फ़रेन की कवितायें

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    सितम्बर 2014
श्रेणी फ़रेन की कवितायें
संस्करण सितम्बर 2014
लेखक का नाम फ़रेन





नये कवि/पहली बार

उत्तराखंड से निकले 'पहल' के एक पुराने साथी सुरेन्द्र सिंह विष्ट ने हमें ये कविताएं उपलब्ध कराई हैं। सुरेन्द्र सिंह एक कविता प्रेमी टेक्नोक्रेट हैं और आस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में बस गये है। कवि जिला नैनीताल में अध्यापक हैं और साहित्य की दुनिया से किनाराकशी कर चुके हैं, कभी कभी आते जाते हैं। हमारी कोशिश है कि फ़रेन को गुमनामी से बाहर लायें।



हमारा ओलंपिक

अण्डाकार इमारतों में नहीं
खुले मैदानों में होंगे
हमारे ओलंपिक

टिकट नहीं आँख लगेगी देखने में!

जीय्श के घर से जो आग चुराकर
लाया जा सोफोक्लीज
उस साहस की मशाल जलेगी

अर्जुन नहीं
एकलव्य जायेगा इस बार

मेडल नहीं
छाती पर मोहर लगेगी प्रतिभागियों के
हमारे ओलंपिक में

खेलों के आगाज़ में
रौशन फ़ाक्ते नहीं
प्लाई फाड़ते बर्में का शोर होगा
कोलंबस की माँ होगी मुख्य अतिथि
कल्पनाओं को आशीर्वाद बांटती
खिलाड़ीपन की खाल उधेड़ती
* * *

पंक्तिबद्ध हो जाओ सारे
टीम चुनी जाएगी अब!

बिल गेट्स तुम्हारा बाबा हमारे
स्टेप्लर तुम्हारा आलपिन हमारी
लगाम तुम्हारी नकेल हमारी

प्लेटो तुम्हारा सुकरात हमारा!

प्रतियोगिताओं के सारे बोनसाई तुम्हारे
पहाड़ का हिनहिनाता देवदार हमारा

तुम्हारे सारे माने गुलजार के
हमारा गान गद्दर का
* * *

साइकिलों पर नहीं
नंगे पाँव होगी दौड़
फर्राटे नहीं चौकी दौड़ होगी
लंबी नहीं ऊँची कूद होगी

पूल के अचल जल में नहीं
बरसाती लोहित में होंगे मुकाबले

भार नहीं
आदर्श उठाए जाएंगे इस बार
संतरे का जूस नहीं
असंतोष का ज़हर होगा बिस्लरी

हथेलियाँ नहीं
हरे तने पीटे जाएंगे
बारदार कुल्हाडिय़ों से
हमारे ओलंपिक में

ओलंपिक तक पहुँचने की शतरंज
नज़र आती है साफ-साफ
अब माँत समझो!

कोलार का बेरोजगार जीत लेगा
लोहे की चाबी से
सारे सुनहले ताले
* * *

और कविताएँ होंगी न्यायाधीश!

धर्मेंद्र के लिए नाँचती है बसन्ती
कविताएं कभी नहीं नाचती!

कोई नहीं हारेगा
सब जीतेंगे!

अर्थशास्त्र नहीं
समाजशास्त्र पहनेगा ताज़
हमारे ओलंपिक में

पिकारदा1 को विवाह का प्रस्ताव

अमेजन के वेग का डर और
नील की लंबी थकान
उभरती है मेरी नींद में!

तुम्हें थामनी होगी मेरी नींद..

मेरे सच की धूप में पकना होगा
अपने अनाज की महक खोए बगैर
वचन दो!
ज्ञान की फसल से दृष्टि का बीज
हवा की तरह अलगाओगी तुम...

कबूलना होगा तुम्हें
मेरे क्रोध की हत्या का पाप

मेरे चेहरे की चेचक तलाश लेगी
तुम्हारी आत्मा का आर्श

जब कर लेना मेरे मस्तिष्क का ज़हर
जैसे उतारते हैं नग
जन्म के ग्रहों की स्थितियों की ज़ंग

जिस स्वच्छ ओर नीली झील की तलाश में
तुम अपनाती हो सूत्र
जानना रह-रह कर
वो मेरे विस्फोट के बाद ही संभव होगी

सूत्र के बदले
बदलना होगा तुम्हें मुझसे
मेरा अमंगल..
अहंकार के नारियल को छील कर
आश्वस्त करो मुझे!!
तुम जरूर पहुँचोगी मेरे मीठे पानी तक..

अपनेपन के उन बदरंग क्षणों में
समझाना
कैसे रचा स्त्रियों को
'सिर्फ एक पसली से' या
खुलकर क्यों नहीं हँसती मोनालिज़ा!

संशय उतरेगा संबन्ध के आँगन में जब
केवल साहस शस्त्र होगा तब

अकेली यात्राओं के आरम्भ में जने हैं
सूनेपन ने अकेलेपन के अधूरे पत्थर

साहस बटोरने वहीं जाना!!

आर्चिज़ के उन उत्सवों
और क्यूपिड की कहानियों के मध्य
बैठा होगा मेरी श्रद्धा का डर
तुम चीन्ह लेना मेरे सारे डर

मेरे प्रयासों को लंबी नहीं
गहरी नींद सुलाना
जगा देगा मेरे स्वप्नों की सुबह को
कच्ची नींद से...

आभावों को सुला
फिर ईद आएगी
थामना सब्र
समारोहों के उस उतावलेपन में
असारता का समुद्र फैलता है
जाम्वन्त बन
फुसफुसाओ मेरी ताकतें
मुझे कूदना है...

मेरे तुतलाते साहस के लिए
दादा की अंगुली बन
जल्द आओ!

हाथ की सत्ता में अकेली पड़ती है तर्जनी
आओ!
उठाओ मेरा गोवर्धन

1. 'दाँते' के 'पैरादाइजो' में चाँद पर रहने वाली औरत।

पोती को दादा का खत

उठ!!
उबाल आने वाला है
शताब्दी और सभ्यता करवट लेती है
तुझे नींबू निचोडऩा है।

अगर नींद आने लगे माँ को
तो जगा देना, गर्भ से ही हाथ हिला
तुझे पूरा सुनना है चक्रव्यूह!

ऊँट की तरह बनानी होगी
तुझे अपनी जगह, तँबू में
रात के रेतीले तूफ़ान में

जानकार तो तू हो ही जाएगी
इन्तज़ार करूँगा मैं
तेरे अक्ल की दाढ़ का

चीजों को भार नहीं सार से तोलना
लब हार जाएँ तो आँख से बोलना
तुझे आगाह कर दूँ
संसार तुझे स्त्री होना सिखाएगा
गलत और सही मिला कर पिलाएगा
तू मानसरोवरी हँस बनना

मधुमक्खियों की तरह
ऊन धीरे-धीरे जमा करना
माँ की रंग-बिरंगी डिज़ाइन सीखना

महाराणा की तरह भाग जाना
अपनी हार की महक मिलते ही
घास की रोटी और आस का पानी पीना
फिर लौटना, शत्रुओं पर
परशुराम का कहर बनकर

दादा की दादागिरी और बाप की बिसात
के बीच होगा तेरा ज़ेहाद
पँखों में हवा नहीं लोहा भरना
फूल नहीं अंगार झरना

दर्पणों से घबराकर प्रसाधन नहीं
साहस का धन ओढऩा
विपक्ष के दिल नहीं
करारी दलीलें तोडऩा

दर्शकों के चले जाने के बाद
खाली मंचों पर रियाज़ करना
ज्ञान हार जाए तो कयाश करना

अपने स्वभाव के विरुद्ध
प्रयत्नों को चूम लेना
तमगों पर मूत देना
औरत होकर औरत का साथ देना!

जब तेरा यौवन बसन्तोत्सव मनाता हो
पुरुष खटखटाएगा साँकल
समझाना, कितनी नफ़रत करती हो
लपलपाते वेग से

फिर विज्ञान की टार्च लेकर
वे झांकेंगे तेरी रसोई में
तोड़ देना उनकी दूरबीनें
तेरी आबादी घट रही है!!

अपनी औलाद को आशीर्वाद नहीं
आईने देना,
शब्द नहीं, शब्द की शालीनता देना
और प्रकाश के लौटने पर
मोमबत्तियों को फूक से नहीं
माफीनामे से बुझाना
अंधकार के खिलाफ़
वे अकेली आवाज होती हैं

परिजनों और पंचामृत के मध्य नहीं
सफ़र में होनी चाहिए मौत!

यही जानना है बस तुझे!

इसके अलावा कोई तथ्य नहीं
और पूरा हो, ऐसा कोई सच नहीं!

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