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मार्च : 2015

आइनाखाने में कोई लिए जाता है हमें...

दिव्यानंद

नयी कलम/आत्मकथ्य और निबंध




मेरा नाम दिव्यानन्द है। जन्म 31 जनवरी 1990 को बिहार के बांका जिले के महादेवपुर गांव में हुआ। यह जिला पहले भागलपुर के अंतर्गत आता था। पिता फ़ौज में सिपाही थे जो कारगिल खत्म होने के बाद हवलदार के पोस्ट से रिटायर हुए। अभी घर में खेती-बारी करते हैं। बड़े भाई भी उन्हीं के साथ हाथ बटाते हैं। बड़े भाई साहब का यह चयन नहीं है। कहीं और काम मिला नहीं, पढ़े-लिखे भी कम हैं सो खेती में लग गये। मेरे पिता चार भाई हैं। पिता को छोड़कर बाकी किसी की कहीं नौकरी नहीं थी। सब किसान ही रहे और अभी भी किसानी ही करते हैं लेकिन मेरे पिता सहित उनके किसी भाई ने नहीं चाहा कि उनकी अगली पीढ़ी इस पेशे में रहे। आज उनकी नजर में प्राइवेट सिक्यूरिटी गार्ड एक किसान से बेहतर है। घर-परिवार में पढऩे-लिखने का कोई माहौल नहीं रहा। और ये सिर्फ मेरे घर की बात नहीं है। गांव में एक-दो परिवारों को छोड़ दिया जाय तो बाकी सबके घरों का यही हाल था। मेरे गांव के लड़के जवान होकर या तो खेतों में काम करते रहे या फिर फील्ड में दौड़कर  सिपाही की नौकरी में जाते रहे। इससे ज्यादा किसी की नजर थी न सोच। लेकिन शायद ये मेरे गांव की नहीं किसी भी गांव के संदर्भ में राष्ट्रीय स्थिति की बात है। ये मैं आज से सात-आठ साल पहले की बात कर रहा हूँ। अब बिल्कुल ऐसा ही माहौल नहीं है। शिक्षा को लेकर अब लोग इतने विरक्त नहीं हैं। उनकी जितनी और जैसी समझ है उस हिसाब से चिंता करते हैं। बच्चों की पढ़ाई का इंतजाम करते हैं। पहले यह उनकी चिंताओं में शामिल ही नहीं था। मेरी औपचारिक पढ़ाई-लिखाई नवें दर्जे से शुरू हुई। जब ये महसूस हुआ कि खेतों में या घर में जानवरों के लिए मेहनत करने से आसान और बेहतर है पढ़ाई-लिखाई में मेहनत करना। उसके पहले जो मैंने पढ़ा, वो कथित लुगदी साहित्य था। जिसे मुख्य धारा का साहित्य कहते हैं उससे भी परिचय नवें दर्जे में आने के बाद हुआ। मुझे याद है, पहला उपन्यास मैंने 'एक समुद्री दुनिया की रोमांचकारी यात्रा' पढ़ी थी। उसका एक पात्र जिसने मेरी नजर में अपने लिए घृणा और सहानुभूति दोनों पैदा की आज तक मुझे याद है, 'कप्तान निमो'। वह आधुनिक विश्वामित्र की तरह का किरदार था, जो पूरे जहान से मुंह मोड़कर एक नयी दुनिया तामीर करने की तरतीब में था। और इसके लिए वह पृथ्वी से सर्वाधिक प्रतिभाशाली लोगों का अपहरण कर लेता था। उसने अपना एक साम्राज्य पनडुब्बी में बसा लिया था और वहीं से पूरी दुनिया को अकेले चुनौती दे रहा था। उस उपन्यास के माध्यम से पहली दफा मैंने बिना भूगोल पढ़े लगभग सारे यूरोप की समुद्री यात्रा कर ली।
गांव से ही मैट्रीक करने के बाद मैं पास के शहर भागलपुर आ गया। वहां से साइंस में इंटर की डिग्री ली और डिग्री लेने के पहले ही ये बात अच्छी तरह समझ में आ गयी कि मैं अपना जीवन मशीनों के साथ या उसके बारे में पढ़ते हुए नहीं बिता सकता। इंटर के बाद एक साल ठहरकर मैं बी.एच.यू पहुंचा। ये एक साल मैंने पटना में अपने पुराने दिनों की तरह आवारगी में बिताये। पुराने दिन में मेरी मुराद उन दिनों से है जब मैं पढ़ता-लिखता नहीं था। खेतों में काम के बाद सारा समय मेरा था जो मैं ऐसी हरकतों में लगाता जो 'गुड ब्वाय' के लिए सर्वथा वर्जित हैं। मसलन, ताश, बीड़ी, सिगरेट, मार-पीट, चोरी-छिपे सिनेमा और सिनेमा के लिए घर में चावलों-आलुओं आदि की चोरी। इन सारे कामों में मेरा एक गुरु था, डमरू। मेरा दोस्त। वह अब भी मेरा सबसे अच्छा दोस्त है। वह पढ़-लिख नहीं पाया। हम मैट्रिक में साथ-साथ थे। वह फेल हो गया। फिर उसने कभी किताब-कलम की ओर मुंह नहीं किया। और मैट्रिक के बाद मुझसे मेरा गांव भी छूट गया। अब जब घर जाता हूं तो 'मानिन्दे मेहमां' का सलूक अपने साथ पाता हूं। ये देखकर रोने का मन होता है। अपने ही घर-परिवार और समाज में अपनी एक अजीब-सी विडंबनापूर्ण स्थिति हो गयी है।
बी.एच.यू. के बाद मैं एम.ए. के लिये जे.एन.यू. आ गया। अभी पिछले साल एम.फिल की डिग्री हासिल की है और 'नीलाभ जी' के शब्दों में अब हिंदी का एक बीमार डॉ. बन गया हूं। यहां फेलोशिप की व्यवस्था थी। यह जो न होती तो मैं तमाम दिक्कतों के बाद भी बनारस नहीं छोड़ता। उस शहर ने मुझे सबसे ज्यादा दिया है। मुझे भारत के इन दिनों बड़े विश्वविद्यालयों का अनुभव मिला और इससे मुझे यही बात समझ में आयी कि भारत के विश्वविद्यालय रचनात्मकता के सबसे बड़े कब्रगाह हैं। जिनके भीतर भी यह शेष है उसमें विभाग और फेकल्टी का कोई योगदान नहीं। ये विभाग और इन विभागों के प्रोफेसर उनपर मिट्टी डालने का काम करते हैं। इन विभागों के प्रोफेसरों के पास जो चीज सबसे कम है, वह उनका आत्मविश्वास है। किसी समय ऐसा नहीं रहा होगा लेकिन जिस समय और जिन-जिन विद्यापीठों को मैं जानता हूं उनकी आज यही गत है। शिक्षा अगर आचरण में न आये तो वो बोझ है। आज के विश्वविद्यालयों की यह त्रासद नियति है कि वह सिवा इन बोझों के ढोने के कुछ नहीं कर रही।
सबसे पहले मैंने कविता लिखनी शुरू की। वहीं बी.एच.यू. में। 'अमर उजाला' में कई छपी भी। शुरुआत ग़ज़ल से की थी लेकिन फिर ग़ज़ल लिखनी बंद कर दी। कविता अभी भी लिखता हूं लेकिन वह अमर उजाला के बाद फिर कहीं भेजी नहीं। जे.एन.यू. में आलेख और समीक्षाओं को लिखने का अभ्यास हुआ। 'हंस', 'बनास जन', 'एन.सी.आर.टी. जर्नल', 'समसामयिक सृजन' आदि में छपी भी लेकिन जो खुशी कविता लिखने से मिली वह आलेख से कभी नहीं। हिंदी में आज पाठकों, रचनाकारों की कमी नहीं है। जिस कमी से हमारा साहित्य अभी सर्वाधिक जूझ रहा है, वह है आलोचक। हमारे पास पिटे-पिटाये आलोचक हैं और उनकी चुकी हुई वर्षों पुरानी भाषा। नया और जानदार कुछ खास नहीं! संकट ये भी नहीं है। संकट ये है कि एक बड़े खित्ते से ये आवाज बुलंद होने लगी है कि हमें आलोचकों की कोई दरकार नहीं। हमारे पाठक ही हमारे नक्काद हैं।
कायदे से राजनीति क्या होती है यह मैंने जे.एन.यू. आकर सीखा। यह वामपंथी बौद्धिकों का गढ़ है। भारत का लाल दुर्ग। लेकिन अ$फसोस! इस दुर्ग की आवाज इसके बाहर बहुत कम जाती है। इस विश्वविद्यालय के हाते से बाहर होते ही वसंत बिहार के पास एक बड़ा-सा स्लम एरिया है, वहां तक भी नहीं! मेरी समझ में ये बात बिल्कुल स्पष्ट हो गयी है कि आज के दौर में भारत में जो भी चुनावी राजनीति में जाएगा वह आज न कल घुमा-फिराकर समाज की गंदगी पर पलने वाला कीड़ा ही बनेगा। इसलिए फिलहाल सबसे ज्यादा मुफीद और टिकाऊ रास्ता समाजके बहुत अन्दर घुसकर जनवादी दिशा में रचनात्मक तरीके से काम करना है। जिसकी जो काबिलियत है वह इसके लिए उसका इस्तेमाल करे।
अंत में एक बात और! मुझे इसकी उम्मीद कतई नहीं थी कि मुझे इतनी जल्दी अपने आलेख पर प्रतिक्रिया मिलेगी। और भी इतनी उत्सावर्धक! मैंने भेजा था सही लेकिन 'पहल' में वह स्वीकृत हो जायेगी इसकी उम्मीद बहुत कम थी। 'पहल' को छोड़ भी दीजिये तो शायद आपको इस बात का ठीक-ठीक अंदाज नहीं होगा कि 'कहानीकार ज्ञानरंजन' का हम छात्रों के बीच क्या क्रेज है! आपको लग रहा होगा मैं ठकुरसुहाती कर रहा हूँ जो आमतौर पर हिंदी समाज का एक स्वीकृत चलन है। लेकिन नहीं। ठकुरसुहाती की मुझे जरूरत नहीं है। मैं सच कह रहा हूं।
दिव्यानन्द
9 फरवरी 2015
004, लोहित छात्रावास
जे.एन.यू. नयी दिल्ली-67




दिव्यानंद
युद्ध, पहाड़ और 'कोसी का घटवार'

'उसने कहा था' हिंदी की कालजयी कहानियों में शुमार है। साधारण कथ्य की असाधारण बानगी। दिवंगत 'राजेंद्र यादव' इसे हिंदी की पहली कहानी मानते थे। कहानी 1915 में 'सरस्वती' में छपी थी। 1914 में पहला विश्वयुद्ध शुरू हुआ। कहानी में यह युद्ध छाया हुआ है। प्रेम और युद्ध साहित्य और कलाओं के शाश्वत विषय रहे हैं। लेकिन हिंदी कहानी में युद्ध के प्रामाणिक माहौल का रचनात्मक उपयोग पहली बार इस कहानी में हुआ। यह कहानी का मुख्य अभिप्रेत नहीं है। लेकिन बिना इसके कहानी भी नहीं है। प्रेम और युद्ध के कंट्रास्ट और लेखक के सतर्क शिल्प और चौकस जबान ने इस कहानी को एक अलहदा रसूल दे दिया है। चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने और भी बहुत काम किये हैं लेकिन उनके पास यदि यह कहानी न होती तो बहुत कम लोगों को वे याद रहते। मानवीय त्रासदी के समय साहित्य और कलाएं सर्वाधिक जवाबदेह हो जाती हैं। प्रथम विश्वयुद्ध आधुनिक इतिहास में मानवीय त्रासदी का एक घिनौना अध्याय रहा है। कहानीकार गुलेरी ने इसकी असुंदरता के बीच सुन्दरता खोजी। माना जाय कि प्रथम विश्वयुद्ध ने हिंदी साहित्य को 'उसने कहा था' कहानी दी।
शेखर जोशी और 'कोसी का घटवार' एक-दूसरे के पर्याय हैं। बहुत कम रचनाकारों को ये इम्तियाज़ हासिल होता है। लेकिन इससे एक हानि भी होती है। इस हानि को रचनाकार से ज्यादा कोई नहीं समझ सकता। उसके और महत्वपूर्ण काम इस बोझ के तले दब जाते हैं। लेकिन यह कोई सार्वभौमिक सिद्धांत नहीं है। यह चलन हिंदी आलोचना का पैदा किया हुआ है। यहां अपनी आंखें मूंदकर दूसरों की आंखों से देखे जाने का रिवाज है। जाहिर है ऐसे में सब को एक ही चीज दिखायी देगी। लकीर को पीटने वाले यहां बहुत मिलेंगे, एक नयी लकीर कायम करने वाले कम। शे'र है -
''सरसरी तुम जहान से गुजरे
वरना हर जां जहाने-दीगर था।''
इस कहानी में कुल-जमा 12-13 पात्र हैं। लेकिन 3 को छोड़कर बाकी नेपथ्य में हैं। वे स्मृतियों में आते हैं। 'गुसाईं' फौज से रिटायर है और 'लछमा' एक सामान्य पहाड़ी स्त्री। लखनऊ की एक झुकती हुई शाम में मैंने लेखक से लछमा और गुसाईं के बारे में कुछ दरियाफ्त किया था। लेखक का कहना था कि लछमा और गुसाईं वास्तविक जीवन में कोई पात्र नहीं रहा है।
शेखर जोशी का जन्म 1932 में हुआ। पहाड़ों की गोद में उन्होंने होश संभाला। होश संभालने के दौरान ही उन्होंने पाया कि पहाड़ के गांव ब्रिटिश फौज में सिपाहियों की भर्ती के सबसे बड़े मरकज़ हुआ करते थे। गांव में डुगडुगी बजती थी और ब्रिटिश फौज के अधिकारी तरह-तरह का सब्जबाग दिखाकर पहाड़ की आकार लेती जवानी को झुण्ड-के-झुण्ड समेट लिए चलते थे। उन दिनों जाने वालों में बराए-नाम ऐसे सौभाग्यवान थे जो सही-सलामत वर्षों पहले अपने छूटे पहाड़ में फिर वापस लौटे हों। ज्यादातर की कोई खोज-खबर ही नहीं मिलती थी। अंग्रेजों का जमाना और उसपर पहाड़ जैसा दुर्गम इलाका। लोग चाहकर भी अपने लोगों के बारे में नहीं जान पाते थे। यहाँ गांव में उसके पीछे छूटा उसका परिवार जीवन और प्रतीक्षाओं में फर्क भूल चुका होता था। लाम पर गये फौजी की पत्नी सधवा है कि विधवा - यह बताने वाला कोई न था। ऊबा और हर क्षण घबराया हुआ इंतजार पहाड़ के गांवों की नियति था।
लाम पर जाते पहाड़ी युवकों की विदाई का दृश्य बड़ा करुण हुआ करता था। पत्नियाँ छिप-छिप के रोती थीं। माताएं बुक्का फाड़कर जमीन-आसमान एक कर देतीं। कुछ की शहीद होने की खबर आती तो किसी के विदेशी लाम पर जाने की। कुछ घायल और असमर्थ शरीर लेकर पहाड़ लौटते। शहीद या सब दिन के लिए पंगु हो चुके पहाड़ी फौजियों के परिवार में मचे कोहराम से कठोर पहाड़ दहल जाया करते।  लेखक के बालमन पर इन वाकयों का गहरा असर पड़ा। शेखर जोशी ने लिखा है - ''दूसरे विश्वयुद्ध की काली छाया सर्वाधिक पहाड़ी क्षेत्रों पर ही पड़ी थी। युद्ध की आग में इंधन बनने हजारों-हजार नवयुवक बांकी टोपी और कलफदार वर्दी में सजे किसी अनजान गन्तव्य की ओर मोटरों से भरकर पहाड़ी सड़क की ढलान से कभी न लौटने के लिए ले जाए जाते रहे। सड़क के किनारे विदा देने आई हुई मांओं, बहिनों और घूंघट की ओट किए युवा पत्नियों का रूदन आज भी मन को कंपा देता है। ('स्मृति में रहें वे', पृष्ठ-192-193, संभावना प्रकाशन, हापुड़, 2010)
शेखर जोशी की पहली कहानी है - 'राजे खत्म हो गये'। कहानी '52 की है लेकिन छपी जुलाई, '55 में। दिल्ली की पत्रिका थी, 'समाज' और संपादक थे, 'रमाअवतार त्यागी' यह कहानी भी पहाड़, ब्रिटिश फ़ौज और युद्ध से जुड़ी हुई है। इस कहानी के बारे में लेखक ने लिखा है - ''मैंने अपने बचपन में दूसरे महायुद्ध की विभीषिका का साक्षात्कार अपने जन्म स्थान उत्तराखण्ड में रहते हुए कर लिया था। 11-12 की उम्र में हमें अपने गांव से निकटस्थ शहर अल्मोड़ा जाना था। मोटर यातायात की सुविधा होते हुए भी उन दिनों आम जनता को गाडिय़ों में जगह नहीं मिल पाती थी क्योंकि नीचे की ओर जानेवाली सभी गाडिय़ों में सैनिक भरे होते थे। हम पैदल चलकर ही प्राय: सोलह मील दूर अल्मोड़ा जा पाये थे। मार्ग में जगह-जगह अपने परिवार के जवान को विदा करने के लिये मोटरगाड़ी की प्रतीक्षा करती हुई मांये, बहनें, पत्नी सजल नयन बैठी हुयी दिखायी देती थीं और अपने लाडले की विदाई के बाद भी उनकी रूलाई और सिसकियाँ तब मेरे बालमन को भेद गयी थी। इस युद्ध की आग में ईंधन बनकर झोंके जाने वाले अनगिनत युवाओं में से बहुत कम संख्या में लोग युद्ध समाप्ति पर सकुशल लौटे थे। जो लौटे वे भी नरसंहार और विभीषिका का साक्षी होकर मानसिक रूप से विचलित और टूटे लगते थे। कुछ लोग लापता थे लेकिन घर वालों के नाम आने वाले मनीआर्डर से विश्वास बना रहता था कि उनका लाडला जीवित है पर वह एक भ्रम था। हजारों जवान लड़कियाँ विधवा हो गयी थीं। मानव-गिद्ध मडराने लगे थे। समाज का ढांचा ही जैसे बदल गया था। इन्हीं परिस्थितियों के अनुभव से मन पर जो प्रभाव पड़ा उसकी परिणति इस कहानी में हुई।'' (निकट, जनवरी-जून, 2014, पृष्ठ-16, संपादक - कृष्ण बिहारी, संयुक्त अरब अमीरात)
पहाड़ में 'मनीआर्डर इकॉनमी' की शुरुआत इन्हीं दिनों हुई थी। पहाडिय़ों ने इस मनीआर्डर इकॉनमी की भारी कीमत चुकाई है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय पहाड़ युवकों से सूना था। वो आज भी है। युद्धनीति का जो बोझ पहाड़ ने ढोया, वो किसी और ने नहीं। और वो आज तक उसे ढोता आ रहा है। आज की तारीख में भारतीय फौज में सर्वाधिक जवान उत्तराखण्ड से आते हैं। यह एक तथ्य है। ये क्यों सरहद पर अपनी जान जोखिम में डालते हैं! किससे इनकी लड़ाई है! कौन इन्हें लड़ा रहा है! इन्हें अपने पहाड़ में ही अदद रोजगार चाहिये। इसका अभाव इन्हें लाम पर ले जाता है। किसी और तरीके से इन्हें महिमामंडित करना इनके शोषण को छिपाना है। और वे फौजी जो सौभाग्य से सही-सलामत पहाड़ लौट आते हैं, क्या उनकी जिन्दगी सहज रह पाती है! क्या वे समाज से तारतम्य बिठा पाते हैं! लाम से सही-सलामत लौटने पर भी उनकी जिन्दगी घायल हो जाती है। वो घिसटने लगती है। इसकी मिसाल 'गुसाई' है। क्यों गुसाई गांव में न रहकर गांव से बाहर सूखी नदी के वीराने में रहता है! उसका प्रेम क्यों नहीं सफल हो पाता! लछमा के बाबू ने कहा था कि बन्दूक की नोंक पर अपनी जान रखने वाले को अपनी बेटी कौन देगा? और लछमा ने कहा था, वो वही करेगी जो गुसाईं कहेगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। गुसाईं ने अपनी लंबी सेवा के बाद फौज से पीछा छुड़ा लिया लेकिन पहाड़ लौटने पर भी फौज ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसे इसी फौज की नौकरी की वजह से अकेलापन मिला। जिन्दगी उसकी जो पूरी हो सकती थी, अधूरी रह गयी। यह किसी गुसाईं की कथा नहीं है। यह उन सब लोगों का जीवन है, जो मामूली वेतन और सुविधा के नाम पर, छिछली देशभक्ति के नाम पर, कोसी की धार की तरह सब दिन के लिए सूख जाता है। फौज का सिपाही गरीब घर का लड़का होता है। सबसे ज्यादा शहीद यही लोग होते हैं। देश सबका है, फिर सिर्फ यही लोग देशभक्ति क्यों दिखाएँ!
कहानी के पात्र गुसाईं का जीवन सिर्फ असफल प्रेमी का नहीं है। वह व्यवस्था के हाथों ठगे और निचोड़े गये देश की जवानी का करुण जीवन है। फौज में जाने के लिए उसके साथ कोई जोर-जबरदस्ती नहीं हुई। वह प्रलोभन में गया है। और प्रलोभन जोर-जबर से ज्यादा खतरनाक चीज होती है। जबरदस्ती करने में इरादें जाहिर होते हैं, प्रलोभन में नहीं। वह प्रलोभन का शिकार है। इस प्रलोभन की बानगी लेखक की पहली कहानी में है। अंग्रेज साहब खच्चरों पर रसद लादकर लाते थे और गांव वालों को भोज देते थे। यादगार भोज! वह भी तब जब हर चीज की कीमत बेतहाशा बढ़ी हुई थी। भोज के बाद परदे पर सिनेमा, नाच-गीत और सैनिकों के परेड दिखाए जाते थे। कहानी में एक गीत का मुखड़ा है -
भरती हो जा रे रंगरूट
यहां चल रहा नंगे पैरों
वहां मिलेगा बूट। भरती...
यहां नहीं कानी कौड़ी
वहां मची है लूट। भरती...
इस प्रलोभन ने पहाड़ को उजाड़ दिया। इस ऐतिहासिक ठगी के शिकार युवक पहाड़ में घर-घर मिलेंगें। लेखक ने उनकी जिन्दगी नजदीक से देखी है। गौरतलब है कि कहानीकार अपनी पहली कहानी की पृष्ठभूमि पहाड़ी फ़ौजी और युद्ध से उठाता है। और इस उठान का मुकाम कोसी के घटवार में कायम होता है। सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों से सघन जुड़ाव के आलोक में भी इन कहानियों पर विचार अपेक्षित है।
शहीद फौजी के पीछे उसका परिवार सतत शहीद होता है। इस बात को वे नहीं समझ सकते। जिन्होंने शहीदों के परिवार को नहीं देखा। पहाड़ ने इस व्यथा को करीब से देखा है।
'कोसी का घटवार' कहानी संग्रह के पहले संस्करण की भूमिका 'पूर्व कथन' के नाम से है। लछमा के चरित्र-गठन की कहानी इसी पूर्वकथन में है। आज औद्योगिक जीवन और उसकी भारतीय समाज में भूमिका को लेकर किसी-न-किसी रूप में चर्चाएं हो रही हैं। लेकिन साठ के दशक में इस मुद्दे पर हिंदी कथा-साहित्य में सन्नाटा था। पाठक देखेंगे कि शेखर जोशी इस सन्नाटे को अपने पहले कहानी-संग्रह के माध्यम से ही तोडऩे की तरकीब कर रहे हैं। अपने पहले कदम के साथ ही यह महत्वपूर्ण लेकिन उपेक्षित विषय उनकी चिंता में शामिल हो जाता है। इस उल्लेखनीय सत्य से भी हिंदी आलोचना गािफल है! 'कोसी का घटवार' का प्रथम संस्करण अब बाजार में उपलब्ध नहीं है। साथ ही पाठक उपरोक्त बिंदुओं को भूमिका में देख सके, इसलिए पूरी भूमिका मैं यहां पर उद्धृत कर रहा हूँ
- ''पिछले दो-तीन वर्षों में लिखी गयी कहानियों में से कुछ कहानियां इस संग्रह में दे रहा हूँ। इनमें से अधिकांश कहानियों की पृष्ठभूमि औद्योगिक अथवा पर्वतीय जीवन रही हैं। मेरे सम्मुख इसके दो कारण है।''
परिवर्तित सामाजिक परिस्थियों में औद्योगिक संस्थानों की जो भूमिका रहेगी, वह आज के बिखरते ग्रामीण जीवन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। लेकिन आज भी समसामयिक रचनाकारों एवं कथा-साहित्य के आलोचकों का ग्राम-कथा के प्रति जो आग्रह है, उसका अंशमात्र भी औद्योगिक जीवन के प्रति नहीं दिखायी देता।
पर्वतीय प्रदेश के प्रति अपनी निजी आत्मीयता तथा उर्वर कल्पना वाले लेखकों द्वारा पर्वतीय नारी के अयथार्थ और  वीभत्स चित्रण ने इस दिशा की कहानियों को लिखने की प्रेरणा दी है। आश्चर्य है कि आर्थिक दैन्य के अभिशाप में पले हुए कुछ पर्वतीय रचनाकारों को भी इस कुत्सित प्रचार में सहायक होने की अपेक्षा उस जीवन की अन्य कोई समस्या नहीं दिखलायी थी।
इन कहानियों की रचना में 'स्टडी सर्किल' तथा 'कल्चरल फोरम' (दिल्ली) एवं परिचय (प्रयाग) के मित्रों, साहित्यिक अग्रेजों का जो स्नेहपूर्ण सहयोग मिला है, उसके लिए उनका आभारी हूँ।
आभारी हूँ उन परिस्थितियों एवं व्यक्तियों का जो मेरे संवेदन को तीव्रतर बनाने में सहायक हुए हैं।
प्रयाग, जुलाई 1958      शेखर जोशी
(भूमिका, कोसी का घटवार, प्रथम संस्करण, नया साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद, 1958)
पाठक यहां देखेंगे कि उपरोक्त भूमिका में शेखर जोशी ने दो बातों पर खास तवज्जो दी है। पहली बात औद्योगिक परिवेश को लेकर हिंदी कहानी में छायी उदासीनता और दूसरी बात जिनका ताल्लुक इस आलेख से है, पहाड़ी नारी की बनायी गयी कुत्सित छवि के प्रति स्वाभाविक रोष और उसका प्रतिकार। हिंदी के कई कहानी लेखकों ने पर्वतीय नारी का चित्रण जिस रूप में किया है, वह उनकी संवेदनहीनता को जाहिर करता है। ऐसा करके उन्होंने पर्वतीय नारी की अस्मिता को चोट पहुंचायी है। उनको लेकर बेतुके मिथकों को गढ़ा है। 1957 में इलाहाबाद में साहित्यकार सम्मेलन हुआ था। ऐसा विराट लेखक सम्मेलन हिंदी क्षेत्र में पहली बार हुआ था। कहानीकारों, कवियों, आलोचकों की कई पीढिय़ों का यह अनोखा संगम था। विभिन्न कक्षों में अपनी-अपनी विधा पर रचनाकारों की गोष्ठियां आयोजित की गयी थी। कहानी विधा पर एक कक्ष में विचार गोष्ठी चल रही थी। यशपाल जी ने उस गोष्ठी की अध्यक्षता की थी। वाचस्पति गैरोला, जो संस्कृत साहित्य के गंभीर अध्येता थे और जिन्होंने बाद में 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' नामक वृहद ग्रन्थ लिखा, भी वहां उपस्थित थे। उन्होंने अचानक उठकर यशपाल जी से प्रश्न कर डाला कि आपने अपनी कहानियों में पहाड़ की नारी का अपमान क्यों किया है? यशपाल इस अनपेक्षित हमले से सकते में आ गये, लेकिन फिर उन्होंने इस आक्षेप का तर्कसंगत उत्तर दिया था।
पर्वतीय नारी के चित्रण में हिंदी के कहानीकारों ने बहुधा टूरिस्ट एप्रोच से काम लिया है। वो टूरिस्ट एप्रोच कैसे हमारे अवचेतन में काम करता है, इसकी एक बानगी कथाकार 'बलराम' की कहानी 'ग्लोइंग पाइंट' है। बेहद सधी और सटीक भाषा में मंतव्य को स्पष्ट करती हुई।
शेखर जोशी ने 'कोसी का घटवार' में लछमा के चरित्र-गठन से यह जवाब देने की कोशिश की है कि पर्वतीय नारी भी वैसी ही होती है है, जैसी आमतौर पर कहीं की होती हैं। सहज और स्वाभाविक जीवन की आस में जीती हुई। समाज और रीतियों में दबी हुई।
लछमा कहानी में दो रूपों में आयी है। उसका पहला परिचय पाठक को गुसाईं से मिलता है जब वह अपनी स्मृतियों में खोया है। तब लछमा उसकी प्रेमिका होती है। यह कहानी में फ्लैश बैक से पता चलता है। उसका दूसरा रूप तब सामने आता है जब वह गुसाईं के घटवार में पिसान के लिए आती है। फ्लैश बेक से जो पता चलता है, वो उसका अतीत था। उसका वर्तमान गुसाईं के घट में खुलता है, जिससे गुसाईं भी अनभिज्ञ है। वो विधवा हो चुकी है। ससुराल में उसकी निभ नहीं पायी। जेठ-जेठानी घर को उसके लिये लाम बनाये हुए थे। वह वहां से पीछा छुड़ा अपनी माँ के पास आयी। कुछ दिनों बाद उसका भी देहांत हो जाता है। कुछ लोग सोच सकते हैं कि यह कहानी में करुणा उत्पन्न करने की परंपरागत टोटकेबाजी है। जीवन-स्थितियों को व्यापकता की नासमझी ऐसे भ्रम पैदा करती रही है। ये कोई टोटकेबाजी नहीं, जीवन गति का सहज प्रवाह है, जैसा हम अपने आस-पास कई बार देखते हैं। लछमा के ताई-ताऊ को लगता है कि वह अपने माँ की जायदाद पर दावा करेगी।
हिन्दू विधवा औरत का समाज में कोई नहीं होता। वह बस विधवा होती है। इसके अलावा कुछ नहीं। तमाम सामाजिक संबंध के दायरे उसके लिए रबड़ की तरह सिकुड़ जाते हैं। इस जनाकीर्ण संसार में असंख्य संबंधों के होते हुए भी वह संबंधविहीन होती है। अकेली होती है। एक औरत की जिन्दगी हमारे समाज में यों ही कुछ कम कठिन नहीं। उस पर विधवा का जीवन! अकेले ये दो जिन्दगी की दुश्वारियों के बराबर है। एक सभ्य समाज में ऐसा होना नहीं चाहिए। मानवीय सम्मान और सुरक्षा के लिए सधवा होना जरूरी नहीं। लेकिन हमारे गूढ़ समाज ने इसे जरुरी बना दिया है। गनीमत है, ये रूढिय़ां दिन-ब-दिन कमजोर होती जा रही हैं।
लछमा को उसका प्यार इसलिए नहीं मिला क्योंकि गुसाईं फौजी पेण्ट के छलावे में लछमा के पिता की पसंद नहीं बन पाया। लछमा विधवा होकर दर-दर की मुहताजी हो गयी। इस फौज ने गुसाईं और लछमा- दोनों की जिन्दगी को घट की तरह सुनसान कर दिया। सनद रहे इस फौज की पृष्ठभूमि द्वितीय विश्वयुद्ध की थी। इस युद्ध ने अकेले पहाड़ को कितने घाव दिए, उसकी अमिट मिसाल 'कोसी का घटवार' है। पहाड़ डायनामाइट से नहीं टूटते, व्यवस्था के युद्ध रुपी छलों से टूटते हैं। पहाड़ के सीने में दरार इन युद्धों ने डाली है।
आलेख की शुरुआत में 'उसने कहा था' की मु$ख्तसर चर्चा की गयी थी। यह रेखांकित किया जाय कि प्रथम विश्वयुद्ध ने हिंदी कथा-साहित्य को 'उसने कहा था' जैसी कहानी दी, तो द्वितीय विश्वयुद्ध ने 'कोसी का घटवार'। यह भी गौरो-िफक्र है कि इस कहानी ने नई कहानी आन्दोलन के सूरमाओं के सामने पूरे बालाघात के साथ इस बात को प्रस्तावित किया कि -
तुम आसमां की बुलन्दी से जल्द लौट आना
हमें ज़मीं के मसाइल पे बात करनी है।
कहानी के प्रेम पक्ष पर भी चर्चा हो सकती है लेकिन उस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है इसलिए मैंने युद्ध और पर्वतीय नारी को लेकर पैदा किये गये प्रवाद के संदर्भ में ही इसे देखने की कोशिश की है।


रेणु, निर्मल वर्मा, अमरकांत, मोहन राकेश, मार्कण्डेय, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव, बड़ी कथाकार माला की महत्वपूर्ण कड़ी में शेखर जोशी एक प्रतिष्ठित और सुखद उपस्थिति है। बहुत शुरुआती दिनों में 'पहल' ने कपिल तिवारी का एक बेहतरीन मूल्यांकन जोशी जी का छापा था, उसे भी 35 साल बीत गये। बीच में इस अनूठे कथाकार को पहल सम्मान समर्पित किया गया। एक बिलकुल अज्ञात युवक दिव्यानंद का एक सरल आलोचनात्मक निबंध हम विशेष रूप से इसलिए छाप रहे हैं कि वह आगे के अध्ययनों के लिए कई प्रकार के प्यारे नुक्ते प्रस्तुत करता है और यह 'पहल' का दायित्व भी था। दिव्यानंद ने शेखर जोशी की कहानी 'कोसी का घटवार' का मूल्यांकन बहुत ही सरल तथा सुसंगत तरह से किया है। इसमें नयापन है और दृष्टिकोण है। जब 'कोसी का घटवार' छपी थी तब भारत का समग्र तेजी से बदल रहा था और आधुनिक पाठकों का दिल डूबता था।
पाठक जानते है कि अभी अभी हमने पहल 90 में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद की कुछ महत्वपूर्ण कविताओं का चयन छापा है। इस लेख में शेखर जोशी के बहाने पहाड़ से जाते लोग, युद्ध के मैदानों में जाते लोग दिखते हैं। स्व. गुलेरी जी का उल्लेख ('उसने कहा था') समीचीन है। उसमें भी युद्ध की पृष्ठभूमि है। इस कहानी को भी 100 वर्ष इस वर्ष हो रहे हैं। पाठक देखें  कि 1915 की कहानी में पहाड़ और शेखर जोशी की कहानियों में पहाड़ - लगातार पलायन और वीरानी।
दिव्यानंद अपने रेशे बचा कर रख सकें, इसलिए पहल उन्हें प्रोत्साहित करती है। दिल्ली प्रतिभाओं की डूब का क्षेत्र है पर फिर भी लोग उभरते है।
- संपादक


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