ऋतुराज की कवितायें

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    फरवरी 2014
श्रेणी कवितायें
संस्करण फरवरी 2014
लेखक का नाम ऋतुराज





सामान

वह ट्रेन में चढ़ गया था
उसे उतार लिया गया

उसका सामान दूसरे डिब्बे में था
वह डिब्बा किसी अनजाने स्टेशन पर
कट गया

वह शख्स कहीं और था
उसका सामान कहीं और

उससे कहा गया
घर बैठे
उतनी ही मजदूरी देंगे
और पीने को दारु
बस, मतदान के दिन पहुंच कर
वोट पंजे पर देना है

लौटे नहीं
बालाघाट के मजदूर
दीवाली पहले जो गए थे
हर बरस इसी तरह
होने चाहिए चुनाव

सामान क्या था?
ओढऩे बिछाने की एक सदरी
कुछ टाट-तप्पड़
और दो धोतियां, दो तीन कमीज़ें
पायज़ामा और एक पतीली
जिसमें ठूंस-ठूंस कर भर दिये
सत्तू, चावल, प्याज

चलो, भाई, चलो
तुम्हें ही देते हैं वोट
ठेकेदार को, तो देख लेंगे बाद में
जाना तो पड़ेगा, लेकिन जितनी गरज हमारी है, उसकी भी तो उतनी ही है

ज्ञानीजन

ज्ञान के आतंक में
मेरे घर का अंधेरा
बाहर निकलने से डरता है

ज्ञानीजन हंसते हैं
बंद खिड़कियां देखकर
उधड़े पलस्तर पर बने
अकारण भुतैले चेहरों पर
और सीलन से बजबजाती
सीढिय़ों की रपटन पर

ज्ञान के साथ
जिनके पास आयी है अकूत संपदा
और जो कृपण हैं
मुझ जैसे दूसरों पर दृष्टिपात करने तक
वे अब दर्प से मारते हैं
लात मेरे जंगखाये गिराऊ दरवाज़े पर

''तुम गधे के गधे ही रहे
जिस तरह कपड़े के जूतों
और नीले बंद गले के रुई भरे कोटों में
माओ के अनुयायी...''

सर्वज्ञ, अगुआ
ज्ञानभण्डार के भट्टारक, महा-प्रज्ञ
कटाक्ष करते हैं:

''खुद तो ऐसे ही रहा दीनहीन
लेकिन इसकी स्त्री ने कौनसा अपराध किया
कि मुरझाई नीम चढ़ी गिलोय को
दो बूंद पानी भी नसीब नहीं हुआ।''

रास्ता

बहुत बरस पहले चलना शुरू किया
लेकिन अभी तक घर क्यों नहीं पहुंचा?

शुरु में मां के सामने
या इससे भी पहले
उसकी उंगली अपनी नन्ही
हथेली में भींचे
चलता था
लद्द से गिर पड़ता था

वैसे हरेक शुरूआत
इसी तरह होती है
लेकिन तबसे लेकर अब तक
यानी सत्तर बरस तक
पता नहीं कौनसी दिशा थी
कि चलता रहा चलता रहा
कभी नहीं पहुंचा वहां
जहां पहुंचना था

लोग ऐलानिया तौर पर कहते हैं
कि उन्होंने खुद के लिये
और दूसरों के लिये
सही रास्ता ढूंढ लिया है

कुछ बरसों तक
बहुत जोश और उम्मीद में
चलते हुए दिखाई देते हैं
फिर अचानक
किसी लुभावने केन्द्र की तरफ
मुड़ जाते हैं

कहते हैं, ''ऐसी मूर्खता में
क्या रखा है? सुरक्षा पहले,
फिर मुकाम तक पहुंचेंगे''

समस्या रास्तों द्वारा छले जाने की है
उन भटकावों की है
जो कहीं पहुंचने नहीं देते

मां, घर से चला हुआ
मैं कभी बहुत दूर निकल जाता था
लौटने का रास्ते भूल जाता था
भटकता रहता था
बहुत डरता था
लेकिन अब इतनी पकी उम्र में
तर्क करता हूं,
कि सही दिशा वो नहीं
यह है जिस तरफ भौतिक
व्यवहारवाद, आत्मरक्षा
और निष्कंटक भविष्य
मुझे बुलाते हैं

जानबूझ कर भूल रहा हूं
वह पुराना रास्ता
जो घर को जाता तो है
लेकिन वहां घर नहीं होता

पांवों के निशान

अदृश्य मनुष्यों के पांव छपे हैं
कांक्रीट की सड़क पर

जब सीमेंट-रोडी डाली होंगी
वे नंगे पांव अपार फुर्तीसे
दौड़े होंगे यहां

एक तरफ सात-आठ निशान हैं
तो उल्टी तरफ तीन-चार

पता चलता है कि
कुछ लोग सबसे पहले चले हैं
इस सड़क पर
वे आये हैं, गये हैं, मुकम्मिल तौर पर

लेकिन जहां गये वहां अभी तक
ज़िंदा हैं या मर गये
किसे मालूम?
हल्का-सा गड्ढा बनाते ये निशान,
बरसात में पानी से भर जाते हैं
और चिडिय़ां चली आती हैं
सड़क पर पड़े इन पड़हलों की तरफ

ये वो निशान हैं
जो सड़क के इतिहास में
श्रमिकों की जीवनगाथा का बखान करते हैं

एक निशान, हल्का उभरा, कम गहरा है
शायद किसी कुली स्त्री का
जो सावधानी से चलती हुई
ठेकेदार की झिड़की से डरी, गयी होगी

ऐन सचिव के बंगले के सामने
खुदे ये निशान,
घर की महिलाओं को चौंकाते हैं -

आख़िर, इतने ही निशान क्यों
और बंगले तक आकर
क्यों गायब हैं??

इतनी सारी गाडिय़ों की भागमभाग हैं
लेकिन ये जस-के-तस हैं

क्या रात में इनकी संख्या बढ़ जाती है?

सुबह उठकर गिनती है
सचिव की पत्नी -
वो ही ग्यारह के ग्यारह निशान
और उनमें से एक, कतार से छिटका हुआ

फिर गिनती है अपने लॉन पर
घर के लोगों के पांवों के निशान

लौटना

जीवन के अंतिम दशक में
कोई क्यों नहीं लौटना चाहेगा
परिचित लोगों की परिचित धरती पर

निराशा और थकान ने कहा
जो कुछ इस समय सहजता से उपलब्ध है
उसे स्वीकार करो

बापू ने एक पोस्टकार्ड लिखा,
जमनालालजी को,
आश्वस्त करते हुए कि लौटूंगा ज़रुर
व्यर्थ नहीं जायेगा तुम्हारा स्नेह, तुम्हारा श्रम

पर लौटना कभी-कभी अपने हाथ में नहीं होता

मनुष्य कोई परिंदे नहीं हैं
न हैं समुद्र का ज्वार,
न सूर्य न चन्द्रमा हैं

बुढ़ापे में बसंत तो बिल्कुल नहीं हैं
भले ही सुंदर पतझर लौटता हो
पर है तो पतझर ही

तुमने क्यों कहा कि लौटो अपने प्रेम के कोटर में

नष्टनीड़ था जो
बार बार बनाया हुआ

अस्तित्व के टुटपूंजिएपन में
दूसरों की देखा-देखी बहुत-सी
चीज़ें जुटाई गयीं
उनकी ही तरह बिजली, पानी
तेल, शक्कर आदि के अभाव झेले गये

रास्ते निकाले गये भग्न आशाओं
स्वप्नों, प्रतीक्षाओं में से

कम बोला गया

उनकी ही तरह,
सब छोड़ दिया गया
समय के कंपन और उलटफेर पर

प्रतिरोध नहीं किया गया
बल्कि देशाटन से संतोष किया

क्या कहीं गया हुआ मनुष्य
लौटने पर वही होता है?
क्या जाने और लौटने का समय
एक जैसा होता है?

फिर भी, कसी हुई बैल्ट
और जूते और पसीने से तरबतर
बनियान उतारते समय
कहता हूं-
आख़िर, लौट ही आया।

कोड

भाषा को उलट कर बरतना चाहिए

मैं उन्हें नहीं जानता
यानी मैं उन्हें बखूबी जानता हूं
वे बहुत बड़े और महान लोग हैं
यानी वे बहुत ओछे, पिद्दी
और निकृष्ट कोटि के हैं

कहा कि आपने बहुत प्रासंगिक
और सार्थक लेखन किया है
यानी यह अत्यन्त अप्रासंगिक
और बकवास है

आप जैसा प्रतिबद्ध और उदार
दूसरा कोई नहीं
यानी आप जैसा बेईमान और जातिवादी इस धरती पर
कहीं नहीं

अगर अर्थ मंशा में छिपे होते हैं
तो उल्टा बोलने का अभ्यास
खुद-ब-खुद आशय व्यक्त कर देगा

मुस्कराने में घृणा प्रकट होगी
स्वागत में तिरस्कार

आप चाय में शक्कर नहीं लेते
जानता हूं
यानी आप बहुत ज़हरीले हैं

मैंने आपकी बहुत प्रतीक्षा की
यानी आपके दुर्घटनाग्रस्त होने की खबर का
इन्तज़ार किया

वह बहुत कत्र्तव्यनिष्ठ है
यानी बहुत चापलूस और कामचोर है
वह देश और समाज की
चिंता करता है
यानी अपनी संतानों का भविष्य सुनहरा
बनाना चाहता है

हमारी भाषा की शिष्टता में
छिपे होते हैं
अनेक हिंसक रुप

विपरीत अर्थ छानने के लिये
और अधिक सुशिक्षित होना होगा

इतना सभ्य और शिक्षित
कि शत्रु को पता तो चले
कि यह मीठी मार है
लेकिन वह उसका प्रतिवाद न कर सके
सिर्फ कहे, आभारी हूं,
धन्यवाद!!

फलक

खेत को देखना
किसी बड़े कलाकार के चित्र को
देखने जैसा है

विशाल काली पृष्ठभूमि
जिस पर हरी धारियाँ
मानो सावन में धरती ने
ओढ़ा हो लहरिया

फलक ही फलक तो है सारा जहान
ऊपर नीला उजला
विरुप में भी तरह तरह के
पैटर्न रचता
सूरज तक से छेडख़ानी करता

फलक है स्याह-सफेद
रुकी हुई फ़िल्म जैसा
शहर के समूचे परिदृश्य में
एक कैनवास है रंगीन
धुले भीगे शिल्प का
और सारे प्राणी उनका यातायात
बिंदुओं के सिमटने फैलने का
बेचैन वृत्ताकार है

फलक हैं वृक्षों के
आकाश छूते छत्र

वे चिडिय़ाँ जो खामोशी से
दूसरी चिडिय़ों को उड़ता देख रही हैं

गोकि दूर झील का झिलमिलाता
पानी और यथास्थित धुंध
इस विराट फ्रेम को बांधता है
लेकिन जो उस किसान ने
सोयाबीन में रचा है
बाहर फूटा पड़ रहा है

कहता है
जब तक रुप गतिशील नहीं होता
जब तक रंग खुद-ब-खुद
रुपाकार नहीं बनता
जब तक उपयोगिता सिद्ध नहीं होती
किसी सृष्टि की
तब तक आशा और प्रतीक्षा में
ठहरा रहेगा समय

अस्तित्व की निरपेक्षता में
वह भी एक फलक ही तो है



पहल सम्मान से सम्मानित

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