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मार्च : 2015

साहित्य की लोकतांत्रिक दुनिया में 'मीठो पाणी खारो पाणी'

अमिताभ राय

पुस्तक
अगली बार शीला रोहेकर की यहूदी जीवन गाथा पर



कुछ औरतें झरनों जैसी होती हैं, वे नहीं याद रखतीं कहां से गिरीं कहां पहुंची... कहां बह रही हैं... किसने अपना मुंह धोया या कितने ठंडे और काई लगे पत्थरों से वह गुज़र गयी... याद उसे दूसरे दिलाते हैं, जिन्हें पानी घड़ों में रखने की आदत होती है... पानी पीते समय वे सुरक्षित महसूस करते हैं.... - 127





इस उपन्यास पर बात करने के पूर्व एक पाठक अथवा आलोचक के नाते मेरे समक्ष गहरा संकट है। सबसे पहली बात आलोचकीय अर्हता की है। मेरी पीढ़ी के आलोचकीय अथवा पाठकीय विवेक का एक महत्वपूर्ण सन्दर्भ है कि किसी रचना, रचनाकार अथवा प्रवृत्ति के संदर्भ में वह त्वरित टिप्पणी दे। अधिकतर ये त्वरित टिप्पणियाँ रचनाओं अथवा रचनाकारों को खारिज करती दिखायी देती हैं। वास्तव में यह आलोचना कर्म है भी नहीं। जो तथ्य, तत्व, सन्दर्भ हमें पसन्द होते हैं और स्नावयीय तन्तुओं का हिस्सा होते हैं, उसके सन्दर्भ में टिप्पणी करना बहुत आसान है, उसका विश्लेषण करना भी आसान ही है, पर कठिनाई तब उत्पन्न होती है, जब किसी रचनाकार के साथ हमारा सहज तादात्म्य न हो। तब प्रश्न उठता है कि क्या जिन चीजों से हमारा सहज तादात्म्य नहीं होगा, वह चीज बेकार हो जाएगी? क्या यह हमारे लोकतांत्रिक समझ के विरुद्ध नहीं है? क्या हम अपनी समझ से वैसे मूल्यों की खोज कर सकते हैं, जो सर्वमान्य और सार्वभौमिक हो?'
लोकतन्त्र में वास्तव में कई पक्ष एक साथ अस्तित्ववान रहते हैं। इसमें पक्ष, विपक्ष सह अस्तित्व में होते हैं। व्यक्ति के भीतर एक आन्तरिक प्रतिपक्ष भी होता है। इस समझ के कारण चीजें, तथ्य वैयक्तिक रुचि-अरुचि की सीमा से बाहर निकल जाते हैं। जया जादवानी के नवीनतम उपन्यास 'मीठो पाणी खारो पाणी' के सन्दर्भ में मेरी समस्या उपर्युक्त ही है। वह मेरी समझ के अनुकूल नहीं है। मेरी समझ का दर्पण मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ हैं - 'मुक्ति अकेले में नहीं मिलती।' जबकि 'मीठो पाणी खारो पाणी' में रूमी कहती है - ''जब मैंने अपने होश में उसका जीवन देखा तो पहला ख़याल यही आया कि वह जीवन मुझे नहीं चाहिए। तो कौन-सा दूसरा जीवन मुझे चाहिए और वह कहाँ है? उसकी प्रकृति क्या है?'' रूमी ही कहती है - ''हर रास्ता अकेले का उसके, अपने लिए होता है रायना। बनाता ही वह खुद है। हम दोनों का रास्ता एक तो हो ही नहीं सकता, होना भी नहीं चाहिए।'' यह बुनियादी समझ का फर्क है। परन्तु समझ का यह फर्क समस्या को पहचानने में नहीं है, चिन्हित समस्याओं के समाधान की कोशिश में है। इस उपन्यास की मूल समस्या क्या है? - स्त्री स्वातंत्र्य और मानव मुक्ति। इस स्वतंत्रता की तलाश में रूमी इतिहास के 5000 वर्षों के पृष्ठों का अवगाहन कर डालती है। जबकि रूमी कहती है - ''दुनिया की औरतों, होश में आओ। कोई भी तुम्हारे विकास में उत्सुक नहीं, सिवाए तुम्हारे।'' तो उसका सम्बोधन व्यापक स्त्री समाज ही है। वह सिर्फ एक स्त्री की बात नहीं कर रही है। परन्तु जब वह स्वतन्त्रता के तलाश के व्यावहारिक रास्तों से होकर गुजरती है तो उसका स्वर आत्मकेन्द्रित हो जाता है, आत्मस्थ हो जाता है। वह समाज के इतिहास के बड़े वृत्त से होते हुए क्रमश: छोटे वृत्त की ओर संकुचित होती जाती है। यह संकुचन बड़े अन्तर्विरोध को जन्म देता है क्योंकि यह विकास का नहीं उसकी प्रक्रिया का अन्तर्विरोध तैयार कर लेता है। एक व्यक्ति के अन्तर्विरोध इतिहास के धारा को बड़े स्तर पर और बहुत दूर तक प्रभावित नहीं करते। पर सामूहिक बदलाव की प्रक्रियाओं के अन्तर्विरोध इतिहास की गति को निर्णायक दिशा में मोड़ सकते हैं। जब वह दुनिया की औरतों को आगाह करती है तो उसके दायरे में सिर्फ एक स्त्री रूमी अथवा रायना नहीं रह जाती। दुनिया की करोड़ों दबी-कुचली औरतों का सन्दर्भ है। फिर नितान्त निजी सन्दर्भों में जाकर स्वतन्त्रता की तलाश कैसे सम्भव है? फिर यह भी सत्य है कि स्वतन्त्रता की उत्कट भूख हर स्त्री में उतनी ही मात्रा में नहीं पायी जाती है जितनी रूमी और रायना में है, तो क्या इन इन करोड़ों लाखों-स्त्रियों को युगों तक पराधीनता सहने के लिए विवश रहना पड़ेगा? अगर स्वतन्त्रता का यह संघर्ष व्यक्ति की निजी क्षमता और व्यवहार के बदले सामाजिक प्रक्रिया का अंग होगी तो स्वतन्त्रता का अर्थ भी विस्तृत व्यापक और दूरगामी होगा।
ऊपर वाले रूमी के उद्धरण में देखा जा सकता है कि रूमी अपनी माँ बुआ आदि तमाम स्त्रियों के जीवन को देखकर, उसकी परतन्त्रता के विभिन्न स्तरों को देखकर, शारीरिक और मानसिक रूप से उन्हें सहते देखकर समाज द्वारा निर्धारित किए गए जीवन को स्वीकार करने से इन्कार कर देती है। इस इन्कार के साथ ही उसके तलाश की शुरुआत होती है। यहाँ वह स्पष्ट कहती है कि यह तलाश 'उस दूसरे जीवन की भी और अपनी भी...' है। दूसरे जीवन की तलाश समाज विमुख नहीं हो सकती क्योंकि तलाश के बाद भी और बावजूद भी व्यक्ति रहेगा तो समाज में ही। परन्तु यह दूसरा सन्दर्भ व्यक्ति को निजता की खाइयों में धकेल सकता है। रूमी कहती है - ''कितना अच्छा लग रहा है अपने साथ रहना...। आसपास का समस्त संसार उसके भीतर चला जाता है... वह देख-देख कर अभिभूत है...। खुद से खुद के मिलने की सिर्फ झलकें हैं उसके पास, जिसे उसे पूरा करना है।'' रूमी के दो उद्धरण और द्रष्टव्य हैं - 'हर रास्ता अकेले का उसके अपने लिए होता है रायना।' तथा ''वैसे भी विकास अपनी कोशिशों का परिणाम है, व्यक्तिगत कोशिशों का... भीड़ पर इसे लागू नहीं किया जा सकता।'' परन्तु यह विकास का कौन-सा मार्ग है? कौन-सा मॉडल है? वह निश्चितरूपेण अध्यात्मवादी मॉडल होगा। हो सकता है कि किसी को इससे राहत भी मिलती हो, परन्तु उस 'किसी' की आध्यात्मिक उन्नति सामाजिकों के लिए किस प्रकार लाभप्रद होगी? चूँकि आध्यात्मिकता की गहराई के इस मॉडल को मैं नहीं जानता, तो इस पर टिप्पणी करने का अधिकारी भी मैं नहीं हूँ। जिसे मैं जानता ही नहीं उसे अच्छा या बुरा, सही या गलत कैसे कहूं? मैंने अर्हता का प्रश्न ऊपर भी उठाया है। पर मैं यह कह सकता हूँ कि यह प्रक्रिया सार्वजनिक नहीं हो सकती। इसकी परिणतियाँ भी सहज स्वीकार्य हो - यह आवश्यक नहीं। रूमी का आखिर में शरीर तक पहुँचना इस प्रक्रिया की सहज परिणति अधोगति ही है। वह आखिर में शरीर पर पहुँचती है - एक कामात्मक सन्सर्ग, फिर उसको कितना भी दार्शनिकीकृत क्यों न किया जाए - ''ओ दिव्य... दिव्यता ही पथ हो तेरा। साधारण इन्द्रिय समागम नहीं है ये... इससे परे कुछ... भोक्ता हूँ मैं... भोग्य भी मैं ही हूँ... दुष्टता भी... दृश्य भी...। खुद को छूआ से छूके.. पाया खुद को उसे पाकर... ओ प्रेम, ओ अदृश्य, ओ सृष्टिकर्ता...ओ ब्रह्मांड... जा तेरी मर्जी पूरी हो।'' पर यह दार्शनिकीकरण कामात्मक संसर्ग की अतिरिक्त और अतिरंजित भावुकता पर क्यों नहीं है। इस सन्सर्ग के बाद की सामाजिक स्थितियों का चित्रण नहीं है उपन्यास में अन्यथा हम सभी अपने सामाजिक अनुभवों से इसकी परिणति जानते हैं। इस संसर्ग का एक दार्शनिक हल भी रूमी देती है - ''मैं उसे प्रेम करती हूँ... इसका यह अर्थ तो नहीं कि हम साथ रहने ही लगें। इसका अपना जीवन है... मेरा अपना... यह अपने अकेले रहने... अपनी घुमक्कड़ी में खुश है और मैं... मेरे साथ मेरी सृजनात्मक शक्ति... जिसके बिना मैं नहीं रह सकती। यह प्रेम हमें विस्तार देगा... मैंने अनन्त को पाया है... मैं अनन्त सिरजूँगी...''। एक व्यक्ति जो सामाजिक भी हो, उसकी सारी समस्याओं का निदान दार्शनिक धरातल पर निकाला जा सकता, तो यह दुनिया कितनी बेहरत हो, सुन्दर होती! काश ऐसा हो पाता! परन्तु दार्शनिकीकरण और दर्शन की सीमाएँ हैं। जीवन के यथार्थ के समक्ष दुनिया के तमाम दर्शन बिखर जाते हैं।
साथ ही यह भी देखा गया है कि दुनिया की सारी क्रांतियाँ समूहों का परिणाम हैं, सारे सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल सामूहिकता का परिणाम हैं। विकास का परिणाम अथवा लाभ भी एक व्यक्ति नहीं उठाता। उससे सारा जन समुदाय लाभान्वित और प्रभावित होता है। नये रास्तों का जब निर्माण होता तो विशिष्ट नेतृत्वकारी शक्तियों का आगमन होता है, ऐसा इतिहास के अध्ययन से हम जानते हैं। परन्तु वे भी समाज विमुख तो नहीं होतीं। उन विशिष्ट नेतृत्वकारी शक्तियों के इर्द-गिर्द सामूहिकता का बड़ा गोला होता है।
आध्यात्मिकता या आत्मस्थ विकास, जिसे भीड़ पर लागू नहीं किया जा सकता (ऐसा रूमी कहती है) एक्सक्लूसिविटी पर बल देती है। पर दुनिया का कोई भी ज्ञान, जो अपने विकास की प्राथमिक स्थितियों को पार कर चुका होता है, विकास की निरंतरता का परिणाम है। विचार और भाव के स्तर पर भी जटिल संरचनाएँ एक्सक्लुसिव नहीं हो सकती। उनके पीछे सरल संरचनाओं की बुनियाद होती है। जंगल में भटका हुआ इन्सान जब कहीं नहीं पहुंच पाता, तो पहले के बने निशानों के सहारे आगे बढ़ता है। जिस रूमी खुद का रास्ता बनाना कहती है, वास्तव में उसके पीछे भी इन्सानी सभ्यता के विकास का संचित ज्ञान है। अगर ऐसा नहीं तो वह इतिहास के 5000 वर्षों के पन्नों में भटकती क्यों है? यह ज्ञान किताबों में, अवचेतन में, सांस्कृतिक मिथकों में बिखरा पड़ा है।
ज्ञान बार-बार सृजित नहीं होता, अपितु वह बार-बार रिस्टक्चर्ड होता है। रिस्टक्चरिंग में बलाघात का बिन्दु बहुत महत्व का होता है। इस पुस्तक के सन्दर्भ में पुनर्संरचन का केन्द्र बिन्दु स्त्री स्वतन्त्रता है। या यों कहें कि स्वतन्त्रता का भी एक वृहत् घेरा है और उस वृहत् घेरे के अन्दर स्त्री की अस्मिता और स्वाधीनता को व्यापक तौर से उठाया गया है। रूमी से एक पात्र कहती है - ''प्रेम और मित्रता जैसे तत्व सिर्फ मनुष्यों के पास हैं... ये तो देवताओं के पास भी नहीं है। वह बदनसीब हैं, जिसने प्रेम नहीं जाना पर अधिकतर मनुष्यों को इसकी जरूरत नहीं महसूस होती। वे अपने युद्धों में मशगूल रहते हैं। उनकी बातों में प्रेम है इरादों में युद्ध।'' बातों में प्रेम और इरादों में युद्ध का अन्तर्विरोध या दोहरापन मानव संस्कृति के मानवीय मूल्यों को ध्वस्त करता है। यह समाज की उसकी परिकल्पना को ध्वस्त करती है, ''जिसमें सभी वर्ग और आयु के लोग समान रूप से रह सकें और समान विकास कर सकें।'' यह माँग या आकांक्षा स्वयंपि सत्ता के पूर्ववर्ती केन्द्रों पर प्रहार जैसा है। सत्ता के पूर्ववर्ती केन्द्रों का ढाँचा सामन्ती अथवा केवल पूँजीवादी नहीं है। सामान्तवादी ढाँचा ध्वस्त नहीं होता अपितु वह पूँजीवादी संरचनाओं में घुसपैठ करता है। इसीलिए विकास के इस मॉडल में शोषित और दमित वर्ग दोहरी जटिलताओं में फँसता है। सामन्ती व्यवस्था में अपनी जाति अथवा अन्य कारणों से जो शोषित नहीं थे, यह नयी व्यवस्था उन्हें भी शोषित की श्रेणी में धकेल देती है। जातिगत शोषण अथवा भेदभाव अभी समाप्त नहीं हुआ और इस नयी व्यवस्था में उसके रहते शोषण के अन्य आन्तरिक सन्दर्भ तैयार होते हैं। इसके नए शोषित समुदायों का जन्म होता है। उपर्युक्त आकांक्षा इस नयी व्यवस्था के कारण ही है।
सम्पूर्ण मानव जाति के लिए समानता और स्वतन्त्रता की माँग के समानांतर या उससे भी अधिक प्रभावशाली तरीके से लेखिका स्त्री की स्वतन्त्रता की तलाश करती है। लेखिका स्त्री परतन्त्रता को वृहत् सामाजिक पैमाने पर देखती हैं। वे शताब्दियों में इस शोषण और परतन्त्रता के सूत्र देखती हैं। वे विभाजन के समय स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार को देखती हैं, लोककथाओं में बिखरे स्त्रियों के शोषण को देखती हैं, धर्मग्रन्थों की शिक्षाओं में स्त्री जीवन की त्रासदी को दिखलाती हैं और इन सबसे बढ़कर रूमी अपने परिवार, आसपास की स्त्रियों के शोषण को देखती है। तभी वह कहती है कि उसे यह जीवन नहीं चाहिए। यह सत्य ही है कि स्त्रियों का जीवन शताब्दियों से शोषित और दमित है। समाज का शोषित वर्ग भी अपनी स्त्रियों का शारीरिक और मानसिक शोषण करता है। स्त्रियों का शोषण अलग  प्रकार की सांस्थानिकता का परिणाम है। यह सामन्तवादी और पितृसत्तात्मक सोच का परिणाम है। यह सोच मानती है कि स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में, शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर होती हैं, उन्हें पुरुषों के अधीन होना चाहिए, उनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। रूमी की चेतना तो काफी आगे बढ़ी हुई है, उसकी माँ और बुआएँ भी अपनी अस्मिता को लेकर सजग हैं। जब रूमी का पिता कहता है कि अब मशीन चलाने की जरूरत नहीं है, तो रूमी की माँ कहती है - ''मशीन न चलाऊँ तो क्या तुमसे माँगूं? सौ दो, हज़ार दो। मुझसे नहीं होगा।'' भारत ही नहीं दुनिया की तमाम सभ्यताओं में स्त्री अधिकारों में बढ़ोत्तरी एकाएक नहीं आयी। वह धीरे-धीरे क्रमबद्ध तरीके से बढ़ती है। रूमी की माँ आर्थिक स्वावलम्बन को स्वीकार करती हैं, परन्तु वह परिवार और बच्चों के लिए कई प्रकार के समझौते करती हैं। रूमी जब अपनी माँ से पूछती है कि तुम्हारा मन कभी भाग जाने का नहीं किया तो वह अत्यन्त सहज तरीके से कहती हैं - ''कई बार...पर तुम लोगों का मुंह देखकर रह जाती।'' कम-से-कम भारतीय समाज में व्यावहारिक रूप से स्त्री सामाजिक और भावुक जीवन ज्यादा जीती है। वह खुद के सन्दर्भ में सबसे आखिर में सोचती है। रूमी की माँ चाहती तो आर्थिक स्वालम्बन के साथ एक निजी जीवन शुरू कर सकती थी। एक दूसरी समस्या यह भी है कि स्त्री-पुरुष सम्बन्ध का रागात्मक तत्व समाप्त हो जाने के बाद भी सामाजिक रूप से स्त्री उस पुरुष से चिपकी रहती है। वह विवाह संस्था से चिपकी रहती है। वह न केवल खुद चिपकी रहती है, अपितु आने वाली पीढिय़ों को भी उसी व्यवस्था को अनिवार्य रूप से स्वीकारने को प्रेरित भी करती है। इसके पीछे मध्यमवर्गीय सुरक्षा बोध की अवधारणा भी काम करती है। साथ ही समाज यह मानता है कि पुरुष के बिना एक स्त्री का जीवन सम्भव नहीं है। यहाँ दो उद्धरण दृष्टव्य हैं। एक पिता का और एक बुआ का। पिता कहता है - ''क्या करोगी? माँ के जैसी मशीन या झाडू-बर्तन-खाना। अगर यही जीवन चाहिए तो शादी कौन-सी बुरी है?'' बुआ कहती है - ''वह तेरी कल्पना में है, हक़ीक़त में नहीं। किसी पुरुष के बिना जीना कितना असम्भव है, अभी तुझे पता नहीं।'' और रूमी का इसका उत्तर देती है जो क्रमश: इस प्रकार है - ''मुझे यह जीवन नहीं चाहिए।'' तथा ''मैं अपने लिए एक नयी दुनिया की तलाश में हूँ बुआ। यह दुनिया मुझे अच्छी नहीं लगती। ङ्गङ्गङ्ग कहीं तो होगी न बुआ, अभी दिखाई नहीं दे रही। ङ्गङ्गङ्ग बुआ... मुझे मेरे जैसा चाहिए... उससे कम में नहीं चलेगा पर वह भी बाद में... अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद...। ङ्गङ्गङ्ग मुझे कोई ऐसा साथी नहीं चाहिए जो मेरे साथ चले या मुझे सुन-समझे। नथिंग लाइक दैट। मुझे कोई ऐसा चाहिए जो मेरा ही हिस्सा हो कि जिसे पाकर मैं और अकेली हो जाऊँ... और ख़ामोश।'' यह दुनियादारी तथा सामाजिकता और व्यक्तित्व की नवता का द्वन्द्व है। रूमी के रूप में जो नयी स्त्री उभर रही है वह शताब्दियों की स्त्री जड़ता को तोड़े, नकारे बिना नहीं उभर सकती। जब तक व्यक्तित्व आजाद नहीं होगा, तब तक व्यक्ति की आजादी भी सम्भव नहीं है। व्यक्ति का निर्माण समाज के बिना सम्भव नहीं है। व्यक्ति-व्यक्ति के विकास और सुधार द्वारा समाज के विकास और सुधार की परिकल्पना बेहद कमजोर और अप्रासंगिक है। जन्म से ही व्यक्ति की अस्थि मज्जाओं में समाज तरल रूप में अपना अस्तित्व जमाना शुरू करता है। भाषा, सामाजिक बोध, आचरण वे सन्दर्भ हैं जहां वैयक्तिक चेतना और आचरण लगभग शून्य होते हैं। इसीलिए परिवर्तन के लिए समाज का सामूहिक बदलाव अनिवार्य है। और एक व्यक्ति अपनी अकूत प्रतिभा से समाज में थोड़ा विक्षेप उत्पन्न भी करे तो भी समाज की बुनियादी सोच में परिवर्तन किए बिना, वे विक्षेप स्थायी नहीं हो सकतें। व्यक्तित्व की आजादी बिना सामाजिक व्यवस्थाओं के परिवर्तन के सम्भव नहीं है। किसी का व्यक्तित्व सामाजिकता का तरल एलॉय होता है। पम्मी को जब विवाह को स्वीकारने हेतु रूमी की माँ रूमी को समझाने के लिए कहती है तो रूमी कहती है - ''तेरी भी मिट्टी तेरी माँ ने गूँथी होगी, जो भी कूड़ा-कबाड़ा पड़ा होगा उसके भीतर... आँसुओं के समन्दर के किनारे बसाई झोपडिय़ाँ कितनी देर टिकेंगी...?'' यह वास्तव में सामाजिकता के उपर्युक्त सन्दर्भ के कारण ही है।
पम्मी जब रूमी से कहती है कि 'सारी उमर अकेली कैसे रहोगी?' तो रूमी कहती है- ''जैसे आप रहती है, जैसे दूसरे रहते हैं कौन किसके साथ है? क्या आपको भी नहीं दिखाई देती?'' 'जैसे आप रहती हैं' अर्थात् रागात्मक उष्मा विहीन। वह स्त्री-पुरुष के उष्माविहीन, रागहीन सम्बन्धों की दुनिया में नहीं जाना चाहती है। मैंने ऊपर कहा है कि आलोच्य पुस्तक में समस्याओं के चयन की समस्या नहीं है, समस्या उसके निदान को लेकर है। रुमी इन्डीविजुएलिटी को आत्यंतिक मूल्य के रूप में स्वीकार करती है। उसकी इन्डीविजुएलिटी की समस्या यह है कि वह समाज निरपेक्ष होने लगती है - ''वह क्या है, जो मुझसे भी बड़ा है, जिसे इतनी कोशिश के बाद भी मैं जीत नहीं पायी। कौन तय करता है हमारी जिन्दगी की दशा और दिशाएँ? हमसे पूछे बगैर और क्यूँ? मैं क्यूँ नहीं जीवन को उसी ट्रेक पर ले जा सकती जिस पर ले जाना चाहती हूँ। क्या हम किसी और का जीवन जीने को अशिप्त है? कितना स्वतन्त्र है मनुष्य? न जन्म, न मृत्यु, न देश, न प्रदेश, न माँ-बाप, न रिश्तेदार... अपना मोहल्ला तक नहीं। कभी-कभी अपना कार्य क्षेत्र तक नहीं..।'' समाज, उसके नियम कायदे हमेशा एक मनुष्य से बड़े होते हैं। नियम कायदे जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए होते हैं। परन्तु समाज का सत्ताधारी और उसका उपजीव्य वर्ग, समुदाय इन नियमों का अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करता है। इससे व्यवस्था में जो जकडऩ उत्पन्न होती है, उससे दमित समुदाय मुक्ति का प्रयास करता है। पितृसत्तात्मक सामन्ती व्यवस्था पूँजीवादी व्यवस्था में घुल-मिल जाती है। इससे सत्ता का शोषणधर्मी रूप अत्यधिक सूक्ष्म और श्रूड, क्रूर हो गया है। यह पूँजीवादी व्यवस्था सबसे पहले व्यवस्था और समाज की सामूहिकता और उसकी संघर्ष चेतना को ध्वस्त करती है। वह व्यक्ति को समाज निरपेक्ष, आत्म निमग्न इन्डीविजुअल में तब्दील कर देता है। इसके लिए वह तरह-तरह के साधनों का इस्तेमाल करती है। अध्यात्म, बाजार, धर्म आदि उसके हथियार हैं। रूमी जो रास्ता अख्तियार करती है, उसकी परिणति क्या होगी? उसका फायदा रूमी को हो सकता है, पर क्या रूमी समूची स्त्री जाति का प्रतिनिधित्व कर सकने की क्षमता का विकास कर पाती है? उपर्युक्त कथन के सन्दर्भ में गम्भीरता से विचार करें तो स्पष्ट है कि यहाँ द्वन्द्वात्मक सोच और भौतिकतावादी अन्तर्विरोधपरक मूल्यों की आवश्यकता है। जब हम 'मैं' में सिमट कर सोचते-विचरन करते हैं तो 'मैं' की दूसरी धुरी (जो समाज से नाभिनालबद्ध है) को भूल जाते हैं। लेखिक उपन्यास में एक स्थान पर कहती है - ''मेरे पास सही-दृष्टि नहीं, सन्देह है, संशय है, करने-न-करने का भी और किये हुए पर प्रश्नचिन्ह लगाने का भी..।/हर रोज़ खुद को लिखना, ख़ुद को मिटाना, ख़ुद को ठीक करना... ख़ुद को पाने का यह कैसा बीहड़ रास्ता है... जहाँ छूटती है अपनी ही ऊँगली बार-बार... उसी आकांक्षा की टिमटिमाती लौ में चलना लगातार...।'' लेखिका जिस बाहर-भीतर के आवागमन को रखती है, उससे निश्चितरूपेण द्वन्द्वात्मकता है। द्वन्द्वात्मकता में दूसरा सिरा समाज है। समाज नहीं तो व्यक्ति भी नहीं। लेकिन द्वन्द्वात्मकता एक्सक्लुसिविटी का त्याग करती है, विभिन्न सामाजिक, मानसिक, ऐतिहासिक क्रियाओं को सामान्यीकरण के द्वारा समझने का प्रयास करती है। यह सामान्यीकरण आवश्यक है क्योंकि मानव जीवन के विकास के प्रत्येक चरण में जो विसंगतियाँ, अन्तर्विरोध, अमानवीयता उभरती है चाहे वह व्यक्ति केन्द्रित हो या समाज प्रणाली का आंतरिक अंग हो, उन्हें सामान्यीकरण के द्वारा ही व्यवस्थित किया जा सकता है। चूँकि लेखिका सामान्य से शुरू कर रूमी की एक्सक्लुसिविटी तक पहुँचती हैं, इसीलिए स्त्रियों की समस्याओं के अनेक शेड होने के बावजूद समूची स्त्री जाति के शोषण, दुख और दर्द का प्रतीक और पर्याय नहीं बन पाता।
स्त्री अस्मिता की खोज का सन्दर्भ चाहे अन्त तक पहुँचते-पहुँचते व्यक्तिपरक हो गया हो इस उपन्यास में परन्तु एक बात विशेष रूप से हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। इस उपन्यास में स्त्री अस्मिता की तलाश शरीर के धरातल पर नहीं की गयी है। यहां स्त्री व्यवस्था में अपना हिस्सा चाहती है। शताब्दियों की परतन्त्रता के बीच जब वह 'अपनी स्वतन्त्रता' तलाशती है, तो इस स्वतन्त्रता का आधार शरीर नहीं है। अगर यह सिर्फ रूमी की विशेषता होती, तो कम-से-कम मेरे लिए विशेष महत्व की न होती। वास्तव में जया जी ने स्त्री विमर्श के प्रस्तान को सन्दर्भित किया है। शरीर की स्वतन्त्रता महत्व की होती है। इसीलिए स्त्री शरीर की स्वतन्त्रता, उनकी इच्छा और यौनिकता पर लेख, उपन्यास, कहानियाँ खूब लिखे गए हैं। परन्तु व्यक्ति के रूप में यौनिकता अथवा शरीर जीवन का एक अंग है, वह जीवन का पर्याय नहीं है। स्त्री की भी असली पहचान उसके कार्य, अर्जित वैीशिष्ट्य के आधार पर होगी।  यह दुनिया उसे अच्छी नहीं लगती, तो इसका कारण यह नहीं है कि वह आध्यात्मिक अथवा वैरागी है। इसका मुख्य कारण है कि एक तो वह स्त्री और दूसरे वह मानती है कि 'कोई भी तुम्हारे विकास में उत्सुक नहीं है, सिवा तुम्हारे।' तुम्हारे सिवा अर्थात् पुरुष इसके लिए तैयार नहीं है क्योंकि समस्त संस्थानों पर पुरुषों का वर्चस्व है। एक बुजुर्ग खातून कहती है - ''धर्म का मतलब वह खुद है, परिवार का मतलब वह ख़ुद है, क़ौम का मतलब वह ख़ुद है... बाकी रास्ते में काम आनेवाली वस्तुएँ हैं।'' साथ ही वह यह भी कहती है- 'हम चादरें उतारे तो पाप, वे कपड़े उतारें तो पुण्य। पुरुष हमें अपने सुख और हिसाब से बरतता है।' अपने सुख और हिसाब से बरतने वाले पुरुषों के समाज में अपने लिए जगह बनाना न आसान है और न ही सुखद। जीवन में भी हम इसे देखते हैं और रूमी के निर्णय के साथ शुरू हुए विभिन्न कार्य कलापों में भी देखते हैं। माँ-बुआ द्वारा समझाया जाना या पिता द्वारा पीटा जाना एक ही सामाजिक कार्य पद्धति का हिस्सा है कोई चाहे तो इस सन्दर्भ में यह भी कह सकता है कि रूमी भी तो आखिर में शरीर पर पहुँचती ही है। इस सन्दर्भ में यही कहा जा सकता है कि वह शरीर को जीवन का एक पड़ाव भर मानती है। इसीलिए प्रेम के बावजूद, प्रेम को शारीकि स्तर पर भी जीने के बावजूद भी वह जो कहती है, ऊपर बताया गया है। (पृ. 2 पर दार्शनिक निदान वाला सन्दर्भ)
इस उपन्यास में हमलोग देखते हैं कि रूमी इतिहास, समाज से होते हुए व्यक्ति पर चली आती है। व्यक्ति अपने सुख-दुख से घिरा होता है, अपने स्व में सिमटा। भारतीय विकास परम्परा को ध्यान से देखें तो व्यक्ति के विकास की दो अवधारणाएँ दिखाई पड़ती है- पहली कि व्यक्ति दुख अथवा अन्य सन्दर्भों से विरागी हो जाए और धर्म की शरण गहकर समाज से विमुख हो जाए, तपस्या करे। दूसरे व्यक्ति समाज में रहकर अपने स्व का विकास करे और अपने सुख-दुख को सब के साथ मिला दे। पहला मार्ग कहाँ जाता है इसकी समझ मेरे पास नहीं है। शायद विरागियों के पास भी नहीं हो। पर दूसरे मार्ग के सहारे व्यक्ति अपनी चेतना का विकास करता है और अपने जैसे मनुष्यों के साथ जुड़ता है, संगठित होता है। इसमें व्यक्ति के निजी रुचि-अरुचि और स्व के विकास की क्षमता के माध्यम से छोटे-बड़े गुट बनते हैं। इतिहास गवाह है कि ऐसे गुट जल्दी ही काल कवलित हो जाते हैं क्योंकि उन छोटे-बड़े समूहों के समानान्तर बड़ी मात्रा में प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ होती हैं जो समूहों की प्रगतिशीलता को जल्द ही लील जाती है। परन्तु विकास का एक तीसरा मॉडल भी है। यह विचारधारात्मक विकास का मॉडल है। विभिन्न विचारधाराओं से जुड़कर व्यक्ति एक सामाजिक प्रक्रिया से जुड़ता है। मध्यकाल में भक्ति के भीतर के विभिन्न सम्प्रदाय, सिद्धान्त व्यापक अर्थ में विचारधाराओं की तरह ही हैं। अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि विचारधारात्मक सरणियाँ हैं। परन्तु इनका ढाँचा धार्मिक ही था। आधुनिक युग की विभिन्न चिन्तन परक सरणियों ने व्यक्ति और व्यक्ति जिस समाज में रहता है उसको केन्द्र में ला खड़ा किया है। धर्म और उसके पारलौकिक सत्ता-संस्थानों की केन्द्रीयता समाप्त हो गयी। परन्तु यह आधुनिकता और उसका विकास एकदम निर्दोष नहीं है। इस आधुनिकता के गर्भ से दो विश्वयुद्ध आए, मनुष्य मशीनीकृत होता गया, पूँजीवादी विकास का मार्ग और प्रशस्त होता गया, मनुष्य की सम्वेदनाएँ क्रमश: क्षीण होती गयीं। इस प्रश्नांकन में इस उपन्यास की क्षमता निहित है। एक स्तर पर यह उपन्यास इस आधुनिक विकास के मॉडल को रिप्लेस करता है। यह व्यक्ति और समाज के भौतिक विकास को उसकी आत्मगत सत्ता के विकास से रिप्लेस करती है। या यह भी कह सकते हैं कि अतिशय भौतिक स्थितियों अथवा पूँजीवादी सन्दर्भों की उग्रतर स्थितियों में फँसा व्यक्ति अपनी मुक्ति को आत्मस्थ चेतना से जोड़कर देखता है। वह कहती है- ''क्या होता है जब आप एकदम ऊँचाइयों पर खड़े होते हैं... आप मिट जाना चाहते हैं क्योंकि तब अपना बोझ भी असहनीय लगने लगता है... मनस... कभी ऐसा हो कि मैं भाग्य की सीमा के बाहर हो जाऊँ.... न कोई निर्धारित करे मुझे... न मैं निर्धारित करूँ कुछ... मैं बस होऊँ। कभी हो कि प्रकृति के नियमों से बँधी न होऊँ... कार्य-कारण के नियमों से बहुत परे... इन सबसे हमेशा बाहर रहूँ... स्वेच्छा से चुनूँ कि... जाऊँ या रुकी रहूँ...।'' अध्यात्मवादी या भाववादी दर्शनों की यह सीमा है। वह कार्य-कारण के नियमों के नियमों का अतिक्रमण कर जाना चाहती है। इसीलिए वह समाज के लिए सामान्यीकृत नहीं हो पायी। प्राक् आधुनिक पितृसत्तात्मक सामन्ती व्यवस्था पूँजीवादी व्यवस्था के साथ मिलकर जो नयी क्रूर स्थितियाँ उत्पन्न करती है उसको ये अध्यात्मवादी दर्शन बहुत दूर तक प्रभावित नहीं कर सकता। अधिकांशत: तो यही देखा जाता है कि सामान्यीकरण के अभाव में ये दर्शन वैयक्तिक आकांक्षाओं के गढ़ बनकर रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में पूँजीवादी सत्ताएँ इनका अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करती हैं। परन्तु यह उपन्यास का विषय नहीं है फिर भी मैं इस पर बात कर रहा हूँ तो वह इस कारण कि सामाजिक-राजनैतिक-ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-आर्थिक स्थितियाँ भी पाठ के लिए टूल्स का कार्य करते हैं। ये सन्दर्भ सामाजिकों के कार्य व्यापार के छिपे निहितार्थों को प्रकट करते हैं। परन्तु चूँकि लेखिका का उद्देश्य नयी व्यवस्था की खोज है, इसीलिए सभ्यता के पुराने अनुभवों के माध्यम से इसे परखने की जरूरत है। लेखिका स्वयं भी यही करती है। यह सिन्धु घाटी सभ्यता के सन्दर्भ में कहती है - ''वह सोचने लगी कि लोग बाहरी हमलों से अपनी सुरक्षा कैसे करते होंगे? खुदाई में तलवारें नहीं मिली हैं। भालें कमज़ोर हैं। चाकू या कुल्हाड़े हथियार नहीं औज़ार हैं। इससे पता चलता है कि सत्ता बल का प्रयोग नहीं करती थी। जरूर लोग आन्तरिक चीजों और उसके विकास में अधिक उत्सुक थे।'' आज के लोकतांत्रिक विश्व में जब सत्ता औपनिवेशिकता के अलग-अलग अर्थ तलाश रही है, वैसे में सत्ता के इस रूप का चित्रण मात्र उस युग की प्रवृत्ति को प्रस्तावित नहीं करता। लेखक जिन घटनाओं का चयन करता है, चाहे वह अतीत की ही क्यों न हो, वर्तमानता का ही द्योतक होता है। विकास का यह फार्मूला आज भी आदर्श हो सकता है। अस्मितामूलक विमर्शों और लोकतांत्रिक आवश्यकताओं के कारण ही शायद यह आज की आवश्यकता बने। सम्भवत: इसीकारण एक स्थान पर वह कहती है - ''वह कौन-सा तत्व है, जिस के जग जाने के बाद मनुष्य ईश्वर के समकक्ष हो जाता है? कुछ तो है जो हम नहीं जानते, वह नहीं जानती।'' यह बहुत महत्वपूर्ण है। इसीलिए नहीं कि इसका वास्ता ईश्वर या धर्म से है। बल्कि यह मानवीय सार तत्व की पहचान का प्रश्न है। एक नास्तिक व्यक्ति भी इस प्रश्न में सार तत्व देखता है क्योंकि मनुष्य में असीम क्षमताएँ होती हैं। लोकतान्त्रिक दुनिया में प्रतिरोध के अनेक रास्ते हैं। चाहे यह रास्ता मुझ जैसे लोगों को बहुत उपयुक्त न जान पड़ता हो, परन्तु इस उपन्यास के संदर्भ में पूँजीवादी सत्ता और मनुष्य रोधी शक्तियों के लिए यह प्रतिपक्ष की भूमिका अर्जित करता है।
उपन्यास प्रारम्भ होने के पूर्व लेखिका लिखती है - ''यदि दिक् अपरिमित है तो हम दिक् के किसी बिन्दु पर हो सकते हैं, यदि काल अनंत है तो हम काल के किसी क्षण में हो सकते हैं।'' यह पुस्तक के प्रारम्भ में उसकी प्रकृति का परिचय देने जैसा है। इसमें मानसिक व्यवहार और इतिहासबोध की सम्भाव्यता के दर्शन होते हैं। काल की अनन्तता में विराटता है, क्षण में सम्भाव्यता। विराटता चाहे वह काल की हो या सत्ता की या शक्ति की - इतिहास में प्रभुत्वशाली शक्ति के रूप में कार्य करती है। शक्ति की अवधारणा वर्चस्व स्थापित करने में होती है। इसीलिए सारी वर्चस्ववादी शक्तियाँ, चाहे वह धार्मिक सांस्कृतिक हों, या ऐतिहासिक राष्ट्रवादी, अपने लिए विराट बिम्बों, विराट सन्दर्भों की खोज करती है। परन्तु जो विराट नहीं है, जो सत्ता का पर्याय क्या, उसके उच्छिष्ट तक भी पहुँच पाने में असफल हैं, अर्थात् जो सामान्य जनता है और उसकी जो सभ्यता है (जिसे उच्च वर्ग और सत्ताधारी वर्ग प्राय: असभ्य ही मानता है), संस्कृति है उसके जीवन में उनमें विराटता के सन्दर्भ नहीं होते क्योंकि उनमें न शक्ति के श्रोत हैं और न विराट बिम्ब है। सामूहिकता जिससे वे शक्ति अर्जित कर सकते हैं, उसे भी सत्ताधारी, वर्चस्ववादी वर्ग खंडित कर देता है। सामूहिक शक्ति से खंडित, शक्तिहीन वर्ग के ये सदस्य तो रोजी-रोटी, कपड़ा, मकान, विवाह आदि बुनियादी जरूरतों में ही फँसे रह जाते हैं। ये जो 'हम' है बहुवचन की सांस्कृतिक, सभ्यताई, ऐतिहासिक, भाषायी सम्भाव्यता है। मानव सभ्यता में विराटता के सन्दर्भ क्षणिक और अस्थायी हैं। उसकी सम्भावना भी व्यक्ति, समूह के अतिक्रमणकर जाने में निहित होती है। जबकि उसके सामथ्र्य के करण विराट बन जाने की सम्भाव्यता सदैव बनी रहती है। असम्भाव्य को सम्भाव्य में बदलने की क्षमता मनुष्य जाति की सामान्य विशेषता है। बाल्यावस्था से जीवन पर्यन्त एक व्यक्ति के कार्य इसकी गवाही देते हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं होता कि वह अकेले बहुत कुछ होता है या मैं उसके एकल सत्ता की वकालत कर रहा हूँ। बच्चा कुछ नहीं होता, वह समाज से सन्दर्भ, प्रतीक और बिम्ब ग्रहण करता हुआ अपनी सम्भाव्यता को ही तलाशता है। इसके विपरीत सत्ता संस्थान मनुष्य की सम्भावनाशीलता को क्षरित करते हैं। वे विराटता के ऐसे सन्दर्भों का निर्माण करते हैं जो उनकी सत्ता को और प्रभावी तरीके से स्थापित करता है। धर्म और धर्माधारित पितृसत्तात्मक संस्थान इसके प्रत्यक्ष गवाह हैं। ये संस्थान मनुष्यों की विराटता की सम्भावना को क्षरित करते हैं तथा उसे परावलम्बी तथा निष्क्रिय बनाते हैं। यह पूरा सन्दर्भ 'रक्तरंजित मानव सभ्यता' के लिए नए मनुष्य की तलाश के लिए रचा गया है। रूमी के पिता कहते हैं - ''तुम्हें अपने जड़ों की तलाश करनी चाहिए। क्या 'हो' से पहले क्या 'थे'? यहाँ तक कैसे पहुँचे? कौन कहता है, दुनिया एक रहस्य है? यह एक किताब की तरह खुली है, हर चीज एक-एक अक्षर में अंकित है। सिर्फ तुम्हें पढऩा आना चाहिए।'' साथ ही यह भी कहते हैं - ''जानती है, सिर्फ अतीत को याद करने मात्र से हम उससे कुछ नहीं पा सकते। उसे खँगालना पड़ेगा... उसमें से वह सब निकालना पड़ेगा जो हमारे काम का है... उसे पहचानकर नया रूप देना पड़ेगा... नये रंग, नये अर्थ...बाकी छोड़ देना होगा।'' ये दोनों कथन ऊपर से विरोधी जान पड़ते हैं। एक तरफ 'जड़ों की तलाश' की बात की जा रही है तो दूसरी ओर यह बताया जा रहा है कि अतीत को याद करने मात्र से कुछ हासिल नहीं होगा। वास्तव में ये दोनों एक ही प्रक्रिया की निरंतर क्रियाएं हैं - तलाश और उसमें युगानुकूल आवश्यकतानुरूप चयन। यह आवश्यक भी है क्योंकि इस उपन्यास में लेखिका 5000 वर्षों के इतिहास का अवगाहन करती है। कथा इतिहास की वृहद्तर धारा से क्रमश: समाज और व्यक्ति के लघुत्तम वृत्तों तक आती है। सिन्धु कहती है - ''एक-एक पत्ते की तो न सुना सकूँगी। युगों-युगों का मामला ठहरा! धैर्य न होगा सुनने को उतना... तो तुम्हीं से कहती हूँ तुम्हारी कथा... जो देख भी ली तुमने और बिसरा भी दी...''। लेखिका ने यहाँ अपने चयन का दायित्व पाठकों पर डाल दिया - बहुत समझदारी के साथ। सम्भवत: वे पाठकों की भूमिका सहभोक्ता के रूप में बनाती हैं। दूसरे वे भोगे यथार्थ की प्रामाणिकता दर्ज करती हैं। यह भोगा यथार्थ एक व्यक्ति का नहीं है। पूरी सभ्यता की सामूहिक चेतना का, जीवन का सहभोग है। इस वृहत् जीवन के बड़े अंश को व्यक्ति अपनी निजता में, समाज अपनी सामूहिकता में गुमन कर देता है, जिसे मानव सभ्यता ने अर्जित किया था। इस अर्जित सभ्यता की गवाह सिन्धु नदी है, इस उपन्यास में। कथानक में सिन्धु नदी एक पात्र भी है। लेखिका का ऐसा विश्वास है कि वह अपने अतीत की गवाह है। यह तकनीक साहित्य में पहली बार नहीं अपनायी गयी। इस सन्दर्भ में जया जी की खासियत नवता नहीं है, भव्यता है, विराटता है, काल की व्यापकता है। कथा दो इन्सानों के माध्यम से आगे बढ़ी है, पर सिन्धु का प्रवाह सतत उनके साथ प्रवाहित होता रहा। कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष। लेखिका सम्भवत: विश्वसनीयता हासिल करने के लिए सिन्धु नदी के द्वारा ऐसे विभिन्न ऐतिहासिक पात्रों को आमंत्रित करती है। साथ ही इससे सिन्धु की विराटता का सन्दर्भ भी उभराता है क्योंकि सामान्य जन तो इस तरह पात्रों को बुला नहीं सकता और न भौतिक जगत में ऐसा सम्भव है। इसमें कार्य-कारण श्रृंखला भी नहीं है। इस शिल्प को प्रयोग प्राचीन आख्यायिकाओं में बहुत हुआ है। परन्तु इस शिल्प में रचनाकार की भूमिका बहुत बढ़ जाती है क्योंकि पात्र भले आते है पर वे स्वतन्त्र नहीं होते। वे रचनाकार की समझ, वैचारिकी के अनुसार ही चालित होंगे। अगर रचनाकार द्वारा अपनायी गयी भाषा की तुलना अमरकांत, काशीनाथ सिंह, अखिलेश आदि रचनाकारों की भाषा से की जाए तो मेरी बात ज्यादा स्पष्ट हो जाती है। भाषा की यह प्रकृति अगर सिर्फ वाक्य विन्यास तक सीमित होती तो कोई फर्क नहीं पड़ता। परन्तु विचार, भाषा और कथा संरचना एक दूसरे से सायुज्य हैं। भाषा तो सबकी एक ही होती है - हत्यारे और साधु की भी, राजा और रंक की भी। अर्थ सन्दर्भण की क्षमता और बलाघात के बिन्दु ही सामान्य शब्दावलियों द्वारा सर्जित भाषा को अर्थ संकुल बनाते हैं। जैसे इसे देखना चाहिए - ''वह सारा दिन ए.सी. डिब्बे की बन्द खिड़की से चिपकी बाहर देखती रही... बाहर बहुत बड़ा संसार है... अदेखा... अनजाना... ओ... अदृश्य...! आ मुझमें उतर...।'' क्या सामान्य कोच की खिड़की से देखे गए दृश्य से यह अलग नहीं है। इस ए.सी. वाली दृष्टि के कारण बाहर का समाज मात्र एक दृश्य बन कर रह जाता है। न वह सुनाई पड़ता है, न उसका ताप महसूस होता है, न नाक में गन्ध घुसती है, न चमड़ा कुछ अनुभव करता है। अध्ययन और चिन्तन की यह बड़ी सीमा है। वह अनुभव का आभास दे सकता है अनुभव नहीं। सर्जित भाषा की अर्थ ग्राह्यता लेखक और पाठक की अलग-अलग होती है, इसीलिए हर पाठ के अनेक पाठ होते हैं।
किसी भी औपन्यासिक कृति में शायद ही इतने नाम आए हो, जितने इस उपन्यास में। ये सारे नाम एक नैरेटिव की हिस्सा हैं या इतिहास की वृहद्तर धारा का अंग है? ये दो प्रश्न केवल इस उपन्यास की संरचना से सम्बद्ध नहीं हैं, अपितु इतिहास जो इसका कथ्य है, उसके लिए भी आवश्यक है। इसकी बड़ी वजह यह है कि इस उपन्यास के सन्दर्भ में इतिहास, उसकी घटनाएँ और उसके अनेकानेक नाम काम एक बड़े नैरेटिव का हिस्सा हैं। इस उपन्यास में कई स्तर एक साथ प्रवाहमान है। एक स्तर पर यह समय का नैरेटिव है। अगर इस सारे सिरों को सिल दिया जाए तो सिन्ध के 5000 वर्षों के समय में पसरे इन्सान और उसके जज्बातों का नैरेटिव है आदि-आदि। और फिर रूमी का तो यह आख्यान है ही।
चूँकि यह उपन्यास इतिहास के एक बड़े कालखंड को अपना कथानक बनाता है, इसीलिए प्रसंगों में तारतम्यता नहीं हैं। एक प्रसंग आता है और वह झटके से समाप्त हो जाता है। फिर दूसरा, फिर तीसरा...। यह पूरे उपन्यास की संरचना है। कुल मिलाकर यह उपन्यास सिन्धु नदी और सिन्धी लोगों के इतिहास, संघर्ष, जिजीविषा और विस्थापन को हिन्दी पाठकों के समक्ष समर्थता के साथ प्रस्तुत करता है। 'उपन्यास के अंत' की घोषणा के दौर में यह उपन्यास की सीमा विस्तार को दिखाता है कि नए विषयों को लेकर रचनाकार किस प्रकार प्रयत्नशील है। यह सिन्ध और सिन्धी समाज के जीवन को अपना विषय बनाता है तो 2013 में ही प्रकाशित शीला रोहेकर का उपन्यास यहूदी परिवार की कथा  प्रस्तुत करता है। कथा साहित्य में ये नए विषय हैं। जिसमें रचनाकार पर्याप्त श्रम करते दिखाई पड़ रहे हैं। ये उपन्यास अनुभव, अनुसंधान और विचार (विचारधारा नहीं) के संयोजन से निर्मित हैं। जया जी इतिहास पुराण, मिथक, लोकजीवन और कथा, तथ्य के संयोजन द्वारा जिस खारे पानी को हिन्दी के पाठकों के लिए मीठे पानी में बदला है वह कथा साहित्य जीवंतता और विविधता का पर्याय है, अन्त की घोषणाओं के बावजूद।

***


मैं सिन्धु नदी... सदा... सदा से प्रतीक्षित कितने-कितने लोग मेरे तट पर आये-गये सबको देखा... ये सब मेरे बच्चे हैं निरन्तर खुद को विकसित करते। विचार और सृजन के बीच कुछ स्वाभाविक दूरियाँ होती हैं... इन्हीं के बीच मनुष्य खुद को पकाता-बनाता-निखारता चलता है... कर्म ही उसकी पहचान है... सृष्टि की बड़ी शक्तियाँ अदृश्य होकर सृजन करती हैं... ब्रह्माण्ड को जिन हाथों ने रचा... वे किसी को नहीं दिखे... लोगों को सिर्फ परिणाम दिखाई देता है... प्रक्रिया नहीं... और यही इस सृष्टि की सुन्दरता है और सब कुछ तो नहीं कहा जा सकता... एक कोना तो निहायत अपना होता ही है निजी, अछूता और अकेला पर सम्पूर्ण... जहाँ कम-अज-कम किसी इन्सान के बच्चे का प्रवेश वर्जित है... जहां चीजें, शब्द, शक्लें, जगहें, यादें, सपने, उम्मीदें, आकांक्षाएँ...? आँसू, दर्द, पीड़ा सभी कुछ तो इतना अपना होता है कि हम किसी और से साझा नहीं कर सकते। कितनी अजीब बात है कि हम अकेलेपन में, अपने अंधेरों में जब तक चाहें घूम सकते हैं, भटक सकते हैं... कोई हमें हाथ हिलाकर वापस नहीं बुला पाता... न पेड़ों की लम्बी-लम्बी डालियाँ... न सर्दियों की रातें... न गर्मियों की ख़ाली वीरान दुपहरें... यह ज़िन्दगी का लगभग दूसरा ही छोर होता है... इधर की आवाज़ें तो उधर पहुँच भी जाती हैं पर उधर की ख़ामोशी इतना लम्बा सफ़र तय नहीं कर पाती... वह रास्ते में ही थककर कहीं बैठ जाती है और कभी-कभी तो वह सचमुच आधे रास्ते में ही बैठी रह जाती है... वह बच्चा जो अपने घर का रास्ता भी भूल गया और आगे जाने से भी घबराता है...।
मैं बात कर रही हूँ अपने रुह से... जो सबके लिए महज़ एक ख़याल है पर मेरे लिए हक़ीक़तों से बड़ी हक़ीक़त.. उसे तो अब प्रतीक्षा है... वह जो आया नहीं है... पर उसके आने की उम्मीद बंधी है... वह जो अभी गर्भ में है।
मैं तो महा विरही हूँ, विरह के घने कोहरे में मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा अपना आप तक नहीं, जो भी है सब आकारहीन है, विरह की यह नदी न तैरकर पार की जा सकती है... न किसी नौका से... बेहद कम लोग इस पर पुल बनाने का काम करते हैं और उस पार जाने की हिम्मत जुटा पाते हैं। मुजे उन्हीं की प्रतीक्षा है... मैं खुद से कहती हूँ... उतावलापन मत दिखाओ मेरी प्रिय, अपने समय की प्रतीक्षा करो.. समय को अपने चारों ओर घूमने दो पर समय के साथ मत घूमो... मैंने इस संसार पर प्यार भरी विदा दृष्टि डाली और वापस खुली हवा और अनन्त आकाश का स्वप्न देखने लगी।
जया जादवानी
270-271


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