पवन करण की कवितायें

  • 160x120
    फरवरी 2014
श्रेणी कवितायें
संस्करण फरवरी 2014
लेखक का नाम पवन करण





म.प्र प्रगतिशील लेखक संघ के वर्कशॉप में उभरे और पहचाने गये पवन करण नौवें दशक के कवि। अनेक संग्रह प्रकाशित। पिछले दिनों गंभीर विवाद में भी आये। पवन करण की प्रारंभिक दौर की विपुल कविताएं 'पहल' में प्रकाशित।

 

 

भारत भवन

भारत के मालिक कोई और हैं जैसे,
भारत भवन के भी मालिक हैं कोई और

जिस तरह वोट देकर कोई
मालिक नहीं हो जाता भारत का
भारत भवन की पेटी में भी डालकर
अच्छा-अच्छा या बुरा-बुरा
आप मालिक नहीं हो सकते इसके

भारत के मालिकों की तरह
भारत भवन के मालिक शुरू से ही
मालिक हैं इसके, आप को लगता होगा
आप भी  हो सकते हैं इसके मालिक

इसके मालिक के अलावा कोई और
नहीं हो सका इसका मालिक अब तक
इससे दूर रहकर भी इसके मालिक
इसके मालिक बने रहे
भारत के मालिक जैसे अपनी छायाएं
छोड़ते जाते हैं अपनी शक्ल में
भारत भवन में भी कुछ शक्लों ने
मालिक की छाया ओढ़ ली खुद पर

छायाएं जो अपनी नाक पर चश्मा चढ़ाये
कृष्ण-पक्ष होते हुए भी, खुद को
शुक्ल-पक्ष बतातीं इसका, इसके
बहिरंग-अंतरंग में मिलेंगी विचरतीं

जिस तरह भारत के गुस्से से
भारत के मालिकों की पहचान नहीं
भारत भवन के मालिकों को भी
भारत भवन की घुटन नहीं सताती

बंबई

चिट्ठी पर पता लिखने के बाद आखिरी में
जब शहर का नाम लिखता हूं
मुझे उसका पुराना नाम याद आता है

शहर जो सदियों इस नाम से उठा सोकर
धड़का लोगों के दिलों में छुप-चुप
तेज-धार सा तमाम आंखों में रहा तल्ख

इच्छाएं और उपेक्षाएं दोनों, कहे-बिना-कहे
निकलीं तो सीधे पहुंचीं किनारे इसके
और नावों की तरह यहीं गयीं ठहर,

इसमें कई जुबाने अब भी जिन्होंने
नहीं लिया आज तक इसका नया नाम
नाम बदलने वाले इसके करते रहे दावा
चप्पे-चप्पे से पुराने नाम को पौंछ देने का
तुतलाते हुए मैंने इसके नाम के साथ पुराने
बिताया अपना बचपन, बात-बात पर
चिल्लाते हुए गुस्से में, हुआ किशोर

कांच के आगे काटते हुए मूंछ से अपनी
सफेद बाल, एक दिन कहा गया मुझसे यह
कि संभालों आज से इसका नया नाम

लडऩा

मुझे उन सबकी खूब याद आती है
जिन्होंने मुझसे कई बार कहा
कि मुझे लडऩा चाहिये

मैं उन सबको कभी भूल नहीं पाता
जो मुझसे हमेशा कहते रहे कि मुझे
लडऩे से डरना नहीं चाहिए

मैं उनसे माफी मांगना चाहता हूं
जिन्होंने मुझसे कहा कि मैं ही
नहीं लड़ूंगा तो फिर कौन लड़ेगा

मैंने उनकी मानी होती
तो मैं भी लड़कर हारा होता

पास

तुम्हारे पास था तो तुम्हारा जूता था
जिसे पहनकर तुम नोकों पर भी
चलने से नहीं हिचकते थे

तुम्हारे पास था तो तुम्हारा चदरा था
जिसके हवाले तुम अपना
पसीना और बदबू करते रहते थे

तुम्हारे पास था तो तुम्हारे घर की
नाली था जिसे तुम अपनी
पेशाब और थूक से भरे रहते थे

जब तक तुम्हारे पास था, तो था
जबसे तुमसे दूर हूं, तो हूं

किंतु

मानने की जगह उनकी बात
जब मेरे मुंह से 'किंतु' निकला
उनसे बरदाश्त नहीं हुआ

उन्होंने अपनी बात दोहराई
इस बार भी जब मेरी जुबान ने
'लेकिन' कहा तो वह
बुरी तरह बौखला गये

गला फाड़कर चिल्लाते हुए
उन्होंने अपनी बात तिहराई
इस बार भी मैं 'मगर' कह सका

गुस्से में उन्होंने जब कहा कि वे सब
हां सुनने के आदी हैं तब भी
मेरे मुंह से 'जी' नहीं निकला

'किंतु', 'लेकिन', 'मगर'
इन छोटे-छोटे शब्दों ने
उनकी हां सुनने की
आदत के सामने मुझे
'हां' 'जी' 'ठीक' तक नहीं बढऩे दिया

गिलोटिन यंत्र

यंत्र होने से पहले वह धातु था
जैसे मकान होने से पहले वह लोहा होता है
धीरे-धीरे वह धड़कने लगता है
चलने लगती है उसकी सांस
गिलोटिन यंत्र के साथ यही हुआ

शुरू-शुरू में तो वह असमंजस में रहा
मगर जैसे-जैसे गर्दनें कटने
लाई जानें लगीं उस पर लगातार
रक्त की चिपचिपाहट करने लगी उसे परेशान

बे-जुबान की भी जुबान होती है
बाद में यह होने लगा
एक चीख गर्दन कटने वाले की निकलती
तो एक उसकी

मगर जब उसे गढऩे वाले
डॉ. गिलोटिन की गर्दन कटने के लिये
उस पर लाई गई उसके मुंह से
चीख की जगह किलकारी फूटी


डॉ. गिलोटिन फ्रांसिसी राज्य क्रांति के बाद के उथल-पुथल के दौर में आरोपों की पड़ताल हेतु त्वरित अदालतों की स्थापना की गई। जिसमें आरोपितों की गर्दन काटने हेतु डॉ. गिलोटिन नामक यंत्र की स्थापना की गई बाद में वही यंत्र डॉ. गिलोटिन की गर्दन काटने के काम आया।

Login