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मार्च : 2015

सांस्कृतिक जन योद्धा : जितेन्द्र रघुवंशी

डॉ. विजय शर्मा

निधन



सांस्कृतिक जन योद्धा : जितेन्द्र रघुवंशी





तेरे रहने से मुझे तेरा अहसास भी न था
तू चला गया है तो खाली सा हो गया हूँ

28 फरवरी की शाम मुझे उनका फोन आया... उधर से एक धीमी सी आवाज़ आई, 'क्या बात कर सकते हो?' मैंने कहा, 'हां कहिये?' ...'भाई संभागीय नाट्य समारोह की तारीख नज़दीक हैं, रिहर्सल शुरू करने का एस एम एस बना के सबको फॉरवर्ड कर दो।' मैंने कहा कि आप तारीख तय कर दीजिये मैं भेज देता हूं। ...आपकी तबियत कैसी है? बोले '...थोड़ी कमजोरी है पर कोई बात नहीं मैं फिट हूँ ... मोर्चा तो संभालना है न? नाटक तो करना ही है' और फिर नाटक के कंटेंट के बारे में कहा कि तुम बताओ क्या ठीक रहेगा ...क्या हम उसको छोटा करें या वैसा ही रहने दें? मैंने कहा, 'आप आराम कीजिए! मैं शाम को आकर मिलता हूँ। शाम को मैं घर गया तो वो घर पर नहीं थे। मैं आने की सूचना का मैसेज कर के लौट आया। सामान्य तौर पर हम दोनों की छोटी-मोटी चैटिंग एस एम एस के जरिये होती थी। उस दिन भी मुझे लगा कि जवाब आएगा पर जब जवाब नहीं आया तो फोन किया। फोन भी नहीं उठा तो मानस, उनके बेटे, को फोन किया तो पता लगा कि वो हॉस्पिटल में एडमिट हैं। कॉलेज से लौट कर सीधा अस्पताल पहुंचा, देखा वो बेड पर हैं, मुझे देखा तो हाथ के इशारे से बैठने कहा। मैंने कहा आराम कीजिये, मैं ठीक हूँ। धीरे से अपना आक्सीजन मास्क हटा कर बोले, 'बैठो भी, सीधा कॉलेज से आ रहे हो क्या?' मैंने कहा 'हां' कहने लगे कि कुछ खाया कि नहीं? मैंने कहा हाँ लंच कर लिया है। वो मुस्कुराए और बोले हमारा लंच ये हैं... अपने हाथ में लगी ड्रिप की तरफ इशारा करके बोले, 'तुमको तो तीमारदारी का अच्छा अनुभव है न (मेरे पिता की लम्बी बीमारी की तरफ उनका इशारा था) चलो थोड़ा काम कर लो।' मैं करीब जाकर बैठ गया। थोड़ी देर बाद सो गए। उठे तो बोले यार जरा हाथ दो, उठाओ, अब लेटा नहीं जाता, फिर धीरे धीरे बातें करने लगे शहर में हाल में हुए नाटकों की दर्शकों की बदलती रूचि और राय की, मैं उनके चेहरे को ध्यान से देख रहा था इतना उत्साह और जोश कहां से आ जाता है। फिर लगा कि इस आदमी के डीएनए में ही इप्टा और उसके नाटक हैं।
एक विराट स्वप्नदृष्टा, संगठन कर्ता, जन संस्कृति के हामी और मानवीय हितों के शुभचिंतक, वाम योद्धा के अन्दर मैंने इतना भावुक हृदय देखा था कि मुझे कभी कभी लगता था कि सम्पूर्ण मानव की कल्पना केवल कल्पना नहीं है उसका साकार स्वरूप कॉ रेड जितेन्द्र रघुवंशी हैं।
वह भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा के 30 साल से राष्ट्रीय महासचिव थे। ये वह तो इप्टा थी जो 80 के दशक के बाद अपने अतीत के स्वप्नों से पुनर्जीवित हुई और एक समकालीन सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक बन गयी। ऐसा उनके उस संगठनकर्ता रुप की सकारात्मक चेतना और दीर्घदर्शी योजना के चलते संभव हुआ था, जिसके पास समरसता और समन्यवयकारी व्यवहार तो था ही, साथ ही सांस्कृतिक आन्दोलन की मशाल को जलाए रखने के लिये जिस जाज्वल्य उत्साह और स्फूर्ति की आवश्यकता होती है वो उनमें पर्याप्त मात्रा में था।
वो दिल से खुद को कहानीकार मानते थे और एक कहानीकार के रूप में उनकी पहचान से एक बड़ा तबका वंचित रहा। 'लाल सवेरा', 'रामबरात', 'लालटेन' जैसी कई कहानियां उन्होंने लिखीं जो पुरुस्कृत और प्रकाशित भी हुई।
पिछले सालों में कई सांस्कृतिक और साहित्यिक संगठनों में अत्यंत सक्रियता देखने को मिली, और ये संगठन सामाजिक सरोकारों पर अपना रूझान और अतिरेकी वक्तव्य देते थे। उस पर उनकी टिप्पणी बस इतनी होती थी कि ये सक्रियता बनी रहे तो अच्छा पर अति सक्रियता और उत्साह आप का ध्यान आपके उद्देश्य से भटका देते हैं।
यात्राएं उनके जीवन का हिस्सा थी। देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले इप्टा के राज्य सम्मेलनों और नाट्य समारोह में जाना कभी उनकी मजबूरी नहीं रही, पर वो हमेशा उनका हिस्सा बने। चाहे वो मुंबई हो या पंजाब या राजस्थान, वो पूरे जोश और उम्मीद के साथ उसमें भागीदारी करते और वहां हो रही गतिविधियों की खुद बैठक कर रिपोर्ट बनाते और 'इप्टानामा' ब्लॉग को भेज देते जो डोंगरगढ़ इप्टा के दिनेश चौधरी निकाल रहे हैं।
आगरा विश्वविद्यालय के क.मु. हिंदी विद्यापीठ के विदेशी भाषा विभाग से उनका पिछले जून में रिटायरमेंट हो गया था, पर निदेशक और कुलपति के आग्रह पर वो वहां अतिथि प्रवक्ता के रूप में पढ़ाने जाते रहे। रिटायरमेंट से पूर्व के दिनों में उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें देखता था, एक दिन हिम्मत कर के पूछ लिया कि इतना परेशान क्यूँ हैं आप? बोले संस्थान में काम बहुत है पर कोई संभालने के लिए नहीं दिखाई देता... पता नहीं इस विभाग का मेरे बाद क्या होगा! बाद में जब अतिथि प्रवक्ता के रूप में जाने लगे तो एक दिन मुझसे बोले, अब थोड़ा फ़िक्र कम है, थोड़ा समय और मिल गया किताबें सही करने का। वो इन दिनों रुसी भाषा के विद्यार्थियों के लिए एक टेक्स्ट बुक पर काम कर रहे थे, जिसके तीन लेखक तीन अलग अलग देशों से थे और वो बाकी के दो लेखकों से इंटरनेट के माध्यम से जुड़े रहते थे। कई बार सुबह 8 बजे से लिखना शुरू करते और 4 बजे तक लिखते ही रहते। खाना-पीना, फोन और आने वाले लोगों से बातें - कई काम साथ साथ चलते। 60 की उम्र में उनकी सक्रियता 27 साल के उन युवकों जैसी थी जो खुद को मल्टी टास्कर मानते हैं।
पिछले दिनों भारतीय राजनीति और सत्ता परिवर्तन से वो बहुत चितिंत रहते। एक दिन अचानक टी वी देखते देखते बोले कि बाज़ार और साम्प्रदायिकता का ये मेल खतरनाक है, इसको रोकना बहुत जरुरी है अन्यथा पूरे विश्व में अस्थिरता उत्पन्न करेगा, कैसे रोकेंगे ये तो कहीं पता कर अपना काम करना बहुत जरुरी है।
हिन्दोस्तान में फासीवाद को ललकारने वाला शख्स और बाबरी मस्जिद की शहादत पर सरकार को खुले चौराहे पर कोसने वाला कॉमरेड इतना कोमल हृदय था कि आगरा के नाट्य प्रेक्षाग्रह सूरसदन के केयर टेकर रामस्वरूप जी के घर बिटिया की शादी से पूर्व दिये जाने वाले प्रीतिभोज में देर रात कॉफी पीते हुए उनको बधाई देने पहुंच गए। तब अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह बरतने पर जब मैं थोड़ा नाराज हुआ तो वह मुस्करा कर बोले, 'कॉमरेड बिटिया की शादी है... चलता है इत्ता तो..।'
मैंने कभी उनको गुस्सा करते हुए नहीं देखा। हाँ अगर कोई बात उनको बुरी लगती थी तो वो चुप हो जाते, बाद में धीरे से बोलते - 'ऐसा ना हैं भाई... तुमको समझना पड़ेगा...।'
उनका साहित्यिक रचना फलक इतना विविधता पूर्ण था कि जीवन के लगभग हर क्षेत्र और समाज के हर सरोकार के लिए उन्होंने नाटक, कहानी और गीत कवितायें लिखीं। बाल शिक्षा, स्त्री विमर्श, अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों पर उन्होंने कई नुक्कड़ नाटक लिखे। 'मैं भी पढूंगा', 'हरेला, 'मोहन दास', 'बिजूके', 'लाल सवेरा', 'जागो जागो' आदि। उनकी लिखी अंतिम रचना नाटक 'रंग मानसरोवर' की कविता 'तुम मानसरोवर हो' की अंतिम पंक्तियों में उनका जीवन अपनी सार्थकता के साथ परिभाषित होता है -
... मोती पाने के लिए ज़िन्दगी दांव पर लगानी पड़ती है
इसको पहचानो, तब सच तुम्हारे नज़दीक होगा
जितेन्द्र रघुवंशी वो शख्स थे जिन्होंने ईश्वर के प्रति अनास्था के वक्ष पर मानव के प्रति आस्था को गढ़ा और अपने सृजन को व्यक्तिगत अमरता के लिए नहीं, अपितु समाज को जीवंत बनाये रखने के लिए इस्तेमाल किया। उनका जीवन समाज के लिए समर्पित था, उनका जाना देश की बौद्धिक सम्पदा के लुट जाने जैसा है। डॉ. रघुवंशी एक विनम्र व सहृदय शिक्षक और कुशल संगठनकर्ता के साथ साथ संकल्प के शिखर के रूप में याद किये जायेंगे।






विजय शर्मा स्व. जितेन्द्र रघुवंशी के युवा साथी रहे हैं। इप्टा के कर्मठ और सक्रिय सदस्य है। अभिनय करते हैं। मथुरा में प्राध्यापक हैं।


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