दिलीप चित्रे की कवितायें

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    जून 2014
श्रेणी कवितायें
संस्करण जून 2014
लेखक का नाम दिलीप चित्रे / अनुवाद : तुषार धवल







मेरे बचपन का घर
(The House of My Childhood : As is Where is, 91)

मेरे बचपन का घर खाली पड़ा था
एक धूसर पहाड़ी पर
उसके सभी फर्नीचर जा चुके थे
सिवा दादी की चक्की के पाट
और उसके देवी देवताओं की पीतल की मूर्तियों के

चिडिय़ों की मृत्यु के बाद भी
उनकी चहचहाहट मन में गूंजती रहती है
शहर के मिटने के बाद भी
एक धुंधलका हवा को आबाद करता रहता है
पौ फटने के ठीक पहले की रंगहीन दरार में
उस जगह में जहाँ कोई गा नहीं सकता
ध्वनि शिल्पों की महीन नक्काशियों में
शब्द सन्नाटे बाँटते हैं

मेरी दादी की आवाज़ नंगी शाख पर थरथराती है
उस खाली घर में ठुमकता फिरता हूँ
ग्रीष्म और वसंत दोनों जा चुके हैं
पीछे छोड़ एक वृद्ध शिशु
उम्र के कमरों में खोज के लिए

घर लौटते पिता
(Father Returning Home : As is Where is, 92)

मेरे पिता देर शाम की ट्रेन से यात्रा करते हैं
चुप सह यात्रियों के बीच खड़े उस पीली रोशनी में
उनकी नहीं देखती हुई आँखों से उपनगर फिसलते चले जाते हैं
उनकी पेंट और शर्ट गीली है और उनकी काली रेनकोट
कीचड़ से सनी और उनका झोला जिसमें किताबें ठुंसी हुई हैं
अब फट कर अलग होने पर है, उम्र से धुंधलाई उनकी आँखें
बुझती हुई बढ़ती हैं घर की तरफ मानसून की उमस भरी रात में
अब मैं उन्हें ट्रेन से उतरते हुए देख सकता हूँ
जैसे किसी लम्बे वाक्य से एक शब्द गिरा हो।
वे उस धूसर प्लेटफॉर्म की लम्बाई की जल्दी जल्दी पार करते हैं
रेलवे लाइन पार करते हैं, गली में आ जाते हैं,
उनके चप्पलें कीचड़ से चिपचिपा गई हैं लेकिन वे जल्दी जल्दी आगे बढ़ रहे हैं।

घर पर वैसे ही, मैं उन्हें फीकी चाय पीते देखता हूँ,
बासी रोटी खाते हुए, एक किताब पढ़ते हुए,
वे शौच को जाते हैं चिंतन के लिये
मनुष्य का मानव निर्मित दुनिया से दुराव।
बाहर आ कर बेसिन के पास वे काँप रहे होते हैं
उनके भूरे हाथों पर ठण्डा पानी दौड़ रहा है
कुछ बूँदें उनकी कलाई पर पकते हुए बालों में अटक जाती हैं
रुष्ट बेटों ने अक्सर उनसे चुटकले या अपने राज़
साझा करने से मना किया है, अब वे सोने जायेंगे
रेडिओ पर आती कड़कड़ाती आवाज़ सुनते हुए, स्वप्न देखते हुए
अपने पूर्वजों और अपने पोते पोतियों के, सोचते हुए
किसी पहाड़ी दर्रे से किसी महादेश में प्रवेश करते हुए बंजारों के बारे में।

भोपाल भ्रूण
("The Bhopal Embryo" : As is Where is पृष्ठ - 299)

उस बोतल में जिसमें एम्नियोटिक तरल नहीं
दस प्रतिशत फॉर्मलडीहाइड सॉल्यूशन है,
भोपाल त्रासदी के इक्कीस साल बाद भी,
ज़हर से मरा हुआ एक भ्रूण है
अपनी फॉरेन्सिक जाँच की रहस्यमय स्थिति से
मुक्त होने के इन्तज़ार में

आश्चर्य, कि बीस से अधिक वर्षों के बाद भी
किसी ने ध्यान नहीं दिया एक सही यन्त्र की खोज पर जो
पढ़ सके उन हजारो मौतों को जो
किसी वैश्विक कॉर्पोरेट की स्थानीय टंकियों से निकल कर
हवा में रिस आये मिथाइल आइसोसाइनाइड से हुई थी

मेरा बेटा, उसकी पत्नी और उनका अजन्मा बच्चा बचे हुवों में थे
वे झेलते रहे कई तरह से
लेकिन उस रासायनिक सदमे के सटीक असर को जिसने हजारों ज़िन्दगियां
बदल कर रख दी
आज तक नहीं जाना गया है
वह है भोपाल भ्रूण में
विज्ञान से उपेक्षित, अपने आप में दफन कला की तरह

हम जीते हैं उस भूल को क्योंकि उसे भूल कर ही जी पाते हैं
भले ही रह जाये वह अपरीक्षित जैसे हो बोतल में बन्द
किसी एम्नियोटिक तरल में नहीं बल्कि लम्बे पश्चाताप में
दूर किसी मरते हुए तारे की रोशनी

शम्सुद्दीन तुम कहां गये
(''शम्सुद्दिन तू कुठे गेलास'', एकूण कविता 3, पृ. 783)

शम्सुद्दीन तुम कहां गये
हिंदुत्व के इस जंगल से
बाहर या अंदर
यह आखिरी युद्ध है
सब्ज़ा और तुलसी के बीच
हरे और भगवे
दोनों से रक्त सिर्फ लाल ही बहेगा
शम्सुद्दीन तुम नहीं होगे
इंडिया या हिंदोस्तां या भारत की
कयामत मनाने को

तुम्हारी बेवारिस लाश
जकड़ी हुई है जिस राजनीति के पाश में
वह लावारिस साजनीति
सियासत के रण्डीबाज़ सारंगी के साथ
दादरा का सम छू लेती है
इस बेदर्द जमाने का।


ध्वंस
(आदिल के लिये)
("Ruins" : As is Where is, पृष्ठ - 33)

मात्र पचास सालों में ही मेरे युवा दिनों के शहर की कई निशानियां
लुप्त हो गईं, ध्वस्त कर दी गईं। मिटा दी गई या और भी बदतर कुछ
क्या मैं सचमुच आशा करता हूं कि वे वैसी ही रहेंगी मेरी और तुम्हारी यादों में,
हमारे शब्दों में?
हमने पुरज़ोर कोशिश की नक्शों को बिम्बों और बिम्बों को नक्शों में बदलने की
पर किसके लिये? किस श्रोता, किस पाठक के लिये हमने इस सलीब को धारण
किया?
हम खुद ही इस देश काल में एक ध्वंसावशेष बनते जा रहे हैं
जो अब अपने इतिहास को भी धारण नहीं कर पाता
अब तो गिद्धों ने भी उस टावर ऑफ साइलेंस पर आना बन्द कर दिया है
जहां हमने अपने शरीर को अनन्त चक्र का भोज्य बनने के लिये रख देने की आशा
की थी
नग्न और मृत समय की सतह पर
कभी मैं यहां अजनबी था पर आशा से भरा हुआ
अभी भी बिना किसी आशा का अजनबी ही हूँ
सिवा समुद्र के उस परिचित मद्धिम रोदन
और अमरता की उस सहलाती हुई धारणा से।

22 दिसंबर, उत्तरी गोलार्ध का सबसे छोटा दिन
(December 22, The Shortest Day in The Northern Hemisphere : As is Where is, पृष्ठ : 135)

मैं तरसता हूँ आदिम गुफा के लिए
मेरे पशु को नींद चाहिए।
मेरे पोषण को बहुत कम बचा है सिवा उसके जो मेरे भीतर संचित है।
मैं बहुत धीमी साँस लेना चाहता हूँ, तल को छूते हुए।

काश यह दिन और भी छोटा हो पाता, रोशनी के क्षणांश जितना।
काश यह चक्र और भी धीमा हो पाता, बस एक क्षणिक चमक,
चौबीस घंटों में, बाकी सब एक गहरी रात।

मैं आँखें बंद कर लेना चाहता हूं हिमपात पर,
मैं अनजान रहना चाहता हूं बदलाव की निरंतरता की पीड़ा से,
घड़ी की ज़िद से, धरती के घूमने से, नक्षत्रों की चाल से।

सितारों और उपग्रहों से, उस बल से जो हमें देश काल में
मोड़ देता है, चेतना के आंतरिक घुमाव से,
मैं होना चाहता हूं : न ऊर्जा, न पदार्थ, न जीवित कुण्डलिनी।

सिवाय उस बोध की सबसे छोटी झपक के, जो दबी है त्वचा
और मांस के भीतर, मस्तिष्क की खोह में छुपा, जाड़ों का रहस्य।

सुस्त दिनों का खानाबदोश कारवां
(''संथ दिवसांचा लमाण-तांडा'')

सुस्त दिनों का खानाबदोश कारवां
सरकता है अनंत के मरुस्थल में
जैसे हमारे दुखों का बोझ उठाये स्वप्न के ऊँट चले जाते हैं
अनिर्मित पिरामिडों की डरावनी छायाओं के पार
मृत्यु की मारिचिका की ओर....

... आकाशगंगा के धूसर प्रवाह की सतह पर
तैरते
मेरे घनघोर पागलपन के असम्बद्ध प्रतिबिम्बों को
जिन आँखों ने चुराया था देश काल के परे
वे आँखे अब बर्फ सी जम गयी हैं

वे आँखें अब बर्फ सी जम गयी हैं और तुम भी, मेरी प्रेरणा....
जो विश्व के अनंत लेंस से उनके उस पार तक देखती थीं...
तुम भी जा रही हो
मुझे छोड़ कर
बिखरते शब्दों के घने होते अंधेरों में

सती : चिता पर प्रसूत हुई एक रात
(''चितेर प्रसूत झालेली एक रात्र'', एकूण कविता 3, पृ. 585)

चिता पर प्रसूत हुई एक रात
मेरे पौरुष को झिंझोड़ती है उसकी सुहाग-सज्जा
मृत्यु के ताप से गिरा हुआ उसका गर्भ
मेरी आँखें फोड़ कर भीतर घुस जाता है; और
मेरे ग्रीक पुतले का अंडकोष चकनाचूर हो जाता है।

चाँद और खच्चर
(''चंद्र आणि खेचर'', एकूण कविता 3 पृष्ठ 655)

चरते हैं किसी जुते हुए चारागाह पर
अंधेरा समझ कर घास प्राणिमात्र...
मैं रात्रि में घुलता हुआ माटी का एक ढेला हूं
गंदलाता हर कुछ को अपने आस पास। लेकिन फिर स्वच्छ हो जाती है
मेरी दृष्टि देख कर एक उज्ज्वल
चाँद और मुग्ध होता हुआ खच्चर
अपनी ही परछाईं पर....
पानी पर चांदनी से रोया हुआ अक्षर
मछली की लहर भर लकीर बन कर
तैरता है मेरे गलते हुए ढेले से
गँदलाये आसमान में... समय ऐसा है
और घास समझ कर अपनी परछाई को
खच्चर चाँदनी चर रहा है
मेरी माटी जा कर बसती है रात्रि के तल में
मछलियों की मचलती लहर को पकड़ता है
प्रत्यक्ष अवकाश का फंदा

चाँद समझकर मैंने देख लिया
उस चाँदनी को जिसे वह मुग्ध खच्चर चर रहा था।

मास्को, 1980

क्रांति के छायाचित्रित शहर में
तिरेषठ वर्ष बाद मेरे पर्यटक मन पर
तेज़ाब की एक बूंद भी नहीं पड़ती

खाल भरे क्रांतिकारी चिर निद्रा में सोये हैं
लम्बी कतार में श्रद्धालु दर्शन के लिये खड़े हैं
रेड स्क्वेअर पर मुझे नज़र आता है सिद्धिविनायक

क्रेम्लिन के ताबूत और लाल तारे
कोरस गाते हैं देवदूत, ज़ार और कॉमिसार
जीर्ण चर्च के पास चुप खड़ीं बूढ़ी औरतें
गोभी का क्या भाव कविता की क्या कीमत

हृदय पर खिंचे कँटीले तारों को
वॉयलिन समझ कर बजाता है
यह प्रबल और भोले लोगों का समुदाय

हाई वी, ईगल, रैंडॉल्स इत्यादि सुपर मार्केट्स के बारे में-
 (''हाय व्ही, रैंडॉल्स इत्यादि सुपर मार्केटांना उद्देशून...'', एकूण कविता, पृष्ठ 120)

ये भव्य दुकानें, जिनमें ट्रॉली ले कर राशन जमा करता
मैं घूमता रहा दो वर्ष हर सप्ताह जैसे घूमता है
प्रत्येक अमेरिकन भक्त मंदिर में
तुम्हारे गर्भ में भटकता हुआ दीन और लोभी बनता हूं
ऐसे में मैं भी हो गया हूँ तुम्हारा नित्य उपासक
इतने फलों और इतनी सब्जियों का व्यवस्थित ढेर अब
कहाँ देखूंगा? कहाँ देखूंगा दही, दूध, मक्खन के इतने डब्बे?
इतने प्रकार के मांस और मछली, फलों के रस,
चीज़ और पाव रोटी के प्रकार, चाय, कॉफी, चीनी?
अब कब देखूंगा कॉर्न फ्लेक्स, राईस क्रिस्पी, पॉप्ड वीट?
चावल, गेहूँ, मसाले, सायडर की विनेगर की बोतल,
तुम्हारे जगमगाते दालान में घूमतीं मंत्रमुग्ध स्त्रियाँ?
बड्वॉइज़र, मिलर, ओल्ड मिल्वॉकी, हॅम्स, ऑलिम्पिया
बियर के खोके, आईसक्रीम के डब्बे, भोजन की तैयार पैकेट्स?
कैश रजिस्टर से चेक फाड़ कर कागज़ के ठोंगे को सम्भालता
अब फिर कब मैं अपने अपार्टमेंट जाऊंगा?
रेफ्रिजिरेटर भरते हुए होते गहन आनंद का अनुभव कब करूंगा?
आवन में सीझते रोस्ट के स्वार्गिक वास में
फिर कब मैं समाधिस्थ होऊंगा? हे दुकानों,
एक भूखे कंगाल देश का मैं तुम्हारा भक्त
कितनी कविताओं के संग्रह देने होंगे तुम्हें
किस तरह पूरा करूँ इस पेट के खलगीत से तुम्हारे बड़े उपकार?

बाहरी जगत मुझसे होकर भाषा में बह जाता है
(''बाहेरचं जग माझ्याद्वारा वाहून जातं भाषेत'', एकूण कविता-1, पृष्ठ 127)

बाहरी जगत मुझसे होकर भाषा में बह जाता है
कभी कभी बीच में उच्चारित शब्दों के अक्षर आते हैं
सपाट कागज़ पर काली लिपि ठहर जाती है
कविता से उसके बाद मेरे कोई प्रत्यक्ष सम्बंध नहीं रहता
सपाट कागज़ पर लोगों की आँखें भटकती हैं
काली लिपि में आ जाता है फिर एक निराला वेग
अक्षरों के शब्द बनते हैं फिर उनका उच्चार होता है
वही सम्बंध भाषा से बह कर जाता है एक आंतरिक जगत में

वह आंतरिक जगत मेरा नहीं है उनका भी नहीं
अनेक आंतरिक जगों से मिलकर बनता है वह जग
जिसके बाहर हममें से कोई भी नहीं जा सकता
और जिसमें हम अकेले भटकते रहते हैं उदास

एक अनाकलनीय पाशविक अंग में जकड़ा होता है जैसे
एक उतने ही दुर्बोध आत्म का अदम्य प्रकाश

चिंचपोलकी से दृश्य
(The View From Chinchpokli : As is Where is, पृष्ठ - 81)


एक गँदलाया हुआ सूरज उगता है टेक्सटाइल मिल के पीछे से
मैं अपने भयानक स्वप्न से रेंग कर निकलता हूं और लडख़ड़ाता हुआ
बेसिन की तरफ जाता हूं। फिर मैं शौच में चैन से हल्का होता हूँ
जबकि परेल रोड क्रॉस लेन के मेरे वंचित देशवासी भायखला गुड्स डेपो की
पत्थर की दीवारों से लग कर मल त्यागते हैं।
इस गली से होकर मेन रोड तक जाने के खयाल से ही में कांप जाता हूं। सैकड़ों मजदूर,
रात की शिफ्ट से लौटने लगे हैं, रेल्वे लाइन पार करके।
बस स्टॉप पर भीड़ बढ़ चुकी है। मैं सुबह का अखबार पडऩे लगता हूं
और अपने नंगे मन को विश्व भर की घटनाओं से ढंक लेता हूं। सीलिंग फैन घिरघिरा कर चलता है, लेकिन मुझे पसीना आता रहता है।
मैं साँस लेता हूँ बॉम्बे गैस कम्पनी के छोड़े गये सल्फर डाइऑक्साइड में
जिसमें घुले होते हैं कपास के रेशे और कार्बन के कण जो निकलते हैं उन मिलों से
जो लाखों लंगोटों को ढंकते हैं। फिर मैं दाढ़ी बनाकर स्नान करता हूं
सभी अछूतों को अपने मन से निकाल कर, छुआछूत के प्रदूषण के डर से, बाहर निकलते हुए
मैं इस्तेमाल किये हुए कॉन्डोम और सिगरेट के मुड़े तुड़े डिब्बे को
कूड़े में फेंक दूंगा... और अर्जुन की तरह,
जो अनिच्छा से रथ पर सवार हो रण भूमि में गया था, मैं टैक्सी ले कर
नारीमन प्वाइंट की मैनहटन जैसी अवास्तविकता में जाऊंगा। वहां मैं भारत का भाग्य गढूंगा
अपनी बेदाग प्रतिभा से, मैं टैक्सी की सवारी करूंगा
और बिना पलक झपकाये गुजरूंगा विक्टोरिया गार्डन जू की बदल से।
भायखला ब्रिज मुझे कविता की पहली पंक्ति देगा,
और रास्ते में क्रिश्चन, मुस्लिम और यहूदी मुझ में समकालीन भारतीय संस्कृति की
एक विलक्षण आलोचना को प्रेरित करेंगे। और तय है कि मैं देखूंगा तक नहीं उन
सभी
कबाड़ की, चाय की दुकानों को, रेस्त्रां को, और बाज़ारों को
जिनके टेढ़े मेढ़े रास्तों से मैं गुजरूंगा, बड़े सुकून से निकलूंगा
कला संस्थान, अंजुमन-ए-इस्लाम, दि टाइम्स ऑफ इंडिया,
बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन और विक्टोरिया टर्मिनस की बगल से।
अगर मेरी नज़र फ्लोरा फाउंटेन या बॉम्बे हाई कोर्ट पर पड़ी भी तो
वह एक अन्यमनस्क अवलोकन ही होगा।
और अगर बॉम्बे यूनिवर्सिटी के क्लॉक टावर और इमारतों को मैं देखता हुआ लगूं
भी तो
वह उस बुढिय़ा चुड़ैल की तरफ
एक दूषित मानसिकता के किसी पुराने छात्र की खीज भरी नज़र ही होगी
पर इन सब के बावजूद है मेरे चैन की सांस
जो यहां उन लाखों लोगों की भद्दी भीड़ के थोड़ी देर तक नज़र से ओझल होने से
मिलती है।
कुछ संस्कृति सम्भव है उस आधे वर्ग मील में
जहां इंडिया की दीवार चटक कर खुल जाती है और समुद्र नज़र आने लगता है।
चिंचपोकली में, जब शाम को लौट आता हूं,
मैं षड्यंत्र रचता हूं स्त्रियों को फांसने का, बलात्कार का, योजना बनाता हूं कन्नी काटने के मास्टरपीस की, लाउडस्पीकर मुझ पर चिल्लाते हैं।
खटमल मुझे काटते हैं। तेलचट्टे मेरी आत्मा पर मंडराते हैं।
चूहे इधर उधर दौड़ते हैं मेरे अध्यात्म पर, मच्छड़ मेरे गीतों में गाते हैं
छिपकिली रेंगती है मेरे धर्म पर, मकड़े फैल जाते हैं मेरी राजनीति पर।
मैं खुजाता हूं, मैं कामोत्तेजित हो जाता हूं, मैं शराब पीता हूं। मैं पी कर चूर हो जाना चाहता हूं।
और मैं ऐसा करता भी हूं। यह आसानी से होता है चिंचपोकली में,
जहां, हिंदुओं के किसी लघु देवता की तरह, मैं धुत्त हूं
अपने पूजने वालों के दुखों में और अपनी
विजयी नपुसंकता में।

बॉम्बे के लिये एक गीत
(An Ode To Bombay : As is Where is, पृष्ठ - 87)

मैंने वादा किया था तुमसे एक कविता का मरने से पहले
पियानो की कालिमा से हीरे उमड़ते चले आते हैं
टुकड़ा टुकड़ा मैं अपने ही मृत पैरों पर गिरता हूँ
अपनी ध्वनिहीनता से छोड़ता हूं संगीत की बंदिश की तरह तुम्हें
मैं अपनी ज़िद्दी अस्थियों से बंधे तुम्हारे पुलों को खोलता हूं
मुक्त करता हूं आतुर धमनियों से तुम्हारी रेल की पटरियाँ
पुर्जा पुर्जा खोलता हूं तुम्हारी भीड़मय रिहाइशों और ध्यान मग्न मशीनों को
हटाता हूं अपनी खोपड़ी में गड़े तुम्हारे मंदिरों और वेश्यालयों को

तुम निकली मुझसे सितारों की शुद्ध सर्पिल रेख में
एक शवयात्रा बढ़ती हुई समय के अंतकी तरफ
अग्नि की असंख्य पंखुडिय़ां निर्वस्त्र करतीं
लगातार बढ़ रहे तुम्हारे अंधेरे तने को

मैं हत्याओं और दंगों से निकल आता हूं
मैं सुलगती जीवन कथाओं से अलग हो जाता हूं
मैं जलती भाषाओं की शय्या पर सोता हूं
तुम्हारी ज़रूरी आग और धुएं में तुम्हें ऊपर भेजता हुआ
टुकड़ा टुकड़ा गिरता हूं अपने ही पैरों पर
काले पियानो से हीरे उमड़ते चले आते हैं

कभी मैंने वादा किया था एक महाकाव्य का तुमसे
और अब तुमने लूट लिया है मुझे
बदल दिया है एक मलबे में
संगीत की यह बंदिश खत्म होती है।

अनुवादक
(The Translator : As is Where is, पृष्ठ - 129)

चार भिन्न भाषाओं में स्वप्न देखते हुए
स्वप्न देखते हुए ध्वनिहीनता के महाद्वीपों के
अर्थ की सिर-खाऊ समस्या से परेशान हुआ आदमी
फिर चैन से आराम नहीं कर सकता।
अनुवाद तभी सम्भव हैं जब कोई पूरी तरह से सजग हो।
लेकिन कैसे कोई हो सकता है एक नवजागरण-पुरुष
रात में, जब वह हो जाता है अपना कबीला खो चुका एक गुफा मानव?
अल्ता मीरा के गुमनाम चित्रकार
स्वप्न देख पाये थे
मॉडर्न आर्ट के म्यूज़ियम का
लेकिन गुफाओं के कवि और अनुवादक कौन थे?
किसने गढ़ा था पहला शब्द जंगली अनाज
और पशु की हड्डियों से?
 किसने कहा था पहला झूठ
जिस पर हमारा व्यवसाय आधारित है
जागने पर वह खुद को राहत देता है मुश्किल प्रश्न पूछ कर
लेकिन जब वह सो जाता है
उसका भीतरी विरोध परेशान करता है उसे
दु:स्वप्नों को जन्म देता है
चार भाषाओं की आदिम ध्वनिहीनता से निकल कर

गुजरात का बलात्कार
The Rape of Gujarat : As is Where is, पृष्ठ - 256


नहीं, वह शिफॉन का चिलमन से आधा झांकता रूमानी गुलाबी चेहरा नहीं, जो किसी मुम्बईया मुस्लिम सम्मिलन में नज़र आता है जहां
हर काया काली सिल्क या सॅटिन के लिबास में सरसराती है और गम सितार के तार
छेड़ता है

बल्कि वह, जो नंगे भय से थर्राती काया को ढंकती हर चीज़ को चीर फाड़ कर रख
देता है।
नहीं, वह रहस्यों आदर्शों में कल्पित कामुक इंतज़ार में थरथराती हुई भावना नहीं
बल्कि वह, जिसकी माँसलता दहशत और आघातों की गहरी सतह पर बनती है,
भड़काया, कोंचा, कुरेदा, बलात्कृत, काटा, फाड़ा, धज्जी उड़ाया
योनि तक कुचला हुआ इंसानी जिस्म

जिसे जला डाला गया कि धुंए के उस पहचाने हस्ताक्षर को
हर कोई सूंघ तो सके पर कोई कुछ कह ना सके

कोई मां सुरक्षित नहीं है, ना बेटी ना बीवी ना पत्नि ना मंगेतर ना मित्र
ये मादरचोद दंगों के दृश्य रंगते हैं भगवे हरे और काले से

ये बूर्ज़ुआ घरों से आते हैं नाश्ते में फरसाण खाते हैं और प्रार्थना से पहले पादते हैं
ये हर भड़कीले मंदिर में पीतल की घन्टियां और भक्ति के घडिय़ाल पीटते हैं

सेलफोन इस्तेमाल करते हैं डिस्कमैन बजाते हैं चमचमाती टाउन कार चलाते हैं 90 से ज़्यादा चैनल देखते हैं
विस्की पीते हैं भावुक होने के लिये श्रद्धांजली देते हैं नरक से आये धर्म के उपदेशकों को
ये हमारे अपने ही परिवार के लोग हैं, मित्र हैं और पड़ोसी हमारी बगल के जिनसे हम दही मांग लाते हैं
वे संक्रांति के दिन पतंग उड़ाते हैं और पटाखे छोड़ते हैं दिवाली में या क्रिकेट में जीत के बाद
हम उन्हें पिकनिक पर देखते हैं थियेटर में मिलते हैं हमारी पसंद के रेस्टारेन्ट में पाते हैं

वे तीन पीढिय़ों से इसकी योजना बना रहे हैं 1947 से और अब यह चौथी आती है

जिसके लिये अवचेतन है महज एक हार्ड कॉपी और एक गूढ़ की तरह जिसका अर्थ तुम समझते राहे साबरमती के तट पर
जहां बापू बच्चों और बकरियों के साथ खेलते थे आजादियों के बीच
(2002)

चित्रे
(Chitre : As is Where is, पृष्ठ - 244)

1.
कुल कथाओं की चरम महानता और अपने पतित झुकावों के बीच
यानि जैसे कप और दिलीप के बीच
भारतीय स्याही चित्रे की ताकत है

यहीं उसकी जीवंत कड़ी भी है
उसकी उम्र, मार्ग नहीं, अब छियासठ;
वह सोचता है समग्र चित्रे कुल पर सब कुछ

उसके व्यक्तिगत उत्थान पतन:
ऐतिहासिक दुर्घटनाएं, नियति का संकट;
सब कुछ जो मिट जाता है समय की गूढ़ झपक में

वह थक गया है, वह दिलीप है
सोना चाहता है:
स्वप्न देखता हुआ ना शुरुआत का, ना अंत का

अपनी हड्डियों को आराम दे कर, होठों पर कोई प्रार्थना नहीं।
उसकी कलम शिथिल, स्याही सूखती हुई
उसकी आंख खुलती हुई परम आकाश पर

उस पर दया करो, रे परेशान पूर्वजो,
क्रोधित समकालीनों, विचलित प्रियजनों
दिलीप निवृत्त होना चाहता है अकीर्तित

जहां प्रभु खुद अपना अंगूठा चूसते हैं।

2.
एक धृष्ट लहजे में
दाँते और रिम्बॉद पर सोचते हुए
बोटेसली की शैली कृत इनफर्नो में
कविता के नीले घोड़े पर वह सवार था
एक महत्वाकांक्षी पापी
अपने भोलेपन से शर्मिंन्दा

सीझता हुआ पाप में, ढूंढ़ता नारी देह का धीमा विलोप
वह कोई विजेता नहीं था
चित्र समाप्त हुआ जहाँ अंधेरा और ठण्ड है

और जहां से कोई प्रेमी लौटता नहीं है
बिना कड़वे ज्ञान के
और चित्रे तो फिर भी एक किस्म का हिंदी ही है

और हर हिंदू की तरह
वह अपेक्षा रखता है अपने कर्मों के फल की।




तुषार धवल ने मौलिक अनुवादों के लिये अपना सर्वाधिक समय मराठी कवि दिलीप चित्रे की अंग्रेजी-मराठी कविताओं के लिये दिया है। तुषार धवल की प्रारंभिक शिक्षा बोकारे में और उत्तरार्ध की शिक्षा दिल्ली के हिन्दू कालेज और दिल्ली स्कूल आफ एकनामिक्स से प्राप्त की। 1973 का आपका जन्म याने तुषार धवल अब चालीस के हो गये हैं। 'पहर यह दोपहर का' के बाद उनका दूसरा कविता संग्रह 2014 में 'दखल' से छपा है। कविता के अतिरिक्त चित्रकला, छायांकन और रंगकर्म में भी तुषार की दिलचस्पी है। 'पहल-96' का मुखपृष्ठ तुषार के चित्रकाल में एक कठिन प्रयोग का उदाहरण है। वे 'इंडिया आर्ट फेस्टिवल' और 'इंडिया आर्ट फेयर' में भी भागीदारी कर चुके हैं।
'दिलीप चित्रे' की अंग्रेजी-मराठी कविताओं के उनके अनुवादों की क़िताब दोखंडों में 'मैजिक मुहल्ला' शीर्षक से शीघ्र आने वाली है।

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