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जून 2014

कमलेश्वर की 'तलाश' और कविता की 'उलटबांसी'

रोहिणी अग्रवाल

नया स्तंभ






45 साल के फासले पर दो कहानियां

किसी भी रचना का पाठ मैं देर तक अकेले-अकेले नहीं कर सकती। यूं शुरु-शुरु में कहानी के भीतर अकेले ही घुसती हूं - अंधेरे में टटोल-टटोल कर आगे बढ़ते हुए। एक सजग सावधानी के साथ राह में आने-जाने वाले पात्रों और घटनाओं पर चौकस नजर रखने में ही खासी मशक्कत करनी पड़ती है। लेकिन जैसे ही उन सबसे अंतरंगता कायम होती है और प्रवाह में स्वयं को ढीला छोड़ देने की विश्रांति पोर-पोर में छाने लगती है कि साहित्यिक विरासत से छन कर आती स्मृतियां अनुगूंजों और प्रतिच्छायाओं का रूप धर कर मेरे अगल-बगल चलने लगती हैं। उसी के साथ-साथ चला आता है अतीत का चादर ओढ़ कर सोया समाज जो पता नहीं कैसे उस रचना में प्रविष्ट होते ही उसी का  हिस्सा बन जाता है - जीता जागता, और मेरे अपने वक्त को गुनता-बुनता। तब कहानी पढऩा मेरे लिए सरल नहीं रह जाता। वैचारिक अंधड़ के बीच अपनी डगर आप बनाने की कवायद बन जाती है। कविता की कहानी 'उलटबांसी' पढ़ते हुए भी तो यही सब हुआ न! लंबे सफर के बाद कहानी की नैरेटर अप्पू के संग उसकी मां के घर पहुंच कर बतरस में मशगूल थी कि अचानक मैंने अपने दोनों कंधों पर दबाव महसूस किया। नजर घुमा कर देखा - कमलेश्वर की कहानी 'तलाश' की सुमी और ममी मुझ पर लदी पड़ी हैं। ''पन्ना पलटो न!'' इतनी अधिक उत्कंठित कि मेरे एकांत में यूं अनामंत्रित चले आने की कैफियत तक देना भी जरूरी नहीं समझा। बस, हुक्म दे डाला, ''पन्ना पलटो, भाई''। बेशक मेरा कथा-रस तो भंग हो ही गया। काम बढ़ गए सो अलग। अब मुझे कविता और उनकी नैरेटर के संग मां के विवाहोत्सव में शरीक भी होना था; और सुमी-ममी की प्रतिक्रियाओं को भांप कर दिमाग में नोट्स भी लेते चलना था। कहानी खत्म कर मुड़ी तो देखा ममी हिलक-हिलक कर रो रही हैं - सुख की रुलाई। एक हारी हुई लड़ाई जीत लेने पर पोर-पोर को आनंद में डुबो देने वाली रुलाई। चकित भी हैं कि पैंतालीस बरस जिस बेबस घुटन को दिल पर शिला की तरह रखा, वह कैसे मिट्टी के ढेले की तरह खारे आंसुओं की बरसात में बहे जा रहे है। चेहरा कितना निखरा-उमगता हुआ। ठीक कहती है सुमी, ममी की नाभि में कस्तूरी है। जान पातीं तो क्यों बौराई सी वहीं जड़वत् खड़ी अपने को छलती रहतीं। अप्पू की मां की तरह...
लेकिन बौरा तो मैं गई हूं। कहानी का पाठ ऐसे किया जाता है? आलोचना की सारी मर्यादाओं और शास्त्रीय विधि-विधानों को अंगूठा दिखाते हुए? आलोचना विश्लेषण का सर्जनात्मक विवेक है, आत्मालाप की विलंबित तान नहीं। लेकिन अपनी धृष्टता का मैं क्या करुं? लाख बरजते हुए भी इस समय मैं कनखियों से स्तब्ध-विचलित सुमी को देख रही हूं। न, मां के आंसू बेटियों से नहीं देखे जाते। वे दर्द के रिश्ते को मजबूत करते हुए दोनों के पैरों तले की जमीन को पोला कर देते हैं। पिछले पचास बरस से वह ममी के अकेलेपन की साक्षी रही है। उसे दूर करने के जतन में उसने खुद अपने भीतर अकेलेपन का बियाबन उगा लिया है। सिर्फ इसलिए कि ममी को 'छोड़' दिए जाने की प्रतीति न हो। लेकिन हर ढलती सांझ मानो दोनों के बीच फासले भी बढ़ा देती है और अवसाद की स्याही से पुता बियाबान-मन रोज और-और फैलता चलता है। स्कूली किताबों में सदा की तेज-तर्रार सुमी ने यही जाना था कि एक नेगेटिव दूसरे नेगेटिव से मिलकर पॉजिटिव हो जाता है। लेकिन अब... जिंदगी की किताब पढऩे के बाद ही जान पाई कि दो नेगेटिव मिल कर शून्य भी नहीं होते, निरर्थकता का भांय-भांय करता विस्तार बन जाते हैं। जब तक समझी, बहुत देर हो गई थी... या शायद डर और संकोच तले अपनी साहसहीनता को छुपाने के लिए बार-बार एक ही जुमले का जाप करने लगी थी कि 'बूढ़ा तोता अब क्या खाक राम-राम रटेगा'। सुमी नहीं जानती, वह ममी के अकेलेपन से त्रस्त है या जतन से चुने अपने अकेलेपन से ? 'काश! अप्पू की तरह मैंने भी ममी के बियाबान में गुलाब रोपने की छोटी सी कोशिश की होती! काश! अप्पू की तरह मैं भी कह पाती - ''सिर्फ यादों के सहारे जिंदगी नहीं बिताई जा सकती। पिता की आत्मा को शायद शांति ही मिले कि अब मां चैन से है, सुखी-संतुष्ट है, कोई है उसके सुख-दुख की परवाह करने वाला...'' ('उलटबांसी', पृ. 16) लेकिन उसने तो पिता को ढाल बना कर मां की तरफ खुलने वाले सारे द्वारों को मजबूती से बंद कर दिया था न!'
मैं सोचती हूं एक सी जीवन-परिस्थितियों में जीती दो स्त्रियों को लेकर रची गई ये कहानियां क्या अपने-अपने समय-समाज के यथार्थ का प्रतिबिंब मात्र हैं? 'तलाश' कहानी 'मांस का दरिया' संकलन में संग्रहीत है जिसकी भूमिका 1963-64 में लिखी गई है। जाहिर है कहानी पुस्तक प्रकाशन की अवधि से कुछ अरसा पहले ही लिखी गई होगी। 'उलटबांसी' कहानी इसी शीर्षक के संग्रह में 2008 में प्रकाशित हुई है। यानी तकरीबन 45 साल का फासला। तो क्या समय का बदलाव ही वह महत्वपूर्ण घटक है जो इंसान की सोच और घटनाओं की परिणति को निर्देशित करता है? या समय के साथ संघात करके बना रचनाकार का अपना व्यक्तित्व, दृष्टि और सोच? 'व्यक्तित्व' शब्द को और नजदीक से विश्लेषित करना चाहें तो इसमें रचनाकार की लिंग-वर्ण--वर्ग-धर्मगत पहचान भी मानीखेज भूमिका निभाती है। इन दोनों कहानियों का प्रमुख सरोकार चूंकि स्त्री से जुड़ा है और दोनों रचनाकार दो अलग-अलग लैंगिक व्यक्तित्व से सम्पन्न हैं, इसलिए यह देखना भी दिलचस्प हो जाता है कि स्त्री की निजता को स्पेस देने के मामले में दोनों क्या स्टैंड लेते हैं। साहित्यकार के रूप में रचनाकार की लैंगिक इयत्ता के मुद्दे को सिरे से खारिज कर बेशक इस बात को आग्रहपूर्वक रेखांकित करने का चलन बढ़ गया है कि साहित्य-रचना के समय लेखक सिर्फ लेखक होता है - मनुष्य होने की चेतना से सम्पन्न एक संवेदनशील भविष्योन्मुखी इकाई जिसे किसी भी प्रकार के विमर्शवादी राजनीतिक दुराग्रहों में नहीं बांधा जा सकता। लेकिन मैं साहित्यकार को साधक/जिम्मेदारी (फिनिश्ड प्रोडक्ट) के रूप में देखने से पूर्व उसके तलघर में झांक आना चाहती हूं जहां बिना दस्तक दिए हर कृति निर्माण की प्रक्रिया में खदबदाया करती है। धर्म-वर्ण-लिंग-परिवेश (ग्रामीण/नगरीय/महानगरीय) और पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ एक सुनिश्चित एवं सर्वस्वीकृत सामाजिक पहचान पाकर जब वह सामाजिक व्यवस्थाओं और विधि-विधानों से मुखातिब होता है, तभी भारी टूट-फूट और हलचल के साथ उसका सृजनात्मक व्यक्तित्व आकार लेने लगता है। रचनाकार स्वयं अपने भीतर हो रही टूट-फूट का साक्षी नहीं, लेकिन कभी गौर से आत्म-निरीक्षण करना चाहे तो अपनी प्रतिक्रियाओं, प्राथमिकताओं, दुराग्रहों-पूर्वाग्रहों और संकल्प सने सपनों की बारीक पड़ताल करते हुए स्वयं को हर तरह की जकड़बंदी से मुक्त करने की जद्दोजहद में संलग्न पाता है। मुक्ति के सपने उसे इसलिए आकृष्ट करते हैं (और धीरे-धीरे उसकी अस्मिता के पर्याय बन जाते हैं) क्योंकि परवशता की जड़ता और अमानुषिकता को उतनी ही तीखी चुभन के साथ उसने स्वयं अनुभव या संवेदना के स्तर पर झेला है। जाहिर है परंपरा से मिले संस्कारों को 'स्क्रूटनाइज' करने के बाद समाज को नए संस्कार देने की व्यग्रता उसे पहले निजी स्तर पर हर तरह के विषमतामूलक विभाजन का विरोध करने का साहस देती है। रचयिता की भूमिका तो उसके बाद शुरू होती है।
वक्त अमूमन बहता और बीतता है। उसे बदलना और जीवंत बनाए रखना गहरी अंतर्दृष्टि और समर्पित संलग्नता का परिणाम है। इसलिए साहित्यकार पत्रकार की तरह वक्त को नि:संग भाव से निहारता नहीं, इन्वॉल्व होकर बींधता और रचता है। मैं इन दोनों कहानियों को इस एंगिल से देखना चाहूंगी कि ममी और मां, सुमी और अप्पू की सोच में पाया जाने वाला फर्क दोनों लेखकों की सोच में पाए जाने वाले फर्क का प्रतिफलन तो नहीं जिसे दोनों की युगीन परिस्थितियों से ज्यादा लैंगिक व्यक्तित्व की भिन्नता से रचा है।
मैं यह भी जानना चाहूंगी कि कहानी के 'कहानीपन' को फार्म एवं कंटेट की संयुक्ति के साथ पढऩा चाहिए या दो इकाइयों के रूप में? कंटेट केन्द्रित साहित्य विमर्शवादी आग्रहों के कारण जिस प्रकार दिन-ब-दिन अभिधात्मक होता जा रहा है, उससे सहज ही सवाल उठता है कि स्थूल घटनाओं/पात्रों को प्रतीक/मनोवृत्तियों में ढाल कर वह देशकाल की दूरियां तय करने की ताकत कहां से लाएगा?

''हंसी, रंग, स्वाद जिन-जिन चीजों से मां का कभी गहरा नाता था, सब जीवन से चली गई थी''

स्त्री को देह मानने के उत्सव में मशगूल धर्मग्रंथों, पुराणों, भक्ति/रीतिकालीन साहित्य के भावुक/कामुक उच्छ्वासों के बीच जब-जब मैं 'पत्नी का पत्र' (रवीन्द्रनाथ टैगोर) और 'गुडिय़ाघर' (इब्सन) को पढ़ती हूं, इस विश्वास को दूने विश्वास के साथ जीती हूं कि अपनी कमजोरियों को जीतने के बाद ही कलम उठाने वाला कलमकार हर इंसान की गरिमा की रक्षा करने का मूलमंत्र पाता है। फिर भी दुर्भाग्यवश स्त्री को उसकी निजता में देखने का आग्रह बहुत कम रचनाकारों ने किया है। ऐसे में जब उम्रदराज (?) हिंदू विधवा को उसके पारंपरिक बाने से मुक्त कर कमलेश्वर (सुमी को) ममी के रूप में तराशते हैं और तमाम वर्जनाओं के दबाव से मुक्त होकर उसकी सेक्सुएलिटी की मांग को स्वीकारते हैं तो सुखद आश्चर्य होता है। एक तरह का रिलीफ भी। गैरज़रूरी होते हुए भी कल्पना में सुन्नत प्रथा की शिकार तमाम औरतों की भीड़ सदियों का अंतराल पार कर जुटने लगती है। मैं देखने लगती हूं कि मुक्ति की पहली सांस की आस में वे औरतें टकटकी लगाए कमलेश्वर को निहार रही हैं। जहां औरत की देह ठीक उस अर्थ में दूसरों के 'उपयोग' (आनंद) के जिए है जिस अर्थ में पेड़ों के फल या नदियों का पानी, वहां अपनी देह का उपयोग अपने 'आनंद' के लिए भी हो, ऐसा कहने का साहस भला कितने लोग कर पाते हैं। सचमुच, एक औरत के नहीं, तमाम स्त्री जाति के अहसास को संवेदना की संश्लिष्ट जमीन पर जीना कितना कठिन और चुनौतीपूर्ण है। कमलेश्वर मिशन बना कर 'विधवा' और 'उम्रदराज' विशेषणों के साथ जीवन की रेस से बाहर कर दी गई ममी को उसके यौवन और ऐन्द्रिक भाषाओं के साथ ऐन जीवन के बीचोबीच रखते हैं। उनतालीस वर्षीया ममी के पास है आठ साल के वैधव्य की कटु स्मृतियां, मन में उठती हिलोरों के संग-संग देह की लोच, कमनीयता और गर्मी को जस तस संवारे रखने की चौकस जिद, और देह से फूटती नैसर्गिक गंध के साथ आत्मसम्मानपूर्वक एवं नैसर्गिक जीवन जीने की ललक। उन्नीस बरस छोटी बेटी के युवा होने का अर्थ ममी का बुढ़ा जाना तो नहीं। कहानी में ममी ने अपना नाम खोया है, लेकिन कॉलेज में नौकरी करते हुए अपना व्यक्तित्व भी पाया है और हसरतों का आसमान भी। 'एक क्षण के संकोच के बाद' सुमी की साड़ी बांध कर 'तितली की तरह उड़ती' ममी (जाने क्यों 'तितली' विशेषण मात्र से मुझे 'गोदान' की मालती याद हो आई है जिसे तितली से मधुमक्खी में ट्रांसफार्म करने में कितनी-कितनी जड़ताओं को ग्लोरीफाई करना पड़ा है लेखक को) साठ के दशक के पाठकों के लिए सचमुच अजूबा रही होगी। एक ऐसी 'कुलटा' जो ऑफिशयल कामकाज के बहाने जवान बेटी के सामने घर में अपने 'यार' को ले आती है और फिर उसके साथ देह का खेल खेलती है (याद करें मोहन राकेश के नाटक 'आधे अधूरे' की सावित्री पर केन्द्रित आलोचनाएं जिन्होंने कुलटा के ताबूत में बंद कर सावित्री को मानवीय संदर्भों में समझे जाने का कोई अवसर खुला नहीं छोड़ा है) ममी के प्रेम सम्बंध का चित्रण कमलेश्वर ने इतने सूक्ष्म और सांकेतिक ढंग से न किया होता तो भाषा में तमाम अश्लील भंगिमाओं को भर कर परंपरागत आलोचना ने सावित्री की तरह उन्हें भरपूर गरियाया होता। कमलेश्वर अपने युग के मनौविज्ञान को जानते थे, इसलिए संयम को कलात्मकता में ढाल वे दैहिक अंतरंगता को महज कुछ संकेतों में अभिव्यक्त करते हैं - ममी के पलंग के दाहिनी तरफ वाले तकिए पर एक हल्का सा गड्ढा, पलंग की सिरहाने वाली पाटी पर दबा कर बुझाई गई सिगरेट का टुकड़ा... ममी की बांह पर पड़ा नीला दाग (जिसे साड़ी के पल्लू और बांह वाले ब्लाउज के सहारे छुपाने की व्यग्रता में वह और भी उघाड़ देती है)... दरवाजे की चिटकनी अतिरिक्त सतर्कता के साथ हौले से खोलने/बंद करने की क्रिया... और ममी के बैठने की मुद्रा में शालीन तनाव...
क्या ममी (स्त्री) चरित्रहीन (अपराधी) है?
क्या विधवा को लाश में तब्दील हो जाने का प्रशिक्षण देता समाज अपराधी है?
ये सवाल सुमी की शिनाख्त के दो कोण हो सकते थे, लेकिन वह किसी भी कोण से विचार नहीं करना चाहती। क्या इसलिए कि बीस बरस की 'छोकरी' अपने से उबर कर दूसरों के बारे में सोचने की विचारशीलता अर्जित नहीं कर पाती? या इसलिए कि अपने रचयिता की तरह वह भी स्वीकार करती है कि ''हम अपने सलीब स्वयं ढोने वालों की स्थिति में नहीं हमारी स्थिति दूसरों द्वारा गाड़े गए सलीबों पर जबरदस्ती लटका दिए गए लोगों की है।''
शहादत का ढोंग सुमी का सबसे बड़ा सच है। विडंबना यह है कि जिस शहादत को मनुष्य 'महानता' का पर्याय मान मन ही मन इतराता है, वह दरअसल उसकी 'नपुंसकताओं' को ढांपने का दंभ भर होता है। 'मुक्त' कर दिए जाने की तमाम जैनुइन अभिलाषाएं दूसरे को ही मुक्त नहीं करतीं, स्वयं को भी द्वंद्व या मनस्ताप से मुक्त कर स्वस्थ और बेहतर बनाती हैं। सुमी की मानें तो ममी को मुक्त करने के लिए उसने क्या-क्या नहीं किया। ममी के कमरे में पापा की तस्वीर की उपस्थिति में किसी गैर मर्द को बर्दाश्त किया। फिर घर के सुरक्षित माहौल को छोड़ कर वर्किंग गल्र्स हॉस्टल में रहने का फैसला लिया जहां दूसरों के घरों में तांक-झांक करने वाली 'रुकी हुई लड़कियां' रहती है।
'फिर हार की कचोट से क्यों हरदम अपराध बोध और आत्म-दया से खुद को बींघती रहती हो तुम?' मैंने पूछा।
सुमी के पास जवाब नहीं था। जवाब था अप्पू के पास। 'आंख मूंद लेने या जगह बदल लेने से गलत को सही नहीं किया जा सकता। तुम ताल ठोंक कर मां के पक्ष में क्यों नहीं खड़ी हो गईं, मेरी तरह?' अप्पू के चेहरे पर आत्मविश्वास और आत्मसार्थकता की क्रांति थी। 'जानती हो, भाइयों से, अनुज (पति) से लड़ कर, सबका विरोध झेल कर मैंने अकेले मां के ब्याह-प्रस्ताव को स्वीकृति दी। अनुज ने तो फतवा जारी कर दिया था, मां का ब्याह रचाने जैसी अनहोनी करने के बाद मेरे पास लौटने की कोई जरुरत नहीं। लेकिन सिर पर कफन बांधे बिना रवायतें तोड़ी नहीं जा सकतीं।'
सुमी चुप! पता नहीं सुन भी रही थी या नहीं अप्पू ने उसे झकझोर दिया, 'सुमी, मेरे लिए वह पल निर्णय का पल था। दुविधा से मुझे उबरना ही था। और चुनाव भी मुझी को करना था। सिर्फ अपने लिए सोचती तो अनुज का फतवा मुझे पहली गाड़ी से घर लौटने का हुक्म सुना चुका था। लेकिन मैंने अपने सुरक्षित भविष्य को नहीं, मां के सुख को चुना। मां के डॉक्टर पति को देखने या मिलने की तनिक भी इच्छा नहीं जगी मुझमें। मैं तो बस मां को जानती हूं्... और जब मां को 'विदा' करा कर उस खाली घर में लौटी तो न मुझे पिता याद आए, न घर में बसी स्मृतियों का कोलाहल सुनाई दिया। बस, एक सुख झर-झर कर मेरे पूरे वजूद को भिगोता रहा। धार के उलट चलने के फैसले में अपनी रजामंदी मिला देने से धार का रुख नहीं पलटता, लेकिन उसे जूझ कर पार कर लेने का हौसला दूना हो जाता है। सुमी, मेरी और तुम्हारी मां जैसी कितनी ही औरतों को हमारी दरकार है न!'
कुछ पल की गूंगी चुप्पी के बाद सुमी कमजोर कांपती आवाज में बुदबुदाई - 'ममी ने मुझ से अपने ब्याह की बात नहीं की..' अप्पू के होंठों पर बांकी स्मित देख वह अधबीच ही सकपका कर चुप हो गई।
न जाने क्यों, अप्पू का बड़बोलापन मुझे चुभने लगा। जिस क्रांति का श्रेय वह स्वयं ले रही है, उसकी असली हकदार मां है। अपनी सीमाओं में बंधी, पति-बच्चों-परिवार को समर्पित एक औसत भारतीय स्त्री जिसने घर की देहरी के बाहर न बदलते वक्त की तेज-तर्रार दौड़ को देखा है, न पहाड़ और समंदर के टेरते सौन्दर्य को। गृहस्थी की खिड़की से बाहर झांकते कतरा भर आसमान में वह सपनों की झालरें टांक आती है, और फिर गृहस्थी के खटराग में उन्हें भूल भी जाती है। गृहस्थी के एक बड़े से शून्य (वृत्त) की परिक्रमा करते-करते वह स्वयं शून्य (सुन्न नहीं) हो गई है, लेकिन गृहस्थी में जीवन का राग और रंग भरती संतानों के भविष्य को संवारने के लिए चट्टान सरीखी दृढ़ है। पति से लड़ाइयां गहने-कपड़े-मिठाइयों के लिए नहीं, बच्चों की पढ़ाई, कैरियर, मनपसंद ब्याह के लिए हैं। बेहद औसत स्त्री...हर घर की नींव को अपने समर्पण, लोच और निर्णयात्मकता से पुख्ता करती स्त्री। इस 'अदृश्य' स्त्री के वजूद या हसरतों पर बात करने की परंपरा हिंदी लेखन की नहीं है, दूर से प्रणाम करने की है। कविता इस परंपरा को तोड़ते हुए मां के भीतर निरंतर जीती स्त्री (इनडिविजुअल ह्यूमन आइडेंटिटी) को रेखांकित करती हैं; और फिर उसे आत्म-निर्णय लेने की ऐतिहासिक चेतना से जोड़ती हैं। कहानी की ताकत यही है कि यहां सत्तर की वय जीती (विधवा) स्त्री पचास बरस के वैवाहिक जीवन के बाद नितांत अपने भविष्य के लिए परिवार-समाज की आचार-संहिता के बाहर जाकर निर्णय ले रही है। वह उस सामाजिक पूर्वाग्रह (पाखंड) का बहिष्कार कर रही है जो जिंदगी को समझौता और समझौते को ईश-भक्ति का नाम देकर मनुष्य को कमजोर और पलायनवादी बनाए चलता है। अपनी अंदरूनी ताकत से अनुप्राणित इस स्त्री को सहारे के लिए किसी बैसाखी की जरूरत नहीं। बच्चों को इसलिए नहीं बुलाती कि उनकी रजामंदी लेकर अपने को अपराध बोध से मुक्त करने का प्रपंच रचे। इसलिए बुलवाती है कि उन्हें अपने निर्णय से अवगत करा सके, और साथ ही उनकी 'प्रगतिशीलता' को भी तोल सके - ''देखना है मेरे बच्चों में से कौन मेरे साथ खड़ा होता है।'' ('उलटबांसी', पृ. 18) निर्णय लेने का पल कठिनतम पल है, निर्णय ले लेने के बाद उसके क्रियान्वयन की औपचारिकताएं निर्णय द्वारा अर्जित आत्मबल से आप ही आप सम्पन्न हो जाती हैं। इसलिए अप्पू नहीं, मां को मैं अपनी नजर की सीध में ले आती हूं।
सबसे पहले मुझे सफेद बालों और झुर्रियों से भरी उनकी उम्र ही चुभने लगती है। सुमी की ममी की उनतालीस बरस की उम्र और अप्पू की मां की सत्तर बरस... क्यों नहीं कविता ने मां को चालीस न सही, 50.55 की उम्र के फ्रेम में गढा, यह वह उम्र है जब बाल-बच्चों को ब्याहने/अपने पैरों पर खड़ा कर देने के बाद फुर्सत की सांस लेती हैं भारतीय स्त्रियां। अधूरी ख्वाहिशें, भूले-बिसरे, शौक, खुरदरी-ढीली त्वचा अपनी साज-संभाल के लिए पुकारने लगते हैं। बचपन और जवानी की अल्हड़ उम्र जीवन-साथी की नजर बचा कर एकांत में बतियाने पहुंच जाती है। अपने को नई नजर से देखने का एकांत पाती है स्त्री। अप्पू की मां को उस अवस्था तक पहुंचने में पंद्रह-बीस बरस की देरी क्यों हुई? बेटे एक-एक कर नौकरी या बहुओं के हठ के कारण घर छोड़ कर बेगाने होते गए, और वह लंगड़ाते-लंगड़ाते बूढ़े (जर्जर) होने के लिए उस खाली घर में भूत सी डोलती रही। यह जानते हुए भी कि बेटे (और बेटी भी) धन से उपजी सुख-सुविधाएं देकर ममत्व नहीं बरसाते, अपने अपराध बोध तो जरा सा कम करने की कोशिश करते हैं; कि उनकी मृत्यु का समाचार बच्चों को राहत देगा, भावनात्मक आघात नहीं। तो क्या मौत की बाट जोहती रहे वह? नहीं, तमाम अमानुषिकता के बावजूद हिंदू संस्कार किसी भी सम्बंधी के लिए मौत का विकल्प नहीं चुनते। तो क्या इसी हठधर्मिता के चलते वह मौत सी नियति को स्वीकारते रहे? फ्रैक्चर हो तो पड़ोसियों की अनुकंपा पाकर कृतकृत्य होती रहे, और आदर्श मां की ढोंग भरी भूमिका को निभाते हुए स्वास्थ्य-लाभ करने के बाद ही अपनी बीमारी की सूचना बच्चों को दे? बेशक अप्पू की मां को भारतीय परिवारों की इस आचार-संहिता से सख्त चिढ़ है। ''दोनों बार जब मैं गिरी थी, इलाज उन्होंने ही किया था'' - विवाह के लिए दिया गया तर्क। अपने वैघव्य डॉक्टर साहब के विधुर जीवन के अवसाद-एकाकीपन को धो देने के पीछे सक्रिय तर्क। मुझे लगा संबल खोजने की कोशिश में जुटाया गया यह तर्क मां से ज्यादा बच्चों को मुक्त कर जाता है, जिसे तमाम शाइस्तगी के साथ बेटे छुपा ले जाते हैं, अप्पू कह जाती है - ''कितने दिन और जी सकेगी मां... दस साल, पंद्रह... इससे हद से हद बीस साल। इतने दिन अगर वह खुशी-खुशी जीए, हमें भी रह-रह कर यह चिंता न हो कि वह अकेली कैसी होगी, तो इसमें बरा क्या है?'' ('उलटबांसी', पृ. 16)
और यहीं जैसे कहानी झाग का उफान बैठने के बाद अपने मूल रूप - आसरा पाने के लिए उठाया गया कदम - में लौट आती है और 'तलाश' से क्रमश: दूर होने लगती है। 'उलटबांसी' में विवाह एक विकल्प के रूप में आया है जो वृद्धाश्रम में जाने की दिशा भी अख्तियार कर सकता था। शायद इसीलिए कहानीकार मां को सत्तर बरस की उम्र देती हैं ताकि विवाह ज्यादा से ज्यादा 'सख्य'  भाव का प्रतीक बने, दैहिक परितृप्ति का नहीं। उनके यहां प्रेम राग के अर्थ में नहीं, ममत्व और अभिभावकत्व के अर्थ में आया है जिसे अधिक कठोर शब्दों में व्यंजित करें तो डॉक्टरी परिचर्चा का नाम भी दिया जा सकता है।
''जिस उम्र में लोग तीर्थ करते हैं, भक्ति में मन रमाते हैं, उस उम्र की नाती-पोतों वाली औरत का ब्याह रचाना..??'' बनाम ''...पापा की बातें तो जैसे बीत गई हैं, पर वह खुद अभी तक रुके हुए हैं''
मेरे मन में अनेक सवाल कुलबुलाने लगे हैं - मां ने क्यों नहीं पचास-पचपन बरस की उम्र में विवाह का निर्णय लिया? यदि वह ऐसा करती, तो अप्पू की क्या प्रतिक्रिया होती? क्या तब भी वह इतनी निद्र्वद्व निडरता से मां के समर्थन में खड़ी हो पाती? मैं मां को कुरेद रही हूं कि वह पिछले पंद्रह-बीस बरस के निर्जन अकेलेपन की ठूठ स्मृतियों को मेरे साथ साझा करें, और बताए कि कैसे डॉक्टर साहब ने उनके भीतर की वीरानगियों को कोंपलों से लहलहा दिया। लेकिन मां चुप है। ....न, मैं मां के नायकत्व से अभिभूत नहीं हो पा रही हूं। जानती हूं, जवाब न आया तो अनुत्तरित सवालों को लेखिका की ओर मोड़ दूंगी।
बेशक सवाल पूछना तो बनता ही है। लेकिन सिर्फ लेखिका से क्यों? एक नागरिक के तौर पर हर मानवीय इयत्ता के लिए अपने-अपने स्तर पर विचार करना जरूरी है कि क्यों उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में विधवा विवाह के समर्थन में उठी आवाजें पुरजोर विरोध के चलते दम तोड़ देती हैं? क्यों हिंदू कोड बिल में विधवा विवाह का कानूनी प्रावधान होने के बावजूद समाज छोटे बच्चों वाली युवा विधवा, किशोर बच्चों वाली अधेड़ विधवा या खोखली हो चुकी एकाकी वृद्ध विधवा के सवाल पर या एक अकेली औरत के जीवन के किसी भी मोड़ पर अपनी मर्जी से प्रेम/विवाह करने के फैसले पर एक मौन सहमति के साथ मुखर असहमति/उपहास दर्ज करता है? पतिहीना स्त्री के पास आज भी बेटे की शरण को कबूलना एकमात्र विकल्प है। या फिर पल-पल अपने ही अकेलेपन की परिक्रमा करते रहने की मजबूरी। मैं फिर स्मृतियों के रेले में बहे जा रही हूं। यह सामने आरण्या आ खड़ी हुई है। ईशान के साथ। अरे भाई, 'समय सरगम' (कृष्णा सोबती) की बुजुर्ग नागरिक। अम्मू ('ऐ लड़की') की तरह पल-पल नजदीक आती मौत का बोध है उन्हें, लेकिन अम्मू की ही तरह गजब का हौसला और जिजीविषा। 'मौत से पहले मौत से क्या डरना' - आरण्या की जिंदगी का मूलमंत्र है अम्मू का यह आप्तवचन। जिंदगी भर अकेलेपन से न घबराई, न कुम्हलाई आरण्या जिंदगी के आठवें दशक में हमउम्र ईशान को पाकर जैसे पूर्ण हो गई है। संयुक्त जीवन की शुरूआत और एडॉप्टेड बच्चियों का संग साथ-परिवार के इस सुख को इससे पहले कहां झेला था उन्होंने। मैं देख रही हूं ईशान के स्पर्श ने उनकी झुर्रियों के काठिन्य को थोड़ा कम कर दिया है। वय की सीमा प्रेम के उठान को नहीं रोक पा रही है। अपने बूते ताउम्र जीने के बाद, अपने बूते आखिरी घड़ी तक जीने के विश्वास के बावजूद ईशान बैसाखी नहीं, अपने ही संवेदन का विस्तार बन कर आए हैं। अप्पू की मां के पास क्या डॉक्टर साहब को लेकर ऐसी ही प्रेमसिक्त स्मृतियां हैं जो जिंदगी का हर देना-पावना बिसरा कर जिंदगी और मौत के बीच बहते दरिया में उन्हें ही स्थित कर दे? आरण्या-ईशान की प्रेम-तन्मयता उन्हें उम्र के पार एजलैस कर समर्पित युगल में तब्दील कर देती है। लेकिन मां के निर्णय में डॉक्टर साहब सूचना बन कर आते हैं, एक तीमारदार या साझा जीवन जीने का एक अनुबंध पत्र। सेक्सुएलिटी की मांग दैहिक अंतरंगता का चित्रण भर नहीं है, एक गहरी चाहत के साथ अपनी प्रेम हिलोरों और चिंताओं को एक-दूसरे के सुपुर्द कर डूब जाना भी है। हो सकता है मां यह जानती हो, लेकिन अपने में बंद रहने के कारण किसी को भीतर न उतरने देती हो। अप्पू को भी नहीं, लेखिका को भी नहीं। क्या यह उसका अपनी संतान से प्रतिशोध है कि निरंतर उपेक्षा करते रहने वाले 'अपनों' को वह गुह्य रहस्यों की भनक तक न लगने देगी? या वह स्वयं अपने भीतर अंगड़ाई लेती स्त्री के फैले वजूद को देख कर सिहर गई है?
'डॉक्टर साहब से ब्याह का फैसला दो बार के इलाज के दौरान बनी नजदीकियों का परिणाम तो नहीं हो सकता, मां। तफसील से हाल-ए-दिल सुनाओ न।' मैं मनुहार कर-करके हार गई हूं, पर मां है कि टस से मस नहीं हो रही।
मैं हताश 'तलाश' की ओर लौट पड़ती हूं। देखती हूं कि विषय को लेकर कमलेश्वर की एप्रोच कविता से बिल्कुल अलग है। उसके लिए विवाह रोटी और बैसाखी के लिए जुटाया गया समाधान नहीं, अपनी सेक्सुएलिटी को पुरजोर स्वीकृति के साथ जीने और स्त्री को पैसिव पार्टनर की रूढ़ छवि में बांध देने वाली विवाह संस्था के ढांचे को कठघरें में खींच लाने का उपक्रम है। इसलिए उनकी अधेड़ होती नायिका यौवन के लालित्य और ज्वार से सराबोर है। वह तो उमड़ते सागर के ऊपर उड़ते जल-पाखी के समान है जिसे अपने सहचर के संग दूर-दूर तक फैले अथाह विराट को नाप आना है। 'उलटबांसी' की तरह 'तलाश' भी निर्णय तक पहुंचने की कहानी नहीं। लिए जा चुके निर्णय के क्रियान्वयन की कहानी है। फर्क यह है कि यहां शब्द नहीं, संकेत बोलते हैं - फुसफुसा कर नहीं, लाउड होकर। इतने अधिक लाउड कि अडिग आस्था (कनविक्शंस) के साथ अपने पाले में खड़ी सुमी संवाद के लिए ममी को ही सबसे बड़ी बाधा पाती है। ममी के माथे पर लाल स्याही से बनी गोल बिंदी ममी का अपने भविष्य को लेकर सुस्पष्ट निर्णय है, लेकिन सुमी के लिए वह ममी की उच्छृंखलता का (जीवन के अभिषेक का नहीं) प्रतीक है जिसे मि. चंद्रा के रूप देखकर आहत और अस्तव्यस्त होती रहती है। सुमी में आत्म-गौरव का रोमानी भाव कूट-कूट कर भरा है। ममी अपनी मर्यादा खुद रखे, न रखे, वह मां-बेटी के सम्बन्ध की मर्यादा रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देती है। वह ममी से आंख चुराती घूमती है ताकि आंख मिलने पर 'ममी को कुछ उलझन न होने लगे।' सुमी की ट्रेजेडी यह है कि वह एक साथ दो स्थितियों में घिरी खड़ी है, और दोनों को वस्तु-सत्य मानने के हठ के कारण किसी ठोस निर्णय तक नहीं पहुंच पा रही है। परिणामस्वरूप स्थगन में घिरी खड़ी है, और दोनों को वस्तु-सत्य मानने के हठ के कारण किसी ठोस निर्णय तक नहीं पहुंच पा रही है। परिणाम स्वरूप स्थगन और पलायन उसकी कार्यशैली बन कर रह गए हैं। स्त्री होने के नाते मि. चंद्रा के प्रति मां की आसक्ति को वह जायज मानती है, लेकिन पिता (विवाह संस्था) के वर्चस्व पर आंच भी नहीं आने देना चाहती। वह मां को स्त्री के रूप में देखना चाहती है, लेकिन सदियों के संस्कार के बोझ तले दब कर पिता की 'सम्पत्ति' से अलग उसे कोई पहचान नहीं दे पाती। इसलिए मि. चंद्रा मां के भविष्य के प्रतीक के रूप में नहीं, पिता को बेदखल करने वाले लठैत के रूप में उसे दिखाई पड़ते हैं। 'तलाश' चूंकि एक ठहरे हुए मूक क्रंदन की कहानी है, इसलिए सुमी की पीड़ा अप्पू के शब्दों में मूर्त रूप लेने लगती है - ''तस्वीर में सामने टंगे पिता मेरे मन में भी कौंधने लगते हैं। मां उनकी जगह किसी को भी कैसे दे सकती है। वह सिर्फ मां की नहीं, हमारी भी थाती है।... मां दे भी तो हम क्यों दें? कैसे ढूंढ पाएंगे हम किसी अनजाने चेहरे में पिता का चेहरा? ('उलटबांसी', पृ. 19) सुमी का ममी के कमरे में पापा की तस्वीर के साथ-साथ छड़ी भी उठा लाना सुमी की वैचारिक-भावनात्मक दुर्बलता का ऐलान करता है। व्यवस्था का जाना-चीन्हा ढांचा उसे भावनात्मक सुरक्षा देता है जहां सुपरिचित सम्बंध (पिता) छड़ी (अंधे की लाठी) बन कर उसे संबल भी देते हैं और आतंकित भी करते हैं। सुमी अपनी भावनात्मक -वैचारिक दुर्बलता के कारणों को नहीं चीन्हती, इन्हें हथियार बना कर दूसरों को आतंकित करना खूब जानती है। छड़ी रखने के पक्ष में उसके पास भोंथरा सा तर्क है कि ''कभी-कभी रात में उधर बिल्ली आती है'', लेकिन दरअसल सत्ता के वर्चस्व को अपने पास सुरक्षित रख कर व्यवस्था की घेरेबंदी से बाहर निकलती हर अस्मिता को आतंकित कर देना चाहती है। वैचारिक खोखलेपन को छुपाने के लिए कट्टरवाद अक्सर मदद के लिए दौड़ा आता है। तब उदारता का ढोंग रच कर यथास्थितिवाद को बनाए रखना उसका प्रिय शगल बन जाता है। मुक्ति की घोषणा बंधनों को और भी जकड़ कर कैसा आतंक पैदा करती है - 'तलाश' कहानी इसकी साक्षी है। सुमी का स्थायी तौर पर (या जब तक मि. चंद्रा-ममी प्रकरण जिंदा है, तब तक) हॉस्टल में शिफ्ट कर जाना सुमी के तईं ममी को मुक्त करने की घोषणा हो सकती है, लेकिन दरअसल यह ममी को 'अपराधी' करार देकर उसे नैतिक-भावनात्मक दृष्टि से दंडित करने की युक्ति हैं। न, सुमी मासूम बेटी नहीं, व्यवस्था का शातिर चेहरा है जो अपनेपन का दावा करते हुए 'अपनों' को उच्छृंखल देह-सम्बंध की छूट तो देता है, विवाह-सम्बंध की नहीं। व्यवस्था का यह चेहरा अपनी सुविधा के लिए नैतिकता की परिभाषाएं गढ़ता है। उसकी नजर में उच्छृंखल सम्बंध तब तक 'नैतिक' हैं जब तक उनका पर्दाफाश न हो जाए। ठीक हमारे कानूनी प्रावधान की तरह कि जब तक अपराध साबित न हो जाए, अभियुक्त निर्दोष है। और कौन नहीं जाता कि सबूत जुटाने या नष्ट कर डालने की प्रक्रिया तटस्थ दायित्व न रहकर अभियुक्त को दोषी या निर्दोष साबित करने के पूर्व निर्धारित एजेंडा से संचालित होती है।
मैं देखती हूं अपमान के इस चौराहे पर आकर ममी के भीतर ठाठें मारता जीवन अचानक सूख गया है।
'इतना भर जानती है यह लड़की मुझे? प्रेम को वासना और प्रिय को सैक्स पार्टनर मानकर देह का खुला खेल खेलने के लिए ही एकांत देना चाहती है मुझे? 'खेल' सम्बन्ध का पर्याय नहीं बन सकता। क्यों नहीं समझती लड़की कि खेल लम्हों की उत्तेजना में बंध कर बहुत जल्द खत्म हो जाता है, जबकि सम्बंध लमहों को जीकर उम्र को जीत लेता है।'
मैं कांप गई। क्या इसे ही स्त्री का अहल्या हो जाना कहते हैं?
'आपने अप्पू की मां की तरह खुलकर सुमी को अपना निर्णय क्यों नहीं बताया?' मैंने अपना सवाल भीतर लौटा लिया है। सचमुच वह मूर्ख लड़की कहां समझी होगी कि माथे पर लाल बिंदी सजा कर ममी ने यौनेच्छा को समाज स्वीकृत विवाह सम्बंध की हार्दिकता में गूंथना चाहा है।
''आप सुमी से स्वीकृति क्यों लेना चाहती थीं। अप्पू की मां की तरह उसे सूचित कर जिंदगी में आगे बढ़ सकतीं थीं न!'' संवेदना के धरातल पर मैं ममी से अभिन्न हो गई थी। मैंने देखा जीवन के एक-एक पल को गहरी साज-संभाल के साथ जीने वाली ममी सुमी के हॉस्टल जाने के बाद कितनी सुन्न हो गई थीं; और जीवन के प्रति बेपरवाह। न कैलेंडर बदलने की सुध, न फ्रिज में बुनियादी जरूरतों का सामान जुटाने की फिक्र। मानो जीवन भी वहीं ठहर गया हो और रीत भी गया हो साथ-साथ।
'मैं डर गई थी।' एक गहरी उसांस भर कर ममी ने जवाब दिया, 'परंपरा में हस्तक्षेप करने का फैसला स्त्री का अपने भविष्य के लिये लिया गया फैसला भर नहीं होता; वह व्यवस्था के रखवालों को दी जाने वाली चुनौती बन जाता है। मैं चुुनौती देने को तैयार थी, लेकिन सुमी की कीमत पर नहीं।...'
मुझे राजलक्ष्मी (श्रीकांत) और सावित्री (चरित्रहीन) याद हो आईं। प्रेम को ममत्व में बांध कर ही जीवन पा सकती है स्त्री। किरणमयी (चरित्रहीन) की तरह प्रेम के कलेवर में प्रेम को पाने की जिद करें तो... मैं सिहर उठी।
'... सुमी ने मेरी ताकत बनने से इंकार कर दिया। मैं मि. चंद्रा के साथ होती तो नैतिक फटकार लगाने के लिए वह कभी अपने पापा का मुखौटा पहन लेती, कभी सलीब पर लटकती दीखती। मैं अपनी कमजोरी से उबर नहीं पाई।'
'काश! आप अप्पू की मां की तरह...' गहरी हमदर्दी से भर कर मैंने सांत्वना देनी चाही तो लगा, नया कुछ भी नहीं कर रही हूं। ममी की आकांक्षा को ही तो दुहरा रही हूं।
लेकिन जाने क्यों, मैं ममी की स्वीकारोक्ति से जरा भी सहमत नहीं हूं। नहीं, मैं उन्हें कमजोर नहीं मान सकती। जीवन की ऐषणाओं और ऐश्वर्य से भरपूर हर स्त्री मित्रों (मित्रो मरजानी, कृष्णा सोबती) की तरह व्यक्ति-रिश्ते को जूती की नोक पर नहीं रख सकती। खासतौर पर जब तब लेखक उसे नॉन-एसर्टिव व्यक्तित्व देने पर तुला हो।
लेकिन शायद मैं ज्यादती कर रही हूं। कमलेश्वर मित्रो का 'रेप्लिका' नहीं गढऩा चाहते थे, ममी की मांग को सामाजिक बदलाव के लिए जरूरी समझते हुए विमर्श की जमीन बनाना चाहते थे। लेकिन जानते थे, अपनी जड़ता में घिरा समाज संवाद के लिए सामने आने को तैयार नहीं। इसलिए वे इस तरह कहानी बुनते हैं कि ममी कहानी के केन्द्र में होने का आभास दें, लेकिन घटनाहीनता एक बड़ी घटना का रूप लेकर केन्द्र को अपदस्थ करते हुए सुमी को वहां ला बैठाए। यही वजह है कि 'तलाश' में दूर-दूर तक पसरा ठहराव है, संवादहीनता है, आतंक और यांत्रिकता का घनीभूत दबाव है। 'उलटबांसी' में मां-बेटी सम्बंध धूप में चमकती ताजगी की तरह बुने गए हैं। एक-दूसरे की ताकत बन कर वे स्त्री को हर तरह की विभीषिका से निकाल लाने का मीठा अहसास पाठकों तक सम्प्रेषित करती हैं। तीसरी पीढ़ी की युवा होती निशा (नैरेटर की भतीजी और मां की पोती) उन्हें सफलतापूर्वक प्रतिरोध की लड़ाई लडऩे का हौसला भी देती है। लेकिन फिर भी लगता है कि कहानी में ठहराव है, जीवन की गति के आभास के बावजूद। पात्र, हूक या प्रेरणा बन कर भीतर नहीं उतरते, छाया की तरह पल भर आक्रान्त कर कहीं बिला जाते हैं। मैं जानती हूं अप्पू और मां दोनों मुझे आड़े हाथों ले लेने को तैयार हैं। वे मेरी इस बात से बेहद नाराज हैं कि कहानी की क्रांतिकारी थीम को रेखांकित करने की बजाय मैं इसे वाहवाही लूटने की रोमानी कोशिश का नाम दे रही हूं। खासतौर पर मेरी यह बात उनके गले नहीं उतर रही कि सत्तर बरस की वृद्धा का ब्याह करना वृद्धाश्रम में दिन काटने के विकल्प का ही दूसरा पहलू है।
'भारतीय परिवारों में बेटों वाली विधवा को भी अक्सर आत्मसम्मानजनक ठौर नहीं मिलता। आजकल तो होनहार पूत कार में बैठा कर मां को खुद वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं, नोटों की गड्डियों के साथ आश्रम के प्रबंधक को ताकीद करते हुए कि मां का ख्याल रखिएगा। इनकी खुशी हमारे लिए बहुत कीमत है।' अप्पू रोष में तमतमा रही थी, '...आप कहती हैं...'
मैंने अपनी भूल-गलती स्वीकार कर ली।
'यह फैसला हमारी सांस्कृतिक संरचना को धता बता कर सीधे-सीधे औरत को खुदमुख्त्यारी देना है जिसे परंपरागत सामाजिक ढांचा कभी बरदाश्त करने को तैयार नहीं।'
'इसीलिए तो उनकी देह को नोचा जाता है ताकि उसके भीतर न आत्मसम्मान बचे, न प्रतिरोध करने की ताकत।' यह मां थी, हर तरह के उलझाव से मुक्त। सधे लहजे में दो टूक विश्लेषण! मैं सहमत हूं। अप्पू और मां से ही नहीं, कहानीकार से भी। कहानी का यही अंत तो होना था। स्त्री मुक्ति का परचम और भगिनीवाद विस्तार। व्यवस्था को झकझोरने के लिए ऐसे आघात वक्त की जरूरत हैं। लेकिन फिर भी मुझे-रह-रह कर सुमी बुलाती है। ठहराव के भीतर नसें चटका देने वाली घुटन और बेचैनी भर कर कमलेश्वर ने व्यक्ति और व्यवस्था के बीच टकराहट की अनिवार्यता को पिरो दिया है। वे कविता की तरह नाक की सीध में लक्ष्य की ओर नहीं दौड़ते, भूलभुलैयां में खोकर अपना रास्ता चुनने का विवेक देते हैं। हालांकि शब्द कविता के हैं, लेकिन मानो 'तलाश' के रचयिता का वक्तव्य बन कर आते हैं कि ''एक यात्रा में कितनी और यात्राएं समानांतर चलती होती है।''
स्त्री होने के नाते कविता के लिए स्त्री पात्रों के समर्थन में खड़ा होना और स्त्री प्रश्नों के प्रति व्यवस्था को सेंसिटाइज करना नैतिक दायित्व बन जाता है। वे बकौल प्रेमचंद साहित्य को समाज के आगे-आगे चलने वाली मशाल का रूप देना चाहती हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में विषय की संश्लिष्टता सतहीपन में, संवेदना की प्रगाढ़ता द्वंद्व और टकराहट की बजाय उद्बोधन या जस्टीफिकेशन में विघटित होती चलती है। ट्रांसपेरेंसी मनुष्य और व्यवस्था के लिए बहुत बड़ी नियामत हैं,लेकिन कथागत पात्र, जब इतने ट्रांसपेरेंट हो जाएं कि उनके आर-पार देख कर निष्कर्ष निकालना संभव हो जाए, तब लेखक की अंतर्दृष्टि की गहनता पर अनायास सवाल खड़े होने लगते हैं। कमलेश्वर स्त्री मुक्त के पक्ष में बेशक कोई फैसला नहीं सुनाते, स्त्रीत्व को 'निष्क्रियता' और 'अन्या' होने की विडंबना में ही उद्घाटित करते हैं, लेकिन इसी जमीन पर खड़े होकर वे दो अलग-अलग स्टैंड लेती सुमी और ममी को पितृसत्तात्मक व्यवस्था की विक्टिम के रूप में चित्रित कर जाते हैं। ''मां की जगह पापा होते तो शायद एक बार हम विचार कर भी लेते इस मुद्दे पर। पर मां... नहीं।'' ('उलटबांसी', पृ. 17) कविता अपने पात्र के मुंह से जिस सामाजिक विडंबना को कहलवाती हैं, कमलेश्वर के दोनों पात्र उसे अहसास के स्तरपर जीते हैं। कविता की तरह अपनी आकांक्षाओं को सरलीकृत करते हुए व्यवस्था के विरोध में लड़ी जाने वाली लड़ाई में स्त्री के सिर पर विजय का सेहरा बांधना कमलेश्वर के लिए संभव नहीं। कविता समाज के खौफ से मुक्त स्त्री पात्रों को रच सकती हैं, कमलेश्वर नहीं। कमलेश्वर की दोनों स्त्रियां एक स्तर पर यदि व्यक्ति के तौर पर अपनी निजी अनुभूतियों और आकांक्षाओं को वाणी देती हैं तो दूसरे स्तर पर समाज के दबावों और आतंक तले सिकुड़ती हुई कोने में जा सिमटती हैं। इसलिए कविता के पास वाचालता है, तेजी से दौड़ती-भागती घटनाएं हैं, बोल्ड कट आउट के साथ उभरे पात्र हैं, ठोस निर्णय और स्पष्ट दृढ़ता है, जबकि कमलेश्वर के पास इनमें से कुछ भी नहीं। है तो संवेदना की सांद्रता और वक्त को परखने की निर्ममता। शब्दहीनता है तो बिंबों के सहारे अभाव की पूर्ति करते हैं; घटनाएं नहीं हैं तो दिग्-दिगंत तक फैला व्यवस्था का खोखला पिंजर ही उन्हें प्रतिस्थापित करने हेतु आ पहुंचता है। वे ठहराव के भीतर गति की अजस्र शक्ति भर देते हैं जो एक साथ वक्त के तीनों कालों को नाप कर पितृसत्तात्मक व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर देती है।
'नई कहानी' आंदोलन के कहानीकारों की तरह कमलेश्वर विशुद्ध कंटेटवादी कभी नहीं रहे। संगीत की आंतरिक लय, प्रतीक में संघटित होता बिंब विधान, आडंबरहीन सादगी से औदात्य का संस्पर्श करता शिल्प, शालीनता के मुखौटों को चीरती शालीनता और अपने में ही उलझ कर ठिठकी द्वंद्वग्रस्तता के पैरों चलकर मनुष्य के अस्तित्व की विराटता की थाह लेता लेखकीय आत्मविश्वास- वे ये कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो कमलेश्वर समेत उनके युग के अमूमन हर कहानीकार में पाई जाती हैं। ये विशिष्टताएं जिंदगी के रोजमर्रापन को नए कोण से देखने की क्षमता के कारण कहानी के प्रभाव को पाठक की चेतना में सवाल बना कर गूंथ देती हैं। प्रभाव कहानी में निहित अर्थगर्भित चुप्पियों के साथ पाठक-सहसर्जक- के संवाद की अनवरत प्रक्रिया का परिणाम है जो हर गहनतर पाठ के साथ अर्थान्वेषण की एक और गहरी यात्रा पर निकल पड़ता है। आज की कहानी एकान्विति का बिंदु बनकर एक-दूसरे में लय होते कंटेट और शिल्प को नहीं साध पाती। लेखक की वैचारिकता, संवेदना, कल्पनाशीलता और व्याकुलता जब जीवन के प्रति अदम्य रागात्मकता के साथ घुलमिल कर अंतर्दृष्टि का रूप लेती हैं, तभी एक संघटनात्मक परिणति के रूप में कला विचार को संवेदना में, निष्कर्ष को प्रक्रिया में ढाल पाती है। कविता के पास कहानी बुनने की दक्षता और घटनाओं को रोचकता में ढालकर पाठक को बांधे रखने की क्षमता भरपूर है, लेकिन स्थूल को सूक्ष्म व्यंजना बना कर एक बिंदु के भीतर पूरे ब्रह्मांड की विराटता को समेट लेने की कला नहीं। इस मायने में 'तलाश' यकीनन एक बेहतर कहानी है। लेकिन जिस 'कट्टरता' और जनून के साथ स्त्री-प्रश्न पर कविता समाज की रहनुमाई का जतन करती हैं, उसे सदाशयपूर्ण अर्थव्यंजनाओं के साथ जरूर समझा जाना चाहिए क्योंकि दुर्भाग्यवश स्त्री-प्रश्नों को लेकर हम आज भी सौ साल पुराने समाज में जी रहे हैं।








अगली बार चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की 'उसने कहा था' और नीलाक्षी सिंह की 'रंगमहल में नाची राधा' पर आलेख।


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