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जनवरी 2015

विभाजन का विमर्श और काला जल

प्रियम अंकित

विभाजन की त्रासदी/स्तंभ का समापन


'अन्तरविरोध ही कहा जाएगा कि 'काला जल' में बाहरी प्रकृति इतनी उन्मुक्त, इतनी मोहक, इतनी आत्मीय है मगर मनुष्य की अपनी प्रकृति हर जगह घुटी, अवरुद्ध, दिशाहीन और आत्महंता है। उसे कभी भी सही रास्ता नहीं मिलता। वह हर जगह सामाजिक रुढिय़ों, अंधविश्वासों और मर्यादाओं के हाथों कुचली जाती है और बदले में पलटकर खुद मनुष्य को डस लेती है... यहीं 'कालाजल' का प्रतीक अपना अर्थ प्राप्त करता है।'
- राजेन्द्र यादव





''बब्बन भैया, मरने से नहीं डरती, डर तो मुझे कब्र से बहुत लगता है।''
''कब्र से कैसे?''
''तुमने खुदी हुई कब्र नहीं देखी? कितनी छोटी और ज़रा सी जगह में लोग मुरदे को अकेले डाल जाते हैं। सोचती हूँ, तख्ते-मिट्टी के पटाव के बाद भीतर कितना अंधेरा हो जाता होगा, फिर कीड़े, सॉप और बिच्छु... हाय अल्लाह, मैं तो कभी दफ़न होना नहीं चाहती... इससे अच्छा तो यह है कि मरने के बाद आदमी के शरीर को जला दिया जाए या दूर, किसी खुले मैदान में रख दिया जाए, ताकि गिद्ध-चील नोच खाएं...''
काला जल (पृ. 303-304)

शानी का उपन्यास काला जल एक मानी में हिन्दी का सबसे अलग उपन्यास है। यहाँ मुस्लिम समाज के निम्न मध्यम-वर्ग के ठहरे हुए जीवन और उसकी पीड़ा को जिस सादगी, सहजता और जीवंतता के साथ चित्रित किया गया है, वह अपने संपूर्ण आवेग में समूचे भारतीय समाज के साधारण मनुष्य की त्रासदी को अभिव्यक्त करता है। कहने को तो यह एक मुस्लिम मध्य-वर्गीय परिवार की तीन पीढिय़ों की कहानी है। मगर इस मुस्लिम परिवार के सदस्यों की जो त्रासदी है, वह केवल मुसलमानों की त्रासदी नहीं है। वह गहरे स्तर पर परंपरा, रूढ़ी और परिवर्तन के व्यामोहों के बीच संवरने की कोशिश करते भारतीय मनुष्य की टूटन को अभिव्यक्त करने वाली कहानी है। मुस्लिम पात्रों की जगह हिंदू या ईसाई पात्रों को रख दीजिए और शबे-बारात में फातिहा पढऩे के धार्मिक अनुष्ठान को अन्य धर्मों के किसी मिलते-जुलते रिवाज़ से विस्थापित कर दीजिए, इस त्रासदी और टूटन पर कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। इस 'टूटन' और त्रासदी का कोई मज़हब नहीं है, भले ही उसका निशाना वह मनुष्य हो, जो अपने को धर्म की दीवारों में जकड़ा हुआ पाता है।
काला जल में जो तीसरी पीढ़ी है, यानी मोहसिन और सल्लो आपा की पीढ़ी, वह भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन की समकालीन पीढ़ी है। उपन्यास पाकिस्तान के बनने पर चंद शब्द ही खर्च करता है। लेकिन ये 'चंद शब्द' एक विचार और परिघटना के रूप में पाकिस्तान के सन्दर्भ को वृहत्तर परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं। पाकिस्तान के 'रूमान' और भारतीय मुस्लिम समाज की ठोस ज़मीनी सच्चाईयों के बीच अंतर्संबंधों और अंतर्विरोधों की अनूठी दास्ताँ इन शब्दों में सिमट आयी है।
हर दौर में मानव-समाज का विकास बहती नदी के प्रवाह की तरह होता है। मगर इस प्रवाह की प्राकृतिक गति बनी रहे, तो यह बहता जल जीवनदायी बना रहेगा। मगर क्या हो यदि इस प्रवाहमान जल को किनारों पर कृत्रिम बाड़ बनाकर रोक दिया जाए और बरसों तक यही बाड़ें इसकी पहरेदारी करती रहें? उपन्यास में मोहसिन जिस काले जल की सड़ांध और बिसायंध-सी गंध के बीच पाकिस्तान जाने की बात करता है, वह केवल मुस्लिम समाज को प्रतिबिंबित करने वाला, ठहरा हुआ 'काला जल' नहीं है। यह 'काला जल' उस समूचे भारतीय समाज के ठहराव का रूपक है, जिसके प्रवाह को खोखली नैतिकताओं, मर्यादाओं, अंधविश्वासों और रूढिय़ों के बाड़ों ने अवरुद्ध कर रखा है। इस समाज में 'आदमी की कद्र नहीं है' और 'जो जितना बड़ा बेईमान है, वह उतना ही बड़ा आदमी है'; 'चाहे घर हो या बाहर, ईमानदारी से चलने वाले को' बहुत बुरी मौत मिलती है और उसका 'कोई नामलेवा भी नहीं रह जाता'। सल्लो, मोहसिन और नायडू, ये तीनों उपन्यास के ऐसे चरित्र हैं जो जीवन को धारण करती स्रोतस्विनी की बहती धारा को चूमना चाहते हैं। मगर सामाजिक परंपराओं और राजनीति का 'काला जल' उनके कदमों को अपने भीतर खींच कर उसकी जीवंत शख्सीयतों को निगल जाता है।
उपन्यास में 'काला जल' के सिवार, चीला और विसायंध-भरी दमघोंटू गंध के कई-कई रूप हैं और उससे उबरने का संघर्ष करते एवं जीवन की बहती सरिता के जल से भीगने का सपना संजोए जिजीविषा से भरे अनेक पात्र हैं। इस जिजीविषा का लगातार घुटते जाना हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है। उपन्यास में पाकिस्तान का जो ज़िक्र हुआ है, उसके यथार्थ को समझने के लिए इस त्रासदी का साक्षात्कार करना जरूरी है।
बस्तर के जिस कस्बे की कहानी उपन्यास कहता है, वह इन्द्रा नदी के तट पर बसा है। वह नदी, जिसके तट पर मुहर्रम के दिनों में मेला लगता है। उपन्यास की   शुरूआत ही इस नदी के नाम से होती है - ''इन्द्रा के तट से अचानक जागती हुई चिमगादड़ोंवाली शाम सामने की अमराई में पल-भर के लिए ठिठककर कब मुहल्ले में घुस आई इसका पता मुझे भी नहीं चला।'' इन्द्रा नदी की उपस्थिति, उसके जीवन-जल के तट पर बसे होने के बावजूद इस कस्बे के जीवन के बीचों-बीच है मोती तालाब और उसका सड़ा हुआ काला जल। यानी इन्द्रा नदी की जीवन-सरिता इस समाज का हाशिया है और मोती तालाब का काला जल इसका केंद्र। उपन्यास के कई पात्र छिटक कर हाशिये पर आना चाहते हैं, उन्हें किसी अपकेंद्री बल की तलाश है, जो केंद्र से छिटका कर उन्हें हाशिये पर फेंक सके। लेकिन उसके जीवन की केन्द्रगामी नियति उसकी हर कोशिश पर भारी पड़ती है।
बरसों पहले मिर्ज़ा करामत बेग ने ऐसी कोशिश की थी। जब उन्होंने नौकरी-चाकरी छोड़ कर, बदनामी सहकर और दु:ख झेलकर बिट्टी रौताईन को अपने घर में रख लिया था। बिट्टी ने भी अपने घर-समाज की कोई परवाह नहीं की थी - ''लेकिन उस दिन सबकी ज़बान बंद हो गई जब बिट्टी एक सुबह खुलेआम आकर घर बैठ गई और फिर लौटकर अपने घर-समाज में नहीं गई। बिट्टी के समाज में बड़ा हंगामा मचा। लोग लाठियाँ लेकर मिर्ज़ा के घर चढ़ दौड़े कि एक अच्छी-भली जाति की, हिंदू-घर की लड़की को मुसलमान ने बरगला लिया है। पर अपने पिता और समाज के सारे लोगों के सामने बिट्टी ने निहायत दृढ़ता और साहसपूर्वक साफ़-साफ़ कह दिया कि वह अपनी मर्ज़ी से मिर्ज़ा के घर आई है, उन्हीं के साथ रहेगी और अब लौट कर घर वापस नहीं जाएगी।''
वह मोती तालाब के काले जल की बिसायंध ही थी जो ऐसे-ऐसे दाढ़ी वालों का हाड़-माँस पहन कर मिर्ज़ा के यहाँ आने लगी थी 'जिन्हें देखते ही बिट्टी बुरी तरह से डर जाती थी'। अंतत: इन दाढ़ी वालों का असर मारक सिद्ध हुआ और मिर्ज़ा ने 'मुस्लिम रीति रवाज के मुताबिक बिट्टी से निकाह कर लिया और बिट्टी का नया नामकरण हुआ- इस्लामबी, यद्यपि इस्लामबी कहकर उसे अंत तक किसी ने नहीं पुकारा पहले अधिकांश लोग बिट्टी ही कहकर पुकारते रहे, लेकिन बाद में वह बी-दारोगिन कहलाई, तो आखिर तक इसी नाम से जानी जाती रही।'
उपन्यास के सभी स्त्री-पात्रों को, उनकी घुटन और पीड़ा को, उनकी त्रासदी और दर्द को शानी ने गहरी संवेदनशील दृष्टि से रचा है। खोखली सामाजिक मान-मर्यादाओं, रीति-रिवाजों, कुरीतियों और पुरुष-सत्ता की दमित वासनाओं के काले जल का सबसे ज़्यादा शिकार स्त्रियाँ होती हैं। यह जीवन वे सज़ा के तौर पर जीने को अभिशप्त हैं। निरपराध होकर भी वह इस सज़ा को अपनी नियति की तरह स्वीकार करती हैं। चाहे वह मिर्ज़ा करामत बेग की दूसरी बीवी बिलासपुरवाली हो, छोटी फूफी हों या फिर मालती हो। बिट्टी या बी-दारोगिन तो काले जल के सिवार और लद्दी में बक़ायदा तब्दील होकर अपनी बिलासपुरवाली सौत और छोटी फूफी (जो उसकी बहू है) की यंत्रणा का कारक बनती हैं। अपने से पहले वाली पीढ़ी की बिसायंध का शिकार यह स्त्रियाँ अपने बाद वाली पीढ़ी की स्त्रियों के लिए इसी गंध को छोड़ती मछलियाँ बन जाती हैं। काले जल में सड़ रहे जीवन का तर्कशास्त्र यही है।
सल्लो बिसायंध के इस तर्कशास्त्र को मानने से इंकार करती है। सल्लो और मोहसिन ऐसे पात्र हैं जो अपनी किशोर सुलभ जिज्ञासाओं को शिद्दत से जीने का साहस करते हैं। ऐसे परिवेश में जहां खोखली नैतिक मर्यादाओं की लौह-संरचनाएं लीक से हटकर चलने वाले नवोन्मेष पर हर तरह से भारी पड़ती हों, वहां ये पात्र अविस्मरणीय बन जाते हैं। सल्लो का स्त्री होकर भी उस अश्लील पुस्तक को पढऩा, जिसको देखने का साहस बब्बन जैसे किशोर 'पुरुष' में भी नहीं है; या बब्बन के साथ उसकी कामोद्दीपक चेष्टा इसकी द्योतक हैं कि घुटन भरे माहौल के भीतर युवा होती स्त्री नयी परिचित होने के बाद वह उन पर सधे क़दमों से चलना चाहती है। वह चलती भी है, भले सधे कदमों से न हो, डगमगाते क़दमों से ही सही। वह छिपकर मर्दाना-लिबास में घर से बाहर निकलती है, सिगरेट पीती है। संभवत: वह ग़ैर-मर्द से यौन-संबंध स्थापित करती है और घर की चारदीवारी के भीतर रहस्यमयी मौत (शायद गर्भपात के प्रयास में) को प्राप्त होती है। सल्लो की मृत्यु करुणा का भाव जगाती है, मगर वीभत्सता के दारूण अनुभवों के सहज विक्षोभों के साथ। भारतीय कला परंपरा में करुणा और वीभत्सता का ऐसा सहवर्ती संधान बहुत दुर्लभ है। बब्बन का अपनी सल्लो आपा के प्रति जो दृष्टिकोण उभर कर आता है, उसमें यह सहवर्तिता बहुत स्पष्ट है। उसके इस स्वप्न में इसकी सटीक अभिव्यक्ति होती है - ''वर्षा से भीगी बांस की घनी झाडिय़ां, बड़ी लंबी-लंबी गास की मीनारें, कीचड़, दलदल और माइन नदी का कछार। हाय, माझिन नदी का पानी कितना नीला और प्यारा है। उसकी सतह में कितनी मछलियाँ चांदी-जैसी चमककर 'छपाक' करती हुई गायब हो जाती है। देखता हूं की उस नीले पानी में जल भीगा शरीर लेकर सल्लो आपा निकलती है। पतला और इकहरा कपड़ा भीगकर उसके शरीर के हर अवयव से ऐसे चिपक गया है कि वह बिल्कुल विवस्त्र  लगती हैं। चौंककर मैं दूसरी ओर देखना चाहता हूँ, तभी सहसा याद आता है की उनके हाथ में बड़ी-सी मछली है, पर जैसे ही दोबारा मेरी निगाह पड़ती है, देखता हूं की वह मछली नहीं, साँप है।
''आप, उसे छोड़ दो, वह साँप है।''
मैं ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता हूँ, लेकन सल्लो आपा मेरी बातें नहीं सुनतीं, धीरे-धीरे हँसते चली जाती हैं...''
यह अंश वर्जित आकर्षण के यौनिक बिंबों के बीच वर्जनाओं को चुनौती देती सल्लो के साहसी व्यक्तित्व को भी अभिव्यक्त करता है।
नायडू और मोहसिन भी लीक से हटकर चलते हैं। इन पात्रों में अपने व्यक्तित्व का, वह व्यक्तित्व जो इन्हें विरासत में मिला है, अतिक्रमण करने की बेचैनी दिखाई देती है। वह अपने को व्यापक समाज से जोड़ते हैं, महज उसका हिस्सा बनने के लिए नहीं, बल्कि उस समाज को बदलने के लिए। नायडू यह बात समझता है कि व्यक्तित्व से उबरना और उससे पलायन करना दो अलग-अलग बातें हैं। पलायन का अर्थ है अवसाद के जल में निरंतर डूबते हुए सपनों की सुनहरी दुनिया में घर बसाना। नायडू पलायन नहीं करना चाहता। वह नए समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभाना चाहता है। लेकिन वह इस जड़ समाज में चेतना फूंकने में असफल रहता है। वह सड़े हुए मूल्यों, परंपराओं और विश्वासों से टकराकर चकनाचूर हो जाता है। लोगों का सहयोग मिलने के बजाए उसे मिलती हैं सुविधाजनक बहानों के रूप में सामने लायी गई आशंकाएं - ''दो-चार रोज़ हुए, एक सज्जन रात को आए थे। तुम जानते हो, मेरे पास बहुत से लोग दिन को नहीं आते। किसी को अपनी नौकरी का डर होता है तो किसी को रोजगार नष्ट हो जाने का भय। कहने लगे की उनमें काम करने की साध कूट-कूट कर भरी है, देश की पराधीनता के लिए जी में दर्द भी होता है, लेकिन सरकारी नौकरी के कारण मजबूर हैं। मैंने कहा, सीधी-सी-बात है, नौकरी छोड़ दो। आदमी पढ़ा-लिखा और समझदार मालूम पड़ता था, सहमकर बोला कि परिवारवालों को कैसे पालूँगा...? देखो भाई, मैं तो ज़्यादा पढ़ा-लिखा आदमी नहीं हूँ, लेकिन यह सब सुनकर बहुत ताज्जुब होता है। अपनी, घर की या परिवार की चिंता तो हर किसी के साथ है न? भला वे दूसरे लोग, जो प्राणों की आहुति तक दे डालते हैं, क्या घर के प्रति कर्तव्यनिष्ठ या ममत्वपूर्ण नहीं होते? लेकिन फिर वह कौन-सी चीज़ है जो इन सबसे काटकर आदमी को मौत के मुंह में भी ढकेल देती है? एक की प्राप्ति के लिए दूसरे का त्याग ही न? मैंने वही बातें रखीं। महाशय चुप हो गए तो मैंने कहा की आपको अपने बाल-बच्चे की ही चिंता है तो चलिये, उसका भार मैं लेता हूं - मेरी यह दुकान आपकी, नौकरी को लात मार कर इसकी आमदनी से घर चलाइए। इस क्षेत्र को आप जैसे पढ़े-लिखे आदमी की ज़रूरत है। उन्होंने क्या कहा, जानते हो?... कुछ नहीं कहा, एक लफ़्ज़ नहीं, आँखें तक नहीं मिलाई और किसी बहाने से वहाँ से खिसक गए। मैंने कहा, भाई साहब, अभी रिस्क लेने से क्या फायदा? कल यदि अंग्रेज़ चले जाएँ, पराधीनता कट जाए और भारत स्वतंत्र हो जाए, तो खादी पहनकर यह क्षेत्र संभाल लेना, ज़िंदगी सँवर जाएगी। भाई मरे बाघ की मूँछ उखाडऩे वाला भी क्या कम बहादुर होता है?''
अवसरवाद और स्वार्थ से भी बढ़कर लोगों का मुर्दा और 'बेपानी' होना नायडू को विक्षिप्त कर देता है। अपना सर्वस्व न्यौछावर करके नायडू समाज में परिवर्तन की चेतना फूँकना चाहता है, मगर उसके हाथ आती है हतप्रभ कर देने वाली विक्षिप्तता। विक्षिप्तता की इसी अवस्था में नायडू की मृत्यु होती है।
यह मुर्दा समाज सल्लो और नायडू की जान ले लेता है। बचता है मोहसिन - एक लाश की तरह अपनी जिंदगी को ढोता हुआ। इस समाज के प्रति मोहसिन की जुगुप्सा स्पष्ट है। यह जुगुप्सा उसे विध्वसंक बनाती है। वह गिरगिटों को मारता है, अपनी उम्र से बड़े गुंडा-किस्म के लोगों से दोस्ती गाँठता है। नायडू की संगत उसके रोष को रचनात्मक दिशा की ओर मोड़ती है। मगर सामाजिक परिवेश का 'काला जल' समूचे आवेग में अपनी बिसायन्ध को उसके व्यक्तित्व पर उड़ेल देता है, उसके रचनात्मक उन्मेष को लील लेता है। नायडू की मृत्यु उसे तोड़ देती है। वह अवसाद के गहरे रसातल में लगातार गिरता जाता है। जीवन के इस मोड़ पर आकर वह बब्बन से पाकिस्तान जाने की बात करता है। बब्बन ही नहीं, उपन्यास का पाठक बी सकते में आ जाता है - ''और तुम ताज्जुब न करना, अगर कहूँ की मुझे इस देश-प्रेम में बिल्कुल विश्वास नहीं रहा,'' उसने कहा, ''वह तो अम्मी की वजह से बँधा बैठा हूँ। मेरा वश चले तो इसी पल यहां से भाग निकलूँ...''
''कहाँ?'' मैंने हंसकर पूछा ''भागकर कहाँ जा सकते हो?''
''क्यों? एजाज़, रफ़ीक, ग़नी और अशफ़ाक मास्टर वगैरह सब कहाँ चले गये हैं?''
यहाँ ज़ाहिर है कि मोहसिन की अम्मी यानि छोटी फूफी और बब्बन दोनों पाकिस्तान जाने के खिलाफ हैं। लेकिन यहां ठहर कर कुछ सवाल उठाने की ज़रूरत है। क्या बब्बन एक कायर पात्र नहीं है? सल्लो, नायडू और मोहसिन के रचनात्मक उन्मेषों के प्रति उसका विकर्षण स्पष्ट है। उनके त्रासद हश्र का गवाह बब्बन, उसमें करुणा है, मगर साहस का नितांत अभाव है। दूसरी तरफ छोटी फूफी काला जल के प्रतीक द्वारा अभिव्यक्त गतिहीन समाज की सड़ांध का अभिन्न अंग बन चुकी हैं। किसी भी नये किस्म के विचार का समर्थन इन पात्रों से पाना बेमानी है। मुस्लिम लीग 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' ने 'पाकिस्तान' को मुसलमानों के एक नए राष्ट्र की संकल्पना के रूप में प्रस्तुत किया था। मोहसिन का इस नये राष्ट्र के प्रति आकर्षण एवं बब्बन तथा छोटी फूफी का विरोध क्या उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं है? बब्बन और छोटी फूफी ऐसे पात्र हैं, जो काले जल की अभिशप्त ज़िंदगी से उबरने का साहस बटोर ही नहीं सकते और उसे ही अपनी नियति मान चुके हैं। जहाँ मुसलमानों के लिए जीवन की संकल्पना बहते दरिया के साफ-सुथरे बहाव के  रूप में की गयी हो, ऐसे 'पाकिस्तान' में जाकर बसने की कल्पना उन्हें भयभीत कर देती है। तो क्या ऐसा नहीं लगता कि उपन्यास 'पाकिस्तान' को मोती तालाब के काले जल के प्रतिपक्ष के रूप में देखता है? यह सवाल उठना लाज़मी है।
इस सवाल पर विचार करने से पहले नायडू का यह कथन याद रखना
होगा - ''इस बस्ती को मैं बीस बरस से जानता हूँ। अवसरवादी और स्वार्थी हर जगह होते हैं, लेकिन यहाँ तो मुर्दे और बेपानी के लोग बसते हैं। हर आदमी अपने ही घुटनों में मुँह छिपाये बैठा है, दूसरे किसी से कोई मतलब नहीं। अब यही देख लो, देश-भर में त्राहि-त्राहि मची है, हर छोटे-बड़े कस्बे या नगर में आंदोलन पूरे जोश में चल रहा है। लड़का हो, जवान हो या बूढ़ा-सब शपथ लेकर सिर कटाने को जुट गये हैं। सुना है बंगाल में औरतें अपनी चूडिय़ाँ उतार कर निकल पड़ी हैं और देश-भर में हज़ारों गिरफ्तारियाँ रोज़ हो रही हैं, लेकिन हमारे यहाँ क्या हो रहा है, जानते हो? औरतों की तो बात ही जाने दो, घर में हल्दी-मिर्च पीस रही हैं अथवा पड़ोस में बैठी सासों की चर्चा कर रही हैं, पर सारा-का-सारा पुरुष वर्ग या तो अगले मौसम के लिए इमली-अनाज खरीद रहा है अथवा दफ्तरों में सिर औंधाए बैठा है। चर्चा होती है तो रियासत के इस या उस अंग्रेज़ दीवान के स्वभाव, उसकी आदतों, क्रोध या दयालुता की, नहीं तो खेती-बाड़ी और घर-द्वार की। कभी-कभी तो मुझे शक होता है। लगता है, जैसे कुछ सच और अधिकांश झूठ के बीच हम सारे बस्तर के लोग रह रहे हैं। या तो देशव्यापी आंदोलन की बात झूठ है अथवा यह झूठ है कि बस्तर भारत का ही एक हिस्सा है...''
यानि उपन्यास में जो समाज है, वह भारतीय स्वाधीनता संघर्ष, आज़ादी और विभाजन की प्रक्रिया के समस्त उतार-चढ़ाव से अनासक्त है, बेगाना होने की हद तक। साँस्कृतिक रूप से वह इतना विपन्न है कि एक विचार के रूप में 'पाकिस्तान' के पक्ष-विपक्ष का विश्लेषण करने की क्षमता उसमें नहीं है। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा की साज़िशों और षड्यंत्रों से इस समाज का कोई लेना-देना नहीं है। यह एक पस्तहिम्मत समाज है। इस समाज की पस्तहिम्मती का बेबाक और संवेदनशील चित्रण करके उपन्यासकार मुस्लिम लीग के 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' के दावों की खोखली हक़ीक़त का पर्दाफाश करता है। किसी के बहकावे या उकसावे में आकर उसका समर्थन करना भी हिम्मत और साहस की मांग करता है। 'काला जल' का जो समाज है, उसकी हिम्मत इस क़दर टूट चुकी है कि कोई उसके बाशिंदों को बहला या फुसला भी नहीं सकता। निष्क्रियता और कायरता काला जल में सड़ रहे समाज के शक्तिशाली आयाम हैं। यह समाज पाकिस्तान का कट्टर समर्थन करने वाले मुस्लिम लीग के कुलीन मुस्लिम समाज से सर्वथा भिन्न है। लीग के अनुयायी कुलीन मुसलमानों की सांप्रदायिक दृष्टि ने पाकिस्तान के विचार को संभव बनाया था। सांप्रदायिकता के समर्थक हिंदू-महासभा के सिद्धांतकारों ने भी इसी दृष्टि को भारत के सामान्य और साधारण मुसलमान की सर्वमान्य दृष्टि के रूप में व्याख्यायित किया था। शानी का यह उपन्यास बिना किसी शोर-शराबे के एक पिछड़े, निष्क्रिय तथा कायर समाज का यथार्थ, प्रामाणिक और बेबाक चित्रण करके इस सांप्रदायिक दृष्टि के झूठे दावों की पोल खोलता है। पाकिस्तान की संभ्रांत वैचारिकी इस मुर्दा समाज में जान फूँकने में अक्षम है। मोहसिन पाकिस्तान जाने की बात ज़रूर कहता है, लेकिन इसके मूल में उसका अवसाद है। उपन्यास में मोहसिन का विकास एक दृष्टिवान पात्र के रूप में होता है, वह स्पष्ट देखता है कि यह आज़ादी एक छद्म है और सारा देश एक किस्म के काले जल में तब्दील हो रहा है - ''सन सैंतालीस के पन्द्रह अगस्त के बाद से वैसे लोगों की बाढ़ आ गयी है। अच्छा हुआ, तुम उस दिन यहाँ नहीं थे, वरना शायद तुम्हें भी मेरी तरह दु:ख होता। हर ईमानदार आदमी या तो उन पर हँसता है या अपना ही माथा पीट लेता है। बताओ, क्या यह रोने का मुक़ाम नहीं है कि सचमुच त्याग और बलिदान के अवसर पर, जो नौकरी या नकली प्रतिष्ठा की आड़ लिये सिर छिपाये बैठे थे, वे गाँधी टोपी ओढ़कर पाप धो बैठे और आज नेता, सरपरस्त तथा देशभक्त हैं और मिनटों में हम लोगों का भाग्य बना-बिगाड़ सकते हैं...''। मोहसिन साफ तौर पर देखता है कि नायडू की भविष्यवाणियाँ सच साबित हो रही हैं। आजादी एक ढोंग बनकर रह गयी है। आज़ादी की रचनात्मक ऊर्जा मुर्दा समाजों से टकरा-टकरा कर चूर हो रही है। वह इक्का-दुक्का लोगों का हवाला देकर पाकिस्तान जाने का समर्थन करता है। उपन्यास में पूरी साफगोई से यह बात स्पष्ट होती है कि पाकिस्तान के प्रति उसके आकर्षण का मौलिक कारण उसकी हताशा और कुण्ठा है। पाकिस्तान की कुलीन और साँप्रदायिक वैचारिकी ने हताशा और कुण्ठा के माहौल में ही अपने साकार रूप को प्राप्त किया था। उपन्यास में परिंदे के फडफ़ड़ाने का बिंब है। परिंदे की फडफ़ड़ाहट एक समूचे दौर की हताशा और कुण्ठा को मानो अभिव्यक्त कर रही हो- ''बड़ी देर से पेड़ के ऊपर बैठा हुआ परिंदा सहसा पंख फडफ़ड़ाता हुआ अब ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा था। हम लोगों ने देखा कि सधे हुए पंखों से लंबी उड़ान भरने वाला पखेरू शायद राह में सुस्ताने के लिये बैठा था, लेकिन दुर्भाग्यवश टहनी से फूटे गोंद से चिपककर रह गया है...''
मोहसिन पाकिस्तान के विचार से आकृष्ट होकर वैसे ही फडफ़ड़ाता है, जैसे टहनी से फूटे गोंद से चिपककर परिंदा-मजबूर, लाचार, हताश और कुण्ठित।
आखिर सल्लो, मोहसिन और नायडू का अपराध क्या है? अपने लिये ही नहीं, दूसरों के लिये भी, सधे हुए पंखों से लंबी उड़ान भरने की पवित्र कामना ही तो उन्होंने की थी।


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