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जून 2014

गरम कोट के भीतर चुटकी भर हरियाली

अजेय

डायरी



जुलाई 2, 2008 : बाबा कबीर
ऑफिस में वृद्ध गवैयों का एक जोड़ा आया है। वे 'भोपा' हैं। पुरुष के हाथ में जो साज़ है उसका नाम है 'रौणता' - यानि रावण हत्था। इसकी धुन बहुत मधुर है। गीत सीधे कलेजे में उतर जाते हैं। ये लोग राजस्थानी भील हैं। पेशेवर गायक।

अंबर से इक खाट उतरी उस के चार पईया
जिस में बैठ चलो रे भईया
अपण जाणा थोड़ी दूर है
हरी का नाम ले ले भईया
तेरी क्या जीभ घसती है

भील जन गायन के पेशे में कब गए होंगे? इसकी कोई रोचक कथा होगी इन गरीबों को इस इतिहास की खबर नहीं है।
भौत पेले से गा रहे हैं।
पाण्डुओं के टैम से?
हाँ शुरू से ही गा रहे हैं। हमारा काम है।

ये लोग निर्गुणिया हैं, मुख्यत: कबीर को गाते हैं। कभी कभी रामानन्द को भी 'केलम दे' (केलम बाई) इनकी ईष्ठ है। एक भजन में आछल-बाछल नामक चरित्रों का ज़िक्ऱ भी आया जो मैंने नाथ साहित्य में भी पढ़ा है और लाहुल की घुरे लोकगाथाओं में भी सुना है। स्त्री के हाथ में दान पात्र है जिस में शिव की तसवीर है। दिन भर गलियों में घूमते गाते हैं, शाम तक पेट का जुगाड़ हो जाता है। कुछ फालतू भी कमा लेते हैं। घर से चले हुए महीनों हो गए हैं। राजस्थान में गर्मी पड़ रही है। इधर पहाड़ पर सुकून है। माँ बाप; बेटा बेटी - चार जन हैं। अलग अलग टोलियों में घूम रहे हैं। लद्दाख तक जाना चाहते हैं। कारगिल-श्रीनगर-जम्मू-पंजाब होकर लौटने का प्लान है। मैंने मज़ाक मज़ाक में कहा - ठीक है, केलंग से आगे बुद्ध की तसवीर रखना और लद्दाख से आगे किसी मुस्लिम पीर की। जम्मू से मां की भेंटे गाते हुए निकलना और आगे पंजाब में शबद साहब गुरबानी... दोनों सहज ही मान गए। कोई बात नहीं हुकुम, हमारे तैंतीस करोड़ भगवान हैं। मैं हँसा - क्या तुम बुद्ध के भजन भी गा पाओगे? और नातिया कलाम गा सकते हो? वे एक दूसरे को देखने लगे। खैर, हमने हर भजन पर उन्हें दस दस का एक नोट दिया है। आधा घंटे में वे मेरे दफ्तर से कुछ एक सौ सत्तर रुपये कमा ले गए हैं। बाद में अपने उस मज़ाक पर पछतावा सा हुआ। मैंने नीयतन ऐसा नहीं कहा था फिर भी वे आहत हुए होंगे। मैंने तो उस मानसिकता पर तंज़ किया था जिसे अग्निशेखर तुष्टिकरण की राजनीति कहता है... सदियों से बाबा कबीर की वाणी में रमे हुए इन आदिम गायकों को क्या पता कि सत्ताएं धर्म के नाम पर उनसे क्या क्या अधर्म करवातीं रहीं हैं? लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की और हाथजोड़ कर चलते बने। उनके पूर्वजों ने भी इसी तरह कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं की होगी। मैंने इन गायकों को शुभ कामनाएं दीं और उनके पुरखों के प्रति भावुक हुआ। बाबा कबीर को धन्यवाद किया कि ऐसे समय में भी लोग उन्हें गाकर आजीविका कमा रहे हैं।
मुझे याद आया मेरी नानी 'ड्रेकर' (तिब्बती स्ट्रीट सिंगर्ज़) और 'अचि लामो' (तिब्बती ऑपेरा टोलियाँ) लोगों के बारे सुनाया करती थीं। ये तीर्थ यात्रा के लिए लाहुल आते थे। भ्यार (त्रिलोकीनाथ भगवान)तक जाते थे गाँव-गाँव में परफॉर्म करते हुए। इस तरह अपनी यात्रा का खर्चा भाड़ा बना लिया करते थे। नानी को कुछ सुन्दर 'ड्रेकर' कविताएं याद थीं। हम बड़े चाव से उन्हें सुनते। जब मैं संत कवि मिलारेपा का अनुवाद कर रहा था तो एक कविता से सामना हुआ ''सोठे का गीत''। मेरे लिए यह जानना बेहद रोमाँच का विषय था कि यह लाठी की प्रशंसा में कही गई शब्दश: वही ड्रेकर कविता थी जो नानी अक्सर सुनाया करती थीं।
पुराने दिनों में संस्कृतियाँ ऐसे ही ट्रेवल करतीं थीं.. साहित्य इसी तरह आमज़न तक पहुँचता था। अद्भुत! दरअसल आज भी लोक संस्कृतियाँ कमोवेश ऐसे ही यात्रा करती हैं। इन्हीं आम आदमियों के माध्यम से अत्यंत साधारण तरीके से। और हमने संस्कृति के संरक्षण सम्वर्धन के लिए मोटी मोटी चमकीली संस्थाएं बना रक्खी हैं। भारी भरकम संगठन, और संघ बना रखें हैं। ये क्या करते हैं? बस इन लोक माध्यमों का काम हाईजेक करते हैं।

4 जुलाई 2008, बाबा नामवर सिंह : पॉएटिक्स और पॉलिटिक्स

परिकथा मई जून 2008 अंक में नामवर सिंह का लम्बा साक्षात्कार पढ़ा। मार्क्स को जितना समझा है, उन्हीं की मार्फत। नामवर जी अपने हर व्याख्यान में, हर साक्षात्कार में थोड़ा सा खुल जाते हैं मेरे लिए। हर बार मार्क्स के थोड़ा और करीब पहुँच जाता हूँ मैं। हर बार कुछ मेरे समझने की शक्ति बढ़ जाती है, कुछ उनके समझाने की क्षमता। क्योंकि नामवर जी खुद भी मानते हैं कि सम्वाद वस्तुत: दो तरफा मामला होता है। असल मुद्दा है चीज़ों को ठीक से देख पाना। देख पाने के लिए बुद्ध ने कहा था - अप्प दीपोभव। लेकिन मुझे तो गुरु चाहिए। जो दिखा सके। महाकवि मिलारेपा ने गुरू की महिमा गाई। नानक ने, कबीर ने, सूफियों ने सब संतों ने गुरू को माना। हर कोई बुद्ध थोड़े ही हो पाता है?
नामवर जी को पिछड़े हुए इलाकों/समाजों की प्रगतिवादी चेतना पर यकीन है। कहते हैं, ज़रूरी नहीं कि प्रगतिवाद पूँजीवादी समाज के रास्ते ही आएगा। गांव देहात में सीधे भी आ सकता है। वे मार्क्स को कोट करते हैं - 'मार्क्स ने कहा है कि आ सकता है'। और क्रांति बम-पिस्तौल से ही नहीं आती। हालांकि बरबर राव के प्रति उनमें गहरा सम्मान है। नक्सली चेतना के कायल हैं वे। इस साक्षात्कार में वे कह रहे हैं कि पिछड़े हुए इला$कों से चकित कर देनी वाली रचनाएं आ रहीं हैं। और बहुत ही स्तरीय पत्रिकाएं वहां से लोग निकाल रहे हैं। नामवर जी कैलाश वनवासी की कहानी का ज़िक्र करते हैं, फिर नीलाक्षी सिंह की कहानी और स्नोवा बॉर्नो की कहानी - 'मुझे घर तक छोड़ आईये'। इस कहानी की जमकर तारीफ की है। वनवासी की एक कहानी मैंने बहुत पहले पढ़ी है और पढ़कर उसे लम्बा पत्र लिखा था। नीलाक्षी सिंह भी चर्चित हैं पर जब उसने लिखना शुरू किया मैंने कहानियों की पत्रिकाएं पढऩी बन्द कर दी थीं, इस तरह से कहानियाँ भी छूट सी गईं। नीलाक्षी को नहीं पढ़ा है। लेकिन स्नोवा बॉर्नो के बारे मैं जानता हूँ। और उसे छपने से पहले भी खूब पढ़ा है। बल्कि हमने असिक्री में उसे छापा भी है। सैन्नी अशेष की कथित मानसपुत्री। अशेष तुम महान हो। मुझे वे लम्बे लम्बे प्राईवेट पत्र याद आते हैं जो साहित्यकारों ने स्नोवा को लिखे हैं। इन पत्रों को देखकर मैं भी महान हो गया। लेकिन इस इंटव्र्यू को पढ़कर कहने का मन करता है - नामवर जी, आप भी?
संयोग से परिकथा के इसी अंक में राकेश रंजन सिंह की कविता है - अभी अभी जन्मा है कवि। नामवर जी को उसका छन्द विधान मुग्ध कर दे रहा है। इस साक्षात्कार में वामपंथियों को सीखने के लिए बहुत कुछ है। संस्कृति से ले कर राजनीति तक। एस्थेटिक्स से लेकर विचारधारा तक। नामवर सिंह हिन्दी साहित्य के आखिरी रहस्यदर्शी संत हैं। उनकी उक्तियाँ ज़ेन साधकों की सी होती हैं। विरोध से भरी, रहस्य पूर्ण! सच को तो खैर पाठक स्वयम ही खोजता है पर नामवर जी को पढऩे का जो आनन्द है वह अन्यत्र नहीं। और इसी आनन्द के चलते मुझे उनकी बातें बेहद पसन्द हैं। यह बात दीगर है कि मुझ जैसे बहुत से लोग उनकी बातों को उस तरह से नहीं समझ पाते जिस तरह से उन्होंने समझाना चाहा... और उन्हें अपने 'न समझे जाने पर' ताउम्र दुख होता रहेगा।

सितम्बर 20, 2008

सुबह के 6.00 बजे हैं। बरफबारी जारी है। खिड़की खोलकर बाहर देखता हूं। रात को रुक गई होगी। क्योंकि अभी केवल आधा फुट ही है। कल से लगातार हो रही होती तो अब तक दो फीट से ज़्यादा हो जाता। बहुत भारी और गीली है बरफ है। ब्यूँस की टहनियाँ दर्द भरी आवाज़ों के साथ चटख रहीं हैं। सविता तो लम्बे समय के लिए फँस गई। महामहिम करमापा ने लेह से आना था। जिस्पा में राजकीय तय्यारियाँ हो रही थीं। त्सेरिंग ल्हार्जे भी सवारी ले कर लद्दाख गया हुआ है, सब रास्ते में फँस गए होंगे हिज़ होलिनेस लोग। तङ्लङ ला और बरलचा में डेढ़ दो फीट से •यादा बरफ गिर गई होगी। मोबाईल देखता हूँ, सिग्नल नहीं है। लेंड लाईन में भी टोन नहीं। बिजली गुल। बाहर नल में कोई आवाज़ नहीं। मौत की सी खामोशी है। बीच बीच में कोई पेड़ चटकता है तो सन्नाटा टूटता है। नदी पार कारदंग की ढलानों पर टूटती शाखों की आवाज़ यहाँ तक आ रही है। इमरजेंसी लाईट में चार्ज चुक गया है। एल पी जी से जलने वाला मेंटल जलाता हूँ। उसमें प्रकाश भी है और ताप भी। बैठकर लीलाधर जगूड़ी की एक कविता पढ़ता हूँ। मज़ा नहीं आ रहा। फिर व्यामेश शुक्ल। अरुण कमल, राजेश जोशी, नागार्जुन... सब एक से लगते हैं। जबकि कितनी अलग अलग हैं इनकी कविताएं। मेरी संवेदनाएं तुम्हारी संवेदनाओं से 'मैच' नहीं करती! बेचैनी बढ़ रही है। गरम कपड़े और टोपी पहन कर बाहर निकलता हूं। पिछवाड़े में एक बीस मीटर लम्बा पोपलर बीच से टूट कर गिरा पड़ा है। इसी से केबल, फोनलाईन, पानी की पाईप सब कुछ टूटा होगा। बिजली की तार भी।
बड़ी मशक्कत से पाईप जोड़ता हूँ। हाथ अकड़ गए हैं। शुक्र है पानी की मेन सप्लाई अभी चालू है। जल्दी से बाल्टियाँ भर लूँ। ज़्यादा देर तक नहीं चलने वाला यह नल। हाथों के साथ जिस्म भी ठण्डा हो रहा है। चार बाल्टियाँ ढोने के बाद चुपचाप रज़ाई में दुबक जाता हूँ। माँ की याद आती है। ऐसे मौके पर वो गरमागरम चाय या सूप बनाकर रखतीं थीं। अभी तो हिम्मत नहीं हो रही है, लेकिन थोड़ी देर बाद उठूँगा और ज़रूर चाय या सूप बना कर पियूँगा। मां खुश हो जाएगी। आखिर कहीं तो वह है ही, लगातार मुझ पर नज़र रक्खे हुए! और कहीं नहीं तो मेरी यादों में तो है ही। ज़िन्दा...

सितम्बर 24, 2008 : एक दिन टूट जाएगा पहाड़

एक बार फिर से मोहन साहिल का संग्रह पढ़ डाला। निस्सन्देह वह अच्छा कवि है। ज़मीन से जुड़ा हुआ और अपने प्रति ईमानदार। आत्मुग्धता से दूर और अपने बारे में तमाम मुगालतों से दूर। उसके पास अनुभवों का एक जीवंत और संघर्षपूर्ण संसार है। हिमाचल की युवा कविता में सुरेश सेन निशांत और मोहन साहिल दो ऐसे नाम हैं जिनमें पहाड़ के सपनों और संघर्षों को बहुत गहराई से पकडऩे की ज़िद है। यह अलग बात है कि दोनों एक दम अलग अलग तरीके से अपनी दृष्टि विकसित कर रहे हैं। मैं इन दोनों की कविताई को बहुत बारीक से फॉलो करता रहा हूँ। हम सब ने मिलकर हिमाचल में कविता का जो अनगढ़ सा चेहरा बनाया है। कभी वह हास्यास्पद लगता है; और कभी बेहद आत्मीय। ऐसा भी नहीं कह सकता है कि इस संग्रह में साहिल की बेहतरीन कविताएं हैं। साहिल को अभी कुछ ऐसा लिखना है जिससे उसकी अपनी एक पहचान बने। बाहर की पत्रिकाओं में अपनी कविताएं भेजनी चाहिए। एक बड़ा पाठक वर्ग कवि को निखारता है। खासकर के आम पाठक की पूर्वग्रह रहित छोटी छोटी त्वरित टिप्पणियाँ आपको अद्भुत प्रेरणाएं दे जाती हैं। हिमाचल में अभी तक गम्भीर कविता का आम पाठक नहीं तैयार हुआ है... हिन्दी में ही कहाँ हुआ है? हम कवियों की बद$िकस्मती! या कमज़ोरी?
''प्रतिष्ठित'' साहित्यकार चाहकर भी प्रेरक टिप्पणियाँ नहीं दे पाते। एकदम आत्मीय कवि मित्र तो कतई नहीं। उनकी नज़र कमज़ोरियों पर ही अधिक टिकती है। लेकिन इधर काव्य चर्चा और साहित्यिक अड्डेबाज़ी में बहुत ही खराब ट्रेंड चल पड़ा है। जिसे आप की कविता कमज़ोर लगेगी वह नकली तारीफों के पुल बाँध देगा। या एकदम ही खारिज कर देगा। और जो अभिभूत होगा चुप लगा रक्खेगा। तीनों ही स्थितियाँ खतरनाक! खैर इसका परोक्ष फायदा भी पहुंचता है कवि को; यदि उसमें संकल्प है, आलोचना और प्रशंसा दोनों ही सुनने का जिगरा और धैर्य भी है, और यदि परिदृष्य को तटस्थ होकर समझ पाने की दृष्टि है, तो। एकतरफा आलोचना गलत है चाहे वह कथित रूप से 'पॉज़िटिव' हो या 'नेगेटिव'। आखिर यह एक सर्व स्वीकृत और बहुत बड़ा मानवीय सच है कि हम सब अपनी प्रशंसा से खुश होते हैं और खुशी हमें प्रेरणा देती है। और यह भी सच है कि जब तक कोई हमारी कमियाँ न निकाले, हम दुरुस्त भी नहीं हो सकते। तो यह पहाड़ न टूटे, अच्छे से जमा रहे। और अच्छे से अभिव्यक्त होता रहे, आमिन!

अक्टूबर 23, 2008, सह लेखन/छद्मलेखन

स्नोवा बॉर्नो को लेकर इन दिनों बहुत मज़ेदार फोन आ रहे हैं। कुछ लोग केवल जानकारी चाहते हैं, गुप चुप पूछते हैं - अजेय तुम मिले हो उससे? कुछ को इसमें टुच्चा सा रस आता है। सिर्फ इसलिए नहीं कि वह कथित रूप से एक सुन्दर विदेशी लड़की है बल्कि इसलिए भी कि वह कायदे से कथित महान लोगों की छवियां ध्वस्त कर दे रही है! कुछ लोग बहुत परेशान हैं इस 'प्रकरण' से। एस आर हरनोट, बद्रीसिंह भाटिया और आत्मा रंजन बहुत उत्तेजित हैं। मैं उन्हें आश्वस्त नहीं कर पा रहा। या तो वे अपरिपक्व हैं, या फिर मैं। स्नोवा कौन है? क्या है? है भी या नहीं इससे क्या मतलब? दुनिया की हर भाषा में छद्म नाम से लेखन होता रहा है। हम लेखन को पसन्द या नापसन्द करें, यह हमारा हक है। लेकिन इसमें इरिटेट होने या इस पर बवाल खड़े करने की क्या ज़रूरत है? हमें चिढ़ किससे है? छद्म नाम से या सैन्नी अशेष से, जिसने इस पूरे 'प्रकरण' को सहलेखन घोषित कर रखा है। और चुपचाप मज़े ले रहा है। आप एक सच को जानकर उद्विग्न होते हैं लेकिन आश्वस्त भी तो होते हैं कि हमारे सामने एक नया द्वार खुला है, जिसमें से चीज़ें वैसी नहीं दिख रहीं जैसी पुराने द्वार से दिखती थीं! हमें इन दरवाज़ों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए और इन नज़ारों का लुत्फ उठाना चाहिए। यह चिढ़ बचकानी है और एक हद तक बेमानी भी। अशेष ने मुझे फोन करके कहा है कि तुम स्नोवा के बारे में अपना सही सही वक्तव्य देने को स्वतंत्र हो। भाई, मुझे वक्तव्य क्यों देना है इसमें? मैं किसी संघ का नेता या प्रवक्ता थोड़े ही हूँ? कवि हूँ, मैंने कविता लिखी है स्नोवा बॉर्नो और जिमी हेंड्रिक्स को समर्पित। विजय गौड़ के ब्लॉग पर लगी है। शीघ्र ही गुरमीत बेदी की पत्रिका में भी छप रही है! मेरे लिए स्नोवा उतनी ही बड़ी लीजेंड है जितना कि जिमी हेंड्रिक्स नाम का वह गिटारिस्ट जिसका संगीत मुझे पसन्द है, लेकिन मैंने उसे देखा नहीं। मैंने शेक्स पीयर, कालिदास या कबीर को भी नहीं देखा। न ही मुझे उनके व्यक्त्वि (देह यष्ठि, रंग रूप और चेहरे मोहरे) पर 'शोध' करना है। मैं तो बस उनके लिखे को पसन्द कर सकता हूँ या नापसन्द। चीयर्ज़ अशेष! चीयर्ज़ हरनोट एंड अदर्ज़!!

अक्टूबर 29, 2008 : जेन ऑस्टिन का जिन

इन दिनों सुमनम में हूं। भाई-भाभी बाहर हैं, सो घर की निगरानी का ज़िम्मा है। निगरानी क्या है, घर बैठकर टी वी देखना है। यहाँ एक सुख यह है कि भाई ने हिस्ट्री चैनल सब्स्क्राईब कर रखा है। बायोग्राफीज़ शृंखला में आज जेन ऑस्टिन की जीवनी देखी। एक लेखक में इतना धैर्य हो सकता है कोई सोच भी नहीं सकता। उसने एक उपन्यास छद्म नाम से लिखा था और पूरे पचास वर्ष तक उसने पता ही नहीं लगने दिया कि यह उपन्यास किसका है? छद्म नाम से लेखन को लेकर जो मेरी धारणाएं हैं, एक बार फिर पुष्ट हुई हैं। लोग अलग अलग कारणों से छद्म नाम का इस्तेमाल करते हैं। और इसमें गलत कुछ नहीं है। बल्कि नाम और यश के लिए अतिरिक्त मोह का छूट जाना है यह। जहाँ रचना महत्वपूर्ण हो जाती है बनिस्बत रचनाकार के। क्या हम इतना धीरज रख सकते हैं? इधर तो लोग लिखने से पूर्व ही चर्चाएं करवाना शुरू कर देते हैं। बस नाम चर्चित हो। रचना को कौन पूछता है? इस वृत्त चित्र में अंग्रेज़ी फिक्शन को लेकर कुछ ज़रूरी जानकारियाँ हैं। रेखा जी को फोन लगाता हूँ, नम्बर नहीं लगा। ईशिता को फोन करता हूँ कि यह वृत्त चित्र ज़रूर देखे। बहुत प्रेरक है। इंफॉर्मेटिव भी।

दिसम्बर 5, 2008 : वह कोई एक साहित्यिक विधा तो ज़रूर थी

पहल-90 में देवी प्रसाद मिश्र की लम्बी गद्य कविता पढ़ी। हिन्दी में अपने इमिडिएट सीनियर्ज़ में देवी प्रसाद मिश्र के लेखन पर आसक्त हूँ। अनूप सेठी कहते हैं कि एक लेखक को ऐसी आसक्ति (अॅब्सेशन) से बचना चाहिये। हो सकता है सही कह रहे हों। चाहे मुझे लेखकों में शुमार न ही कीजिए, पर आप मानेंगे कि पाठक होने का हक मेरा अपना है। मैं तो बच नहीं सका। वह कोई एक दिन तो ज़रूर था। यह रचना डायरी की तरह से लिखी गई है। अब इस बहस में क्यों पड़ा जाए कि यह कविता है, डायरी या कोई अन्य विधा। यह जो कुछ भी है, इसे पढ़ा जाना चाहिए। बल्कि इसमें इतनी आकर्षक भाषा का प्रयोग किया गया है कि एक बार शुरू करने पर आप पूरा पढ़े बिना रह ही नहीं सकते। इसमें विचार भी हैं और रस भी। बहस भी है और संवेदना भी। कवि ने साफ साफ कुछ नहीं कहा है लेकिन इस की अंतध्र्वनियां पाठक सहज ही सुन लेता है। शायद यही इस की पठनीयता की वजह है। इसमें बहुत ही गहरे और खुरदुरे चित्र हैं - पुरसुकून शेड्ज़ में, उदात्त और भीगी भीगी स्मृतियाँ हैं, घोर अवसाद और हताशा भरे स्वप्न हैं, बड़े अराजक बिम्ब हैं जिनमें एक खास िकस्म का आकर्षक अपनापा है। बस यह रचना विचलित नहीं करती। कुछ लोग इसे इसकी कमज़ोरी मान सकते हैं। लेकिन मैं नहीं मानता। इधर मैं विचलित करने वाले तत्वों को कम और एनलाईटन करने वाले तत्वों को अधिक पसन्द करने लगा हूँ। फिलव$क्त मैं इतना ही सोच पा रहा हूँ कि उस सच को ले के क्या कीजिएगा जो आपको कोई दृष्टि न दे?
तो यहाँ मानो मेरी अपनी ही चीज़ें थीं, माने, मेरे अँधेरे मन की चीज़ें - जो कवि ने अच्छे से दिखा दीं। आह! मैं चूक गया दिखाने से। वर्ना मेरे पास भी थीं ऐसी चीज़ें... पर कौन जानता था कि वे कविता बन सकती थीं? कवि वही होता है जिसने साहस किया और बाज़ी मार ली। शेष सब पाठक बनकर रह जाते हैं। कविता पढऩे के बाद फोन पर कवि से लम्बी बात की मैंने। कवि ने कहा यदि हम अपनी कविता की पंक्तियाँ एक के बाद एक उठाकर के रक्खेंगे तो वह गद्य जैसी चीज़ बन जाती है। यही आज की विधा है। हमें स्वीकार कर लेना चाहिए। हिन्दी में नए को स्वीकार करने का साहस नहीं। बहुत गम्भीर लोग भी (उन्होंने नाम भी गिनाए) नवाचार से घबराते हैं। हालांकि वे मानते हैं कि हमारी (हिन्दी की) कविता में स्टेग्रेशन आ गई है। और इसे इस स्थिति से उबरना होगा। बिना नए प्रयोगों के यह कैसे होगा? मुझे याद आया ब्लॉग्ज़ में कुछ लोगों ने अपनी और मित्रों की पुरानी कविताओं के साथ यह प्रयोग किया था। यह रोचक पाठ बनता था। और मज़े की बात कि वहाँ भी टिप्पणियाँ ज़्यादा नहीं आईं। इस विधा में अभी वह आकर्षण नहीं  आ पाया है शायद।
तो कैसे होगा 'स्टेग्रेशन' से उबरना?
क्या यहाँ पाठकीय तैयारी का भी कोई रोल है? क्यों नहीं? सम्वाद अनिवार्य रूप से दो तरफा मामला है।

जनवरी 1, 2009 छाती थपथपा कर कहें - ऑल इज़ वेल

तापमान शून्य से 15 डिग्री नीचे चला गया है। सब कुछ जम गया है। ज़मीं भी, हवा भी, खला भी, और खला में विचरता साईबर जगत भी। शुक्र है कि मोबाईल ज़िन्दा है। नव वर्ष पर खूब एस एम एस किए। कुछ के प्रत्युत्तर आए। देवताले जी ने कहा - इस नव वर्ष पर खूब पतंग उड़ाना भईया तुम! मैं दूसरे सिरे पर पकडऩे वाला रहूंगा... क्या तो शब्द था प्यारा सा! भूल गया। पर मुझे अहसास हो गया कि उस 'पकडऩे वाले' का क्या महत्व होता है, जो आप की पतंग को पहली उड़ान दे कर उसे मुक्त कर देता है - फिर वह कोई हक नहीं जताता, क्रेडिट नहीं लेता। जब कि आप पतंग उड़ाने के तमाम दौर में खुशफहम रहते हो कि डोर तो हमारे ही हाथ में है। जीवन सिंह जी ने सूचना दी कि 'कृतिओर-50' प्रेस में जा रही है और उस में मेरी एक कविता है। मेरी कविताओं पर डा. रमाकांत शर्मा ने कुछ टिप्पणियाँ भी की हैं। मैं अपनी कविता को कोई बड़ी तीर नहीं मानता लेकिन जानना चाहता हूँ वह लोगों तक कैसे पहुँच रही है। रेखा जी और वरयाम सिंह जी से लम्बी बातें हुईं। दीनू कश्यप ने प्यारा सा एस एम एस किया है - ''डूब कर लिखें और खुले में आएं''। मुझ से रीएक्ट किए बिना नहीं रहा गया - ''लिख लिख कर डूबा हूँ। तैरना नहीं आता। वरना कब का खुले में आ गया होता''। जसवीर चावला बड़ी देर तक बतियाते रहे। हिमालय के मौसम को लेकर, यहाँ की सर्दी को लेकर। मैदानी लोगों के लिए हिमालय की सर्दी रोमांच का विषय है, हमेशा। चावला जी ने बताया कि रूस में वे लोग कैसे सर्दी और बरफ से निपटते हैं। वहाँ यातायात रुकता नहीं। चाहे साईबेरिया ही क्यों न हो। वर्खोयाङ्स्क जैसी जगहों पर तापमान माईनस सत्तर डिग्री से नीचे चला जाता है। लेकिन उन्होंने  न्यूकलीयर ऊर्जा का विधिवत उपयोग किया है। प्रदूषण कम है। फॉसिल फ्यूल वहाँ धीरे धीरे आऊटडेटेड होता गया है। पूरे योरप में। हम कब उनके जैसा हो पाएंगे? इस मासूम से प्रश्न पर मुझे रेनेसाँ, फ्रेंच क्रांति, रूसी क्रांति, दोनों विश्व युद्धों से लेकर कोल्ड वार, अरब-इज़राईल, वियतनाम, अफगानिस्तान के साथ साथ चेर्नोबिल एपिसोड जैसी घटनाएं भी याद आ जातीं हैं। मैं कहता हूँ पहले ये तमाम चीज़ें हो जाएं हमारे यहां भी, फिर हम ऐसा कोई ख्वाब देख सकते हैं। भाई, उन्होंने बहुत कुछ खोया है इस सब के लिए। और हम ऐसी भौतिकता और वैज्ञानिकता से बचते रहे हैं पूरे इतिहास में। चावला जी आस्थावान व्यक्ति हैं। सारा दोष ऊपरवाले पर मढ़ते हैं। स्ट्रेस फ्री जीने का यह सबसे अच्छा और कारगर तरीका है। जीना आखिर है क्या? खुद को कुछ तसल्लियाँ देते रह पाने और कुछ मुगालतों में रह पाने का तरी$का ही तो! चाहे जैसे भी हो, जब तक हमें तसल्ली है, जीवन खूबसूरत है। ऑल इज़ वेल! भ्रम टूटते ही सच दिखने लगता है - असह्य, निपट कुरूप और अस्वीकार्य।

जनवरी 5, 2009 : काँपती पृथ्वी - निरीह सूरज

सुबह 4.43 पर भूकम्प का हल्का सा झटका महसूस हुआ। पृथ्वी एक ज़िन्दा ग्रह है। हमारे मन में पृथ्वी का आकार कैसा रहता है? हम सचेत रूप से इसकी परवाह नहीं करते। लेकिन अवचेतन में कोई छवि तो रहती है, कोई न कोई आकार तो रहता ही है। मैंने उसे बचपन से ही एक सुन्दर नीले हरे ग्लोब की तरह महसूस किया है - अपनी कक्षा में बदहवास चक्कर लगाती। साथ साथ खुद अपनी धुरी पर भी घूमती। इसलिए मेरी चेतना में वह काँपती रहती है यदा कदा। मुझे लगता है मुझे उसे प्रेम करना चाहिए। पृथ्वी को यदि धरती की तरह देखें - फ्लेट, द्विआयामी... तो हम कहेंगे वह हिलती है। फिर हम उसे माँ कहेंगे। फिर उसे प्रेम नहीं कर सकेंगे। उसका सम्मान करना होगा। क्योंकि वह तब हमें धारण करने वाली हो जाती है। हमारा बोझ उठाने वाली। बड़ा अजीब है कि जिससे बोझ उठवाना हो उसका हम सम्मान करते हैं। सोचता हूँ पृथ्वी को आज क्या चाहिए? प्रेम, या कि सम्मान? भारतीय मानस ने उसे माँ का दर्जा दिया है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि माँ स्त्री भी होती है। और वह प्रेयसी होती है। माने, वो प्रेम को डिज़र्व करती है। पृथ्वी भी स्त्री की तरह बहु आयामी होती है और इसी से दोनों का सौन्दर्य है। मुझे उसकी परतों में गहरे उतरने की ख्वाहिश होती है। एक समकालीन कवि मेरी इस धारणा पर बिगड़े थे कि पृथ्वी को ऐसा दैहिक प्रेम करने का दुस्साहस कैसे कर सकते हैं हम? यह तो शमशेर जैसा कोई कवि ही लिख सकता है। जो काल से होड़ ले सकता हो। सोचें, हम कैसे खुद अपने कवि की उड़ान सीमित कर देते हैं। उसके पर काट डालते हुए। महाकवियों से इतना आतंकित रहने की क्या ज़रूरत? आखिर उड़ान हासिल करने से पहले वे भी हम जैसे ही लोग थे। तो कोई भी 'साधारण' कवि क्यों यह दुस्साहस नहीं कर सकता? मैं तो भाई करूँगा पृथ्वी को प्रेम। हम उसकी देह को भोगते हैं न? तो यह पाखण्ड क्यों?
कल शाम सूरज 4.50 पर अस्त हुआ था। दिन आधा घंटा बढ़ चुका है। 22 दिसम्बर को 4.20 पर सूरज छिपा था। पहाड़ में सूरज अस्त होने से पहले ही छिप जाता है। मतलब उसका क्षितिज में 'डूबना' हम नहीं देख पाते। क्षितिज यहाँ दिखता ही नहीं। स्काई लाईन दिखती है। आज तो यूँ भी कुछ नहीं दीखता। हिमपात हो रहा है। इस मौसम का चौथा हिमपात है। केलंग में पिछले डिपॉज़िट्स तो गल गए हैं। कल कुछ राहत थी। पिछले हफ्ते धूप बेहद कमज़ोर थी। ताव ही न था। भरी दुपहर को पानी जम रहा था। रात को तापमान माईनस 18 डिग्री उतर जाता था। ऐसी सर्दी में बादल कुछ राहत ले आते हैं। मैदानों की ठंड भी पीड़ा दायी होती है लेकिन वहाँ फिर भी उम्मीद बनी रहती है कि धूप निकलते ही सब ठीक हो जाएगा। यहाँ सूरज हार जाता है। धूप बे असर हो जाती है। एक दबा घुटा हुआ सा मौसम आप पर हावी रहता है जिसके ठीक होने की महीनों तक कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। सूरज दक्षिणी चोटियों पर उगता है। खरगोश के बच्चे सा कुछ देर उन नुकीली चोटियों पर फुदकियाँ मार कर वहीं दक्षिण में किसी चोटी की ओट हो लेता है। जबकि शिकारी बाज़ जैसा शीत अपने विशाल डैने फैलाए क्षितिज के आर पार छाया रहता है - मानों उस निरीह शावक को किसी भी क्षण निगल जाएगा।

कारगा 18.7.2012

कभी इधर से गुज़रता था तो एक स्वच्छन्द नदी दिखती थी। किनारे के पत्थरों को भिगोती सुदूर पश्चिम की ओर भागती जाती। आज एक सड़क दिखती है चौड़ी धूल उड़ाती। जिसके मलबे ने नदी का दम घोंट रखा है। सड़क और नदी प्रथम दृष्टया एक ही ढब से बिछी हुई दिखती हैं। गौर से देखने पर इनमें यह फर्क है कि नदी का एक निश्चित रुख होता है और इसी वजह से उसका एक किनारा दक्षिण और दूसरा वाम होता है। सड़क का रुख उधर हो जाता है जिधर आप चल रहे हैं। इसलिए उसका अपना कोई निजी व्यक्तित्व नहीं है। उसके ऊपर चलने वाला ही उसका अस्तित्व तय करता है। आप उसके किसी एक किनारे को वाम या दक्षिण नहीं कह सकते। उस पर चलने वाले का रुख ही यह तय करता है। कभी यहां एक चरागाह दिखता था लहलहाता हरा, जहाँ कभी भेड़ें और कभी आईबेक्स के झुण्ड विचरते नज़र आते थे। आज बेढब डंगे दिखते हैं। सीमेंट, बजरी, सरिया, रेत के ढेर दिखते हैं। काँटेदार तारों की फेंसिंग दिखती है। ठेकेदार, पटवारी, गार्ड और सरकारी गाडिय़ाँ दिखतीं हैं; ट्रेक्टर, टिपर, एक्स्केवेटर दिखते हैं। ततीमा पर्चा और जमाबन्दी दिखती है। जरीब और लट्ठे दिखते हैं। हम प्रकृति की घेरेबन्दी कर रहे हैं। बहुत वैध और अधिसूचित तरी$के से। नाप रहे हैं। घेर रहे हैं पृथ्वी को। भारत में एक दिन में 25 किलोमीटर सड़क बन कर तैयार हो जाती है। खेतों को बीचों बीच से काटकर सिक्स लेन हाईवे बनाए जा रहे हैं। एक दिन हम इस पूरे ग्लोब को कांक्रीट और एस्फाल्ट में लपेट लेंगे। उफ्फ! इस विकसित समाज में हमारी आदिम पृथ्वी साँस कैसे लेगी?

केलंग मई 26, 2013

मुझे सपने आते हैं मैं उन्हें जीता हूँ और भूल जाता हूँ। वह जिसे सपने आते हैं और वह जो सपनों को जीता है - अलग अलग आदमी हैं। एक आदमी चुपचाप सपने बुलाता है, उन्हें जीता है और भूल जाता है। फिर फिर बुलाता है, फिर फिर भूल जाता है। दूसरा आदमी सच को जीना चाहता है और ठीक उन सपनों की तरह और उसे अंत तक याद रखना चाहता है। दोनों जानते हैं कि सपने बहुत आसानी से आते हैं और उन्हें भूलना भी उतना ही आसान है। और सच बहुत कठिन है; लगभग असम्भव। उसे भूलना भी असम्भव।
ये दोनों मिलकर सच के पीछे पड़े रहते हैं। और न पाकर परेशान रहते हैं। मेरे अन्दर दो परेशान आदमी रहते हैं उल्लास खोजते हुए। इस उल्लास को एक सपनों में खोजता है दूसरा सच में।
काश ये दोनों आदमी मेरे गरम कोट के भीतर सहेजी हुई चुटकी भर हरियाली देख पाते!



पहल की पिछली पारी में कविताओं का प्रकाशन हो चुका है। कुछ महत्वपूर्ण पत्र भी प्रकाशित


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