सामयिक : दो
एक राष्ट्र का निर्माण उसके संपूर्ण रहवासियों के द्वारा होता है। किसी देश में अनेक धार्मिक समूह के लोग रहते हैं और अपने जीवन में सामंजस्य स्थापित करके राष्ट्र का स्वरूप निर्धारित करते हैं। ए.आर. देसाई ने लिखा है कि ''सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के खास दौर में राष्ट्रों का जन्म हुआ। सामाजिक अस्तित्व के पूर्ववर्ती कालों के अराष्ट्रिक जन समुदायों से आधुनिक युग के राष्ट्र अपने निम्नलिखित गुणों के कारण भिन्न हैं। राष्ट्र के सारे सदस्य निश्चित भू-भाग में एक ही अर्थतन्त्र के अंतर्गत परस्पर जैविक रूप से संपृक्त होते हैं, जिसके फलस्वरूप उनमें सम्मिलित आर्थिक अस्तित्व का अभाव होता है, वे प्राय: एक ही भाषा का प्रयोग करते हैं, उनकी एक सी मनोवैज्ञानिक संरचना और उससे विकसित सार्वजनिक लोकसंस्कृति होती है।''1 राष्ट्र के ये गुण एक साथ पूर्णत: विकसित नहीं हो सकते। यह भावनात्मक कल्पना मात्र ही है। राष्ट्र की इस परिकल्पना से 'मुस्लिम एक अलग राष्ट्र' की अवधारणा खंडित हो जाती है क्योंकि भारतीय मुसलमान न ही एक भाषा बोलते हैं और न ही एक भू-भाग में रहते हैं। बल्कि ये देश के सभी भू-भागों में फैले हुए हैं। ये लोग एक धर्म के अनुयायी हैं तथा यह धर्म ही इन्हें एक सूत्र में बांधे रखता है लेकिन इससे मुस्लिम एक पृथक राष्ट्र नहीं हो जाते क्योंकि उनका सम्मिलित आर्थिक जीवन नहीं होता। साथ ही भाषाई स्तर पर बंगाल का मुसलमान बंगाली हिंदुओं की तरह बांग्ला बोलता है, पंजाब में हिंदू और मुसलमान दोनों पंजाबी बोलते हैं, सिंध के सिंधी तथा महाराष्ट्र के मुसलमान मराठी बोलते हैं। यह स्थिति पूरे देश में देखने को मिलती है क्योंकि पूरे देश के मुसलमानों के आर्थिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन परस्पर भिन्न हैं तथा एक ही भू-भाग में रहने वाले हिंदू और मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन में समानता भी देखने को मिलती है। हिंदू और मुसलमानों की यह सांस्कृतिक एकता 'मुस्लिम आस्मिता' का सवाल उठाने वाले कट्टर हिंदूवादियों के तर्कों को भी खारिज कर देती है। अविभाजित हिंदुस्तान में ''1941 की मर्दुमशुमारी के अनुसार कुल आबादी में मुसलमानों का प्रतिशत 23.81 था। देश विभाजन के बाद 1951 में हुई मर्दुमशुमारी में मुसलमानों का प्रतिशत गिरकर 9.91 प्रतिशत हो गया क्योंकि ज्यादा मुसलमान वाले इलाके पाकिस्तान में चले गए।''2 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल आबादी के 13.4 प्रतिशत मुसलमान हैं तथा यह भारत का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह है। ये अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के मुकाबले बहुत अधिक हैं। मुस्लिमों की जनसंख्या वृद्धि दर (गुणात्मक) 2001 की जनगणना के अनुसार 2.58 प्रतिशत है, जो हिंदुओं (1.82 प्रतिशत) एवं अन्य समुदायों की वृद्धि दर से ज्यादा है। इसका मुख्य कारण मुसलमानों में शिक्षा का अभाव है। महिला साक्षरता दर की कमी एवं महिलाओं के विवाह की औसत आयु का कम होना है। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि असुरक्षा की भावना को ध्यान में रखते हुए मुसलमान परिवार नियोजन को नहीं अपनाते, लेकिन 1991-2001 के बीच जनसंख्या वृद्धि दर (2.58 प्रतिशत) मुसलमानों में अब तक सबसे कम रही है, जबकि 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुस्लिम समाज सबसे ज्यादा असुरक्षा बोध का शिकार हुआ है। इसलिए असुरक्षा बोध का यह तर्क उचित प्रतीत नहीं होता। मणिशंकर अय्यर लिखते हैं कि ''जहां महिलाएं ज्यादा साक्षर हैं वहां लड़कियों का विवाह देर से होता है। नतीजतन जन्म दर कम है। जहां जन्म दर कम है, वहां नवजात शिशु और प्रसव के बाद महिलाओं की मृत्यु दर कम है। ...जनसंख्या वृद्धि सिर्फ जन्म दर का प्रतिफल नहीं है, बल्कि यह जन्मदर और मृत्युदर का वास्तविक अंतर है। इसलिए हमारी सम्पूर्ण आबादी में मुसलमानों का हिस्सा घटने-बढऩे का कुरान और शरीयत से उसी तरह लेना देना नहीं है जिस तरह रामायण और गीता से नहीं।''3 भारत के प्रमुख धर्मों का जनसंख्या का चलन - (1961-2001)4 वर्ष धर्म सभी हिंदू मुस्लिम ईसाई सिक्ख बौद्ध जैन अन्य जनसंख्या (हजार में) 1961 439235 366528 46941 10728 7846 3256 2027 1909 1971 547950 453292 61418 14223 10379 3912 2605 2221 1981 683330 562389 80286 16696 13093 4758 3222 2885 1991 846388 690060 106715 19654 16426 6476 3355 3701 2001 1028610 827579 138188 24080 19216 7955 4225 7367 समय सालाना वृद्धि दर (गुणात्मक) प्रतिशत 1961-71 2.21 2.12 2.69 2.82 2.80 1.58 2.51 3.77 1971-81 2.21 2.16 2.68 1.60 2.32 2.22 2.13 2.56 1981-91 2.14 2.05 2.85 1.63 2.27 3.08 0.40 1.47 1991-2001 1.95 1.82 2.58 2.03 1.57 2.06 2.31 7.08 1961-2001 2.13 2.04 2.70 2.02 2.24 2.23 1.84 3.38 समय 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या (प्रतिशत में) 2001 100 80.5 13.4 2.3 1.9 0.8 0.4 0.7
मुस्लिम समाज में स्त्री-पुरुष लिंगानुपात राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान (NSSO) के 66 वें (2009-10) चक्र के आंकड़ों के अनुसार ''गांवों में 1000 पुरुषों पर 921 महिलाएं तथा शहरों में यह अनुुपात 1000 पुरुषों पर 923 महिलाएं हैं। जबकि सम्पूर्ण भारत के स्त्री पुरुष का यह अनुपात 1000 पुरुषों पर गांवों में 947 तथा शहरों में 909 महिलाएं हैं।''5 शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार स्वतंत्रता सभी दृष्टिकोण से मुस्लिम महिलाएं देश की सर्वाधिक पिछड़ी हुई महिलाएं मानी जाएंगी। पर्दा प्रथा, तीन तलाक, बाल विवाह, बहुविवाह इत्यादि चीजों ने मुस्लिम महिलाओं का जीवन दूभर कर दिया है। एक तरफ जहां वे गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा की मार से त्रस्त हैं वहीं धार्मिक कानूनों की मनमानी व्याख्या स्त्री विरोधी साबित हो रही है। भारतीय मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में देश के अन्य समुदायों से पीछे हैं। इस समुदाय में बड़े पैमाने पर फैली गरीबी और बेरोजगारी इसके लिए जिम्मेदार है। मुस्लिम समुदाय की वे बिरादरियां जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक है, वे शिक्षा के मामले में भी आगे हैं। आधुनिक सोच और शिक्षा से वंचित मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबका मुल्ला मौलवियों के प्रभाव से ग्रस्त जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है। सच्चर कमेटी रिपोर्ट भी बताती है कि ''भारतीय मुसलमान शिक्षा के मामले में लगभग हर स्तर पर पिछड़े हैं। उनकी साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से बहुत कम है। प्राथमिक शिक्षा के बाद स्कूल छोड़ देने वाले मुस्लिम बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है। इसी कारण स्नातक तथा स्नातकोत्तर करने वाले मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या उनकी आबादी के अनुपात में काफी कम है।''6 1984 में भारत सरकार द्वारा गठित गोपाल कृष्ण कमेटी ने भारत सरकार को जो रिपोर्ट सौंपी उसके अनुसार ''मुस्लिम बच्चों की प्राथमिक के स्तर पर नामांकन की दर 12.39 प्रतिशत थी, जबकि बाल जनसंख्या 16.81 प्रतिशत थी। अनुसूचित जातियों में ये संख्या 12.50 प्रतिशत थी जबकि बाल जनसंख्या 20 प्रतिशत थी। माध्यमिक स्तर पर कक्षा 1 में भर्ती हुए 100 मुसलमान छात्रों से में 35 कक्षा 5 पहुंचते थे, यों छंट जाने वालों की दर 65 प्रतिशत थी। ...बारहवीं कक्षा में पंजीकृत छात्रों में परीक्षा में बैठने वाले मुसलमान छात्र 2.49 प्रतिशत थे, लेकिन परीक्षा फल औसत से बहुत कम था। अनुसूचित जाति के छात्रों का अनुपात काफी बेहतर 6.75 प्रतिशत था। ग्रेजुएट स्तर पर परीक्षा में बैठने वाले मुस्लिम विद्यार्थी कुल संख्या 6.21 प्रतिशत थे। पोस्ट ग्रेजुएट स्तर पर अंतिम परीक्षा में बैठने वाले मुस्लिम छात्रों की दर 9.11 प्रतिशत थी। ...एम.बी.बी.एस. और व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में (बी.इ. में 3.41 प्रतिशत, एल.एल.बी. में 5.36 प्रतिशत) यह प्रतिशत और भी कम था। 1982 की सिविल सर्विस परीक्षाओं में सफल 963 उम्मीदवारों में केवल 19 मुसलमान थे।''7 यह रिपोर्ट मुस्लिमों के शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े होने की साफ तस्वीर पेश करती है। मुस्लिम समाज लगातार शिक्षा के मामले में जागरूक हो रहा है पर अभी भी स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हो पाया है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) के 60 वें दौर (2004) के आंकड़ों के अनुसार ''ग्रामीण क्षेत्रों में 2 प्रतिशत मुस्लिम पुरुष एवं 0.5 प्रतिशत महिलाएं ग्रेजुएट हैं। हिंदुओं में यह प्रतिशत क्रमश: 3.5 और 0.6 का है। अन्य धार्मिक समूहों की तुलना में मुसलमानों में उच्च शिक्षा की कमी शहरी क्षेत्रों में भी देखने को मिलती है। शहरों में जहां 6 प्रतिशत पुरुष तथा लगभग इतनी ही महिलाएं ग्रेजुएट हैं वहीं हिंदुओं में यह प्रतिशत 19 तथा 14 का है।''8 इसके साथ ही सबसे भयावह स्थिति मुस्लिमों में नामांकन की दर तथा स्कूल छोड़े जाने के अनुपात को लेकर है ''भारतीय स्तर पर जहां नामांकन की दर लगभग 72 प्रतिशत है, वहीं मुसलमानों में यह केवल 62 प्रतिशत है। लड़कियों के लिए यह सभी धार्मिक समूहों में 65 प्रतिशत की अपेक्षा मुसलमानों में केवल 57 प्रतिशत है। यही नहीं 6-14 वर्ष की आयु में स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों का प्रतिशत भी मुसलमानों में औसत आबादी से अधिक है।''9 अबू सालेह शरीफ: ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट10 (1999) के अनुसार भारत में मुस्लिम समाज में साक्षरता पुरुषों की 59.5 प्रतिशत तथा महिलाओं की 38.0 प्रतिशत है, हिंदुओं में यह प्रतिशत क्रमश: 65.9 और 39.2 का है। यह आंकड़ा मुस्लिम स्त्री शिक्षा की दयनीय स्थिति को पेश करता है, जो हिंदू स्त्री से भी दयनीय है। मुस्लिम महिलाएं जो साधारणतया आधुनिक शिक्षा के लाभ से वंचित होती हैं उन रोजगार की संभावनाओं को भी खो देती हैं जो अन्य समुदायों की महिलाओं के पास उपलब्ध होता है। मुस्लिमों की अधिकांश जनसंख्या का शैक्षिक स्तर हिंदुओं के अनुसूचित जातियों के या तो बराबर है या उनसे भी नीचे है, इसीलिए बिहार देश का पहला राज्य है जिसने केंद्र सरकार को सिफारिश भेज कर दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति में शामिल करके आरक्षण की मांग की थी, पसमांदा मुस्लिम महज़ और दूसरे संगठन दलित मुसलमानों के आरक्षण के लिए आंदोलनरत हैं। मुसलमानों के शैक्षिक पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण राजनीतिक ढांचे में उनका कम प्रतिनिधित्व भी है। 1986 की शिक्षा राष्ट्रीय नीति में भले ही कुछ शैक्षिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यक समूहों पर विशेष ध्यान देने की बात सरकार द्वारा कही गई हो, पर इन भारी भरकम वादों और रिपोर्टों पर कोई ठोस काम नहीं हो पाया है। ''मुस्लिम नेताओं ने तो शिक्षा और उसमें भी खासकर व्यवसायिक और तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा और प्रोत्साहन देने की लापरवाही तो बरती ही लेकिन केंद्र और प्रदेश सरकारों ने भी मुसलमानों को उपलब्ध सहूलियतों में सुधार करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए।''11 भारतीय मुसलमानों में गरीबी अन्य धार्मिक समूहों की अपेक्षा अधिक है। ''ज्यों-ज्यों आजाद हिंदुस्तान आर्थिक मोर्चे पर आगे बढ़ता गया, पंचवर्षीय योजनाएं उसकी जनता की गरीबी रेखा को घटाती गईं कृषि और औद्योगिक क्षेत्र में सुधार होता गया, भारतीय मुसलमानों की आर्थिक स्थिति बिगड़ती गई।''12 राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) के 66 वें चक्र (2009-10) के आंकड़ों के अनुसार प्रतिव्यक्ति मासिक खर्च मुसलमानों का सबसे कम 980 रुपया है जबकि इसके बरक्स हिंदुओं का 1124 रुपए, ईसाइयों का 1543 रुपया तथा सबसे ज्यादा सिक्खों का 1659 रुपया है। नीचे दी गई सारणी से यह स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि मुस्लिमों में अन्य समूहों की तरह ही प्रतिव्यक्ति मासिक खर्च गांवों की अपेक्षा शहरों में ज्यादा है। भारत के प्रमुख धार्मिक समूहों में प्रति व्यक्ति मासिक खर्च (रुपए में)13
भारत के प्रमुख धार्मिक समूहों में प्रति व्यक्ति मासिक खर्च (रुपए में) धर्म ग्रामीण क्षेत्र शहरी क्षेत्र औसत मुस्लिम 833 1272 980 हिंदू 888 1792 1125 ईसाई 1296 2053 1553 सिक्ख 1498 2180 1659
ये आंकड़े मुस्लिम समाज के निम्न जीवन स्तर को बताते हैं। मुस्लिम समाज का अधिकांश हिस्सा भयंकर गरीबी से जूझ रहा है। इनकी स्थिति हिंदू धर्म के मजदूर तथा श्रमशील जनता की तरह ही है। वह भी मजदूरी एवं कुटीर उद्योगों के भरोसे जिंदगी गुजार रहे हैं। मुस्लिम समाज का अधिकांश हिस्सा आमतौर पर या तो छोटे मौटे काम-धंधे करके, असंगठित क्षेत्रों में नौकरी करके अपनी रोजी रोटी का जुगाड़ करता है या मजदूरी, रिक्शा-टैक्सी और ट्रक की ड्राइवरी, कुली, नाई, बढ़ई इत्यादि का काम करता है, कुछ हालत ठीक हुई तो वह इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर, फिटर या वेल्डर इत्यादि का काम कर लेते हैं। इसीलिए अन्य धार्मिक समूहों की अपेक्षा मुस्लिमों की स्थिति भयावह है। अबू सालेह शरीफ: ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट (1999) के अनुसार ''मुसलमानों के प्रति परिवार वार्षिक आय 22807 रुपये हैं, जबकि हिंदुओं में यह 25713 रुपए, ईसाईयों में 38860 रुपये तथा अन्य अल्पसंख्यक समूहों में 30330 रुपए है। इसी प्रकार प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी मुसलमान अन्य धार्मिक समूहों एवं कुल आबादी से पीछे हैं।''14 राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (2009-10) के 66 वें दौर के आंकड़ों के अनुसार भारत में गरीबी का अनुपात घटकर 29.8 प्रतिशत हो गया, जबकि वर्ष 2004-05 में यह अनुपात 37.2 प्रतिशत था। भारतीय स्तर पर मुसलमानों में गरीबी का अनुपात सबसे अधिक 33.9 प्रतिशत है। सच्चर कमेटी रिपोर्ट मुसलमानों की गरीबी के संदर्भ में यह निष्कर्ष देती है कि ''मुसलमान गरीबी के उच्च स्तर का सामना कर रहे हैं। कुल मिलाकर उनकी स्थितियां अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों की तुलना में मामूली बेहतर है।''15 भारत के मुसलमानों में बेरोजगारी का प्रतिशत भी अन्य धार्मिक समूहों से कहीं ज्यादा है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार ''आमतौर पर दैनिक स्थिति बेरोजगारी दर 11 फीसदी से अधिक नहीं है। मुसलमानों को मिलकर देखा जाए तो सभी हिंदुओं के मु$काबले इनमें बेरोजगारी दर कुछ अधिक जरूर है, लेकिन हर समूह में कुछ अंतर है। आम तौर पर ऊँची जाति के हिंदुओं में अन्य जातियों के मुकाबले बेरोजगारी काफी कम है, खासकर अनुसूचित जाति/जनजाति के मुकाबले यह अन्तर काफी ज़्यादा है। मुसलमानों में बेरोजगारी दर अनुसूचित जातियों/जनजातियों के मुकाबले कम तो जरूर है, लेकिन ऊंची जाति के हिंदुओं की तुलना में अधिक है। मुसलमानों की बेरोजगारी दर अन्य पिछड़ी जाति के हिंदुओं से भी अधिक है, सिवाय शहरी क्षेत्रों के। मुसलमानों में भी बेरोजगारी दर आम मुसलमानों की तुलना में अन्य पिछड़ी जाति के मुसलमानों में अधिक है।''16 बेरोजगारी की यह दर हर धार्मिक समूहों में बढ़ी है, लेकिन शहरी मुसलमानों की बेरोजगारी दर में बेतहाशा वृद्धि देखने को मिलती है। 2001 की जनगणना के अनुसार ''सभी आयु वर्ग के मुसलमान पुरुषों में कार्य भागीदारी का प्रतिशत 47.5 ही है, जबकि बाकी धार्मिक समुदायों के लिए यह औसत 51.7 प्रतिशत है। मुस्लिम महिलाओं के लिए कार्य में भागीदारी की दर 14.1 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय औसत 25.6 फीसदी का है।''17 मुस्लिम समाज की अधिकांश आबादी स्वरोजगार पर भरोसा करती है। स्वरोजगार के संदर्भ में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट चौंकाने वाले आंकड़े देती है, ''स्वरोजगार में मुसलमानों की कार्य क्षमता का करीब 61 प्रतिशत हिस्सा लगा हुआ है, जबकि हिंदुओं में यह आंकड़ा करीब 55 फीसदी है, शहरी क्षेत्रों में 57 प्रतिशत मुसलमान स्वरोजगार में लगे हैं, जबकि हिंदुओं में यह प्रतिशत 43 का ही है। महिलाओं की बात की जाए तो मुस्लिम महिलाओं के लिये यह आंकड़ा 73 प्रतिशत का है, जबकि 60 प्रतिशत नौकरी पेशा हिंदू महिलाएं स्वरोजगार से जुड़ी हुई हैं। मुस्लिम समुदाय में स्वरोजगार की निर्भरता सामान्य मुसलमानों (59 प्रतिशत) की तुलना में अन्य पिछड़ी जाति (64 प्रतिशत) के मुसलमानों में अधिक है।''18 एक कर्मचारी के रूप में मुसलमान आमतौर पर एक सामयिक मजदूर के रूप में काम करते हैं। वैतनिक नौकरी करने वालों में जहां 25 प्रतिशत नियमित कर्मचारी ऊंची जाति के हिंदुओं के हैं वहीं मुसलमानों में यह प्रतिशत मात्र 13 का है। आज भी भारत कृषि प्रधान देश है, मुसलमानों का कृषि के क्षेत्र में प्रतिनिधित्व काफी कम है। ''मात्र 40 फीसदी मुस्लिम कामगार कृषि क्षेत्र में लगे हुए हैं, जबकि कुल कामगारों की संख्या इस क्षेत्र में 58 फीसदी है। कृषि क्षेत्र में हिंदू पिछड़ा वर्ग तथा अनुसूचित जातियों/जनजातियों का प्रतिशत उच्च जाति हिंदुओं की तुलना में अधिक है, जबकि अन्य समूहों की तुलना में मुस्लिम कामगारों की संख्या इस क्षेत्र में काफी कम है। निर्माण कार्य एवं व्यवसाय के क्षेत्र में मुस्लिमों की भागीदारी अन्य समुदायों से कहीं अधिक है। धूम्रपान संबंधी उत्पादों, कपड़ा उद्योगों, फुटकर व्यापार, धातुकर्म में मुस्लिमों की भागीदारी अन्य समुदायों से ज्यादा है।''19 सरकारी नौकरियों में भी मुस्लिमों की भागीतारी अन्य धार्मिक समूहों की तुलना में काफी कम है। सच्चर कमेटी रिपोर्ट के अनुसार ''88 लाख सरकारी कर्मचारियों के आंकड़ों में महज 4.4 लाख अर्थात् 5 फीसदी ही मुसलमान हैं। 14 लाख सार्वजनिक उपक्रम के कर्मचारियों में केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में 3.3 फीसदी और राज्य स्तरीय सार्वजनिक उपक्रमों में 10.8 प्रतिशत मुसलमान हैं। रेलवे में कुल कर्मचारियों में 4.5 प्रतिशत, बैंक में 2.2 प्रतिशत, सुरक्षा एजेंसियों में 3.2 प्रतिशत, डाक सेवा में 5.0 प्रतिशत, विश्वविद्यालयों में 4.7 प्रतिशत मुसलमान कर्मचारियों की भागीदारी है।'' 20 द टाइम्स ऑफ इंडिया के 23 अगस्त 2013 की रिपोर्ट के अनुसार, जो एन.एस.एस.ओ. के ताजे आंकड़े आधारित है ''2006-07 में मुस्लिमों की सरकारी नौकरियों में भागीदारी 6.93 प्रतिशत थी जो 2010-11 में बढ़कर 10 प्रतिशत हो गई है, सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की इस बढ़ोत्तरी के पीछे मुसलमानों के बीच नौकरियों को लेकर बढ़ती आकांक्षाएं तो कारक हैं ही साथ ही अल्पसंख्यक दृष्टि से भर्ती करने के लिए लक्षित कदम उठाने के संदर्भ में केंद्र द्वारा राज्य को दिया गया निर्देश भी महत्वपूर्ण है।''21 मुस्लिम समाज की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उसके पास कोई अपना राजनीतिक मंच नहीं है, इसी कारण देश की तमाम पार्टियों ने उन्हें केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया है। 2001 की जनगणना के अनुसार 13.4 फीसदी मुस्लिम आबादी है। इतनी आबादी के हिसाब से लोकसभा में 72 मुस्लिम सांसद होने चाहिए जबकि वर्तमान लोकसभा में मात्र 28 सांसद हैं। ये आंकड़े मुस्लिम समाज के अन्य क्षेत्रों में भागीदारी की तरह ही चिंता जनक हैं। भारतीय मुसलमानों ने भारतीय लोकतन्त्र में देश के अन्य समुदायों की तरह ही विश्वास किया है, फिर भी उसे वह भागीदारी मिलनी बाकी है जो अन्य समुदायों को मिल चुकी है। कुल मिलाकर मुसलमानों के राजनीतिक नेतृत्व की कमी ने उनमें अविश्वास की भावना को मजबूत किया है। भारत को एक सेक्युलर राष्ट्र का दर्जा दिया जाता है, जहां कहीं न कहीं मुसलमानों के संदर्भ में कट्टर हिंदुवादी ताकतों के रवैये के कारण हिंदुस्तान की सेक्युलरिज़्म की अवधारणा खंडित होती रही है। आज मुसलमानों को जितना डर इन कट्टर हिंदुत्ववादी ताकतों से है उतना ही अपने समाज के कट्टरवादियों से भी, इसके लिए इस्लाम के अपने आंतरिक लोकतन्त्र को और अधिक मजबूत करना होगा। इन्हीं सांप्रदायिक ताकतों ने आज मुस्लिम समाज के सामने सांप्रदायिकता की समस्या तथा 'मुस्लिमों की भारतीय अस्मिता का सवाल' जैसे दो प्रमुख पीड़ादाई दर्द उपस्थित किए हैं। मुस्लिम समाज के इस अध्ययन के उपरांत यह कहा जा सकता है कि मुस्लिम समाज गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, भुखमरी, अंधविश्वास, सांप्रदायिकता इत्यादि समस्याओं से जूझ रहा है। शिक्षा में वृद्धि दर काफी धीमी है। सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व लगातार बढ़ रहा है पर यह विकास दर बहुत कम तथा चिंताजनक है। यह अध्ययन यह भी बताता है कि भारतीय मुसलमान देश के अन्य समुदायों की तरह ही हैं। इसे अलग तरीके से देखने वालों की आंखों में खोट है।
1. भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठ भूमि - ए आर देसाई, पृ. 1 2. भारतीय मुसलमान मिथक और यथार्थ : (सं) राजकिशोर, पृ. 61 3. वही, पृ. 78 4. सच्चर कमेटी रिपोर्ट, भारत की जनगणना (2001) 5. भारत में प्रमुख धार्मिक समूहों में रोजगार एवं बेरोजगार की स्थिति, एन.एस.एस.ओ. 66 वें दौर (2009-10) की रिपोर्ट, पृ. 22 6. भारत में मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति, सच्चर कमेटी रिपोर्ट, भारत सरकार (2006), पृ. 47 7. बढ़ती दूरियां : गहराती दरार-रफीक जकरिया, पृ. 164 8. हंस (विशेषांक: भारतीय मुसलमान वर्तमान और भविष्य) : (सं) राजेन्द्र यादव, पृ. 44 9. वही, पृ.- 43 10 वायस ऑफ द वॉयस लैस : स्टेटस ऑफ मुस्लिम वूमेन इन इंडिया (2006) - सईदा सैयदेन हमीद, राष्ट्रीय महिला आयोग, पृ. 26 11. बढ़ती दूरियां : गहराती दरार - रफीक जकरिया पृ. 173 12. वही, पृ. 179 13. भारत में प्रमुख धार्मिक समूहों में रोजगार एवं बेरोजगार की स्थिति, एन.एस.एस.ओ. 66 वें दौर (2009-10) की रिपोर्ट, पृ. 25 14. हंस (भारतीय मुसलमान वर्तमान और भविष्य) (सं) राजेन्द्र यादव, पृ. 42 15. भारत में मुसलमानों की सामाजिक आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति, सच्चर कमेटी रिपोर्ट, भारत सरकार (2006), पृ. 149 16. वही, पृ. 82-89 17. वही, पृ. 82 18. भारत में मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति, सच्चर कमेटी रिपोर्ट, भारत सरकार (2006), पृ. 83 19. वही, पृ. 88, 20. वही, पृ. 153 21. द टाइम्स ऑफ इंडिया (23 अगस्त 2013) |