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सितम्बर 2014

पार्थिव और बौद्धिक कचरा उगलने वाला ज्वालामुखी

जितेन्द्र भाटिया


इक्कीसवीं सदी की लड़ाइयां




इस बार की शुरूआत एक सवाल-जवाब से। क्या आपने कभी रेल में एक शहर से दूसरे शहर का सफर खिड़की के पास बैठकर तय किया है? आप कहेंगे कि यह भी भला कोई पूछने की बात है? तब यात्रा के दौरान निश्चित ही आपका सामना सुरेंद्र तिवारी की कविता 'गांव सिर्फ रेल की खिड़की से देखने की चीज़ है...' की पंक्तियों के अलावा भी एक और बदसूरत नज़ारे से हुआ होगा। बदसूरती का ज़िक्र आते ही दस में से नौ लोग सोच रहे होंगे कि मैं सुबह के समय रेल की खिड़की के बाहर कतार में उकडूं बैठे लोगों के नंगे पिछवाड़ों के वीभत्स नज़ारे का जिक्र कर रहा हूं। बेशक यह अजूबा भी हमारे देश की ही खासियत है और सार्वजनिक स्थलों पर बेबाकी से कपड़े हटाकर बेहिचक हगने-मूतने का राष्ट्रीय गुण हमें नग्नता के मामले में दुनिया की सबसे उदार नस्ल फ्रेंच से भी कहीं आगे का दर्ज़ा देता है लेकिन मेरा अभिप्राय इस नग्नता से नहीं बल्कि उस भयानक बदसूरती से है जो आने वाले वर्षों में एक ज्वालामुखी की शक्ल में हमारे समूचे अस्तित्व को ही खतरे में डालने की क्षमता रखती है। रेल की पटरी के सामानांतर दोनों ओर प्लास्टिक के अबाधित कचरे से आप दिल्ली से मुंबई और मुंबई से कलकत्ता का सफर बिना किसी अवरोध के पूरा कर सकते हैं। साल दर साल प्लास्टिक के इस विशालकाय अंबार का बढ़ते चले जाना तो एक अजूबा है ही, लेकिन इससे भी बड़ा आश्चर्य यह है कि प्लास्टिक के कचरे का यह निरंतर बड़ा होता अम्बार हमारी अभ्यस्त आंखों तले छोटा हो-होकर अब लगभग अदृश्य हो गया है और पटरी की निरंतरता के साथ-साथ अब वह न खिड़की से बाहर देखते यात्रियों को दिखाई देता है, न रेलवे अधिकारियों को, न पटरी का रख-रखाव करने वाली किसी सफाई टोली को, जबकि अब यह सिर्फ किसी खास जगह पर नहीं बल्कि दिल्ली से मुंबई तक पूरी दूरी तक एकसार इस तरह फैला है कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब हम कचरे को नहीं, बल्कि  कबीर के कुम्हार की तरह यह कचरा हमें 'रुंधेगा'!
यहां बता देना ज़रूरी है कि जहां सारा-का-सारा प्राकृतिक कचरा (जिसमें नंगे पिछवाड़ों द्वारा त्यागा गया शारीरिक कचरा भी शामिल है) अंतत: मिट्टी में मिलकर मिट्टी हो जाता है, वहीं प्लास्टिक का सिंथेटिक कचरा सालों-साल, बल्कि सदियों तक धरती पर ज्यों-का-त्यों रह जाता है; पानी, हवा और मिट्टी का इस पर कोई असर नहीं होता। एक वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार पोलीएथीलीन की औसतन उम्र एक हज़ार वर्ष होती है और समय के साथ यह बहुत छोटे-छोटे भुरभुरे कणों में टूट और मिट्टी के साथ मिलकर और भी घातक रूप ले लेती है। इसी प्लास्टिक कचरे के बढ़ते ढेर को देखकर सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में कहा था कि 'हमारा भारतीय समाज आज एक प्लास्टिक बम की ढेरी पर बैठा हुआ है!' दरअसल प्लास्टिक के कचरे से जुड़े भारतीय आंकड़े सचमुच दहला देने वाले हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सी पी सी बी) के अनुसार हमारा देश हर साल 56 लाख टन प्लास्टिक कचरे का उत्पादन करता है। कचरा फेंकने की इस प्रक्रिया को 'उत्पादन' की संज्ञा देना मुनासिब है क्योंकि कूड़े की यह भरमार दरअसल हमारे आज के समाज की अति-उत्पादन संस्कृति का ही एक विस्तार है। आज के 'मास प्रोडक्शन' उपभोक्ता समाज की 'डिस्पेजेबल' या 'इस्तेमाल करो फेंको' संस्कृति गोया कि आज केवल अपने इर्दगिर्द कचरे का निरंतर बढ़ता ढेर तैयार करने पर खर्च हो रही है। उगाहने के इस प्रबल तूफान में सार्थकता या कि गुणवत्ता की कोई पहचान खोजना निरर्थक होगा। नुक्कड़ का सब्जी वाला दो टमाटर और मुट्ठी भर हरे धनिए को भी प्लास्टिक की थैली में डाल हमारे हाथ में थमा देता है। हमारे घर में प्रवेश करने वाली हर चीज आजकल प्लास्टिक में बंद होकर जाती है। और तो और, जिम्मेदार साहित्यिक पत्रिकाएं तक आजकल प्लास्टिक की पारदर्शी थैली में पैक होकर हमारे पास आने लगी है। और भयावह स्थिति यह है कि सामान को लापरवाही से खोलने के बाद हम उसके प्लास्टिक आवरण के प्रति किसी भी तरह की जवाबदेही से पूरी तरह आज़ाद हो जाते हैं। आपमें से कितने लोग घर के प्लास्टिक कचरे को दूसरे प्राकृतिक या बोयोडिग्रेडेबल कचरे से अलग फेंकना ज़रूरी समझते हैं? हममें से कितने लोग सब्जियों और फलों के अनुपयोगी हिस्सों और छिलकों को कॉम्पोस्ट या खाद में बदलने की तकलीफ उठाते है? यही हाल टेक्नोलॉजी के प्रसाद स्वरूप मिलने वाली आज की हर छोटी-बड़ी जिन्स का है। कम्प्यूटर के मॉडल हर दूसरे महीने पुराने पड़ जाते हैं। नौजवानों में आए दिन नए से नया मोबाइल लेने की होड़ लगी रहती है। उसकी और रेडियो की चुकी हुई बैटरियां अपने भीतर के तमाम विषैले रसायनों सहित किस ठिकाने तक पहुंचती है, यह जानने का कोई ज़रिया हमारे पास नहीं है। पुराने इलेक्ट्रानिक सामान, टॉर्चों, बिजली की तारों, जाम हुई कैसेटों और कम्प्यूटर के अस्थि-पंजर का एक विषैला, नष्ट न किया जा सकने वाला एक बहुत बड़ा ढेर यह विश्व लगातार तैयार कर रहा है और यही शायद हमारी विकासशील सभ्यता का भयानक उपसंहार भी है। अंतत: हम सबके साथ इस विश्व को भी इसी विष के ढेर में फना होकर खत्म हो जाना है शायद।
हमारे शहर अपनी सारी खूबसूरती के बावजूद अपनी सरहदों पर इन्हीं कचरे के ढेरों के भयावह मकबरों में तब्दील होते जा रहे हैं। उत्तर-पूर्व क्षेत्र की एक यात्रा की शुरुआत हमने गुवाहाटी की शहरी बस्ती से सटे एक विशाल कचरागाह से की थी, जो इस समय दुनिया के दो संकटग्रस्त पक्षियों चंदियारी और हाडग़ीला (ग्रेटर और लेसर एडजुटेंट) को देखने का एकमात्र स्थल है। कचरे और प्लास्टिक के पहाड़ों और उनसे उठती भयानक सड़ांध के बीच उन दोनों बदसूरत संकटग्रस्त पक्षियों को देखना एक तरह से कचरे से घिरी अपनी संकटग्रस्त दुनिया के आत्महंता इरादों और उसकी नियति को समझना भी था। मुंबई में कुर्ला की खाड़ी, मानखुर्द के हड्डियों के गोदाम और कचरे के अंबार, कोलकाता के ईस्टर्न बाइपास या दिल्ली के यमुना पार इलाके में मुर्गियों के कत्लगाह पर मंडराती हजारों-हजारों चीलों को देखने का अनुभव भी इससे बहुत अलग नहीं होगा। दुनिया का सबसे प्रदूषित होने के साथ-साथ दिल्ली इस देश की राजनीतिक ही नहीं, प्लास्टिक कचरे की भी राजधानी है, जहां प्रतिदिन 690 टन प्लास्टिक कचरा निर्मित होकर यहां-वहां फेंका जाता है। प्लास्टिक के इस भयावह उत्पादन के मामले में हमारे दूसरे शहर भी (चेन्नै 429 टन प्रति दिन, कोलकाता 426 टन प्रति दिन और मुंबई 406 टन प्रति दिन) दिल्ली से बहुत पीछे नहीं हैं। सीपीसीबी ने हाल ही में देश के 60 शहरों में सर्वेक्षण के बाद सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि यह देश 15 हज़ार टन से अधिक प्लास्टिक कचरा प्रतिदिन उगलता है और इसमें से मात्र 60 प्रतिशत ही रीसाइकिल या पुनरउत्पादन के लिए वापस जाता है जब कि शेष 40 प्रतिशत या प्रति दिन 1360 टन कचरा अनियंत्रित ढंग से हमारी गलियों और हमारे सार्वजनिक स्थलों में छितरा दिया जाता है। दरअसल इकट्ठे गए कचरे का भी जैविक एवं सिंथेटिक/प्लास्टिक अंशों में अलग-अलग किया जाना बेहद ज़रूरी है। लेकिन इसे अलग करना तो छोडि़ए, इसके किसी भी हिस्से पर नियंत्रण की कोई व्यवस्था भी हमारे मुल्क में नहीं है। देश की जनसंख्या जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उसमें आने वाले निकट भवष्य में कचरे की यह समस्या क्या रूप लेगी, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए।
तब के चेकोस्लावाकिया और आज के सर्बिया में सर्बो-क्रोएशियन के बेहतरीन लेखक इवान क्लीमा बेहद मेहनती व्यक्ति हैं। कई वर्ष पहले अपने एक उपन्यास का सामान जुटाने के लिए उन्होंने अपने शहर में महीनों कचरा-मज़दूर की हैसियत से काम किया था। अपने उपन्यास 'लव ऐंड गार्बेज' में वे कहते हैं कि कचरा मृत्यु का ही एक पर्याय है। गीता में वर्णित अमर-अजर आत्मा की तरह यह कभी नष्ट नहीं होता है। एक जगह आगे वे लिखते हैं —
''देखा जाए तो मोटरकार भी कूड़े, यानी कचरे के टुकड़ों को जोड़कर बनाए गए एक बड़े से ढेर की तरह है... उसका कोई रूप हर कदम पर हमारा रास्ता रोकता है..! ...पंद्रह वर्ष पहले अमरीका की मोटरकार राजधानी डेट्रॉयट के नज़दीक एक गांव में जब मेरे नाटक का मंचन हो रहा था तो फोर्ड कंपनी के प्रेसिडेंट ने कंपनी की गगनचुम्बी इमारत में खुली छत पर मुझे दोपहर के भोजन का न्यौता दिया था। वहां से मैं उस भयावह शहर की अनगिनत सड़कों और उन सड़कों पर रेंगती हज़ारों-लाखों मोटरकारों को देख सकता था। उस क्षण उनकी कंपनी के सबसे नए मॉडल के बारे में पूछने की जगह मैंने जानना चाहा था कि जब इन मोटरकारों का उपयोगी जीवन समाप्त हो जाता है तो वे इन सारी कारों को दुनिया से कैसे हटाते हैं? उन्होंने मुसकराकर कहा कि इसमें कोई दिक्कत नहीं है। दुनिया की हर उत्पादित चीज को एक तकनीकी तरकीब द्वारा एक क्षण में गायब किया जा सकता है। और भोजन के बाद उन्होंने ड्राइवर के साथ अपनी कार मुझे दी। ड्राइवर मुझे शहर के छोर पर एक स्थित एक बहुत बड़ी खुली जगह में ले गया जहां अनगिनत जंग खायी टूटी-पिटी कारें बेतरतीब ढंग से ठूंसी हुई थी। चमकदार ओवरऑल पहने अश्वेत मजदूर अपने विशालकाय चिमटों से कारों के भीतर का सारा सामान तोड़कर बाहर निकालते थे, फिर उसके डायर, उनके खिड़की के शीशे और उनकी गद्दियां अलग कर मोटरकारों को दैत्याकार दबाने वाली मशीनों में धकेल देते थे जहां दबकर वे अपेक्षाकृत व्यावहारिक आकार के धातु-पिंडों में तब्दील हो जाती थीं। लेकिन धातु के वे गट्ठर, वे टायर, कांच के टुकड़े और ज़रूरी तथा अनावश्यक यात्राओं में काम आने वाली पुराने तेल की वे नदियां भट्टियों में जलकर और कूटी जाने के बाद भी दुनिया से गायब नहीं होती थी। बल्कि उन्हें गला और पिघलाकर उनसे कुछ और नयी कारें बनायी जाती थी और उस पुराने कचरे का स्थान पहले से कहीं अधिक मात्रा में नया कचरा ले लेता था। यदि कंपनी के उन प्रसिडेंट साहब से दुबारा मेरी मुलाकात होती तो मैं उनसे कहता कि यह सिर्फ एक तकनीकी तरकीब का सवाल नहीं है, क्योंकि इस मृतक आत्माओं की धरती और समंदर से उठती सांसों से मुझे आने वाले किसी भयानक अपशगुन की बू आती है...''
और इसी भाव के मगर विपरीत शब्दों में अमरीकी लेखक डगलस मीक्स—
''यह धरती संकट में है!... लेकिन यह धरती निर्जीव नहीं है। इसमें संवेदना है पूरी। इसलिए वह घायल भी हो सकती है। वह अक्षुण्ण नहीं है। और अटूट नहीं है तो वह टूट भी सकती है। यह धरती अमर नहीं है, इसलिए मर भी सकती है! इस धरती का दुरुपयोग करोगे, इसे बिना सोचे समझे लूटते-खसोटते जाओगे तो यह विद्रोह करेगी ही! और इसे विरोध करना ही चाहिए। यह अलग बात है कि धरती का विरोध करने का तरीका अलग होगा। यह मरकर विद्रोह करेगी...''
(अनुपम मिश्र के 'गांधी मार्ग' में प्रकाशित, अनुवाद से)
योरोप में प्लास्टिक कचरे को इकट्ठा करने के बहुत सख्त नियम हैं। इनमें सबसे बड़ी जिम्मेदारी उद्योग की है। यदि आप ज़मीन पर कोई भी प्राकृतिक रूप से अविघटनशील प्लास्टिक या पेट्रोलियम (नॉन बायोडिग्रेडेबल) पदार्थ फेंकते या गिराते हैं तो इसका बेहद संगीन जुर्माना भरने के साथ-साथ आपको उस समूचे स्थल को साफ कर फिर से मूल अवस्था में लाने की मुकम्मल जिम्मेदारी भी निभानी पड़ती है। भारत में उद्योग की ताकतवर लॉबी के चलते इस तरह के किसी भी कानून के सही तौर पर कार्यान्वित होने की कोई संभावना नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर प्लास्टिक पैकेजिंग को नियंत्रित करने का कोई प्रस्ताव यदि आया भी तो सरकारों में रिलायंस और दूसरी बड़ी ताकतों के हितों की रक्षा करने वाले नुमाइंदें इसे रफा-दफा कर देंगे। सन् 2013 में सर्वोच्च न्यायालय से सी पी बी सी की पहल पर दिल्ली, गाजियाबाद, बैंगलोर, जयपुर और आगरा के म्युनिसिपल कमिश्नरों को नोटिस भेजा था कि वे चार सप्ताह में लिखित रूप से बताएं कि म्युनिसिपल कचरा नियोजन नियम 2001 और प्लास्टिक कचरा नियम 2011 के तहत वे कचरे को जिम्मेदार ढंग से फेंकने के लिए कौन-कौन से कदम उठाने वाले हैं। एन जी ओ 'टॉक्सिक लिंक्स' के रवि अग्रवाल के अनुसार हमारे देश के कानून में प्लास्टिक का कचरा इकट्ठा करने की जिम्मेदारी बहुत साफ तौर पर म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन और उद्योग की बतायी गई है, लेकिन उद्योगों को इस पर सख्त ऐतराज है और अदालतों में कई मुकदमे सालों से घिसट रहे हैं। दिल्ली में कुछ वर्ष पहले प्लास्टिक की थैलियों पर सम्पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन इस नियम का पालन कहां तक हो पाया, इसमें सभी को भारी संदेह है। दिल्ली सरकार ने इस नियम का उल्लंघन करने वालों पर एक लाख तक का जुर्माना भी तय किया था, लेकिन इसके  तहत कितने लोगों पर वास्तव में यह जुर्माना लगाया गया, इसका कोई ब्यौरा किसी के पास नहीं है। जयपुर शहर में दो-तीन वर्ष पहले प्लास्टिक थैलियों पर इसी तरह की रोक लगायी गई थी जिसके चलते बड़ी-बड़ी दुकानों ने प्लास्टिक की थैलियों में सामान बांधकर देने का चलने बंद कर दिया था। लेकिन सरकार द्वारा इसके सही तरीके एवं सख्ती से पालन के अभाव में सड़कों, बाज़ारों में प्लास्टिक की थैलियां उसी पुराने जोश-खरोश से लौट आयी है। मुम्बई और चेन्नै में कानूनी तौर पर प्लास्टिक के विरुद्ध कोई प्रतिबंध नहीं है, लेकिन यहां 'नीलगिरि' और 'हाइको' जैसे बड़े स्टोर में सामान को प्लास्टिक थैलियों  में डालने से पहले ग्राहक से पूछा जाता है और उसकी स्वीकृति मिलने के बाद ही ये थैलियां बिल में एक सामान्य मूल्य जोडऩे के बाद ग्राहक को मिलती है। लेकिन इसी के सामानांतर छोटे दुकानदार आज भी धड़ल्ले से बिना रोक-टोक के हानिकारक थैलियां खरीददारों को लुटाते चलते हैं, और उनकी कहीं कोई जवाबदारी नहीं है। जाहिर है कि इस तरह के ढीले नियमों से प्लास्टिक के उपयोग में कमी आने की अपेक्षा रखना खामखयाली होगी।
देखा जाए तो आज हमारा समूचा देश ही एक बहुत बड़े कचरादान में तब्दील हो गया है, जिसमें न सिर्फ अपने स्वयं के, बल्कि दूसरे शातिर मुल्कों से आयात किए गए विषाक्त कूड़े के लिए भी पर्याप्त जगह है। नेशनल एनवायरमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट का कहना है कि अक्सर 'रिसाइकलींग' या पुनरुत्पादन के आकर्षक नारों तले दुनिया के विकसित देशों द्वारा निष्कासित कचरा हमारे समुद्रतटों पर कानूनी-गैर कानूनी ढंग से उतारा जाता रहा है।
आज से कुछ वर्ष पहले न्यू जर्सी, अमरीका की एक कंपनी ने तथाकथित 'गलती' से 35 कार्गो बक्सों में भरा प्लास्टिक, रबर और चमड़े का 900 टन कचरा हमारे टूटीकोरिन बंदरगाह पर भेज दिया था। काफी जन-आंदोलन होने के बाद इसे नीचे उतारने पर रोक लगा दी गयी लेकिन दूसरी और अमरीका की कंपनी को कोर्ट में घसीटने का भी कोई जरिया भी बाकी नहीं बचा क्योंकि यह कचरा उस 25000 टन के बड़े 'तथाकथित सुरक्षित' कागज के कचरे का हिस्सा था जिसे हमारे देश की आर्ई टी सी कंपनी ने स्वयं खरीदकर अमरीका से मंगवाया था। अब दुनिया का कोई भी देश इस खतरनाक कचरे को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। बताया जाता है कि आ$िखरकार यह कचरा एक दिन चुपचाप बंगलादेश, इथियोपिया या ऐसे ही किसी दूसरे गरीब मुल्क के मत्थे मढ़ दिया जाएगा क्योंकि अंतत: सोमालिया की एक या सौ या हजारों जानों के मुकाबले एक यैंकी अमरीकन जान का वज़न कहीं अधिक बैठता है।
ग्रीनपीस इंटरनैशनल के रॉबर्ट एडवर्ड के अनुसार प्लास्टिक की थैलियां हमारे शहरों और कस्बों के पर्यावरण को विषाक्त कर हमारा दम घोंट रही हैं, लेकिन प्लास्टिक उद्योग, जिसमें अंबानी से लेकर कई और दिग्गज शामिल हैं, सत्ता के उच्चतम गलियारों तक अपनी पहुंच रखता है। पत्तलों, कुल्हड़ों और ठोंगों पर टिकी हमारी पारंपरिक संस्कृति में इन थैलियों के लिए कोई जगह नहीं थी। लेकिन तीस चालीस वर्ष पहले अस्सी के दशक में देश को प्लास्टिक के मामले में आत्मनिर्भर बनाने और अपने प्लास्टिक उत्पादों को दुनिया के बाज़ार में उतारने के इरादे से कई बड़े-बड़े पेट्रोकेमिकल कारखानों का उदय हुआ, जहां से निकलने वाले पॉलीएथिलीन, पॉलीप्रोपलीन, पॉलीएस्टर, नाइलॉन और पी ई टी आदि ने हमारी जीवन शैली को बहुत तेजी से बदल दिया। आज प्लास्टिक के कुल उत्पाद का लगभग आधा हिस्सा पैकेजिंग के लिए प्रयुक्त होता है। मज़बूती, पारदर्शिता, कम कीमत और जल-प्रतिरोधक गुणों के चलते हमारी अधिकांश पैकेजिंग प्लास्टिक की ओर मुड़ गयी है, जहां एक बार इस्तेमाल के बाद इसे फेंक दिया जाता है और यहीं से पर्यावरण से जुड़ी विकराल समस्या की शुरुआत होती है। मजबूती के लिए अब बाज़ार में चमकदार मेटेलाइज्ड प्लास्टिक का भी भरपूर इस्तेमाल होने लगा है जो पर्यावरण के लिए साधारम पोलीथीन या उससे भी अधिक घातक है। अधिकांश गुटके और पैकेज्ड नमकीन की थैलियां आजकल इसी मेटेलाइज्ड शीट से बनने लगी हैं। गरीब और विशेषकर मजदूर तबके में चाय या गर्म पेय दुकान से घर या कार्यस्थल पर पहुंचाने के लिए भी प्लास्टिक थैलियां इस्तेमाल में ली जाने लगी हैं, जबकि गर्म चीजों की पैकेजिंग के लिए पॉलीथिन पर्यावरण ही नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकारक है। आज भी हमारी संस्कृति का एक बड़ा हिस्सा 'यूज एंड थ्रो' संस्कृति के बिल्कुल खिलाफ है। हम हिंदुस्तानी किसी भी चीज़ को उसकी उपयोगिता की आखिरी सीमा तक दुबारा इस्तेमाल में यकीन करते रहे हैं। लेकिन प्लास्टिक की इन थैलियों ने हमारी इस पारंपरिक सोच को भी काफी हद तक बदल दिया है। इंतहा यह है कि फेंकी गयी ये थैलियां रेल पटरियों के करीब ही नहीं, पार्कों, बगीचों, गटरों, कूड़ेदानों, पेड़ों की डालों और पक्षियों के घोंसलों तक में देखी जाने लगी हैं।
निस्संदेह प्लास्टिक के इस बदइस्तेमाल और इसके गैरजिम्मेदार ढंग से फेंके जाने की मानसिकता को आमूल बदलने की ज़रूरत है, लेकिन देखा जाए तो शहरों के निवासियों और पढ़े लिखों के बीच भी इस समस्या को लेकर गंभीरता का सख्त अभाव है। लेकिन यदि मन बनाए तो प्लास्टिक की इस घातक आदत को बहुत आसानी से अधिक पर्यावरण हितैषी उपायों की ओर मोड़ा जा सकता है। यही नहीं, हमारे जीवन में इस्तेमाल की चीज़ों को दुबारा, तिबारा प्रयोग में लाने का चलन कितना सहायक हो सकता है, यह भी समझने की ज़रूरत है।
मैं बाज़ार के लिए अपने साथ घर के कपड़े का थैला लेकर निकलता हूं। लेकिन इसके बावजूद आठ-दस दिन के अंतराल पर कमरे में अखबारों की रद्दी एवं बाज़ार से लायी गई पैकेटबंद वस्तुओं की थैलियों का इतना ढेर इकट्ठा हो जाता है कि उसे वहां से हटाना ज़रूरी हो जाता है। किसी औसत मध्यवर्गीय व्यक्ति को इस बात से संतोष हो सकता है कि दुकानों से मिलने वाली प्लास्टिक की थैलियां घर का कचरा इकट्ठा करने के काम आती हैं और रद्दी वाला अब साढ़े छ: रुपये किलो के हिसाब से अखबारों के ढेर के तीन-साढ़े तीन सौ रुपए दे जाता है। हालांकि यह आपूर्ति और मांग की एक बेहद तात्कालिक स्थिति है जिसके तहत आज हमारे इस पिछड़े हुए समाज में इस्तेमाल की हुई हर चीज, चाहे वह खाली बोतल हो या लोहे का भंखार, हमें कुछ न कुछ फायदा देकर ही घर से जाती है। लेकिन बदलाव के जिस तथाकथित विकास की ओर हम बढ़ रहे हैं, उसमें यह स्थिति बहुत समय तक चलने वाली नहीं है। पश्चिमी दुनिया की हालत तक पहुंचते-पहुंचते अखबारों एवं कचरे को ठिकाने लगाने के लिए हमें अपनी तरफ से कुछ खर्च करना पड़ेगा। जिस व्यर्थ सामान एवं जूठन को हम बाहर की वस्तु:स्थिति का खयाल किए बगैर बड़ी सहजता के साथ आज अपनी खिड़की से बाहर फेंक रहे हैं, उसे दुबारा उठाने एवं इस गैरजिम्मेदाराना हरकत के लिए हर्जाना या दंड भरने की स्थिति भी कल अवश्यंभावी रूप से हमारे सामने आने वाली है। दुनिया के कुछ हिस्सों में पर्यावरण को लेकर जिम्मेदारी की यह भावना काफी समय से सख्ती के साथ लागू की जा चुकी है। सिंगापुर की शहरी सीमाओं के भीतर कचरा, रैपर या कागज़ का टुकड़ा अनाधिकृत रूप से फेंकने का न्यूनतम दंड सौ डॉलर या पांच हजार रुपए हैं। जर्मनी में जमीन पर तेल फेंकने के जुर्म में आप भारी दंड भरने के अलावा जेल भी जा सकते हैं। लेकिन कचरे और खास तौर पर प्लास्टिक के आतंक से जूझते हमारे देश में आज भी सामान्य नागरिक इसके भयानक दूरगामी परिणामों को जानने या समझने की कोई ज़रूरत नहीं समझता है। इस महान धरती पर आप न सिर्फ कचरे को जहां चाहे वहां मनचाहे ढंग से फेंक सकते हैं, बल्कि यदि आप किसी को ऐसा करने से रोकते हैं तो कई बार आपका सामना बेहद असभ्य प्रतिरोध से हो सकता है।
लेखक-प्रशासक गोपालकृष्ण गांधी लिखते हैं—
''...हमारा घर औसत मध्यवर्ग में भी मध्यम दर्जे का रहा होगा। हमारे घर में महीने के शुरू में जो आटा, दाल, चावल, नमक और चीनी पंसारी की दुकान से आती थी, उसे ठीक से बर्नी और डिब्बों में रख दिया जाता था। इन चीजों के लिफाफे कागज के होते तो उन्हें मोड़कर फिर से इस्तेमाल के लिए रख देते, कपड़े की थैलियां, बोरियां होतीं तो उन्हें भी फिर से किसी और काम में लगा दिया जाता था। चौके में कचरा फेंकने के लिए बस एक छोटा सा टीन का डिब्बा था। वह भी पुराने किसी आटे के कनस्तर से काट कर बनाया गया था। इसमें बस सब्जी भाजी के छिलके और कुछ छोटी-मोटी चीज़ें डाली जाती थीं। होता ही कितना था भला फेंकने के लिए?
आज मध्यम वर्ग के एक मध्यम से घर के चौके में कचरे के एक नहीं प्राय: दो डिब्बे रहते हैं, ठसाठस भरे पड़े। और ये वो टिन कनस्तर काट कर बनाए गए डिब्बे नहीं। आधुनिक कचरा पेटी हैं ये। पैडल से ढक्कन खुल जाए, वैसी। इनमें तरह-तरह के आकार और मोटे-पतले प्लास्टिक पैकेटों को लगातार फेंका जाता रहता है। फिर अनगिनत किस्म से बनी उन थैलियों की भी गिनती नहीं, जिनमें भरे दूध, चीनी, नमक-बेशक सभी ज़रूरी चीजें हैं- आदि को खाली कर इन कचरा पेटियों के हवाले किया जाता है। इस तरह के कचरे की सूची लंबी है। और इसके अलावा पीने का पानी। वह तो हमारे नलों में आना चाहिए, पर आता नहीं। ...प्लास्टिक के बड़े-बड़े बम्बे या फिर प्यारी दुलारी छोटी-छोटी बोतलें। यह सब भी कचरे के ढेर में समा जाता है। सुबह की पहली किरण के साथ ही हम इन डिब्बों में कचरा फेंकने लगते हैं। दिन की शुरूआत के लिए बनने वाली कॉफी में जो प्राणदायी सफेद दूध डलने वाला है, वह बेहद सुविधाजनक प्लास्टिक के पैकेट में ही आता है। काटो, दूध निकालो और पैकेट फेंको!
शायद इस दमघोंटू बाजारवाद की दुनिया में कुछ खीझ से भरा यह मेरा स्वभाव ही होगा कि मैं सुबह उठते ही पहला काम यही करता हूं कि अपने अखबार को झकझोरता हूं ताकि बीच के पन्नों में छिपी तरह-तरह के रंग-बिरंगे विज्ञापनों की पर्चियां मेरे रास्ते में न आएं। फिर इसके बाद थोड़ा सुबह घूमने के लिए निकलता हूं तब बाहर मुझे अपने चौके का कचरे का डिब्बा कई सुना होकर बड़े आकार में दिखने लगता है। सुबह घूमूं या रात को घूमूं मैं तो सीधे अपने पिछले दिन फेंके गए कचरे में चला जाता हूं। कचरे के उफनते हुए इन ढेरों में मुझे हर चीज पहचान में आ जाती है। ये सब हमारी ही फेंकी हुई चीजें जो हैं हर चीज चाहे वह पूरी हो, अखंडित हो, टूटी हो, खंडित हो, मुड़ी-तुड़ी या दचकी-पिचकी हो—होगी वह मेरी ही या फिर मेरे ही जैसे लोगों की। मैं उनचालीस करोड़ शहरी लोगों में से हूं जो इस फलते-फूलते कचरे के एक अमर पहाड़ के जनक बन गए हैं।... और उठाया गया कचरा भी कहीं ठिकाने नहीं लगाया जाता। यह सब वहीं रहता है... मुझे तो लगता था कि कचरे को एक जगह से दूसरी जगह ले जाकर उसे निथारा जाता होगा, उसकी खाद बनाई जाती होगी। लेकिन मुझे डर है कि ऐसा कुछ भी नहीं होता। कचरे का यह ढेर शहरों से निकलकर उसकी सीमा पर पहुंच जाता है, सीमा पार भी हो जाता है और फिर से उन जगहों में डाल दिया जाता है जो किसी और काम के लिए बनी थी। ये जगहें किसी तालाब की होंगी, दलदल होगा, खेत होंगे— इन सब जगहों में शहर का कचरा, हमारा शहरी भारत एक घाव की तरह अपनी मवाद छोड़ जाता है...''
('गांधी मार्ग' में गोपालकृष्ण गांधी)
कचरे की इस पेचीदा यात्रा में एक बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे कचरे का है, जिसे गैरजिम्मेदाराना तरीके से फेंक दिया जाता है और जिसे उठाने वाला कोई नहीं होता। हमने अपनी शुरूआत रेल की खिड़की या दरवाज़े से फेंके गए कचरे से की थी। लेकिन शहरों में उठाए जाने वाले कचरे का भी बड़ा यथार्थ यह है कि घर के कूड़ेदान से गली के कूड़ेदान और वहां से हर सप्ताह म्युनिसिपैलिटी के ट्रक में लादा जाने वाला यह कचरा भी किसी परिष्कृत प्रक्रिया से नहीं गुज़रता बल्कि एक जगह से उठाकर दूसरी जगह फेंके जाने वाले इस कचरे के पहाड़ों से कमोबेश सिर्फ शहर की सरहदें तय होती हैं।
हममें से अधिकांश इस बात से अनभिज्ञ होंगे की प्लास्टिक के इस महादैत्य के विरुद्ध एक ऐसी जमात लगातार लड़ रही है, जिसे देखकर हम लोग अक्सर दुतकार देते हैं। और यह जमात है शहरों-कस्बों में फैले कचरा बीनने वालों की, जो अपनी रोटी-रोजी कमाने के लिए कचरे के ढेरों से प्लास्टिक के थैले और बोतलें चुनते पाए जाते हैं। कहा जाता है कि सिर्फ दिल्ली शहर में तीन लाख कचरा बीनने वाले हैं जो हर रोज़ कूड़े के ढेरों से प्लास्टिक का कचरा बटोरकर इसे उत्पादकों या उनके ठेकेदारों को लौटाते हैं। इनमें से आधे से अधिक बच्चे हैं, और शेष हैं महिलाएं और बूढ़े, जिन्हें यह समाज किसी भी अन्य काम के काबिल नहीं समझता। कचरे का यह ढेर ही उनकी जीविका का एकमात्र साधन है, और इनमें से शायद ही किसी को इस बात का अहसास होगा कि प्लास्टिक में डूबी इस संस्कृति में वे कितना महत्वपूर्ण किरदार अदा कर रहे हैं। इन्हें किसी संस्था या किसी सरकारी महकमे से सहायता नहीं मिलती और न ही सामान्य दिहाड़ी वाले मजदूरों की किसी संख्या में इनकी गिनती होती है।
लेकिन दिक्कत यह है कि कचरे से प्लास्टिक बीनने वालों की जमात कमोबेश रोटी-रोजी के लिए यह अरुचिकर काम कर रही है और इसका आर्थिक पक्ष ही इसकी सीमा भी बन गया है। होलसेल बाज़ार में कचरे से इकट्ठे किये गए एक किलो प्लास्टिक के बारह से पंद्रह रुपए मिलते हैं और गंदे प्लास्टिक के इससे भी कम। आम तौर पर यह कचरा बीनने वाले प्लास्टिक की महीन थैलियों को कचरे से इसलिए नहीं उठाते क्योंकि इसके एक किलो के लिए उन्हें 500 से 800 थैलियां उठानी पड़ती हैं और इतनी मेहनत सबसे खस्ता से खस्ता हाल कचरा बीनने वाले को भी गैर-वाजिब लगती है।
कचरे की इस भयावह समस्या से जूझने के लिए 1996 में सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने एक राष्ट्रीय प्लास्टिक प्रबंधन समिति का गठन किया। इसकी पहली बैठक में सभापति डॉ. दिलीप विश्वास ने प्रस्ताव रखा कि प्लास्टिक उत्पादकों को प्लास्टिक वापस लेने की योजना चलायी जा सकती है, जिसके तहत प्लास्टिक की खाली थैलियों को लौटाने पर ग्राहक को कम्पनी की ओर से एक निश्चित रकम दी जाए। डॉ. विश्वास का तर्क था कि जब कांच की खाली बोतलें लौटाने के पैसे मिल सकते हैं तो इसी तरह की योजना प्लास्टिक के लिए क्यों नहीं हो चलायी जा सकती। लेकिन प्रभुताशाली प्लास्टिक उत्पादकवर्ग ने इस प्रस्ताव को एक सिरे से खारिज कर दिया। उसका कहना था कि प्लास्टिक कचरे को इकट्ठा करने की सारी जिम्मेदारी उपभोक्ता और सरकार की है। उन्होंने इस जिम्मेदारी में हिस्सेदार बनने से साफ इंकार कर दिया। सरकार भी उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहती थी। लिहाजा वस्तुस्थिति उसी तरह कायम रही। सभी पक्ष इसबात से सहमत थे कि प्लास्टिक कचरे को इकट्ठा करने का काम निजी व्यक्तियों को दिया जाता रहे और इसकी कोई जवाबदेही निर्माताओं पर न आए। निर्माताओं के प्रति सरकार की यह कमज़ोरी एक बार पहले भी सामने आ चुकी थी। प्लास्टिक के अधिकांश निर्माता मुम्बई और इसके आस-पास के इलाके में स्थित हैं। कुछ वर्ष पहले मुम्बई में जब मानसून ने कहर ढाया था और बाढ़ में कई जानें गयी थीं तो पाया गया था कि बाढ़ की प्रमुख वजह नालियों और ड्रेनेज का प्लास्टिक थैलियों से रुक जाना थी। राजनीतिक आबोहवा में बम्बई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ने प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया था, लेकिन निर्माताओं के दबाव में बी एम सी के मेयर को रातोंरात यह फैसला बदलना पड़ा था। तर्क यह दिया गया था कि जल्दबाजी में लिए गए इस फैसले से थैलियां बनाने वाले हज़ारों मजदूरों की रोटी-रोजी जाती रहेगी।
इस दुरभिसंधि से बाहर निकलने के लिए सरकार ने 2009 में जो निर्णय लिया वह भी पूरी तरह बेतुका, पर्यावरण के विरुद्ध एवं प्लास्टिक उत्पादकों के हितों की रक्षा करने वाला था। सरकार ने कहा कि चूंकि प्लास्टिक की महीन थैलियों को कचरा बीनने वाले नहीं उठाते, और चूंकि पतली थैलियों के निगलने से मवेशियों की मौत हो जाती है, इसलिए प्लास्टिक की 20 माइक्रॉन से पतली प्लास्टिक शीटों पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। इस प्रतिबंध से एक तरफ जहां प्लास्टिक उत्पादकों का प्रोडक्शन बढ़ा, वहीं दूसरी ओर प्लास्टिक कचरे की मात्रा भी बढ़ गयी। कचरा बीनने वाले अब भी इन थैलियों को उठाने से कतराते रहे और पानी में पैक गुटके और दूसरे सामान के पाउच को तो छूने का तो सवाल पहले भी नहीं था, जबकि कचरे में सबसे अधिक मात्रा इन्हीं थैलियों और पाउचों की होती है। इन सारी कठिनाइयों के चलते फरवरी 2011 में एक नया प्लास्टिक उत्पादन, उपयोग एवं कचरा प्रबंधन नियम (2011) लागू किया गया जिसमें प्लास्टिक थैलियों में इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टिक की न्यूनतम मोटाई बढ़ाकर 40 माइक्रॉन करने का प्रावधान है। यही नहीं इसमें गुटका की छोटी थैलियों में प्लास्टिक का प्रयोग वर्जित कर दिया गया है। पर्यावरण की दृष्टि से ये सही कदम हैं, लेकिन इनका कार्यान्वयन आज भी एक समस्या है क्योंकि न तो 40 माईकॉन से पतली शीट से बनी थैलियां बाज़ार से गयी हैं और न ही गुटका के पाउच में प्लास्टिक का प्रयोग बंद हुआ है।
देश के पर्यटक स्थलों और पहाड़ों में छुट्टियों के दौरान वहीं की जनसंख्या बेतरह बढ़ जाती है। पर्यटकों की भीड़ अपने साथ कचरे की एक बाढ़ भी लाती है। इसी से निपटने के लिए हिमाचल और कुछ अन्य राज्य सरकारों ने प्लास्टिक की पैकेजिंग पर प्रतिबंध लगा दिया है। वहां के बाज़ारों से खरीदा सारा सामान आपको जूट के थैलों या अखबार के कागज़ में लिपटा मिलेगा। लेकिन चूंकि यह प्रतिबंध बाहर से जाने वाले प्लास्टिक में पैक सामान और पानी की बोतलें पर लागू नहीं होता, इसलिए पर्यावरण और कचरे के प्रबंधन पर इसका बहुत कम असर पड़ा है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस समस्या से जूझने के लिए प्लास्टिक थैलियों पर आंशिक या पूर्ण प्रतिबंध लगाना और इस्तेमाल की गयी थैलियों के प्रबंधन में उत्पादकों की साझीदारी होना बेहद जरूरी है। जिस रफ्तार से प्लास्टिक सामान की खपत और उसका उत्पादन बढ़ रहा है और जिस गति से इस देश की जनसंख्या में वृद्धि हो रही है उसे देखते हुए यदि जल्द-से-जल्द राष्ट्रीय स्तर पर कठोर नियम न अपनाए गए तो यह समस्या हमारी और हमारी आने वाली पीढिय़ों के लिए एक भयानक अभिशाप बन सकती है।
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आज के उपभोक्तावादी युग में जो बातें पार्थिक कचरे और अति उत्पादन से फालतू होते चले सामान पर लागू होती हैं लगभग उन्हीं को हम आज के आई टी युग में बौद्धिक जानकारी की बहुलता और उसके इकहरेपन में भी महसूस कर सकते हैं। सूचना और अति-सूचना का यह बेअंत अम्बार एक अलग तरह के बौद्धिक कचरे और जड़ता को जन्म दे रहा है जिसे गोपालकृष्ण गांधी अखबार के पन्नों से नीचे गिरने वाली विज्ञापन की पैफंलेट के रूप में देखते हैं, तो कुछ अन्य लोग मीडिया के तीखे 'डेसिबल' साम्राज्य से शिकायत दर्ज करते हैं। पिछले आम चुनावों में मोबाइल फोनों और मीडिया चैनलों ने व्यक्ति की स्वतंत्रता और इसके अतिक्रमण की सारी लक्ष्मण रेखाएं लांघ डाली थी। छपे हुए शब्दों का संसार भी बौद्धिक कचरे के इस चौतरफा प्रकोप से अछूता नहीं रहा है। देखा जाए तो छपे हुए शब्द से पाठक के लगातार विमुख होते चले जाने से बौद्धिक कचरे की बाढ़ का भी बड़ा हाथ रहा है। रही-सही कसर मीडिया के 'पढ़ो-सुनो-देखो-और भूल जाओ' के रवैये ने पूरी कर दी है। बहसों, सम्मानों और पुरस्कारों को प्रायोजित करने और प्रशस्तियां गढऩे में हिंदी जगत को महारत हासिल है। पत्रिकाओं में अधिकांश रचनाएं छपने की सीमित आकांक्षा के साथ पृष्ठों में इजाफा करती हैं और अधिकांश चर्चाओं का प्रमुख उद्देश्य भी किसी सार्थक सोच तैयार करने की जगह यथास्थिति में इजाफा करना ही होता है। परिमाण की दृष्टि से हमने चाहे जितनी तरक्की कर ली हो, गुणवत्ता और सार्थकता के मामले में आज भी हम पुराने युग से आगे नहीं निकल पाए हैं। इवान क्लीमा कहते हैं—
''हमारी सभ्यता त्वरण के जिस अहसास से इन दिनों गुजर रही है, जानकारी और सूचना का जो अपरिमित अंबार हमारे इर्द-गिर्द गूंजने लगा है, उसके साथ ही यह खतरा भी जन्म ले रहा है कि अंतत: हम इसी के खालीपन में डूबकर रह जाएंगे। खालीपन, जो हमें अपनी जड़ों से विलग कर समय और अस्तित्वहीनता के शून्य में धकेल देगा। यह खतरा समूचे साहित्य और सारी कला विधाओं के साथ भी है।... सब यह है कि हमारे समय की सत्ताओं ने परंपरा, पारंपरिक मूल्यों को आरोपित करने का षड्यंत्र रचा है... और आज की कूड़े की उस बाढ़ के बारे में क्या कहा जाए जो आए दिन पाठक और दर्शक को प्लावित और सराबोर करती है।... आजकल हर दूसरे क्षण एक नई किताब वजूद में आ जाती है। इनमें से अधिकांश उसी शोर का हिस्सा होती हैं, जिसकी वजह से हमें सुनाई देना बंद हो गया है। तो इस तरह किताब भी विस्मृति फैलाने का एक और उपकरण बनती जा रही है...''
क्लीमा के इन वाक्यों को हम आज के टेकनॉलॉजिकल विकास या कि सूचना विस्फोट का 'ऐंटीडोट' या कि आने वाले खतरे का संकेत-चिन्ह मान सकते हैं।
व्यावसायिक उत्पादों की बहुलता और आज के कचरा उगलने वाले ज्वालामुखी की तरह जानकारी एवं विचारों की अति-उत्पादकता भी हमारी सोच को लगातार भोंथरा और जड़ बनाती जा रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण आज के सैकड़ों टी वी चैनल हैं जहां जानकारी का बहुत सारा कचरा और उथला सामान अपनी समूची अतिरंजना के साथ हमें ढेरों-ढेर बिखरा दिखाई दे जाएगा। प्रकाशन जगत की स्थिति भी इससे बहुत भिन्न नहीं है। पत्रिकाओं, समाचार पत्रों एवं किताबों में जगह पाने वाली अधिकांश रचनाएं आज प्रिंट मीडिया में अपने-आपको खपा देने की सीमित महत्वाकांक्षा के साथ उसी 'शोर' का हिस्सा होती हैं, जिसका ज़िक्र इवान क्लीमा ने किया है। अति-उत्पादन के इस युग में हम बाकी अभ्यासों के साथ-साथ 'उपभोग के व्यभिचार' का भी शिकार होते जा रहे हैं।
इवान कलीमा की ही 1991 में लिखी गयी एक छोटी सी टिप्पणी के अंश पर गौर करें तो कचरा उगलने वाली इस सभ्यता के संकट से जुड़े कुछ और सवाल मुखर रूप से सामने आ जाएंगे—
''बस पकडऩे के लिए हर रोज़ मुझे एक लावारिस अहाते से होकर गुज़रना पड़ता है। किसी वक्त यहां एक बगीचा होता था। अहाता जिस मकान में शामिल था, वह काफी पहले ढक चुका है। अब पेड़ों और झाडिय़ों के बीच से एक सुनिश्चित पगडंडी कायम हो चुकी है। कई वर्षों पहले यह हिस्सा मेरे पैदल रास्ते का सबसे खुशनुमा मंज़र हुआ करता था। फिर एक दिन इस घास पर कोई प्लास्टिक की बोतल फेंककर चला गया। किसी और ने ठोकर मारकर इसमें बियर के कैन का इजाफा कर डाला। तब कोई तीसरा यहां पूरी बाल्टी भर कचरा उलटाकर चलता बना। मैंने गौर किया कि अपने अवचेतन में अब मैं इस अहाते से बचकर निकलने की कोशिश करने लगा हूं। एक ज़माने का वह बगीचा अब कबाड़ और कचरे के कब्रिस्तान में तब्दील हो चुका है।
कचरे को मैं अपने वक्त की एक गंभीर समस्या के रूप में देखता हूं। समस्या, जो एक तरह से हमारे वक्त का रूपक बन चुकी है। बहुत पहले, अपने एक उपन्यास का मसौदा तैयार करते समय मैंने सड़क पर झाडू लगाने वाले का काम किया था। मेरे शहर में कचरे को लेकर लगातार एक कश्मकश चलती रहती है। जिस बड़े ढेर में अधिकांश कचरा इकट्ठा होता है, वहां अब और जगह बाकी नहीं रही है और कोई भी एक नयी जगह तय करने की जहमत नहीं उठाना चाहता। अब वहां आग लगाने के लिए एक भट्टी बनायी जा रही है, लेकिन यह इलाका बस्ती के बीचोंबीच है और यहां के बाशिंदे शिकायत दर्ज कर रहे हैं कि उनका पहले से बेतरह प्रदूषत इलाका अब कचरे से उठते धुंए और राख की ज़्यादती झेलने पर भी मजबूर हो रहा है। उनकी जगह मैं होता तो शायद मेरी भी यही प्रतिक्रिया होती। भट्ठी सिर्फ अंजाम से उलझ सकती है, उसका मूल समस्या के समाधान से कोई लेना देना नहीं होता।
देखा जाए तो आज हम अति-उत्पादन के जिस युग में जी रहे हैं, वहां कोई वस्तु जिस क्षण उत्पादित होती है, उसी क्षण वह संभावित कचरे की शक्ल इख्तियार कर चुकी होती है। ऐसा पहले भी होता था, लेकिन पहले और आज के वक्त में उत्पादन की मिकदार में भयानक परिवर्तन हो गया है। पहले पत्थर की चक्की शताब्दी भर तक चल जाती थी और काठ का बेलन कई पीढिय़ों तक काम में आता था। आदमी के पास काम करने के लिए चप्पलों की एक जोड़ी होती थी। और इंसान अगर पूरी तरह फक्कड़ न हुआ तो जूतों की एक जोड़ी वह रविवार को चर्च में पहनने के लिए संभालकर रखता था। जूते उसकी आदतों का एक हिस्सा बनकर सालों-साल चलते थे। और आखिरकार जब वे पूरी तरह घिस जाते तो मोची उनके बदले एक नया जोड़ा सिल देता था। उसकी घिसने की प्रक्रिया उनके इस्तेमाल के लंबे सिलसिले का स्वाभाविक नतीजा होती। लेकिन आज?
आज हम हद दर्जे के फिजूलखर्च और पागलपन की हद तक बहुतायत के अंध पुजारी बन चुके है। चीज़ों के घिस चुकने से पहले ही हम उनसे उकता जाते हैं और हमारी इस मांग के अनुरूप चीज़ें भी अब पहले के मुकाबले काफी कम चलने लगी हैं। और यदि हम उकताते नहीं, तब भीहमें पता होता है कि खरीदने के कुछ ही महीनों में ये चीज़ों फैशन से बाहर चली जाएंगी। मैं सोचता हूं कि कचरे के समंदर में डूब चुकने से पहले हमारे बीच क्या कोई ऐसा इंसान भी होगा, पूरी तरह अधाया हुआ, जो इन सारी चीज़ों से असंपृक्त, फैशन की इस तानाशाही और चमकदार आकारों एवं रंगों के सम्मोहन के प्रतिरोध में सीधा खड़ा होकर हमें फिर से वस्तुओं की गुणवत्ता की ओर लौटा सकेगा, ताकि विनम्रता एवं संयम की ओर हमारी यात्रा फिर से शुरू हो सके।
यह बात जितनी पार्थिव चीजों के बारे में सही है, उतनी ही यह इंसान की बौद्धिकता एवं उसके ज•बे पर भी लागू होती है। उत्पादों की बहुलता की तरह जानकारी एवं विचारों की अति-उत्पादकता भी हमें गुणवत्ता की जगह मिकदार एवं परिमाण की स्थूलता की ओर धकेल रही है।
हमारे पूर्वज सिर्फ बाइबिल, रामायण या गिनी-चुनी किताबों से काम चला लेते थे। लेकिन इन किताबों को वे न सिर्फ पढ़ते थे, बल्कि याद भी करते थे। टी वी का अस्तित्व नहीं था और अखबारों में भी इश्तहारों की बाढ़ से अछूते सिर्फ कुछ ही पन्ने होते ते, जिसके परिणामस्वरूप लोगों के पास चीज़ों पर विचार करने, स मझने एवं प्रकृति को साधने के लिए •यादा वक्त होता था। और इन्हीं में से कुछ लोग ऐसे भी होते थे जो जीवन के दृष्टिकोण को समेटने और बाद में उसपर पालन करने में सफल हो जाते थे। लेकिन आज?
आज हम सूचना के ऐसे प्रलय से अभिशप्त हैं जिसमें हमारे अधिकांश विचार जन्म लेने के साथ ही बृहत्तर कचरे का हिस्सा बन जाते हैं। मैं बहुत आतंकित होकर देखने लगा हूं कि एक ज़माने के उस बगीचे के बीच से चलते समय अब लोगों को इस बात का भी अहसास नहीं होता कि हकीकत में वे फूलों की क्यारी से होकर नहीं बल्कि कचरे के ढेर के बीचोंबीच चल रहे हैं।''
क्लीमा की इस टिप्पणी से आगे शायद कचरे के आध्यात्म को लेकर कुछ भी कहना शेष नहीं रह जाता। क्लीमा के शब्दों की प्रतिध्वनि को यदि गोपालकृष्ण गांधी की बात से जोड़ दिया जाए तो—

''समुद्र में आठ हाथों वाला एक जीव रहता है, जिसका नाम है — ऑक्टोपस! आज हमारा नित नया फल-फूलता बाज़ार इस ऑक्टोपस जैसा ही हो गया है। इसलिए उससे पूछा जाना चाहिए कि अरे ऑक्टोपस, तुम जिस समुद्र में रहते हो, यदि उसमें रोज़-रोज़ ज़हर घुलता जाए, प्रदूषण होता जाए और फिर एक दिन वह सूख भी जाए तो क्या तुम्हारे ये आठ हाथ तुम्हें बचा पाएंगे?''


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