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मार्च : 2015

कुछ पंक्तियां

ज्ञानरंजन

खेद है कि इस बार हम अपना लोकप्रिय स्तंभ 'इक्कीसवीं सदी की लड़ाईयां' प्रकाशित नहीं कर पा रहे हैं। जितेन्द्र भाटिया की सेहत एक जटिल शल्य प्रक्रिया के कारण खराब थी पर अंक 100 में वे स्वस्थ होकर प्रकट होंगे। इसी प्रकार रविभूषण और रोहिणी अग्रवाल के लेख भी नहीं प्राप्त हो सके। फिलहाल, हमारे पास कुछ अच्छी सूचनाएं भी है। बहुप्रतीक्षित और प्रकाशन के पूर्व ही चर्चित नरेश सक्सेना की लंबी कविता अब हमारे पास अगले अंक के लिये आ चुकी है। पहल का सौंवा अंक अलग आकार ले रहा है। कथाकार रणेन्द्र आदिवासी जनजातीय विमर्शों की एक ताज़ा कड़ी शुरु कर रहे हैं। इसमें उन ग्रंथों की विवेचना भी शामिल होगी जिनकी चर्चा व्यापक रूप में है। इस अंक में रणेन्द्र के उपन्यासों (ग्लोबल गांव के देवता और गायब होता देश) पर हमारे सर्वाधिक तेजस्वी और नये विचारक प्रणय कृष्ण ने वक्तव्य दिया है। प्रणय कृष्ण बहुत कम लिखते हैं, अपनी दूसरी सक्रियताओं के कारण इसीलिए उनकी 'पहल' में उपस्थिति उल्लेखनीय है। इस अंक को भरसक नये रचनाकारों ने ही सजाया है। अमिताभ राय ने जया जादवानी के उपन्यास 'मीठो पाणी खरो पाणी' पर शुरुआत की है। अगली बार वे शीला रोहेकर के यहूदी पृष्ठभूमि पर लिखे उपन्यास पर लिखेंगे। अगले अंक में सत्यनारायण पटेल की कहानी और उन पर आलोचना भी आयेगी।

उर्दू रजिस्टर को हम नये सिरे से संवार रहे हैं, अब पाठकों को यह क्रम टूटता नहीं लगेगा। आगामी अंक में पूर्वोत्तर भारत और महाराष्ट्र से भारतीय कविता आयेगी और कहानी की सबसे अधिक ऐसी प्रतिभाएं प्रकाशित की जायेंगी जिन्होंने पिछले 10-20 वर्षों में अपना स्वतंत्र विकास किया है। प्रायोजित कथाकारों का मिथ तेजी से टूट रहा है।
पहल के प्रस्तुत अंक में हमने समांतर पाठ के साथ अनूदित कविताएं छापी है। यह काम हमारे लिये अमरीका में रहने वाली सांस्कृतिक रूप से अत्यन्त सक्रिय, विश्व कविता पर नजर रखने वाली एक नई कवियत्री ने किया है। आगे भी हम भरसक प्रयास करेंगे कि यह क्रम जारी रहे।
अंत में हमारा आग्रह है कि नये पाठक 'पहल' को वेबसाइट पर पढ़ें। हम नये सदस्य बनाने में असमर्थ हैं।

ज्ञानरंजन


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