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मार्च : 2015

मंटो की मीठी बोलियां

प्रस्तुति : राजकुमार केसवानी

मंटो को गुज़रे भी अब साठ बरस हुए जाते हैं और इन पूरे साठ बरस में शायद ही कोई वक़्त ऐसा गुज़रा हो कि मंटो को याद न किया गया हो। इस अज़ीम-ओ-शान फनकार ने अपने फन से वक़्त के सीने पर एक नक्काश की तरह अपने दौर के इंसानी हालात और जज़्बात को यूं उकेरा है कि वो दौरे-हाज़िरा में भी हम उम्र लगते हैं।
मंटो को अक्सर एक ऐसे अफ़साना निगार की तरह ज़्यादा याद किया जाता है जिसके किरदार समाजी लानतों और सियासी बदकारियों के शिकार होकर उसी समाज के सामने आईना लेकर खड़े हो जाते हैं। लेकिन दर-हक़ीक़त मंटो के खज़ाने में तरह-तरह के लाल-ओ-गौहर मौजूद हैं। ज़माने पर तल्ख लहजे में लानत भेजने वाली ज़बान से मुहब्बत के कुछ नर्मो-नाज़ुक कलाम भी निकले हैं।
यहां पेश मंटो के दो मज़ामीन इसी बात की नुमाइंदगी करते हैं। पहला मज़मून तो खैर उर्दू-हिंदी के झगड़े पर एक हल्की-फुल्की सी चपत है लेकिन दूसरा मज़मून 'देहाती बोलियां' बेहद दिलकश और दिलनवाज़ नज़्म की सूरत है। इस नज़्म को पढ़ते हुए बेसाख्ता एक बार फिर से जवान होने का अरमान जाग जाता है। मंज़र से गुम होती इश्क़-ओ-मोहब्बत की मासूम वादियों को एक बार फिर तलाशने और उनमें रहने को जी चाहता है.।
सोचता हूं कि ऐसा क्या हुआ होगा कि इस क़दर पाकीज़ा और खुली हवाओं में पलते हुए प्यार-मुहब्बत के अफ़सानों की दुनिया को भुलाकर मंटो पूरी तरह से तल्िखयों से भर गया। फिर $खुद पर हंसी आती है। जवाब तो सब जानते हैं। मैं भी जानता हूं। फिर ये जाहिलाना सवाल ही किसलिए ?
यही फ़र्क है मंटो और बाकी लोगों में। मंटो उन सब चीज़ों में वक़्त ज़ाया नहीं करता जिन चीज़ों को सब समझते हैं और सब जानते हैं। अब मिसाल के तौर पर मैं यहां अपने पाठकों के नाम लिखा मंटो का एक छोटा सा 'रुक्का' यहां पेश किए देता हूं, जिसे उनकी उर्दू में प्रकाशित किताब 'मंटो के अदबी मज़ामीन' की शुरूआत में दिया गया है।
लोग मुझे जानते हैं इसलिए 'तारुफ़' की ज़रूरत नहीं
'पेश लफ़्ज़' मैने इसलिए नहीं लिखा कि जो कुछ मुझे कहना है, मैने अपने मज़ामीन में कह दिया है। 'दिबाचा' या 'मुक़दमा' मैने इसलिए किसी से नहीं लिखवाया कि मेरे नज़दीक कि ये उस शहबाले की तरह मुज़हिका खेज़ हद तक गैर-ज़रूरी और गैर-अहम है जो दूल्हा के आगे या पीछे घोड़े पर सजा-बना कर बैठा दिया जाता है।
सआदत हसन मंटो ( दहली 12 अप्रेल 1942)
(शादियों में एक पुरानी रस्म है जिसमे बारात में दूल्हे के की ही तरह सजा-धजा दूल्हे का भतीजा या फिर $खानदान का कोई खूबसूरत बच्चा एक छोटी सी घोड़ी पर सवार रहता है। उर्दू में उसे शहबेला और पंजाबी में सरबाला कहा जाता है.
इस जगह मंटो किताबों की शुरूआत में अक्सर मौजूद रहने वाली प्रस्तावना या भूमिका को इस रस्म की तरह ही मसखरापन या हास्यास्पद क़रार दे रहे हैं.)
- राजकुमार केसवानी  


मंटो के मज़ामीन
देहाती बोलियां

आइये ! आपको पंजाब के देहातों की सैर कराएं। ये हिंदुस्तान के वह देहात हैं जहां रूमान तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के बोझ से बिल्कुल आज़ाद है। जहां जज़्बात बच्चों की मानिंद खेलते हैं। यहां का इश्क़ ऐसा होता है जिसमें मिट्टी मिली हुई है, तसन्ना और बनावट से पाक इन देहातों में बच्चों, नौजवानो और बूढ़ों के दिल धड़कते हैं। क़दम-क़दम पर आपको शायरी नज़र आएगी जो ओज़ान की क़ैद और लफ्ज़ी बंदिशों से बुल्कुल आज़ाद है।
यहां की खुली हवा में आप चलें-फिरेंगे तो आप अपने अन्दर एक नई ज़िंदगी पाएंगे। आपको ऐसा महसूस होगा कि आप भी इश्क़ कर सकते हैं। आप भी परिंदों की ज़बान समझ सकते हैं और हवाओं की गुनगुनाहट आपके लिए भी कुच्छ माने रखती है। जब अबाबीलें खामोश आसमान में डुबकियां लगाती हैं और शाम को चमगादड़ क़तार अन्दर क़तार जंगलों की तरफ तैरते हैं और गांव वापस आने वाले ढोर-ढंगरों के गले में बंधे हुए घुंघरू बजते हैं और िफज़ा पर एक दिलफ़रेब नाच की सी कैफियत तारी हो जाती है तो आपका दिल भी कभी फैलेगा और कभी सिकुड़ेगा।
वह देखिये, सामने कच्चे कोठे ज़मीन पर लेटे हुए हैं। दीवारों पर बड़े-बड़े उपलों की क़तार दूर तक चली गई है। मिट्टी के ये घरोंदे भी एक-दूसरे से मुहब्बत करते हैं क्योंकि इनमें फ़ासला नहीं। एक कोठा दूसरे कोठा से हमकिनार है। इसी तरह इस खुले मैदान पर एक और खुला मैदान बन गया है। इन कोठों पर चारपाइयां औंधी पड़ी हैं। गन्ने के लंबे-लंबे छिलके बिखरे हुए हैं। दोपहर का वक़्त है। धूप इतनी तेज़ है कि चील भी अंडे छोड़ दे। िफज़ा एक ख्वाबगूं उदासी में डूबी हुई है। कभी-कभी चील की बारीक चीख उभरती है और $खामोशी पर एक खराश सी पैदा करती हुई डूब जाती है...... मगर इस तेज़ धूप में ये कोठे पर कौन चढ़ा है ..... अरे ये तो कोई इस गांव की मुटियार (नौजवान लड़की) है। देखो तो किस अंदाज़ से तपते हुए कोठे पर नंगे पैर चल रही है। ये लो वह खड़ी हो गई। उसे किसका इंतज़ार है। उसकी आंखें किसी को ढूंढ रही हैं। बबूलों के झुंद में ये क्या देख रही है। कब तक ये ऐसे खड़ी रहेगी। क्या उसके पैर नहीं जलते ? शायद उसी ने ये कहा होगा :
कोठे उपर खलियां
मेरी सड़ गइयां पैर दियां तलियां
मेरा यार नजर ना आवे
(मैं कोठे पर खड़ी हूं और खड़े-खड़े मेरे पैर के तलवे जल गए हैं, लेकिन मेरा आशिक़ नज़र नहीं आता।)
नहीं इसने तो गन्ने के सूखे हुए छिलके इकठे करने शुरू कर दिए....लेकिन ये फिर बार-बार इधर-उधर क्यों देखती है, जिधर बूढ़े बरगद के साए तले एक नौजवान हाथ में एक लंबी लाठी लिए खड़ा है..... क्या ये उसका वो तो नहीं? उसकी लाठी पर पीतल के कोके कितने चमक रहे हैं!
हम इधर नौजवान की तरफ देखते रहे और उधर आिखरी कोठे पर जो कि यहां से काफ़ी दूर है एक और नौजवान लड़की नमूदार हो गई। दूर से कुछ दिखाई नहीं देता मगर उसकी नाक की लौंग कितनी चमक रही है। क्या इसी लौंग के बारे में कहा गया था :
तेरी लौंग दा पया लशकारा
हालियां ने हल ढक लए
(तेरी लौंग (नाक की कील) ने जब चमक पैदा की तो हल चलाने वालों ने अपने हल रोक रोक लिए। (इस खयाल से कि बिजली चमक रही है और बारिश आ रही है।)
अजी नहीं यह तो कुछ और ही मामला है। यह देखिए उधर की लड़की इधर की लड़की को इशारा कर रही है। शायद उसे आने के लिए कह रही है। फिर उस तरफ भी झुक कर देखती है जहां गांव का वह नौजवान आदमी साए तले खड़ा है। एक हाथ से लाठी पकड़े है और दूसरे हाथ से गले में पड़े हुए तावीज़ों से खेल रहा है। इस मंज़र को देखकर वह 'बोली' याद आ जाती है जो इस गांव के तमाम लड़कों को याद है। क्या है? ....हां!
मुंडा मोह लिया तू यतां वाला
दमड़ी दा सक मल के
(एक तगड़े जवान को जिसने आफ़ात से महफ़ूज़ रहने के लिए तावीज़ पहन रखे थे, एक लड़की ने दमड़ी का सक (अखरोट या किसी और दरख्त की छाल जिससे होंट रंगे जाते हैं) मल कर मोह लिया।)
फिर इशारे हो रहे हैं इधर की लड़की उसे जल्दी आने के लिए इशारे कर रही है ..... साफ-साफ़ क्यूं नहीं कह देती :
कोठे-कोठे आ लछीए
तनूं बंतो दा यार दिखांवां
(कोठे-कोठे चली आ लछी.....मैं तुझे बंतो का आशिक़ दिखाऊं।)
क्या पता कि ये नौजवान जो बरगद के साए तले मूंछों को ताव दे रहा है, बंतो ही का आशिक़ हो। बशो का न होगा तो किसी और का होगा क्योंकि बहरहाल इसे किसी का तो आशिक़ होना ही चाहिये। देखिए, किस अंदाज़ से खड़ा है। सिर पर सफेद खादी का साफा बांध रखा है और अपने आप को किस क़दर अहम समझ रहा है। उसको दोनों जवान लड़कियों ने इस हालत में देख लिया है। अब सारे गांव की कुवांरियों को मालूम हो जाएगा कि सर पर सफ़ेद खादी का साफा बांधकर वह बरगद के साए तले खड़ा था। क्या-क्या बातें न होंगी। फ़ब्तियां उड़ाई जाएंगी और कुंए पर देर तक हंसी और कहकहों के छींटे उड़ते रहेंगे और क्या पता है कि कोई शरीर छोकरी ऊंचे सुरों में ये गाना शुरू कर दे :
सर बन्ह के खदर दा साफा, चंदरा शोकीन हो गया
(सर पर खादी का साफ़ा बांध कर बेचारा शौकीन हो गया है)
ये छोकरी जब हंसेगी तो उसके दांतों में ठुकी हुई सोने की कीलें भी हंसेंगी और क्या पता है कि वहां पास की झाड़ी के पीछे कोई शरीर लौंडा छुपा बैठा हो। वह ये हंसती हुई कीलें देख ले और उठ कर जब खेतों की तरफ रुख करे तो दफतन उसके होंठ वा हों और ये बोली परिंदे की तरह फिर से उड़ जाए :
मौज सुनियारा ले गया
जिन्हें लाइयां दंदा विच मेखियां
(मज़ा तो सुनार ले गया जिसने तुम्हारे दांतों में ये कीलें जड़ी हैं।)
ये लड़का जब खेतों से लौटकर गांव आएगा और शाम को चौपाल पर हुक्के के दौर चलेंगे तो वहां वो सफेद साफे वाला भी होगा। उसको मालूम हो जाएगा कि कुंए पर पानी भरने के दौरान किस ज़ालिमाना तरीक़े से उसका मज़ाक उड़ाया गया है तो वह अफसुर्दा और मगमूम हो जाएगा। बैठते, सोते, जागते उसको अपनी माशूक़ की बेरु$खी सताती रहेगी। एक आह की सूरत में आिखरकार उस के सीने में ये अलफ़ाज़ उठेंगे :
कला टकरें ते हाल सुणावां
दुखां विच पै गई जिंदड़ी
(इसमे अपने किसी दोस्त को या अपने ही आप को मुखातिब किया गया है। अगर तुम अकेले में मिलो तो तुम्हे सारा हाल सुनाऊं कि मेरी ज़िंदगी किन दुखों से घिर गई है।)
बहुत मुमकिन है वह अपने दोस्त को हमदर्द जानकर हाले-दिल कहे और यूं अपने दिल का गुबार हल्का करे मगर इतिफाक़ ऐसा हो कि इन दोनो में किसी बात पर झगड़ा हो जाए और जिसको इसने अपना हमदर्द बनाया था इसे सारे गांव में नश्र कर दे। इस पर ये कोई ज़रूर कहेगा :
यारी विच न वकील बनाइये
लड़ के दस दवेगा
(इश्क़ में किसी को वकील न बनाना चाहिये क्योंकि अगर उससे लड़ाई हो गई तो वह सारा भेद खोल देगा।)
फिर नामुराद आशिक़ ये समझकर कि उसका इश्क़ नाकाम रहा है, हल चलाते हुए दोपहर की उदास धूप में यकायक बोल उठेगा:
मेरी लगदी किसी न वेखी
ते टुट दी नूं जग जाणदा
(जब मेरी और उसकी मोहब्बत हुई तो किसी को पता तक न चला, मगर अब कि ये रिश्ता टूट गया है, सारी दुनिया को मालूम हो गया है और जग हंसाई का बाइस हुआ है।)
लेकिन क्या पता है कि दूसरी तरफ इसकी माशूक़ा को भी कुछ कहना हो। क्या पता है कि वह उससे मुहब्बत करती हो और ज़ाहिर न कर सकती हो क्योंकि ये बोल उसके मुंह से बगैर किसी वजह के तो नहीं निकलेंगे :
यार सरव दा बूटा
वेड़े विच ला रख दी
(यार मेरा क्या था, सर का दरख्त था। अपस उसे अपने सहन में लगा छोड़ती)
इतने में फौज की भरती शुरू हो जाएगी। जब बरसात आएगी, पीपल के दरख्तों में झूले पड़ेंगे। आम के दरखतों पर पपीहे पीहू-पीहू पुकारेंगे। कोयलें कूकेंगी। सारा गांव खुश होगा तो वह ..... अपने घर की गीली मुंडेर की तरफ उम्मीद भरी नज़रों से देखकर पुकारेगी :
बोल वे निमाणियां कुआं
कोयलां कूक दियां
(ऐं निमाणे कुएं तू ही बोल, कोयलें कूक रही हैं कौवा अगर बोले तो समझा जाता है कि कोई अज़ीज़ आने वाला है)
मैदान खाली होने पर इस गांव में एक और आशिक़ भी पैदा हो जाएगा। वह हर रोज़ इस उम्मीद पर उसके घर के पास से गुज़रेगा कि एक रोज़ वो उसे ज़रूर बुलाएगी। और इशारों ही इशारों में बातें होंगी। मगर ऐसा नहीं होता ... आिखरकार वो तंग आकर कहेगा :
क्दी चंदरिये हाक न मार
छूड़े वाली बांह कढ़ के
(लफ्ज़ चन्दरी का तर्जुमा नहीं हो सकता। उर्दू में इसके लिए कोई मुतरादिफ़ लफ्ज़ नहीं मिला। चन्दरी लफ्ज़, पंजाबी ज़बान में मु$ख्तलिफ मायनों में इस्तेमाल किया जाता है। कभी हमदर्दी के तौर पर उसको गुफ्तगू में इस्तेमाल किया जाता है। यहां मुहब्बत और शिकायत दोनो इसमे हल हैं। वह उसको चन्दरी से मुखातिब करता है और कहता है कि तूने कभी अपने चूड़े (हाथी दांत की बनी हुई चूडिय़ों का एक गिरोह, जो कलाई से लेकर कोहनी तक देहाती औरतें पहनती हैं) वाला बाज़ू बाहर निकाल कर मुझे इशारा नहीं किया (मुझे अपने पास नहीं बुलाया)।
एक ज़माना गुज़र जाएगा। इश्क़ की दास्तान अफ़साना बन जाएगी और आिखर एक रोज़ ये देहाती हसीना किसी के साथ ब्याह दी जाएगी। इसके ब्याह पर लोगों में चिमगोइयां होंगी। लोग उसका और उसके $खाविंद का मुक़ाबला करेंगे। और कोई नौजवान चीख उठेगा .... :
मुंडा रूही दे ककर दा जा तू
विया के ले गया चन्दर वरगी
('रोही दी ककर' एक खास किसम के बबूल को कहते हैं, जिसकी लकड़ी बड़ी किरिख्त (सख्त) और काली होती है: इसका मतलब यह हुआ कि एक मर्द जो कि रूही के बबूल की तरह खुरदरा और काला था, चांद जैसी दुल्हन ब्याह कर ले गया है।)
पहली रात आएगी। हज़ारों कंपकपाहटें अपने साथ लिए, एक पलंग पर दुल्हन गठरी बनी हुई अपनी हिना-आलूद हाथ जोड़ेगी और अपने आमादा जुल्म खाविंद से मिन्नत भरे लहजे में कहेगी:
मैनू अज दी रात ना छेडि़ए
मेहंदी वाले हथ जोड़दी
(मुझे सिर्फ आज की रात न छेड़ो। देखो मिं अपने हिना-आलूद हाथ जोड़ रही हूं।)
क्या वह मान जाएगा? क्या जोड़े हुए हिना-आलूद हाथ उस ज़ालिम के दिल में रहम पैदा कर देंगे? खैर इस किस्से को छोडिय़े। यह मरहला किसी न किसी तरह तय हो ही जाएगा और दुल्हन पुरानी हो जाएगी। फिर झगड़े शुरू होंगे और एक रोज़ उसका खाविंद उसके पहले आशिक़ को बुरा-भला कहेगा तो वह उस वक़्त सीने पर पत्थर रखकर $खामोश तो हो जाएगी मगर अकेले में उसके मुंह से यह बोल निकलेंगे:
मेरे यार नूं मंदा न बोलिए
मेरी भावें गत पट लईं
(मेरी तुम चुटिया जड़ से उखाड़ लो, मगर मेरे यार को बुरा न कहो)
और.......फिर......यूं ही उमर बीत जाएगी। और ये अफसाना इस देहात में नए फ़साने पैदा करेगा।


हिंदी और उर्दू
हिंदी और उर्दू का झगड़ा एक ज़माने से जारी है। मौलवी अब्दुल हक़ साहब,डाक्टर ताराचंद जी और महात्मा गांधी इस झगड़े को समझते हैं लेकिन मेरी समझ से यह अब तक बालातर है। कोशिश के बावजूद इसका मतलब मेरे ज़हन में नहीं आया। हिंदी के हक़ में हिंदू क्यों अपना वक़्त ज़ाया करते हैं, मुसलमान क्यों उर्दू के तहफ़ुज़ के लिए बेक़रार हैं .......? ज़बान बनाई नहीं जाती, खुद बनती है और न ही इंसानी कोशिशें किसी ज़बान को फना कर सकती हैं। मैने इस ताज़ा और गर्मागर्म मौज़ू पर कुछ लिखना चाहा तो •ौल का मकालमा तैयार हो गया।'
मुंशी नारायण प्रसाद : इक़बाल साहब ये सोडा आप पीएंगे ?
मिर्ज़ा मुहम्मद इक़बाल : जी हां, मैं पीयूंगा।
मुंशी : आप लेमन क्यों नहीं पीते ?
इक़बाल : यूं ही, मुझे सोडा अच्छा मालूम होता है, हमारे घर में सब सोडा ही पीते हैं।
मुंशी : तो गोया आपको लेमन से नफ़रत है ?
इक़बाल : नहीं तो ......नफ़रत क्यों होने लगी मुंशी नारायण प्रशाद.....घर में चूंकि सब यही पीते हैं ......इसलिए आदत सी पड़ गई है। कोई खास बात नहीं बल्कि मैं तो समझता हूं कि लेमन सोडे के मुक़ाबले में ज़्यादा मज़ेदार होता है।
मुंशी : इसलिए तो मुझे हैरत हुई कि मीठी चीज़ छोड़कर आप खारी चीज़ क्यों पसंद करते हैं, लेमन में न सिर्फ ये कि मिठास घुली होती है बल्कि खुश्बू भी होती है। आपका क्या खयाल है?
इक़बाल : आप बिल्कुल बजा फ़रमाते हैं .....पर
मुंशी : पर क्या ?
इक़बाल : कुछ नहीं ..... मैं यह कहने वाला था कि मैं सोडा ही पीयूंगा।
मुंशी : फिर वही जहालत ..... कोई समझे मैं आपको ज़हर पीने पे मजबूर कर रहा हूं। अरे भाई लेमन और सोडे में फ़र्क ही क्या है। एक ही कार$खाने में ये दोनो बोतलें तैयार हुईं। एक ही मशीन ने इनके अंदर पानी बंद किया ..... लेमन से मिठास और खुश्बू निकाल दीजिए तो बाकी क्या रह जाता है ?
इक़बाल : सोडा ..... खारी पानी .....
मुंशी : तो फिर इसके पीने में हर्ज क्या है ?
इक़बाल : कोई हर्ज नहीं
मुंशी : तो पियो....
इक़बाल : तुम क्या पियोगे?
मुंशी : मैं दूसरी बोतल मंगवा लूंगा
इक़बाल : दूसरी बोतल क्यूं मंगवाओगे ...... सोडा पीने में क्या हर्ज है?
मुंशी : को.....कोई हर्ज नहीं
इक़बाल : तो पियो यह सोडा
मुंशी : तुम क्या पियोगे ?
इक़बाल : मैं दूसरी बोतल मंगवा लूंगा
मुंशी : दूसरी बोतल क्यूं मंगवाओगे ..... लेमन पीने में क्या हर्ज है?
इक़बाल : को.....ई.....हर .....ज...नहीं.....और सोडा पीने में क्या हर्ज है?
मुंशी : को.....ई.....हर.....ज.....नहीं
इक़बाल : बात ये है कि सोडा ज़रा अच्छा रहता है
मुंशी : लेकिन मेरा $खयाल है कि लेमन.....ज़रा अच्छा रहता है
इक़बाल : ऐसा ही होगा.....पर मैं तो अपने बड़ों से सुनता आया हूं कि सोडा अच्छा होता है
मुंशी : अब इसका क्या होगा ..... मैं भी अपने बड़ों से यही सुनता आया हूं कि लेमन अच्छा होता है
इक़बाल : आपकी अपनी राय क्या है ?
मुंशी : आपकी अपनी राय क्या है
इक़बाल : मेरी राय.....मेरी राय.....मेरी राय तो यही है कि ...... लेकिन आप आप अपनी राय क्यूं नहीं बताते?
मुंशी : मेरी राय ..... मेरी राय ..... मेरी राय तो यही है कि ..... लेकिन मैं अपनी राय का इज़हार पहले क्यूं करूं ?
इक़बाल : यों राय का इज़हार न हो सकेगा ...... अब ऐसा कीजिए कि अपने गिलास पर कोई ढकना रख दीजिए, मैं भी अपना गिलास ढक देता हूं, ये काम कर लें तो फिर आराम से बैठकर फ़ैसला करेंगे।
मुंशी : ऐसा नहीं हो सकता ..... बोतलें खुल चुकी हैं। अब हमें पीना ही पड़ेंगी। चलिए जल्दी फ़ैसला कीजिए, ऐसा न हो कि इनकी सारी गैस निकल जाए ..... इनकी सारी जान तो गैस में होती है।
इक़बाल : मैं मानता हूं ...... और इतना आप भी तस्लीम करते हैं कि लेमन और सोडे में कोई फ़र्क नहीं
मुंशी : ये मैने कब कहा था कि लेमन और सोडे में कुछ फ़र्क ही नहीं ..... बहुत फ़र्क है ..... ज़मीन और आसमान का फ़र्क है। एक में मिठास है, खुश्बू है, खटास है यानी तीन चीज़ें सोडे से ज़्यादा हैं। सोडे में तो सिर्फ गैस ही गैस है और वह भी इतना तेज़ कि नाक में घुस जाती है। इसके मुक़ाबले में लेमन कितना मज़ेदार है। एक बोतल पियो, तबीयत घंटों बशाश रहती है। सोडा तो आम तौर पर बीमार पीते हैं..... और आपने अभी-अभी तस्लीम किया है कि लेमन सोडे के मुक़ाबले में ज़्यादा मज़ेदार होता है।
इक़बाल : ठीक है पर मैने ये तो नहीं कहा कि सोडे के मुक़ाबले में लेमन अच्छा होता है। मज़ेदार के मानी ये नहीं कि वह मुफ़ीद होगा। अचार बड़ा मज़ेदार होता है मगर उसके नुक्सान आपको अच्छी तरह मालूम हैं। किसी चीज़ में खटास या खुश्बू का होना ये ज़ाहिर नहीं करता कि वह बहुत अच्छी है। आप किसी डाक्टर से दरयाफ़्त फ़रमाइये तो आपको मालूम होगा कि लेमन मेदे के लिए कितना नुक्सानदेह है ..... सोडा अलबता चीज़ हुई ना ..... यानी उससे हाज़मे में मदद मिलती है।
मुंशी : देखिए इसका फैसला यूं हो सकता है कि लेमन और सोडा दोनो मिक्स कर लिए जाएं।
इक़बाल : मुझे कोई ऐतराज़ नहीं ।
मुंशी : तो इस $खाली गिलास में आधा सोडा डाल दीजिए ।
इक़बाल : आप भी अपना आधा लेमन डाल दें ..... मैं बाद में सोडा डाल दूंगा।
मुंशी : ये तो कोई बात न हुई, पहले आप सोडा क्यों नहीं डालते ।
इक़बाल : मैं सोडा-लेमन मिक्सड पीना चाहता हूं ।
मुंशी : और मैं लेमन-सोडा मिक्सड पीना चाहता हूं।


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