मुखपृष्ठ पिछले अंक सम्पादकीय
जून-जुलाई 2015

सम्पादकीय

ज्ञानरंजन

कुछ पंक्तियां


पहल के निर्माताओं के लिये

हम संपादकीय प्राय: नहीं लिखते थे। उसकी जरूरत नहीं थी, क्योंकि प्राय: संपादकीयों का एक स्वतंत्र महत्व बन जाता है, उसका पत्रिका को निकालने के विचार और लक्ष्य से कोई तालमेल नहीं होता है। चूंकि हमारे अंक एक क्रमिक और समग्र चित्रपट की तरह विचार और रचना का प्रतिफल होते हैं इसलिये उनमें अन्तर्विरोध कम होते हैं। पहल आत्ममुग्धता के खिलाफ एक शैली बनाने का प्रयास करती रही है और तमाम कमियों, कमजोरियों के बावजूद 40 साल के लम्बे समय में हम पर शंका नहीं की गई, भरोसा किया गया। विविध विचार समूहों और भाषायी रचनाकारों ने हमारी भूमिका की सराहना की और वो हमारे साथ किन्हीं सीमा तक शामिल होते गये। यही हमारा हासिल है। पहल, संपादक, रचनाकार, पाठक और उसके कार्यकर्ताओं का एक समूह है। टूटी फूटी एक कड़ी सदा मौज़ूद रहती है, और इस समूह को स्थानीयता से लेकर विश्व समाजों तक का स्पर्श कराने की धुन हमने कभी नहीं छोड़ी। हमने सांस्कृतिक और वास्तविक भूमंडल की कल्पना की थी, जिसकी वजह से हम दुनिया की उत्कृष्ट रचनाशीलता से जुड़ सके।
मीटर गेज़ की रेलगाड़ी की तरह, छुक छुक छुक छुक करती पहल की रेलगाड़ी 1973 के उत्तरार्ध में सुभद्रा कुमारी चौहान की नगरी से तमाम मनाहियों के बावजूद मुक्तिबोध, परसाई और भाऊ समर्थ के नाम पर नारियल फोड़ कर चल पड़ी। एक बहुत धुंधली, धीमी और सत्याग्रही जिंदगी थी उन दिनों। बस यही कि इस रेलगाड़ी की सीटी बियाबान में गूंजती थी। एक दशक पूर्व हरिशंकर परसाई अपनी सुप्रसिद्ध 'वसुधा' को तंगियों के कारण बंद भी कर चुके थे। दो साल बीते होंगे, पहल कभी इलाहाबाद में छपती थी, कभी सतना, कभी जबलपुर, कभी दिल्ली, कभी नागपुर। बड़ी बेचैनियां थीं। शिवकुमार सहाय (परिमल प्रकाशन) ने छपवाया, रवीन्द्र कालिया (इलाहाबाद प्रेस) में छापा, मोहन गुप्त (सारांश प्रकाशन) का हाथ भी कई साल लगा। देश निर्मोही आधार प्रकाशन (पंचकूला) ने सालों अंक छपवाये, नीलाभ की मदद से कई अंक निकले, नागपुर में मनोहर पंडित दो साल तक पहल छपवाते रहे। अब वे नहीं हैं। यह भटकना अभी भी जारी है, जबकि अशोक भौमिक और गौरीनाथ ने इसे पूरी तरह इस दौर में अपनाया। इन सबने अपना काम छोड़कर 'पहल' का काम किया। यह एक असाधारण सहकार है जो हमें उपलब्ध हुआ है।
दो साल बीते थे, 6-7 अंक पहल के निकले ही थे कि छुक छुक गाड़ी पर बड़ा हमला हुआ। आपातकाल लगा ही था। इस हमले में एक मशहूर कुल की कांग्रेसी सांसद भी पूरी तरह शामिल थीं। स्थानीय सांसद ने 'सत्यमेव जयते' के सुनहरे पैड पर चिट्ठियाँ लिख लिखकर गृहमंत्रालय को चेताया कि आपातकाल के बावजूद 'पहल' कैसे निकल रही है। इसी समय लगभग हर रोज़ राज्य, केन्द्र का कोई न कोई जासूस श्वान हमारे दरवाज़े पर आता था, सूंघता था, बात करता था। आज भी हम इस खतरे से मुक्त नहीं हुए।
हम मुठभेड़ के बावजूद डर डर के चले हैं। सहारे के लिये किसी प्रकार के सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन नहीं हैं। फुटकर जनता जगह जगह मुठभेड़ कर रही है, आवाजें उठती हैं। अन्यथा पाठ्यक्रमों, शिक्षा तंत्रों, सिनेमा घरों, पुस्तकों, लेखकों, रंगमंच और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं पर हमले हो रहे हैं। डर के इसलिये चलते हैं कि कब हमारी छुक छुक को राजधानियां, शताब्दियां ठोंक न दें। और अब तो डर बढ़ गया है क्योंकि सामने से बुलेट ट्रेन की छाया आ रही है, जिसकी रफ्तार में ही कुचलने का अरमान है। फासिस्ट सबसे तेज़ और एकबारगी विकास करते हैं। फिर बुलेट ट्रेन का चालक 'हिट एण्ड रन' से कई गुना अधिक आनंद रक्तपात में ही पाता है।
टाइम्स ऑफ इंडिया के धर्मयुग और हिन्दुस्तान टाइम्स की कादम्बिनी ने 'पहल' पर आपातकाल का प्रतिरोध करने के नाम पर निरंतर लेख और अग्रलेख लिखे। जब धर्मवीर भारती एक केबिन में बैठकर पहल पर निम्नस्तरीय हमले करवाते थे; एक जालसाजी नाम से तब टाइम्स के दूसरे दफ्तर से सारिका के संपादक कमलेश्वर 'पहल' जैसी लगभग शुरूआती नामालूम पत्रिका का बचाव करते थे। पहल को बंद करने, संपादक को बंदी बनाने, उसको नौकरी से मुअत्तल करने की लिखित आवाजें आईं। पर दिग्गज पत्रकार मायाराम सुरजन, राहुल बारपुते और बड़े पत्रकार एन.के. सिंह ने पहल की पैरवी की। यह हमारी अग्नि परीक्षा थी। भारतीय भाषाओं के सैकड़ों बड़े लेखकों ने 'पहल' के पक्ष में, आपातकाल के बावजूद, हस्ताक्षर अभियान जारी किया और यह पहल की भावी जिम्मेदारियों और राजनैतिक खतरों की तरफ संकेत था। हमें महान लेनिन का यह वाक्य याद आया कि 'शत्रु, हमें जहां हम नहीं होते वहां भी पहुँचा देते हैं।' पहल की रणनीति बनने लगी। हमारा हौसला बढ़ा। भारत के कई जेलों तक 'पहल' का पाठक वर्ग पहुँचा। इंडियन एक्सप्रेस समाचार पत्र ने एक वार्ता में लिखा कि यह एक जबरदस्त सूचना है कि एक बिल्कुल कस्बेनुमा इलाके से एक आधुनिक उत्तेजक साहित्यिक पत्रिका निकल रही है। बहरहाल, अनेक फटेहाल हालातों और कमजोरियों के बावजूद यह पहल के विचार और लक्ष्य को लोकतांत्रिक सपोर्ट था। और पहल की गाड़ी, छुक छुक गाड़ी चलती रही। प्रूफ की गल्तियों के बारे में हमारी स्थिति ऐसी है कि पूरी तरह काबू नहीं कर पा रहे हैं। एक बार दिनमान के एक उपसंपादक और फिल्म समीक्षा के गुरु नेत्रसिंह रावत ने जो पहल के लिए लगातार लिखते थे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, विमल राय पर लिखा, गर्म हवा पर भी लिखा हमें धमकाया कि प्रूफ की गल्तियों की वजह से मैं 'पहल' में आगे नहीं लिखूंगा, हालांकि उन्होंने लिखा भी। पर यह हमारी शर्म तो है ही।
पहल के निकलने के आसपास या उस दौर में पत्रिकाओं का बंद होते रहना एक घटना थी। कल्पना, लहर, विकल्प, माध्यम, युगचेतना, नयी कविता, उर्दू साहित्य, निकष, नया पथ, वसुधा, कृति जैसी और भी पत्रिकाएं थीं जिनकी शानदार भूमिका थी। देशांतरों में इनकाउंटर, एवरग्रीन रिव्यू, पेरिस रिव्यू, पोयट्री मैगज़ीन, लंदन मैगज़ीन भी बंद हो गयी थीं या लडख़ड़ा रही थी।
इनके संपादक बड़े रचनाकार थे। इनमें कुछ पत्रिकाएं संस्थानों की थीं, कुछ संगठनों की और कुछ लेखकों द्वारा संचालित थीं। उसी समय यह सोचकर कि एक घोड़ा गिरता है, दूसरा उठता है, हमने 'पहल' का संकल्प लिया। विपदाएं बहुत थीं, लोगों को जोडऩा था, हम धीमे थे, कछुओं की तरह और हमारी छुक छुक गाड़ी दौड़ भले न रही हो चल जरूर रही थी। वह समय भी कुछ चैन का, छपी चीजों के महात्म का था। नयी कविता का आत्म संघर्ष था और हिन्दी की महान गीतमाला भी जीवित थी। 'पहल' ने अपना रास्ता इसी के बीच से निकाला, कविता पहल का प्राण थी। इस गाड़ी में 'पाश' बैठे और बैठे लाल सिंह दिल, सुरजीत पातर भी बैठे। पाश पर पहल का विशेष अंक जंगल में आग की तरह फैला। बाद में जालंधर में पहल को 'पाश सम्मान' से नवाजा गया। पाश की कविताएं लंदन से अमरजीत चंदन ने भेजी थीं, क्योंकि पाश अपनी जान बचाते बाहर थे और 'पहल' के अंक के तत्काल बाद एक दिन जब वे अपने गांव आये थे उन्हें गोली मार दी गयी थी। इस तरह पहल की छुक छुक गाड़ी खतरनाक रास्तों पर चलने लगी। पहल की रेलगाड़ी पर, वही आसपास का वक्त था जब, विश्व कवि पाब्लो नेरुदा की लम्बी कविता 'माच्चू पिच्चू के शिखर' पुस्तिका चढ़कर आयी, इस प्रकार पहल ने पहली बार समुद्र लांघा। बाद में तो हमने रैम्बो, रेड इंडियन कविता, वोले शोयिंका, वाल्टर बेंजामिन, अफ्रीकी लोकगीत, एडवर्ड सईद, चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश के श्रेष्ठ साहित्य पर अंक निकाले। पहल की विश्व दृष्टि निखर रही थी। गाड़ी सरपट दौडऩे लगी थी, उसकी छुक छुक गूंजने लगी थी। मराठी भाषा में दलित उभार के वे अनोखे दिन थे। प्रतिरोध की कविता में नामदेव ढसाल, अर्जुन डांगले, सतीश कालसेकर और कहानी में बाबूराव बागुल जैसे अद्भुत रचनाकार आये। पहल ने इन्हें पूरी समग्रता से अपनाया और उनको प्रमुखता से छापा। मराठी के अन्डरवर्ल्ड साहित्य को पहल में पर्याप्त जगह मिली। हाँ, हमने इस बहाव में दिलीप चित्रे जैसे कठिन कवि को कभी नहीं भुलाया। आज महाराष्ट्र के कस्बों में भी 'पहल' को बार बार याद किया जाता है। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रसंग यह है कि 'पहल' ने मराठी में प्रकाशित होने के साथ ही हिन्दी में वसंत गुर्जर की लम्बी, विवादास्पद कविता ''गांधी मला भेटला'' तत्काल छापी। इसके कवि, प्रकाशक पर कल तक सुप्रीम कोर्ट में विवाद जारी रहा है। ज्ञानपीठ प्राप्त मराठी के विभूषित कथाकार भालचंद्र नेमाड़े ने हिन्दू अखबार में 15 मई को 2015 को दिये गये वक्तव्य में न्यायालयों की आलोचना करते हुए कहा है कि गांधी पर लिखी दुनिया की सभी कविताओं में ''गांधी मला भेटला'' विमर्श पैदा करने वाली एक असाधारण कविता है। 'पहल' में छपने के बीस वर्ष बाद आज यह टिप्पणी आई है। चूंकि वसंत गुर्जर और प्रकाशक को भी कारावास में रहना पड़ा, यह सवाल कट्टरपंथियों ने उठाया कि पहल संपादक को भी घेरना जरूरी है। अब पहल की छुक छुक को ईंधन भी मिलने लगा और उसकी सवारियों में देश विदेश के शानदार लोग शामिल होने लगे। लेकिन सांस्कृतिक संकट और आपदाएं नया नया आकार ग्रहण कर रही थीं। इसलिये पहल ने दो पुस्तिकाएं सांस्कृतिक संकट गहरा रहा है (प्रदीप सक्सेना) जारी कीं और छुक छुक गाड़ी के डिरेल होने के खतरे भी उठाये।
'पहल' जब स्थगित या बंद हुई तो वह उतना अकस्मात नहीं था जितना लगता था। वह एक दर्द भरा निर्णय था। उसमें बहुतेरी चीजें शामिल थीं। संपादक की अस्वस्थता, संपादक का आवेग और उन तमाम मध्यमवर्गीय लेखकों का मद जो सफलता के शिखर पर पहुँच चुके थे, जिनमें आग ठंडी को रही थी और परिवर्तन कामी मुठभेड़ का पर्याप्त हौसला बचा नहीं था। पहल को नये रचनाकारों के पहचान की चुनौती भी थी। रेलगाड़ी और उसकी पटरियों को दुरस्त करना भी था, कई ताकतें विकास के नाम पर पटरियों को उखाड़ रही थीं। सिनेमा के पर्दों, रंगमंचों, पुस्तकालयों, अभिव्यक्तियों पर, इतिहास पर, विज्ञान पर, वैज्ञानिक शोध पर हमला था, यहाँ तक कि हत्याएं भी थीं।
पहल का काम बढ़ गया था और हमारे पास दफ्तर भी नहीं था। चार दशक से घर का एक कोना ही काम चलाता था। फिर भी हम पस्त नहीं थे, शायद विश्राम की जरूरत थी और एक नई तैयारी की। सेहत एक भरपूर काम के लिये पर्याप्त नहीं थी, लोगों को अंधकार पक्ष बताने की भी जरूरत थी। अन्यथा हम उस समय भी अपनी भूमिका का निर्वाह कर सके जब सोवियत संघ का पतन हुआ। हमने ग्लास्नोस्त और पेरस्त्रोईका पर एक पुस्तिका छापी और देश भर में वितरित की, मार्क्स की जीवनी छपी और दिल्ली में प्रो. एजाज अहमद का व्याख्यान करवाया जिसके आयोजन में का. चन्द्रशेखर जैसे क्रांतिकारी युवा शामिल हुए, बाद में जिनकी हत्या हुई। इस व्याख्यान की अब तक हजारों प्रतियां बिकीं और आज भी पढ़ी जाती हैं। जो काम वामपंथी पार्टियां नहीं कर सकीं, वह हमने किया। हमने असगर अली इंजीनियर, शमीम हनफी और वरवर राव के व्याख्यान करवाये। फिर भी आयोजन करना और एक रचनात्मक पत्रिका को जीवित रखना दो भिन्न भिन्न ध्रुव हैं। हमें साहित्य को प्रकट करना था और विचार को भी, यही हमारी दो पटरियां थीं। सो पहल के बंद होने के पीछे अवसाद उतना नहीं था जितना अपने दायित्व की परिवर्तनकामी चुनौतियां थीं।
हमें अपनी वर्गीय स्थिति को समझते रहना था और अपने प्राइड से समझौता नहीं करना था। हम खिचड़ी वाले चावलों से बिरयानी नहीं बना सकते थे। हमारे गुणीजनों का समुदाय कलावादी और दक्षिणपंथी तबकों से नहीं बन सकता था। हमें जन उत्कृष्टता की कसौटियों पर भी खरा उतरना था। हमारा, सभी को विदित है, सौंदर्यशास्त्र ही अलहदा था। इसी वजह से हमने मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र पर एक ऐसा अंक निकाला जिसे अनेक विश्वविद्यालयों ने संदर्भ ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया। पहल की छुक छुक गाड़ी में नये पुरानों, के अलावा सभी सांस्कृतिक संगठनों के रचनाकार सम्मिलित थे।
नये दौर में पहल के साथ सुप्रसिद्ध पत्रकार, लेखक और कवि राजकुमार केसवानी का जुडऩा हमारे लिये सुकून भरी उपलब्धि है।
'पहल' के फिर से निकलने का एक पक्ष बहुत सुखद है वह यह कि जितेन्द्र भाटिया, अशोक भौमिक, कर्मेन्दु शिशिर उन साथियों में हैं जो मुझे लगातार ठोंकते प्रेरित करते रहे, पहल निकालने के लिये। मैंने 2-3 वर्ष कुछ नहीं किया, सिवाय बार-बार अपना इलाज करवाता रहा और मृत्यु को भी प्राप्त नहीं हुआ। देश के कोने कोने से मध्यवित्त नौकरी पेशा लेखक पाठक हमें आर्थिक सहायता के लिये आश्वस्त करते रहे। उस सूची को प्रकट करना उचित नहीं है जो छोटी छोटी आर्थिक मदद भेजते रहे। वे दूरस्थ हैं, अनाम हैं, कुल वक्ती रचनाकार नहीं हैं। अंतराल का यह वह समय था जब बीस वर्ष पूर्व जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़ाई सम्पन्न करके विभिन्न नौकरियाँ करने वालों का एक समूह मुझसे मिलने आया। जाहिर है यह स्थानीयता और निजता का प्रसंग था। ये सारे युवक प्रतिभाशाली, विचारवान और दूर-दूर नौकरियां करने वाले लोग थे। इन्होंने 'पहल' को निकालने, स्वतंत्रता के साथ निकालने और राज्य सरकारों के विज्ञापन के बगैर निकालने का आग्रह किया। आश्वासन दिया, जिम्मेदारी ली कि जो भी एक अंक का खर्च आयेगा उसका एक बड़ा हिस्सा वे अपनी आमदनी या तनख्वाह से साल भर देते रहेंगे। बाकी आजीवन, सदस्यता और छोटे अनुदानों से होगा। यह रिवाज़ शुरु हुआ और सत्येन्द्र सिंह ठाकुर, अखिलेन्द्र पाण्डे, निरंजन पाठक, भारतभूषण, शांतनु श्रीवास्तव, कुलभूषण मिश्रा, शशिकांत आदि 8-10 नाम हैं जो अपना यह काम खुशी खुशी चुपचाप करते हैं, ये यदा कदा विज्ञापन भी दिलवाते हैं। गौरीनाथ जो लेखक, संपादक, प्रकाशक हैं 'पहल' छापने, जारी करने, प्रबंध करने का बहुमूल्य काम करते हैं, जैसे अपना काम करते हैं, उसी प्रीत के साथ पहल का काम भी करते हैं।
पहल की वेब साइट का निर्माण, उसका संचालन का समस्त भार कुलभूषण ने संभाला है जो स्वयं जीवन का विकट संघर्ष कर रहे हैं। एक पूरा कार्यालय ही उन्होंने संभाला हुआ है।
पाठकों, इस पूरे स्थूल वक्तव्य को आप हमारे गौरव, मुकुट, शान या हाहाकार के रुप में न लें। यह हमारे लक्ष्य और यात्रा का अनोखा आनंद है। संसार भर में हर कहीं ऐसी ही लड़ाईयां लड़ी जाती हैं। हमने कुछ अनोखा नहीं किया है। जब भी 'पहल' का अंत होगा, जो कभी भी हो सकता है (क्योंकि पहल ब्रैंड नहीं है) वह एक छापामार की विदाई जैसा ही होगा। सर्वोत्तम लड़ाईयां खुद से लड़ी जाती हैं और वे हमें उपयुक्त बनाती हैं।
इस अंक की रचनाओं के गहरे सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ हैं। विचारों के अपहरण, विकास के चलते खौफनाक बदलाव, नये मुहावरे और मनुष्य विरोधी धूल के चित्र अंक 100 की रचनाओं में हैं। इस अंक की रचनाओं में बहुमूल्य के नष्ट होने की बेचैनी भी है। दस लंबी कहानियों में नया आख्यान पटरी बना रहा है और पुराणपंथी प्रगतिशील ढांचा टूटता दिखाई देगा। नये रचनाकार मात्र छपने छपाने के लिए नहीं 'पहल' में शामिल होने का इंतजार करें। कृपया निशुल्क 'पहल' प्राप्त न करें। अगर हमें आर्थिक मदद मिली तो हम उन 43 शानदार पुस्तिकाओं का पुन: प्रकाशन कर सकेंगे जो समय समय पर छापी गयी हैं।
ज्ञानरंजन


Login