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सितम्बर 2014

संपादकीय

संपादक





कुछ पंक्तियां



'पहल' के इस अंक में यूं तो काफी महत्वपूर्ण सामग्री है जिसका उल्लेख इस जगह होना चाहिये था लेकिन प्रियंवद का 'पहल विशेष' के लिए लिखा गया दस्तावेज कुछ खास तवज्जो की मांग करता है। जिस जटिल सामाजिक संरचना के साथ भारतीय समाज जीता आया है, उसमें इस तरह के हस्तक्षेप और उनसे उपजने वाली बहसें हमेशा जरूरी रही हैं। खासकर तब, जबकि संरचना की नींव पर ही सीधे-सीधे सांघातिक हमले हो रहे हों।
प्रियंवद ने एक मुद्दा उठाया है 'दूसरा पाकिस्तान' वाली मानसिकता का। यह ऐसी जहरीली मानसिकता है जिससे 'पहला पाकिस्तान' जन्मा है। समाज के इस वर्ग के लिए जो देश को 'हिंदू राष्ट्र' मानकर मुसलमान को 'पाकिस्तानी' मानता हैं, अपनी एक शातिर और सधी हुई योजना के तहत समाज के एक बड़े तबके की मानसिकता में एक घातक बेक्टरिया की तरह फैल चुका है और बचे हुए समाज तक उसे पहुंचाने की मुहिम में आज भी लगा हुआ है।
यह एक अजीब त्रासदी है कि जिस जगह एक साथ कई मुस्लिम घर हों या कहें कोई भी मुस्लिम बस्ती हो, उसे फौरन 'मिनी पाकिस्तान' या फिर ऐसे ही किसी लकब से नवाज़ दिया जाता है लेकिन हिन्दू बहुल इलाकों को 'मिनी हिंदुस्तान' कभी नहीं कहा जाता।
1992 के दशहतनाक दंगों के बाद यह विभाजन और गहराया है। दंगाग्रस्त शहरों में हिंदू-मुस्लिम आबादी सुरक्षा की तलाश में इतनी बड़ी तादाद में इधर से उधर हुई कि समाज का परंपरागत कम्पोज़िट कल्चर वाला ढांचा अपना संतुलन खो बैठा। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि बार-बार के आघात सहकर उबरना और अपने मूल रूप में फिर-फिर कायम-दायम हो जाना हमारे इस ढांचे की खूबी है। यही वजह है कि सांप्रदायिक राजनीति से जन्मे संगठनों को बार-बार 'दूसरा पाकिस्तान' का हौवा खड़ा करना पड़ता है।
इस तरह के दुष्प्रचार का असर अकेले हिंदू नहीं लेकिन मुसलमान की सोच पर भी पड़ता है। ऐसा नहीं है कि इस तरह के सामाजिक सौहाद्र्र को आघात पहुंचाने वाले तत्व अकेले हिंदू राजनीति में ही हैं, मुस्लिम समाज में भी इसी तरह के तत्व हमेशा सक्रिय रहे हैं, जो अपनी कथनी और करनी से अपने हिंदू जोड़ीदारों की राजनीति को पु$ख्ता करते हैं। यह कारनामा असुरक्षा की मानसिकता से घिरे मुसलमान को आकर्षित भी करता है। आक्रामकता हमेशा से बचाव का सबसे बड़ा हथियार माना जाता रहा है। कोई ताजुब नहीं कि ज़माने से चले आ रहे इस विश्वास-अविश्वास के संघर्ष में अल्पमत समाज ने भी इन्हीं तीखे तेवरों वाली भाषा का अक्सर सहारा लिया है। इस स्थिति की विडंबना यह है कि आत्म-रक्षा के लिए अपनाए गए इन तीखे तेवरों को ही हिंदू राजनीति ने अपने तर्क का आधार बना लिया है।
इस संदर्भ में एक बेहद जरूरी सवाल है जो कभी विल्फ्रेड सी स्मिथ और एम. मुजीब जैसे विद्वानों ने उठाया है और उसकी खासी पड़ताल भी की है। यह सवाल है कि आखिर यह हिन्दुस्तानी मुसलमान है कौन? मुझे निजी तौर पर बचपन से ही सुनी हुई कुछ बातें अब तक याद हैं। इनमें से एक बात यह है कि हिंदुस्तानी मुसलमान असल में वे हिंदू हैं जिन्हें पीढिय़ों पहले जबरिया तरीके से हिंदू से मुसलमान बनाया गया है। हिंदू परिवारों में यह बात बहुत प्रचलित थी कि औरंगजेब ने तो बाकायदा एक मुहिम चलाकर लाखों हिंदुओं का धर्म परिवर्तन करवाया। इसी के साथ यह भी बताया जाता था कि औरंगजेब जब तक हर रोज एक मन जनेऊ तुलवा नहीं लेता था तब तक अन्न ग्रहण नहीं करता था।
यही वो विश्वास और यही वो अपेक्षा है जिसके चलते आज भी कृष्ण जन्माष्टमी पर एक मुस्लिम महिला के साथ उसकी उंगली पकड़कर चलता हुआ कृष्ण रूप धारी बालक फेस बुक पर हजारों 'लाईक्स' पा लेता है। दशहरे पर रावण का पुतला बनाने वाले मुस्लिम कलाकार की फोटो अखबारों में खबर के साथ छप जाती है। गांव में राम-राम का जवाब राम-राम से देने वाले मुसलमानों को बहसों में नज़ीर की तरह पेश किया जाता है। यह मानसिकता असल में मुसलमान में पीढिय़ों पहले वाला हिंदू ढूंढकर खुश होने वाली मानसिकता है।
इन्हीं विकृतियों का नतीजा है कि पाबंदी से पांच वक्त की नमाज़ पढऩे वाला मुसलमान या फिर दाढ़ी बढ़ाने वाला मुसलमान हिंदुओं के एक तबक्के के लिए ज़हर है। ठीक उसी तरह तिलकधारी हिंदू भी अपनी धार्मिकता से ज़्यादा कट्टरता की निशानी बन गया है। वह वक्त बहुत पुराना नहीं हुआ है जब इन्हीं लोगों को बड़ी इज्जत की निगाह से देखा जाता था और उन्हें आम इंसानों से बेहतर समझा जाता था।
इन दो चेहरों के बरअक्स आज हिंदुओं को गाली देने वाला हिंदू और मुसलमान को कोसने वाला मुसलमान सिक्यूलर होने के तमगे का हकदार हो जाता है। इस भीड़ में इतनी बड़ी तादाद में राजनीति के शातिर खिलाड़ी शामिल हो गए हैं कि इंसानी रिश्तों को मज़हब से ऊपर रखने वाले सच्चे और सादिक जबे वाले लोग भी परेशान हैं।
देश के ताज़ा राजनीतिक घटनाक्रम के बाद आए बदलाव के बाद यह बेहद ज़रूरी हो गया है कि समाज के सोचने-समझने वाले वर्ग जिसने बुद्धिजीवी होने का रुतबा हथिया रखा है, वह पूरी ईमानदारी से इन हालत पर गौरो-फिक्र करे कि आखिर वह समाज को सच दिखाने और समझाने में नाकाम क्यों है? और यह भी कि क्यों जांघें उघाड़े घूमता लठधारी, समाज को भ्रमित करने में इस कदर कामयाब है?
प्रियंवद ने एक और बड़ी गौर-तलब बात उठाई है, जिस पर पहले मुद्दे की ही तरह कई बड़ी बहसें हो चुकी हैं। इस हकीकत के बावजूद आज भी यह काबिले-बहस मुद्दा है। इसकी वजह हिंदी समाज द्वारा सच को स्वीकार करने की बजाय रेत में मुंडी घुसेड़ लेने वाली अदा है। यह बात है उर्दू शायरी बनाम हिंदी कविता की। वे कहते हैं - मैं अपने कवि मित्रों को अक्सर यह कहकर नाराज कर देता हूं कि जिसने भी एक बार उर्दू शायरी पढ़ ली उसे कभी हिंदी कविता अच्छी नहीं लगती।
इस एक मुद्दे में एक उससे भी बड़ा अहम और जरूरी मुद्दा छुपा हुआ है। मुद्दा उर्दू और हिंदी भाषा का। इस मुद्दे पर दो-चार जुमले या फिर दो-चार पन्ने की बात बेहद नाकाफी और बेमानी होगी। लिहाजा आने वाले दिनों में 'पहल' में एक शोध-आधारित लंबी बहस शुरु करने का इरादा है। यहां फिर इस बात को दोहराऊंगा कि इसका अर्थ कदापि यह नहीं कि इस विषय पर पहले बहसें नहीं हुई हैं। हुई हैं, और खूब हुई हैं। किताबें लिखी गई हैं। किताबें पढ़ी गई हैं लेकिन ऐसे बड़े मुद्दे कुछ बरस की बहसों और कुछ शोध के आधार के बाद खत्म नहीं बल्कि शुरू होती है, इसलिए यह बेहद जरूरी है कि इस मसले पर बहस जारी रखी जाए।
- राजकुमार केसवानी


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