संघ का हिन्दुस्तान

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    जून 2014
श्रेणी सामयिक : एक
संस्करण जून 2014
लेखक का नाम शैलेन्द्र चौहान





सामयिक : एक




भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता को उत्प्रेरक के रूप में उपयोग किया जाता है

जाहिद खान की पुस्तक 'संघ का हिन्दुस्तान' कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। एक तो उन्होंने अल्पसंख्यक होते हुए भी बेखौफ होकर संघ के सांप्रदायिक सरोकारों और आनुषंगिक संगठनों के कृत्यों पर खुल कर चर्चा की है। दूसरे इस किताब में उन घटनाओं का जिक्र है जो अनेकों प्रांतों में समय-समय पर घटित हुई हैं और जो सर्वथा निंदनीय हैं। जाहिद खान का मानना है कि हमारे मुल्क में सियासी पार्टियां, राष्ट्रीय हित और सांप्रदायिक एकता से जुड़े महत्वपूर्ण सवालों पर भी अक्सर सियासत करने से बाज नहीं आतीं। हर मुद्दे को वे सियासी नफे नुकसान की नजर से ही देखती हैं। वह कहते हैं 'कुल मिलाकर संघ परिवार को नफरत की सियासत खूब रास आती है। और सरकारें अपनों को नवाजने में इस कदर मेहरबानी और फराखदिली दिखलाती हैं कि सभी कायदे कानूनों को ताक पर रख देती हैं। उन्हें इस बात की जरा सी भी शर्मोहया नहीं होती कि वे जो कुछ कर रही हैं, सरासर गलत है। सरकार में कायम मंत्री और मुख्यमंत्री खुद को मिले जमीन वगैरह देने जैसे विशेषाधिकार का नाजायज इस्तेमाल करते हैं।' जाहिर है यह बात हर मुख्यमंत्री के लिए रही है चाहे वह सपा का हो, कांग्रेस का हो, बसपा का हो, या डीएमके का हो। यह दीगर बात है कि भाजपा यह सब धार्मिक संस्थानों के नाम पर करती है। क्योंकि वह तो जीतती ही इसी मुद्दे पर है।
तीसरे यहां इन टिप्पणियों में तात्कालिकता का रिफ्लेक्स भी है। हम इस समस्या को इन तथ्यों से आगे थोड़ा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक नजरिये से देखने का प्रयास करते हैं क्योंकि तात्कालिकता मात्र किसी घटना का वर्णन करती है समग्र विश्लेषण नहीं। किसी भी समस्या के पीछे कार्य कारण सम्बन्ध होता है जो सम्पूर्णता में एक वस्तुगत विश्लेषण की दरकार रखता है, तभी हम सही नतीजे पर पहुंच सकते हैं। यूं तो हमारे देश में हिंदू-मुस्लिमों के अलावा अन्य समुदायों तथा विभिन्न क्षेत्रीयताओं और वर्णों तथा जातियों के बीच भी मारकाट मचती रही है। तमिलनाडु में हिंदी वालों के लिए नफरत फैलायी गई जो वर्षों तक चली, उत्तरपूर्वी प्रांतों में वहां की जनजातियों के बीच लगातार मारकाट होती रही है। मुम्बई में पहले दक्षिण भारतीयों के खिलाफ दंगे किये गए बाद में बिहारियों के लिए नफरत परोसी गई। बंगाल में नक्सलवादियों के खिलाफ कांग्रेस और सीपीएम ने भारी जंग लड़ी। गोरखालैंड का पूरा आंदोलन बंगालियों के विरोध पर केंद्रित रहा। 1984 के हिन्दू-सिख दंगे तो बड़े पैमाने पर चले। कश्मीर में कश्मीरी पंडितों को बेदखल किया गया। दलितों और सवर्णों के बीच भी कई बार मारकाट हुई, शिया-सुन्नी दंगों का भी लम्बा इतिहास है लेकिन भारत में जब भी साम्प्रदायिकता की बात चलती है तो उसका आशय हिन्दू मुस्लिम सम्बंधों में आपसी द्वेष से ही लिया जाता है। यदि साम्प्रदायिक समस्या के समाधान की भी बात की जाती है तो हिन्दू मुस्लिम विरोध को समाप्त करने का ही अर्थ लिया जाता है। असल में भारत में सम्प्रदाय का तात्पर्य हिन्दू मुस्लिम विभाजन से ही है। यह तथ्य ध्यातव्य है कि 1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। इसे राजनीति में घुसाना न चाहिए क्योंकि यह समस्त भारतीय जनों को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें। इतिहास के पन्नों में ऐसे अनगिनत मुस्लिम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम दर्ज हैं जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में हिन्दू स्वातंत्र्य योद्धाओं के साथ मिलकर अपना बहुमूल्य योगदान दिया। अंग्रेजों के खिलाफ भारत के संघर्ष में अनेकों मुस्लिम क्रांतिकारियों, कवियों और लेखकों का योगदान उल्लेखनीय है। तितु मीर ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह किया था। मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद, हकीम अजमल खान और रफी अहमद किदवई भी इस संघर्ष में शामिल थे। शाहजहांपुर के अशफाक उल्ला खान ने काकोरी (लखनऊ) पर ब्रिटिश राजकोष को लूटने की योजना बनाई थी। भोपाल के बरकतुल्लाह गदर पार्टी के संस्थापकों में से एक थे जिसने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था। गदर पार्टी के सैयद शाह रहमत ने फ्रांस में एक भूमिगत क्रांतिकारी रूप में काम किया और 1915 में असफल गदर (विद्रोह) में उनकी भूमिका के लिए उन्हें फांसी की सजा दी गई। फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) के अली अहमद सिद्दीकी ने जौनपुर के सैयद मुज़तबा हुसैन के साथ मलाया और बर्मा में भारतीय विद्रोह की योजना बनाई और 1917 में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। केरल के अब्दुल वक्कोम खदिर ने 1942 के 'भारत छोड़ो' में भाग लिया और 1942 में उन्हें फांसी की सजा दी गई थी। उमर सुभानी जो कि बंबई के एक करोड़पति उद्योगपति थे, उन्होंने गांधी और कांग्रेस स्वतंत्रता संघर्ष के लिए धन प्रदान किया था और अंतत: स्वतंत्रता आंदोलन में अपने को कुर्बान कर दिया। मुसलमान महिलाओं में हजरत महल, असगरी बेगम, बाई अम्मा ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतंत्रता के संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया। खान अब्दुल गफ्फार खान (सीमांत गांधी के रूप में प्रसिद्ध) एक महान राष्ट्रवादी थे जिन्होंने अपने 95 वर्ष के जीवन में से 45 वर्ष जेल में बिताये। अफसोस आज हमें अपने शहीदों की कुर्बानी बिलकुल भी याद नहीं आती है...! 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का प्रचार शुरू किया। इसके असर से 1924 में कोहाट में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। इसके बाद राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली। इन्हें समाप्त करने की जरूरत को सबने महसूस की, कांग्रेसी नेताओं ने हिन्दू-मुस्लिम नेताओं में सुलहनामा लिखाकर दंगों को रोकने के प्रयत्न किये। हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य के पीछे शुरू में अंग्रेजों की सोची समझी रणनीति थी सो उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटने का काम शिक्षा और संस्कृति के उपयोग में सम्पन्न किया। अंग्रेज दूरदर्शी थे वे अपने खिलाफ भारतीयों की बदले की भावना का शमन करना चाहते थे सो उन्होंने यह विष बीज रोप दिया। इसी रणनीति से कट्टर हिंदूवादियों ने भी अपनी कारगुजारियां तेज कर दीं और कालांतर भारतीय शासकों को भी इसी में अपना हित नजर आया।
भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन ने सांप्रदायिक दंगों पर अपने विचार प्रस्तुत किये थे। यह इस समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों का सार है जो जून, 1928 के 'किरती' में छपा था उसके कुछ अंश यहां उद्धृत हैं।
'इन धर्मों ने हिन्दुस्तानन का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारत वर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन 'धर्मजनों' पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है। यहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो 'समान राष्ट्रीयता' और 'स्वराज्य-स्वराज्य' के दम मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है। दूसरे लोग जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो। अखबारों का असली कत्र्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कत्र्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि 'भारत का बनेगा क्या?' जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहां थे वे दिन की स्वतन्त्रता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहां आज यह दिन आ गया है कि स्वराज्य एक सपना मात्र बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियां दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पडऩे पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये।' हमारे यहां कोई ऐसा कानून नहीं है जो किसी घटना के घटने से पहले उसे रोकता हो या दंडित करता हो। यहां घटना हो जाने पर ही कानून काम करना प्रारम्भ करता है।
दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को बहुत छोटी धन राशि देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस नहीं लेना चाहिए। लोगों को परस्पर लडऩे से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहां भी ऐसी ही स्थितियां थीं वहां भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूतम पैजर करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहां श्रमिक शासन हुआ, वहां नक्शा ही बदल गया। फिर वहां कभी दंगे नहीं हुए।
धर्म, जाति और लिंग सम्बंधी श्रेष्ठता की मानसिकता भी बहुत कुछ हमारी साम्प्रदायिक भावना को उभारने के लिए उत्तरदायी है। श्रेष्ठता की मानसिकता दूसरे के महत्व को स्वीकार करने की गुंजाइश समाप्त कर देती है और जब तथाकथित श्रेष्ठ तबके के अंह को कहीं ठेस पहुंचती है तो वह साम्प्रदायिकता पर उतर आता है। यह एक सामंती मनोवृत्ति है जो समानता की भावना के विपरीत है। कई धर्म हैं। समकालीन दुनिया में ये सब समानान्तर सक्रिय हैं। इन सब में स्वर्ग की कल्पना समान रूप से मौजूद है। बौद्ध धर्म को छोड़कर लगभग सब में ईश्वर की धारणा भी मौजूद है। लेकिन ईश्वर देवी-देवता और कर्म-काण्ड की धारणाएं तथा विधियां सबकी अलग-अलग हैं। ये धर्म जिन भौगोलिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों से जन्मे हैं, उनसे प्रतिमाएं, कल्पनाएं, मूल्य, विश्वास और रीति-रिवाज लेकर आए हैं। उदाहरण के लिए विश्व की उत्पत्ति से सम्बन्धित धारणा को लीजिए। वेदों में उत्पत्ति की कई धारणाएं हैं। कहीं जल को मूल्य तत्व माना गया। कहीं अण्ड को और कहीं ब्रह्म या फिर आत्मा को। पौराणिक काल में उपनिषदों वाले निराकार ब्रह्म की जगह निश्चित रूप-रेखा वाले ब्रह्मा विश्व के जनक बन जाते हैं। बुद्ध के अनुसार संसार की उत्पत्ति अविद्या से हुई। बाइबिल में ईश्वर ने गिन कर सात दिनों में सारे विश्व की रचना की। यह एक उदाहरण इस तथ्य का प्रमाण देने के लिए काफी है कि सारे धर्म, धारणाओं, विश्वासों और कर्म-काण्डों का अलग ढांचा रखते हैं और एक ही धर्म के भिन्न सम्प्रदाय परस्पर काफी भेद रखते हैं। ये अनुभव, बुद्धि और प्रयोग की इजाजत नहीं देते कि इनकी धारणाओं की जांच की जाए और विज्ञान की तरह किसी सार्वभौम निष्कर्ष पर पहुंचा जाए। ये अपने अनुयायियों से अपने-अपने मत को उसी रूप में स्वीकार करने का आग्रह करते हैं। तब स्वाभाविक है कि एक धर्म दूसरे धर्म की भिन्न धारणाओं के प्रति सन्देह, उपेक्षा और निषेध का रुख अपनाएगा। इस तरह धर्म परस्पर एकांगीपन, संकीर्णता और इस हद तक साम्प्रदायिकता का दृष्टिकोण बनाए रखते हैं।'
स्वर्गीय कवि गोरख पांडे के अनुसार 'धर्म हजारों साल से वर्गों और वर्णों में विभाजित समाज के आध्यात्मिक कवच का काम करता आ रहा है। अभाव, दुख और पराधीनता की शिका आम जनता के लिए वह आशा का केन्द्र-बिन्दु रहा है। जब तमाम श्रम करने के बावजूद जनता इस समाज में सुख और मुक्ति का कोई उपाय नहीं देखती और विरोधी प्राकृतिक तथा सामाजिक शक्तियों के सामने असहाय महसूस करती है, तब एक ऐसे लोक की कल्पना करने और उसमें रमने के लिए मजबूर होती है, जहां सुख और स्वतन्त्रता की अतिरंजित सम्भावनाएँ मौजूद हों। असहाय आदमी की सारी वंचित इच्छाएं, सारी उम्मीदें, सारे सपने धार्मिक चेतना में केन्द्रित हो उठते हैं। इस चेतना पर किसी तरह का प्रहार जीवन की सारी वांछित इच्छाओं, उम्मीदों, विश्वासों और सपनों के केन्द्र बिन्दु  पर, और इस तरह समूचे जीवन पर ही, प्रहार लगता है। यह स्थिति भारी उत्तेजना और आवेश पैदा करने के लिए काफी होती है। अब अगर किसी समुदाय की धार्मिक भावना को दूसरे समुदाय के खिलाफ प्रेरित करते हुए कहा जाए कि यह तुम्हारी इच्छाओं, उम्मीदों, विश्वासों और सपनों के केन्द्र पर हमला कर रहा है तो उस समुदाय को, और इस तर्क के आधार पर दोनों समुदायों को, भावनात्मक उत्तेजना और उन्माद की उस स्थिति तक ले जाया जा सकता है, जहां उसे जीवन के मूल भौतिक रूप का संहार करने वाले दंगे में बदला जा सके।'
वरिष्ठ आई पी एस एवं पूर्व कुलपति महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, विभूति नारायण राय के अनुसार 'साम्प्रदायिक दंगों के बारे में सोचते समय भारत में बहुसंख्यक समुदाय तथ्यों को ओझल किये रहता है और उनका मन दो पूर्वाग्रहों  में ग्रस्त रहता है। औसत हिन्दू यह मान कर चलता है कि दंगों की शुरूआत मुसलमान करते हैं और उनमें मरने वालों में ज्यादा हिन्दू होते हैं। दंगों की शुरूआत के बारे में बहस की गुंजायश है लेकिन मरने वालों की तादाद के बारे में तो कतई नहीं। मरने वालों में न सिर्फ मुसलमानों की संख्या लगभग हर दंगे में ज्यादा होती है, बल्कि आधे से ज्यादा दंगों में तो यह संख्या 90 प्रतिशत से भी अधिक होती है। दंगों की शुरूआत वाले मुद्दे पर बात करने के पहले हम मरने वालों की संख्या की पड़ताल करेंगे।'
1960 के बाद हमारे देश में जो साम्प्रदायिक दंगे हुये हैं, उनका चरित्र सन् 47 के आसपास हुए विभाजन से सम्बन्धित दंगों के चरित्र से भिन्न हैं। 1960 तक विभाजन से उत्पन्न कारण लगभग समाप्त हो चुके थे और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से भागकर आने वाले हिन्दुओं के मुंह से सुनी हुई ज्यादतियों की प्रतिक्रिया में होने वाले कुछ दंगों को छोड़ दें तो लगभग अधिकतर दंगों के कारण विभाजन की स्मृति से एकदम परे हटकर थे। ये विभाजन के फौरन बाद क्षीण हुये मुस्लिम और हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों के पुर्नसंगठित होने और राजनीतिक हितों के लिये दंगे कराने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण ही हुये। सरकारी आंकड़ों से यह प्रकट होता है कि सभी दंगों में मारे गये लोगों में तीन चौथाई मुसलमान होते हैं, नष्ट हुयी सम्पत्ति में भी लगभग 75 प्रतिशत मुसलमानों की होती है। यही नहीं दंगों के लिये गिरफ्तार किये जाने वाले लोगों में भी मुसलमानों की ही संख्या ज्यादा होती है - अविश्वसनीय हद तक ज्यादा। आइए, हम बड़े-बड़े पांच-छ: दंगों में मारे गए लोगों की संख्या की पड़ताल करें। 1960 के बाद का सबसे बड़ा दंगा अहमदाबाद में हुआ। राज्य सरकार ने न्यायमूर्ति जगमोहन रेड्डी के जांच आयोग को अहमदाबाद के दंगों के बारे में जो आंकड़े दिये, उनके मुताबिक इस दंगे में 6742 मकान, दुकान जलाई गयीं। इनमें सिर्फ 671 हिन्दुओं की थीं बाकी 6071 मुसलमानों की। नष्ट हुई कुल सम्पत्ति का मूल्य 42324068 रु. था, जिसमें हिन्दू सम्पत्ति 7585845 रु. की थी तो मुस्लिम सम्पत्ति 34738224 रु. की। 512 मृतकों में 24 हिन्दू थे तो 413 मुसलमान बाकी 75 की शिनाख्त नहीं हो सकी। इसके बाद का सबसे बड़ा दंगा 1970 में भिवंडी में हुआ। इसमें 78 लोग मारे गये इनमें 17 हिन्दू थे तो 59 मुसलमान, बाकी दो की शिनाख्त नहीं हो सकी। भिवंडी दंगे की जांच के लिए नियुक्त न्यायमूर्ति डी.वी. मेनन जांच आयोग के सामने जो बयान दिये गये, उनसे यह प्रकट हुआ कि इस दंगे में 6 मुसलमान औरतों के साथ बलात्कार हुआ जबकि एक भी हिन्दू औरत बलात्कार की शिकार नहीं हुयी। भिवंडी के दंगों के परिणामस्वरूप हुये जलगांव के दंगे में 43 लोग मारे गये, जिनमें एक हिन्दू था, बाकी के 42 मुसलमान, नष्ट हुयी कुल सम्पत्ति में 3390977 रु. मूल्य की सम्पत्ति मुसलमानों की थी तो सिर्फ 83725 रु. मूल्य की हिन्दुओं की। 1967 में रांची-हटिया और नौशेरा में हुये दंगों में मृतकों की कुल संख्या 184 थी। जिनमें 164 मुसलमान थे तो 19 हिन्दू, एक की शिनाख्त नहीं हो सकी। उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर हम देखते हैं कि ये सारे के सारे दंगे कांग्रेस के शासनकाल में हुए और हम उन्हें सेक्युलर दल के रूप में मान्यता प्रदान कर रहे हैं। जाहिद खान यदि इस समस्या का आकलन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में कर सकते तो अधिक महत्वपूर्ण होता। लेकिन चूंकि ये फौरी रिपोर्ताज हैं जो समाचार पत्रों के एडिट पेज के लिए लिखे गए हैं इसलिए शायद उन्होंने विस्तार में जाना जरूरी नहीं समझा।
'लेकिन बहुसंख्यक समुदाय की यह धारणा कि दंगों में मरने वालों में अधिकतर हिन्दू होते हैं, इतनी गहरी है कि तमाम सरकारी आंकड़ों के बावजूद औसत हिन्दू इस बात को नहीं मानेगा कि वास्तव में दंगों में हिन्दू ज्यादा आक्रामक होते हैं। इस न मानने की बात को अगर गहराई से देखा जाय तो पता चलेगा कि इसके पीछे बचपन की धारणाएं काम करतीं हैं। बचपन से हर हिन्दू घर में बच्चे को यह सिखाया जाता है कि मुसलमान क्रूर होते हैं और वे किसी की भी जान लेने में नहीं हिचकते। इसके विपरीत हिन्दू तो बड़े कोमल हृदय का होता है और उसके लिये चींटी की भी जान लेना मुश्किल होता है। अक्सर आपको यह कहते हुये कोई हिन्दू मिलेगा कि अरे साहब! हिन्दू घर में तो आपको सब्जी काटने की छूरी के अलावा कोई हथियार नहीं मिलेगा। यह हिन्दू प्रकारान्तर से यह मानता और कह रहा होता है कि आमतौर पर मुसलमान अपने घरों में हथियारों का जखीरा रखते हैं।'
गुजरात में सन 2002 का अभूतपूर्व सांप्रदायिक नरसंहार या अभी हाल में मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों की भी कमोबेश यही कहानी है। एक औसत हिन्दू की मानसिकता यह बना दी गई है कि मुसलमान पाकिस्तान लेकर अपने हिस्से का भाग ले चुके हैं अब उन्हें भारत में रहने का कोई अधिकार नहीं है। और यदि रहना है जो उनके अधीन होकर रहें। हमारे इस साम्प्रदायिक जुनून के लिए बहुत कुछ कानूनी व्यवस्था का अभाव, विधायिका और संवैधानिक निष्क्रियता भी दोषी है। हमारा संविधान तो निष्क्रिय इसलिए हो रहा है क्योंकि वह 50-60 साल से ऐसे हाथों में ही रहा है जो साम्प्रदायिकता को उत्प्रेरक के रूप में प्रयोग करने वाले थे और आज भी यही स्थिति है। यहां तक कि आज हमारी पूरी की पूरी राजनीति ही साम्प्रदायिकता के इर्द गिर्द घूमती नजर आती है। समाजवादी और वामपंथी भी साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, गरीबी एवं साधनहीनता और बेरोजगारी की बात न करके पिछले छह दशकों से सत्ता पर काबिज रही पार्टी की विचार पद्धति को अपना चुके हैं। उनके लिए अब साम्प्रदायिकता ही देश की मूल समस्या है बाकी सब गौण। अब इसे क्या कहा जाये कि सब के सब साम्प्रदायिकता की मशाल लेकर मैदान में हों और यह न महसूस कर सकें कि ऐसे कार्यों से साम्प्रदायिकता कम नहीं होती बल्कि बढ़ती ही है। दुर्भाग्य से हमारे कुछ बुद्धिवादियों के पास साम्प्रदायिकता एक ऐसा ब्रांड है जिसे वे कभी भी और कहीं भी भुना सकते हैं। साम्प्रदायिकता पर उनका विशद अध्ययन है कि अब उनसे को$फ्त होने लगी है। क्योंकि पूरे भारतीय समाज की हर समस्या को वे साम्प्रदायिकता से कमतर आंकते हैं। यह भी कोई अच्छी स्थिति नहीं है। एक बार हमारे अग्रज कथाकार स्वयंप्रकाश की एक कहानी पढ़कर यह टिप्पणी कर दी थी कि कुछ लोगों को भारत में साम्प्रदायिकता के अतिरिक्त कोई और समस्या ही नहीं दिखती जिससे वे इतने उद्वेलित हो गए कि मेरे खिलाफ एक पत्रिका में तीखी टिप्पणी तो की ही जो कोई विशेष बात नहीं थी पर आज तक वे मुझसे खफा हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम अपनी आलोचना नहीं सुन सकते। यह भी हम जानते हैं कि भारत की संघीय सरकार ने पिछले छह दशकों में साम्प्रदायिक सौहार्द को बचाने के बजाय इसकी खाई को अधिक चौड़ा ही किया है। संविधान में स्पष्ट लिखा गया है कि किसी भी धार्मिक संगठन को सांस्कृतिक और शैक्षणिक कार्यों के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता उभारने की अनुमति नहीं दी जायगी। पर हम बराबर देखते रहे हैं कि साम्प्रदायिकता हमेशा ही उभारी गयी है और संविधान को ताक पर रख दिया गया है। यहां राजनीतिज्ञों ने अल्पसंख्यक समुदाय को सदैव वोट बैंक के रूप में देखा है। उनमें सामाजिक बोध और वैज्ञानिक चेतना को विकसित न करके नितांत रूढि़वादी और संकीर्णता के दायरे में कैद रहने देने में ही अपने स्वार्थ की पूर्ति की है। हिंदुओं में भी अल्पसंख्यकों को अधिक तरजीह देने के प्रतिक्रियास्वरूप वैमनस्य उभरा है। धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर राजनैतिक पार्टियों बनाई गई हैं। क्या इन क्रिया कलापों में साम्प्रदायिकता को मिटाया जा सकता है? जाहिद खान की पुस्तक से इन सवालों के जवाब भी अपेक्षित थे। इस किताब का शीर्षक 'संघ का हिन्दुस्तान' दुविधा में डालने वाला है। प्रथमदृष्टया यह आभास होता है कि क्या हिंदुस्तान संघ का भर है या हम उन्हें सौंप दे रहे हैं यह भ्रान्ति इस शीर्षक से होती है। यह संघ के इरादों का हिंदुस्तान हो सकता है उनके दिवा स्वप्नों का भी हो सकता है लेकिन यदि हम इस तरह उसे घोषित कर रहे हैं तो यह हमारा पाराभव है जो कदापि सच नहीं है। ऐसे अस्पष्ट और भ्रम पैदा करने वाले वाक्यों से बचा जाना चाहिए। बहरहाल जाहिद खान का यह प्रयास स्वागत योग्य है।

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