मटमैले पानी के उदास रंग!

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    जून 2014
श्रेणी इक्कीसवीं सदी की लड़ाइयां
संस्करण जून 2014
लेखक का नाम जितेन्द्र भाटिया





इक्कीसवीं सदी की लड़ाइयां




आज के जिस उपभोक्ता समाज में हम जी रहे हैं, उसमें यह तय कर पाना भी मुश्किल होगा कि अपनी सुबह से शाम की जिंदगी के कुल जमा हिसाब में हम अपने इर्दगिर्द उपयोगी सामान इकट्ठा कर रहे हैं; या कि हमारा समूचा विकास अनुपयोगी या व्यर्थ सामग्री का विनाशकारी ढेर बढ़ाने में खर्च हो रहा है। आज हम जितना कुछ इस्तेमाल में लाते हैं, उससे कई गुना नष्ट और बरबाद करते हैं। आज के उपभोक्ता समाज में जिन तीन चीज़ों को मीडिया पर सबसे अधिक प्रचारित और प्रसारित किया जाता है, वे हैं मोबाइल फोन, सॉफ्ट ड्रिंक के ब्रैंड और चुइंग गम के विभिन्न ज़ायके! जिस तरीके से इनके प्रचार के लिए महंगे-से महंगे टी वी स्लॉट, मुख्तलिफ फिल्म स्टारों के मजमे, बेहतरीन संगीतकार और अद्भुत 'लोकेल्स' जुटाए जाते हैं, उन्हें देखते हुए लग सकता है कि इन चीज़ों के इस्तेमाल के बगैर इस बेमानी ज़िंदगी की कल्पना करना भी मुश्किल हो जाएगा। जबकि हकीकत यह है कि 'सेंटर फ्रेश' से लेकर थ्री जी फोन, पुरुषों की गोरेपन की क्रीम, मां की ममता को बदनाम करने वाली 'एप्पेनलीबे', प्रियंका द्वारा मुंह में डाले जाने वाले इलाइची के 'मोतियों' और आसमान से लड़कियां टपकाने वाले 'नो हवाबाज़ी' 'डियो' के इस्तेमाल के बगैर भी हमारी-आपकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में एक सूत भी परिवर्तन नहीं आने वाला है। इन सारे 'हवाबाज़ी' उत्पादों को रूमानियत अता करने के लिए मारकेटिंग के धुरंधरों ने एक नया आकर्षक विशेषण ईजाद किया — लाइफ स्टाइल प्रोडक्टस! यानी वे उत्पाद, जिनका 'प्याज़ के दामों' से कोई लेना-देना नहीं है, और जो इस उद्दंडता एवं विश्वास के साथ बाज़ार में उतारे जाते हैं कि 'आवश्यकता' आविष्कार की जननी नहीं बल्कि उसकी ज़रखरीद गुलाम होती है। यानी आवश्यकता होती नहीं, बल्कि इन धुरंधरों द्वारा पैदा की जाती है!
प्रचार के इस युग में मियां गालिब की तरह खरीददार हुए बगैर बाज़ार से गुज़र जाना भी अब संभव नहीं रहा। आप न सही आपकी बीवी, आपके बच्चे, आपके पड़ोसी, कोई न कोई तो आपको इसकी चपेट में लाकर ही छोड़ेगा। इसी विज्ञापन युग की एक और नायाब देने है दो बड़ी कम्पनियों पेप्सी और कोकाकोला द्वारा बेचे जाने वाले एक दर्जन सॉफ्ट ड्रिंक के ब्रैंड, जिनमें फल के रस की एक बूंद भी नहीं होती, जो शक्कर, कैफीन और नुकसानदायक फॉसफोरिक ऐसिड से भरपूर होती हैं और विभिन्न वैज्ञानिक परीक्षणों में जिन्हें स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक पाया गया है। लेकिन विज्ञापनों के चकाचौंध विशेषणों और टी वी पर दिखने वाले करतबों के बूते इन पेयों को न सिर्फ धड़ल्ले से बेचा जाता है, बल्कि इनकी बिक्री पर इस दुनिया में करोड़ों डॉलरों का बहुराष्ट्रीय धंधा टिका हुआ है। दरअसल ये सारे 'प्यास के सौदागर' हैं जो हमारे शरीर की इस मौलिक ज़रूरत यानी आदमी की प्यास को बेशर्मी से व्यवसाय में बदल रहे हैं। इसी के तहत कुछ साल पहले इन्होंने एक ब्रैंड के लिए स्लोगन दिया था—
                                     जी चाहता है प्यास लगे!
हमने कुछ वर्ष पहले इसी श्रृंखला में कोकाकोला और पेप्सी के सॉफ्ट ड्रिंक व्यवसाय की विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की थी और उनके धंधे के इस गंभीर पक्ष की ओर भी ध्यान खींचा था कि कैसे इन कम्पनियों के कारखाने अपने उत्पादकों के लिए ज़मीन से पानी खींच-खींचकर अपने आस-पास के इलाके को बंजर और सूखे प्रदेशों में तब्दील कर रहे हैं। इसी आक्षेप से बचने के लिए आजकल कोकाकोला अपनी हर बोतल पर लिखता है कि वह इन उत्पादों के लिए ज़मीन से जितना पानी लेता है, उससे अधिक वह ज़मीन को लौटा रहा है। इस कथन में कितनी सच्चाई है, यह तो समय ही बताएगा क्योंकि आज भी इन कम्पनी के विरुद्ध कई मुकदमे दुनिया की अदालतों में चल रहे हैं। लेकिन हमारी चिंता महज़ पानी के इस हिसाब-किताब तक ही सीमित नहीं, बल्कि देश की व्यापक कड़वी सच्चाइयों और उन औंधी प्राथमिकताओं तक फैली है जिनके तहत स्वतंत्रता के लगभग सत्तर साल गुज़र जाने के बाद भी जहां एक ओर बाढ़ के प्रकोप से गांव-दर-गांव बह जाते हैं तो दूसरी ओर पानी को तरसे सूखे खेत में खड़ा अकेला किसान अपनी जान ले लेने पर आमदा होता है; जहां बरसों के बाद भी सुरक्षित पेय पानी का कहीं कोई ज़रिया नहीं है, लेकिन जहां गांव के हर छोटे से छोटे खोखे पर कोकाकोला के 'ऐक्वाफिना' का बोतलबंद पानी, एयरटेल के सिम कार्ड, फेयर ऐंड लवली की क्रीम और एप्पेनलेबे की लेमनचूस की गोलियां आसानी से दिखाई दे जाती हैं।
* * *
पृथ्वी पर जीवन का वजूद हवा और रोशनी के अतिरिक्त जिस जीवन-दायिनी नेमत पर टिका है— वह है पानी! पृथ्वी की दो तिहाई ज़मीन पर पानी फैला है और हमारे शरीर का भी कुल 60 प्रतिशत हिस्सा पानी है। इतनी बहुतायत से पायी जाने वाली किसी चीज़ को लेकर संकट की बात करना विचित्र या बेमानी लग सकता है, लेकिन सच यह है कि इक्कीसवीं सदी के आने वाले दशकों में इस सभ्य पृथ्वी पर आने वाली गंभीर विपदाओं में पानी का स्थान शायद सबसे ऊपर है। दो तिहाई क्षेत्रफल पर पानी फैला होने के बावजूद यह धरती पिछले पचास वर्षों से पीने के पानी के लिए बेतरह तरस रही है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार इस पृथ्वी के कुल 140 अरब घन किलोमीटर जल में से केवल 2 लाख घन किलोमीटर जल या कि कुल जल का केवल 0.01 प्रतिशत ही पीने के योग्य समझा जा सकता है। जहां धरती के 120 अरब लोगों को पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिलता, वहीं 250 अरब लोगों के पास व्यक्तिगत सफाई के लिए स्वच्छ पानी नहीं है और 280 अरब लोग ऐसे हैं जिन्हें साल में कम से कम एक महीने के लिए पीने के स्वच्छ पानी से वंचित रहना पड़ता है।
संयुक्त राष्ट्र स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार इस दुनिया में प्रति वर्ष 34 लाख व्यक्ति पानी जन्य बीमारियों का शिकार होकर मरते हैं और यही आज की दुनिया की सबसे घातक और जानलेवा बीमारी भी है। ज़ाहिर है कि दूषित पानी से होने वाली मौतों का तीन चौथाई हिस्सा तीसरी दुनिया के गरीब देशों के हिस्से में आता है और मरने वालों में अधिकांश कम उम्र के बच्चे होते हैं। एक आंकड़े के अनुसार समृद्धता और चकाचौंध में डूबी हमारी इस दुनिया में दूषित पानी के शिकार होकर हर रोज़ 4000 बच्चे अपना दम तोड़ देते हैं और किसी के लिए भी यह जानना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि ये बच्चे किन मुल्कों, किन प्रदेशों, किन दुर्गम ठिकानों और किन गलीज बस्तियों के बाशिंदे रहे होंगे।
यदि विश्व स्तर पर पानी के संकट की बात की जाए तो आने वाले दशकों में हमारी धरती को पानी की 20 प्रतिशत या इससे भी अधिक कमी का सामना करना पड़ सकता है। आने वाले दिनों में पानी का जो विकराल संकट हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है, निस्संदेह उसके पीछे सबसे बड़ा हाथ इस ग्रह की तेज़ी से बढ़ती हुई जनसंख्या का रहा है, लेकिन इसके साथ साथ बहुत से दूसरे मानव-जन्य कारण भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। ज़ाहिर है कि पानी का यह संकट दुनिया के उन क्षेत्रों में सबसे अधिक है जहां जनसंख्या अधिक है या जहां प्राकृतिक रूप से पानी की भारी कमी है। इसीलिए भारत के अलावा चीन और सहारा क्षेत्र के अफ्रीकी देशों में पानी का यह संकट सबसे अधिक गंभीर है। अफ्रीका में तो पूरी जनसंख्या का एक चौथाई हिस्सा आज किसी न किसी रूप में पानी के संकट का सामना कर रहा है। यदि युद्ध स्तर पर समय रहते कदम न उठाए गए तो आदि ग्रंथों में वर्णित प्रलय का विनाश फिर से इस दुनिया का यथार्थ बन सकता है; फर्क सिर्फ इतना होगा कि इस बार यह तबाही पानी की बहुतायत से नहीं, बल्कि उसकी कमी और उससे फैलने वाली जानलेवा बीमारियों की बदौलत होगी।
पानी के संकट की मार दोतरफा है। एक तरफ औद्योगिक विकास के चलते हमारे पेय जल के स्रोत संकुचित होते जा रहे हैं तो दूसरी ओर बढ़ती जनसंख्या के चलते उन्हीं सीमित स्रोतों का बंटवारा लोगों की कहीं अधिक बड़ी संख्या के बीच हो रहा है। ऐसे में स्वाभाविक है कि इस बंटवारे का सबसे छोटा और सबसे असुरक्षित भाग साधन-विहीन और आर्थिक रूप से असुरक्षित तबके के हिस्से में आए। इस वर्ग में अशिक्षा के चलते स्वास्थ्य-जागरूकता का भी सख्त अभाव है। इस पर जनसंख्या के महकमे में भारत जैसे देश का 'ट्रैक रेकॉर्ड' शायद दुनिया में सबसे खराब रहा है। जहां चीन ने सख्त कानूनों और सामाजिक घेराबंदी के रास्तों से अपनी जनसंख्या की वृद्धि दर पर काबू पा लिया है, वहीं भारत में अब भी विभिन्न समस्याओं के चलते जनसंख्या वृद्धि-दर में कोई खास सुधार नहीं आया है। एमरजेंसी के दौरान संजय गांधी के जबरन नसबंदी के अभियान का हश्र सब जानते है। लेकिन जनसंख्या की वृद्धि का पानी की उपलब्धता से सीधा संबंध है। हमारे पानी के स्रोतों के सामंती, पक्षपाती और अन्यायसंगत बंटवारे को जनसंख्या में वृद्धि के चलते साध पाना और भी मुश्किल होता चला जा रहा है।
इस सदी के प्रारंभ में भारत में पानी की सालाना सुलभता 1816 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति थी। प्रामाणिक आंकड़ों के अनुसार 2011 में यह घटकर 1545 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति रह गयी। अनुमान है कि वर्ष 2025 तक प्रति व्यक्ति के हिस्से में यह मात्रा घटकर 833 क्यूबिक मीटर मात्र रह जाएगी और सन् 2050 के आते आते यह मात्रा 900 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति तक रह जाएगी। ऐसे में हिंदी फ़िल्मों के खलनायक प्रेम चोपड़ा द्वारा लोकप्रिय किया गया मुहावरा मुनासिब बैठेगा कि—
                             ऐसे में नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या?
वर्तमान विश्व में बहुत सारे गरीब देशों की हालत भारत से भी कहीं गंभीर है। इथियोपिया, जहां पानी की कमी के साथ-साथ भयानक गरीबी है। इस देश में हर पांचवां बच्चा पांच वर्ष से पहले मर जाता है। पोषण और बीमारी के चलते जीवित बच्चों के जीवन की त्रासदी इससे बहुत बेहतर नहीं है। स्त्रियां अपनी दिनचर्या का अधिकांश समय पानी इकट्टठा करने में बिताती हैं। पानी से जुड़ी एक संस्था की मारिया स्मिथ नेलसन कहती है कि दुनिया में दूषित जल वाले स्थलों में से कम से कम आधे ऐसे हैं जहां एक समय पानी के रख-रखाव की सुचारू व्यवस्थाएं थी, लेकिन समय के साथ उन्हें विभिन्न कारणों से नष्ट या नाकाम बना दिया गया है। भारतीय समाज में भी पानी जमा करने के पारंपरिक, लेकिन अत्यंत कारगर उपाय थे। पश्चिम एवं वैश्वीकरण की अंधी दौड़ में हम इनमें से बहुत से साधनों को नाकाम बना चुके हैं। उस पर जनसंख्या के विस्तार ने पेय पानी के स्रोतों को और भी संकुचित कर दिया है।
अंग्रेजी पत्रिका 'साइंटिफिक अमेरिकन' के लिए लिखते हुए डिना फाइन मेरोन कहती हैं कि पानी की बढ़ती हुई आवश्यकता और वैश्विक स्तर पर बदलती आबोहवा (ग्लोबल वॉर्मिंग) के प्रभावों से पूरी दुनिया में पानी का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है और यह संकट उन देशों में सबसे अधिक है जहां पहले से ही पानी की कमी है। इथियोपिया जैसे संकटग्रस्त क्षेत्रों पर कई संस्थानों की नज़रें पड़ रही है, लेकिन दिक्कत यह है कि इसके दायरे से बाहर भी कई देश ऐसे हैं जिन पर सरकारों और संस्थानों ने ध्यान नहीं दिया है और जहां पानी को लेकर युद्धस्तर पर काम करने की ज़रूरत है, वर्ना आने वाले दिनों में हालात हाथों से निकल जाएंगे। एशिया विकास बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान पानी के मामले में दुनिया के सबसे संकटग्रस्त देशों में से है। रिपोर्ट के अनुसार यहां अब किसी भी समय में 30 दिनों से अधिक के जल-भंडार नहीं हैं, जबकि इसके जैसे दूसरे देशों के मानदंड के अनुसार ये भंडार कम से कम 1000 दिनों के होने चाहिए। देश में पानी का सबसे बड़ा स्रोत सिंधु नदी है। आबोहवा में आ रहे परिवर्तन से सिंधु नदी में बर्फ पिघलकर आने की रफ्तार में कमी आती जा रही है। इसमें और अधिक कमी आने पर पाकिस्तान को पानी से तरसा हुआ क्षेत्र घोषित किया जा सकता है। दृष्टव्य है कि पाकिस्तान की 18 करोड़ जनसंख्या को प्रति व्यक्ति सालाना 1000 क्यूबिक मीटर से भी कम जल उपलब्ध है जबकि जनसंख्या में पाकिस्तान से 6 गुना बड़े भारत में पानी की वर्तमान सुलभता 1500 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति है। लेकिन हमारे यहां भी यदि उचित कदम नहीं उठाए गए तो यह स्थिति पाकिस्तान जैसी या इससे भी बदतर हो सकती है।
लेकिन पानी के विश्व-व्यापी संकट को महज़ पेय जल की उपलब्धता और इसकी स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के सीमित संदर्भ में आंकना और पानी के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रभावों को नज़रअंदाज़ करना एक तरह से अंग्रेज़ी मुहावरे के तर्जुमे में 'धोवन के साथ-साथ शिशु को भी फेंक डालने' (थ्रोइंग दि बेबी विद दि वॉश वॉटर) की गंभीर भूल कर बैठने जैसा होगा।
दरअसल हमारे इतिहास की सारी लड़ाइयां धरती की प्राकृतिक सम्पदाओं- यथा ज़मीन, खनिज, तेल, सोने-चांदी और जल को पाने के लिए लड़ी गयी हैं। हज़ारों वर्षों के वैज्ञानिक और आर्थिक विकास के बाद भी भूत-वर्तमान और संभवत: भविष्य के सारे शहंशाह, राजनीतिक नेता, धर्मगुरू और तानाशाह इन्हीं प्राकृतिक सम्पदाओं के मालिकों, ठेकेदारों, धर्म-उपदेशकों, संतों, राजनीतिक नेताओं, बिचौलियों और दलालों के भेस बदल-बदल हमारी धरती पर राज करते रहे हैं और शायद आगे भी करते रहेंगे।
इस ग्रह पर जल की उपस्थिति और इससे जन्य वानस्पतिक विस्तार ने इस धरती के इंसान को कृषि धर्मी बनना सिखाया है। कृषि इंसान का शाश्वत कारोबार है और तमाम औद्योगिक विकास के बावजूद आज भी इसी के बूते पर दुनिया कायम है। तीसरी दुनिया के तमाम दूसरे देशों की तरह भारत भी अपने राजनीतिक आकाओं के तमाम संकुचित उद्योगधर्मी स्वार्थों के बावजूद कृषि प्रधान देश है और संभवत: आगे भी रहेगा। कृषि की आत्मा पानी में वास करती है। आसमान पर चढ़ आए बरसात के बादलों से ही इसमें नयी स्फूर्ति का संचार होता है तो वर्ष का लंबा अभाव इसके प्रणेताओं को आत्महत्या जैसे संगीन फैसलों की ओर धकेलता है। नदियों और नहरों की शक्ल में खेतों और क्यारियों को सींचने वाले अमृततुल्य पानी की गति पर ही कृषि समाज की पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक समृद्धि तय होती है। सुनीता नारायण के शब्दों में—
                      हमारा मॉनसून ही हमारा वास्तविक वित्त मंत्री है!
''यंू तो हर देश के लिए पानी का संयोजन जरूरी है लेकिन भारत जैसे देश में, जहां साल में कुल 100 घंटों की वर्षा पर सारे कृषि का दारोमदार टिका हुआ है, पानी का बेहतरीन संयोजन और भी अनिवार्य हो जाता है। अंतत: यह संयोजन ही तय करेगा कि देश गरीब और रोगग्रस्त बना रहता है या कि समृद्ध और स्वस्थ होने की ओर अग्रसर होता है। दूसरे शब्दों में हमारा समूचा भविष्य अब पानी के ही हाथों में है!''
हमारे समंदरों में अथाह पानी है, लेकिन यह खारा होने के कारण पीने और कृषि के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है। दुनिया भर में खारे पानी को मीठा बनाने की कई रासायनिक और यांत्रिक विधियां ईजाद हुई हैं, जिनमें 'रिवर्स ऑसमोसिस' सबसे प्रचलित विधि है जिसका इस्तेमाल कई रेगिस्तानी अरब देशों में पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिए होता है। इन सारी विधियों में मूल रूप से खारे पानी से नमक अलग कर लिया जाता है। लेकिन उसके ज़रिए मीठा पानी बनाने में खर्च बहुत अधिक बैठता है और तीसरी दुनिया के लिए तो इस टेक्नॉलॉजी के इस्तेमाल का सवाल ही नहीं उठता। जहां भी 'रिवर्स ऑसमोसिस' के ये प्लांट बैठाए गए हैं, वहां इनका मूल उद्देश्य पीने का पानी उपलब्ध कराना ही रहा है। छोटे स्तरों पर ये प्लांट बोतलबंद पानी बनाने के लिए भी इस्तेमाल किए जाते हैं। भारत में चेन्नै के नज़दीक देश का सबसे बड़ा 'रिवर्स ऑसमोसास प्लांट' है जहां स्पेन की टेक्नॉलॉजी से प्रति दिन 1000 लाख लिटर पीने का पानी बनाया जाता है। तमिलनाडु सरकार यहां से थोक में 5 से 6 पैसे प्रति लीटर के हिसाब से पानी खरीदती है। ज़ाहिर है कि उपलब्धि और लागत, दोनों ही की दृष्टि से इस पानी का कृषि के लिए इस्तेमाल सर्वथा अव्यावहाकि है। लेकिन आने वाले वर्षों में किसी ऐसी सुलभ टेक्नॉलॉजी की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता जो समुद्र-जल से नमक को आंशिक रूप से हटाकर इस जल को कृषि के लिए उपयुक्त बना सके। तब शायद बादलों के बरसने पर टिकी हमारी निर्भरता भी कम हो जाएगी। लेकिन फिलहाल, जब तक ऐसा कोई चमत्कार घटित नहीं होता, हमें अपनी फसलों के लिए मानसून पर भी निर्भर रहना होगा।
फिलहाल तो मानसून हमारे लिए पानी का एकमात्र ज़रिया है। इसी की बारिश से हमारे ताल-तलैया, झरने और नदियां भरती हैं, पहाड़ों पर इसी की बारिश से पर्वतों पर बर्फ जमती है जो अंतत: पिघलकर नदियों के रास्ते मैदानों में आती है और इसी के रिए भूमि के भीतर के पानी के तल में सुधार होता है, जिससे हमारे ट्यूबवेल और पम्प चलते हैं। संकट का मूल कारण यह है कि मौसम के दीर्घकालीन प्रभावों और परिवर्तनों से मानसून आने वाले दिनों में पहले से कहीं अधिक अनियमित हो चली है। बरसातों के दौरान एकसार बारिश से जहां फसलों को सबसे अधिक लाभ पहुंचता है, वहीं सूखे और अतिवृष्टि से फसल को होने वाले नुकसान की भरपाई कर पाना मुश्किल हो जाता है। यही नहीं, सूखे से बीमारी फैलती है और अतिवृष्टि अपनी चपेट में भयानक बाढ़ें और तबाही लाती है। पिछले वर्ष उत्तराखंड में असमय अतिवृष्टि से होने वाला तांडव अब भी हमारी स्मृति में होगा।
ज़ाहिर है कि मानसून को अनुशासित कर सकना हमारे वश में नहीं है। लेकिन मानसून की सारी अनियमितताओं के बावजूद यदि हम आसमान से गिरने वाली बरसात की अधिकाधिक मात्रा को उपयोग में ला सकें या कम से कम आड़े वक्त के लिए उसे बचा सकें तो पानी से संबंधित सारे संकट का समाधान मिल जाएगा। लेकिन यह काम जितना आसान लगता है, उतना है नहीं।
बारिश का अधिकांश पानी नदियों से होता हुआ वापस समुद्र में मिल जाता है। जिस तरह समुद्र पर होने वाली बारिश से कृषि या फसलों को कोई लाभ नहीं मिलता, उसी तरह बाढ़ का बेहिसाब पानी, पहले से तर ज़मीन में जज़्ब हुए बगैर ज्यों का त्यों समंदर में लौट जाता है। उपयोगी होने की जगह यह सिर्फ तबाही लाता है। लेकिन यही पानी यदि ज़मीन में जज़्ब होकर भूमिगत पानी के तल में इजाफा करता है तो इससे हमारी खेती और हमारे ट्यूबवेलों को सीधा फायदा मिलता है।
शहरी इलाकों में जहां पानी नल से उपलब्ध है और जहां बरसात का पानी बरसाती धाराओं, सुएज और गंदे नालों से होता हुआ वापस समुद्र में मिल जाता है, वहां लोग बारिश के पानी के संजयन या 'रेन हारवेस्टिंग' की बात करते हैं। देखा जाए तो बारिश के पानी के संचयन का सिद्धांत हमारे देश के लिए नया नहीं है, बल्कि सैकड़ों सदियो से हमारे देश में बरसात के पानी को समुचित ढंग से इकट्ठा किया जाता रहा है। फिर समय के साथ हम न सिर्फ इसके मूल सिद्धांतों को भूल गए बल्कि हमने अपनी नादानी में इसके स्थापित स्वरूपों को नष्ट कर डाला। राजस्थान के लगभग हर गांव में पुराने ज़माने में एक-न-एक पक्के चबूतरे वाली 'बावड़ी' ज़रूर होती थी, जिसका पानी बरसातों से अगली बरसात तक लू की धूल भरी दोपहरियों से गुज़रते हुए भी कायम रहता था और इससे मनुष्य और पशु दोनों राहत का भाव महसूस करते थे। इनमें से कई बावडिय़ों में बरसात का पानी इकट्ठा करने की सुनियोजित नालियां भी थी और बावडिय़ों पर बने चबूतरों और सीढिय़ों का आकार इस तरह से बनाया जाता था कि तेज़ गर्मी में भी पानी के वाष्पीकृत होकर सूखने की संभावना नहीं बचती थी और पानी हर समय ठंडा और स्वच्छ रहता था। बावड़ी की गहराई भी न कम न ज़्यादा, बिल्कुल सही होती थी। जयपुर में नाहरगढ़ की पहाडिय़ों पर बसे जयगढ़ के किले में दीवारों के समानांतर बारिश का पानी इकट्ठा करने की चौड़ी नालियां बनी हैं जो किले के भीतर बने एक भूमिगत जलाशय को पानी पहुंचाती है। कहा जाता है कि चाहे बाहर कितनी भी गर्मी क्यों न हो, इस जलाशय का पानी कभी समाप्त नहीं होता।
गांधी शांति प्रतिष्ठा से जुड़े 'गांधी-मार्ग' पत्रिका के सम्पादक अनुपम मिश्र कवि भवानी प्रसाद के सुपुत्र होने के साथ-साथ एक अत्यंत चर्चित पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' के यशस्वी लेखक भी हैं। यह पुस्तक पानी इकट्ठा करने और बचाने के पारंपरिक तरीकों की पुरज़ोर वकालत करती है और इसके देश-विदेश की कई भाषाओं में कई संस्करण निकल चुके हैं।
अनुपम मिश्र, एन आर आठवले और दूसरे कई विशेषज्ञ भारत जैसे देश के लिए गांव-गांव में तालाबों, हौदों और सामाजिक इकाइयों द्वारा संचालित पानी इकट्ठा करने और बचाने की योजनाओं का पक्ष लेते हैं, वहीं सत्ता के प्रतिनिधियों की रुचि सुर्खियां बनाने वाली सिंचाई की बड़ी-बड़ी योजनाओं, नहरों और बांधों के निर्माण में अधिक रहती है। इनमें से अधिकांश योजनाएं अंतत: कुप्रशासन, राजनीतिक अनिवार्यता और भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में फंसकर या तो बीच में ही कहीं अधूरी छूट जाती हैं, या इनकी कुल लागत विभिन्न विलम्बों के चलते कई गुना बढ़ जाती है, अथवा इनके कार्यान्वन में कई असावधानियां अनुत्तरित रह जाती हैं और इन सारी अड़चनों के बावजूद कोई इक्का-दुक्का योजना पूरी होती भी है तो इसका सबसे अधिक फायदा बड़े सरमायादारों या कॉरपोरेट को मिलता है और जिन ज़मीनी चेहरों या छुट्टा किसानों को चुनावों के दौरान इसके सब्ज़-बाग दिखाए गए होते हैं, वे कहीं सूखे ही रह जाते हैं।
दुनिया भर के जानकार मानते हैं कि धरती के विभिन्न क्षेत्रों में मौसम और आबोहवा में परिवर्तन आ रहे हैं और भारत भी इसका अपवाद नहीं है। राजस्थान जैसे शुष्क इलाकों में मार्च और अप्रैल के महीनों में कई बार ओलों की बरसात इसी परिवर्तन का संकेत देती है। हिमालयी क्षेत्रों में पिछले वर्ष की मानसून से पहले की असमय अतिवृष्टि, बाड़मेर जैसे रेगिस्तानी प्रदेश में आयी बाढ़ और महाराष्ट्र के कई जिलों में वर्षा के अभाव में अकाल जैसे हालात मानसून की इसी अनिश्चितता के लक्षण हैं। हर साल बरसातों से पहले वित्त मंत्री के मानसून संबंधी आश्वासनों और सूखे की स्थिति में पंडितों द्वारा जगह-जगह पूजा पाठ से पानी के इस भारी संकट का समाधान नहीं निकलने वाला है। हमें मानसून के तमाम उतार-चढ़ावों के बीच भी अपनी जल-नियोजन की कारगर नीतियों को कार्यान्वित करना होगा। सुनीता नारायण के शब्दों में—
''अब यह साफ हो चुका है कि पानी का संकट इसकी कमी का नहीं, बल्कि इसके सावधानी से इस्तेमाल किए जाने और इसके न्यायसंगत, बराबरी के बंटवारे का है। पानी से ही इस देश में गरीबी हटाने की शुरूआत हो सकती है क्योंकि पानी ही हमें भोजन और जीवन-यापन की सुरक्षा देता है। हमें पानी के नियोजन की नीतियां बहुत सावधानी से तैयार करनी होंगी, ताकि इसके द्वारा अर्जित होने वाली पूंजी का लाभ सभी लोगों तक पहुंच सके। अब यह साफ हो चुका है कि इसे बनाने की बड़ी जिम्मेदारी वर्तमान नौकरशाही को नहीं सौंपी जा सकती। हमें सामाजिक इकाइयों को इस काम में हिस्सेदारी दे, अपने पारंपरिक जल संयोजन के तरीकों से बहुत कुछ सीखना होगा!''
पानी के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत सारे विचारक और विशेषज्ञ मानते हैं कि पानी की समस्या का समाधान व्यापक स्तर पर उठाए जाने वाले छोटे-छोटे कदमों से ही हो सकेगा। अनुपम मिश्र अपनी पुस्तक और अपने व्याख्यानों में सबसे अधिक महत्व गांव-गांव पारंपरिक जल संचय के साधनों को पुनजीर्वित करने, पुरानी बावडिय़ों का जीर्णोद्धार करने एवं जगह-जगह आसानी से बनायी जाने वाले छोटे-छोटे जलाशयों के निर्माण के बाद इनके रख-रखाव की जिम्मेदारी स्थानीय गांव वालों पर छोडऩे को देते हैं। हमारे देश में इस काम की बड़ी जिम्मेदारी सरकार ने ली थी, लेकिन बीच रास्ते में सब-कुछ गड़बड़ा गया।
राजनीतिक महकमों में अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि 2004 से 2009 तक के लगभग प्रभावहीन पांच साल सत्ता में गुज़र चुकने के बाद 2009 के आम चुनाव में यू पी ए सरकार कई प्रदेशों में इतने भारी बहुमत से दोबारा सत्ता में कैसे आयी? जानकार मानते हैं कि 'हाथ' की इस दूसरी जीत में सबसे बड़ा योगदान सरकार द्वारा चलायी गई उस क्रांतिकारी रोज़गार योजना का था जिसके अंतर्गत सरकार ने हर गरीब किसान परिवार को साल में कम से कम 100 दिन रोज़गार देने की गारंटी दी थी। किसी सरकार द्वारा सार्वजनिक रोज़गार की इससे बड़ी योजना की कोई दूसरी मिसाल दुनिया में नहीं है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम या 'मगां नरेगा' के लोकप्रिय नाम से जानी जाने वाली यह योजना कम से कम कागज़ पर अत्यंत दूरगामी संभावनाओं से भरी हुई थी। प्रावधान यह था कि रोज़गार पर लगाये गए लाखों लोगों को गांव-दर-गांव विकास के ऐसे कामों में लगाया जाएगा, जिनसे लोग आत्मनिर्भर बन सकें, ताकि भविष्य में उन्हें रोज़गार के लिए सरकार का मुंह न देखना पड़े। योजना का अधिकांश हिस्सा कई सड़कें बनाने तथा गांवों में पानी की सुचारू व्यवस्था बनाने पर खर्च किया जाने वाला था। इसमें नयी योजनाओं के साथ-साथ गांवों के सूख चुके कुंओं, तालाबों और जलाशयों को पुनर्जीवित करने का प्रावधान था। योजना के पहले चरण में ही गांवों में कुल 34 लाख जल-स्रोतों तैयार होने का दावा किया गया। यह लक्ष्य अपने-आप में काबिल-ए-तारीफ था क्योंकि 2005 से पहले के 60 वर्षों में आज़ादी के बाद से पूरे देश में मात्र 20 लाख ऐसे जलाशय ही बनाए जा सके थे। इरादा यह था कि हर गांव में औसतन छ: से सात जल स्रोत होंगे जिनसे पूरे गांव को सारा साल पानी उपलब्ध हो सके। दृष्टव्य है कि जलाशयों की यह संख्या गांव में अस्पताल के बेड या स्कूल के अध्यापकों या पुलिसवालों की औसत प्रति व्यक्ति संख्या से भी अधिक बैठती है। देश में पानी को दी गयी यह प्राथमिकता ऐतिहासिक ती। 2011 तक पांच वर्षों में केंद्रीय सरकार 'मंगा नरेगा' पर एक सौ दस हजार करोड़ रुपए खर्च कर चुकी थी, जिसमें औसतन 45 लाख रुपए प्रति पंचायत के हिस्से में आए थे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार रोजगार योजना की कुल लागत का लगभग आधा, यानी 54 हजार करोड़ रुपए पानी के संचयन और रख-रखाव पर खर्च किया गया था। दावा यह भी है कि इस अवधि में कुल 300 अरब क्यूबिक मीटर अतिरिक्त जल के भंडार स्थापित किए गए और रोजगार योजना के अंतर्गत पानी के लिए जितनी नालियां खोदी गयी, उनकी कुल लम्बाई धरती से चांद तक दो बार जाकर वापस आने के बराबर होगी। इतनी शानदार योजना से देश के सबसे गरीब और साधनहीन किसानों को सबसे अधिक फायदा पहुंचना चाहिए था क्योंकि इस योजना में अनुसूचित जातियों और आदिवासियों को अपनी ज़मीन पर जल-स्रोत स्थापित करने की विशेष छूट दी गयी थी। प्रारंभ में गांव वालों ने इस योजना में काफी उत्साह के साथ हिस्सा लिया। आंकड़ों के अनुसार जल-भंडारों से लगभग 60 लाख हेक्टेयर ज़मीन की सिंचाई संभव हुई और इसमें से लगभग दस प्रतिशत ज़मीन अनुसूचित जाति के किसानों की थी। योजना के तहत लगभग 5 लाख पुराने जल स्रोतों को पुनर्जीवित किया गया। ये आंकड़ें 11 वीं पांच-वर्षीय योजना के सिंचाई के कुल लक्ष्य के बराबर या उससे भी अधिक थे। 2009 में सरकारी संस्थान नैशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च ने गर्व से ऐलान किया कि इस योजना से जितना पैसा रोज़गार के रूप में दिया गया है, उससे कोई 6 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाया जा सका होगा। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने दावा किया कि इस रोजगार में रोज़गार पाने वाले परिवारों की आय 2006-2007 से 2010-2011 के बीच दुगुनी हो गयी। इंतहा तब हो गयी जब सरकार के एक सचिव ने बताया कि 2009 का सूखा दरअसल 2002 के सूखे से भी अधिक विकट था, लेकिन इस योजना के चलते इस वर्ष भी पिछले साल के मुकाबले अन्न उत्पादन में 0.4 प्रतिशत की बढ़ोत्री देखी गयी। यही नहीं, पिछले दो वर्षों में राज्यों ने इस योजना के तहत 54 लाख अतिरिक्त जल-स्रोत बनाने के प्रस्ताव दिए हैं, जिनसे गांवों की पानी जमा करने की क्षमता दुगुनी से भी अधिक हो जानी चाहिए!
देखा जाए तो इन दावों के अनुसार 'मगां नरेगा' से देश के ग्रामीण अंचलों में एक नयी क्रांति आ जानी चाहिए थी। इस एक योजना से ही कई दूसरी जुड़ी हुई समस्याओं का समाधान भी मिल जाता। पानी मिलने से खेती फिर से लाभदायक बन जाती और गांवों से शहर की ओर पलायन करने वाली भीड़ को गांव में बने रहने का सुलभ रास्ता मिल जाता। लेकिन दूर-दूर तक हमें इस योजना का यह प्रभाव देखने को मिला है? क्या कारण है कि आज 2014 में चुनावों के माहौल में भी यू पी ए सरकार इस योजना को ज़रूरत से ज़्यादा प्रचार देने से कतरा रही है? जिस भ्रष्टाचार और बदइंतज़ामी का ठीकरा आज हर ओर से यू पी ए के सिर फोड़ा जा रहा है, कहीं यह 'मगां नरेगा' भी उसी की चपेट में आकर तो दम नहीं तोड़ चुका?
देखा जाए तो लालफीतेशाही, प्रबंधन की खामियों और भ्रष्टाचार की महामारी में जकड़ी देश की यह सबसे महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी जल आपूर्ति योजना आज साधनहीनों के लिए एक भद्दा मज़ाक और प्रभुताशाली वर्ग के लिए पैसे उगाहने का एक और सुविधाजनक ज़रिया बनकर रह गयी है। एक चौंका देने वाली टिप्पणी में पत्रिका 'डाउन टु अर्थ' में पाया कि 2007 से 2012 के पांच वर्षों में गरीबों के लिए बनाई गयी इस योजना में अनुसूचित जातियों की भागेदारी घटकर आधी रह गयी। एक अन्य खुलासे में सी ए जी ने अपनी जांच में कहा कि इसी अवधि में इस योजना के अंतर्गत जल आपूर्ति के 220 लाख आयोजनों में से 70 प्रतिशत अधूरे छोड़ दिए, जिससे सरकार को लगभग ग्यारह हज़ार करोड़ रुपयों का घाटा वहन करना पड़ा।
'मगां नरेगा' के प्रारूप में लिखा गया है कि इस योजना की पहली प्राथमिकता जल के संचयन, जल आपूर्ति और सूखे से बचने के उपायों पर होगी, लेकिन वास्तविक व्यावहारिक रूप में यह केवल एक इकहरी रोज़गार योजना के रूप में काम करती है और विकास तथा आत्मनिर्भरता नाम की चिडिय़ा से इसका कोई संबंध नहीं है। सेंट्रल एटोर्नी जनरल ने अपनी जांच के दौरान पाया कि लोग जल से जुड़ी प्राथमिकता में हाथ डालने से कतरा रहे हैं और अब उनकी प्राथमिकता सड़कें बनाने की ओर अधिक है। योजना में यह भी कहा गया था कि इसमें श्रम करने वालों के वेतन का भुगतान हर सप्ताह किया जाए और काम समाप्त होने के दो सपात्ह के अंदर सारा भुगतान कर दिया जाए। लेकिन वास्तुस्थिति इसकी ठीक उलट है। चूंकि अधिकांश कार्य आयोजन अधूरे छोड़ दिए गए हैं, लिहाजा श्रमिकों को वेतन भी या तो अटका दिया गया है या इसका भुगतान कई कई महीनों के बाद बमुश्किल हुआ है। स्वयं ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार जल आपूर्ति के अधूरे कामों की जो संख्या 2008 में दस लाख के आसपास थी, वही 2012 के आते-आते सत्तर लाख तक पहुंच चुकी थी।
*     कई सामाजिक कार्यकताओं और वकीलों ने मिलकर हाईकोर्ट में शिकायत की है कि महाराष्ट्र के अमरावती जिले में 'मगां मनरेगा' के श्रमिकों को पिछले सात महीनों से वेतन नहीं मिला है।
*     दिल्ली की एक सामाजिक संस्था ने उच्चतम न्यायालय से मांग की है कि बिहार में 'मगां मनरेगा' में 39 जिला कमिश्नरों की मिली-भगत से 6000 करोड़ रुपए के गबन की जांच सीबीआई द्वारा करायी जाए। सुप्रीम कोर्ट के पास इसी तरह की अर्जियां उत्तर प्रदेश, ओडि़सा और मध्यप्रदेश से भी आयी हैं।
*     झारखंड के खूंटी जिले में रहने वाले दिबार टूटी का कहना है कि 'मगां मनरेगा' ने उसका सब कुछ छीन लिया है। ''ग्राम सभा ने जब उसके खेत में कुंआ बनाने की स्वीकृति दे दी तो उसे लगा कि वहां सब्ज़ियां उगाकर वह अपनी गरीबी से उबर जाएगा। लेकिन कुंआ खोदने का फैसला बहुत देर से मई महीने के अंत तक आया। कुंए के 35 फीट खोदे जाने तक ही बरसातें आ गयी और पत्थर की पक्की परत न होने से कुंए की दीवार जवाब दे गयी और कुंए के साथ-साथ आधा खेत भी पानी में डूब गया।''
*     झारखंड में ही गुमला जिले के पंचायत सदस्य पुनीता ओराओं के अनुसार ''पहले लोगों के लिए पैसा कमाने का अवसर हाथ से गया, फिर उनकी ज़मीन जाती रही और अब उन्हें अपने काम की मंजूरी भी नहीं मिली है। ऐसे में कौन 'मगां मनरेगा' के लिये काम करना चाहेगा?''
*     कांग्रेस प्रवक्ता और भूतपूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के अनुसार मध्यप्रदेश के 1.2 करोड़ पंजीकृत 'मगां मनरेगा' कार्डधारियों में से लगभग आधे या 53 लाख नाम फर्जी हैं और पिछले छ: वर्षों से इन फर्ज़ी लोगों के नाम पर योजना का पैसा बटोरा जा रहा है।
*     प्रदीप बैसाख के अनुसार ओडि़सा में कुल परिवारों के आधे गरीब कहे जा सकते हैं। लेकिन राजस्थान में जहां कुल पंजीकृत परिवारों में से 74 प्रतिशत को इस योजना का लाभ पहुंचा है, वहीं ओड़ीसा में सिर्फ 24 प्रतिशत गरीब परिवारों तक ही यह लाभ पहुंच पाया है। शायद यही कारण है कि प्रदेश में गांव छोड़कर शहर जाने वाले विस्थापितों में 116 प्रतिशत का इजा$फा हुआ है।
*     ''मैडम सोनिया जी कहती है कि हमने गांवों से गरीबी हटा दी है। यह कैसे संभव हुआ? हम 'नरेगा' लेकर आए हैं। लेकिन मैं कहता हूं कि जो कांग्रेस की जेब भरता है, उसी का दूसरा नाम 'नरेगा' है'' - कर्नाटक की एक चुनाव प्रचार सभा में अपने सुपरिचित सतही अंदाज में नरेंद्र मोदी!
'मगां मनरेगा' के पांच वर्षों के कार्यकाल की समीक्षा करते हुए पत्रिका 'डाउन टु अर्थ' कहती है कि इस योजना के सही कार्यान्वयन से जल की आपूर्ति की दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाए जा सकते थे, लेकिन—
''हमने इस कार्यक्रम के ज़रिए विजय के जबड़ों से असफलता खींच निकालने का असंभव करतब कर दिखाया है। इस कार्यक्रम में ग्राम योजनाओं को स्थानीय ज़रूरतों के अनुसार तैयार करने का मुकम्मल प्रावधान था, लेकिन किसी ने इस पर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं समझी। विकास से एक कदम आगे ग्रामीण संसाधनों को स्थायी तौर पर कारगर बनाना तो बहुत दूर ही बात है। कार्यक्रम का सारा फोकस  रोज़गार बांटने पर था, लेकिन योजनाओं के समय पर पूरा किए जाने की जवाबदेही किसी पर नहीं थी। अधखुदी नालियां और अधूरे कुएं गांव वालों के किस काम के? इसीलिए धीरे-धीरे पानी से जुड़ी योजनाओं में लोगों की रुचि कम होती गयी और उन्हें इसकी अपेक्षा सड़कें बनाने का काम अधिक आकर्षक लगने लगा। एक तो सड़कों का फायदा तुरंत दिखाई देने लगता है, जबकि जल योजनाएं अपेक्षाकृत लंबे अर्से के लिए होती हैं। दूसरे सड़कें बनाने के काम में मंजूरी के लिए बहुत समय इंतज़ार नहीं करना पड़ता।'' सृजन संस्था के निदेशक वेद आर्या के अनुसार ''इस कार्यक्रम में सड़कें बनाने का काम अधिक लोकप्रिय होता जा रहा है क्योंकि यहां सारा काम ठेकेदारों की मार्फत होता है, लिहाजा यहां पैसे की हेराफेरी के अवसर भी कहीं अधिक होते हैं!''
एक भ्रष्ट तंत्र में बेईमान अधिकारियों के हवाले, जनता की सहकारिता और उसकी प्राथमिकताओं की एक सिरे से अवहेलना करने के बाद इस वृहद कार्यक्रम का एक सिरे से फेल हो जाना लगभग सुनिश्चित था। तमिलनाडु में 'मगां मनरेगा' का जायज़ा लेने वाली आईआईटी मद्रास की टीम ने कहा कि कार्यक्रम के कार्यन्वयन में जब तक लोगों की अपेक्षाओं (यानी रोटी-रोज़ी) को उचित स्थान नहीं मिलता, तब तक लोगों में इसमें हिस्सेदार बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती। और हुआ भी यही है। आज इस कार्यक्रम में लोगों की आस्था खत्म हो चली है और आस्था के अभाव में अब गांवों में पहले से कई अधिक जल योजनाएं अधूरी छोड़ दी जाने लगी हैं। इस श्रृंखला में सर्वाधिक उद्धृत 'फैज़' के शब्दों में—
अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफ्फल कर लो
अब यहां कोई नहीं, कोई नहीं आएगा..
* * *
वर्तमान समय में पानी को लेकर जो सियासी दांव-पेंच खेले जाते रहे हैं, उनमें नदियों से बहकर आते जल और इसके बंटवारे का बहुत बड़ा हाथ रहा है। आदिकाल से इस धरती को उर्वरा बनाने में नदियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है और इसी की घाटियों में मानव सभ्यता का विकास हुआ है। नदियां अपने प्रवाह में किसी राजनीतिक सीमा को स्वीकार नहीं करती, लेकिन इंसान आज भी अपने समूचे सामथ्र्य से इस शाश्वत सत्य को गलत सिद्ध करने की जोड़-तोड़ में जुटा हुआ है। अपनी तकनीकी समझदारी और सूझ-बूझ से वह काफी हद तक ऐसा करने में सफल भी हुआ है।
अपने क्लासिकल स्वरूप में नदियों का जल कृषि की जीवन-शक्ति था। बाद में इसका प्रभाव यातायात का साधन बना। और औद्योगिक युग में पानी के इसी प्रवाह से बिजली पैदा की जाने लगी, इसके तटों पर मकानों और कारखानों ने डेरा डाला और यहीं से आगे इस्तेमाल करने से अधिक नष्ट करने वाले उपभोक्ता समाज ने अपना सारा कचरा इन नदियों के हवाले करना शुरू किया और दूसरी चीजों की तरह नदियों का बदइस्तेमाल अपने साथ बहुत सारी विकट समस्याओं का केंद्र बन गया। गलत-सही उपयोगों के बीच बंटती जा रही जल-धारा धीरे-धीरे कम होती हुई उस प्राथमिक स्वरूप से लगभग विमुख हो गयी जिसमें तमाम दूसरी चीज़ों से पहले इसे कृषि और अन्न उगाने की जिम्मेदारी निभानी थी। नदी के जल में विभिन्न स्वार्थी दावेदारों के बीच की यह बंदरबांट ही आज न सिर्फ प्रांतों बल्कि देशों के बीच गंभीर संघर्ष को जन्म देती रही है। दुनिया में शायद ही कोई नदी होगी, जिसके पानी की मिकदार विभिन्न दावेदार पक्षों के बीच गंभीर विवाद का विषय न बनी हो।
सुदूर अरुणाचल प्रदेश के सबसे पूर्वी छोर पर वाइलांग से आगे डोंग गांव पर देश में सबसे भोर सूर्य की पहली किरणें गिरती हैं और यहीं देश की सबसे पूर्वी सड़क भी स्थित है। यहां चीन से आती लोहित नदी भारत में प्रवेश करती है। आखिरी छोटे से गांव की सरहद पर हमारी मुलाकात जल विभाग के दास बाबू से हुई जो असम जल विभाग की नौकरी पर यहां हर दो घंटे बाद लोहित नदी के पानी का जल नापकर इसका लेखाजोखा अपने दफ्तर में भेजते हैं। इस नियमित पड़ताल की वजह यह है कि चीन ने अपने इलाके में लोहित नदी पर एक बांध बना रक्खा है। अपनी इच्छा से जब वे बांध में पानी रोक लेते हैं तो हमारे प्रदेश में पानी की किल्लत हो जाती है और जब वे अनायास बिना बताए बांध से पानी छोड़ते हैं तो नीचे के भारतीय हिस्से में बाढ़ आ जाती है। लिहाजा दास बाबू और उनके जल विभाग को चौबीसों घंटे जल के तल का हिसाब रखना पड़ता है ताकि समय रहते पानी के इस आकस्मिक चढ़ाव या उतार की जानकारी मिलती रहे।
महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के बीच कृष्णा नदी के पानी के बीच बंटवारे की समस्या आधी शताब्दी से भी अधिक पुरानी है और 1969 में बनी बच्छावत ट्रिब्युनल से लेकर 2006 में गठित ब्रजेश कुमार की नयी ट्रिब्युनल तक अपने अपने राज्यों के लिए अधिकाधिक जल के बंटवारे के लिए लड़ रहीं वकीलों, इंजीनियरों, जल विभाग के कर्मचारियों और राजनीतिज्ञों की फौजें अब भी युद्ध की सी मुद्रा में डटी हुई हैं। ओडि़सा में पिछले 2000 लाख वर्षों से अपने प्रवाह में प्रदेश की समूची खेती को संभालती महानदी आज अपना सारा जल उद्योगों की बलि-देवी पर न्यौछावर कर चुकी है और गरीब किसान के खेतों के लिए इसके आखिरी कतरे भी अब सूखते जा रहे हैं। 'डाउन टु अर्थ' के अनुसार आज से दस वर्ष पहले महानदी के कुल जल का केवल 13 प्रतिशत हिस्सा उद्योगों के लिए इस्तेमाल होता था, यह यही हिस्सा बढ़कर 62 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। लेकिन औद्योगीकरण और विदेशी पूंजी की ओर भाग रही ओडि़सा सरकार के लिए महानदी के सहारे खेती चलाने वाले 90 लाख गरीब किसान शायद किसी गिनती में नहीं आते हैं। इसके बाद यदि किसान गुहार लगाते हैं कि कृषि अब धीरे-धीरे अलाभकारी होती जा रही है तो इसमें आश्चर्य क्या? गंगा और यमुना नदियों से फैलते वाले प्रदूषण की तो बात करना भी फिजूल होगा।
* * *
अमरीका जैसे विकसित देश में इन दिनों बोतलबंद पानी के विरुद्ध एक बड़ा अभियान चल रहा है। वहां लोग नलों में सुरक्षित पानी की मांग करने लगे हैं। लेकिन हमारे देश में इसका ठीक उलट हो रहा है। प्लास्टिक बोतलों और पोलीथीन का भयानक कचरा हमारे समूचे देश की बदसूरत पहचान बनता जा रहा है। ऐसे में यह जानना सुखद था कि सिक्किम के एक पर्यटन केंद्र गांव में चाहरदीवारियों के भीतर पानी की प्लास्टिक बोतलों पर प्रतिबंध लगा दिया है। लेकिन इस तरह की कोशिशें बहुत कम और बहुत नाकाफी हैं। अपनी शहरी उपभोक्ता प्रवृत्ति के तहत हम रेस्त्रां में घुसने के बाद सबसे पहले बोतलबंद पानी की फरमाइश करते हैं, फिर चाहे वहां पानी को फिल्टर करने की सुविधा क्यों न मौजूद हो।
पानी के प्रति हमारी यह सोच और पानी के संचयन और रख-रखाव के प्रति हमारी भ्रष्ट और अनियोजित नीतियां आने वाले वर्षों में हमें और हमारी संतानों को कौनसे दिन दिखाएगी, इसका कल्पना से ही सिहरन महसूस होती है। लेकिन इंसान की फितरत है कि वह अपने इतिहास और अपने संभावित भविष्य, दोनों से ही बहुत कम सीखता है।
आज से दो-तीन वर्ष पहले मैंने एक कहानी 'ख्वाब एक दीवाने का' लिखी थी, जो भविष्य की किसी तारीख में जल-वंचित समाज का एक भयानक खाका खींचती थी। हमारे संतों ने तो बहुत पहले ही हमें इस खतरे से आगाह कर दिया था। यथा रहीम—
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती, मानस, चून!

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