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जनवरी 2015

बहस

जीतेन्द्र गुप्ता / बसंत त्रिपाठी

पत्र प्रतिक्रिया/एक




अक्टूबर 22, 2014

उम्मीद है कि आप अच्छे होंगे। पहल-97 उम्मीद के मुताबिक ही उस वैचारिक संवादधर्मिता को समाहित किए हैं, जिसके लिये उसे जाना जाता है। इसी अंक में प्रियंवद का लेख 'बुत हमको कहें 'क़ाफ़िर' के संदर्भ में कई सारे ऐसे मुद्दे हैं कि यह पत्र लिखना अनिवार्य हो गया है। प्रियंवद ने अपने लेख में बिल्कुल सही संभावना व्यक्त की है कि 'बात ज़रा नाजुक है, थोड़ी उलझी हुई भी, इसलिए न समझे जाने या गलत समझे जाने के पूरे खतरे हैं। चिराग की ज़रा सी रगड़ से 'जिन्न' की कोई भी वहशत नमूदार हो सकती है, फिर भी...'।
असल में हिन्दू-मुसलमान संबंधों के विषय में भारतीय उपमहाद्वीप में किसी भी किस्म के विचार के बारे में प्रियंवद की पूर्वाक्त संभावना बिल्कुल सत्य है। प्रियंवद की फ्रिक को सहज मानवीय संवेदना के आधार बहुत वरीय माना जा सकता है। 'दूसरा पाकिस्तान' बनना अभी भी कई लोगों के लिए ऐसा सवाल है कि जिसका जवाब अभी तक मुक्कमल रूप से नहीं मिला है, वहीं बहुत सारे ऐसे लोग भी हैं, जिनके लिए यह कोई सवाल ही नहीं है। इसी मुद्दे पर लेखक की मंशा संदेह के घेरे में आ जाती है कि 'दूसरे पाकिस्तान' से उसकी मुराद क्या है? इसके दो ही संभावित मतलब हो सकते हैं। पहला यह कि राष्ट्रीयता और धर्म के आधार पर यह फैसला किया जा रहा हो, और दूसरा कि मुसलमानों के सामाजिक स्तर और सामाजिक जीवन के आधार पर। संभवत् 70-80 के दशक को याद करते हुए स्वयं लेखक का कहना है कि 'चारों तरफ गरीबी, अशिक्षा, गंदगी थी। पुरपेच गलियों में नालियों के ऊपर खटोलों पर बैठे बलगम उगलते बूढ़े, बुर्कों में लिपटी औरतें, कमजोर बीमार बच्चे, खिड़कियों पर लटकते टाट के पर्दे, भट्टियों पर चढ़ी काली पेंदी वाली देगचियां, उर्दू के साइन बोर्ड, सब उस इलाके की खास पहचान था। यह सब था, तब भी उसे कोई दूसरा पाकिस्तान नहीं कहता था।' तात्पर्य यह कि इस तरह की ज़हालत और गरीबी की स्थिति दूसरा पाकिस्तान बनाने के लिए पर्याप्त है? खैर, मैं यहां लेखक पर किसी तरह का आरोपण नहीं करूंगा, बल्कि उसी के शब्दों से समझने की कोशिश ही कर रहा हूं। परन्तु पूर्वोक्त उद्धत पंक्तियों से पहले कानपुर के इस इलाके में जो तस्करी की वस्तुओं से लेकर अपराध और ज़हालत व ग़रीबी की स्थिति से 'नैसर्गिक' रिश्ता है! दूसरी बात इसमें जोडऩी पड़ेगी कि संभव है कि 'दूसरा पाकिस्तान' से आशय मुसलमानों में 'राष्ट्रवाद' के प्रति कम भाव-भक्ति से हो! जो भी आगे की अपनी प्रतिक्रिया में मैंने इसे नज़रअंदाज किया है, क्योंकि इस तरह की तर्क पद्धति विचार-विमर्श के बजाए घृणा के भाव को जन्म देती है, जो कहीं से आधुनिकता और तार्किकता का पर्याय नहीं है।
मैं पूरी तरह से सहमत हूं कि भारत की सांस्कृतिक व सामाजिक पृष्ठभूमि के इतिहास-भूगोल से परिचित सामान्य बोध वाले व्यक्ति के लिए यह समझना ही मुश्किल है कि यहां विभिन्न समुदायों के बीच किसी 'अंतर' का निर्माण कितने स्तरों पर हो चुका है। जाहिर सी बात है कि इस अंतर का रिश्ता बाबरी मस्जिद के विध्वंस के साथ जोड़ा जाता है, और सामान्य तथ्य की दृष्टि से इससे किसी किस्म की असहमति की गुंजाइश भी नहीं है। लेकिन यहां मेरी बेचैनी का कारण यह सामान्य तथ्य नहीं है, बल्कि इसके पीछे विद्यमान पूरा वैश्विक परिदृश्य है। क्योंकि यह 'दूसरा पाकिस्तान' केवल भारत में नहीं मौजूद है, चीन से लेकर ब्रिटेन तक और रूस से लेकर अमरीका तक हर कहीं मौजूद है। और यह मौजूदगी 90 के दशक के बाद में आनी दिखाई देती है। तात्पर्य यह कि भारत में हिन्दू मुस्लिम समुदायों के बीच की दूरी को केवल भारतीय तथ्य कहकर नहीं बचा जा सकता है, इसके बजाए इसके वैश्विक कारणों और राजनीति पर ध्यान दिए बगैर किसी भी किस्म के सही कार्य-कारण संबंध को स्थापित करना नामुमकिन होगा।
हिन्दू मुसलमान के बीच सामुदायिक दूरी कोई एकाकी घटना नहीं है कि यह दूरी विद्यमान हुई और मुसलमानों ने अपने आपको किसी 'घेट्टो' में कैद कर लिया। इसके बजाए यहां स्थिति वैसी ही है, जैसी जर्मनी में यहूदियों के साथ हुई। आतंकवाद के आरोपण से लेकर पूरी दुनिया में हर तरह की विकृति के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। यह स्थिति का प्रभाव देखिए कि यह व्यक्ति या समुदाय पर आरोपण मात्र तक सीमित नहीं है, इसके बजाए यह आरोपण राज्य (state) जैसी संस्था तक पर है। अफगानिस्तान और इराक के साथ लीबिया इस मामले में सबसे मौजू उदाहरण हैं। अब प्रश्न यह है कि इस आरोपण से बहुसंख्यक समुदाय और दुनिया के शक्तिशाली राज्यों को हासिल क्या होगा। इस प्रश्न का जवाब यहां तो नहीं दिया जा सकता है, लेकिन इशारे के तौर पर इसके लिए वैश्विक आर्थिक क्रमानुक्रम को समझना बहुत ज़रूरी है। इसीलिए प्रियंवद के लेख से आपत्ति इस संदर्भ में यही है कि समग्र रूप से उनका लेख सामुदायिक दूरियों के लिए स्थानीय कारणों को जिम्मेदार मान रहा है और इसे एकदम स्थानीय घटना के रूप में परिभाषित कर रहा है।
स्थानीयता के स्तर पर भी बात करें तो इसमें भी कोई दो राय नहीं कि संघ या दूसरे हिन्दुत्वादी संगठनों ने इस सामुदायिक दूरियों को बढ़ाने में बहुत अहम भूमिका निभाई है। लेकिन मैं इस प्रश्न के साथ अपनी बात को रखना चाहूंगा कि कौन सा सामाजिक आधार या सामाजिक परिस्थितियां हैं, जिसकी वजह से इस तरह के संगठनों को सामाजिक समर्थन प्राप्त हुआ और हो रहा है। प्रियंवद इतिहास के विशेषज्ञ हैं, इसलिए जर्मनी का उदाहरण देना बहुत सामयिक होगा। हिटलर के उदय का मूल कारण आर्थिक विषमता था। हिटलर ने जर्मनी की जनता से यही वादा किया था कि यहूदियों ने उनके आर्थिक संसाधनों पर कब्जा कर रखा है, और उनकी आर्थिक बदहाली व बेरोजगारी के लिए वही जिम्मेदार हैं। उसी तरह के तर्क और नारे वर्तमान समय में भी देखने को मिल रहे हैं।
दूसरी बात प्रियंवद ने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर कही है। 'जिसे भी मुस्लिम समाज की दहला देने वाली क्रूर और नंगी सच्चाई देखनी हो, उसे एक बार इस (टर्र) के मेले में ज़रूर आना चाहिए। पूरी सड़क दुकानों और इन्सानों से भरी थी, उनमें 80 प्रतिशत दस से बीस साल के बच्चे, लड़के थे। वे झुण्ड में थे। वे सब कुपोषित, बीमार और कमजोर थे। सब एक से दिखते थे। उभरी हड्डियां, धंसा पेट। सब पारंपरिक कपड़े पहने थे...। औरतें भी कुपोषित, एनमिक थीं।' लेकिन यह केवल टर्र मेले या मुस्लिम समाज की सच्चाई मात्र नहीं है। यह निम्न वर्ग के हिंदुस्तान की सच्चाई है। यहां लक्षित होने वाली ग़रीबी, जहालत पूरे हिन्दुस्तान की 80 फीसदी आबादी की सच्चाई है। प्रियंवद बड़े रूमानी ढंग से कहते हैं कि 'मुसलमानों की स्थिति बहुत जटिल थी। वहां सिवाय सैकड़ों साल पुराने ठहराव के कुछ और नहीं था... किसी तरह का कोई पुनर्जागरण, कोई सामाजिक क्रांति, धर्म के विघटन, शंकाएं, प्रश्न, बहसें, राजनीतिक नेतृत्व... ऐसा कुछ भी नहीं घटित हुआ... जमालुद्दीन अफगानी या जिन्ना या खान अब्दुल गफ्फार खां या वामपंथी विचार, साहित्य तक कई संभावनाएं बनी कि किसी बड़ी चेतना की लहर इनमें कोई परिवर्तन ले आए, पर देश के बंटवारे और फिर बाबरी मस्जिद ने सिद्ध कर दिया कि दूसरी जकडऩे बहुत मज़बूत होती हैं।' इससे नाइत्फाकी का तो सवाल ही नहीं पैदा होता है। लेकिन प्रति प्रश्न ज़रूर पनपता है कि क्या ऐसा हिंदुस्तान के हिन्दु बहुसंख्यक समाज के साथ ही हो पाया या दुनिया के धनी शक्तिशाली और औद्योगिक विकास के चरम पर पहुंचे देशों में हो पाया? सिलिकान वैली से लेकर साफ्टवेयर पावर हाउस कहे जाने वाले बैंगलोर शहर तक में भी क्या वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न लोग मौजूद हैं? मंगल ग्रह तक यान को पहुंचाने वाले वैज्ञानिक नारियल फोड़ कर ही उल्टी गिनती की शुरुआत करते हैं और मुहुर्त देखकर ही इसरो अपने यानों या प्रक्षेपास्त्रों का परीक्षण समय तय करता है! तात्पर्य यह कि वैज्ञानिक चेतना का विकास करना वर्तमान समय में धर्म नहीं, बल्कि राज्य की जिम्मेदारी है और यदि राज्य अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाता है, तो उसका फायदा विभिन्न किस्म के मुल्ला मौलवियों से लेकर पंडित ब्राह्मण तक उठाते हैं। इस मामले में मैं तुर्की के अतातुर्क का उदाहरण सामने रखना चाहूंगा, जिसने वैज्ञानिक चेतना से लेकर धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी राज्य की मानी। अभी भी भारतीय इतिहास में खिलाफत आंदोलन को लेकर बड़े रूमानी ढ़ंग से व्याख्यायें की जाती हैं और इसे हिन्दू मुस्लिम एकता के सार्वदेशिक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने वैज्ञानिक चेतना की जो मिसाल रखी, क्या उसका पासंग भर भी उस दौर के शक्तिशाली भारतीय नेताओं के पास मौजूद था (नेहरू इसमें अपवाद हैं)?
मध्य युग में विज्ञान और तर्क जब चर्च और मंदिरों के आगे नतमस्तक होकर धूल फांक रहा था, ब्रूनों को जिंदा जलाया जा रहा था, उस समय तक अरबी विज्ञान ने अप्रतिम प्रगति कर ली थी। चिकित्सा से लेकर ज्यामिति तक और फलसफे से लेकर साहित्य तक। बिल्कुल उसी तरह भारत में अकबर तक आते-आते जितनी प्रगति हुई थी, उसकी तुलना में उन्हीं के ब्रितानी समकालीन हेनरी अष्टम का काल तो किसी टुटपुजियां का काल प्रतीत होता है। तो ऐतिहासिक आधार पर भी यह नहीं कह सकते कि किसी धर्म के कारण ज़दीदियत के विचार को क्षति पहुंची। हां, मुल्ले-मौलवी और पंडित-पुजारियों को समाज की नियंता शक्ति मान लें, तो बात ही खत्म हो जाती है। लेकिन याद रखने की बात है कि इनकी बात सुनने वाला कोई होता नहीं है, ऐसा होता तो न ग़ालिब का अस्तित्व होता और न मीर का।
मैं इस पत्र को समाप्त करना चाहता हूं लेकिन एक ऐसा मुद्दा अभी मौजूद है कि जिसके बारे में यदि बात को आगे न बढ़ाया गया तो उसके परिणाम भविष्य में और अधिक भयावह होंगे। प्रियंवद का कहना है कि 'जिसने भी एक बार उर्दू शायरी पढ़ ली उसे कभी हिन्दी कविता अच्छी नहीं लगेगी... कारण यह कि उर्दू के मुकाबले, बनारस के ब्राह्मणों द्वारा एक नकली भाषा गढ़ी गयी जो लोक की भाषा कभी नहीं थी। उसका कभी अपना स्वतंत्र, नैसर्गिक, सहज विकास नहीं हुआ। छायावाद से लेकर अज्ञेय के 'तार सप्तक' तक, हिन्दी कविता की भाषा जन की भाषा नहीं थी।' पहली बात तो यह कि इन पंक्तियों में ग़लत ऐतिहासिक तथ्य मौजूद है। प्रियंवद ने जिन शम्सुरर्हमान फारूकी के भाषण से अपनी बात शुरू की, स्वयं उन्होंने उर्दू और हिन्दी के भेद को नहीं स्वीकार किया है, इसके बजाए एक ही भाषा को दो लिपियों में लिखे जाने जैसे तथ्य को ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित किया है। इसके अलावा कि आरंभिक दौर में कभी भी मुस्लिम समाज ने उर्दू पर अपनी भाषा होने का दावा ही नहीं किया। सर सैयद अहमद तक उर्दू के पक्ष में नहीं थे। उनके ही शब्द है कि 'ज्ञान में शक्ति है और अंग्रेजी आधुनिक ज्ञान की कुंजी है।' बिल्कुल इसी तरह से आरंभ में ब्राह्मणों का दावा 'देवभाषा' संस्कृत पर था न कि हिन्दी पर। स्वयं प्रियंवद ने ही अपनी किताब 'भारत विभाजन की अंत:कथा' में मैकाले के प्रसिद्ध मिनट्स का उल्लेख किया है। वहां भी हिन्दुस्तानी छात्रों की त्रासदी का स्रोत उनका संस्कृत अध्ययन है। तात्पर्य यह कि हिन्दी, जिसका हम अभी व्यवहार कर रहे हैं, उस पर किसी जाति या धर्म की बपौती मानना बिल्कुल अनैतिहासिक और अतार्किक है। भाषा संस्कार भले ही वर्गीय चेतना को समाहित किए हों, लेकिन भाषा स्वयं किसी वर्ग या संप्रदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। साधारण उदाहरण है कि दुनिया में जहां भी शोषक-शोषित जैसा रिश्ता मनुष्य समाज में मौजूद है, वहां इन दोनों की वर्गों की भाषा एक ही है (यदि एक ही भाषा न होगी, तो शोषण को कैसे अंजाम दिया जाएगा)। इंजील में बेबल टावर का जिक्र आता है, जहां ईश्वर ने सभी मनुष्यों की भाषा जुदा कर दी। इसी के चलते लोगों का आपसी संवाद खत्म हो गया और उस सीढ़ी का निर्माण तो बिल्कुल असंभव हो गया, जो मनुष्यों को स्वर्ग के राज्य में ले जाती.
इसी से जुड़ी बात प्रियंवद को हिन्दी कविता के अच्छी लगने न लगने के विषय में। तो यहां पहला सवाल यह है कि क्या तथाकथित उर्दू (प्रियंवद का इससे जिस भाषा से आशय हो) लोक की भाषा है? यह बाज़ार की भाषा है, वहीं इसकी परवरिश हुई है, वहीं इसे संस्कार मिले हैं! यदि लोक भाषा की रचनाएं उन्हें भाती हैं, तो अवधी, भोजपुरी, मैथिली आदि की रचनाएं उनके आस्वाद सीमा में होंगी? यदि नज़ीर को छोड़ दें, तो मीर, ग़ालिब, जौक आदि से लेकर फ़िराक और फ़ैज तक सभी परिष्कृत भाषा का इस्तेमाल करते हैं। असल में प्रियंवद जिसे अच्छा लगना कह रहे हैं, वह शाइरी में मौजूद गेयता को इंगित कर रहे हैं। लेकिन वर्तमान आधुनिक समय में कोई भी विधा सामाजिक दबाबों से अलग रहे, ऐसा असंभव है। और ऐसा विश्व की हर एक भाषा के साथ हुआ है। क्या शाइरी विधा में अब भी ग़ालिब की रचनाओं जैसी गेयता बची है? यदि नहीं, तो फिर इस तरह का आरोप ही निराधार हो जाता है।
और आखिरी बात। प्रियंवद का कहना है कि 'वामपंथ के प्रचंड तुमुलनाद और शिक्षा व साहित्य सत्ता के विभिन्न या समस्त शक्ति केंद्रों पर वामपंथियों के नियंत्रण के कारण कविता में रस और लोकभाषा होने को निरंतर हेय बताया गया। संप्रेषणीयता दुर्गुण और जटिलता प्रगतिशीलता बन गई।' यह भी एक निराधार आरोप है। तथ्यगत स्तर पर इस विचार से गड़बड़ी यह है कि लेखक द्वारा वैचारिक सत्ता और राजनीतिक सत्ता दोनों में अंतर नहीं किया गया है। हिंदुस्तान की बात करें तो वामपंथियों ने अपनी बात मनवाने के लिए कभी भी दमन का सहारा नहीं लिया है, बल्कि लगातार वैचारिक संघर्ष किया है। अकादमिक स्तर पर जिन वामपंथियों ने अपनी वैचारिक प्रतिष्ठा कायम की,उसके पीछे सत्ता नहीं बल्कि उनका अध्ययन और प्रतिभा थी और है। दूसरी बात हिन्दी के सभी वामपंथी आलोचकों ने मध्यकाल को भारत के सांस्कृतिक जागरण के दौर के रूप में चिंह्नित किया है (इरफान हबीब और उनके पिता मोहम्मद हबीब की किताबों में इसके प्रमाण मौजूद हैं)। और वह इस कारण कि तुलसी और कबीर से लेकर चैतन्य तक सभी ने लोकभाषा को बरता और जनचेतना को अपनी कविता के माध्यम से व्यक्त किया। यहां तक कि आधुनिक युग में निराला के गीतों को भी वामपंथी आलोचक रामविलास शर्मा ने श्रेष्ठ रचनाओं की श्रेणी में ही रखा है। प्रेमचंद की तारीफ वामपंथी नजरिए से इसीलिए की जाती है कि वहां भाषिक सहजता विद्यमान है और जनयथार्थ को उसी की भाषा में व्यक्त किया गया है। केदारनाथ अग्रवाल से लेकर केदारनाथ सिंह सदृश सभी कवियों की तारीफ़ वामपंथी आलोचकों ने इन कवियों के लोक से जुड़े होने के कारण की है। जिन अमृतलाल नागर की बात प्रियंवद ने लेख में की है, उनकी ही भाषा की तारीफ करते हुए वामपंथी आलोचक रामविलास शर्मा ने लिखा है कि उनके उपन्यासों में लखनऊ के गली मुहल्लों में बोली जाने वाली भाषा का प्रयोग है। लेकिन इसके साथ यह भी कहना ज़रूरी है कि समय का यथार्थ निरंतर जटिल होता जा रहा है और जनप्रतिबद्ध रचनाकारों को समय के अंधकार को बताने के लिए बार-बार मुक्तिबोध की तरह 'अंधेरे में' की तरह की जटिल कविता की रचना करने की जिम्मेदारी आ जाती है, क्योंकि वामपंथी प्रेमचंद के इस सिद्धांत को स्वीकार करते हैं कि साहित्य मनोरंजन की वस्तु नहीं है, बल्कि वह राजनीति को रास्ता दिखाने वाली मशाल है।
ऐसे में लेखक की वैचारिक स्थिति व उसकी सद्भावना के बारे में संशय ज्यादा होकर सामने आ जाते हैं।
जीतेन्द्र गुप्ता,
वर्धा

 

 

पत्र प्रतिक्रिया/दो


आदरणीय प्रियवंद जी,

पहल-97 में आपका दिलचस्प लेख 'बुत हमको कहें काफिर' पढ़ा। बहुत महत्वपूर्ण लेख है। कम-से-कम गुज़रे बीस-पचीस वर्षों में समाज के भीतर मुसलमान और मुस्लिम बहुल इलाकों की लगातार सिमटती जगहों को नोटिस में लेते हुए आपने जो विश्लेषण किया है वह हमें खुद के ही जीवन और परिवेश को कई-कई तरीके से देखने और परखने के लिए बाध्य करता है। लेख की लयके प्रति आपकी जागरुकता तो देखते ही बनती है। लेख के अंत में आपने टिप्पणी भी की है - ''रवीन्द्रनाथ, मखदूम, मजाज़, राही मासूम रजा और फिराक की शाइरी के कुछ अंश/पद के लिए हैं। उनका उल्लेख लेख में इसलिए नहीं है कि लेख की लय न टूटे।'' वाह...वाह... आपकी इस जागरूकता पर कौन न मर मिटे। अंग्रेजीयत के बोझ से लदे फंदे विश्लेषण, जिसमें उद्धरणों की बाढ़-सी आई हुई होती है और 10-12 पृष्ठ के साधारण से लेख में भी 50-100 उद्धरण ठूँस दिए जाते हैं, तब भी आप खुद को बचा पाए, जबकि आपने कहानी के अलावा इतिहास के अनुशासन में बंधकर भी काम किया है। लेकिन प्रियंवद जी, लेख की लय को बचाने के लिए फिक्रमंद थे फिर भी आपने इस महत्वपूर्ण लेख में हिन्दी कविता के संबंध में डेढ़ पृष्ठ की सामग्री क्षेपक की तरह क्यों जोड़ दी, यह समझ में नहीं आया। विचार था कि इसे छोड़कर अन्य हिस्से पर ध्यान केन्द्रित करें। लेकिन अब यह अलग अलग मंचों से इतनी बार और इतने इतने तरीकों से कहा जा रहा है कि लोग इसे सच मानने लगे हैं। हिन्दी समाज का वह हिस्सा, जो इसे नहीं पढ़ता, उसे तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन यदि कोई पढ़े तो यही कहेगा - देखा मैंने कहा था ना कि हिन्दी कविता में कोई दम ही नहीं है। इसलिए हिन्दी कविता के संदर्भ में आपने जो लिखा है उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। और आप यह ध्यान रखें कि यह मैं हिन्दी का कवि या अध्यापक होने के नाते नहीं बल्कि हिन्दी कविता का एक पाठक होने के नाते कह रहा हूँ। क्योंकि आपकी बात को सच मान लूँ तो इसका अर्थ यह होगा कि मैं विगत 20-25 सालों से जिस हिन्दी कविता को पढ़ रहा हूं वह संसार का सबसे निकृष्ट लेखन है। उर्दू कविता से आपका लगाव हो सकता है। सबकी अपनी राय और पसंदगी होती है। इस पर किसी को ऐतराज करने का कोई अधिकार भी नहीं है। लेकिन आपने अपनी पसंद को प्रतिमान बनाकर हिन्दी कविता पर जिस ढंग से थोप दिया है उससे मुझे सख्त ऐतराज है।
आपने चूंकि भाषा और कविता को लेकर टिप्पणी की है इसलिए मैं उसी को केन्द्र में रखकर अपनी बात रखूंगा। पहले मैं आपका पक्ष रखूंगा फिर अपना पक्ष।
1. उर्दू के मुकाबले बनारस के ब्राह्मणों द्वारा एक नकली भाषा गढ़ी गई जो लोक की भाषा कभी नहीं थी।
जरा हिन्दी के प्रसिद्ध कवियों की यह सूची बनाएं और देखें कि इसमें बनारस के कवि कितने थे। एक जयशंकर प्रसाद के अलावा उस दौर में कोई न मिलेगा। और प्रसाद भी थोड़ी देर से छायावाद में आए। खुद बनारस के रामचन्द्र शुक्ल का छायावाद के प्रति नज़रिया क्या था, यह किसी से छिपा नहीं है। यदि आपकी मुराद 'नागरी प्रचारिणी सभा, काशी' से है तो उसका हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बनाने में कितना योगदान है, यह शोध का विषय है। बाद में भी त्रिलोचन या धूमिल जैसे बनारस के कवियों ने लोक हिन्दी का प्रयोग किया या संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का, इसे कोई भी उनकी कविताएं पढ़कर देख सकता है।
यदि कविता की भाषा पर नहीं बल्कि हिन्दी भाषा पर ही आरोप लगा रहे हैं कि वह ब्राह्मणों के द्वारा गढ़ी गई है तो यह और भी ज्यादा अतार्किक और आपत्तिजनक है। हिन्दी भाषा के निर्माण में बनारस के शुद्धतावादियों का योगदान तो हो सकता है, लेकिन उन्होंने ही इसे गढ़ा है, यह गलत है।
2. छायावाद से लेकर अज्ञेय के 'तारसप्तक' तक, हिन्दी कविता की भाषा जन की भाषा थी। छायावाद के कृत्रिम शब्दों का भारीपन, असंप्रेषणीयता और भाषा के आवरण को सजाने की सारी चेष्टाएँ हैं, तो पहले 'तारसप्तक' में आयातित विदेशी प्रभाव से आप्लावित सप्रयास आरोपित जटिलता है।
यह तर्क वही दे सकता है जो काव्य के इतिहास से अपरिचित है और उसकी सीमितता से क्षुब्ध होकर उसपर हमला करना चाहता है। छायावाद रोमेंटिक काव्य आंदोलन था। रोमेंटिक काव्य आंदोलन की भाषा कभी भी ठीक-ठीक जन की भाषा नहीं होती। उपलब्ध भाषा से परे जाकर आधुनिक मनुष्य के सुख-दुख, जय-पराजय को सांस्कृतिक रूप से समझना इस आंदोलन का लक्ष्य होता है। हिन्दी को छोडि़ए, बांग्ला,तमिल, तेलुगु या मराठी के रोमेंटिक दौर की काव्यभाषा क्या ठीक जनभाषा थी? और उसके पाठकों की स्थिति क्या थी? इस पर विचार कीजिए तो बात समझ में आ जाएगी। फिर भी छायावाद पंडिताऊ भाषा (संस्कृतनिष्ठ भाषा) तक सीमित थी, यह मानना भूल होगी। छायावाद ने इस सीमा को बार-बार तोड़ा है। लेकिन हमारा हिन्दी समाज इस मामले में निरपेक्ष और उदासीन बना रहा। यहाँ मैं ज़ोर देकर कहना चाहूंगा कि पूरे आज़ादी के आंदोलन के दौरान हिन्दी समाज जितना राजनीतिक रूप से सक्रिय रहा उतना सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से नहीं, प्रयोगवाद को भी मैं आयातित पश्चिमी प्रभाव नहीं मानता, हालांकि हिन्दी अध्यापकों का बड़ा वर्ग और संस्कृति के पुरातन पंथी लोग आज भी ऐसा ही मानते हैं। प्रयोगवाद को अधिक से अधिक इसे कुलीन अभिरुचि कहा जा सकता है।
यदि आग्रह यह हो कि तुलसी या कबीर की भाषा में ही सारी बातें कही जाएगी या प्रेमचंद की भाषा ही कथा साहित्य के लिए अचूक है तो बात ही बेमानी हो जाती हैं, आप कह सकते हैं कि इस भाषायी संघर्ष का जनता की नजर में कोई मूल्य नहीं था (यहाँ जनता की उदासीनता पर भी बात हो सकती है) लेकिन उसका साहित्य में भी कोई मूल्य नहीं था, यह कहना गलत है। उर्दू साहित्य के तीन सौ साल के इतिहास में वली दकनी से लेकर कैफी आजमी तक आपने 15 नाम लिए, यह कहते हुए कि ये लोगों की जुबान में ज़िन्दा हैं। क्या आपको ये लगता है छायावाद से लेकर अब कोई भी कवि ऐसा नहीं है जो लोगों की जुबान में ज़िन्दा हो? नाम लेकर आपने अपना कविता संबंधी आग्रह जता दिया। यह काम मैं नहीं करूँगा। लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि हिन्दी कविता भी लोगों की ज़ुबान पर ज़िन्दा है। यह मैं अपने पाठक के अनुभव से नहीं अध्यापक के अनुभव से भी कह रहा हूँ। मेरी छात्राएँ ऐसी हैं जो 10 साल पहले कॉलेज छोड़ चुकी हैं और घर-बार भी बसा लिया है। उनमें से कुछ आज भी आती है। और पढऩे के लिए किताबें मांग कर ले जाती हैं। और बता दूं कि इसमें कविता की हाल ही की किताबें भी होती हैं। यह संख्या छोटी ज़रूर है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि नहीं है। हमको इस पर विचार करना चाहिए कि इस संख्या को बढ़ाने में हमारे कवियों-विचारकों-चिंतकों-प्रकाशकों-संपादकों-पत्रकारों-राजनीतिज्ञों और इतर विधा के रचनाकारों ने कितना योगदान दिया। वे तो कविता की काल्पनिक मृत्यु के विराट उत्सव में डूबे हुए हैं। यदि ऐसा नहीं भी कर रहे तो उदासीन हैं। क्या हिन्दी समाज की इस कृतघ्नता पर भी कभी बात होगी?
इसमें जो मुख्य मुद्दा आपकी नजर में है वह काव्य-पंक्तियों के याद रहने का है। हिन्दी कविता के विरोध में यह बात इतनी बार कही गई है कि लगता है कि याद रह जाना ही कविता की गुणवत्ता का एकमात्र आधार है। छोटी और गीतात्मक संरचना ही व्यापक रूप में याद रह सकती है। वैसे तो कविता के अलावा साहित्य की कोई भी विधा शाब्दिक रूप में याद नहीं रहती तो क्या इसका ये अर्थ हुआ कि वे सारी विधाएं व्यर्थ हैं? स्मरण को केन्द्र में रखकर सस्ते रूमानी गीतों को श्रेष्ठ माना जाए तो यह कितना तार्किक है?
3. गंगा जमना के दोआबे में पली बढ़ी यह ज़बान (उर्दू), दुनिया की सबसे शानदार और जानदार ज़बानों में इसलिए है कि इसे किसी और ने नहीं, दरगाहों, मंदिरों, मस्जिदों, गलियों, बाज़ारों, मेलों में गढ़ा है। वली दकनी से शुरू होकर आज तक (कम अज कम पाकिस्तान में) यह बिना मुरझाए चली आ रही है। (फिर दो शेर उद्धृत करने के बाद कहते हैं) हिन्दी में इस भाषा को बकायदा कोशिश करके सौ साल पहले खारिज कर दिया गया था।
सौ साल यानी छायावाद से पहले। भाषा के बारे में सामान्य सी जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी यह जानता है कि भाषा का निर्माण जनता के बीच ही होता है। यदि छायावाद से हिन्दी कविता की भाषा अभिजात-कुलशील हो गई थी तो फिर निराला और पंत की परवर्ती कविताएं, केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन-रामविलास शर्मा-रांगेय राघव की कविताएं और बाद में समकालीन कविता के पूरे दौर की कविता क्या ड्राइंग रूम में रची गई कविता लगती है? हिन्दी कविता की आलोचना में तो कविता की लोकभाषा के पक्ष में बहस की एक लंबी परंपरा है। यदि कोई उस बहस को ही पढ़ ले तो जान जाएगा कि समकालीन हिन्दी कविता की भाषा में भी लोक का एक समृद्ध इतिहास है जो आज भी जारी है। फिर खारिज कर देने का कोई मामला ही नहीं है। आप इस समाज की कुपढ़ जनता से पूछिए कि जब दूसरी भाषाओं की सांस्कृतिक उन्नति हो रही थी तब वह किसी मोहमाया में उलझी हुई थी? दरअसल हिन्दी कविता जितनी तेजी से आधुनिक और पुष्ट हुई, समाज उतनी तेजी से नहीं हुआ। यदि ऐतिहासिक रूप से इस घटना को देखें तो बीसवीं शताब्दी हिन्दी कविता के लिए महत्वपूर्ण कालखंड है। दूसरी भाषाओं के कवियों को हिन्दी की तुलना में अपेक्षाकृत एक बना-बनाया और सुसंस्कृत समाज मिला, जिसे उन्होंने पल्लवित और संवर्धित किया। खड़ी बोली हिन्दी के कवियों को न केवल लोक भाषाओं के प्रभाव-क्षेत्र में जी रही बहुसंख्यक जनता को हिन्दी के नए रूप के करीब लाना था बल्कि ब्रज, अवधी, मैथिली और बुन्देलखण्डी की साहित्यिक विरासत को इस नए भाषायी रूप में रूपांतरित भी करना था। याद कीजिए उन्नीसवीं शताब्दी का अंतिम और बीसवीं शताब्दी का पहला दशक, जब खड़ी बोली हिन्दी को राष्ट्रभाषाके रूप में स्वीकार किए जाने की मांग उठने लगी थी लेकिन उसका साहित्य मूलत: उसकी जनपदीय भाषाओं का साहित्य था। कविता की मुश्किल तो इसलिए भी ज्यादा थी कि उसके जनपदीय रूप में तुलसी, कबीर, सूर, जायसी, मीरा, बिहारी और घनानंद जैसे महान और बहु-प्रशंसित कवि थे। खड़ी बोली हिन्दी कविता के कुल सौ-सवा सौ साल के इतिहास में जो इतने सारे आंदोलन और इतनी धाराएँ दिखाई पड़ती है उसकी तह में यही बात है। इस तरह हिन्दी के कवियों के सामने मुख्य चुनौती बहुसंख्यक हिन्दी समाज को खड़ी बोली हिन्दी के करीब भी लाना था और भाषा की सृजनशीलता का विकास भी करना था। राजनीतिक, व्यापार और मनोरंजन उद्योग ने उसका व्यावसायिक प्रसार तो किया और उसका उपयोग मूल्य जानकर उसका दोहन भी किया। लेकिन उसकी सृजनशीलता की ओर आकृष्ट करने में कोई बड़ा कदम उठाया हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। आज़ादी और उसके बाद के समूचे दौर में हिन्दी कविता की गंभीरता के प्रति उसकी अरूचि साफ दिखाई पड़ती है। एक छोटा वर्ग ज़रूर एक सीमित दौर में हिन्दी कविता की रचनाशीलता के करीब आया था, लेकिन कुछ तो कवियों और आलोचकों की लापरवाही, और कुछ संभ्रांतता की तड़प के कारण वह छिटक गया। हिन्दी समाज में साहित्य की उपस्थिति को देखते हुए उसकी गुणवत्ता पर सवाल उठाने से पूर्व हिन्दी समाज के इस सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर ज़रूर नजर डालना चाहिए।
4. (आपने पहले कहा कि सभी बड़े नामों ने शुरू में गीत लिखे, बाद में डरकर छोड़ दिया, उसके बाद लिखते हैं) यह डर बैठाया है बनारस की तरह वामपंथ के अपने ब्राह्मणों ने, जिन्होंने प्रेम रस, लय, छंद, कल्पनाशीलता, गीत को न जाने किन-किन क्रांतिकारी शब्दावलियों के हथियार से साहित्य और जीवन से बहिष्कृत करके एकांत में ढकेला और उसकी हत्या कर दी। वामपंथ के प्रचंड तुमुलनाद, शिक्षा व साहित्यिक सत्ता के विभिन्न या कि समस्त शक्तिकेन्द्रों पर वामपंथियों के नियंत्रण के कारण कविता में रस और लोकभाषा होने को निरंतर हेय बताया गया। संप्रेषणीयता दुर्गुण और जटिलता प्रगतिशील बन गई। इस बिन्दु पर कलावादी और वामपंथी एक थे क्योंकि दोनों के प्रेरणास्त्रोत, रचनात्मक उद्वम विदेशों में थे।
आपके क्षेपक का यह हिस्सा सबसे ज्यादा अतार्किक, गलत तथ्य और अंतविरोधों से भरा हुआ है। इसमें जो मुख्य बात है वह यह कि वामपंथी कवियों ने ही कविता को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाया। मुझे लगता है आप यहां दो नाम लेना चाहते थे - मुक्तिबोध और नामवरसिंह का। मुक्तिबोध का नाम आपने हिन्दी में शायद उनकी स्वीकार्यता के कारण नहीं लिया। नामवर सिंह का नाम आपने क्यों नहीं लिया, यह मैं कह नहीं सकता। हो सकता है कि रामविलास शर्मा आपके जेहन में हों।
सबसे पहले देखें कि आपने हिन्दी की जिस जटिल काव्यभाषा का जिक्र किया है वामपंथी रचनाकार और आलोचक उसके पक्ष में हैं या विरोध में। रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन की ख्याति मुख्यत: वामपंथी कवियों के रूप में है। क्या इनकी कविताओं की भाषा जटिल या कि पंडिताऊ है? क्या विजेन्द्र, विष्णुचन्द्र शर्मा, राजेश जोशी, विष्णु नागर, नरेन्द्र जैन, नारिस अहमद सिकन्दर, केशव तिवारी, हरिओम राजोरिया की भाषा ऐसी है कि उसे पंडों द्वारा रची पंडिताऊ भाषा कहा जा सकता है? इनकी भाषा तो मेरी बच्ची भी समझ लेती है जो अभी कुल जमा चौदह की है (काव्य-संवेदना की गहराई को समझने में भले वह अभी पूरी तौर पर सफल न हो) दूसरी बात, आप कहते हैं कि वामपंथी कवियों ने ही कविता से प्रेम रस, लय छंद, कल्पनाशीलता, गीत आदि को क्रांतिकारी शब्दावलियों से बहिष्कृत कर दिया। जिसने केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर को गंभीरता से पढ़ा हो, वह तो ऐसा नहीं, आपका मुझे पता नहीं।
आप खुद अपना अंतर्विरोध देखें, एक तो आप छायावाद पर आरोप लगाते हैं कि उसने बनारसी पंडों के प्रबाव में यांत्रिक भाषा गढ़ी, दूसरी तरफ वामपंथी (शायद आप प्रगतिवादी कहना चाहते थे) कवियों पर यह आरोप लगाते हैं कि उन्होंने भाषा से रस को बहिष्कृत कर दिया। यदि कविता की भाषा में जीवन तत्व था ही नहीं तो वह बहिष्कृत कैसे हो गया।
गज़ल और गीतों के लोकप्रिय होने का कारण उसका गाया जाना भी है। यदि गज़ल ही पूर्ण विधा थी तो शायर नज़्मों की ओर क्यों गए? क्या नज़्में भी वैसे ही याद रखी जाती हैं?
वामपंथी कवियों ने कब कविता में रस और लोकभाषा को हेय दृष्टि से देखा, यह तो मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आया। बल्कि यह बहस तो आज भी हिन्दी आलोचना की माक्र्सवादी धारा के भीतर है। हाँ, कलावादी जरूर इससे बिदकते हैं और 'बौद्धिक टफनेस' के नाम पर जनभाषा को उथला मानते हैं, मुझे नहीं मालूम कि वामपंथी रचनाकारों से आपकी मुराद क्या है? यदि कुछ नाम लेते तो बात ज्यादा तार्किक होती। संप्रेषणीयता को हीनतर कलामूल्य या कि दुर्गुण मानने वाला वामपंथी नहीं हो सकता। हाँ, इसे ही एकमात्र प्रतिमान मानकर अपनी कविता में लोकप्रियता के लटके-झटके डालने वाला कवि कितना कवि रह जाता है, यह सोचने का मुद्दा है। लोकप्रिय और सहज संप्रेषणीय कवि आज कितने याद किए जाते हैं और उसकी तुलना में प्रसाद, निराला, महादेवी, नागार्जुन, मुक्तिबोध, केदार, धूमिल और रघुवीर सहाय कितने याद किए जाते हैं, यह किसी से छिपा तो नहीं है।
आपके इस क्षेपक से यह तो पता चला कि आप कविता से प्यार करने वाले हैं और हिन्दी कविता की सीमित स्वीकार्यता को लेकर दुखी और क्षुब्ध हैं। लेकिन कारणों की तलाश करते हुए आपने जो निष्कर्ष निकाले हैं वे गलत हैं, मैं यही कह सकता हूं कि आपने लक्षण तो सही पकड़ा लेकिन बीमारी को गलत डाइग्नोज़ कर दिया। हिन्दी समाज के हीनतर सांस्कृतिक मूल्य, निम्न दर्जे की रुचिशीलता और उदासीनता को तोडऩे के लिए अब नए सिरे से बात होनी चाहिए, इसमें कवियों की भूमिका पर भी बात हो। ज़रूरत सांस्कृतिक एक्टिविज़्म की है। हिन्दी कविता को घटिया कहने से बात नहीं बनने वाली।
उम्मीद है मेरी इस प्रतिक्रिया को आप रचनात्मक रूप में लेंगे और इन स्थितियों पर विचार अवश्य करेंगे।

बसंत त्रिपाठी (नागपुर)


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