात को ही थोड़ी कम होती थी।
सहसा ब्रेक लगने की भोंड़ी सी आवाज सुनाई दी और फिर घिसटने की। राहुल ने तेजी से टेरेस के पार झांका। एक नई नवेली फॉक्सवैगन कार ने अपने से आगे जाते एक मोटर साईकिल वाले को पीछे से एक तेज टक्कर मार दी थी और उसका सवार अपनी बाइक सहित लगभग सौ फीट तक उस कार में उलझा घिसटता हुआ चला गया था। आगे कार जैसे ही बाईक से मुक्त हुई फर्राटे के साथ आगे बढ़ गई। उस कार वाले ने देखने की कोशिश भी नहीं कि क्या हुआ है। सड़क पर बाईक वाले सवार का शरीर कुछ देर तक दर्द से तड़पता रहा और अब धीरे-धीरे शांत होने लगा था। सड़क पर मांस और खून बिखरा पड़ा था। दौड़ती कारें हल्के से थमती और आगे बढ़ जातीं। ऑटों वाले बच कर निकल जाते। उस घायल सवार के लिए कोई नहीं रुका और न उसे हॉस्पिटल पहुंचाने की जोखिम  किसी ने उठाई। पैसा...पैसा...पैसा! जैसे किसी को रुकने की फुरसत नहीं थी। अपनी रफ्तार में कोई क्यों जोखिम उठाए।
राहुल तेजी से नीचे उतरा और उसने बुआ को सूचना दी-एक बाईक वाला एक्सीडेण्ट की चपेट में आ गया है बुआ।
बुआ ने संगीत धीमा नहीं किया। बोलीं-रोज के रुटीन हैं ये तो। होता रहता है। उस हरामी ने अपनी लेन छोड़ दी होगी। आगे निकलना चाहता होगा।
राहुल अपार्टमेन्ट से बाहर आया। लाश का खून निचाट धूप में उस चिकनी सड़क पर दूर तक चिलक रहा था। सड़क पहले की तरह गतिमान थी। लाश के पास तक जाने की हिम्मत राहुल की नहीं हो रही थी। शायद किसी ने पीसीआर में फोन कर दिया था। कुछ ही देर बाद पुलिस का सायरन गूंजने लगा था। पुलिस तफ्तीश में लग गई थी। फिर लाश को पोस्टमार्टम के लिए हॉस्पिटल रवाना कर दिया था।
राहुल जब वापस लौटा, बुआ उसी तरह मगन बैठी उस भौंड़ें संगीत में खुद को डुबोए हुए थीं। उन्होंने कोई जिज्ञासा लौटते राहुल से नहीं की थी। सीढिय़ां चढ़ते राहुल के दिमाग में दौड़ रहा था कितना सर्द हो गया है इस शहर का मिजाज। यहां अपने घर में तेज और गमक भरा संगीत बज रहा है और उस बाईक सवार के घर में आज शाम गमी का मंजर रहेगा। उसके बच्चे और पत्नी उसके सही सलामत घर लौट आने का इंतजार कर रहे होंगे, हो सकता है बच्चों ने आज उससे चाकलेट की फरमाइश की हो और पत्नी ने साड़ी का फाल लाने की गुजारिश की हो। पर लौटी अप्रत्याशित रुप से उसकी लाश। मृतक की जेब से पुलिस ने उसकी आईडी खोज ली होगी। केस में अज्ञात वाहन की ठोकर से मौत लिख कर क्लोजर रिपोर्ट लगा दी होगी। वह कार वाला जिसने टक्कर मारी थी आज रात एक पैग माल्टेड व्हिस्की और गटक कर अपना तनाव दूर कर लेगा।
राहुल उस शाम उद्विग्न और बेचैन रहा और रात को उसे ठीक से नींद नहीं आई। इस संवेदनहीन समय में उसको कैसे चैन मिल सकता था।
अभी कुछ दिन पहले ही शायद किसी छुट्टी के दिन फूफा जी सामने के सात मंजिली त्रिमूर्ति अपार्टमेण्ट के ग्राउण्ड फ्लोर के फ्लेट-7 में दुपहर के वक्त गये थे। अमूमन वे कहीं आते-जाते नहीं। उनके पास वक्त ही नहीं है किसी बात के लिए चाहे शोक हो या उत्सव। किसी भी तरह के मनोरंजन से वे अछूते हैं। हर स्तर का साहित्य उनसे कटा हुआ है। हर खबर बेमानी है उनके लिए सिवाय बिजनेस ट्रीटमेंट के। फिट बने रहने के लिए दवाइयां गटकते हैं। बीपी अक्सर हाई रहता है। सोने के लिए भी गोलियां लेते हैं- दो-तीन एक साथ बस एक अंतहीन दौड़ में वे लगे रहते हैं। दौड़ शायद कभी खत्म नहीं होगी वे खत्म हो जाएंगे।
उन्होंने झक कुरता-पाजामा पहिना हुआ था उस दिन और पांवों में सफेद चप्पल। उसके पहले अपनी पूरी देह पर डिओडेरेण्ट को स्प्रे किया था। फिर चप्पल पहने ही दोनो पांवों पर इन्फैक्शन से बचने के लिए हिट स्प्रे किया था। थोड़ी दूर चलने, लगभग आठ सौ फीट दूरी के लिए भी अपनी फैक्टरी की दी हुई मंहगी कार का इस्तेमाल उन्होंने किया था। वे दूसरों की नजरों में गिरना नहीं चाहते थे। वे राहुल को भी साथ ले गए थे। शायद उसे व्यवहारिकता का पाठ पढ़ाना चाह रहे थे।
उस फ्लेट में कोई गमी हो गई थी। उस कन्डोलेन्स में फूफा जी आए थे। ऐसे मौकों पर जाने का रिवाज था। इस वजह से जाना उनकी मजबूरी थी। उनकी ही तरह पन्द्रह बीस लोग वहां मौजूद थे झक सफेद कपड़ों में। एक कमरे में नीचे गद्दे बिछे थे उन पर झक सफेद चादर बिछी थी और सब लोग उसी पर बैठे थे। एक बड़ी और घनी ऊब भी वहां बिछी हुई थी। सामने एक टेबल पर मृतक की माला पड़ी बड़ी फोटो रखी थी। एक थाल में गुलाब की पंखुडिय़ां रखी हुईं थीं फोटो पर अर्पित करने के लिए। कमरे में अगरु और अगरबत्ती की गंध भरी हुई थी। एक ओर सफेद पारिधान में लिपटी कुछ महिलाएं घर की महिलाओं के बीच विराजमान थीं। उस गमगीन माहौल में एक आगंतुक जिनकी आठ अगुंलियों में पन्ना, पुखराज, गोमद जड़ी अंगूठियां शोभायमान थी ग्रहों की शांति के लिए, सिगरेट की तलब लगने पर बाहर की ओर खिसक लिए थे। बैठे हुओं में दो-तीन के समूह बने हुए थे। वे अपनी दैनन्दिन गतिविधियों, अपने प्रमोशनों, प्रमोटरों, अपने बॉसों के बारे में चर्चिया रहे थे। गम का कहीं नामोनिशां नहीं था।
वे जो मृतक थे वे फोटो में काफी बुजुर्ग दिख रहे थे। फोटो के हिसाब से वे काफी सुखी और सम्पन्न जीवन बिताने के परिचायक लग रहे थे। फोटो के चेहरे पर कोई तनाव नहीं दिख रहा था। हो सकता है मरने के बाद उनकी फोटो खींची गई हो जब वे प्रशांत हो गए हों।
तभी एक कांईया से दिखते महानुभाव ने यह जानकारी देना अपना परम कर्तव्य समझा-जगन हफ्ता भर पहलें ही तो लेट श्री... का शव ओल्ड मेन हाउस से लेकर आए हैं। यह बताते हुए उनके चेहरे एक आश्वस्ति पसर गई थी।
फिर जगन फोटो की बगल में खड़े हो गए और मृतक के बारे में बताने लगे जो सौभाग्य से उनके पिता थे। उन्होंने पहले मृतक की कुछ खूबिंया गिनाई, फिर परिवार के प्रति उनके लगाव और जिम्मेदारियों के बाबत बताया। खुद से उनके बेहद प्रेम का खुलासा किया और बताया कि उनकी पत्नी को वे बहू न कह कर बेटी मानते थे। अपनी स्टेटस के बारे में बताया कि यह उनकी इच्छा और लगन का परिणाम है जो वे हासिल कर सके।
पर राहुल उनके चेहरे पर अफसोस का एक अल्प विराम भी नहीं खोज पाया। जगन के गुणगान के बाद मृतक की फोटू पर आगंतुकों का फूलों से हमला हुआ। आने वाली महिलाएं भी पीछे नहीं रहीं। फिर स्वल्पाहार के लिए मनुहार हुई। दूसरे बड़े कमरे में व्यवस्था थी। जगन ने ड्रिंक की भी व्यवस्था कर रखी थी। गम के इस अवसर पर किसी ने हालांकि नोश नहीं फरमाया। यह सौजन्यता बरती गई। गनीमत रही। क्योंकि सम्बन्धों की उष्मा का कहीं पता नहीं लग रहा था। जो व्यक्ति अपने दुर्भाग्य से ओल्ड मैन हाउस में मरा हो जगन के लिए सौभाग्य बन गया था। यह बात गर्व से कही गई थी।
यह स्वल्पाहार न होकर दीर्घाहार था। आगतुंकों ने अपने बीपियों, सुगरों, अपचों को परे कर छक कर आहार ग्रहण किया और अपानवायुवों का संहार करते हुए वापस लौटने लगे। दरवाजे पर मिस्टर और मिसेज जगन फिर पधारें के उद्घोष के साथ उनको विदा करने में लगे थे। जैसे यह बार बार आने वाला उत्सव हो।
रास्ते में फूफाजी ने राहुल को सीख दी-यह कहलाती है सामाजिकता-सोशल कान्टैक्ट। इसका परिहार नहीं करना चाहिए। इसी की बदौलत समाज में हमारे दूसरों से रिलेशन बनते हैं।
बुआ ने लौट कर स्वल्पाहार की कैफियत फूफाजी से ली और बोलीं- नारंग के यहां से हल्का इंतजाम था। नारंग के बड़े भाई का कुछ समय पहले देहांत हो गया था।
उस रात न जाने क्यों राहुल को अपनी गुंजन मौसी, चींचीं और मम्मी की बहुत याद आई।
कुछ दिनों बाद एक और हादसा सामने के प्रियदर्शन काम्प्लैक्स में हुआ। वह लड़की रीता, हां शायद यही नाम था उसका, बुआ से किसी काम से मिलने आई थी। गोरी और फेअर हाइट की रीता आकर्षक थी और उसकी आंखों मेें ऐसा कुछ था जो सहज की बांध लेता था। बुआ के पास वह काफी देर बैठी थी और जब राहुल नीचे आया तो उसे देखकर वह सहज ही उससे दोस्ती करने को उत्सुक हो गई। सबसे पहले तो उसने बुआ से उसका परिचय पूछा फिर राहुल के सामने हाय कह कर अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। बुआ सामने थीं, न भी होंती, राहुल ने अपना हाथ आगे नहीं बढ़ाया। राहुल बाद में सोचने लगा उसने उससे हाथ न मिलाकर कारपोरेट फारमल्टीज से भरे शहर में कहीं गलती तो नहीं कर दी। वह उसे बैकवर्ड न समझने लग जाए जैसा कि उसके क्लास के इलीट घरानों के लड़के उसे समझते थे।
फिर तीन चार बार और रीता बुआ के पास आई थी। राहुल जान कर भी नीचे नहीं उतरा था। हालांकि उसकी सपनो भरी आंखों ने उसे तलाशा होगा।
इधर कुछ महीनों से रीता अपने फ्लैट के टैरेस में आकर अजीब हरकतें करने लगी थी। वह एकदम गंदे और बोसीदा कपड़े पहिने रहती। उसके झुतरे बिखरे रहते। वह हाथ-पैर या सिर जोर-जोर से हिलाती रहती। तरह तरह से मुंह बनाती। शायद मेण्टल डिसआर्डर का मामला था। इतने सुख और सम्पन्नता के बीच ऐसा क्यों? क्या हो गया उसे। अच्छी खासी भली युवा लड़की थी। जब वह ऐसी हरकतें करती तो कुछ देर बात कोई दो हाथ उसे मजबूती से पीछे खींच लेते थे और टैरेस की ओर खुलने वाला दरवाजा भीतर से मजबूती से बंद हो जाता था। फिर कई दिनों तक वह दरवाजा बंद ही रहता था। राहुल का कमरा उस टैरेस के ठीक सामने पड़ता था। इसलिए अनायास वहां उसकी निगाहें चली जातीं थीं।
एक दिन रीता टैरेस पर आई थी। अपनी भोंडी हरकतों के साथ-साथ वह चीख-चीख कर गा भी रही थी। उसके गाने की आवाज चिकनी कोलतार की सड़क पर गिर रही थी। कुछ खाली ऑटो वाले रुक गए थे और टी-स्टालों पर खड़े लोग उसका गाना सुन कर टैरेस के नीचे जमा हो गए थे। अचानक दो हाथों ने झपट कर रीता को भीतर खींच लिया था और भीड़ का लुत्फ खत्म हो गया था। इसके बाद टैरेस का दरवाजा कई हफ्तों तक बंद रहा था।
फिर एक दिन रीता उस टैरेस से नीचे गिर कर मर गई। राहुल ने जब बुआ को यह हादसा बताया जिसका पता उनको उस समय तक नहीं लगा था तो उन्होंने कहा- कोई लव अफेयर होगा। क्या कहें इन बावलियों को। प्रीकासंश लेने चाहिए थे। सैकड़ों की तादाद में नर्सिंग होम्स है इस शहर में कहीं भी गिरवा देती। कोई जान भी न पाता। उसके पेरेण्ट्स भी।
बुआ ने इस हादसे पर कहां बात खत्म की थी।
राहुल को पता था कि रीता के डैडी के पास तीन चार महंगी गाडिय़ां थीं, वह काम्प्लैक्स भी उनका ही था और उसके घर में वह सब कुछ मौजूद था जो सहज सम्पन्नता का प्रतीक होता है। फिर रीता पागल कैसे हो गई। यह प्रश्न राहुल को कुरेदता था।
बुआ जिनको अपनी किटी पार्टियों, पपलू और फालतू सामान खरीदने से ही फुरसत नहीं मिलती थी कि आसपास की किसी वारदात को जानने की कोशिश करें। दिन में दो बार तो बुआ अपने हाथों के नाखूनों का रंग बदलती थीं और लिपिस्टिक तथा नेल पालिश के रंगों के लिए शॉपिंग मॉल छान मारतीं थी।
गणेश चतुर्थी आने वाली थी।
गणेश जी की लगभग 14 फीट ऊंची मूर्ति बनाने का काम जयपुर से आए एक कलाकार को चार-पांच अपार्टमेट्स वालों ने मिलकर दिया था। उसे उस काम्पलैक्स का सुरक्षा गार्ड बलवीर ढूंढ़ कर लाया था। स्वीपर कमलाकांत बता रहा था कि वह कलाकार बलबीर का दूर का रिश्तेदार था। मूर्ति बनाने का ठेका तीस हजार में तय हुआ था। वह कलाकार पन्द्रह-बीस दिन से काम्प्लैक्स के कम्पाउण्ड में ही मूर्ति बना रहा था। उसके साथ उसका परिवार भी था जो फिलहाल अस्थाई तौर पर कहीं उसके साथ ही रह रहा था।
चतुर्थी के तीन दिन पहले मूर्ति बनकर तैयार हो गई थी। शाम को घूमने निकले लोग लौटने में गणेश की उस मूर्ति को प्रणाम करना नहीं भूलते थे। अभी प्रतिमा की रंग और सज्जा होनी बाकी थी।
परिसर में एक विशाल पण्डाल खड़ा हो गया था और गणेश जी की प्रतिमा अपनी पूरी भव्यता के साथ एक ऊंचे मंच पर स्थापित कर दी गई थी। एक पुजारी पं. श्यामलाल वहां उजरत पर तैनात हो गये थे। जवाकुसुम फूलों की एक भारी-भरकम माला रोज परिसर के टीनएजर्स प्रतिमा को पहिना देते थे। क्योंकि पुजारी के हाथ प्रतिमा के गले तक नहीं पहुंचते थे। रोज आठ बजे सबेरे और रात गणेश की प्रतिमा की आरती होती और परिसर के अपार्टमेण्ट्स के लगभग सारे परिवार वहां उपस्थित हो जाते थे और एक दूसरे से दुआ-सलाम कर लेते थे। एक ही काम्पलैक्स में रहते लोग महीनों एक दूसरे को देख ही नहीं पाते थे। सबके अपने-अपने लॉन, अपने-अपने टैरेस और लान से जितना दिखता उतना अपना आसमान था। उतनी ही हवा जितनी वहां उनके कमरों में कैद थी। बस यही दुनिया थी उनकी जो भीड़ में भी अजनबीयत बोती रहती थी। सबके बाहर जाने और लौटने के अपने-अपने समय थे। न जानने की अरुचि और समय की कमी की उबकाई उनके चेहरों पर साफ लिखी होती थी। वहां लेडीज अपनी फूहड़ सम्पन्नता और कृत्रिम अहंकार के साथ मिलतीं थीं। अपने पतियों के ऊंचे पदों की हेकड़ी उनके चेहरों पर बजबजाती रहती थी। लेडीज के बीच अघोषित प्रतिस्पद्र्धा चलती रहती थी और इसकी पृष्ठभूमि घरों में काम करने वाली बाईयां, खानसामा रचते थे।
दूसरे परिसरों से स्पद्र्धा के फलस्वरूप जो गणेश प्रतिमा इस परिसर की पहली साल महज तीन फुट की थी उसका आकार बढ़ते-बढ़ते 14 फीट के ऊपर पहुंच गया था। भांगड़ा और डिस्को भी अब आयोजन में जुड़ गए थे। बात तो यहां तक चली थी कि किसी नामचीन भजन गायक को बुलाया जाएगा। पर ऐन वक्त तारीखें न मिल पाने के कारण यह कार्यक्रम स्थगित हो गया था।
बुआ हमेशा राहुल को टोकती रहतीं थी कि इस लड़के को इन तामझामों में कोई इन्टरेस्ट नहीं है। यह कम्पलीमेण्ट नहीं तिरस्कार के बोल थे। उनका मत था कि इस उम्र में उसे धमाचौकड़ी मचानी चाहिए थी। उस रात जब राहुल टैरेस पर खड़ा था पण्डाल में डिस्कों पर जवान लड़के-लड़कियां थिरक रहे थे। सभी ओर कृत्रिमता और बनावट पसरी हुई थी। पवन वहां प्लास्टिक के गमलों में लगे जापानी कृत्रिम पेड़-पौधों को लहरा रहा था जो पण्डाल के चारों ओर रखे हुए थे और हरेपन के भ्रम का अहसास दे रहे थे। तभी एक मॉड लड़का शंकी जो इसी परिसर का था वह नाचते युवओं के बीच घुसा और उसने घनश्याम खुराना की बेटी डिंपल के माथे पर पिस्तौल से गोली मार दी। भगदड़ में थुलथुल मॉड लेडीज नीचे गिर पड़ी थीं। उनको फलांगते या उन पर पांव धरते भद्रजन, जवान लड़के-लड़कियां यहां-वहां भाग रहे थे। कुछ ही देर में पण्डाल भद्रजन विहीन हो गया था। केवल डिंपल की लाश वहां पड़ी हुई थी। वह मॉड लड़का शंकी जो एक बहुत ही भड़कीली शर्ट पहने हुए था वहां से अपने हथियार सहित फरार हो गया था।
किसी ने पुलिस स्टेशन फोन कर दिया था। कुछ ही देर में पुलिस इंस्पैक्टर चार सिपाहियों के साथ वहां मौके पर पहुंच गया था। उस जगमगाते परिसर में अब सन्नाटा पसरा हुआ था।
राहुल यह दृश्य देखकर हिल गया था।
दरअसल घनश्याम खुराना और उस मॉड लड़के शंकी के बाप सुंदर निहलानी दोनों परफ्यूम्स और डिओडेरेण्ट बनाने का बिजनेस करते थे। एक ही परिसर में बने अपार्टमेण्ट में रहने के बावजूद उनके बीच कोई बोलचाल नहीं थी और दोनों ही भयंकर प्रतिद्वन्दिता के कील-कांटों में कसे हुए थे। इस तरह के आयोजनों में वे एक दूसरे से बढ़ कर चंदा देते थे। यह प्रतिद्वन्दिता उनके परिवार में भी घर कर गई थी। शंकी को न जाने क्यों डिंपल भा गई थी। पर डिंपल शंकी को देखना भी नहीं चाहती थी। एक दिन कुछ लड़कों के साथ परिसर से बाहर निकली डिंपल का हाथ शंकी ने पकड़ कर केवल फन के लिए उसे प्रपोज कर दिया था। इस पर डिंपल ने एक झन्नाटेदार तमाचा शंकी के गाल पर जड़ दिया था। शंकी इस अपमान को सह नहीं पाया और उसी गुस्से का परिणाम था यह आज डिंपल का कत्ल।
कई दिन तक राहुल इस घटना को लेकर बहुत उद्विग्न रहा।
घटना के दूसरे दिन कोई भी गवाही की चादर नहीं ओढऩा चाहता था। उस प्रत्यक्षदर्शन को वे वहां न होने के बहाने से ढंकने की कोशिशों में लगे थे। एक झूठ लाल जीभ लपलपाता वहां परिसर के मैदान में घूम रहा था। क्योंकि मौका-ए-वारदात पर किसी ने होने की हामी नहीं भरी थी। पुलिस की तफतीश उन सम्पन्न कायरों के कारण आगे नहीं बढ़ पा रही थी। जबकि उनमें से अधिकांश ने भगवान के मंदिरों में भारी काली राशि अर्पित की थी। इसके बावजूद कि इतनी भारी रिश्वत देने के कारण तमाम भगवान पूरी तरह उनके सपोर्ट में थे।
राहुल कुदरत को याद कर रहा था। जब वट सावित्री की पूजा के दिन उस मॉड हुई नारियों ने कुदरत को नकार कर जापानी कृत्रिम वट वृक्ष लॉन में स्थापित कर पूजा-अर्चना की थी और मिथ्याभास हो रहा था कि धर्म और संस्कृति को उन्होंने छोड़ा नहीं है भले ही पैसा कमाने की कालिख में वे धुआरी पड़ गई हों। बुआजी  ने उस रात फूफा जी के घर लौटने पर सिर पर आंचल दे उनके पांव छू लिए थे। अचकचाए फूफाजी आर्शीवाद तक नहीं दे पाए थे। वे वट-सावित्री के महात्म्य तक को भूल गए थे।
कुछ ही हफ्तों के बाद उस शहर के निशाचर समय में राहुल के कक्षा-साथी जयंत ने संस्थान की छत से कूद कर आत्महत्या कर ली थी। इस दुर्घटना के पहले छत पर बड़े डैनों वाला एक गिद्ध ठीक बीच में लगे ध्वज-दण्ड के पास की रैलिंग पर बैठने लगा था। वह लगातार चार दिन वहां बैठा। फिर जब डायरेक्टर को पता चला तो उसको भगाने के लिए चपरासी भेजा गया।
लड़कों के बीच मजाक उस गिद्ध को लेकर चलने लगा। सिद्धार्थ ने कहा- यह इस कॉलेज के डायरेक्टर का बड़ा भाई है। प्रेमवश यहां चला आता है।
संदीप कोठारी बोला - इस शहर के लोग मुरदा हो चुके है। यह वल्चर उनका मांस नोचने आया है।
संदीप मुदलियार ने बताया - यह गिद्ध हमारी सड़ी-गली शिक्षा प्रणाली का अग्रदूत है।
राहुल ने कहा - कुदरत का भेजा यह गिद्ध इस जंगल-शहर को यह चेतावनी देने आया है कि कुदरत की ओर वापस लौटो। अभी भी देर नहीं हुई है। आपाधापी और संकुलता से हट कर जीवन को सहज सादगी में जीने की जरूरत है।
राहुल की इस व्याख्या को क्लासिक की श्रेणी में डाल कर खारिज कर दिया गया।
जयंत अपनी मेरिट के बल पर इस महाविद्यालय में टिका था। वह सुदूर गांव का रहने वाला था और उसके पिता गांव में खेती-किसानी करते थे। जाहिर है उसको पढ़ाने के लिए उसके पिता ने बैंक से कर्जा लिया था। खेती कोई लाभ का धंधा तो सत्ता ने बनने नहीं दिया था और ना ही उसमें कोई काली कमाई होती थी। सम्पत्ति के नाम पर उसके पास खेती की जमीन और मकान भर था। पूरे शहर में सैकड़ों रेस्टारेण्ट और होटल थे, मैसें थीं पर जयंत पैसे बचाने के लिए उपलों और पतली-पतली लकडिय़ां जलाकर मिट्टी के चूल्हें में अपना खाना खुद पकाता था। छुट्टी में घर जाता तो लौटते में पिसान के अलावा उसके सामान में एक या दो बोरा उपले भी होते थे। वह रोज बड़े सबेरे उठता और दो-तीन किलोमीटर आगे उस तरफ निकल जाता था जिस ओर यह घना और अभिशप्त शहर अभी विरल था। वहां अभी भी पेड़ों की पांतें दिख जातीं थी। नीम या बबूल के पेड़ से वह दातौन तोड़ लाता था और टूथपेस्टों, लिस्टरीनों के विज्ञापन चक्रव्यूहों को भेद कर उससे दातौन करता था। वह रिफल या जैल वाला नहीं स्याही वाला पेन इस्तेमाल करता था। चिकने लोटे में चूल्हे के अंगारे भर कर वह अपने कपड़ों की सिकुडऩों को समतल कर लेता था। वह कुदरत से जुड़ा था।
वह उस पूंजीग्रस्त रोगी शहर के मंदिरों में सोने के सिंहासनों पर विराजमान जेवरातों से लदे भगवानों का भक्त नहीं था जहां खरीदे गए कूपनों से ब्राण्डेड प्रसाद मिलता था। उसके लोकदेवता हनुमान थे जो कहीं भी किसी पेड़ के नीचे सिंदूर में पुते दिख जाते थें। वे बिगड़ी बनाने वाले देवता थे - हनुमान गुसाईं।
जयंत कक्षा में आचार्यों से सीधे-सरल सवाल पूछ लेता था - जैसे दुनिया भर की कपड़े की मिलों में महंगे कपड़े क्यों बन रहे हैं। जबकि सस्ते मोटे कपड़ें से सर्दी-गर्मी दोनों का बचाव भलीभांति हो सकता है। इन उद्योगों पर इतना ज्यादा पैसा क्यों लुटाया जा रहा है। हथकरघा उद्योग आदमी को रोजी भी देगा और संतोष भी। राष्ट्रीय स्तर पर एक ही मोटा कपड़ा सब के लिए निर्धारित कर दिया जाए तो असमानता खत्म हो जाएगी, पर्यावरण को कुछ राहत इससे मिल सकती है।
जाहिर है उच्चवर्गीय, उच्च शिक्षित, उच्च विद्वान आचार्यों को उसके ये प्रश्न नागवार गुजरते, वे उस पर हंसते, उसका मजाक बनाने की कोशिश करते थे। जैसे उसने एक दिन आचार्यों से कहा- आप लोग महंगी गाडिय़ों में कालेज क्यों आते हो। जबकि साईकिल तकनीक का सबसे सस्ता रुप है। प्रदूषण रहित और इसको चलाने पर रक्तचाप भी ठीक रहता है। तकनीक की पहली शर्त यही है वह ईको फ्रेण्डली हो। अंतिम परीक्षा में आचार्यों ने उस पर अपनी भड़ास निकाल ली। उसे सेशनल में इतने कम अंक दिए कि उसकी मेरिट लडख़ड़ा गई। समस्या थी कि उसे नौकरी कैसे मिलेगी और उसके पिता बैंक से लिए करजे को कैसे पटाएंगे। कर्जा के एवज में उनके खेत गिरवी रखे हुए थे। उनकी सारी आशाएं जयंत पर टिकी हुई थीं।
संस्थान की छत से कूद कर जयंत ने आत्महत्या कर ली, उसी स्थान से जहां कुछ दिनों पहले गिद्ध बैठता था। क्या वह गिद्ध अमंगल की सूचना से ग्रस्त था। उसके कुदरतीपन का यही अंजाम होना था। उन पेड़ों के चारों ओर हवा बोझिल हो गई थी जिनकी दातौनें वह तोड़ा करता था। चूल्हा कई दिनों तक उदास रहा था जिस पर वह अपना खाना देशी ढंग से पकाता था।
हफ्तों संस्थान बंद रहा। चैनलों ने बाईटें चलाई, प्रदर्शन हुए। ज्ञापन दिए गए। हल्के-फुल्के आंदोलन हुए। वक्तव्य पढ़े गए। धीमें ज्वार में जलजला सा उस संस्थान के तंग आसमान में उठा। पर आचार्यगण को कोई फर्क नहीं पड़ा। वे अपनी विद्या के अहंकार को छोडऩे को राजी नहीं थे। वे क्लबों में जाने और यू-ट्यूब में पोर्न ढूंढऩे से नहीं रुके जब कि यह संस्थान के इतिहास में चौथी आत्महत्या थी।
परिणाम आए, राहुल बहुत अच्छी मैरिट से उत्तीर्ण हो गया। मम्मी और गुंजन मौसी ने बधाई और ढेर सा आर्शीवाद भेजा और यह शाश्वत मंशा भी जाहिर कर दी कि जॉब लगते ही एक सुंदर, सुशील कन्या से उसका ब्याह रचा दिया जाएगा। जैसे दिन उनके नहीं फिरे पर राहुल के भी फिर जाएं।
अब कहानी में आगे राहुल के लिए सम्मान जनक शब्दों का प्रयोग किया जाएगा। क्योंकि वे एक बड़े और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान के कारपोरेट हैड बनने वाले हैं। वे उच्च टैक्नोक्रेट हैं। उस प्रभामण्डल से मंत्रीबद्ध दर्जनों कारपोरेट घराने उनको जमाई बनाने के लिए लालायित अपनी-अपनी धुरियों पर नाच रहे हैं।
राहुल फिर पेड़ों के बीच लौटना चाहते हैं। उस सरसराती हवा को सूंघना चाहते हैं जो पेड़ों के पत्तों के बीच से गुनगुनाती हुई गुजरती है। वे पक्षियों के कलरव को फिर सुनना चाहते हैं जो मिठास बन कर कानों में घुलता है। वे गलगलियों की अनंत गलगल को फिर एक बार आत्मसात करना चाहते हैं। वे चींचीं गिलहरियों की मुग्धता में घुल जाना चाहते हैं। वे उन शरारती पवनों को आत्मसात करना चाहते हैं जो खेतों की हरियाली को दुलराता और झरबेरियों को झकझोरता बहता रहता है। नहरों और नदियों के पानी के संग-संग बह जाना चाहते हैं उन दूरियों तक जहां धरती और आसमान मिलते हैं। झरनों के निनाद को अपने विषाद में घोल कर उसे संगीत बना देना चाहते हैं। फूलों को अपनी आकांक्षा बनाना चाहते हैं। पहाड़ों को साथी और घाटियों को अपनी गोद बना लेना चाहते हैं। क्योंकि इससे इतर राहुल ने नहीं चाहा था अपना जीवन, अपनी इच्छा, अपनी आकांक्षा और अपना सपना। भीतर कहीं उसके हरी दूब उगी हुई थी।
वे अपनी धरती की ओर लौटना चाहते हैं जहां उनको मेधा मिली, देह को निरोग मिला, स्वस्थ चित्त मिला, रिश्तों का आत्मीय स्पर्श मिला, एक मीठी सी चिंता मिली, दुलार मिला शहद सा मीठा और मधुर और जहां पेड़ों की अनथक ममता मिली।
वे अपनी धरती को बचाना चाहते है। शस्य श्यामला धरती को मुक्त करना चाहते है सभी प्रदूषणों से, कार्बन से, मीथेन से, ईष्र्या और स्पद्र्धा की सर्वग्रासी आग से और उस पूंजी से जिसने जीवन को अनियंत्रित और कभी न खतम होने वाली दौड़ों से भर दिया है।
मम्मी संजना की अनुमति नहीं है। उनमें कैरियरिस्टों के प्रति भक्ति है। उन्होंने जीवन जीने के बहुत ऊचें मानदण्ड स्थापित कर रखे हैं। वे तनिक भी नीचे नहीं झांकना चाहतीं। वे नहीं चाहतीं थी कि राहुल इन गंवई और भदेसपन में पुन: लौटें और यहां की उन चीजों को स्पर्श करें जो भावना से भरीं हों, जिनमें जीवन का स्पंदन हो। उन्होंने संवेदनाओं को गीले कपड़े सा निर्वाह दिया और एक शिला अपनी छाती पर रख ली। वे जानती हैं कि राहुल के मस्तक पर कैरियर का मध्यान्ह सूर्य तप रहा है। वे राहुल को फूलों के गुल्मों और धरती की घास में नहीं लौटाना चाहतीं हैं।
तपता सूर्य उनकी चाहत बन चुका था।
राहुल की आखें और मन इस सूर्य की चकाचौंध से थक रहे थे। कंकरीट के जंगल से बना यह शहर जहां विकास का तीखा नश्तर हर ओर तना दिखता था उसे निगल लेने की जुगत में था। इस शहर में कहीं आत्मीय छांव नहीं, कहीं विश्राम नहीं, कहीं मीठे, ठण्डे पानी का पियाऊ नहीं और कहीं कोई अपनेपन का अहसास नहीं। बस मुनाफा रुपया, पूंजी, स्पद्र्धा, शेयर्स, क्रेडिट, एरिया, हैवी मशीन्स, हाई प्रोफाइल यही सब कुछ यहां भरा पड़ा था इफरात में।
राहुल कारपोरेट हैड बन गए। एक बड़े औद्योगिक घराने पवित्रा की बेटी संगीता से राहुल ब्याह दिए गए भारी-भरकम दहेज के साथ। संजना समेट नहीं पा रही थीं इतना दिया था उन लोगों ने। संगीता ने अपने जीवन में न कुदरत में खिले फूल देखे थे और न वह भंवरों को ही पहचानती थी। उसे एक ही शौक था अतरे-चौथे दिन बाजार जाकर ज्वैलरी खरीद लाना। राहुल उसकी इस अमिट प्यास को समझने में असमर्थ थे। वह हर दूसरे दिन ब्यूटी पार्लर चली जाती और तीन-चार घण्टे कम से कम वहां बिताते सजती-संवरती रहती। दिन में तीन बार अपना लिबास बदलती। हर दो महीने में अपार्टमेण्ट की सज्जा को आमूलचूल बदल देती। नए से नए शोपीस खरीदती रहती। आर्ट गैलरी जाकर अमूर्तन पेण्टिंग्स को बिना वजह खरीद लाती। वैसे भी राहुल आठ बजे कम्पनी जैम की लम्बी एसी कार में आफिस को रवाना हो जाते थे और देर रात दस-ग्यारह के बीच बिल्कुल पस्त से लौटते थे। संगीता से औपचारिक सी बातचीत होती थी।
उनके आफिस में चार्ट टंगे थे। आंकड़ों के चित्र प्रदर्शित हो रहे थे। देश भर में कम्पनी के आफिसों की लिस्ट उनकी टेबल पर रहती थी। पांच-छ: रंगबिरंगे टेलीफोन रखे थे। रोज मीटिगें होती थीं। वे अल्ट्रा स्टार्म अधीनस्थों से घिरे रहते थे। जिनके खिंचे चेहरों पर एक चिकनी मुस्कराहट हर वक्त चिपकी रहती थी। उनके कान यस सर! ओके सर! वेरी गुड सर! एक्सीलेण्ट सर! सुनते रहते थे। उन्होंने किसी क्लर्क के जीर्णशीर्ण और एडवान्स, लीव सैंक्शन्स के लिए घिघियाते चेहरे को कभी नहीं देखा, नहीं देख पाए। वेलडन सर के अलावा कोई उच्चार यहां नहीं होता था। मुख्य चिंता प्रोडक्शन बढ़ाने और बाजार की होती थी। प्रोडक्ट को कितना ग्राह्य बनाया जाए यह लक्ष्य सामने होता था। नेटवर्क का मकडज़ाल घेरता रहता। उनको आसपास के चेहरे तक अजनबी लगने लगे थे इतने निस्संग हो चुके थे वे आसपास के माहौल से।
एक लम्बा साल गुजर गया। उन्होंने न सूर्यास्त देखा और न सूर्योदय। अमावस्या और पूनम भी नहीं। ऋतुएं बदलती नहीं देखीं, न घरासार वर्षा का आवेग सुना, ग्रीष्म का हाहाकार नहीं जाना और न शरद की कंपकपीं महसूस की। वे पक्षियों और उनके कलरव को भूल रहे थे। हवाओं की गुनगुनाहट को भूले जा रहे थे। ऊपर देखते तो नीलवर्णी आसमान नहीं दिखता, रंगीन बादल नहीं दिखते। दिखती तो और ऊंचा उठने की मंशा, प्रतिष्ठा, चकाचौंध रोशनियों से जगमगाता शिखर, उत्कृष्ट बने रहने की आकांक्षा और गुमान का आकाशगंगाओं तक फैला विस्तार। पेड़ दिखें तो फर्नीचर में तब्दील-सोफा, पलंग, आलमारी, गरिमा ओढ़ी कुर्सी और कभी-कभार रिलेक्स होने के लिए डोलती कुर्सी हुए दिखते थे। कम्प्यूटरों में घिरे राहुल उदासी में घिरते जा रहे थे। एक सुदीर्घ उदासी जिससे बाहर आने के चक्रव्यूह बन गए थे।
वे अवसाद में आ गए थे। इतने ज्यादा अवसाद में थे कि प्रतिष्ठान ने उनको तीन माह का एकमुश्त अवकाश केवल घूमने-फिरने और मौजमस्ती के लिए अपने खर्चे से दे दिया था। राहुल का महत्व कम्पनी जानती थी। पर वे कहीं नहीं गए। बस आफिस से घर और घर से आफिस यही थी उनकी परिक्रमा। वे उन गुंजलिकाओं को जानते थे जो फिर से उनके वापस लौटने पर उनको जकड़ लेने वालीं थी। वे बीमार पड़ गए और एक पंचसितारा हास्पिटल में उनको भरती करा दिया गया। तमाम परीक्षण हुए और वे निरोग निकले। डाक्टर्स को समझ में नहीं आता कि उनको रोग क्या है। अब तो उन्होंने बोलना भी बंद कर दिया है। चेहरा मटमैला पीला पड़ गया है। संगीता परेशान है और उसके घरवाले बेहद तनाव में हैं। वे राहुल को विदेश इलाज के लिए ले जाना चाहते हैं।
राहुल बिना पलकें झपके लेटे रहते हैं हॉस्पिटल के वार्ड की अल्ट्रा व्हाइट दीवारों को देखते हुए। मम्मी संजना और डैडी भी देखने आए हैं। देख कर धक से रह गए। कैसा गोरा-चिट्टा और सलौना था उनका राहुल। अब मटमैला बिल्कुल लाश की तरह निष्पंद पड़ा है। डाक्टरों से उन्होंने पूछा, नर्सों से पूछा पर किसी ने राहुल की बीमारी नहीं बताई। फिर एक दिन गुंजन मौसी भी आ गईं अपने एक बेटा और बेटी के साथ। दोनों बड़े हो रहे हैं।
राहुल उनको पहचान नहीं रहा है, उनकी मीठी आवाज राहुल के कानों से बाहर छिटक रही है। गुंजन का दिल फटने लगता है। हाय! क्या हो गया राहुल बेटे को। वह ठगी सी रह जाती है। दीदी संजना और बहनोई से पूछती है पर वे भी जवाब नहीं दे पाते।
दो दिन लगातार वार्ड में गुजारते गुंजन कुछ-कुछ समझ पाती है। राहुल के पलंग के सामने खिड़की है पारदर्शी कांच जड़ी। कांच के पार एक भीमकाय इमारत की संरचना दिखती है। वहां न पक्षी है और न उन पर उनके बैठने का कोई ठौर ही बना है। उनको राहुल के सिरहाने एक डायरी दिख जाती है। बहुत पुरानी डायरी जिसमें राहुल स्कैच बनाया करता था। कोई वाक्य या शब्द रचना उसे अच्छी लगती उसे नोट कर लेता था। कुछ फिल्मी गीत जो उसे अच्छे लगते उनके मुखड़े भी वह दर्ज कर लेता था।
गुंजन ने डायरी उठा ली। उसमें कुछ गीत लिखे थे और उन गीतों के नीचे राहुल नाम लिखा हुआ था। एक गीत की कुछ पंक्तियां इस प्रकार थीं-
कांपता रहता है पत्ता
बर्फीली सर्दी में
बसंत में बहार लाने को
फिर क्यों
वही बसंत
मिटा देता उसका अस्तित्व
पतझड़ लाकर
गुंजन उस बड़े शहर के बड़े बाजार में गई। उसे आश्चर्य हुआ कि पेड़ पौधों पर, हरियाली पर, पहाड़ों और झरनों पर, बरसते मेंह पर, फूलों के गुल्मों पर कोई चित्र उपलब्ध नहीं है। फिर एक कम विकसित पर शहर से हिलगे एक स्लम हिस्से में एक पेण्टर की दुकान पर उसे प्रकृति के कुछ कलेण्डर मिल गए। गुंजन उनको खरीद लाई।
दूसरे दिन उन्होंने वार्ड की सपाट सफेद दीवारों पर कीलों से वे चित्र ऐन राहुल की आंखों के सामने टांग दिए। राहुल उनको ठीक से देख भी नहीं पाया था कि डॉक्टर्स और नर्सों ने इस पर बेहद एतराज किया- आप इन्फैक्शंस ला रही है। यहां ऐसा कुछ अलाउ नहीं है। पल भर में वह चित्रों में बनी प्रकृति डस्टबिन में पड़ी थी। गुंजन का यह उपक्रम व्यर्थ चला गया।
उसने अब हॉस्पिटल के प्रबंधन से अनुनय की कि राहुल को ग्राउण्ड फ्लोर के वार्ड में शिफ्ट कर दिया जाए। खिड़की से वहां हरा-भरा लॉन दिखता है। पर प्रबंधन तैयार नहीं हुआ। वहां दूसरे रोग के रोगी थे।
गुंजन ने दीदी संजना के कहा - दीदी! कहीं कुछ गलत हो गया है।
संजना ने कोई जवाब नहीं दिया। बस केवल सामने देखती रहीं निचाट सफेद एक दीवार की ओर। गुंजन रोज प्रबंधन से नीचे का कक्ष देने की मांग पर अड़ी है।


नोट - कविता की चंद पंक्तियां मेरे मित्र डा. विद्याप्रकाश उपाध्यक्ष म.प्र. इप्टा के बेटे ओशो की हैं जिन्हें उसकी अनुमति लेकर उद्धृत किया गया है। इसलिए यह कहानी ओशो को ही समर्पित है।

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