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जनवरी 2015

संपादकीय

ज्ञानरंजन

कुछ पंक्तियां


नामवर सिंह जब आये, उनका सृजनात्मक उदय हुआ तो हिन्दी और भारतीय भाषाओं में एक गहरा उज्जवल संकेत गया। उन्होंने नयी सोच को प्रभावित और परिवर्तित किया, उनका कहा और लिखा बहुत विश्वसनीय और चमकदार था। एक परिवर्तित, दस्तक देते समय की पहचान नामवर सिंह ने कराई कि उनका डंका बजने लगा। पहल ने अपने दायित्व के अनुसार नामवर सिंह जी का एक महत्वपूर्ण व्याख्यान छापा, उनके 60 वर्ष पूर्ण होने पर एक विशेष अंक प्रकाशित किया जैसा पहल ने आगे पीछे कभी नहीं किया था। कहानी पर सुरेश पांडे का लिया गया एक लम्बा साक्षात्कार पुस्तिका के रूप में अलग से प्रकाशित किया। नामवर सिंह के सूर्योदय और सूर्यास्त के बारे में यह निर्वाह हमें करना था। इस अंक में नामवर सिंह की कथा आलोचना का दूसरा और अंतिम हिस्सा छापा गया है। रवि भूषण जी ने पूरी शालीनता के साथ नामवर जी के बोले और लिखे गये हर वाक्य को संग्रहीत करते हुए जबरदस्त अन्वेषण किया है। तथ्यों को सामने लाकर उन्होंने नामवर सिंह की असलियत स्पष्ट की है। यह कठिन और महत्वपूर्ण कार्य है। जगदीश्वर चतुर्वेदी एक मान्य आलोचक हैं, उनकी आगामी किताब 'समीक्षा के सीमांत' का एक अध्याय जो नामवर सिंह पर केन्द्रित है अंक 98 का हिस्सा है। वह पूरी किताब ही नामवर जी पर है। पाठकों, आगामी अंक में भी हम और एक गंभीर लेख नामवर जी के संदर्भ में छापेंगे। नामवर जी ने आलोचना के अलावा शक्ति और सत्ता से जुड़े बहुतेरे काम किये जिसके कारण अन्तर्विरोध बड़े होते गये। नियुक्तियां, प्रशस्तियां, पुरस्कार, लोकार्पण, संपादन, संगठन आदि अनेक तरह से उन्होंने अपने मतदाता बनाये। अध्यापकों का एक बड़ा भद्रलोक था जो साहस के गुण से दूर रहा इसलिये वास्तविक मूल्यांकन संभव नहीं था। इस प्रकार नामवर सिंह के उत्तरार्ध का उनके उत्कर्ष से कोई तालमेल नहीं बनता। अब देर हुई, सत्ताएं बदलीं, बूढ़ी हुईं, फिसल गई तो कुछ सच्चे अध्ययन संभावित हो रहे हैं। फिर आप उपकृतों का कितना शोषण करेंगे। जो दाखिल खारिज किया है उसकी लिपि जो अब डिकोड कर ली गई है। हिन्दी में चीजें सुस्त और विलम्बित चलती ही हैं। इससे बड़ा नुकसान हो जाता है। फिर भी हमारी कोशिश है कि हिन्दी के तथाकथित थके हारे सत्ताकेन्द्र  और सत्ता पुरुष रिंग के बाहर हो जायें क्योंकि इसमें कुछ अनुभवी और दमदार लुच्चे तत्व भी जगह बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
साहित्यिक दुर्घटनाओं और साहित्य के जरूरी विमर्श से भरे 'पहल' के इस अंक में कुछ और मूल्यवान चीजें शामिल की गई हैं। कश्मीर में राजनीतिक विध्वंस और अपनों द्वारा की गई हिंसाएं और रक्तपात की पृष्ठभूमि में घाटी से उभरते एक नये हिन्दी कवि की कुछ कविताएं और मार्मिक डायरी पाठकों को उत्सुक करेगी। प्रथम विश्वयुद्ध की शताब्दी पूरी हुई इस 2014 में। अकेले एक लाख चौहत्तर हजार भारतीय मारे गये। दुनिया पर इस युद्ध ने गहरे असर डाले हैं। हाल ही में अंग्रेजी में युद्ध कविताओं की एक नई जिल्द प्रकाशित हुई है। बालकृष्ण काबरा ने 'पहल' के लिए विशेष रूप से कठिन संचयन किया है। ये पहली बार हिन्दी में आ रही हैं। ये युद्ध के दौरान लिखी गई कविताएं हैं। कई नौजवान कवि हैं जो असमय मारे गये और कुछ युद्ध में शामिल बड़े कवि।
देश में संगठित हिंसा का एक ऐसा समय है जिसको बाहर से होने वाली आतंकी हिंसा के शोर के आगे चुप रखा गया है। मिथिलेश प्रियदर्शी और अपर्णा मनोज की कहानियां 'पहल' के लिये ही थीं अन्यथा लोकप्रिय मनोरंजक अखबारी पत्रिकाओं के कोनों में गुम हो जाती। फर्जी आरोप, फर्जी मुठभेड, संस्कृति-कर्मियों को बिना मुकदमों के जेलों में डालते हुए संवैधानिक स्वतंत्रता का अपहरण यह पिछले पचास साल का सच है। पिछले सालों हुए भयानक दंगों के विषदंतों को अपर्णा मनोज ने एक कालजयी कहानी में ढाल दिया है।
इस अंक में फूको को लेकर कुछ नई वैचारिक संभावनाओं पर अच्युतानंद मिश्र ने लिखा है। पौराणिक वामपंथियों को फाड़कर आगे बढऩा एक चुनौतीपूर्ण कभी कभी निष्फल लगने वाला कार्य है फिर भी इस क्रम में अगली बार मार्क्सवादी विचारक लेखक राजेश्वर सक्सेना फुर्ती से भारत में आते कारपोरेट और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में नई क्रांति पर एक ताज़ा नजर डाल रहे हैं।
अंक 97 में प्रियवंद के लेख पर व्यापक प्रतिक्रिया हुई। इस संदर्भ में संपादक ने लिखा था कि हम बहस जारी रखने के लिए गुंजाइश बनाने का प्रयास करेंगे। बहस जारी है। लेख के कुछ हिस्सों से असहमति बनाते हुए दो लेखकों ने अपनी प्रतिक्रिया दी है जिसे हम यथावत छाप रहे हैं। अगले अंक में हमारा 'उर्दू रजिस्टर' फिर से जीवित होगा। अगले अंक में उर्दू और मुस्लिम नवजागरण के अन्तर्गत कर्मेन्दु शिशिर महान कवि हाली पर लिख रहे हैं। सिंधी जाति के पलायन पर लिखे गये एक नये महत्वपूर्ण उपन्यास (लेखिका : जया जादवानी) और यहूदियों के एक विरल संसार को चित्रित करने वाले उपन्यास (लेखिका : शीला रोहेकर) पर भी पहल का ध्यान है। मशहूर कथाकार रणेन्द्र हमारे लिए आदिवासी-जनजातीय विमर्श पर लगातार लिखने की तैयारी कर रहे हैं।
पाठकों इस प्रकार हम अपने सौवें अंक की तरफ बढ़ रहे हैं।
ज्ञानरंजन


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