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जनवरी 2015

नये इलाके में शंख महाशंख

प्रकाश

अगली बार नरेश सक्सेना के कविता संग्रह पर गजेन्द्र पाठक के निबंध से यह कविता संग्रहों के मूल्यांकन की सिरीज़ समाप्त होगी





अरुण कमल को नए इलाकों की घनघोर बसाहट के बीच स्मृतियों के क्षरित होने की चिंता का कवि माना गया है। उनकी कविता मनुष्य के स्मृतिहीन लोक के निर्जन संसार में भटकती और वहाँ जो कुछ शेष, पुरानी छापें हैं, की एक अजीब-सी उम्मीद में तलाश करती है कि स्मृति-भ्रष्ट मनुष्य को अंतत: उसकी स्मृति-संपन्न चीजों द्वारा ही पहचान और पुकार लिया जाएगा।
अरुण कमल के पहले कविता संग्रह 'अपनी केवल धार' से लेकर 'सबूत', 'नये इलाके में', 'पुतली में संसार' और हालिया प्रकाशित उनके नये संग्रह 'मैं वो शंख महाशंख' की कविताओं का एक स्थायी भाव स्मृतिहीन समय के मार्मिक आख्यान और मानवीय संदर्भ में उसकी वीभत्स परिणतियों के उद्घाटन का है। अरुण की कविताएं साहित्य की इस मूल शपथ को बेझिझक स्वीकार करती हैं कि 'साहित्य भूलने के विरुद्ध एक ठोस कार्रवाई है।' जारी समय की यह भीषण सचाई है कि समय और सभ्यता के तमाम उपकरण अपनी अंधाधुंध कार्रवाईयों के जरिए हमें सब कुछ भुला देने को मजबूर कर रहे हैं। हम भूल भी रहे हैं। जैसे कवि नये बसते इलाके में अपना घर भूल रहा है। यहाँ तक कि खुद स्मृति का भी भरोसा नहीं कि अब कौन-सी बदलाहट उसे दृश्य और संदर्भ से बाहर कर दे। ऐसे बीहड़ समय में दूसरों की तरह कवि की सजग स्मृति भूलने के विरुद्ध दुर्दम संघर्ष को जारी रखे हुए है। 'मैं वो शंख महाशंख' से पहले के चारों संग्रहों में भी जीवन-जगत की स्मृतियों से द्वंद्व की छवियाँ जगह-जगह बिखरी पड़ी हैं।
पिछले लगभग ढाई दशकों से, जब से पुराना साम्राज्यवाद नया चेहरा पहनकर आया, 'भूलना' भारत समेत तीसरा दुनिया के एक खास अर्थ में 'पराधीन' समाजों की जातीय संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है। यह पराधीनता मनोवैज्ञानिक तल पर ज्यादा है जिसकी शर्मनाक परिणति वैचारिक परनिर्भरता और बड़े पैमाने पर बौद्धिक विपन्नता के रूप में दिखाई दे रही है। खासकर भारत जैसा देश बीसवीं सदी के आखिरी दशक से लगातार 'सांस्कृतिक ट्रॉमा' का शिकार हुआ है। इस आघात के दौरान एक आक्रामक संस्कृति का इकतरफा और निर्बाध प्रवेश संभव हुआ है। दूसरे शब्दों में उसका स्वैच्छिक आयात भी हुआ है। मानसिक तल पर इस 'ट्रॉमा' ने इस देश के सामुदायिक मानस के न केवल स्मृति-कोष अवरुद्ध किए, बल्कि इस अवरोधक ने समता, स्वतंत्रता और न्याय आदि से न्यस्त पूर्व की महान अवधारणाओं के पहले 'उत्तर' पर छोड़कर या तो उन्हें पूरा निरस्त कर दिया या फिर उसका व्यापक अवमूल्यन किया है। इस प्रकार 'आधुनिकता' की वह अवधारणा भी अवमूल्यित हुई है, जिसकी उपज लोकतंत्र के विराट मानवीय प्रत्ययों और मूल्यों का आज लगभग पूरी दुनिया उपयोग और उपभोग कर रही है।
इस अवमूल्यन के कारण ही इधर के वर्षों में 'आधुनिक' होने का अर्थ विवेकशील, प्रश्नाकुल, तर्कनिष्ठ और विचारवान होना नहीं, बल्कि कोका कोला पीना, महंगे विदेशी पकड़े, कोट-टाई पहनना, महंगी गाडिय़ाँ रखना, पॉप संगीत सुनना, अद्भुत नाम-रूप वाली देर रात की पार्टियों में शिरकत करना, शराब और सेक्स का उन्मुक्त उपभोग करना, मजे और प्रदर्शन के लिए मनुष्य से आखिरी दर्जा नीचे तक गिर जाना आदि है। अपने स्वभाव में यह एक हिंसक, नृशंस और विचार-विपन्न संस्कृति है जिसकी जड़ें स्थानीय भूमि पर न होने के कारण यह स्थानीयता को हिकारत से देखती है। यह अपने अलावा सब कुछ को भुला देने वाली संस्कृति है। यह अपनी गणना में अपने ही बीच के अंतिम जन को शामिल नहीं करती। जबकि यही जन गिने जाने पर 'शंख-महाशंख' होता जाता है। यही 'शंख-महाशंख' हमारा 'लोकेल' है। यह अभी 'मानसिक ट्रॉमा' का शिकार नहीं हुआ, इस कारण इसी के यहाँ जातीय दाय और स्मृति का अकूत भंडार सुरक्षित है। किंतु यह गणना से बाहर है। अरुण कमल के इस संग्रह की पहली ही कविता में यह खुद नमूदार होकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है- ''मैं वो हूँ जिसकी गिनती होने से रह गई/पूरी आबादी में जो एक कम होगा वो मैं हूँ/जिसके वास्ते किसी अदहन में डाला नहीं जाएगा चावल/जिसके नाम की रोटी नहीं पकेगी वो मैं हूँ।''
हिंसा, सांप्रदायिकता और अपराधीकरण भारतीय समाज-व्यवस्था की दीर्घकालीन चुनौतियाँ रही हैं। आमतौर पर इन विकृतियों का चरित्र सांगठनिक अथवा सामूहिक होता है। समाज मनोविज्ञानियों की मानें तो भीड़ द्वारा अंजाम दी गई हिंसक कार्रवाइयाँ प्राय: आवेग और विवेकशून्यता में घटित होती हैं। लेकिन एक इकाई के रूप में व्यक्तिकृत हिंसा के पीछे थोड़ी-बहुत समझ और विवेक जरूर सक्रिय होता है। अयोध्या, गुजरात, मुजफ्फर नगर आदि की सांप्रदायिक हिंसा में जो साधारण लोग भीड़ के रूप में शामिल हुए, उनमें से कितनों को पता होगा कि वे किन लोगों के, कौन से राजनैतिक एजेंडे को पूरा करने में सहयोगी हो रहे हैं? उन्हें क्या पता होगा कि सियासतबाजों के इशारे पर उनके द्वारा बनाए गये कत्लगाह होश आने पर उनकी व्यक्तिगत शर्मिंदगी का कारण बन सकते हैं?
'मैं वो शंख महाशंख' संग्रह में अरुण की कविता 'जब तुम किसी के करीब आते हो' दंगाग्रस्त माहौल का एक ऐसा दृश्य सामने रखती है जिसमें हिंसा के पीछे एक अकेले व्यक्ति की मंशा है। वह दूसरे धर्म के एक आदमी का कत्ल करने उसके घर जाता है लेकिन घर की हालत देखकर विवेक आड़े आ जाता है। समान मानवीय दुखों का बोध जब एक व्यक्ति के दंगाई रूप को होता है तब उसे पीछे हटना पड़ता है। इस कविता में हत्या करने का उपक्रम जितना खौफनाक है उसकी परिणति उतनी ही मार्मिक और विभोर कर देने वाली। साझा दुख से द्रवित होकर दंगाई द्वारा हथियार डाल देने की ऐसी छवियाँ हिंसा और घृणा के कारोबारियों के मंसूबे नाकाम कर देती हैं। कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं - ''जब तक तुम लोगों को धर्म जाीित या देश से जानते हो/तब तक तुम कुछ नहीं जानते और आसानी से नफरत कर सकते हो/पर ज्यूहीं तुम किसी के करीब आते हो/उसके घर जाते हो और देखते हो उसकी चारपाई पर बिछी/फटी हुई चादर किनारे से दबी/देखते हो कैसे उसने दो प्याली चाय के वास्ते एक पुडिय़ा चीनी मंगवाई/और दूध बगल के घर से/और भीतर एक औरत के कलेजे खंखोरती खांसी.../&&&/तब तुम भीतर-भीतर भहरने लगते हो/सारी मेड़ें गिरने लगती हैं/&&&/और तब अपना चाकू आस्तीन में खोंस/तुम बाहर आ जाते हो दबे पांव।''
यह कविता एक भूले हुए मनुष्य को उसके मनुष्य होने की स्मृति वापस दिलाती है। इस स्मृति से समृद्ध होकर एक दूसरे मनुष्य को उसके धर्म, जाति या देश से नहीं पहचानता, बल्कि शर्मसार होकर एक समानधर्मा मनुष्य के रूप में उसकी पीड़ा से उसे पहचानता है। किसी भी तरह की हिंसा के प्रसंग में यह बहुत मानीखेज़ बात है कि एक मनुष्य अपनी व्यक्तिगत पीड़ा को दूसरे मनुष्य की व्यक्तिगत पीड़ा से जोड़ दे। यह हिंसा के विरुद्ध निर्णायक कार्रवाई है। इसी कार्रवाई से अरुण की इस कविता में सांप्रदायिक हिंसा निरस्त होती है।
दूसरी ओर किसी भी तरह की हिंसा के विरोध में उठ खड़े होने का साहस भी मनुष्य होने की व्यक्तिगत स्मृति के सक्रिय होने से उपलब्ध हो पाता है। यहाँ भी भीड़ का कुछ भरोसा नहीं। वैसे भी हमारे समय में सामूहिक प्रतिरोध की शक्तियाँ लगातार निश्तेज होती जा रही हैं। छिट-पुट निजी प्रतिरोध ही बचे रह गए हैं। कवि मानबहादुर सिंह की नृशंस हत्या के प्रसंग पर अरुण की कविता है- 'थूक।' जहाँ हत्यारे के अनुचित प्रभुत्व और अन्याय के विरुद्ध मानबहादुर का अकेला किंतु दुर्दांत प्रतिरोध है। वहीं दूसरी ओर जब वही मानबहादुर एक अकेले गुंडे के हाथों मारे जा रहे थे तब वहाँ जमा भीड़ में किसी के पास विरोध का एक स्वर तक नहीं। न्यूनतम मनुष्यता से भी विपन्न उस निर्लज्ज भीड़ से इतना भी नहीं बना कि एक साथ  हत्यारे पर थूक देते। लेकिन यह नहीं हुआ। जबकि इस देश के कंठ में कम थूक होने को लेकर महानबहादुर जीवन-भर चिंतित रहें- ''यही तो कहते रहे कवि मानबहादुर जीवन भर/पर कितना कम थूक है अब इस देश के कंठ में।''
''पूँजीवाद केवल आर्थिक पद्धति नहीं है/यह जीवन के विनाश की सर्वोत्तम पद्धति है।/मैं कितना सुरक्षित हूँ, अपनी जाति/अपने धर्म, अपने क्षेत्र में! और अपनी भाषा में।''- 'आरामकुर्सी में'
इस कविता में कवि ने समाजशास्त्री आशीष नंदी के हवाले से बताया है कि अंधाधुंध विकास ने पूर्वी एशिया के देशों को कितना अलोकतांत्रिक, अनैतिक और अमानुषिक बनाया है; साथ ही जातीय हिंसा, बेरोजगारी, छंटनी, असहिष्णुता, स्वार्थ और संकीर्णता को भी बढ़ावा दिया है। उदार चेहरा चस्पां किए हुए तथाकथित विकास के इस प्रत्यय की अनुदार और क्रूर उपस्थिति बेहत स्वाभाविक ढंग से जारी समय और समाज का आखेट कर चुकी है।
अरुण कमल एक खतरनाक विचारधारा के रूप में पूंजीवाद की जो शिनाख्त करते हैं, उसका रेंज बड़ा है। किंतु अरुण इस विषमतापूर्ण सैद्धांतिकी का एक 'विचारधारा' के रूप में प्रतिषेध करते हुए इसके प्रतिकार हेतु हर रोग की एक दवा मान ली गई किसी दूसरी विशिष्ट विचारधारा की शरण में अनिवार्यत: जाना उचित नहीं समझते। वहाँ एक अन्यायी विचारधारा के प्रतिषेध में किसी दूसरी विचारधारा का बाध्यता मूलक स्वीकार नहीं है। बल्कि अरुण के यहाँ कविता अनिवार्यत: हर विवेकसंगत विचार के अनुषंग में, उसके साथ, उसका पक्षधर होकर संभव होती है, न किसी विचारधारा विशेष का बिना आलोचनात्मक विवेक के उपयोग करके उसके प्रति संशयशील प्रश्नवाचकता को सिरे से खारिज कर आत्ममुग्धकारी भूमिका में पर्यवसित हो जाती है।
अरुण के इस संग्रह में राजनीतिक मुद्दों पर तल्ख टिप्पणियाँ करती कविताएं काफी संख्या में हैं। लेकिन ये मुद्दे खालिस राजनीतिक नहीं हैं। जब से राजनीति ने निर्णायक ताकत हासिल की है जनता के अंत:पुर में भी उसका जबरिया दखल बढ़ा है। वह जीवन के अन्य सभी आयामों में अपने प्रभुत्व के साथ विकेंद्रित हुई है। अरुण के सामने यह ठोस सचाई है। पूँजी और शक्ति की विचारधारा से संचालित इस 'सचाई' के प्रतिरोध के लिए, उसके बरक्स अरुण किसी अन्य विशुद्ध राजनीतिक विचारधारा को दो-टूक रूप में खड़ा करने में शुरू से संकोच करते रहे हैं। मेरी समझ से उनके यहाँ अन्याय के प्रतिरोध का उन्मुक्त 'विचार' किसी भी विचारधारा की सरणि में बद्ध प्रतिषेध के विचार से कहीं ज्यादा कारगर और मूल्यवान है। खालिस विचारधारा कई बार राजनीति का आसान शिकार बन जाती है। संभवत: अरुण को इस जोखिम का पता है। तभी उनकी ढेरों कविताएं प्रतिरोध की विचारधारा की पदावली, कूटों और अर्थध्वनियों का व्यापक इस्तेमाल करती हुई पाठक को अंतत: किसी विचारधारा विशेष में दीक्षित नहीं करती, किंतु प्रतिरोध और असहमति के प्रत्येक विचार से उसे समृद्ध और परिपक्व जरूर करती हैं।
ध्यातव्य है कि अरुण के यहाँ 'विचार' 'धारा' के ही हैं लेकिन वे अनिवार्यत: 'धारा' हों, यह आवश्यक नहीं। जैसे 'जब तुम' शीर्षक कविता है, जहाँ संकेत पूंजी और शक्ति के तांडव का वर्णन कर रहे हैं लेकिन उसके प्रतिरोध की जो कार्रवाई होनी है उसके लिए पाठक के पास जमीन छोड़ दी गई है। कुछ प्रश्नचिह्न छोड़ दिए गए हैं और वही पाठक की संवेदना में 'विचार' की फसल उगाने के लिए काफी हैं।
हमारे समय में वियतनाम भी एक विचार है। लीबिया, ट्यूनीशिया, बहरैन में अपनी आज़ादी और अपनी सरकार के लिए लड़ रहे लोग भी एक विचार हैं। अपनी अस्मिता और स्वतंत्रचेता होने का यह विचार 'धारा' बन गए 'विचार' से ज्यादा गतिशील और लचीला है। 'विचार' का रूप स्वभावत: बहुलतावादी ही होता है। लोकतांत्रिक बहुवचनता इसका लक्षण है। बहुवचनता में ही यह गुंजाइश है कि जब सभी लोग सहमत हों तब भी असहमति का एक हाथ उठाने में किसी को भय न हो। अरुण दिखाते हैं कि कैसे सबके साथ ''तालियाँ बजाने से पहले/एक हाथ हवा में ठहर गया।'' यह पूर्ण सहमति से बाहर असहमति में उठा हुआ हाथ है। इस संग्रह से विचार की ताकत को दर्शाती दो महत्वपूर्ण कविताएँ और हैं - 'खुली मुट्ठी' और 'एक बिंब'। दोनों कविताओं में अन्याय के विरुद्ध व्यक्तिगत स्तर का लगभग निहत्था प्रतिरोध है। पहली कविता में दिहाड़ी मजदूर बिना किसी संगठित शक्ति के हड़ताल कर देते हैं और दूसरी में एक मजदूर बाप और बेटे के धरना देकर लौटने का दृश्य है। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि ''वे हारे या जीते।''
अरुण कमल की कविता का वितान 'शंख महाशंख' तक फैला है जिसके आगे गणना चुक जाती है। वह 'आखिरी आदमी' की चिंता करती कविता है। वह उसकी शिनाख्त कई तरह से करती है। जैसे 'निर्बल के गीत' कविता - श्रृंखला में आखिरी आदमी के डूबते हुए जीवन, क्षीण होते साहस और खंडित होते विश्वास की त्रासदी है। निर्बल के आत्मकथ्य में करुणा की गहन अंर्तधारा प्रवाहित है- ''हर रात डर लगता है/कोई भारी पत्थर मुझे दबाने लगता है/सांस फंसती है/किसी को वे ले जा रहे हैं बलि के लिए/&&/मेरे पैरों के नीचे धंस रही है धरती/मैं डूब रहा हूँ।'' इसलिए साथ छोड़कर जा रहे लोगों से उसकी गुहार भी बड़ी करुण है - ''मुझे इस तरह अकेला तो मत छोड़ो/रुको मैं भी तैयार हो लूं/बस चप्पल डाल लूँ/ xx /किसलिए बचा रहूँगा मैं इस सुनसान घर में/किसकी याददाश्त।''
'आखिरी आदमी' की बात गांधी ने भी की थी। बाद में भी यह अनेक जननायकों की चिंता का विषय रहा। लेकिन राजनीति हर बार 'आखिरी आदमी' के प्रत्यय को अमूर्त बनाकर उसका बेज़ा इस्तेमाल करती रही है। एक कवि-कलाकार की चिंता में आकर क्या 'आखिरी आदमी' को कोई ठोस और वस्तुनिष्ठ शक्ल मिल पाती है? या वह भी उसका इस्तेमाल एक अमूर्त प्रत्यय या भाव-मात्र की तरह करते अपनी व्यापक जिम्मेदरी से छुटकारा पा लेता है? अरुण जब 'शंख महाशंख' की बात करते हैं तब निश्चय ही उसका कोई वस्तुनिष्ठ चेहरा नहीं होता, यद्यपि यह किसी कवि-कलाकार की एक हद तक मजबूरी भी है क्योंकि वास्तव में 'शंख महाशंख' जिसको संबोधित है वे जहां-तहां बिखरे, अनगिनत रूप-रंग और कष्टों को भोगते लोग हैं। अरुण ने 'शंख महाशंख' के प्रत्यय को मूर्त रूप देने के लिए अपनी कविता में ऐसे पात्रों को उनका प्रतिनिधि भोक्ता बनाया है जिनका एक ठोस और स्पष्ट परिचय है। 'सेवक' इसी तरह की एक मर्मबेधी कविता है। 'सेवक' जिन परित्यक्त, वृद्ध, अपाहिज और रोगियों की देखभाल की नौकरी करता है उसमें वह अपने एकाकी स्वामियों के साथ खुद भी दुख और मृत्यु की गहन यंत्रणा से बार-बार गुजरता  है। सेवक जिनकी तीमारदारी करता है वे बेसहारा लोग 'आखिरी आदमी' के अमूर्त प्रत्यय का मूर्त चेहरा हैं। उन अभागों की कथा में संगत करता हुआ कवि सेवक के कंठ से उन सबके लिए कहता है - ''धीरे-धीरे ऐसा समय आता है/जब सारे रास्ते पानी में डूब जाते हैं/जब तुम्हारा सोचा कुछ नहीं होता/बस अंधड़ होता है और सेमल की रूई का फाहा/बस एक ही कोठरी बचती है। पूरे शहर में खाली/श्मशान के पास।''
दुख निर्बल को निर्वासित करता है। न केवल उसकी भौतिक अवस्थिति से, बल्कि उसके आत्म से भी। 'आखिरी आदमी' दुख में घुल-घुलकर इसी तरह निर्वासित होता है। उसका आत्मनिर्वासन इस तरह घटित होता है जैसे छूट गई एक सांस वापस लौटने को तैयार नहीं। जैसे रूह और काया की जद्दोजहद हो। इस जद्दोजहद में अगर वापसी होती भी है तो वहां नहीं, जहां लौटना था।
अरुण कमल की इन कविताओं में सभ्यता के अत्युच्च स्तर पर प्रकट हुए निर्बल जन अथवा 'आखिरी आदमी' के विराट प्रत्यय के बहुस्तरीय निर्वासन की पीड़ा को लक्ष्य किया जा सकता है। अरुण का 'निर्बल जन' दोहरे निर्वासन का शिकार है। वह नदी, पहाड़, मैदान में भटकता, अपने स्वत्व की खोज करता है। वह जिस 'नये इलाके' को खोजता है, वह बाहर भी है, भीतर भी है।
1.     ''चलो फिर वहीं उसी गली के टूटे घर में/जीवन का जो नरक है वहीं अमरता है।''- 'अमरता की खोज।'
2.    ''मैं किसकी ओर से बोल रहा हूँ/उन असंख्य जीवों वनस्पतियों पर्वतों नदियों नक्षत्र तारे/उन सबकी ओर से जो इस पृथ्वी पर नहीं हैं/पर जो कभी थे या होंगे!'' - 'किसकी ओर से।'
इन कविताओं की मूल प्रतिज्ञा एक क्षुद्र सत्ता के जन की विराट सत्ता में विसर्जन की है। इसकी राह में जनविरोध के रोड़े हैं। कवि जन की अभिव्यक्ति को कंठ देता है। जहां अभिव्यक्ति की आजादी के लिए प्रत्येक को वैधानिक स्वीकृति है उसी समाज में भाषा और वाणी पर ताकत के तंत्र का जबरदस्त कब्जा है। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हुसैन और तसलीमा से लेकर रश्दी तक वाणी के दमन के शिकार अनेक चेहरे हैं। इसी माहौल में अरुण का कवि इन्हीं की भांति मनुष्य और उसके सुंदर मानवीय संसार की ओर से अपनी आवाज का इस्तेमाल करना चाहता है तो रोक दिया जाता है। उसे बताया जाता है कि वह पृथ्वी, वनस्पति, जीवन, मनुष्य, पड़ोसी, देश, धर्म, जाति और अंतत: अपनी ओर से, अपने लिए भी नहीं बोल सकता। उसकी औकात बता दी जाती है वह 'मनुष्यता का फटा हुआ दूध' भर है, बेकार। - ''नहीं बोलोगे, अपनी ओर से भी नहीं/उसके लिए राष्ट्र की संसद काफी है।'' वही संसद जहाँ नीतिशून्य पतित अपराधी बैठे हैं। समूचे राष्ट्र का कंठ इन्हीं अपराधियों के यहाँ गिरवी है।
साधारण मनुष्य के जीवन का जो नरक है हर सच्चा कलाकार अपना ठीया वहीं पाता है। जैसे कि अरुण का कवि भी 'वहीं उसकी गली के टूटे घर में' - उसी गली के मैले संसार में अपना अमरत्व पाता है। इस अमरत्व का रास्ता जीवन के नरक से होकर जाता है। ''जीवन का जो नरक है वहीं अमरता है।''
अरुण कमल की नई कविताएं अभिधा में संभव श्रेष्ठ कविता का नायाब उदाहरण हैं। यद्यपि अरुण मूलत: अभिधा के कवि नहीं है। 'अपनी केवल धार' संग्रह से लेकर आगे दूर तक उनकी कविताओं में प्रखर इंद्रिय-बोध है। लेकिन 'मैं वो शंख महाशंख' तक आते-आते उनका कवि भाषा की सूक्ष्म शक्तियों का मोहताज नहीं रहा। वह साधारण भाषा और लहजे में भी बड़ी सचाई को अभिव्यक्त कर सकने की सामथ्र्य अर्जित कर लेता है।
अभिधा काव्य-भाषा और संप्रेषण का हीनतर गुण मान लिए जाने के बावजूद अतीत में कवियों को स्पृहणीय रहा है। रीतिकालीन कवि देव तो अभिधा को 'उत्तम काव्य' कहकर उसमें लिखी गई कविता को महिमामंडित करते नहीं अघाते। कबीर जैसे अनेक भक्त कवियों की कविता अभिधा में होकर भी बड़ी कविता का दर्जा पाती है। अनेक भक्त कवियों की अभिधा में सपाट कविता अभिधा की सरहद में सीमित रहकर भी काव्य-कला के विशुद्ध सौंदर्यशास्त्रीय आग्रहों को लजा देती है। अपने अद्यतन विकास में अरुण का कवि कविता का कुछ ऐसा ही सौंदर्यशास्त्र रचना है। साधारण की अपराजेय कथा को कहने के लिए कवि ने कहन का सपाटपन अख्तियार किया है क्योंकि चीजों के सही मायने इस रास्ते ही मिलेंगे। अब 'रोटी' को 'रोटी' ही कहना होगा, अन्यथा भाषा का तत्सम उसके अर्थ को छेंक लेगा - ''आज कविता को पहले से भी ज्यादा/सपाट होना चाहिए ताकि कहा जाय/रोटी को रोटी।''
चीजों के सही अर्थ को पाने के लिए कविता में भाषा के सपाटपन का आग्रह हिंदी कविता के एक खास दौर में पहले भी किया गया था लेकिन तब वह 'सपाटपन' भी अपने आप में एक अलंकार वृत्ति थी। अरुण के यहाँ जब वही सपाटपन लौटता है तो अलंकार वृत्ति से मुक्त होकर, भाषा और अर्थ के घटाटोप को छाँटकर, अर्थ को पाने कहने की अपनी मूल शपथ और बेचैनी के साथ। अरुण को 'रोटी' को 'रोटी' कहने की तमीज वाकई मयस्सर होती है।
जिस तरह 'रोटी' का 'तत्सम' नहीं होता, उसी तरह दुख, कराह और चीख का भी तत्सम नहीं होता। इसलिए अरुण के पास इसे कहने के लिए कोई शोभाकारक भाषा नहीं है। दुख को सजाकर लिखने अथवा उसे ऐसा ही पढऩे की इच्छा एक अश्लील इच्छा है। कवि ऐसी इच्छा न करके न केवल खुद को छलने से बचाता है बल्कि दूसरों को भी छलने से बचा लेता है।
'मैं वो शंख महाशंख' की कविताएं कवि की अब तक बनी-बनाई छवि में एक हद तक दरार डालती मालूम पड़ती है। एक तो इन कविताओं में अनावश्यक कारीगरी नहीं है। दूसरे, ये बेधक और सीधे बोलती हैं। इस कारण कहीं-कहीं बहुत 'लाउड' हैं। तीसरे, अनेक कविताएं मात्र सूचना और खबर होने का भारी जोखिम उठाती हैं। इसके अलावा इन कविताओं में समय का वितान बहुत बड़े रेंज में है। अर्थात् समकालीन कविता नाम से जिस कविता को हम अस्सी के दशक में उद्भूत और सक्रिय मानते हैं जिसके प्रतिनिधि कवि अरुण भी हैं, उस समकालीनता का काल-विस्तार विवादपूर्ण होने के बावजूद और उसके बोध को नई सदी में भी सार्थक और प्रासंगिक रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
अरुण कमल में समकालीन-बोध के समसामयिक होने का एक बेहतरीन उदाहरण उनके नये संग्रह की 'सरकार और भारत के लोग' शीर्षक कविता है। जाहिर है कि यह दौर 'सरकारों' के लगातार उदार होने का है। 'कल्याणकारी राज्य' के दिन कब के लद गए। उदारता की झोंक में सरकारों ने अस्पतालों, स्कूलों, राशन की दूकानों सबसे हाथ खींच लिए  हैं। अरुण 'उदारता' के विनाशकारी परिणाम को नोट करते हैं - ''कोई भी कहीं भी मारा जा सकता था ऐसी उदारता थी/परंतु हर नागरिक का पहचान-पत्र लेकर चलना अनिवार्य था।''
अरुण कमल की कविताएं अपने अन्य बड़े समकालीनों की तरह समसामयिकता में निरंतर 'एक्सटेंशन' लेती हैं। वे नये बसते इलाकों में 'शंख महाशंख' के होने और उसकी पहचान के अर्थ तलाशती हैं। इस कारण वह जीवंत कविता है।




प्रकाश युवा रचनाकार हैं। अशोक बाजपेयी की कविताओं पर शोध किया है। पश्चिमी बंगाल के हैं, वर्तमान में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के अनुसंधान और भाषा विभाग में कार्यरत हैं।


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