उस शत्रु के खिलाफ जो कभी ठीक से दिखाई नहीं देता

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    जून 2014
श्रेणी क़िताब
संस्करण जून 2014
लेखक का नाम संजय कुंदन






कवि मंगलेश डबराल का नया संग्रह 'नये युग में शत्रु' ऐसे समय में आया है, जब विचार पर हमले तेज हुए हैं और प्रतिबद्धता को संदेह से देखा जाने लगा है। लेकिन मंगलेश अपने पक्षधरता के साथ अपनी जमीन पर पहले से कहीं ज्यादा मजबूती के साथ डटे हुए दिखाई देते हैं। यह जमीन उस राजनीतिक कविता की है, जो अकविताई शोहदेपन को चुुनौती देते हुए खड़ी हुई और जिसने हिंदी की व्यापक प्रगतिशील काव्यधारा से अपना रिश्ता नए सिरे से जोड़ा। इसने माक्र्सवाद से ऊर्जा ग्रहण की लेकिन वामपंथी विचार से अलग राह चलने वाले रघुवीर सहाय जैसे जनपक्षधर कवियों ने भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान दिया। दरअसल नक्सलबाड़ी आंदोलन, गैर कांग्रेसवाद के उभार और अलग-अलग सवालों पर चलने वाले विभिन्न जनांदोलनों ने इसका आधार तैयार किया और पिछले चार दशकों में यही कविता हिंदी की मुख्यधारा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। लेकिन यह संग्रह इस बात का भी संकेत करता है कि यह धारा एक नए मोड़ की तलाश में है। यह एक ऐसे पड़ाव पर पहुंच गई है, जहां उसे नई चुनौतियों के बरक्स नई सिरे से तैयारियां करनी होंगी। अपने लिए नए औजार तलाशने होंगे। मंगलेश डबराल ने यह तैयारी शुरू कर दी है। इस संग्रह में उनकी काव्यभाषा काफी कुछ बदली हुई है।
'पहाड़ पर लालटेन' से लेकर 'आवाज भी एक जगह है' तक में मंगलेश छोटी-छोटी और अनदेखी रह जाने वाली चीजों के अंतर्लोक में प्रवेश करते हैं और एक अव्यक्त संसार को उद्घाटित करते हैं। इस क्रम में वे अपने मनोलोक की भी यात्रा करते हैं और उसके भीतर के उखाड़-पछाड़ से हमारा सामना कराते हैं पर 'नये युग में शत्रु' में तो वह उस यथार्थ की वैचारिक चीरफाड़ करते हैं, जो एकदम सबके सामने है। हालांकि जो जितना जिस रूप में दिख रहा है, वह उतना ही और उसी रूप में नहीं है। उसके बारे में इनका कहना है : 'हम यथार्थ का पीछा करते हैं, लेकिन यह आसान नहीं है, क्योंकि वह और तेज भागने लगता है। वह अपने पीछे कोई छाया, कोई निशान भी नहीं छोड़ रहा है, अपना कोई इतिहास नहीं रहने दे रहा है। उसका वर्तमान इतना ज्यादा है कि हम उसके विगत का लेखाजोखा और भविष्य की कोई कल्पना नहीं कर पा रहे हैं।' आज के यथार्थ के अन्वेषण में वह उसकी तहों में उतरने की कोशिश करते हैं। लेकिन उनका ध्यान मुख्यत: ठोस चीजों और बहिर्जगत पर केंद्रित रहता है। पहली बार उनमें इतने ब्योरे आए हैं। पर वे सपाट तरीके से ब्योरे पेश नहीं करते जाते। चीजें तो दरअसल हमारे सामने हैं ही, उनकी कविता उन्हेें एक नए सिरे से फोकस करती है और इस तरह उनकी भयावहता फिर से उजागर होती है और हमें उसका एक अलग ही रूप देखने को मिलता है। कह सकते हैं कि मंगलेश डबराल ने इसमें 'डायरेक्ट' होने का जोखिम उठाया है। संभव है उनके कुछ प्रशंसकों को उनसे थोड़ी निराशा भी हो। क्योंकि ये कविताएं कुछ खास विषयों के इर्द-गिर्द और एक विशेष मन:स्थिति में लिखी गई हैं। ऐसे समय में जब उनके कई समकालीनों में कुछ हद तक थकान और ठहराव आ गया है, अपने समय के खौलते सवालों में मुठभेड़ की जो जद्दोजहद मंगलेश में है, वह न सिर्फ उनके बल्कि हिंदी की राजनीतिक कविता के भविष्य को लेकर आश्वस्त करती है।
इस संग्रह की अधिकतर कविताएं जन विरोधी व्यवस्था की पड़ताल करती हैं और शासक वर्ग को एक्सपोज करती हैं। ये असहमति की कवितायें हैं, जो सवाल करती हैं। ये प्रतिरोध की कवितायें हैं जो लगातार जिरह करती हैं।
इस संग्रह के नाम से ही पहला सवाल कौंधता है: आखिर हमारा शत्रु कौन है। वह है- अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजीवाद। वह भूमंडलीकरण की महा परियोजनाओं के साथ हमारे देश में आया है और उसने हमारी राजनीति और समाज को अपने चंगुल में ले लिया है।
इस नव साम्राज्यवादी अभियान के औजार बड़े महीन है। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजीवाद जनतंत्र की खाल ओढ़े और सूचना प्रौद्योगिकी के संयंत्रों से लैस आया है। उसके कारिंदे कहां किस रूप में अपना काम कर रहे हैं, हम ठीक-ठीक नहीं जान पाते। हमें अहसास कराया जा रहा है कि यह सब हमारे लिए ही हो रहा है, लेकिन दरअसल हमें बेडिय़ों में जकड़ दिया जा रहा है। इस शत्रु के बारे में मंगलेश कहते हैं:
वह अपने को कंप्यूटरों टेलीविजनों मोबाइलों
आइपैडों की जटिल आंतों के भीतर फैला देता है
अचानक किसी मंहगी गाड़ी के भीतर उसकी छाया नजर आती है
लेकिन वहां पहुंचने पर दिखता है वह वहां नहीं है
बल्कि किसी नयी और ज्यादा महंगी गाड़ी में बैठकर चल दिया है
(नये युग में शत्रु)
दरअसल हमारा शत्रु कोई व्यक्ति नहीं, एक विचार है, एक दर्शन है। उसका कोई एक प्रतिनिधि नहीं कि हम उसकी और उंगली उठाकर कह दें कि वह है हमारा शत्रु। इस विचार के असंख्य प्रतिनिधि हैं जो अनेक रूपों में सक्रिय हैं। वे हमें सीधे-सीधे आकर चुनौती नहीं दे रहे। बल्कि वे तो हमारे सबसे बड़े हितैषी की तरह आते हैं और कब हमारा इस्तेमाल कर चल देते हैं, हमें पता भी नहीं चलता। मंगलेश लिखते हैं:
हमरा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता
हमें ललकारता नहीं
हालांकि उसके आने-जाने की आहट हमेशा बनी हुई रहती है
कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं हैं
हम सब एक-दूसरे के मित्र है                 (नये युग के शत्रु)
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजीवाद ने दूसरे विकासशील देशों की तरह भारत के शासक वर्ग को तरह-तरह के प्रलोभन दिए और लगभग उसे खरीद ही लिया। उदारीकरण के बाद तो सीधे-सीधे विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के निर्देश पर हमारा आर्थिक नीतियां बनीं। जब से पूंजी निवेश बढ़ा है, हमारे शासक वर्ग के सामने समृद्धि का अथाह स्रोत खुल गया है। आखिर क्या वजह है कि मंत्रियों और सांसदों की निजी संपत्ति रातों रात बढ़ती चली जा रही है? भ्रष्टाचार के जो बड़े-बड़े मामले पिछले कुछ वर्षों में सामने आए हैं वे निश्चय ही उदारीकरण और भूमंडलीकरण की देन है। इन्होंने हमारे शासक वर्ग को लालची, लंपट और गैर जवाबदेह बना दिया है। अपने स्वार्थ में अंधे हमारे शासक वर्ग ने विदेशी पूंजी की राह आसान बनाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को धीरे-धीरे नष्ट किया और निजीकरण की राह आसान की।
हमारे शासक वर्ग का मूल चरित्र एक जैसा है, भले ही वह अलग-अलग दलों में नजर आए या अलग-अलग समुदायों की रहनुमाई का दावा करे। चुनावों में यह जनता से कुछ कहता तो नजर आता है पर कुल मिलाकर आम जनता से इसका कोई संवाद नहीं रह गया है। वह सिर्फ अपनी बात करता है पर जनता की बात नहीं सुनता। वह जनता के वोट लेने के लिए तरह-तरह के पाखंड करता है। इस बारे में कवि ने लिखा है:
हमारे शासक अकसर जहाजों पर चढ़ते और उनसे उतरते हैं
हमारे शासक पगड़ी पहने रहते हैं
अकसर कोट कभी-कभी टाई कभी लुंगी
अकसर कुर्ता-पाजामा कभी बरमूडा टीशर्ट अलग-अलग मौकों पर
हमारे शासक अकसर कहते हैं हमें अपने देश पर गर्व है
(हमारे शासक)
विश्व पूंजी के पैरोकारों और उनके दलाल शासक वर्ग ने डिवेलपमेंट का नारा दिया है जिसके तहत बड़ी-बड़ी परियोजनाएं बन रही हैं और जिनके लिए आदिवासियों और गरीब किसानों को उनकी जमीन, जंगल और पहाड़ों से बेदखल किया जा रहा है। कहीं-कहीं तो सीधे पुलिस और गुंडों की मिलीभगत से उन्हें उनकी जमीन से हटा दिया गया है। जमीन देने से इनकार करने पर उन पर गोलियां चलीं, उन्हें झूठे केसों में फंसाया गया। हालांकि कई जगहों पर आदिवासियों को लॉलीपॉप भी थमाये गए हैं। उन्हें वैकल्पिक जमीन या घर देने की कोशिश की गई है। पर ज्यादातर के हिस्से में कुछ नहीं आया है। जिन राज्यों में खनिज हैं वे ज्यादा गरीब हुए हैं। उनके संसाधनों का लाभ दूसरे राज्यों को और मुठी भर लोगों को पहुंचा। देश भर में विस्थापितों की एक फौज तैयार हो गई। यह अलग बात है कि यह न तो मीडिया की चर्चा का विषय है न ही मध्यवर्ग का। मंगलेश लिखते हैं :
यह साफ है कि उससे कुछ छीन लिया गया है
उसे अपने अरण्य से दूर ले जाया जा रहा है
उसके लोहे कोयले और अभ्रक से दूर
घास की ढलानों से तपती हुई चट्टानों की ओर
सात सौ साल पुराने हरसूद से एक नए और बियाबान हरसूद की ओर
पानी से भरी हुई टिहरी से नयी टिहरी की ओर जहां पानी खत्म हो गया है
(आदिवासी)
बड़े प्रोजेक्टों के कारण लाखों लोग विस्थापित हुए हैं। टिहरी जैसा पूरा शहर ही नष्ट हो गया है। विस्थापितों से न जाने कितने वादे किए गए पर वे आज तक पूरे नहीं हुए। एक बार जो उजड़े वे फिर कभी बस न पाए। इसलिए आज डिवेलपमेंट की इस प्रक्रिया पर सवाल उठाए जा रहे हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में आम जनता संगठित-असंगठित रूप से इसका विरोध कर रही है। संस्कति कर्मियों और बुद्धिजीवियों के एक छोटे वर्ग ने भी विकास के इस मॉडल के खिलाफ आवाज उठाई है। लेकिन विकासवादियों के शोर-शराबे में वह आवाज दब सी गई लगती है। कवि भी उन लोगों के साथ खड़ा होना चाहता है। उनकी आवाज में आवाज मिलाना चाहता है। कवि का सवाल है कि आखिर कितने हरसूद और बनाए जाएंगे?
'नया बैंक' पूंजीवाद का एक रूपक है। कवि एटीएम की चर्चा करते हुए उसके भीतर के ठंडेपन का खासतौर से उल्लेख करता है। ठंडक दरअसल रिश्तों की भी है। पहले के बैंक में ग्राहक-कर्मचारियों का एक रिश्ता रहता था पर अब दोनों के बीच कोई संवाद नहीं है। आदमी और मशीन आमने-सामने है, जिसका कोई संबंध नहीं बन पाता। रिश्ता है भी तो कोड के जरिए अंकों के जरिए। अंकों के इस मकडज़ाल में आदमी उलझ सा गया है। वह अपने को अकेला और असहाय महसूस करता है। और नय नया बैंक करता क्या है? कवि के शब्दों में -
वह अपने आसपास ठेलों पर सस्ती चीजें बेचने वालों को भगा देता है
और वहां कारों के लिए कर्ज देने वाली गुमटियां खोल देता है   (नया बैंक)
बैंक के कामकाज के जरिए कवि ने कई आर्थिक नीति के खतरनाक लक्ष्यों की ओर इशारा किया है। भूमंडलीकरण छोटे-मोटे उद्योगों पर प्रहार करता है और पारंपरिक आर्थिक ढांचे को नष्ट कर डालता है। भारत में यह प्रक्रिया निरंतर तेज हो रही है।
नए बाजार में प्रबंधन को सबसे अहम माना गया है और यह अवधारणा प्रस्तुत की है कि मैनेजमेंट के जरिए कुछ भी संभव है। यह माना जाता है कि कुशल प्रबंधन से किसी भी उत्पाद को बेचा जा सकता है। वैश्वीकरण के पैरोकार पूरे जीवन को ही प्रबंधन साबित करने पर लगे हुए हैं। कवि ने इस पर कटाक्ष करते हुए लिखा है:
अन्याय का पता न चलने देना अन्याय का कुशल प्रबंधन है
लूट का न दिखना लूट की कला है
दुनिया में कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं है
बल्कि सब कुछ अत्यंत प्रबंधनीय है                              (कुशल प्रबंधन)

प्रबंधन की कला में ही यह निहित है कि कैसे पहले उपभोक्ता के मन-मस्तिष्क को बदला जाए और उसे एक खास उत्पाद के लिए तैयार किया जाए। फिर उसे उसका अभ्यस्त बना दिया जाए। आज प्रबंधक इसी काम में लगे हुए हैं। उन्होंने भारत के बड़े वर्ग को अपने बाजार के लिए तैयार किया और अब उसे भूंडलीकरण का अंधभक्त बना दिया है। प्रबंधकों ने अलग-अलग माध्यमों और तरीकों से यह प्रचारित किया कि मनुष्य और कुछ नहीं बस एक उपभोक्ता है और उपभोग ही जीवन का चरम लक्ष्य है। यही सबसे बड़ा मूल्य है। समाज का एक वर्ग धीरे-धीरे इस तरह मानसिक तौर पर गुलाम हो गया। वह सारे सरोकारों से कट गया। वह बाजार की चकाचौंध और शोर-शराबे में डूबे रहना चाहता है क्योंकि इससे परे देखने की उसकी क्षमता ही खत्म हो गई है। कवि ऐसे लोगों को नया गुलाम कहता है। उनके बारे में वह लिखता है :
नये गुलाम इतने मजे में दिखते हैं
कि उन्हीं किसी दुख के बारे में बताना कठिन लगता है
और वे संघर्ष जिनके बारे में सोचा गया था कि खत्म हो चुके हैं
फिर से वहीं चले आते हैं जहां से शुरू हुए थे
वह सब जिसे बेहतर हो चुका मान लिया गया था
पहले से खराब दिखता है
और यह भी तय है कि इस बार लडऩा ज्यादा कठिन है          (गुलामी)
जाहिर है इन गुलामों को यह समझाना कठिन है कि वे जिन चीजों पर मुग्ध हैं, वे दरअसल उन्हें खोखला कर रही हैं। बाजार ने सामाजिक मूल्यों पर गहरा हमला किया है। आज सबसे बड़ा मूल्य है संपन्न होना। संपन्नता कैसे आती है, इससे कोई मतलब नहीं है। बस जिसके पास संपन्नता है, वह सफल माना जाता है। आज उसी संपन्न वर्ग के हाथ में सूचनाओं के सारे माध्यम हैं। इसलिए आज मीडिया सिर्फ संपन्नता या खुशहाली को दिखता है। वह अभाव, हताशा या पिछड़ापन नहीं दिखाता। इसलिए समाज में केवल इसी पर बात होती है। दुख-तकलीफ पर बात करना पिछड़ापन मान लिया गया है। चर्चा के केंद्र में केवल भौतिक साधन है। एक होड़ सी है सुख के साधन हासिल करने की। हर किसी के चेहरे पर एक नकली हंसी है। आदमी और आदमी के बीच की दूरी बढ़ी है। कोई किसी से अपने मन की बात नहीं कहता। लोग केवल अपने साधनों की डींग हांकते हैं। हर कोई दिखावा करता है। कवि के शब्दों में
लोग हर वक्त घिरे रहते हैं लोगों से
अपनी सफलताओं से अपनी ताकत से पैसे से अपने सुरक्षाबलों से
कुछ पूछने पर तुरंत हंसते हैं
जिसे इन दिनों के आम चलन में प्रसन्नता माना जाता है          (गुलामी)
दरअसल बाजार लोगों से उनकी स्मृति छीनने में लगा है। वह अपने में सिमटे ऐसे आत्मतुष्ट लोगों का समाज बनाना चाहता है जो सिर्फ अपने बारे में सोचता हो। जिसे दूसरों के सुख-दुख से कोई लेना-देना न हो। तेजी से बन रहे ऐसे समाज का एक चित्र देखिए :
इन दिनों लोगों को परवाह नहीं उनके साथ क्या हो रहा है
कोई अन्याय को महसूस नहीं करता
लोग अत्याचार को धूल की तरह झाड़ देते हैं सहसा चिल्ला उठते हैं नहीं
नहीं
कहीं तुरंत से कोई खुशी खोजकर ले आते हैं
उसे जमा कर लेते हैं अपने आप जैसे वह सिर्फ उनके लिए बनी हो
बहुत सारे कपड़े और जूते पहन लेते हैं बहुत सारा खाना खा लेते हैं
एक महंगा मोबाइल निकालते हैं अपने अश्लील संदेशों के साथ
दंगों में मारे गए लोगों के घरों से उठाकर ले आते हैं
एक टेलीविजन ताकि जारी रह सके मनोरंजन              (भूमंडलीकरण)
बाजार ने धीरे-धीरे समाज के भीतर मौजूद प्रतिरोध की धार को कुंद किया है। धीरे-धीरे बदलाव के सारे अभियान कमजोर पड़ गए हैं। तमाम संघर्ष भटक से गए हैं क्योंकि शत्रु और उसके लक्ष्य को पहचानने में चूक हुई है। फिर सूचना और संचार के तमाम माध्यमों के जरिए विचार के खिलाफ एक माहौल किया गया है। कवि महसूस करता है कि चुुनौतियां बेहद कठिन है। तमाम संघर्षों को फिर से धार देने की जरूरत है। और इसके लिए एक नई गोलाबंदी चाहिए। बहरहाल तमाम चुनौतियों के बीच कवि अपने स्तर पर प्रतिरोध नहीं छोड़ता। बाजार के दबाव को साफ नकार देना ही आज सबसे बड़ा प्रतिरोध है। और यहीं से किसी भी संघर्ष की शुरूआत हो सकती है। मंगलेश के शब्दों में
ताकत की दुनिया में जाकर मैं क्या करूंगा
मैं सैकड़ों हजारों जूते चप्पल  लेकर क्या करूंगा
मेरे लिए एक जोड़ी जूते ठीक से रखना कठिन है।       (ताकत की दुनिया)
जाहिर है आज जब हर कोई शक्ति और संपन्नता हासिल करने के खेल में लगा है, ताकत की दुनिया को व्यर्थ समझना एक बड़ा साहस है। 'बाजार से गुजरा हूं खरीदार नहीं हूं' का यह जज्बा आज का एक्टिविज्म है। यहीं से बाजार को चुनौती देने या उससे मुठभेड़ की शुरूआत हो सकती है। मंगलेश दृढ़ता के साथ बाजार को नकारते हैं और उसे कठघरे में खड़ा करते हैं।
'गुजरात के मृतक का बयान' हाल के वर्षों की हिंदी की कुछ श्रेष्ठ कविताओं में से एक है। कविता बताती है कि किस तरह सांप्रदायिक टकराव की आड़ में सत्ता द्वारा जनसंहार किया जाता है। जाति, धर्म या संप्रदाय अकसर टूल की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं पर असल उद्देश्य होता है अपनी सत्ता स्थापित करना। सत्ताएं अपनी स्वीकृति के लिए इसी तरह जनता का सफाया करती हैं। चाहे वह आश्वित्ज नरसंहार हो या गुजरात जैसे दंगे। एक समूह विशेष को निशाना बनाकर एक बड़े समुदाय में अपनी पैठ बनाई जाती है और अपनी हुकूमत मजबूत की जाती है। सत्ताधारी वर्ग के इस खेल में मुख्यत: पिसता गरीब आदमी। उसे न जाने कितने तरीकों से मारा जाता है। कविता की कुछ पंक्तियां देखें:
और मुझे इस तरह मारा गया
जैसे एक साथ बहुत से दूसरे लोग मारे जा रहे हों
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मकसद नहीं था
लेकिन मुझे मारना बड़ा मकसद हो             (गुजरात के मृतक का बयान)
गुजरात के मृतक के बयान में उस अभिशप्त जनसमूह की आत्र्त पुकार शामिल है, जो शासक वर्ग की किसी योजना के तहत सुनियोजित तरीके से मारा गया। और उसके मारे जाने पर गर्व किया गया, उत्सव मनाया गया। और लंबे समय तक जिसे तरह-तरह की दलीलों से सही ठहराया गया। इस तरह यह कविता आधुनिक सामाजिक विकास और जनतंत्र की पोल खोलती हुई व्यापक सभ्यता विमर्श से जुड़ती है। निश्चय ही यह संग्रह अपने समय का एक जरूरी दस्तावेज है जो इस विचार को मजबूती देता है कि कविता एक वैकल्पिक मीडिया है। जो आवाज कहीं नहीं आ पाती, वह कविता में जगह पाती है। सच तो यह है कि पिछले कुछ वर्षों में मास मीडिया भूमंडलीकरण के गुणगान में लग गया है। नए अर्थतंत्र और विकासवाद की आलोचना को अब मीडिया में जगह मिलना कठिन है।  ऐसे में 'नये युग में शत्रु' की कविताएं भूमंडलीकरण का एक क्रिटीक तैयार करती हैं। ये राहत नहीं देतीं, बेचैन करती हैं क्योंकि ये क्राइसिस की कविताएं हैं। इनमें अभिधा की ताकत दिखती है क्योंकि वह व्यंजना की तरह व्यक्त हुई है।


नये युग में शत्रु, कवि : मगलेश डबराल
राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड 7/31, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली - 110002 मूल्य : 195, पृष्ठ : 116

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