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जून 2014

संपादक के नाम

निरंजन देव शर्मा

संपादक के नाम

यशपाल के चर्चित उपन्यास 'झूठा सच' के महत्व को लेकर एक बार फिर प्रियम अंकित ने पुरानी बहस को हवा दे दी है। झूठा सच को तोलस्ताय के 'युद्ध और शांति' के समकक्ष रखते हुए अंकित मुख्य रूप से नेमिचंद्र जैन की आलोचना दृष्टि पर कटाक्ष करते हैं। 'अधूरे साक्षात्कार' पुस्तक में 'झूठा सच' की आलोचना को 'संभ्रांत और कुलीनतावादी दृष्टि' के प्रभाव से पुष्ट मानते हैं। कुल मिला कर प्रियम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं ''आलोचना की सभ्रांत और कुलीनतावादी दृष्टि के प्रभाव में आकर उत्कृष्ट मेधा भी किस तरह रचना की सामथ्र्य को व्याख्यायित करने लगती है, यह विश्लेषण इसका उदाहरण प्रस्तुत करता है यह सभ्रांत और कुलीन दृष्टि रचना में जीवन की कुत्सा और पाशविकता के चित्रण को अभीष्ट नहीं मानती, उसे जीवन की सुकुमारता में ही भावनाशीलता और संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। चूंकि 'झूठा सच' भारतीय इतिहास के सबसे कुत्सित और पाशविक दौर को चित्रित करता है, अत: वह सुरुचि के दायरे से बाहर चला जाता है।'' (पहल, अंक 95, पृष्ठ - 217)
'झूठा सच' के बहाने इस विषय पर वास्तव में चिंतन आवश्यक है कि साहित्य में इतिहास की उपादेयता को किस प्रकार देखा जाना चाहिए। इतिहास के कुत्सित और पाशविक दौर का प्रस्तुतीकरण किस रूप में होना चाहिए। अंकित अपनी उपरोक्त स्थापना का उत्तर अनजाने में स्वयं ही दे देते हैं - ''...शिंडलर्स लिस्ट, द पायनिस्ट जैसी अनेकों फिल्मों और क्विंर्तीन तारनातिनो का सिनेमा मानव जीवन की हिंसा कुत्सा और पाशविकता में नए कलात्मक आयामों की तलाश सफलतापूर्वक करता है। झूठा सच अपनी दृश्यात्मकता में सिनेमैटिक है। उसे सिनेमा के शिल्प में आसानी से ढाला जा सकता है।'' (पहल, अंक 95, पृष्ठ-217)
जिन 'कलात्मक आयामों' की बात अंकित यहां करते हैं उन्हीं की कमी 'झूठा सच' में खलती है। इसी बिंदु को लेकर नेमीचन्द्र जैन ने झूठा सच की महत्वपूर्ण व्याख्या 'अधूरे साक्षात्कार' में प्रस्तुत की है। वहां इतिहास के ब्यौरे तो हैं पर इतिहास का वह बोध नहीं है जो एक रचनात्मक कृति में अपेक्षित होता है। रही कुछ 'सिनेमैटिक' नज़र आने की बात, यदि ऐसा होता तो उस सम्भावना की खोज भारत के प्रबुद्ध फिल्मकारों ने अब तक कर ही ली होती। यदि ऐसा ही होता तो वह 'तमस' का चयन न करते। जब साम्प्रदायिक विषय का चुनाव करना था तो गोविन्द निहलानी जैसे सजग निर्देशक क्या 'झूठा सच' से अपरिचित रहे होंगे। क्यों श्याम बेनेगल की इतिहास की दृष्टि ने कभी 'झूठा सच' की पृष्ठभूमि पर कार्य करने का साहस नहीं दिखाया।
सतह पर नज़र आने वाली घटनाओं के चित्रण और वृहद् आकार के चलते साहित्य में कोई कृति इतनी बड़ी नहीं हो जाती कि उसकी तुलना 'युद्ध और शांति' से करने की आवश्यकता आन पड़े। कला विधाएं हिंसा या कुत्सा को कलात्मक तरीके से ही प्रस्तुत करती हैं। इस सन्दर्भ में जब अंकित अपनी बात के समर्थन के लिए हालीवुड सिनेमा का जिक्र करते ही हैं तो 'गैंग्स आफ वासेपुर' का भी जिक्र कर ही दिया होता। अपने यहां भी प्रतिभाशाली फिल्मकारों की कमी नहीं है। भले ही इस फिल्म का सम्बन्ध साम्प्रदायिक हिंसा से नहीं है पर जातीय हिंसा से तो है। यह फिल्म उस भूभाग के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जाकर प्राकृतिक संसाधनों पर वर्चस्व के लिए हिंसा के कारणों को जिस गहराई से देखती है उस तरह के इतिहास बोध की जरूरत रचनात्मक विधाओं में रहती है।
राही मासूम रज़ा के 'आधा गांव' और निर्मल वर्मा के 'वे दिन' का नाम इस सन्दर्भ में लिया जा सकता है। 'तमस' में पांच दिनों के घटनाक्रम में साम्प्रदायिक प्रवृत्तियों का जटिल स्वरूप जिस रूप में पाठक तक संप्रेषित होता है उनका मूल्य किसी साहित्यिक रचना में अधिक है।
दरअसल आलोचना आज भी उसी दायरे में भटक रही है जहां तक वह प्रगतिशील और जनवादी आंदोलनों के दौर में पहुंची थी और कलावाद से उसका टकराव आलोचना के दो विपरीत ध्रुवों को जन्म दे रहा था। इस टकराव के कुछ दुष्परिणाम भी सामने आये। नेमिचंद्र जैन जिस गहन आलोचना दृष्टि से लैस थे उसका व्यापक लाभ उनके प्रति इसी तरह के नकार भाव के चलते नयी पीढ़ी को नहीं मिला।
'तमस' से सम्बंधित संस्मरण में भीष्म साहनी कहते है ''दंगे तो पांच छ: दिन तक ही रहे लेकिन वर्षों पहले से देश के वायुमंडल में हिन्दू-मुस्लिम तनाव पाया जाता था। तब से तहरीक चली थी, साम्प्रदायिक प्रचार को एक तरह की खुली छुट्टी मिल गई थी...'' (पृष्ठ-392, आधुनिक हिंदी उपन्यास)
वर्षो पहले से जिस साम्प्रदायिक तनाव के पाए जाने की बात भीष्म साहनी करते हैं उसकी जड़ों तक जाने का प्रयास कृष्णा सोबती ने 'जिंदगीनामा' में किया है। इस तरह से सम्प्रदायवाद और उससे जन्मी हिंसा पर गहन विमर्श करने वाले उपन्यासों पर सिलसिलेवार बात होनी चाहिए। इस दृष्टि से 'युद्ध और शांति' से किसी उपन्यास का सामंजस्य बैठाये जाने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। यहां जिंदगीनामा के इस अंश के आलोक में सम्प्रदायवाद की जड़ें आर्थिक असमानता कायम रखने की सुनियोजित सामाजिक संरचना में नज़र आती हैं। यह आर्थिक विभाजन का कारक साम्प्रदायिकता को जन्म देने वाले और कई सारे कारकों मे एक है।
जिंदगीनामा में आबादी के बड़े हिस्से के सरोकार शाहों की ज़मीन-जायदाद पर काम काज करके गुजर-बसर करने से जुड़े हुए हैं। इसका कारण स्पष्ट रूप से किसी समुदाय की कमजोरी और पिछड़ेपन का फायदा उठा कर अपना वर्चस्व बनाए रखने की इंसानी फितरत से जुड़ा हुआ है। ज़मीनें शाहों के कब्जे में हैं। काम्मी या मुजारे पहले से ही शाहों के कर्ज तले दबे हुए हैं इसलिए मजदूरी करने के सिवा उनके पास कोई चारा भी नहीं। जब तक इस व्यवस्था के विरोध में आवाज़ नहीं उठती तब तक तो इसे बने ही रहना है। लेकिन एक न एक दिन विरोध के स्वर उठने ही थे। शाहों के यहां परंपरा थी कि फसल की कटाई के बाद काम करने वालों को सामूहिक भोज देते थे। साल में एक बार होने वाले इस भोज को लोग शाहों की दरियादिली समझते थे। इसी दौर में मेहर अली के मुख से निकले यह संवाद बताते हैं कि कहीं न कहीं इस समुदाय को शाहों की दरियादिली के अर्थ समझ में आने लगे हैं। उपन्यास में असंतोष के स्वर उभरते नज़र आते हैं।
''रोटी पर घी शक्कर रखा मां बीबी ने तो मेहर ने ठिठोली की ''किस-किस को खिलाओगी खाला। सारे पिंड की खाला और फूफी बनी बैठी हो।''
''सुन भांजे, आज मैं लाड़-प्यार का नहीं, मेहनत मुश्क्कत का खिलाती हूं। रब्ब राखा तुम्हारी मेहनतों का। भर भर काटो फसलें और ढेर लगाओ ऊंचे।''
''हला खाला। तुम तो ऐसे उच्चरती हो ज्यों हम-आप ही जीवियों के मालिक हों। गाह पड़ा, जोगे चले, त्रिंगाल फिरें, दानों के ढेर लगें-खेत तो शाहों के ही न! अपने हिस्ते तो यही मेहनताना-वाढी की कुछ भरियां!''
मां बीबी के कान खड़े हो गए।
''क्यों रे गजैबी गोले, तू अनोखी वाढी करने चढ़ा है। जिसके पास जीवियों की मालकी हो वह फसलें न लें तो क्या मुजारे लें। कामी मुजारों को तो बांट मुताबिक मेहनताना लगा ही हुआ है।''
मेहर अलि ने छाती पर हाथ फेर बगलों में दबा लिए, फिर अडिय़ल घोड़ों की तरह शुंकार कर कहा, ''शाहों की देनदाही में तो हम घुटनों-घुटनों खुबे हैं कस्सों की वाली •ामीन शाहों के खूंटे से छुट जाए तो डटकर करें मेहनत और कुछ खाएं और कुछ बचाएं''। (जिंदगीनामा,  पृष्ठ-82)
उपन्यास लिखते हुए कृष्णा सोबती की नज़र वर्गगत खाई पर बराबर है जो कभी भी राजनीतिक चेतना से जुड़ कर गुल खिला सकती है। लोक जीवन के माध्यम से सामाजिक रिश्तों की डोर में पड़ती गांठों की पहचान करने का काम नयेपन के साथ कृष्णा सोबती ने जिंदगीनामा में किया है। यह बहुत छोटी-छोटी घटनाएं हैं जो आई-गई हो जाती हैं, लेकिन इस तरह की घटनाओं के सूत्र जोड़ेंगे तो पाएंगे कि विभाजन की घटना के समय यही घटनाएं राख में ढकी चिंगारी की तरह साबित हुई होगी। यदि भविष्य में 'जिंदगीनामा' का दूसरा भाग सामने आता है तो यह तथ्य सामने आ सकते हैं। इतिहास में झांकने का एक कलात्मक तरीका यह भी होता है। इतिहास के जन्मे गहरे बोध की दरकार एक रचनात्मक कृषि में रहती है।
यशपाल भी साम्प्रदायिक वातावरण के लिए जिम्मेदार आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक कारकों को अपने उपन्यास में लाते हैं। रमेश उपाध्याय ने इसके महत्व पर 'तमस' पर लिखे आलेख में प्रकाश डाला है। वह 'तमस' में भी इन विशेषताओं को देखते हैं तथा झूठा सच की सीमाओं की बात प्रत्यक्षत: नहीं करते पर जो तथ्य सामने लाते हैं वह इस वास्तविकता की ओर इशारा तो करता है।
''भीष्म साहनी का उपन्यास 'तमस' पढ़ते समय उक्त तीनों  दृष्टियों से लिखी गई रचनाएं याद आती हैं, क्योंकि इसमें भी विभाजन के समय की स्थितियों और साम्प्रदायिक फसादों को सामाजिक-राजनैतिक नजरिये से देखने का प्रयास किया गया है। यह उपन्यास उस ऐतिहासिक दुर्घटना के काफी समय बाद लिखा गया है, इसलिए लेखकीय आवेश और प्रचलित मुहावरों के बजाए इसमें एक शांत तटस्थता सी दिखाई पड़ती है... लेखक यद्यपि उस समय की सारी चीजों को बहुत नजदीक से जानता है और उपन्यास के प्रसंगों को बड़े जीवंत रूप में उभारता है, मगर अपने आप को सारी चीजों से तटस्थ, परे या ऊपर मानता है...'' (पृष्ठ-397, आधुनिक हिंदी उपन्यास)
यह बहुत महत्वपूर्ण है, बिना किसी आसक्ति के घटनाओं का विश्लेषण करते हुए समस्या की जड़ तक जाने का प्रयास करना, पात्रों के तर्क-वितर्क से एक खास तरह की दूरी बनाये रखना। आनंद प्रधान ने इसी किताब में 'झूठा सच' पर एक महत्वपूर्ण लेख लिखा है जिसमें वह मानते हैं कि इस उपन्यास के लिखे जाने के पीछे कोई कलात्मक दबाव नहीं थे बल्कि यशपाल की विचारधारात्मक सचेतता और सोदेश्यता थीं, जिससे उपन्यास चर्चित तो हुआ पर यथार्थ की ज़मीन में गहराई तक नहीं धंस पाया और न ही अपेक्षित रचनात्मक ऊंचाई तक पहुंच पाया।
''यह सचेतता और सजगता यदि लेखक की शक्ति थी तो लेखक के भावबोध में कुछ ऐसे दूसरे तत्व भी थे जिनके बारे में वह पर्याप्त सचेत नहीं था, और जिसके कारण उसके लेखन में कुछ कमजोरियां बराबर बनी रहीं। उदाहरण के लिए, यशपाल के ज्यादातर उपन्यासों में भारतीय समाज के यथार्थ के उस पक्ष का चित्रण अधिक रहा जो मध्यवर्गीय इच्छाओं और आकांक्षाओं के अनुकूल पड़ता है। एक तरफ यदि लेखक युवकों-युवतियों के प्रेम प्रसंगों, उनकी राजनीतिक बहसों आदि के माध्यम से पाठकों के अन्दर रूचि और विवेक पैदा कर रहा था, तो दूसरी तरफ एक खास किस्म के पात्रों के जीवन तर्क में बंध कर अपने लिए सीमाएं पैदा करता जा रहा था। ...शायद इसी कारण यशपाल के उपन्यासों में राजनीतिक प्रश्नों और सामाजिक विषयों के विवेचन के बावजूद वह ऐतिहासिक-राजनैतिक दृष्टि नहीं उभरी, जो एक साहित्यिक रचना को अतिशय यथार्थपरक और कलात्मक बनाती है।'' (पृष्ठ-115-116, आधुनिक हिंदी उपन्यास) निष्कर्ष यह कि जिस कलात्मक ऊंचाई तक प्रियम अंकित सिनेमा के कुछ उदाहरण देकर, तालस्ताय के 'युद्ध और शांति' से 'झूठा सच' की तुलना करना चाहते हैं वह अप्रासंगिक हो चुके आलोचनात्मक मानदंडों को अनावश्यक रूप से पुनस्र्थापित करने का उपक्रम मात्र है। 'झूठा सच' का महत्व इस बात में अवश्य है कि शोधार्थियों के लिए हिंदी उपन्यास के विकासक्रम को समझने की दृष्टि से इसे पढ़ा जाता रहेगा।

निरंजन देव शर्मा
ढालपुर (कुल्लू)


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