मुखपृष्ठ पिछले अंक कविता के चौराहे पर लोहार
फरवरी 2014

कविता के चौराहे पर लोहार

अच्युतानंद मिश्र

किताब/इस सिरीज में केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, लीलाधर जगूड़ी, नरेश सक्सेना और हरिश्चन्द्र पाण्डे के नये संग्रह विचारणीय है




सहजता को अगर कविता का स्वाभाविक गुण माने तो नरेंद्र जैन की कविताओं में इसका विकास सराहनीय है। सराहनीय इसलिए कि इधर कि कविता के लिए इसे अनावश्यक मान लिया गया है। यहाँ तक कि उनकी पीढ़ी के अधिकांश कवि सहजता से कृत्रिम जटिलता की ओर बढ़े हैं। नब्बे के दशक में उनका एक बेहद  महत्वपूर्ण संग्रह उदाहरण के लिए प्रकाशित हुआ। उदाहरण के लिए की कविताओं से लेकर इधर प्रकाशित उनके संग्रह चौराहे पर लोहार तक की कविताओं को अगर हम देखें तो सहजता के इस विकासक्रम को देखना कठिन नहीं होगा। चौराहे पर लोहार के आरंभ में कुछ डायरीनुमा कवितायें प्रकाशित हुई हैं। सादतपुर डायरी की कुछ काव्य पंक्तियां हैं -

अपनी कविता के कालजयी गट्ठर को ढोता
एक कुलीनुमा कवि कंधे झुके हुए बेतरह
लेकिन कद ऐसा कि
हुई जाती दिल्ली भी बौनी

जब मैं लौट रहा था फुटपाथ से
मेरे कन्धों पर उतना ही वजन था
अमूमन जितना कुली के कन्धों पर
हुआ करता था
मैं उन दिनों
निरंतर गिरती चीजों के बारे में सोचा करता था
कभी निरंतर मूल्य गिरा करते थे कभी निरंतर कोई द्रव्य
वहां कोई न कोई सतह थी जिस पर
कुछ न कुछ निरंतर गिरा ही करता था

काल जैसा भी रहा हो
दौर भयावह था
प्याले में जो निरंतर गिरता था शब्द था
शब्द की छिन्न भिन्न देह

नरेंद्र जैन के संग्रह चौराहे पर लोहार से ऐसी अनेक पंक्तियां उधृत की जा सकती हैं। यह पंक्तियां हमारे समय समाज को हमारे बोध का हिस्सा बना देती हैं। एक सुन्न पड़ते समय में हरकत की हल्की सी आहट की तरह। लेकिन इन पंक्तियों से गुजरते हुए मैं सोचता रहा कि इतनी सादगी या सहजता के साथ ये क्यों हमारी रूह में दाखिल होती हैं। इनमें से कई पंक्तियों को पढ़कर बेतरह उदास हुआ जा सकता है। आखिर ऐसा कर कवि क्या बताना चाहता है। संग्रह की शुरूआत कुछ इस तरह की कविताओं से करना जिनके पारम्परिक अर्थों में कविता होने पर संदेह किया जा सके किसी भी कवि के लिए (वह कितना ही महत्वपूर्ण कवि क्यों न हो) जोखिम भरा है। विशेषकर ऐसे समय में जब कविता के महत्व को भी फेसबुकिये टी.आर.पी. की तरह दर्ज़ करने पर अमादा हों। लेकिन नरेंद्र जैन ऐसा करते हैं। यह जानते हुए कि बहुत से लोग मात्र इन कविताओं के बिना पर संग्रह की पूरी आलोचना प्रस्तुत कर सकते हैं। क्या ये कवितायें जो कि डायरी की शक्ल में दर्ज़ हैं, इन्हें संग्रह के बीच में या आखिर में नहीं रखा जा सकता था? तो क्या इसे महज़ संयोग नहीं माना जा सकता है कि इन कविताओं को संग्रह में कहीं तो आना ही था सो ये आरंभ में ही आ गयी। सम्भव है ऐसा ही हो। ये किसी सुसंगत दृष्टिकोण का परिणाम न हों। लेकिन अगर हम थोड़ा ध्यान से इन कविताओं को देखें तो इनके आरंभ में होने के पीछे एक खास तरह के दृष्टिकोण की तलाश की जा सकती है।
अमूमन किसी राग को गाने के पहले गायक एक लम्बा अलाप लेता है। इस अलाप को कई रूपों में देखा जा सकता है। अभ्यास की तरह भी और सुनने वाले की तैयारी के रूप में भी। इनका एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि गायक और श्रोता इस अलाप के बहाने एक दूसरे से परिचित भी होते हैं। सहजता का सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं विशेषज्ञ का नहीं। चौराहे पर लोहार की आरंभिक डायरीनुमा कविताओं को काव्य संवेदना के प्रसार के आरंभ में लिए जाने वाले अलाप की तरह देखा जा सकता है। गायक (कवि) की सहजता श्रोता (पाठक) की संवेदना को भी सहजता में बदल देती है। ये आगे पढ़ी जाने वाली कविताओं के अनुकूलन की तरह है। पाठक और कवि का साझा प्रयत्न, सहज संवाद, डायरीनुमा ये कवितायें काव्यकौशल का उदाहरण तो कतई नहीं कही जा सकती। कविता के नाम पर जिस तरह कि फिनिश्ड पोएट्री का इधर प्रचलन बढ़ा है ये कविता उससे भी इत्तेफाक नहीं रखती। बावजूद इसके ये कवितायें हमारी संवेदना को झंकृत करती हैं। उदाहरण के लिए सादतपुर डायरी की कविताओं को अगर हम लें तो यह देखना कठिन न होगा कि ये कवितायें पाठक को न तो हतप्रभ करती हैं और न ही चौंकाती हैं। न ही उनमें जिन स्थानों, पात्रों या घरों का ज़िक्र है, उन्हें पढ़कर आप आह-आह या वाह-वाह करते हैं। लेकिन ये कवितायें यह बताने की कोशिश जरुर करती हैं कि इन लोगों से हिंदी साहित्य का जैसा सहज संसार बनता है अगर वैसी ही यह पूरी दुनिया होती तो वह अधिक सहज और स्वीकार्य होती। सहजता और सादगी का अपना वैभव होता है। इस प्रतिकूल समय में कला रूप सहजता के माध्यम से ही एक बड़ा प्रतिरोध रच सकते हैं।
आठवें दशक की कविता अपनी पिछली कविता से पूरी तरह भिन्न थी। आठवां दशक एक तरह से कविता का आखिरी अघोषित आन्दोलन था। आठवें दशक के कवियों का अलिखित मगर बहुत प्रचारित घोषणापत्र भी था। कभी इसी पर व्यंग्य करते हुए वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी ने लिखा था
बच्चों, पेड़, चिडिय़ों
रोटी और पहाड़ों
भागो
क्रांति, तुम छिपो
हिंदी के कवि आ रहे हैं
कागज़ और कलम की सेना लिए
भागो, जहां हो सके छिपो
यह कविता पिछली कविता से इस अर्थ में भिन्न थी कि यह कविता में राजनैतिक डायरेक्टनेस को स्वीकार नहीं करती थी। आठवें दशक के कवियों का मानना था कि कविता में राजनीति, वर्ग या सत्ता की बात सीधे नहीं की जानी चाहिए। इसके स्थान पर समाज, मनुष्य और जीवन की बात की जानी चाहिए। इन अवधारणाओं में अंतर्निहित राजनीति वर्ग या सत्ता स्वत: ही उद्घाटित, उद्भासित हो जायेंगे। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि इस पीढ़ी के अधिकांश कवियों का मानना था कि विषयवस्तु को काव्यमय बनाया जाना चाहिए था। यानि कविता को अंतत: कविता होना चाहिए। इसमें एक तरह का अमूर्तन भी था। क्योंकि यहां पहले ही कविता को एब्सोल्यूट मान लिया गया था। तो क्या कविता में अंतर्निहित गतिशील यथार्थ का कोई महत्व नहीं है। यहां विषयांतर करते हुए मैं संक्षेप में आठवें दशक की कविता पृष्ठभूमि की चर्चा करना चाहूंगा। आठवें दशक से ठीक पहले की कविता यानि कि 1967-1975 की कविता इस कविता के एक बड़े हिस्से पर नक्सलवाड़ी आन्दोलन का प्रभाव था। जब कविता किसी आन्दोलन के प्रभाव से पैदा होती है तो वह घटनाओं को, राजनीति, सत्ता को सीधे एवं स्पष्ट रूप में देखने दिखाने पर बल देती है। ज़ाहिर हैं इसमें बहुत कुछ ऐसा हो सकता है जिसे स्पष्ट तौर पर कविता के  रूप में स्वीकार करना कठिन हो। यकीनन लेकिन साथ ही यह भी स्वीकार किया जाना चाहिये कि आन्दोलन के गर्भ से पैदा हुई कविता अपने डायरेक्टनेस की वजह से नवीन विषयवस्तु का संधान भी करती है। जैसा कि मायकोवस्की या ब्रेख्त की कविता या हिंदी में निराला, नागार्जुन या गोरख की कविता करती है। हुआ यह कि आठवें दशक के कवियों ने राजनीतिक कविता की इस पूरी परिपाटी को ही अस्वीकार कर एक खास तरह की अमुर्तनता को प्रश्रय दिया। संभव है आठवें दशक में इस अमुर्तनता को देख पाना सम्भव न हो।
राजनीति के इस अमूर्तन ने कविता में वर्ग के रूप में व्यक्ति और मनुष्य की पहचान को धूमिल किया। राजनीति, सत्ता, देश एक गतिशील अवधारणा है। जिस तरह समाज मनुष्य और जीवन पिछले तीस वर्षों में अगर राजनीति बदली है तो समाज भी बदला है। सत्ता के स्वरुप में परिवर्तन आया है तो मनुष्य और व्यक्ति का रूप भी बदला है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया से साहित्य भी अछूता नहीं रह सकता। अगर हम पिछले तीस वर्ष की हिंदी कविता को देखें तो यह देखना कठिन न होगा कि कविता में एक तरह का ठहराव है। इसी को दूसरे शब्दों में कहें तो आज की अधिकांश कविता में आठवें दशक की कविता के स्वीकृत प्रारूप का दुहराव नज़र आता है। ऐसे में यह जरूरी है कि आठवें दशक की कविता का आज ऐतिहासिक मूल्यांकन किया जाये ताकि कविता में मौजूद संकट का यथार्थपरक एवं तटस्थ मूल्यांकन संभव हो सके।
उपरोक्त संदर्भ के अलोक में देखें तो हाल के वर्षों में प्रकाशित चंद संग्रहों में आठवें दशक के काव्य प्रारूप से बाहर निकलने का प्रयत्न भी न•ार आता है। इस संदर्भ में विजयकुमार का संग्रह रात पाली, विनय दुबे का संग्रह फिलहाल यह आसपास, अग्निशेखर का संग्रह जवाहर टनल और  नरेंद्र जैन के संग्रह काला सफेद में प्रविष्ट होता है एवं चौराहे पर लुहार देखा जा सकता है।
पिछले तीस वर्षों में समय की गति अधिक तीव्र हुयी है। किसी भी पिछले तीस वर्षों की अपेक्षा परिवर्तन इन तीस वर्षों में अधिक हुआ। परिवर्तन इस अर्थ में भी कि मानवीय संवेदना का स्वरुप न सिर्फ बदल गया है बल्कि उसने मनुष्यता को गहरे संकट में डाल दिया है। हर युग की प्राद्यौगिकी एक चुनौती बनकर सामने आती है। सभ्यता अपने संकटों को हल करती है। समाज के अन्तर्विरोध जब बेहद तीखे एवं गहरे हो जाते हैं, समाज परिवर्तन की त्रासद प्रक्रियाओं से गुजरता है। यह सब कुछ हम अपने इतिहासबोध से सीखते हैं, लेकिन अगर यह कहा जाये कि भविष्य में जाने के लिए इतिहासबोध की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इतिहास का ही अंत हो चुका है। तमाम नैतिकताएं समाप्त हो गयीं है क्योंकि समाज की नैतिक इकाई के रूप में मौजूद लेखक की मृत्यु हो चुकी है या विचारधाराएं मर चुकी हैं, तो इस बोध को अतियथार्थ कहा जा सकता है।

कहीं रखी होती है
ऐसी भी थाली
जिस पर रोटी का चित्र बना होता है
एक भूखे आदमी के हाथ का कौर
वहीं छूट जाता है हाथ से

ऐसे में कला का संकट अधिक गहरा और तीव्र हो जाता है। प्रश्न केवल कला के प्रयोजन का नहीं रह जाता, कला के आदिम मूल्यों के पुनस्र्थापन का भी बन जाता है। अविश्वसनीयता, अतिरंजना, अतियथार्थ को महज़ उत्तराधुनिकता के प्रतिबिम्ब के रूप में चिन्हित करना पर्याप्त नहीं। बल्कि इससे आगे बढ़कर पूंजीवाद के कलावादी मूल्य के रूप में उत्तराधुनिकता को व्याख्यायित करने का भी है। कहना न होगा कि नरेंद्र जैन एक हद तक इन अविश्वसनीय लगती स्थितियों को समय के आख्यान के रूप में सामने रखते हैं। शहरों के हासिये पर रेंगती हुई जनसंख्या न तो पारम्परिक अर्थों में किसान है न मजदूर। रोटी के लिये किये जाने वाले उसके संघर्ष ने उसे पूरी तरह एक कटा हुआ हाथ, एक कटा हुआ पैर, एक कटा हुए पेट बनाकर छोड़ दिया है। यह विश्व सर्वहारा की नई स्थिति है। एलिनेसन (विलगाव) की प्रक्रिया के सर्वाधिक क्रूर और अविश्वसनीय प्रतीत होती स्थिति से हम गुजर रहे हैं। इस पूरी स्थिति ने एक बेहद ठंडे माहौल को जन्म दिया है।

उनमें से कोई ठहरकर सुलगाता है बीड़ी
माचिस की तिल्ली कुछ देर उजाला पैदा करती है
और वे आदतन अपने अपने ठिकानों की
ओर लौटते हैं जहां एक बोझिल
सन्नाटा उनकी प्रतीक्षा करता है

सत्तर के दशक में किसी मजदूर के हाथ से जलती हुई बीड़ी उसके भीतर की सुलगन को प्रतिबिम्बित करती थी तो माचिस की तिल्ली की कौंध उसके भीतर के गुस्से को। लेकिन नरेंद्र जैन इस प्रतिबिम्ब को पारम्परिक रूप में प्रयुक्त न कर इसे वर्तमान यथार्थ के अधिक करीब ले आते हैं। यहां ध्यान देने कि बात है कि बीड़ी का सुलगना और माचिस का जलना तो यथावत है लेकिन आदतन अपने ठिकानों की और लौटना, जोर यहां पर है। यह भले प्रचलित अर्थों में आदत हो लेकिन यह एलिनेसन की क्रूर प्रक्रिया का परिणाम है। अपने जड़ों से कटने की दीर्घकालीन प्रक्रिया एक खास तरह का विरूपन पैदा करती है। यह विरूपन एक बोझिल सन्नाटे तक ले जाता है। नरेंद्र जैन अचानक से कविता को यहां पर समाप्त कर देते हैं। कविता आपको उस एलिनेसन की क्रूरता के मुहाने तक ले जाती है। नरेंद्र जैन की यह कविता किसी निराशा या कलात्मक ऊब से पैदा नहीं हुई है जैसा कई बार प्रतीत होता है। यहां दो चीजों पर बल है। पहले प्रतिरोध के सभी पारम्परिक रूपों का विफल होना दूसरे वर्तमान के वास्तविक संकट को चिन्हित करना।
कम्युनिस्ट संगीतकार कविता में वे इसी विफलता को चिन्हित करते हुए लिखते हैं

आंदोलनों के विफल होने की चिंता
खाए जाती है मैं धोती कुरते में लैस आंखों पर चश्मा चढ़ाये
इन शख्श को देखता हूं
यह सलिल चौधरी हैं

यहां सलिल चौधरी के इस स्मरण का औचत्य महज़ प्रतिरोध के नए रूपों की तलाश एवं अपने समय के प्रति वास्तविक अर्थों में चिंतित होने से है। हालांकि सलिल चौधरी को नोस्टेल्जिया के तौर पर भी याद किया जा सकता था। इस तर्ज पर हिंदी में इधर कई कवितायें लिखी गयीं है जो अतीत को बेहद भावुकता से  देखने पर बल देती हैं। लेकिन नरेंद्र जैन थोड़ी तटस्थता के साथ इसमें आगे जोड़ते हैं।

जुलूस और आन्दोलन के सारे कोरस
चले गए कहीं
सलिल चौधरी के साथ

दूसरी पंक्ति में चले गए कहीं के स्थान पर अगर यह होता कि चले गए कहां तो एक निरुपायता या भावुकता प्रदर्शित होती लेकिन नरेंद्र जैन इससे बचते हुए सलिल चौधरी कि स्मृति के साथ प्रतिरोध के पारम्परिक रूपों के असफल होने को दर्ज़ करते हैं। दर्ज़ करना इसलिए कि यह यथार्थबोध के साथ ही हम प्रतिरोध के नए रूपों की तलाश कर सकेंगे। नरेंद्र जैन की कविता इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि वे चिंतित होने की प्रक्रिया से हमें जोड़ते हैं। विकल्पहीनता की वर्तमान स्थिति के मूल में चिन्तन की लम्बी प्रक्रिया का अभाव भी है। नरेंद्र जैन स्थितियों, प्रक्रियाओं  का एक कोलाज़ रचते हैं। नरेंद्र जैन की कविता वस्तुत: प्रक्रियाओं  की कविता है। जीवन स्थितियों की गतिमयता प्रमुख है। इसलिए अधिकांश कविताओं में न तो मुक्कमिल आरंभ को देखा जा सकता है न ही कवितायें किसी ठोस स्थिति पर जाकर खत्म होती हैं। लेकिन दृश्यों की गतिशीलता भविष्य के संकेत सूत्रों को जरूर परिलक्षित करती है।

'यात्रा स्थगित' यह वक्त है ठहरी हुई बस
के इंजन के नुक्स ढूंढने का
वे यात्री जो देर से रोककर बैठे थे पेशाब
उतरते हैं बाहर राहत पाने के लिए
वे जिन्हें कुलपुर्जों में दिलचस्पी है
सारी प्रक्रिया को देखते हैं तल्लीनता से

इसे हम एक तरह से नरेंद्र जैन की काव्य प्रक्रिया के रूप में भी देख सकते हैं। एक सामान्य और सहज सी स्थिति के मूल में छिपे अंतर्विरोधों को वे उजागर करते हैं लेकिन ऐसा करते हुए वे न तो लाउड होते हैं और न ही अमूर्तन का सहारा लेते हैं। वे स्थितियों, दृश्यों में मौजूद गतिशीलता को उसकी प्रक्रिया के साथ चिन्हित करते हैं। यही वजह है कि नरेंद्र जैन कविता कि बजाय जीवन स्थितियों पर अधिक बल देते हैं। यह बात डायरी वाली कविताओं के संदर्भ में भी कही जा सकती है। इस संग्रह में बेहद सपाट प्रतीत होती मगर महत्वपूर्ण कविता है वह एक शख्स। यह मानवीय संबंधों के उत्ताप की कविता है। सम्बन्धों के बीच मानवीय गरिमा नष्टप्राय है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मानवीय संबंधों का निर्माण मानवीय इतिहास की रचनात्मक प्रक्रिया रही होगी। साथ बैठकर ही मनुष्य ने दु:ख और सुख को समझा होगा और ये शब्द गढ़े होंगे। आदिम एकांगी मनुष्य से लेकर सामाजिक मनुष्य तक की यह यात्रा लम्बी मगर मानवीय इतिहास के लिए खोजपूर्ण यात्रा रही होगी। वर्तमान दौर के सभ्यता संकट ने मनुष्य की इस सामाजिकता को नए सिरे से संकट में ला खड़ा किया है। वह सामूहिकता से वैयक्तिकता की ओर बढ़ रहा है। सुख दु:ख की साझा अनुभूति से संवादहीनता की तरफ बढ़ते मनुष्य के भविष्य को हम किस तरह देखेंगे। वह एक शख्श कविता इसी का प्रतिलोम रचती है।

परिवार के प्रति इस व्यक्ति की निष्ठा
एक उदाहरण के रूप में रखी जा सकती है
पहले उसने बच्चों और स्त्री के हाथों में रोटियां रखी
फिर उन पर डाली थोड़ी सूखी सब्जी
और देखता रहा चुपचाप उन्हें खाते हुए
बच्चों से उसने कहा कि
बातें बाद में करना पहले रोटी खा लो
पत्नी के कान में भी उसने कुछ कहना चाहा
पर रेलगाड़ी के शोर में वह उसे
नहीं सुन पाई

इस कविता में मौजूद चित्रात्मकता एवं गतिमयता मौजूद समय का प्रति आख्यान रचती है। संवेदनहीन होते समय में यह सहजता की कविता लिखना बेहद कठिन है। मनुष्य-मनुष्य के बीच विकसित हुई संवेदना की पाठशाला परिवार है। जो मनुष्य परिवार में बर्बर होगा वह किसी भी हालत में सामाजिक संवेदनशीलता का व्यवहार नहीं कर सकता। परिवार संवेदना के मूर्त होने का एक सहज रूप है। सरोज स्मृति में निराला जिस सरोज की व्यथा कथा लिखते हैं वह निश्चित रूप से निराला कि पुत्री सरोज ही है लेकिन निराला इस निजी संवेदना को विस्तृत कर सामाजिक संवेदना और अंतत: एक सामाजिक मूल्य में बदल देते हैं। सरोज स्मृति महान कविता इसलिए नहीं बनती कि इस कविता के बहाने निराला कोई आत्मकथ्य रचते हैं बल्कि इसलिए कि निराला इस कविता के बहाने एक बड़े सामाजिक मूल्य को स्थापित करते हैं।
नरेंद्र जैन भी इस कविता में निम्न मध्यवर्गीय परिवार को चित्रित करते हैं। अगर हम इस कविता की डिटेलिन्गस पर गौर करें तो यह समझा जा सकता है कि ट्रेन में हाथ में रोटी रखकर भोजन निम्न मध्यवर्ग ही करेगा। पारिवारिक मूल्य एवं संवेदना जहां उच्च वर्ग एवं उच्च मध्यवर्ग में समाप्त हो रही हैं वहीं निम्न मध्यवर्गीय मनुष्य अपने सहज जीवन से उस मूल्य को पुनस्र्थापित करता है। फूको ने सत्ता विमर्श के सन्दर्भ में कहा है कि शोषण और अन्याय अपने साथ निश्चित रूप में प्रतिरोध रचती है। यह प्रतिरोध शोर से नहीं सृजन से पैदा  होती है। इसी कविता में आगे वे लिखते हैं -

वह अब बारी-बारी से सबको
पिला रहा था पानी
पानी पीते-पीते बच्ची को जब खांसी
आयी
वह देर तक बच्ची की पीठ सहलाता रहा

क्या इन पंक्तियों में मौजूद गर्माहट, आत्मीयता हमें मनुष्य होने के गौरव से भर नहीं देती। क्या यह उद्दात को नहीं रचती?
बड़ा कवि जीवन के सामान्य से लगते दृश्यों में मौजूद वृहद् जीवन तलाश लेता है। कहना न होगा कि नरेंद्र जैन अपने सहज बोध से बड़ी कविता प्रस्तुत करते हैं इन कविताओं में एक नए तरह का राजनीतिक कथन मौजूद है। इस बेहद गैर राजनीतिक से लगते समय में सांस्कृतिक प्रतिरोध का एक रूप हम इन कविताओं में देखते हैं। यह एक नए किस्म की राजनीतिक कविता है। क्या ये कवितायें इस बदलते हुए कविता समय का दस्तावेज साबित होंगी। इन सवालों का जवाब तो भविष्य में ही मिल सकेगा। लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि नरेंद्र जैन की कविता में आया यह सुखद बदलाव हिंदी कविता के लिए कुछ नयी आहटें, कुछ नए संकेत लेकर आयेगा।


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