सार्वजनिक नल
इस नल में घंटों से यूं ही पानी बह रहा है
बहाव की एक ही लय है एक ही ध्वनि और सततता भी ऐसी कि ध्वनि एक धुन हो गई है
बरबादी का भी अपना एक संगीत हुआ करता है
ढीली पेंचों के अपने-अपने रिसाव हैं अधिक कसाव से फेल हो गई चूडिय़ों के अपने सुबह-शाम के बहाव तो चिडिय़ों की चहचहाहट में डूब जाते हैं पर रात की टपकन तक सुनाई पड़ती है
पहले मेरी नींद में सूराख कर देती थी यह टपकन अब यही मेरी थपकी बन गई है
मैं अब इस टपकन के साये में सोने लगा हूँ हाल अब यह है जैसे ही बंद होती है टपकन
मेरी नींद खुल जाती है...
उत्खनन
केवल सभ्यताएं नहीं मिलतीं उत्खनन में सभ्यताओं के कटे हाथ भी मिलते हैं
आप इतिहास में दर्ज एक कलात्मक मूंठ को ढूंढऩे निकलते हैं उसकी जगह कलम किया हुआ सिर मिलता है
चाहे से, न चाहा गया अधिक मिलता है कभी-कभी
यह बिल्कुल संभव है कि कभी गांधी को अपने तरीके से खोजने निकले लोगों के हाथ चश्मे के एक जोड़े के पहले कटी छातियों के जोडिय़ों से मिलें
शायद ही कोई बता पाये ये इधर से उधर भागतीं स्त्रियों के हैं या उधर से इधर भागतीं
और शायद ही मिले चीख पुकारों का कोई संग्रहालय
मिलेगा तो कोई यह कहते हुए मिलेगा पीछे मुड़ते हुए कि बर्बरों को फाँसी पर लटका दिया गया है और वह भी इस वज़न से कहेगा जैसे- मंशाओं को फाँसी पर लटका दिया गया है
उत्खनन में मंशाओं की बड़ी भूमिका होती है।
सहेलियां
आज बेटी सुबह से ही व्यस्त है सहेलियां घर पर आएंगी
खाना होगा गपशप होगी खूब
चीज़ें तरतीब पा रही हैं ओने-कोने साफ हो रहे हैं खुद की भी सँवार हो रही है पिता तक पहुँचती आवाज़ में माँ से कह रही है - यही पहनकर न आ जाना बाहर
नोयडा से रुचि आई है बंग्लोर से आयशा विश्वविद्यालय के कल्पना चावला हॉस्टल से आएगी तरु सरोजनी से दिव्या
शिल्पी बीमार है, वह छटपटाएगी बिस्तर पर
... ग्यारह बजे आ जाना था उन्हें बारह बज गए हैं बेटी टहल रही है मोबाइल पर कान लगाए
वे शायद आ रही हैं मोड़ की उस ओर जहां आंखें नहीं पहुंच रहीं आवाज़ों का एक बवंडर आ रहा है
हाँ, वे आ गई हैं कॉल बैल दबाने से पूरा नहीं पड़ रहा उनका गेट का दरवाज़ा पीट रही हैं थप-थप-थप्प जैसे यह बहरों का मुहल्ला है
अधैर्य का एक पुलिंदा मेरे गेट पर खड़ा है
वे गेट के भीतर क्या आ गई हैं कहीं एक बाँध टूट गया है जैसे कहीं आवाजों के विषम शिखरों का एक ऑर्केस्ट्रा बज रहा है कहीं चिपको नेत्रियों द्वारा एक घना जंगल बचाया जा रहा है कटने से
वे अब कमरे के भीतर आ गई हैं धम्म-धम्म-धम्म सोफों पर ऐसे गिर रही हैं जैसे पहाड़ खोद कर आई हैं
थोड़ा ठंडा-वंडा थोड़ा चाय-बिस्कुट थोड़े गिले - शिकवे...
और अब सबकी सब अतीत में चली गई हैं एक ग्रुप फोटो के साथ... वे कॉलेज के अंतिम वर्ष के विदाई समारोह में खड़ी हैं अभी पहली-पहल बार साड़ी पहने हुए सब एक बार फिर लजाती निकल रही हैं अपने-अपने घरों से साड़ी कुछ मां ठीक कर रही है, कुछ बहन, कुछ भाभी ऊपर कंधे पर ठीक हो रही है, कुछ पैरों के पास झटक-झटक कर
एक स्कूटर पर पीछे बैठी असहज-असहज है दूसरी स्कूल वैन में बैठने के पहले कई बार गिरते-गिरते बची है तीसरी खुद को कम देखने वालों को अधिक देख रही है मरी-मरी जा रही है भरी-भरी जा रही है
कॉलेज के प्रवेश द्वार पर असहजता का एक कुंभ लगा है वे अपने ही भीतर डुबकी लगा रही हैं उनके भीतर ही भँवर हैं भीतर ही चप्पू भीतर ही मंझधार हैं भीतर ही किनारा
वे उचक-उचक कर चहक रही हैं चहक-चहक कर मंद्र हो रही हैं
...अब उनकी बातों की ज़द में सहपाठिनें हैं ये चौथे लाइन में तीसरे नम्बर पर खड़ी बड़ी चुड़ैल थी जी और ये दूसरे लाइन वाली कितने बहाने बनाती थी क्लास में भई मिस नागर का तो कोई जवाब नहीं
अभी यह कमरा कमरा नहीं एक ही पेड़ पर कुहुक रही कोकिलाओं का जंगल पल है
...धीरे-धीरे कमरे का सामुदायिक राग कम हो रहा है अब एक बार में एक स्वर मुखर है अपने-अपने अनुभव हैं अपनी-अपनी बातें फिर जैसे अचानक एक रेलगाड़ी लंबी सुरंग में प्रवेश कर गई है ...चुप्प... और फिर जैसे अचानक सभी दिशाओं में सूर्य उग आए हैं पखेरू चहकने लगे हैं किसी ने मोती की लडिय़ां तोड़कर बिखेर दी हैं खिल-खिल का ऐसा ज्वार कि जैसे संसार के सारे कलुष धुल गए हों
भीतर हम भी देश-काल से परे हो गए हैं ये सब सजो लेंगी इन पलों को हम समो लेंगे
...समय बीत गया है पर इनकी बातें नहीं
अब ये सब टा-टा, बाई-बाई कर रही हैं इस छोर पर एक मां कई बेटियों को विदा कर रही है उस छोर पर कई मांएं आंखें बिछाए खड़ी हैं
यहीं कहीं एक लड़का कैमिस्ट की दुकान पर खड़ा एसिड की बोतल खरीद रहा है...
कछार-कथा
कछारों ने कहा हमें भी बस्तियां बना लो - जैसे खेतों को बनाया, जैसे जंगलों को बनाया
लोग थे जो कब से आंखों में दो-एक कमरे लिये घूम रहे थे कितने-कितने घर बदल चुके थे फौरी नोटिसों पर कितनी-कितनी बार लौट आए थे ज़मीनों के टुकड़े देख-देख कर
पर ये दलाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले कछारों की आवाज़ सुनी और लोगों के हसरतों की भी थाह ली, उनकी आंखों में डूबकर
उन्होंने कछारों से कहा ये लो आदमी और आदमियों से कहा ये लो ज़मीन
डरे थे लोग पहले-पहल पर उन्हें निर्भय करने कई लोग आगे आ गए बिजली वालों ने एकांत में ले जाकर कहा, यह लो बिजली का कनैक्शन जल-कल ने पानी की लाइनें दौड़ा दीं नगरपालिका ने मकान नम्बर देते हुए पहले ही कह दिया था - जाओ मौज करो
कछार एक बस्ती है अब
ढेर सारे घर बने कछार में तो सिविल लाइंस में भी कुछ घर बन गए लंबे-चौड़े-भव्य
यह कछार बस्ती अब गुलो-गुलज़ार है
बच्चे गलियों में खेल रहे हैं दूकानदारों ने दुकानें खोल ली हैं डाक विभाग डाक बांट रहा है राशन कार्डों पर राशन मिल रहा है मतदाता सूचियों में नाम बढ़ रहे हैं
कछार एक सर्वमान्य बस्ती है अब
पर सावन-भादों के पानी ने यह सब नहीं माना उसने न बिजली वालों से पूछा न जल-कल से न नगरपालिका से न दलालों से - हरहराकर चला आया घरों के भीतर
यह भी न पूछा लोगों से तुमने तिनके-तिनके जोड़ा था या मिल गया था कहीं एक साथ पड़ा हुआ तुम सपने दिन में देखा करते थे या रात में लोगों ने चीख-चीख कर कहा, बार-बार कहा बाढ़ का पानी हमारे घरों में घुस गया है पानी ने कहा मैं अपनी जगह में घुस रहा हूँ अखबारों ने कहा जल ने हथिया लिया है थल अनींद ने नींद हथिया ली है लोग टीलों की ओर भाग रहे हैं
अब टीलों पर बैठे लोग देख रहे हैं जल-प्रलय
औरतें जिन खिड़कियों को अवांछित नज़रों से बचाने फटाक् से बंद कर देती थीं लोफर पानी उन्हें धक्का देकर भीतर घुस गया है उनके एकांत में भरपूर खुलते शावरों के भी ऊपर चला गया है जाने उन बिंदियों का क्या होगा जो दरवाज़ों दीवारों शीशों पर चिपकी हुई थीं जहां-तहां
पानी छत की ओर सीढिय़ों से नहीं बढ़ा बच्चों की तरह फलांगते न ही उनकी उछलती गेंदों की तरह टप्पा खाकर - अजगर की तरह बढ़ा रेंगते-रेंगते, मकान को चारों ओर से बाहुपाश में कसते उसकी रीढ़ चरमराते
वह नाक, कान, मुंह, रंध्र-रंध्र से घुसा इड़ा-पिंगला-सुष्मन्ना को सुन्न करते
फ़िलहाल तो यह टीला ही एक बस्ती है यह चिंताओं का टीला है एक खाली हो चुकी पासबुकों का विशाल जमावड़ा है उऋणता के लिए छटपटाती आत्माओं का जमघट है यहां से लोग घटते जलस्तर की कामना लिए बढ़ता हुआ जलस्तर देख रहे हैं
वे बार-बार अपनी ज़मीन के एग्रीमेंट पेपर टटोल रहे हैं जिन्हें भागते-भागते अपने प्राणों के साथ बचाकर ले आए थे... |