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जून-जुलाई 2015

मुंशी नवल किशोर

राजकुमार केसवानी

पहल विशेष दस्तावेज़




जिस दौर में उर्दू जैसी शीरीं और रवादार ज़बान के मुस्तकबिल को लेकर उसके हमदर्दों के चेहरों पर फिक्रो-परेशानी की लकीरें उभर रही हों, बेक़रारी और बेचैनी फैल रही हो, ऐसे वक़्तों में धुंधलकों में छुपे कुछ चेहरे तस्कीं का सामां हो जाते हैं। उर्दू के हवाले से मुंशी नवल किशोर एक ऐसा ही चेहरा है। 19 वीं सदी के इस दिलकश और अज़ीमो-शान किरदार ने हिंदुस्तानी तहज़ीब के हसीन-तरीन कम्पोज़िट कल्चर के इतिहास में कुछ ऐसे ख़ूबसूरत वर्क जोड़े हैं कि जिनके हुस्न से अब तक रोशनी के आबशार बहते हैं।
मुंशी नवल किशोर ने बहैसियत एक पब्लिशर अपने दौर में हिंदी-उर्दू-अरबी-फ़ारसी जैसी भाषाओं को मिलाकर एक ऐसी इमारत तामीर करने का काम किया, जिसमे हर ज़बान का हर खिड़की-दरवाज़ा खुलता तो यूं खुलता कि सीधे दूसरी ज़बान की तरफ़ ही खुलता। नतीजतन पूरे हिंदुस्तानी समाज के सारे तबकों के बीच हर राज़ो-नियाज़ आम था और हर तबका एक-दूसरे के रद्दे-अमल से बाख़बर था। इसी तरह के हालात होते हैं जब एक रंग से मिलकर दूसरा रंग ज़माने को रंगारंग बना देता है।
मुंशी नवल किशोर की कहानी शुरू होती है 3 जनवरी 1836 को मथुरा जिले के एक छोटे से गांव रेड़हा से, जहां उनका जन्म हुआ। यह उनका ननिहाल था। मां यशोदा देवी और पिता पंडित यमुना प्रसाद भार्गव के वह दूसरे बेटे थे। पंडित यमुना प्रसाद अलीगढ़ के गांव सासनी के एक सम्पन्न ज़मींदार थे। उनके पूर्वजों का भी अपने-अपने दौर में समाजी तौर पर एक अहम मकाम रहा है।  यमुना प्रसाद और उनके पिता पंडित बालमुकुंद संस्कृत के प्रकांड पंडितों में गिने जाते थे। पंडित बालमुकुंद शाह आलम (द्वितीय) की ख़िदमत में आगरा में ख़ज़ांची भी रह चुके थे। उनके परदादा इन्दर सिंह, मराठा फौज में सिपहसालार की तरह 1761 में हुई पानीपत की लड़ाई में शामिल हुए थे।
बालक नवल किशोर के शुरूआती साल अपने ननिहाल रेड़हा में ही बीते। छह साल की उम्र में पिता ने अपने पास सासनी में बुला लिया। 14 साल की कमसिनी में ही उनकी शादी सरस्वती देवी से हो गई। इस विवाह का उन्होने जीवन भर निर्वाह तो किया लेकिन एक जगह आकर उन्होंने एक मुस्लिम महिला से भी शादी कर ली थी। इस दूसरी बीवी को बेग़म साहिबा की तरह जाना जाता था। बहरहाल, इस रिश्ते की वजह से कभी किसी तरह की कलह की कोई दास्तान कहीं दिखाई नहीं देती। सरस्वती देवी से उन्हें पांच बेटियां और एक बेटा था।
नवल किशोर की शुरूआती पढ़ाई को लेकर भी काफ़ी तरह की विरोधाभासी बातें कही और लिखी गई हैं लेकिन एक बात अंतिम रूप से निर्विवाद रूप से स्थापित है कि उनकी बचपन की शिक्षा-दीक्षा के नतीजे में ही वे हिंदी-उर्दू-फ़ारसी जैसी भाषाओं के माहिर उस्ताद बन सके थे। आगे की पढ़ाई, ख़ासकर अंग्रेज़ी की पढ़ाई, के लिए उन्हें सासनी से आगरा भेज दिया गया। बाद को स्नातक शिक्षा के लिए वहीं आगरा कालेज में दाख़िला ले लिया।
कालेज की पढ़ाई के दौरान ही नवल किशोर को लिखने-पढऩे का ख़ासा शौक पैदा हुआ। पढ़ाई के दौरान ही उर्दू अख़बारों में लिखना शुरू कर दिया था। इस सिलसिले में उर्दू के लेखकों ने अक्सर 'सफीर-ए-आगरा' नाम के एक अख़बार का ज़िक्र किया है, लेकिन एक अंग्रेज़ी लेखिका उलरिक स्टार्क ने काफ़ी शोध के बाद यह दावा किया है कि असल में इस नाम का अख़बार नवल किशोर के कालेज वाले दिनों में मौजूद ही नहीं था। असल में बाद को नवल किशोर ने 1856 में ख़ुद इस नाम से एक अख़बार शुरू किया था। बहरहाल, एक बात बिना किसी शको-शुबहा कही जा सकती है कि कालेज के दिनों में ही उनके कुछ मज़मून ज़रूर अख़बारों में शाया हुए जिनकी असल कापी तो नहीं लेकिन यहां-वहां ज़िक्र ज़रूर मिलता है। बाद को 1854 में इसी बिना पर उन्हें लाहौर के मशहूर अख़बार 'कोहिनूर' में नौकरी मिल गई थी।
'कोहिनूर' के संपादक-प्रकाशक मुंशी हरसुख राय ने लाहौर में अपना छापाख़ाना कोहिनूर प्रेस कायम किया हुआ था। इससे पहले वे मेरठ से प्रकाशित 'जाम-ए-जमशेद' के संपादक रह चुके थे। मुंशी हरसुख राय के साथ काम करते हुए ही नवल किशोर पंडित नवल किशोर से मुंशी नवल किशोर हुए। इसी जगह रहकर उन्होने अख़बार और छापेख़ाने के कारोबार को सीखा और समझा।
1980 में उर्दू पत्रिका 'नया दौर' में प्रकाशित एक लेख में तजसुस्स ऐजाज़ी ने 'कोहिनूर' के बारे में लिखा है कि ...'कोहिनूर' की इब्तिदा एक हफ्ता-रोज़ा (साप्ताहिक) अख़बार की हैसियत से हुई थी लेकिन अपनी ज़िंदगी के पहले साल ही वह हफ्ते में दो बार यानी हर शंबा 1 और शंबा 2 को शाया होने लगा था. जब इसकी इशिआत में मज़ीद तौसीह हुई तो हफ्ते में तीन बार शाया होने लगा...
मुंशी नवल किशोर ने कोई दो साल तक अपनी पूरी कारोबारी काबिलियत और मुंशियाना सलाहियत के दम पर कोहिनूर प्रेस में अपने लिए एक अलग हैसियत हासिल कर ली थी। मुंशी हरसुख राय ने काम से मुतासिर होकर उनको प्रेस और अख़बार का काम संभालने के भरपूर मौके दिए और मुंशी नवल किशोर ने इन तमाम मौकों को अपने सरमाया-ए-लियाक़त में जज़्ब करने में कोई कसर न छोड़ी।
इन्हीं तमाम काबिलियतों के साथ मुंशी नवल किशोर 1856 में लाहौर से लौट आए। यहां आकर फ़ौरन ही अपना एक हफ्तेवार अख़बार 'सफीर-ए-आगरा' शुरू कर दिया। इसका पहला शुमारा 19 जनवरी 1856 को जारी हुआ। इस अख़बार के कोई दस्तावेज़ी तहरीर की ग़ैर मौजूदगी की वजह से ज़्यादा तफ्सीलात मौजूद नहीं हैं, लेकिन उस दौर के कुछ बाकी बचे मज़मूनों से यह ज़रूर ज़ाहिर होता है कि यह अखबार बहुत दिन तक ज़िंदा नहीं रह सका था। ज़ाहिर है कि अगला ही साल यानी 1857 हिंदुस्तान में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ बग़ावत और पूरे मुल्क में ज़बरदस्त उत्थल-पुत्थल से भरा था। ऐसे में किसी छोटे अख़बार का ज़िंदा रहना क्योंकर मुमकिन रहा होगा।
1857 का साल हिंदुस्तान के सीने पर बेहिसाब क़त्लो-ग़ारत की कहानियां और सियापों की सदाओं के नक्श बनाकर गुज़र ही गया। उजाड़ों में से ख़ुद को समेटते हुए लखनऊ ने भी ख़रामा-ख़रामा होश सम्हालने की कोशिश शुरू कर दी थी। गो कि इल्मो-हुनर के कद्रदान नवाब वाजिद अली शाह भी अब लखनऊ को ख़ुदा-हाफ़िज़ कह चुके थे, लेकिन इस शहर की तहज़ीब के तार और इल्मो-अदब की आमेज़िशों की नींव इस क़दर पुख़्ता थी कि उस पर अब भी दुनिया के हसीन से हसीनतर ख़्वाबों की ताबीर मुमकिन थी।
मुंशी नवल किशोर भी आगरा की नाकामी को आगरा में ही दफ्न करके इस उजड़े दयार में एक हसीन ख़्वाब लेकर पहुंचे। यह ख़्वाब जब हक़ीक़त में बदला तो ज़माने पर जो ज़ाहिर हुआ अवलीन तौर पर वह 'मतबा नवल किशोर' उर्फ 'नवल किशोर प्रेस' की शक्ल में ज़ाहिर हुआ। मुंशी नवल किशोर ने हर मुमकिन कोशिश की कि इस प्रेस में छपाई की बेहतर से बेहतर मशीनें लगाई जाएं और आला दर्जे की अदबी किताबें और दीगर चीज़े छापी जाएं। अगला कदम जो आगे बड़ा तो उस दौर के एक नायाब अख़बार का आगाज़ हुआ जो 'अवध अख़बार' के नाम से जाना जाता है। इस 'अवध अख़बार' ने मिर्ज़ा ग़ालिब समेत उन्नीसवीं सदी के तमाम मुमताज़ अदीबों के लिए अपने दौर से रूबरू होने के बेहतरीन मौके फराहम किए तो सर सैयद अहमद जैसे मुसलिम समाज की बेहतरी के पेरोकारों का भी भरपूर साथ दिया।  
''...क़याम लाहौर के दौरान मुंशी नवल किशोर को प्रेस, अखबार और उससे मुतलिका कामों के सिलसिले में जो तजर्बा हुआ था, उसकी बुनियाद पर उन्होने आगरा में अपना प्रेस कायम करने का मंसूबा बनाया। लेकिन हालात की नासाज़गारी के बाद वो उसे अमली शक्ल ना दे सके। जब बेयकीनी की कैफियत खत्म हुई तो वो आगरा से लखनऊ चले आए और यहां उन्होने राजा मानसिंह की कोठी वाकए हज़रतगंज में इस अज़ीमो-शान प्रेस की बुनियाद रखी। जिसे इब्तदा में मतबा 'अवध अख़बार' के नाम से शोहरत हासिल हुई। और आज हम मतबा नवल किशोर या नवल किशोर प्रेस के नाम से याद करते हैं।
अख़्तर शहंशाही (मतबूआ अख़्तर प्रेस लखनऊ - तबा 1888, सफा 52) के मुताबिक इस मतबे का कयाम 23 नवम्बर 1858 को अमल में आया था। अगरचे उस दिन रस्मी तौर पर मतबे की बुनियाद पड़ गई थी लेकिन 'अवध अखबार' और किताबों की तबात वा इशात (मुद्रण और प्रकाशन) का काम ग़ालिबन कुछ दिनों के बाद शुरू हुआ। अवध अखबार की चौथी और पांचवीं जिल्दों के बाज़ मुसलसिल शुमारों के मुतलिक जो मालूमात सामने आई हैं, उनकी रोशनी में यह कयास किया जा सकता है कि एक हफ्ता रोज़ा की हैसियत से उसका पहला शुमारा चहार शंबा 5 जनवरी 1859 को मंज़र आम पर आया होगा।''
इस दास्तान-ए-अवध अख़बार को मुंशी नवल किशोर की ज़ुबानी जानने और समझने का एक मौका इसी अख़बार से मिलता है। 8 जनवरी 1862 के 'अवध अख़बार' में मुंशी जी ने अपने मतबे के सफर को लेकर एक मज़मून शाया किया था जो इस सफर को बेहद नज़दीक से देखने और समझने का मौका देता है। इस अख़बार ने उस दौर में भी न सिर्फ शहर-शहर अपने नुमाइंदे मुकर्रर किए बल्कि लंदन और दीगर मुल्कों में भी ख़ास नुमाइंदे लगाए।
''...नए साल का आग़ाज़ हुआ। चौथी जिल्द 'अवध अख़बार' की शुरू हो गई। तीन साल गुज़िश्ता की तरक्की मतबा नवल किशोर की, जो इनायत-ए-ईज़दी से ... से आशकार हुई। करोड़-करोड़ का शुक्रिया लाख-लाख ज़बान से अदा हुआ नहीं कह सकता...''
'अवध अख़बार' को अपने वक़्त का एक अहम दस्तावेज़ माना जाता है। एक ऐसा दस्तावेज़ जिसमे उन्नीसवीं सदी के के एक अहम तरीन दौर के 'इल्मी, अदबी, सियासी, तहज़ीबी और तमदुनी तारीख़' को समझने में बड़ी मदद मिलती है।
लेकिन उन मुश्किल हालात में 'अवध अख़बार' और नवल किशोर प्रेस का यूं चल निकलना कुछ आसान काम न था। इस कोशिश को कामयाब बनाने के लिए मुंशी जी को हर तरह के मुश्किल और मुश्किलतर हालात से गुज़रना पड़ा। 1980 के 'नया दौर' के मुंशी नवल किशोर पर जारी मख़सूस शुमारे में ज़ियाउद्दीन असलाही ने अपने मज़मून में लिखा है कि ''...मुंशी जी को इब्तदा में बड़ी सब्र आज़मा, हिम्मत शिकन और नामुसाइद हालात से दो-चार होना पड़ा। उनकी इब्तदाई ज़िदगी उसरत में बसर हुई। शुरू में वह सरकारी फार्म छापते थे और उनको अपने कंधे पर रखकर कमिश्नरी ले जाते थे। लेकिन वह परेशानियों से कभी घबराए नहीं और न हिम्मत हारी। मतबा कायम करने के बाद उनको काग़ज़ की क़िल्लत का सामना करना पड़ा तो उन्होने काग़ज़ बनाने वाला कारख़ाना कायम किया (अपर इंडिया कूपर पेपर मिल)। ये शुमाली हिंद में काग़ज़ का सबसे पहला कारख़ाना था।''
मुंशी नवल किशोर की शख़ि्सयत में जिस क़दर अदब से उनसियत का जज़्बा था उतना ही गहरा लगाव समाज की दीगर चीज़ों से भी था। और कमाल यह भी है कि चौतरफा कामों में मुब्तला रहने के बावजूद उन्होने ज़िंदगी के किसी भी पहलू को अपनी तवज्जो से महरूम नहीं रखा। घर-परिवार, कारोबार, प्रेस, अख़बार एक तरफ थे तो दूसरी तरफ अंग्रेज़ी सरकार जिसकी तिरछी नज़र हर उस चीज़ पर बनी रहती थी जिसका अवाम की राय पर असर पड़ता हो।
मुंशी नवल किशोर को इस बात का बख़ूबी अहसास था कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के अंग्रेज़ हुकमरानों की नाराज़गी के नताइज क्या हो सकते हैं। अपने शुरूआती दौर में ही वे अपने पहले करम-फरमा मुंशी हरसुख राय की हालत देखकर यह सबक सीख चुके थे। काबिले-ज़िक्र है कि हरसुख राय ने हालात से तमाम तरह के समझौते करने के बावजूद अपने ज़मीर को पूरी तरह कभी मरने नहीं दिया था। इसी वजह से एक दिन उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी थी।
वाक़्या यूं है कि जब 1856 में जब सरकार की तरफ से अख़बारों की आज़ादी पर नकेल डालने की गरज़ से कोंसिल में तजवीज़ पेश किए जाने की ख़बर मुंशी हरसुख राय को मिली तो उन्होने आगे आकर इसके ख़िलाफ 'कोहिनूर' के ज़रिए आवाज़ बुलंद की। साथ ही तमाम दूसरे लोगों से इसकी मुख़ालिफत के लिए एक साथ खड़े होने की अपील भी जारी कर दी। मुंशी हरसुख राय के इस सरकश अंदाज़ से ख़फा सरकार ने फ़ौरन ही उनको झूठे मुकदमे कायम कर, तीन साल की क़ैद का हुकुम भी सुना दिया।
इस हादसे से सबक लेते हुए मुंशी नवल किशोर ने सरकार से हिकमत-अमली वाले अंदाज़ में काफी सुलह-कुल अंदाज़ के रिश्ते बना रखे थे। हक़ीक़त यह भी है कि आगरा से लखनऊ आने की वजह भी अंग्रेज़ी हुकमरानों से उनके दोस्ताना तालुक़ात थे। इस बात का इक़रार मुंशी जी की अपनी ही लिखी किताब 'तवारीख-ए-नादिर अल-अस्र' में भी मिल जाता है। इन अंग्रेज़ अफसरानों में दो नाम ख़ासकर उभर कर सामने आते हैं - एक है अवध के तत्कालीन चीफ कमिश्नर सर राबर्ट मोंटगोमरी और दूसरे लखनऊ के कमिश्नर कर्नल एब्बट। दोस्ती की इस तमाम हक़ीक़त के बावजूद यह भी एक हक़ीक़त है कि मौका आने पर मुंशी जी ने अंजाम की परवाह किए बिना हक़ की बात की और हक़ के लिए ख़ुद को दांव पर भी लगाया।
इस सिलसिले में सबसे अहम बात जिसे दर्ज किया जाना बेहद ज़रूरी है। यह एक ऐसी बात है जिसने हिंदुस्तान की जंगे-आज़ादी में एक मशाल की तरह काम किया। एक ऐसी मशाल जिसकी रोशनी इंसानी दिलों में आज भी रोशन है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने हिंदुस्तान की जंगे-आज़ादी में बुलंद किया गया उद्घोष - 'स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है' असल में मुंशी नवल किशोर की ही देन है।
11 अप्रेल 1875 को 'अवध अख़बार' में प्रकाशित उनके एक संपादकीय का शीर्षक था : ''आज़ादी हमारा पैदाइशी हक़ है।'' इसके ठीक 41 बरस बाद इसी शहर लखनऊ में हुए कांग्रेस अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक ने इस शीर्षक को देश भर के अवाम का नारा बना दिया।  
मुंशी नवल किशोर के किरदार की एक ऐसी बात जिसने उनको आम इंसान की ज़मीन से उठाकर एक ख़ुसूसी इंसान बना दिया था, वह था उनका ज़िंदगी को जात-पात और मज़हब की हदों को तोड़कर इंसानी वजूद और इंसानी रिश्तों को अहमियत देना। जहां एक तरफ तो वे सर सैयद अहमद के साथ उनके मुसलिम सुधारवादी आंदोलन में शाना-ब-शाना साथ रहे, वहीं उन्होने किताबें छापने में भी अपनी इसी नज़र को कायम रखा। यह बात उनके मतबे से छपी हुई किताबों की फेहरिस्त देखने भर से साफ दिखाई दे जाती है। इस फेहरिस्त से जो बात साफ-साफ दिखाई देती है कि मुंशी जी ने हिंदू धर्म-ग्रंथों का तर्जुमा उर्दू में और मुस्लिम धर्म-ग्रंथों का तर्जुमा हिंदी में करवाकर खूब छापा और वाजिब कीमतों पर लोगों को मुहैया करवाया। इनमें से मुंशी श्याम सुंदर लाल का तर्जुमा 'भगवत गीता', पंडित प्रभु दयाल का 'श्रीमद भगवत गीता', मुंशी तोताराम शायां का 'महाभारत मंज़ूम' और 'रामायण ख़ुश्तर', परमेश्वर दयाल का 'रामायण वाल्मीकि', मुंशी शंकर दयाल का 'गणेश पुराण', पंडित स्वामी दयाल का 'मनु स्मृति', गुरू अर्जुन देव महाराज का 'सुखमनी सटीक', एन्नी बेसेंट की 'थियोसफी क्या है' बेहद मक़बूल रहीं। 
मुंशी नवल किशोर ख़ुद फ़ारसी-उर्दू के साथ ही साथ अंग्रेज़ी के भी अच्छे विद्वान थे लेकिन दूसरी ज़बानों के मुकाबले उनकी उर्दू और फारसी की तरफदारी काफी नुमाया है। ईरान के एक प्रोफेसर मोहम्मद तवकोली तरग़ी जो अमरीका की इलिनियोज़ यूनीवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर हैं, 1992 में नवल किशोर प्रेस के इतिहास की पड़ताल करने की ग़रज़ से लखनऊ पहंचे थे. उनके शोध का विषय था:- '' India’s contribution to the formation of Iranian Modernity. '' अपने इस गहन शोध के दौरान उन्होने मुंशी जी के परिवार के सदस्यों, जो अब दो हिस्सों में बंटा हुआ है, की मदद से हर मुमकिन बात को जानने की कोशिश की है।
तरग़ी की इस पड़ताल में कुछ दिलचस्प चीज़ें मुंशी जी की शख़ि्सयत और उनके प्रेस के बारे में मालूम होती हैं। अव्वल तो यह कि नवल किशोर प्रेस से फारसी, उर्दू, अरबी, संस्कृत, हिंदी, मराठी, बंगाली, पंजाबी, पश्तो ज़बानों में कोई पांच हज़ार किताबें छपी हैं। और यह सच्चाई भी सामने आती है कि 19वीं सदी में नवल किशोर प्रेस से फारसी किताबों की तादाद फ़ारसी ज़बान वाले मुल्क ईरान में छपी फ़ारसी किताबों से भी ज़्यादा थी। इन किताबों में फ़िरदौसी का 'शाहनामा', 'दीवान-ए-हाफ़िज़', 'दीवान-ए-अमीर ख़ुसरो', 'दीवान-ए-उर्फी', और कुलियात की कड़ी में जामी, सादी,अनवरी,ज़ाहिर फ़रयाबी, बेदिल और ग़ालिब जैसे अज़ीम नाम शामिल हैं।
तरग़ी की मुलाक़ात पुरानी दिल्ली के एक जिल्दसाज़ से हुई जिसने अपने दादों-परदादों के हवाले से मुंशी नवल किशोर के बारे में एक बेहद दिलचस्प और सबक आमोज़ किस्सा सुनाया। ''...उसने मुझे एक कहानी सुनाई कि किस तरह नवल किशोर ब-इसरार 'क़ुरान' की जिल्दसाज़ी करने वाले अपने तमाम दफ्तरियों से काम शुरू करने से पहले बाकायदा वुज़ू करवाते थे। इस जिल्दसाज़ की नज़र में यह 'हिंदू मुंशी' जामा मस्जिद के उस नायब इमाम से बेहतर मुसलमान था, जो अब मज़हबी दंगे भड़काने वाली नसीहत करता है।''
इस सिलसिले में मुझे नसीर नातक़ी का यह कलाम याद आता है।
शाया कलाम पाक हो, थी दिल की आरज़ू
गूंजी सदाए नेक फिज़ाओं में चार सू
आने लगी तहारत व पाकीज़गी की बू
लिखवाया फिर कलामे इलाही को बा-वज़ू
अल्लाह रे नफासत मुंशी नवल किशोर
कितनी हसीं थी फितरते मुंशी नवल किशोर
मुंशी जी अपने इस पाकीज़ा अंदाज़ अमल ने सारे मुल्क बल्कि दुनिया के तमाम मुस्लिम मुल्कों की नज़र में उन्हें एक ऐसे दरवेश का दर्जा दिला दिया जिसके दरबार में राजा और रंक बराबरी से हाज़िरी देकर ख़ुद को सुर्खरू महसूस करता था। 1885 में अफगानिस्तान के शाह अब्दुर्रहमान का लुधियाना दरबार में आना हुआ। वे मुंशी नवल किशोर से मिलने की हसरत लिए हुए आए थे। वे उन्हें 'इल्म का बादशाह' मानते थे। मुंशी जी से मुलाक़ात हुई तो उन्होने फरमाया कि ''खुदा का शुक्र है कि आपसे मुलाकात हो गई। हिंदुस्तान में जो खुशी आपसे मिल कर हुई वो किसी काम से नहीं हुई।''
इसी तरह 1888 नें जब शाह ईरान की आमद हुई तो उन्होने बाकायदा एक प्रेस कांफ़्रेंस में ऐलान किया कि उनके हिंदुस्तान दौरे के सिर्फ दो ही मक़सद थे : एक तो वायसराय से मिलना और दूसरे मुंशी नवल किशोर से मिलना। हक़ीक़त यह है कि मुंशी जे से बाहर के मुल्कों से आकर मिलने वालों की एक ख़ासी लंबी फहरिस्त है। इनमें तमाम मज़हब के लोग शामिल हैं लेकिन बिला-शक़ मुसलमानों की तादाद सबसे ज़्यादा है।
मुंशी जी के इसी तरह के अ'माल की वजह से 1884 में अमरीका से आए एक ईसाई धर्म प्रचारक बिशप जान फ्लेचर हस्र्ट धोखा खा गए। ईसाई मज़हब को हिंदुस्तान में फैलाने की गरज़ से आए हुए इस पादरी ने मुंशी जी के उर्दू-फ़ारसी प्रेम और इस्लामी धार्मिक पुस्तकों के प्रचार की लगन को देखकर मान लिया कि मुंशी जी 'कट्टर मुसलमान' हैं। साथ ही उसे ईसाई धर्म के प्रसार-प्रचार में उसे बड़ा रोड़ा घोषित कर दिया।
बिशप जान के मुंशी जी को इस तरह 'मुसलमान' जान लेने की एक वजह शायद मुंशी जी की नुमाया शख़ि्सयत भी हो सकती है। मुंशी जी का चेहरा-मोहरा, रहन-सहन, बोल-चाल, पहनावा, आदाब-ओ-अंदाज़ किसी भी बाहरी इंसान को इस तरह का मुग़ालता दे सकते थे। माशाअल्ला पूरा कद-काठी पठानी नाप का था। उस पर चेहरे पे लहराती हुई सर-सब्ज़ दाढ़ी।
मिर्ज़ा ग़ालिब से मुंशी जी के बेहद करीबी और मोहब्बत के रिश्ते थे। 3 दिसम्बर 1863 को मिर्ज़ा अल्लाउद्दीन 'अलाई' को लिखे एक ख़त में ग़ालिब ने मुंशी नवल किशोर से अपनी पहली मुलाक़ात का ज़िक्र करते हुए उनकी तमाम शख़ि्सयत का बयान पूरी तरह शायराना अंदाज़ में किया है।
''... शफ़ीक़े मुकर्रम व लुत्फे मुजसिम (करम करने वाले, अख़लाक़ के पुतले) नवल किशोर साहब, बसबीले डाक यहां आए। मुझसे और तुम्हारे चचा और तुम्हारे भाई शहाबुद्दीन ख़ान से मिले। ख़ालिक़ ने उनको ज़ुहरा की सूरत और मुश्तरी की सीरत अता की है। गोया ख़ुद क़िरान-अल-सादीन हैं।''
( ज़ुहरा : वीनस / शुक्र ग्रह - ज़ुहरा को अरबी में ख़ूबसूरती की मिसाल के तौर इस्तेमाल किया जाता है, मसलन ज़ुहरा-जबीं। इसी तरह मुश्तरी भी एक सितारा है, जिसे हिंदी में बृहस्पति और अंग्रेज़ी में जुपीटर कहा जाता है और ब्रहमांड का सबसे बड़ा नक्षत्र माना जाता है। इस सितारे को नुजूमी नेकी की अलामत जानते हैं। क़िरान-अल-सादीन असल में इल्मे-नुजूम का लफ्ज़ है। क़िरान के मायने क़रीबी या नज़दीकी से है और सादीन का मतलब दो सितारों के मिलन से है। इस जगह इसका इस्तेमाल एक ही इंसान में दोनो सितारों की ख़ूबियां होने से है।)  
दरअसल मिर्ज़ा ग़ालिब और मुंशी नवल किशोर के बीच उम्र का एक लम्बा फासला था। मुंशी जी पूरे 38 बरस छोटे थे। एक दिल्ली में तो दूसरा लखनऊ में। इन दो शहरों के बीच का फासला 300 मील के ऊपर। इन तमाम फासलों को लांघकर जो यह दो लोग इक बार मिले तो सारे फासले ख़त्म से हो गए।
ऐसा न था कि इन दोनो शख़ि्सयतों के बीच 1863 की इस मुलाक़ात से पहले कोई रस्मो-राह ही न थी। असल में दोनो एक दूसरे के काम से बख़ूबी वाक़िफ और एक-दूसरे के काम के परस्तार थे। नवल किशोर प्रेस से छपी हुई किताबों के एक-एक पन्ने पर मुंशी जी मुहब्बत और ईमानदारी की ऐसी छाप होती थी कि उस दौर का हर छोटा-बड़ा कलमकार नवल किशोर प्रेस से अपनी किताब छपवाने की तमन्ना रखता था।
मुंशी नवल किशोर भी ग़ालिब से मिलकर इस कदर ख़ुश थे कि अपनी इस ख़ुशी के इज़हार को मुलाक़ात के ब्योरे की शक्ल में अख़बार में छापने से ख़ुद को रोक न पाए। इस मज़मून से जहां मुंशी जी के दिल में मिर्ज़ा ग़ालिब की क़द्र-शनासी और एहतराम का जज़्बा नज़र आता है वहीं उनकी कलम का जादू भी नुमाया होता है। फारसी से श्रंगारित यह मज़मून 18 दिसम्बर 1863 को कुछ इस तरह छपा है।
''जनाब फैज़ आब, यगाना-ए-सहिर परदाज़, नुक़्ता-ए-संज सरापा, एजाज़ रंग, अफ़राए-नाज़ुक-ख़याली, हंगामा-आरा-ए-बेमिसाली, दकीका याब, फिक्रो-नज़र, आमोज़गार अहले हुनर, फराज़िदा कू-ए-सुभानी, नवाज़िंदा-ए-कोस, शेवा-ए-ज़मानी, नासिर-नफात-ए-यकताई, दर-मशारिक़-व-मग़ारिब, जनाब मिर्ज़ा असदउल्लाह ख़ां बहादुर ग़ालिब की मुलाजि़मत से मुशर्रफ हुआ। शर्फे-मुलाज़िमत का हसूल इतफाक़ाते-नादिर शाह से समझा। इनायत ईज़दी का शुक्रिया है कि ऐसे वहीद-अस्र-यगाना आफाक़, सरे-आमद-फ़ुज़लाए-रोज़गार, आफ़ताब-अक़लीन, फ़ज़लो-कमाल से मुलाज़िमत हासिल हुई।
(फ़ैज़-आब के लगवी मायने हैं - नहर में इतना ज़्यादा पानी हो कि वह छलकने लगे। यहां आशय ऐसी फ़ैयाज़ तबीयत हस्ती से है, दानी पुरुष से है जो देते वक़्त दोनो हाथों से दे। यगाना का अर्थ ग़ैर मामूली, अद्वितीय, सहिर - जादू और परदाज़ का अर्थ चीज़ों को संवारने वाला है। इस तरह यग़ाना-ए-सहिर परदाज़ से आशय बेमिसाल जादू से चीज़ों को संवारने वाला है।
नुक़्ता-ए-संजे-सरापा : तीन लफ्ज़ों का जोड़ है। नुक्ता सामान्यत: किसी लफ्ज़ पर लगने वाली बिंदी से है लेकिन इस जगह उसके दूसरे मायने ज़्यादा सही मालूम होते हैं कि जो ऐसी पाकीज़ा और ग़ैर-मामूली बात को समझ लेने वाला दानिशमंद जिसे दूसरे लोग न समझ पाते हों।
संज के सरल मायने हैं झांझ-मजीरा। दूसरे मायने जो यहां लागू हैं वह हैं तोलना, वज़न करना। पूरी जुमले में यह हो जाता है ऐसा शख़्स जिसकी बात में वज़न हो।
सरापा काफी इस्तेमाल होने वाला लफ्ज़ है जिसके मायने सर से पांव तक। इस तरह नुक़्ता-ए-संज-ए-सरापा से आशय है सर से पांव तक दानिशमंदी से भरपूर इंसान जिसकी हर बात में वज़न हो।
एजाज़ रंग : चमत्कारी रंग
अफ़राए-नाज़ुक-ख़याली : ऐसे ख़याल को बयान करना जो नज़ाकत से भरपूर हो।
हंगामा-आरा-ए-बेमिसाली : ऐसा हंगामा पैदा करना जिसकी दूसरी मिसाल न हो।
दकीका याब : बारीक और गहरी सोच रखने वाला
आमोजग़ार अहले हुनर : ऐसा शिक्षक जो तालीम देने में माहिर हो।
फराज़िंदा कू-ए-सुभानी : फ़राज़िंदा का अर्थ बलंदी है और कू-ए-सुभानी उस गली को कहते हैं जो सीधे अल्लाह के दर तक जाती है।
नवाज़िंदा-ए-कोस : एक ऐसी आवाज़ जो नक्कारे की तरह सीधे ज़हन और दिल पर असर करे।
शेवा-ए-ज़मानी : ज़माने का चलन या बर्ताव
नासिर-नफात-ए-यकताई : ऐसे नग़मो या सुरीली आवाज़़ को मंज़रे-आम पर लाने वाला, जिसकी कोई मिसाल न हो। नासिर को हिंदी में मददगार कहते हैं।
दर-मशारिक़-व-मग़ारिब : जो पूरब से पश्चिम तक फैला हुआ हो।
वहीद-अस्र-यग़ाना-आफ़ाक़ : यह चार लफ्ज़ हैं जिनको मिलाकर अर्थ होता है वो शख़्स जो इस दुनिया और अपने ज़माने में ग़ैर-मामूली वजूद रखता हो।
सरे-आमद-फ़ुज़ुलाए-रोज़गार : अपने दौर और अपने अहद में इतना ऊंचा और बलंद-पाया जिसकी मेहरबानियों की कोई हद न हो।
आफ़ताब-ए-अक़लीम : किसी ज़माने में यह ब्रिटिश हुकूमत के बारे में कहा जाता था, जिसका मतलब था एक ऐसा मुल्क जिसमें सूरज कभी डूबता न हो। यहां आशय है ग़ालिब के कलाम की ताक़त से है जो आफ़ताब-ए-अक़लीम की तरह कभी नहीं डूब सकता।)
उधर मिर्ज़ा ग़ालिब भी मुंशी नवल किशोर के काम के पहले से ही ज़बरदस्त कायल थे। 8 अगस्त 1861 को लिखे मीर मेहदी हुसैन 'मजरूह' को लिखे ख़त में वो कहते हैं; ''...दीवाने उर्दू छप चुका। हाय! लखनऊ के छापेख़ाने ने जिसका दीवान छापा उसको आसमान पर चढ़ा दिया, हुस्ने-ख़त से अल्फ़ाज़ को चमका दिया। दिल्ली पर, उसके पानी पर और उसके छापे पर लानत! साहिबे दीवान को इस तरह याद करना जैसे कोई कुते को आवाज़ दे।''
मिर्ज़ा ग़ालिब से मुंशी नवल किशोर के नाम से पहचान 'अवध अख़बार' के आग़ाज़ के साथ ही हो चुकी थी। यह बात काबिले-ज़िक्र है कि ग़ालिब अपने वक़्त की हर छोटी-बड़ी चीज़ पर बड़ी पैनी नज़र रखने के आदी थे। इसी सिलसिले में वे लगातार ख़तो-किताबत के ज़रिये यहां-वहां के हालात से ख़ुद को आगाह रखते थे और ख़तो-किताबत के दायरे से परे की दुनिया से वाक़िफ रहने को बड़ी बाकायदगी से अख़बार पढ़ते थे।
अपने अज़ीज़ शागिर्द मुंशी शिवनारायण 'आराम' को 2 नवम्बर 1859 के लिखे उनके ख़त से यह बात काफी हद तक ज़ाहिर होती है। ''... लखनऊ के दरबार का हाल जो कुछ सुना हो वो लिखो। अगरचे यहां लोगों के यहां अख़बार आते रहते हैं और मेरी भी नज़र से गुज़र जाते हैं। मगर मैं चाहता हूं के तुम्हारे ख़त से आगही पाता रहूं।''
ग़ालिब के माशी हालात कभी-किसी के लिए कोई राज़ नहीं थे। लिहाज़ा तमाम अख़बारात ख़रीदना निहायत मुश्किल काम था। इसके बावजूद हिकमत-अमली और भाई-चारे की बदौलत वे अख़बार पढ़ ही लेते थे। जिस वक़्त मुंशी नवल किशोर ने कोशिश की कि ग़ालिब उनके 'अवध अख़बार' के बाकायदा ग्राहक बन जाएं तो क्या हुआ, यह एक दिलचस्प मामला है।
शुरू में तो वह इस पेशकश को यह कहकर टाल गए कि वे भाई जिय़ाउद्दीन के यहां से मंगवाकर पढ़ लेते हैं. बाद को मुंशी नवल किशोर ने ग़ालिब को एक लम्बा सा ख़त फ़ारसी में लिख भेजा जिसका मक़सद था एक मज़बूत रिश्ता कायम करना। इसी ख़त के बाद मिजऱ्ा ग़ालिब की कई सारे किताबें ख़ासकर फारसी की 'कात-ए-बुरहान' और बाद को 'कुलियाते ग़ालिब' भी नवल किशोर प्रेस से छपीं। साथ ही सिर्फ डाक टिकट के बदले उन्हें 'अवध अख़बार' भी मिलने लगा था।
मुंशी जी ने फ़ारसी में लिखे अपने ख़त में ग़ालिब से न सिर्फ फ़ारसी ग़ज़लों की फ़रमाइश की थी बल्कि यह इल्तजा भी की थी कि उनके ख़त का जवाब वे भी फ़ारसी में ही दें। ग़ालिब ने हालांकि यहां तक आते-आते फ़ारसी में लिखना लगभग छोड़ दिया था लेकिन मुंशी का दिल रखने को फारसी में जवाब ज़रूर लिख भेजा। इस ख़त का मज़मून ख़ुतूत-ए-ग़ालिब में तो नहीं लेकिन 'कुलियात-ए-नस्र ग़ालिब' में मिलता है.
18 जुलाई 1860 के लिखे ख़त का उर्दू तर्जुमा कुछ इस तरह पढऩे में आता है।
''नामा ब नाम मुंशी नवल किशोर साहिब, मालिक मतबा अवध अख़बार,
ख़ुदा गवाह है कि आपसे आज तक मुलाक़ात नहीं हुई मगर आपकी मुहब्बत दिल में घर कर चुकी है। आपका ख़त मिला तो दीद-ओ-दिल में तक़रार छिड़ गई। आंख स्वार-ए-तहरीर (तहरीर में इस्तेमाल सियाही) को सुरमा-ए-चश्म (आंख का सुरमा) बनाना चाहती थी।
मैने फ़ारसी में बहुत कुछ लिखा है लेकिन अब मुझ से यह मशक़्क़त नहीं होती। मैने आसान रस्ता अख़ि्तयार कर लिया है। जो भी लिखना हो उर्दू में लिख लेता हूं। न सुख़न-आराई, न ख़ुद-नुमाई। तहक़ीर को गुफ़्तगू बना लिया है। बहरहाल, आपके इरशाद की तामील में ये ख़त फारसी में लिख रहा हूं।
मेरी फारसी नस्र की तीन किताबें हैं; पंज आहंग, ब-हर मीम रोज़ और दस्तंबू। आप ये किताबें किसी से मंगवाते क्यूं नहीं। मुमकिन है अहले-लखनऊ उनके मुश्ताक हों।
अब मुझे काफूरो-कफन से काम है। 65 बरस जी चुका हूं। पचास बरस से लिख रहा हूं। आख़िर हर आग़ाज़ का अंजाम होता है। मेरा अंजाम भी करीब है। शशमाही चंदे के एवज़ में महीने में चार बार 'अवध अख़बार' भेजा जा सकता है तो मुझे ख़रीददारी मंज़ूर है।
मियां दादा ख़ान 'सियाह' को दुआ कहिये। मैने एक दोस्त से कह रखा है कि चंद फ़ारसी ग़ज़लें नक़्ल कर दें। ग़ज़लें आते ही आपको भेज दूंगा।''
1860 से शुरू हुआ यह रिश्ता 1863 के आते-आते काफी गहरा होता गया। मुंशी जी ग़ालिब के इस क़दर कायल हो गए थे कि उनसे लिया जाने वाला अख़बार का सालाना चंदा लेना बंद करके उन्हें मुफ़्त कापी भेजना शुरू कर दिया। तब 'अवध अख़बार' का सालाना चंदा लखनऊ वालों के लिए बारह रुपए सालाना और डाक से मंगवाने वाले बाहरी ग्राहकों के लिए पंद्रह रुपए था। इसी वजह से बाद के दौर में ग़ालिब सिर्फ डाक टिकट भेज देते थे और बाकायदगी से अख़बार हासिल करते थे। ''...ये कि दो बरस से हर महीने में चार बार अख़बार मुझको भेजते हैं। कीमत नहीं लेते। मगर अड़तालीस टिकट मैं मतबा में पहुंचा दिया करता हूं।'' ( 1863 में अल्लादीन अलाई को मिर्ज़ा ग़ालिब का ख़त)।
इस सिलसिले में यह बात क़ाबिले-ज़िक्र है कि 'अवध अख़बार' में प्रकाशित ग्राहकों की फहरिस्त देखने पर उस दौर के कमोबेश हर छोटी-बड़ी हस्ती का नाम नज़र आ जाता है। अदीबों में जो नाम ख़ास तौर याद करने लायक हैं उनमें मिर्ज़ा ग़ालिब के साथ ही साथ मोमिन,दाग़ जैसे नाम भी नज़र आते हैं।
1862 में नवल किशोर प्रेस से मिर्ज़ा ग़ालिब की पहली किताब 'क़ात-ए बुरहान' शाया हुई। इसके बाद आई उनकी कुलियात। मुंशी नवल किशोर महज़ एक छापाख़ाने या मतबे के मालिक की तरह नहीं बल्कि अदब से इश्क़ करने वाले इंसान की तरह किताब को पढऩे वालों तक पहुंचाने के लिए भी हर मुमकिन कोशिश करते थे। इस कोशिश में वे किताब की जायज़ कीमत, अच्छी छपाई, ख़ूबसूरत जिल्दसाज़ी के साथ ही साथ अखबार के ज़रिए किताब के बारे में माहौल भी बनाते थे।
मिर्ज़ा ग़ालिब की कुलियात की ही मिसाल लें तो 3 जून 1863 के पर्चे में बाकायदा एक इश्तहार इस तरह जारी किया गया। ''कुलियात का तक्सीम होना मुल्तवी था। अब तैयार है और उनवान किताब में तस्वीर ब-मौका लगाई गई है। इसी हफ्ते से बख़िदमत शाइकान इरसाल है (पाठकों की सेवा में उपलब्ध है)।''
इसी सिलसिले को और आगे बढ़ाते हुए 17 जून 1863 को एक बार इस किताब की तारीफ में कसीदे पढ़ते हुए फिर एक इश्तिहार छपता है : ''ये किताब नायाब ज़बाने फारसी में अदील-ओ-नज़ीर नहीं रखती (बेमिसाल /अपनी मिसाल आप)। बहिमा-ज़िहत मुरतब होकर मतब हाज़ा तैयार है और हस्ब-ए-फरमाइश अहबाब में तक्सीम होना शुरू हो गया है. साहिबाने-शाइक 4 रुपए महसूल भेज कर तलब फरमा लें।''
मुंशी नवल किशोर की शख़ि्सयत की सबसे अहम बात यह है कि उन्होने अकेले मिर्ज़ा ग़ालिब के लिए अपनी उनसियत की ख़ातिर  जानो-दिल क़ुरबान नहीं कर डाला। उन्होने उस दौर के तमाम बड़े अदीबो की न सिर्फ किताबें ही छापी बल्कि उन्हें ख़ूब-ख़ूब इज़्ज़त भी दी। उन्होने समाज में पढऩे-लिखने का शऊर पैदा करने में भी इन तमाम हस्तियों को अपने साथ काम में मुब्तला किया।
इस सिलसिले में डाक्टर रियाज़ उल हसन के मज़मून 'अवध अख़बार और उसके चंद एडीटर' के ज़रिये मालूम होता है कि उर्दू-फ़ारसी के कितने बड़े नाम इस काम में शामिल किये गए। 'इब्तिदा में मुंशी नवल किशोर ने अख़बार की इदारत अपने ज़िम्मे रखी लेकिन जब मतबे का कारोबार बढऩे लगा तो इस बात की फिक्र हुई कि अवध अख़बार की इदारत के लिए किसी क़ाबिल शख़्स को मुक़रर्र किया जाये।'
इसकी शुरूआत हुई मौलवी हादी अली 'अश्क' से। उनके बाद नाम आता है मौलवी रौनक़ अली 'रौनक़' का। एक और अहम नाम जिसने अख़बार को काफी ऊंची परवाज़ दी वह है ग़ुलाम मोहम्मद ख़ान 'तपिश' का। 'तपिश' मिर्ज़ा ग़ालिब के शिष्य और सर सैयद अहमद के बेहद क़रीबी थे। यहां वे आठ साल तक जमकर काम करते रहे। इनके बाद आने वाले शख़्स का नाम ज़माना अब तक नहीं भूल पाया है। यह नाम है 'फ़साना-ए-आज़ाद' के मशहूर लेखक पंडित रतन नाथ 'सरशार' का। 1878 में इस जगह आते ही उन्होने 'फ़साना-ए-आज़ाद' की शुरूआत सिलसिलेवार कर दी थी। जिसकी वजह से अख़बार की चारों और धूम मच गई। उलरिक स्टार्क के मुताबिक यह फ़साना अगस्त 1878 से जनवरी 1880 तक किश्तवार छपता रहा। हर बार आख़िर में लिखा होता था 'बाकी आईंदा'।
1880 में 'सरशार' के इस ओहदे से अलग होने के बाद भी जिन लोगों के नाम आते हैं - उनमे राजा शिव प्रसाद, तोताराम शायां, मिर्ज़ा़ हैरत दहलवी जैसे नाम शामिल हैं। लखनवी इतिहासकारों में सबसे बड़ा नाम अब्दुल हलीम 'शरर' भी 'अवध अख़बार के साथ पहले असिस्टेंट एडीटर और बाद को एडीटोरियल बोर्ड में नज़र आता है। 'उमराव जान' के लेखक मिर्ज़ा हादी रुस्वा भी इस इदारे से जुड़े हुए थे। 
इस जगह इस बात को दर्ज कर देना मुनासिब होगा कि मुंशी नवल किशोर ने 'फ़साना-ए-आज़ाद' की ही तरह 'तिल्सिम-ए-होशरुबा' को भी बाकायदा अपने लिए लिखवाया। उन्होने लखनऊ के एक शायर थे मुहम्मद हुसैन 'जाह'।  वे दास्तान-ए-करबला बड़े पुर-असर अंदाज़ में कहते थे और इस हुनर के लिए बेहद मशहूर थे। मुंशी नवल किशोर ने उनको अपने साथ लेकर उनसे तिल्सिम और बहादुरी की दास्तानें लिखने का ज़िम्मा सौंपा। इस तरह की दास्तानों का इतिहास बहुत पुराना है जो उस वक़्त तक कुछ किताबी शक्ल में तो कुछ ज़बानी अंदाज़ में यह किस्से मौजूद थे। 'जाह' के ज़िम्मे इस सारे सरमाए का सहारा लेकर बात को आगे बढ़ाने का था। इस सिलसिले की पहली किताब 'तिल्सिम-ए-फ़साहत' 1874 में छपकर सामने आई। 1884 में दूसरी कड़ी थी 'तिल्सिम-ए-होशरुबा।' 1890 तक इस सिलसिले में दो और कडिय़ां जुड़ गईं।  इस दरमियान 'जाह' की ज़ाती ज़िंदगी में कुछ ऐसे दर्दनाक वाकियात गुज़रे कि वे इस काम से अलग हो गए। तब मुंशी जी ने लखनऊ के ही एक दूसरे दास्तान-गो अहमद हुसैन क़मर को यह काम सौंपा। अगले तीन साल में क़मर ने तीन  और कडिय़ां लिख डालीं और 1893 के आते-आते सात कडिय़ां पूरी तरह छपकर बाज़ार में आ चुकी थीं।
मुंशी नवल किशोर सचमुच कई ख़ूबियों के मालिक और सचमुच एक बड़ी क़ुव्वत के मालिक थे। 19 फरवरी 1895 को जब उनकी मौत हुई तब उनकी उम्र कुल जमा 59 बरस की थी। और अगर उनके स्कूल-कालेज के ज़माने से बाहरी दुनिया में उनकी अमली ज़िंदगी के साल गिने तो तकरीबन चालीस साल होते हैं। इन चालीस सालों में उन्होने अख़बार और प्रेस चलाने के अलावा कई समाजी तहरीकों में अहम हिस्सेदारी की। साथ ही ग़रीब-ग़ुरबा की खुले हाथ से मदद, स्कूल और कालेजों को माली इमदाद पहुंचाना, शहर के और मुल्क के सियासी हालात में ज़रूरी वक़्त पर दख़ल देना और इन सबके साथ अपने बड़े से ख़ानदान को साथ जोड़े रखना भी उनके काम के दायरे में शामिल थे।
ऐसी बेमिसाल शख़ि्सयात और ऐसी बामक़सद ज़िंदगीयां भी क़ुदरत के किसी कानून से बरी नहीं हैं। मुंशी नवल किशोर भी नहीं थे। 18 फरवरी 1895 तक मुंशी जी पूरी तरह से चुस्त-दुरुस्त हालत में काम करते रहे लेकिन रात में अचानक उनकी हालत बिगड़ी। रात में नींद उचटी। बेचैनी हुई। सीने में शदीद दर्द उठा और बस।
उनकी वफ़ात पर लखनऊ के एक उर्दू अख़बार में इस तरह ख़बर छपी:
''आज (19 फरवरी 1895) चार बजे सुबह को मुंशी नवल किशोर साहब मालिक मतबा अवध अख़बार ने .... बमुकाम लखनऊ कज़ा की। बड़े मशहूर, लायक और दानिशमंद शख़्स थे। अपनी ज़ाती लियाक़त-व-क़ाबिलियत से एक बहुत बड़ा लखनऊ, हज़रत गंज में कायम किया जिसमें हज़ारहां आदमी कार परवाज़ हैं।''
मुंशी जी की अचानक हुई मौत से सारा लखनऊ ही नहीं बल्कि तमाम हिंदुस्तान के अदबी हलकों में मातमी माहौल बन गया। उनके जनाज़े में हिंदू-मुस्लिम, दोनो कौम के लोगों ने ज़बरदस्त तरीके से हिस्सा लिया और बकौल ख़्वाजा अहमद अब्बास इस 'हिंदू मौलवी और मुसलमान पंडित' को अपना ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश किया।
मुंशी नवल किशोर के बाद भी नवल किशोर प्रेस और 'अवध अख़बार' को उनके ख़ानदान के लोगों ने बड़ी सलाहियत के साथ कायम-दायम रखा। मुंशी जी के नक़्शे-कदम पर चलते हुए ही उन्होने हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहरों में से एक पत्रिका 'माधुरी' का प्रकाशन 1922 में शुरू किया था। पहले दुलारेलाल भार्गव और रूपनारायण पांडेय इसके संपादक रहे लेकिन 1927 में मुंशी बिशन नारायण ने इसकी बागडोर उन्होने मुंशी प्रेमचंद को सौंप दी। महावीर प्रसाद द्विवेदी की कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन इसी पीढ़ी ने किया।


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