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जून-जुलाई 2015

...वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है!

जितेन्द्र भाटिया

इक्सीसवीं सदी की लड़ाइयां






देख तो दिल के जां से उठता है
ये धुंआ सा कहां से उठता है?
दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र के गलियारों में आजकल मीर की पंक्तियों का यह पुरअसरार धुंआ किसी दमघोंटू बोझ की शक्ल में हर तरह उतरता दिखाई देने लगा है। आज हम दुनिया के सबसे बड़े ही नहीं, बल्कि सबसे असहिष्णु जनतंत्र का भी खिताब पहनने पर आमादा है। कट्टर धार्मिक मान्यताओं के क्रमश: संकुचित होते घेरे तले धर्मनिरपेक्षता का पारंपरिक दावा किसी भद्दे मज़ाद जैसा प्रतीत होने लगा है। सच यह है कि संविधान में आश्वासित वैयक्तिक अभिव्यक्ति और उसकी स्वतंत्रता के मौलिक मुद्दे अब खुली चर्चा का विषय तक नहीं रहे। सरे-बाज़ार बुद्धिमानों ने हल्लागाडिय़ों के आने के अंदेशे में वक्त से पहले ही शटर गिरा दिए हैं और हाशिये पर खड़ा आम नागरिक अबूझ, आशंकित और रहीम की तरह अंतर्मुखी दिखाई देने लगा है कि क्या पता कब, कहां, कौनसी चीज़ किसकी बर्दाश्त के बाहर चली जाए!
पावस देखिए रहीम मन, कोयल साधी मौन
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन!
दिवाली के मौके पर अपने शहर लौटने पर मैंने पाया कि स्थानीय व्यापारियों के सहयोग से राजा पार्क के चमचमाते बाज़ार का हर चौराहा गौरक्षा वालों ने घेर लिया है। मुख्य चौराहे पर तो दीपावली की शाम से पूरी रात बाकायदा एक अदद धुली-पुंछी बेचारी गाय और उसके मासूम बछड़े को एक कटघरे में बांधकर पूजा और नुमाइश के लिये भी रख दिया गया था। झांकी की शक्ल में किए जाने वाले इस शक्ति प्रदर्शन का निहितार्थ समझना थोड़ा मुश्किल था, लेकिन अगले दिन जब पूरे शहर की दीवारें 'गौ हत्या करने वालों को फाँसी पर चढ़ाओ!' के खौफनाक नारों से पटी मिली थीं तो मामला पूरी तरह सुलझकर सामने आ गया था।
चर्च के हमलों, शहर-द-शहर 'घर-वापसी' के अनुष्ठानों, 'प्रेम-जेहाद' की आलोचना, मदर टेरेसा के धर्म-परिवर्तन के अंदरूनी उद्देश्य, गिरिजाघरों पर हुए हमले, हाल ही में वयोवृद्ध 'नन' के साथ हुए बलात्कार और इनसे भी ऊपर-इन सारो विषयों पर सत्ताधारी पक्ष की मानीखेज़ खामोशी का निहितार्थ क्या है, यह तमाम लोगों के साथ-साथ शहर के निष्कासित घेट्टों में रहने वाले खामोश अल्पसंख्यकों को भी सहज ही समझ में आने लगा होगा। सत्तादारी बहुसंख्यक संस्कृति का यह खुला प्रदर्शन आने वाले भविष्य में किन अच्छे दिनों की ओर इशारा कर रहा है, यह भी अब तेज़ी से स्पष्ट होता जा रहा है। और लोगों को यह मालूम है कि इस बार दीवारों पर दिखाई देने वाले ये पोस्टर किसी अनाम बाबा का स्टंट या जयगुरूदेव द्वारा जुनून में जारी की गयी कोई गीदड़-भभकी भर नहीं है। बल्कि इनका सीधा संबंध एक अलिखित धार्मिक-सांस्कृतिक एजेंडे से है जो आने वाले दिनों में अल्पसंख्यकों के साथ-साथ देश के तमाम बुद्धिजीवियों के सोचने के ढंग और इस देश की पारंपरिक बहु-सांस्कृतिक पहचान को हमेशा के लिए बदल सकता है।
महाराष्ट्र राज्य ने हाल ही में राष्ट्रपति के अनुमोदन से गौहत्या और वधस्थल पर मवेशियों (मुखर रूप से सांडों और बैलों) के काटे जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है (गायों के काटे जाने पर यह प्रतिबंध पहले से था)। इस प्रतिबंध को कुछ और सख्त बनाते हुए राज्य सरकार ने चरस और गांजे की तरह गोमांस रखने या इसके खाने को भी अवैध घोषित कर दिया है, जिसके चलते अब महाराष्ट्र में गोमांस खाने या इसके साथ पाए जाने पर आपको जुर्माने के साथ-साथ पांच साल तक की सज़ा हो सकती है। ज़ाहिर है कि जिन जातियों में सांस्कृतिक और आर्थिक कारणों से गोमांस या 'बड़े मांस' खाने का प्रचलन सदियों से चला आ रहा है, उन्हें अब मजबूरन अपने आहार में प्रोटीन के इस सस्ते स्रोत से वंचित रहना होगा। इस कदम को सांप्रदायिक रंग से दूर रखने के बाद भी यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि इस नए कानून का सबसे अधिक खामियाज़ा अल्पसंख्यक वर्ग की कौनसी जातियां भुगतेंगी। दृष्टव्य यह भी है कि इस कानून के पास होने के बाद ही इसके कार्यान्वन की सीधी जिम्मेदारी पुलिस से भी अधिक विश्व हिंदू परिषद के उत्साही कंधों पर आना पड़ी है। इसके कार्यकर्ताओं ने कानून पास होते ही मुंबई के सभी बूचडख़ानों का कामकाज एक सिरे से ठप्प करवा दिया। वि.हिं.प. की केंद्रीय कार्यकारणी के सदस्य व्यंकटेश अब्देओ ने मुंबई में ज़ोर-शोर से कहा कि ''हमने पुलिस के खिलाफ भी शिकायतें दर्ज़ की हैं और हम कृतसंकल्प हैं कि इस कानून का किसी भी तरह से कोई उल्लंघन न होने पाए!'' ज़ाहिर है कि यह प्रतिबंध केवल एक आर्थिक फैसला नहीं है, बल्कि इसके कई सांस्कृतिक और धार्मिक पहलू भी हैं और अगर वि.हि.प. जैसी संस्थाएं अपनी 50 वीं जयंती के अवसर पर इस मुद्दे के साथ अखाड़े में उतरती दिखाई देती हैं तो इसके सीधे और स्पष्ट कारण हैं।
उधर दूसरी ओर महाराष्ट्र की अदालतों में इस कानून के खिलाफ कई याचिकाएं दर्ज़ की गयी हैं, जिनमें इस कानून को संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन बताया गया है। गोमांस व्यापारी संघ के अब्दुल कुरैशी खिन्न भाव से कहते हैं कि यह हमारे पूर्वजों का खानदानी पेशा था, अब हम क्या करेंगे, कहां जाएंगे? एक तीसरे आयाम पर किसानों की संस्था 'शेतकारी संघटना' ने इस कानून का विरोध करते हुए कहा कि खेती पहले से ही कम लाभदायक होती जा रही है, इस नए कानून से अब बूढ़े और बीमार जानवरों को पालने का अतिरिक्त बोझ भी उनके कंधों पर आ जाएगा।
महाराष्ट्र में गोमांस पर प्रतिबंध लगाने की तीखी प्रतिक्रियाएं पूरे देश से सुनने को मिलीं। चेन्नै में उच्च न्यायालय के वकीलों और प्रगतिशील वकील संघ के सदस्यों ने अदालत के बाहर केले के पत्तों पर गोमांस से बने व्यंजन बनाकर खाए और महाराष्ट्र की सरकार के विरुद्ध जमकर नारे लगाए। ऐडवोकेट रवींद्रन ने कहा कि ''गोमांस गरीब आदमी का भोजन है और यह प्रतिबंध सिद्ध करता है कि इस सरकार को समाज के सबसे निचले तबके की कोई परवाह नहीं है!'' कोलकाता से तृणमूल नेता डेरेक ओब्रायन ने लिखा कि ''महाराष्ट्र में मुसलमान, ईसाई और कुछ दलित जातियाँ गोमांस खाती हैं। मुंबई और पुणे में रोजगार के लिए आए उत्तर-पूर्व के नागरिक भी इसे खाते हैं और इन सबको इस सस्ते पौष्टिक आहार से वंचित रखना उनके प्रति दुर्भाव जगाने जैसा है। ...प्रदेश में पहले ही पशु-चारे में 61 प्रतिशत का अभाव है। इस प्रतिबंध से स्थितियां काबू से बाहर हो जाएंगी। ...धार्मिक विभाजन का एजेंडा बड़े-बड़े ऐलानों से नहीं बल्कि इन्हीं छोटे-छोटे महीन निर्णयों से उभरकर लोगों के ज़ेहन में कांटे की तरह खटकना शुरू करता है!'' मार्क्सवादी पार्टी के प्रमुख प्रकाश करात ने एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि ''गोहत्या का मुद्दा देश के अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए उठाया गया है!'' हैदराबाद में विश्वविद्यालय के छात्रों ने महाराष्ट्र में लगे इस प्रतिबंध का जमकर विरोध किया। उन्होंने अपने अभियान को 'कल्याणी बिरियानी खाओ!' की संज्ञा देते हुए छात्रों के बीच बीदर के नवाब द्वारा लोकप्रिय की गयी पारंपरिक गोमांस बिरियानी और मसालेदार गोमांस के पैकेट बांटे। हैदराबाद विश्वविद्यालय स्थित आम्बेडकर विद्यार्थी संघ के छात्र-नेता प्रशांत ने कहा, ''हम इस मौके पर पूरी तरह मुंबई के नागरिकों के साथ हैं, क्योंकि फासीवादी ताकतें हमारी साझी भोजन संस्कृति को कुचलने का प्रयास कर रही हैं। जनतंत्र में सभी नागरिकों की भोजन परंपराओं का सम्मान होना चाहिए। गरीबों के गोमांस पर प्रतिबंध लगाना एक तरह के पिछड़ी जातियों के प्रति द्वेष और दुर्भाव पैदा करने जैसा है...''
इस नए कानून के धार्मिक आयाम कुछ और मुखर हो उठते हैं जब हम पाते हैं कि यह प्रतिबंध केवल गायों, सांड़ों और बैलों तक ही सीमित है और भैंसों को इस प्रतिबंध से बाहर रक्खा गया है। लेकिन ताज़ा समाचारों के अनुसार इस नियम के विरोध में मांस के व्यापारी अनिश्चित काल के लिए हड़ताल पर बैठ गए हैं और उन्होंने भैंसों के काटे जाने से भी इंकार कर दिया है। इससे देवनगर में स्थित एशिया के सबसे बड़े बूचडख़ाने का काम रुक गया है और मुंबई में फैली गोमांस बेचने वाली 900 से भी अधिक दुकानें भी अनिश्चितकाल के लिये बंद हो गयी हैं। इस व्यापार से जुड़े सभी व्यापारी संघों का कहना है कि सरकार जब तक इस प्रतिबंध से प्रभावित विस्थापितों को जीवन-यापन का कोई अन्य ज़रिया मुहैया नहीं करवाती, तब तक ये बूचडख़ाने और ये दुकानें नहीं खुलेंगी। उधर राज्य के वित्तमंत्री सुधीर मुंगुतिवर ने कहा कि वे 5000 एकड़ ज़मीन मुकर्रर कर रहे हैं जहाँ गौशाला के साथ- साथ बीमार जानवरों की देखभाल की सुविधाएं विकसित की जाएंगी। इस उत्साह से एक और कदम आगे बढ़ते हुए हरियाणा की विधानसभा ने गौहत्या के अपराध की सज़ा को दुगुना कर दस वर्ष कर दिया गया है और इसके लिए वहाँ एक लाख तक का जुर्माना भी हो सकता है। इस तरह वहाँ अब यह अपराध लड़कियों को शारीरिक रूप से छेडऩे, चोरी करने, लापरवाही से किसी की जान लेने और किसी को गंभीर रूप से चोट पहुंचाने से भी अधिक संगीन बन गया है। महाराष्ट्र के नए गौहत्या प्रतिबंध कानून पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए महात्मा गांधी के पौत्र तुषार गांधी ने कहा कि यह एक राजनैतिक फैसला है जो बहुसंख्यकों की संस्कृति के सामने अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के मौलिक अधिकारों को अनदेखा करता है। यदि बापू ज़िंदा होते तो वे भी मेरी तरह इस नए कदम का विरोध ही करते...
''मुझे माफ करना डॉक्टर...
तुम्हारे जाने के बाद
मैं मोर्चे में गया नहीं
श्रद्धांजलि की सभा में भी नहीं गया
अपराधी मन लिए सोचता रहा
कि
तुम्हारी अट्ठारह वर्षो की लड़ाई में
मैं कहीं भी शामिल नहीं था!''
अभी कुछ समय पहले ही अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के नरेंद्र दाभोलकर की निर्मम हत्या के बाद हेरंब कुलकर्णी की इस मारक मराठी कविता 'मुझे माफ करना डॉक्टर...' की ये पंक्तियां किसी शिलालेख की तरह हमने 'पहल' में पढ़ी थीं। जैसा कि प्रत्याशित था, सारी उठा-पटक के बाद भी डॉक्टर दाभोलकर के हत्यारों का आज तक कोई सुराग नहीं मिल पाया है। भविष्य में इन हत्यारों के पकड़े जाने की उम्मीद रखना भी खामखयाली होगी, भले ही झूठे आंसुओं से हमने डॉक्टर दाभोलकर को शहीद का दर्ज़ा दे दिया हो! हेरंब कुलकर्णी के शब्दों में ''आज हम कहे रहे हैं कि गोलियों से विचार खत्म नहीं होते/बढ़ते हैं/कहना ही पड़ता है सांत्वना के लिए...'' लेकिन खौफनाक यह है कि जिस समाज में हम जी रहे हैं, वहाँ दिन-दहाड़े एक या दो व्यक्ति आराम से मोटरसाइकिल पर आते हैं; प्रतिशोध की आग में एक क्रांतिकारी विचारक के माथे में दनादन गोलियां दागकर आराम से आगे निकल जाते हैं हैं और हमारी व्यवस्था उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाती! बल्कि लगता यही है कि तमाम सहानुभूति के समानांतर उन हत्यारों की मानसिकता भी लगातार हमारे बीच जी रही है। वे हमारी इस असहायता पर व्यंग्य से मुसकराते हैं और लगातार इंतज़ार करते रहे हैं, हमारी इस गतिविधि पर बारीकी से नज़र रखते हुए, हमारे बोले हुए हर शब्द, हर तर्क पर अपना पागल गुस्सा संजोए, प्रतिशोध और संकीर्णता के उस बदहवास गुस्से को किसी सांप के फन की तरह लगातार अपने भीतर हवा देते हुए। और एक दिन जब विचार फिर से नागवार हो उठते हैं तो वे फिर से उन्हीं मोटरसाइकिलों पर सवार होते हैं, उन्हीं खतरनाक पिस्तौलों को अपने हाथ में उठाते हैं और विचारों के किसी और जनक को फिर एक बार उसी अंदाज़ में गोलियों के घाट उतार देते हैं। उस विचार का नाम इस बार कॉमरेड गोविंद पानसरे होता है लेकिन दृश्य वही होता है- वही मूक दर्शक, वही पुलिसवाले, वही झूठी सहानुभूति जताने वाली मजबूर व्यवस्था, वही मीडिया के सामने अपराधी के यथाशीघ्र पकड़े जाने के थोथे वादे और विचार की हत्या के साथ उगता वही भयावह अहसास कि हत्यारों की मानसिकता अब भी किसी खून के फैलते धब्बे की तरह उन्हीं तमाम लोगों के बीच लगातार पनपकर फल-फूल रही है।
मृणाल सेन की फिल्म 'कलकत्ता 71' के आखिरी दृश्य में रक्त रंजित चेहरे पर उभरती वे आखिरी पंक्तियां अनायास ही ज़ेहन में आती हैं-
''मुझे मालूम है कि मेरी हत्या किसने की है! लेकिन मैं तुम्हें बताऊंगा नहीं।... मेरे हत्यारे का नाम जानने के लिए पहले तुम्हें स्वयं, खुद अपनी मौत मरना होगा...''
नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्याओं का साम्य, उनका निपट असंवाद और उनका दो-टूक दुस्साहस दहला देने वाला है। शस्त्रधारी कमांडो और 'जेड' स्तर की सुरक्षा-संस्कृति के बीच सत्य आज किस तदर निहत्था, नंगा और निर्कवच है, यह इन हत्याओं से साफ हो जाता है। नरेंद्र दाभोलकर ताउम्र जिन धार्मिक कुरीतियों और अंधविश्वासों के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाते रहे, उनके समर्थन में बहुत कम लोग उनके साथ आए। उनकी मृत्यु पर घडिय़ाली आंसू बहाने वाले सत्ताधारियों ने तो उन्हें अपने समय में ही हाशिए पर फेंक छोड़ा था। गोविंद पानसरे को मीडिया ने महज़ चुंगी के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाला ट्रेड यूनियन नेता बताया है। यह उनके व्यक्तित्व का बहुत इकहरा वर्णन है। हकीकत यह है कि पानसरे ने हर कदम पर हिंदुत्ववादी ताकतों का जमकर विरोध किया था। बेहद लोकप्रिय मराठी पुस्तक 'शिवाजी कोन होता?' (शिवाजी कौन था?) में उन्होंने शिवाजी को एक हिंदुत्ववादी राजा की जगह सब धर्मों का आदर करने वाला शासक बताया था। इस पुस्तक की डेढ़ लाख से भी अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। पानसरे ने अपनी पुस्तक में लिखा था कि शिवाजी की सेना में एक तिहाई से अधिक मुसलमान सिपाही थे और उनके कई निजी अंगरक्षक और सचिव भी मुसलमान थे। पानसरे ने गांधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के गुणगान पर आपत्ति दर्ज की थी और अपने एक भाषण में उन्होंने गोडसे और आर एस एस के नज़दीकी संबंधों को भी उजागर किया था। उन्होंने 'सनातन संस्था' जिस पर ठाणे तथा गोवा में धमाके करवाने का शक किया जाता है, के विरुद्ध भी काफी कुछ लिखा था और इस संस्था ने उन पर मानहानि का एक मुकदमा भी चला रक्खा था। वे अल्पसंख्यकों और पिछड़ी जातियों के पक्षधर थे और अक्सर उनकी समस्याओं की ओर लोगों का ध्यान खींचने की कोशिश करते रहते थे। अपने अंग्रेजी लेख 'गोविंद पानसरे को किसने मारा?' में विचारक राम पुनियाणी लिखते हैं कि 'पानसरे को अक्सर जान की धमकियां मिलती रहती थीं और मृत्यु से कुछ महीने पहले भी उन्हें एक पत्र में 'दाभोलकर जैसा ही हाल किए जाने' की चेतावनी भी दी गयी थी। लेकिन पानसरे  इन धमकियों की परवाह नहीं करते थे।' ऐसे में यह समझना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए पानसरे जैसे बेबाक, निर्भीक और हिंदुत्ववादियों का विरोध करने वाले व्यक्ति की हत्या पीछे किस तरह की मानसिकता वाले व्यक्ति का हाथ रहा होगा।
समाचार पत्र 'हिंदू' में लिखते हुए पत्रकार शौमोजित बनर्जी कहते हैं कि ''यह एक अत्यंत चिंताजनक तथ्य है कि महाराष्ट्र के अधिकांश शैक्षिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थानों में ऐसे कट्टरपंथी तत्व घुस आए हैं जिनका बहुवैचारिक आस्था और बहुत-मान्यताओं वाले समाज में कोई यकीन नहीं!'' नरेंद्र दाभोलकर के नक्श-ए-कदम पर चलने वाले उनके बेटे हमीद दाभोलकर अफसोस के साथ कहते हैं कि महाराष्ट्र में सरकारें सक्रिय सामाजिक जिम्मेदारी निभाने की जगह विपरीत विचारधारा वाले गुटों के बीच महज़ पुलिसवाले या पोस्टमैन का किरदार निभा रही है! उन्हें प्रदेश के शिक्षित मध्यवर्ग की उस उदासीनता पर दुख होता है, जिसके चलते इस वर्ग के अधिकांश सदस्यों ने नरेंद्र दाभोलकर या गोविंद पानसरे का नाम तक उनकी हत्याओं के बाद ही सुना होता है। ''उनका यह ठंडापन परोक्ष रूप से समाज के उन विषाक्त तत्वों को बढ़ाव देता है जो समाज की प्रगतिशील सोच को जड़ से उखाड़कर फेंक डालने में यकीन करते हैं। किसी मानसिकता के चलते हत्या के डेढ़ साल गुज़र जाने के बाद भी खोजबीन करने वाली संस्थाओं के दाभोलकर के हत्यारों को ढूँढ निकालने की असमर्थता इन लोगों के लिए किसी खास चिंता का विषय तक नहीं बनती!''
गोविंद पानसरे पर हुए हमारे के बाद महाराष्ट्र के नौजवान मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस ने अपेक्षित ढंग से इस वारदात पर गहरी चिंता जतायी और उनके व्यक्तिगत हस्तक्षेप के बाद गंभीर रूप से घायल पानसरे को विशेष हवाईजहाज द्वारा मुंबई ले जाने की व्यवस्था की गयी (यद्यपि पानसरे के परिवार वालों का कहना था कि इस गंभीर हालत में उन्हें हवाई यात्रा पर मुंबई ले जाना एक सर्वथा गलत कदम था।) मुम्बई के एक अस्पताल में पानसरे की मृत्यु के बाद मुख्यमंत्री स्वयं वहां पहुंचे। पानसरे के शहर कोल्हापुर में आक्रोश की अप्रत्याशित लहर को देखते हुए सार्वजनिक स्तर पर फडनवीस के व्यवहार और शिष्टाचार में चिंता के इस ईमानदार भाव का दिखाई देना ज़रूरी भी था। लेकिन मीडिया के सामने अपनी गहरी चिंता और हत्यारों के जल्दी ही पकड़े जाने के आश्वासनों के बावजूद सरकार इस मामले में कोई खास प्रगति नहीं कर पायी है, सिवाए इसके कि पुलिसवालों ने हत्यारों के रेखाचित्र बनाने का दावा किया है, पुलिस दल की 25 टुकडिय़ां मामले की खोजबीन कर रही हैं और हत्यारों का सुराग देने वालों को मिलने वाले ईनाम की राशि को पांच गुना बढ़ाकर पच्चीस लाख कर दिया गया है। व्यवस्था की यह सारी कवायद मीडिया के आगे चारा डालने से अधिक कुछ नहीं है और आने वाले दिनों में हत्यारों का पता लगाया जा सकेगा, इसकी भी कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती। इस असमर्थता या अकर्मण्यता का सबसे बड़ा कारण यह है कि हत्या के संभावित कारणों को देखते हुए, हत्यारे के पकड़े जाने पर उसके किसी न किसी रूप में अतिहिंदूवादी तत्वों से जुड़े होने की संभावना अधिक है। और इन तत्वों से सत्ताधारी वर्ग की सांस्कृतिक निकटता जग-जाहिर है। इसीलिए सारी चिंताएं व्यक्त करने के बाद भी उचित यही है कि हत्यारे का पता न लगाया जा सके और दाभोलकर की हत्या की तरह ही यह ताज़ा मामला भी वक्त गुज़रने के साथ इतिहास के अनसुलझे पन्नों के सुपुर्द किया जा सके, इस ज़रूरी सीख के साथ कि इस समाज में बहुसंख्यक संस्कृति पर सवाल उठाने की प्रवृत्ति को किसी भी तरह से बर्दाश्त नहीं किया जा सकता! इन्हीं चिंताओं को देखते हुए सामाजिक कार्यकर्ता केतन तिरोडकर ने एक सार्वजनिक जनहित याचिका मुंबई की अदालत में दाखिल की है जिसमें इस हत्या के मामले की सीबीआई द्वारा जांच की सिफारिश की गयी है। पानसरे की बेटी और उनकी बहू ने इस याचिका पर अपनी हस्तक्षेप अर्ज़ी में किसी सत्ताधारी जज द्वारा अदालत की देखरेख में इसकी खोजबीन की सिफारिश की है। लेकिन यह जानना त्रासद है कि हाल ही में उच्च न्यायालय की दो पीठिकाओं ने इस याचिकाओं के सुने जाने पर अपने कदम पीछे हटा लिये हैं जिसके चलते अब पूरी याचिका ही अधर में अटककर रह गयी है। उधर महाराष्ट्र के शहर सांगली से एक और ऐक्टिविस्ट लेखक डॉक्टर भरत पाटनकर ने खुलासा किया है कि पिछले कुछ महीनों में उन्हें अनाम लोगों से फोन और पत्र के ज़रिए हत्या की कई धमकियां मिली हैं। इनमें से एक पत्र में उनपर मुसलमानों के प्रति नर्म रवैया अपनाने और मराठी साहित्य सम्मेलन के समानांतर एक 'विद्रोही सम्मेलन' खड़ा करने का आरोप लगाया गया है। एक अन्य पत्र में डॉक्टर पाटनकर को सूचना दी गयी है कि 'दाभोलकर और पानसरे के बाद अब अगला नंबर उन्हीं का लगने वाला है'। डॉक्टर पाटनकर, जो श्रमिक मुक्ति संघ के सभापति भी हैं, पिछले कई वर्षों से पिछड़ी जातियों, तबकों और मजदूरों के हित के लिए काम कर रहे हैं।
बंदूक के ज़ोर पर विचार की निर्मम हत्या की ये घटनाएं हमें आतंकित करती हैं। लेकिन इन घटनाओं जितना ही या इससे भी अधिक खौफ़नाक है रूढि़वादी और धर्मवादी दबाव की यंत्रणा तले किसी विचारक या लेखक का जीते-जी टूटकर मर जाना और अपनी समूची रचनात्मकता से ही नाता तोडऩे पर विवश हो जाना। तमिल के प्रख्यात लेखक पेरुमल मुरुगन ने धर्मवादी शक्तियों के सांस्कृतिक दबाव तले अपनी समूची रचनात्मक दुनिया से ही खदेड़ दिए जाने की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी दाभोलकर और पानसरे की निर्मम हत्या या किसी विचारक के सरे-आम संगसार किए जाने की भयानक वारदात से कम त्रासद नहीं है।
तमिलनाडु के नामक्कल जिले के छोटे से गांव तिरुचेनगोड में पैदा और बड़े हुए प्रख्यात तमिल रचनाकार पेरुमल मुरुगन छ: उपन्यासों, चार कहानी संग्रहों और चार कविता संकलनों के यशस्वी लेखक हैं। उनके रचनात्मक लेखन जितना ही महत्वपूर्ण है उनके द्वारा कई वर्षों की मेहनत से तैयार किया गया उत्तर-पश्चिम तमिलनाडु में बोली जाने वाली 'कोंगू' जनभाषा का पहला शब्दकोष जिसने इस प्रदेशकी विपुल सांस्कृतिक शब्द-सम्पदा को पढ़े लिखों की दुनिया तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण काम किया है। समीक्षक वेंकटचलपथि के शब्दों में-
''मुरुगन से पहले का तमिल साहित्य तंजावुर और तिरुनलवेली के गांवों और चेन्नै के मध्यवर्गीय जीवन की कहानियों से आतंकित था। मुरुगन ने पहली बार तमिल पाठकों का परिचय कोंगू के उद्यमी किसान से करवाया। सबसे गरीब तबके के निम्न जाति के किसानों में ''कंगनम'' उपन्यास के 'मरिमुत्थु' और 'अलंदपात्ची' के 'मुत्थू' जैसे किरदारों को कोई कैसे भूल सकता है? मुरुगन की 35 से अधिक पुस्तकों को आज साहित्य में कोंगू प्रदेश के सांस्कृतिक मानचित्र का दर्ज़ा दिया जा सकता है। उनके बगैर इस प्रदेश की सांस्कृतिक संपदा की बात करना भी मुश्किल होगा...''
प्रगतिशील विचारों वाले पेरुमल मुरुगन और उनकी पत्नी ऐज़िल पिछले बीस वर्षों से नामक्कल के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। हैं। यहां भी उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती व्यावसायिकता के खिलाफ़ कई तीखे लेख प्रकाशित किए हैं। यही नहीं सेलम के भूतपूर्व कलेक्टर यू सहयम की मदद से उन्होंने प्रदेश के अनैतिक ढंग से डिग्रियां बांटने वाले कई कालेजों को बंद भी करवाया है। इनमें से बहुत से अवैध संस्थानों के मालिक एक अर्से से मुरुगन को घेरने का मौका ढूंढ रहे थे।
मुरुगन का 2010 में प्रकाशित उपन्यास 'मधोरुबगन' (अद्र्धनारीश्वर) प्रकाशित  होने के बाद काफी सराहा गया था और इसका नाम साहित्य अकादमी के पुरस्कार के लिए भी प्रस्तावित किया जा रहा था। पिछले वर्ष इस उपन्यास का अंग्रेज़ी अनुवाद 'वन पार्ट वुमैन' पेंग्विन द्वारा प्रकाशित होने पर मुरुगन का नाम फिर से चर्चा में आ गया। इस बीच केंद्र में सत्ता बदल चुकी थी और तमिलनाडु में संघ परिवार अपने पैर जमाने की कोशिश में था। 'मधोरुबगन' के प्रकाशन के चार वर्ष गुज़र जाने के बाद उसे हिंदू रूढि़वादियों कट्टर जाति समर्थकों और आर एस एस के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर इस उपन्यास को निशाना बनाने और अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए विवाद खड़ा करने का एक सुनहरा मौका मिल गया। उपन्यास की  संवेदना को समझे बगैर इन संस्थाओं ने आनन-फानन में फतवा दे डाला कि यह उपन्यास भगवान शिव, उस प्राचीन अर्द्धनारीश्वर मंदिर, पूरे शहर और समस्त धर्मनिष्ठ नारी जाति को अपमानित करता है। विवाद छिड़ा तो मुरुगन के तमाम पुराने विरोधियों का भी इस मैदान में उतर जाना स्वाभाविक था। देखते ही देखते विवाद की लपटों से पूरे तिरुचेनगोड को घेर लिया।
इस विवादित उपन्यास में एक संतानहीन किसान युगल की लगभग एक शताब्दी पुरानी कहानी है। पोन्नी और काली अपनी संतानहीनता के लिए समाज, पड़ोसियों और संबंधियों के बीच तिरस्कार के पात्र हैं। तिरुचेनगोड के प्राचीन पवित्र मंदिर में अर्द्धनारीश्वर का वास है जहां संतान प्राप्ति के लिए हजारों युगल हर वर्ष आते हैं। गर्भ होने की हर संभव कोशिश में नाकाम होने के बाद युगल संतान प्राप्ति के लिए एक विचित्र और आधुनिक परिप्रेक्ष्य में 'अनैतिक' (परंतु उस काल में मान्य) रास्ते को अपनाता है। हर साल वैकासी विसकम रथयात्रा के मौके पर संतानहीन स्त्रियां किसी उत्सव के से भाव से किसी भी अपुरुष के साथ पारस्परिक संभोग में हिस्सा लेती हैं। इसके परिणामस्वरूप जिन स्त्रियों को गर्भ रह जाता है, उनकी संतान को 'सामि कोडाथु पिल्लै' या 'ईश्वर की संतान' की संज्ञा दी जाती है। मानवशास्त्री बताते हैं कि प्राचीन काल में यह प्रथा कई अन्य स्थानों पर भी थी और कई बार इसमें पंडे-पुजारियों की भी हिस्सेदारी होती थी। धर्म में भी इसे 'नियोग' या 'नियोग धर्म' के नाम से मान्यता प्राप्त थी। मुरुगन अपने उपन्यास में आगे बताते हैं कि पत्नी काली की इस उत्सव में भागीदारी किस तरह पति-पत्नी के संबंधों को प्रभावित करती है और वे अंत में पूरे सवाल को एक प्रश्नचिन्ह की तरह पाठकों के सामने छोड़ देते हैं। बहरहाल, इस उपन्यास में किसी काल्पनिक काल में वर्णित इस कहानी के इस पक्ष को ही रूढि़वादियों और विरोधियों ने परचम बनाकर इसका विरोध करना शुरु कर दिया। और विरोध की आग के भड़कते ही घटनाक्रम बहुत तेज़ी से बदलता चला गया।
उपन्यास के विरोध में तिरुचेनगोड में स्थानीय बी जे पी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरी हिंदूवादी संस्थाओं के कार्यकताओं ने मुरुगन के खिलाफ बहिष्कार और प्रताडऩा का एक बेअंत सिलसिला शुरु कर दिया। इसके अंतर्गत उनके परिवार के सदस्यों को गंभीर धमकियां दी जाने लगी, घर के बाहर कार्यकर्ताओं ने धरना शुरू कर उन पर आते-जाते गालियों और अपशब्दों का प्रहार शुरु किया। इसके चलते मुरुगन ने पुलिस से अपने और अपने परिवार की सुरक्षा की मांग की। उन्होंने 'हिंदू' के संवाददाता को बताया कि 'पिछले 20 दिनों से उन्हें फोन पर गलियां सुनने को मिल रही हैं जिससे मैं बेहद दुखित और चिंतित हूं!'
27 दिसंबर 2014 को बीजेपी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू धार्मिक संगठनों के लगभग 50 कार्यकर्ताओं ने तिरुचेनगोड नगर में आरएसएस सभापति महालिंगम के नेतृत्व में नारे लगाते हुए एक जुलूस मंदिर से स्थानीय पुलिस स्टेशन तक निकाला और बाद में पुलिस स्टेशन के सामने 'मधोरुबगन' की प्रतियों को आगे के हवाले किया। पुलिस को दी गयी एक याचिका में उन लोगों ने कहा कि यह उपन्यास भगवान शिव तथा उस मंदिर में आने वाली श्रद्धालु स्त्रियों का अपमान करता है और उसके लेखक तथा प्रकाशक को तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए। उधर इस प्रतिरोध से पूरी तरह पल्ला झाड़ते हुए चेन्नै में आरआरएस के समर्थक-लेखक नीलकांतन ने बेशर्मी से चेन्नै में कहा कि 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाने में यकीन नहीं करता और तिरुचेनगोड में हुए प्रतिरोध का आरएसएस से कोई लेना देना नहीं है!' जबकि इससे एक दिन पहले ही 'हिंदू' के एक चित्र में आरएसएस के महालिंगम को तिरुचेनगोड में पुस्तक की प्रतियां जलाते हुए दिखाया गया था।
''किसी भी लेखक के लिए अपनी पुस्तक की प्रतियों के जलाए जाने से अधिक दुखदायी नज़ारा क्या हो सकता है?'' 27 दिसंबर की घटना के दो-तीन दिन बाद ही 'हिंदू' के लिए एक साक्षात्कार में मुरुगन ने बेहद संवेदना से भरते हुए कहा, ''इस पुस्तक को प्रकाशित हुए चार वर्ष से अधिक हो चुके हैं और इसके अंग्रेज़ी अनुवाद का काफी स्वागत भी हुआ है। जब इसकी प्रतियां जलायी गयीं तो मुझे लगा कि ऐसे समाज के लिए लिखने का क्या फायदा है जहां ज़रूरी जानकारी लिए बगैर लोग किताबों को आग के हवाले कर देते हैं।... लेकिन मीडिया वालों, अभिव्यक्ति के अधिकार में यकीन करने वाले मित्रों और कई पाठकों ने मुझे अपने विचार बदलने पर मजबूर कर दिया... लेकिन इसके बावजूद इस घटना का मेरे लेखन पर प्रभाव ज़रूर पड़ेगा। अब मैं हर बार लिखने से पहले सोचूंगा और यही शायद मेरे विरोधियों का मकसद भी है। मुझे लिखने के लिए बहुत कोशिश करनी होगी ताकि मैं अपने लेखन का विरोध करने वालों के इरादों को परास्त कर सकूं... जिस उपन्यास पर इतना विवाद खड़ा हुआ है, उसमें मैंने एक तरफ नपुसंकता की हताशा और उसके भय को स्त्री-पुरुष संबंधों के परिप्रेक्ष में समझने की कोशिश की है और इसके लिए मुझे उस मंदिर में शिव भगवान के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप के बिम्ब ने सबसे अधिक खींचा क्योंकि उस मूर्ति की तरह हर चीज़ में स्त्री और पुरुष का समान हिस्सा होता है!... उस उपन्यास में प्राचीन काल में संसहमति से होने वाले संबोग का भी ज़िक्र है जो उस समय के समाज में एक स्वीकृत और मान्य प्रथा थी। इसमें विवाद या आपत्ति का क्या प्रश्न है?... मेरा बचपन इसी तिरुचेनगोड में बीता है। मेरी मां मल्लारकुटै नामक तालाब में पानी भरकर उसे बाज़ार की दुकानों को देती थी। मैं छुट्टियों में मंदिर के मंडप में सोडा और शीतल पेय बेचा करता था। मंदिर के तमाम पुजारियों और भिखारियों से मेरी अच्छी दोस्ती थी। वह मंदिर मेरे बचपन की स्मृतियों का एक ज़रूरी भाग था। मैं उसका अपमान करने की सोच भी कैसे सकता हूँ?''
अगले एक सप्ताह में पुस्तक और उसके लेखक के विरुद्ध फासीवादी अराजक शक्तियों द्वारा भड़कायी गई आग विकराल रूप लेती गयी। पुस्तक के कई-कई पृष्ठों की फोटो कॉपी की गयी प्रतियां बिना किसी संदर्भ के साथ मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं को बांटी जाती रहीं, पूरे शहर की गली-गली को भड़काऊ पोस्टरों से ढंक दिया गया और शिकायतों के अनगिनत पुलिंदें पुलिस स्टेशन पहुंचाए जाने लगे। पुलिस इन सारी गतिविधियों को चुपचाप देखती रही; उसने इन गतिविधियों को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाए। समीक्षक वेंकटचेलपथी ने एक टिप्पणी में लिखा -
''चार वर्षों तक किसी को उस उपन्यास से परेशानी नहीं हुई थी। बल्कि संवेदनशील पाठक पोन्ना और काली में अपनी स्वयं की शिनाख्त कर पा रहा था। ...और अब वही उपन्यास हर जगह जलाया जा रहा था। हमने तो सोचा था कि हिंदू परंपरा में किताबें जलायी नहीं बल्कि पूजी जाती हैं। लेकिन किताबों को जलाने वालों से साहित्य को समझने की उम्मीद रखना फिजूल था। दिक्कत यह भी थी कि इन विरोध करने वालों की भीड़ में मुरुगन से पुराना हिसाब चुकाने वाले भी शामिल हो गए थे...''
सारे विरोध के जवाब में मुरुगन ने एक अपील जारी की कि वे पुस्तक के अगले संस्करण में उस स्थान का नाम और उसके सारे संदर्भ बदल देंगे। लेकिन इसका भी कोई नतीजा नहीं निकला क्योंकि संघ परिवार के लिए यह आंदोलन किसी शक्ति परीक्षण जैसा निर्णायक बन चुका था। जब स्थितियां कुछ और बिगड़ीं  तो पुलिस ने मुरुगन और उनकी पत्नी को सलाह दी कि इस विषाक्त माहौल में उन्हें तिरुचेनगोड छोड़कर कहीं बाहर चले जाना चाहिए। मुरुगन वहां से जाना नहीं चाहते थे, लेकिन फिर भी बहुत भारी मन से उन्हें कर्मस्थली को छोड़कर चेन्नै आना पड़ा। इस बीच प्रदर्शनकारी शहर में बंद करवाने की धमकी दे चुके थे। इसे रोकने के लिए मुरुगन ने एक और अपील जारी की कि वे उपन्यास के विवादित हिस्सों को हटाने और उसकी छपी हुई प्रतियों को वापस लेने के लिए तैयार हैं। लेकिन इस आश्वासन के बाजवूद प्रदर्शनकारियों ने 11 जनवरी को पूरे तिरुचेनगोड में बंद रखा जो बिल्कुल सम्पूर्ण रहा। सम्भवत: इसी बंद ने मुरुगन के मनोबल को पूरी तरह तोड़ दिया। 12 जनवरी को जब जिला अधिकारियों ने उन्हें प्रदर्शनकारियों के साथ 'शांति वार्ता' के लिए तिरुचेनगोड बुलाया तो उन्होंने इसकी स्वीकृति दे दी। उनके बहुत से विद्यार्थी भी इस वार्ता के समय उनके साथ जाना चाहते थे लेकिन मुरुगन ने उन्हें साथ लेने से इंकार कर दिया क्योंकि वे विद्यार्थियों और प्रदर्शनकारियों के बीच किसी तरह का संघर्ष नहीं चाहते थे। वे अकेले सिर्फ अपने वकील के साथ वार्ता के लिए कलेक्टर दफ्तर में पहुंचे। पुलिस ने जानबूझकर उन्हें पीछे से भीतर लाकर एक अलग कमरे में बिठाया। प्रदर्शनकारी जिला अधिकारी के साथ एक अलग कमरे में थे। मुरुगन अपने साथ समझौते के कागज़ात लाए थे जिसमें पूरे घटनाक्रम के लिए 'सच्चे भाव से अफसोस' ज़ाहिर किया गया था। लेकिन अधिकारी ने कहा कि यह शब्दावली प्रदर्शनकारियों को स्वीकार्य नहीं होगी और इसे 'बिना शर्त क्षमायाचना' में बदलना होगा। वकील स्वामिनाथन से यह परिवर्तन बर्दाश्त नहीं हुआ लेकिन उसने देखा कि मुरुगन गहरी यंत्रणा में थे। लिहाजा उसने मुरुगन से फोन पर पत्नी की राय जानने के लिए कहा। पत्नी ने अंतत: कहा कि यदि वे यही चाहते हैं तो ऐसा ही लिख दो। फिर उसने स्वामिनाथन से जानना चाहा कि कहीं उनका मनोबल जवाब तो नहीं दे रहा। तो इस तरह 'बिना शर्त याचना' के कागज़ पर मुरुगन के हस्ताक्षर हुए। तब जिला अधिकारी ने कहा कि इसमें वे पुराने वक्तव्य भी जोडऩे होंगे जिनमें मुरुगन में पुस्तक के विवादित अंश हटाने और छपी हुई पुस्तकों को वापस लेने की बात कही थी। वकील ने कहना चाहा कि ये वक्तव्य तो शहर में बंद न करने की शर्त के साथ जुड़े थे और चूंकि इस शर्त का निर्वाह नहीं हुआ इसलिए इन वक्तव्यों का अब कोई औचित्य नहीं है। लेकिन मुरुगन तब तक पूरी तरह टूटकर बिखर चुके थे। ''लिख दो, कुछ भी लिख दो, मुझे स्वीकार है!'' वे बुदबुदाए। वकील ने उन्हें संभालने की कोशिश की लेकिन वे अपनी ज़िद पर कायम थे। तो इस तरह सभी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर वे कलेक्टरेट से बाहर आ गए। वकील स्वामिनाथन ने अपने वक्तव्य में लिखा है कि मुरुगन को घर छोडऩे के बाद भी मुझे यह सवाल परेशान करता रहा कि क्या समझौता कर मुरुगन ने ठीक किया? लेकिन जब पूरा शहर ही उनके खिलाफ बंद में शामिल हो गया था तो उनके पास और चारा भी क्या था?
उसी शाम मुरुगन ने अपने 'फेसबुक' के पन्ने पर लिखा -
''लेखक पेरुमल मुरुगन मर गया है। चूंकि वह ईश्वर नहीं है, इसलिए उसके दुबारा जीवित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। और पुनर्जन्म में मेरा विश्वास भी नहीं है। इसलिए मैं अब सिर्फ एक मामूली अध्यापक पी मुरुगन की तरह ज़िंदा हूँ। मुझे अपने हाल पर छोड़ दिया जाए!''
इसके साथ ही उन्होंने अपने सभी प्रकाशकों- कलाचुवाडु, नट्टरिनाई, अडयालम, मलाइगल और कयल्काविन से आग्रह किया कि वे उनके उपन्यास, उनकी कहानियां, कविताएं और दूसरी साहित्यिक कृतियां न बेचें। ''उनकी छपाई का खर्च और अनबिकी प्रतियों से होने वाला नुकसान मैं भरूंगा। जिन्होंने मेरी किताबें खरीदी हैं, उनसे मेरा अनुरोध है कि वे उन्हें आग के हवाले कर दें। इस नुकसान का मुआवज़ा भी मैं उन्हें दूंगा।'' उन्होंने आग्रह किया कि साहित्यिक सम्मेलन के आयोजक उन्हें भविष्य में किसी आयोजन में न बुलाएं। और अंत में उन्होंने कहा कि ''चूंकि मैंने अपनी सभी पुस्तकों को वापस लेने का ऐलान कर दिया है, इसलिए सभी जातीय संगठनों और धार्मिक संस्थानों से अनुरोध है कि वे मेरे विरुद्ध सारा प्रतिरोध यहीं समाप्त कर दें!'' - हस्ताक्षर, पी मुरुगन!
इस ऐतिहासिक ऐलान से तमिल ही नहीं, देश के समूचे साहित्यिक जगत में एक खौफनाक सन्नाटा उतर आया, यह देखते हुए कि असहिष्णु हिंदूवादी शक्तियों ने किस तरह एक समूचे शहर की हवा को विषाक्त कर एक सृजनशील लेखक को जीते जी मृत्यु के अंधेरे में धकेल दिया था!
मुरुगन के समर्थन में पूरे देश के कोने-कोने से अनेकानेक आवाज़ें उठी, जुलूस निकले, मीडिया में अनेकानेक प्रस्तावों पर हस्ताक्षर किए गए, व्यक्तियों, संस्थाओं और लेखक संघों ने अदालत में याचिकाएं दाखिल की, लेकिन मुरुगन ने अपना फैसला नहीं बदला। बल्कि अदालतों में सुनी जा रही विभिन्न याचिकाओं के मुकाबिल इस पूरे हादसे के बाद पिछली 24 फरवरी को पहली बार वे स्वयं मद्रास उच्च न्यायालय गए और वहां एक लिखित ज्ञापन में उन्होंने कहा -
''मैंने स्वयं अपना मृत्युलेख 'फेसबुक' में प्रकाशित किया है। दुनिया के तमाम लोग लेखक पुरुमल मुरगन की इस मृत्यु पर विश्वास करें या न करें, मैं स्वयं उस पर यकीन करता हू्ं। मेरा मानना है कि समाज में कोई भी लेखक धमकी या भय के माहौल में ज़िंदा नहीं रह सकता!''
पेरुमल मुरगन का यह आत्मसमर्पण जहां लेखक के वैयक्तिक और सामाजिक अधिकारों को लेकर सैंकड़ों असुविधाजनक सवाल खड़े करता है, वहीं सच यह भी कि इस घटना ने इस जनतंत्र में लेखन और विचार को लेकर फैली असहिष्णुता की भी एक खौफनाक तस्वीर खींची है। चिंताजनक यह भी है कि मुरगन का यह कदम धर्मवादी ताकतों को कुछ और बढ़ावा दे रहा है कि ज़ोर-ज़बर्दस्ती से स्वतंत्र विचारों का गला घोंटने में कामयाबी पायी जा सकती है। स्थितियों को देखते हुए राज्य के शिक्षा विभाग ने मुरुगन और उनकी पत्नी का तबादला नामक्कल से चेन्नै के एक कॉलेज में कर दिया है। इस घटना के कुछ ही दिनों बाद उसी प्रदेश के करूर शहर में रहने वाले एक और तमिल लेखक पुलियान मुरगेसन ने अपने कहानी संग्रह के विरोध में कुछ लोगों द्वारा पीटकर बंधक बनाए जाने का आरोप लगाया है। मुरुगेसन इस समय पुलिस की निगरानी में अस्पताल में है और पुलिस ने उनके मीडिया से बात करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। उधर चेन्नै में एक तमिल टी वी चैनेल पुथिया थलाइमुराई को उस समय हिंदूवादी संगठनों का गुस्सा झेलना पड़ा जब उसने आज के समय में पत्नी के शादीशुदा होने के सर्टिफिकेट मंगलसूत्र (तमिल में 'थाली') के औचित्य पर एक खुली चर्चा का आयोजन किया। पहले इस कार्यक्रम के विरुद्ध उस चैनेल के कैमरामैन पर तथाकथित हिंदू मुन्नानी संगठन के कार्यकर्ताओं ने हमला किया। फिर पिछले सप्ताह इसी संगठन से जुड़े एक अन्य हिंदूवादी संगठन ने चैनेल के दफ्तर के बाहर बम फेंके। चैनेल ने अंतत: इस कार्यक्रम को रद्द कर दिया, हालांकि चैनेल को चलाने वाले संस्थान के सभापति पी सत्यनारायण ने दिलेरी से यह भी कहा कि वे ऐसी वारदातों से पीछे हटने वाले नहीं है।
दिल्ली में संस्था 'सहमत' द्वारा पेरुमल मुरुगन के समर्थन में आयोजित एक सभा में बोलते हुए प्राचीन इतिहास की ज्ञाता रोमिला थापर ने कहा कि 'किसी काल में मान्य कोई प्रथा यदि आज के समाज में कानून के विरुद्ध हो जाती है तो क्या किसी लेखक को उसे अपने उपन्यास में उतारने या उस पर विचार रखने का भी अधिकार नहीं है? इसे किस दृष्टि से धर्म पर कीचड़ उछालना कहा जा सकता है? लेकिन हमारा समाज ऐसे किसी भी युक्ति से लेखक को रास्ते से हटा देना या आतंक के रास्ते उसे चुप करा देना बेहद ज़रूरी समझता है क्योंकि उनके विचार इन लोगों के धार्मिक पुरुष-केंद्रित समाज को चुनौती देते हुए लगते हैं। इन लोगों को भय लगता है आगे के समय में आने वाले ऐसे समाज से जो खुलेपन से अपने ज्वलंत सवालों पर खुली चर्चा करने का अधिकार रखता हो।''
हमारे समाज की यह असहिष्णुता हमें अंतत: कहां ले जाएगी, यह सवाल बहुत से लोगों की अभी से परेशान करने लगा है। भारतीय कैथोलिक पादरियों के प्रमुख कार्डिनल बैसेलियो ने हाल ही में एक 'नन' पर हुए बलात्कार पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ''इस समाज में सिर्फ गायों को ही नहीं बल्कि सभी नागरिकों को संरक्षण की बेतरह ज़रूरत है। आज सिर्फ अल्पसंख्यक ही नहीं, अधिकांश बहुसंख्यक हिंदू भी देश के निरपेक्ष ढांचे पर निरंतर होते प्रहारों से बेतरह चिंतित हैं!... हमारी इस धर्मनिरपेक्ष संस्कृति में सभी धार्मिक, यहां तक कि नास्तिकों के लिए भी पर्याप्त जगह है। जब बीजेपी का एक वरिष्ठ नेता कहा है कि 'ईश्वर चर्चों और मसजिदों में नहीं बल्कि सिर्फ मंदिरों में वास करता है' तो क्या वह अपने इस वक्तव्य से 'संवैधानिक हिंसा' नहीं फैला रहा होता? हमें दुख इस बात का है कि जब इस तरह के अराजक विचार सार्वजनिक किए जाते हैं तो सरकार का कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति इन्हें रोकने के लिए सामने नहीं आता...''
एक समाज के रूप में हम किस कदर असहिष्णु और असहनशील होते जा रहे हैं, इसका एक प्रमाण पिछले दिनों देखने को मिला जब दिल्ली की दिवंगत यौन हत्या की शिकार 'निर्भया' के हत्यारे का इंटरव्यू भी शामिल किया गया था। राज्यसभा में इस प्रतिबंध पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जावेद अख्तर ने कहा कि ''प्रतिबंध की सबसे बड़ी वजह यह है कि हत्यारा जेल की सलाखों के पीछे से स्त्रियों के बारे में बिल्कुल उसी तरह के विचार व्यक्त कर रहा था जैसे कई बार माननीय सांसदों के मुख से इस सदन में सुने जा चुके हैं!'
देश के अनेकानेक बुद्धिजीवियों का मानना है कि 'इंडियाज़ डॉटर' जैसी फिल्म पर लगा प्रतिबंद इस देश में अभिव्यक्ति एवं सूचना के अधिकार के खिलाफ एक गंभीर चुनौती है। विचारों की संकीर्णता और धार्मिक मामलों को लेकर बहुसंख्यक संस्कृति का बेरोकटोक दबदबा (सैंया भये कोतवाल, अब डर काहे का?) देश के सांस्कृतिक और बौद्धिक परिदृश्य में एक गहरे आतंक का माहौल बनाता जा रहा है। जावेद अख्तर जैसों का मानना है कि पुराने समय के मुकाबले आज के समय में हम धर्म के मामले में बेहद तंगदिल और असहिष्णु होते जा रहे हैं। सत्ताधारी पक्ष के प्रवक्ता दावा करते हैं कि ईश्वर सिर्फ मंदिरों में वास सकता हैं, लेकिन यह कहते हुए वे भूल जाते हैं कि हम जहां से आए हैं, वहां आज से सौ साल पहले उर्दू का शायर डंके की चोट पर लिख गया था कि -
ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर
या वो जगह बता दे जहां पर खुदा न हो!
इसमें कोई शक नहीं कि आज के युग में ऐसी पंक्तियां लिखने वाला शायर या तो दाभोलकर अथवा पानसरे की तरह पिस्तौल की गोलियों का शिकार हो जाता, या फिर उसे किसी पेरुमल मुरुगन की तरह अपनी गलियों से निष्कासित कर हमेशा के लिए किसी अंधे कुंए में धकेल दिया जाता! हमारी बर्दाश्त की सीमा आज सिर्फ यहीं तक रह गयी है!
लेकिन विपदा की इस घड़ी में भी हमें अपने चहीते शायर फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' की पंक्तियों का स्मरण आता है कि -
वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है!
या फिर-
निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठाके चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले...
और इससे भी आगे-
बने हैं अहल-ए-हवस मुद्दई भी, मुन्सिफ़ भी
किसे वकील करें, किससे मुन्सिफी चाहें
लेकिन लहू के आंसू रुलवाने या कि 'बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे!' की चुनौती देने वाला यह शायर अंत में शायद यह ज़रूरी उपसंहार की शक्ल में डॉक्टर के नुस्खे की तरह हम सबके लिए ही यह भी तो लिख गया है कि -
तेरे आज़ार का चारा नहीं नश्तर के सिवा
और ये सफ़्फ़ाक मसीहा मेरे कब्ज़े में नहीं
इस जहां के किसी जी-रूह के कब्ज़े में नहीं
हां मगर-
तेरे सिवा, तेरे सिवा, तेरे सिवा!



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