किराये का घर
किराये का घर बदलते हुए सफाई हो जाती है उन चीज़ों की भी पता नहीं होता जिनके बारे कि अभी हैं
मध्यवर्ग की मजबूरियां...
पुराने दोस्तों के छूटने का मलाल नए दोस्तों से मिलने की झिझक घर - दर - घर मोहल्ला - दर - मोहल्ला हमारी सोहबत में हमारे जैसा हो जाता है वो घर घर नहीं होता पिता की मजबूरियों का मुख्यालय होता है
आत्मविश्वास का आना बैन होता है जिसमें मलकीयत वाले पड़ोसियों से बनाकर रखनी पड़ती है
बचपन के टुकड़े कई मोहल्ले बांट लेते हैं आपस में
बिना किराया दिये रहता है जिसमें मकान मालिक का डर किरायेदार का विशेषण और नया महीना चढऩे का दु:ख
किराये का घर देह होती है, मोह होता है एक दिन छोडऩा पड़ता है।
मेरी दरखास्त है
जिन्हें अपने लॉन में लगी नरम घास पर चलना है मेरी दरखास्त है वो हमारे साथ ना चलें उनकी मुलायम एडिय़ां हमारी पत्थरीली राहों का रोड़ा हैं।
वो ढ़ोंग ना करें साथी होने का हमदर्दी का बोझ ना उठायें अपनी कोई राय ना बनायें दिमागी धुंधलके में जीते जायें कोहलू का बैल कहलवायें टाई लगाकर या ना लगाकर सरकारी मशीनरी के पुर्ज़े बन जायें या किसी पूंजीपति की रखैल मेरी दरखास्त है वो हमारे साथ ना आयें।
हमारे सपने हमारे हथियार हैं।
हमारे सपने उनकी सामंती सोच में सुराख कर देंगे निकम्मेपन और आलस और लुच्चे से लालच को राख कर देंगे
नेता का बेटा नेता अभिनेता का अभिनेता थूकते हैं हम इस गद्दीनशीनी पर काबलियत के खिलाफ होती साजिशों पर देश को गिरवी रखने की कोशिशों पर हरामखोरो देश अरदली नहीं जो तुम्हारे बच्चों का पखाना धोएगा
मेरी दरखास्त है सालो अपने घर की गंदगी समाज के आंगन में मत डालो अपने चमचे ना भेजो हमारे साथ वो नहीं चल सकेंगे नरम घास पर चलने वाले..।।।
लहसुन की महक
मेरी नींद जल रही थी अंधेरी रात में तुम्हारी बातों से शिकवे, गरीब की छत की तरह टपक रहे थे
कांच की खिडकियों पर दस्तक देती बरसात हवा में ठंडक भर रही थी तुम्हारी बातों में दर्द की तरह मैं खोया हुआ था गुज़रे सालों की तलाश में जो कांच की खिड़कियों से धूल की तरह साफ हो चुके थे कहीं खो चुके थे
उन खोये हुए सालों का सुराग तुम्हारे हाथों से आ रही लहसुन की महक में था तवे पे जली उँगलियों में था या उस चाँद में जो तेल के छींटे ने तुम्हारे हाथ पे बनाया था
न मैं हाथ पकड़ पाया न उँगलियों की जलन मिटा सका न हाथ से चाँद हटा सका
लहसुन की महक ने जो दिखाया उस रास्ते में पहाड़ था
बुजुर्ग सही कहते थे आसान होता है पहाड़ पर रास्ता बनाना।
जेबकतरे
हर नुक्कड़ हर मोड़ पर खड़े रहते हैं झांकते हुए हमारी जेब में
हम सोचते हैं हम देख रहे हैं दरअसल देख वो रहे होते हैं हमारी अर्थव्यवस्था तहस-नहस करने की ताक में प्रलोभन भरा लहजा लिये फुसला लेते हैं हमारे बीवी बच्चों को खड़ा कर देते हैं हमारे खिलाफ
सोच में सेंध लगा रहे हैं ये जेब काटते हुये काट रहे हैं हमारी सुरक्षा सुरक्षा में छुपी बेफिक्री बेफिक्री से प्राप्त लम्बी उम्र लम्बी उम्र का कारण स्वास्थ्य स्वास्थ्य का आधार सकून सकून में सेंध लगा रहे हैं
टीवी से टपक पड़ते हैं रेडियो से रिसते हैं चालाक जुमलो से हमें मूर्ख बनाते हैं और उकसाते हैं हमें मूर्खता पे फखर करने को
ये विज्ञापन खुद को नहीं बेचते हमें खरीदते हैं।
जाति
खुश्बू की जाति रंग जानते हैं रंगों की जाति ललारी ललारी की जाति कपड़ा जानता है कपड़े की जाति कपास कपास की खेत जानता है
खेत की किसान किसान की जाति बनिया जानता है बनिये की पैसा पैसे की लालच
लालच की जाति जानती है मेहनत मेहनत की जाति पसीना जानता है पसीने की माथा माथे की जाति सजदा जानता है सजदे की जाति चौखट चौखट की कोई जाति नहीं।
समाज
लाख दरवाज़े कडिय़ां लगा लो वो आ ही जाता है भीतर शक्लें बदलता हुआ हालांकि न कोई शक्ल है न शख्सियत समाज की।
पता नहीं भूतिया साया है या 'भ' की जगह 'च' है जो भी है जी का जंजाल है मगर की मोटी खाल है बेतुके जवाब का बेहुदा सवाल है।
मेरे खून से खुद को सींचता है आंखें दिखाऊं तो दांत भींचता है प्रश्नविहीन और अर्थहीन दिमाग में लकीरें खींचता है।
इसके नज़रिये इसकी बातें इसकी राय इसके सवाल सब स्वार्थ कि आड़ में ... जाये भाड़ में।
किसी का नहीं सबका है लेकिन नाम को हमें हम नहीं रहने देता जब थाम लेता है हमारी लगाम को।
चोर के पाओं लम्बे होते हैं कानून के हाथ झूठ की जबान
समाज की उंगली।
उदासी की शराब
उदास रहकर ही कवितायें क्यों लिखी जाती हैं अकेलापन क्यों जन्म लेता है कवि के साथ जीवन क्यों समझ आता है ज़्यादा रुलाई में
क्या खुशी किसी धुंध का नाम है?
उदासी की शराब में विचार का पानी रगों में लहू कानून से भागा मुजरिम
चैन, भ्रम से परे भी कुछ है क्या? भ्रम होना होने का खुशी उदासी अकेलापन जीवन अपने।
गर्भ में पेड़
वो जिस दुनिया का सपना देखती है मेरे साथ उस दुनिया में ताब ही नहीं हमें साथ देखने की... ये दुनिया सूरज की चाहत में मोम के पंखों से उड़ान भरने वालों की है
सावन पर यकीन नहीं जिन्हें सर्दियों पर विश्वास नहीं पतझड़ का अर्थ नहीं जानते गर्मियों की घाम नहीं खुद से कोई बड़ी आस नहीं...
वो बंजर जमीन पर गुलाब उगायेगी समाज को घर की तरह सजायेगी शरीर से बड़ी बात करेगी वन महोत्सव के दिन एक छायादार
पेड़ गर्भ में लगायेगी
उसे बड़ा करेगी, उसके नीचे बेहतर समाज का संगठन चलायेगी
वो नहीं जानती हर पेड़ की अपनी तकदीर होती हैं सरकारी कर्मी, पत्रकार का मेज़ चूल्हे की लकड़ी या छत का शहतीर होती है
कोई मुर्दे जलाता है कोई मकान कोई कश्मीर या पाकिस्तान ईराक से लीबिया तक खड़ाऊँ से लेकर सिंदूर भरी चन्दन की डिबिया तक हर पेड़ का अपना रंग अपनी तामीर होती है...
मैं जिस दुनिया में हूं ये मरी सोच में नहीं समाती वो धरती की तरह सब सह कर भी ये दुनिया छोड़ नहीं पाती
इरशाद कामिल की प्रसिद्धि फिल्म गीतकार के रुप में ज्यादा है लेकिन इस गीतकार की आत्मा उसकी कविताओं में है। यही वजह है कि तमाम पेशेवर कामयाबी के बावज़ूद कविता लिखने का उनका सिलसिला जारी है। पंजाब विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान जब शोध करने का व$क्त आया तब भी कविता को ही चुना। समकालीन हिन्दी कविता-समय और समाज एक पुस्तक अब तक प्रकाशित। इरशाद का एक नाटक 'बोलती दीवारें' शीघ्र प्रकाशय। |