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फरवरी 2014

'असंगत' की संगत में

राहुल सिंह

यों तो किसी भी कहानीकार पर बात करना अपने ढंग की चुनौतियाँ पैदा करना है पर मनोज रुपड़ा एक अलग ही 'केस' हैं। इनके यहां कथावस्तु और शिल्पगत आवारगी का आलम यह है कि एक साथ उनके ओर-छोर को पकड़ पाना खासा मुश्किल है। अपनी हर नई कहानी के साथ एक नई कथावस्तु और एक नया शिल्पगत आग्रह, इसकी सबसे बड़ी वजह जान पड़ती है। इस कारण भी उनकी कहानियों में किसी 'पैटर्न' को तलाशना थोड़ा ज्यादा कठिन हो जाता है। और ऐसा भी नहीं है कि इन प्रयोगों में अक्सरहां उन्हें कामयाबी ही नसीब हुई है। बल्कि ऐसे मौके ज्यादा हैं, जिसमें उन्हें 'नाकामयाबी' हाथ आई है। पर बावजूद इन सबके उनकी जिद कायम है। इसके कौन  से नतीजे आगे देखने को मिलेंगे, इस पर बात करना तो अभी बेमानी होगा। इसलिए अब तक जो उन्होंने लिखा है, उसी का लेखा-जोखा रखने के क्रम में उनकी कहानी यात्रा के कुछ जरुरी से जान पडऩे वाले और पहचाने जा सकने वाले नुक्ते को सामने रखने की कोशिश भर की जा रही है।
'दफन और अन्य कहानियां' (1999) मनोज रुपड़ा का पहला कहानी संग्रह था, जिसमें छह कहानियां शामिल थीं। इसमें 'युयुत्सा' और 'खात्मा' को छोड़ दें तो अन्य चार कहानियों में नाटकीयता के तत्व इस कदर हावी थे कि कहानियां ही गढ़ी हुई जान पड़ रही थीं। 'दफन' मनोज रुपड़ा की पहली कहानी थी। सर्वहारा जीवन स्थितियों के विद्रूप के साथ यह कहानी एक साथ कई मसलों को रेखांकित करती है। जैसे, धर्म से जुड़े संस्कारों का एक आर्थिक पक्ष भी होता है। जीवन भर उन संस्कारों की श्रृंखला में तो हम बंधे ही रहते हैं, मृत्यु के बाद भी उससे मुक्ति नहीं है। 'दफन' को पढ़ते हुए 'गोदान' और 'कफन' एक सन्दर्भ की तरह याद आते हैं। 'दफन' का नायक भी अपनी मां की रेबीज से हुई मौत के बाद 'अपनी दोनों जेबों की सारी ताकत लगाने के बावजूद जरूरत से दस सेन्टी मीटर कम कपड़ा ही हासिल कर पाता है।' पहली कहानी के लिहाज से जो बात इस कहानी के सन्दर्भ में सर्वाधिक उल्लेखनीय थी। वह थी मनोज रुपड़ा की दृष्टि और भाषा। निष्पृहता से उपजनेवाली एक ठंडी-सी भाषा, जिसकी निर्लिप्तता और ठंडेपन में एक अन्योन्याश्रित सम्बन्ध हुआ करता है। 'दफन' में आद्यन्त दु:ख के रिसाव से पैदा होने वाली त्रासद स्थितियों को महसूसा जा सकता है। जबकि 'उत्सव' के दु:ख पूर्ण क्षणों में नाटकीय स्थितियों की अतिशयता के कारण इस कहानी की विश्वसनीयता खंडित हो जाती है। 'बीमार सपने' में इन नाटकीयताओं के साथ संयोग की अधिकता पुन: कहानीगत विश्वास का हनन करती है। 'जबह' किसी रुसी फिल्म की तरह शुरु होती है और शुरुआती भटकाव के बाद जब वह मुद्दे पर आती है, तो वहां संयोग और दुर्योग दोनों की उपस्थिति पुन: कहानी के गढऩे को ही उजागर करती है। 'खात्मा' में कहानी के कहने के स्तर पर पहली बार उस 'ढब' के दर्शन होते हैं, जो आगे चलकर मनोज रुपड़ा की कहानियों में नामालूम तरीके से अपनी आवाजाही करते रहते हैं। मतलब कहानी के कथानक की जगह उसकी 'थीम' के बिखरे तन्तुओं में से कुछ सिरे पकड़ में आने  से और कुछ के रह जाने से है।
इसका दुहराव 'युयुत्सा' में देखने को मिलता है। 'युयुत्सा' की कहानीगत संरचना में उस 'डेलीबरेट फ्रैक्चर' को कायदन पहली बार देखा जा सकता है, जो मनोज रुपड़ा की अब तक की कहानी यात्रा में विकसित उनकी एक अदाभर है या एक शैली मात्र है, जो बाजदफा शिल्प का भ्रम भी देती है। मसलन् 'युयुत्सा' की शुरुआत एक 'इम्प्रेशन' के साथ होती है जो एक बिम्ब में तब्दील हो जाती है। आत्मगत सत्यों को तरतीब देने के क्रम में इस कहानी की रैखिकता भी स्वत: खंडित होती चलती है। काल की रैखिकता अनुभवगत सत्यों के मार्फत् खंडित होती है। कहानी की संरचनागत टूटन एक ओर तो परम्परागत पाठकों के संस्कार पर चोट करती है, दूसरी ओर शिल्पगत नव्यता को सामने लाती है। इस तरह देखें तो अपने पहले कहानी संग्रह के साथ पहचान के संकट से पार प्ते हुए मनोज रुपड़ा हिन्दी कहानी संसार में दस्तक देते हैं। मनोज रुपड़ा और उनके पहले कहानी संग्रह के साथ एक बात और जो हमारे जहन में नक्श हो जाती है, वह है उनकी कहानियों में मृत्यु की अनवरत उपस्थिति। पहले संग्रह की सभी छह कहानियों में मौत बिना नागा मौजूद है। इन कहानियों में मृत्यु एक सन्दर्भ बिन्दु की तरह है, जहां से इन कहानियों की पड़ताल एक हद तक की जा सकती है। मृत्यु के कई रंग इन कहानियों में हैं। जैसे-बीमारी से मौत, भीड़ द्वारा की गई हत्या, व्यवस्था द्वारा की गई हत्या, आत्महत्या आदि। हिन्दी कहानी में संभवत: मृत्यु के खुदरा और थोक रुपों से आक्रान्त यह संग्रह अपने ढंग का विरल उदाहरण है। पर मौत के फलसफे पर यह संग्रह अलग से कोई दमदार बात नहीं कहती है। इन मौतों को गर विचारधारात्मक धरातल पर वर्गीकृत करना चाहें तो अजीब से नतीजे सामने आते  हैं। मसलन् एक सर्वहारा की मौत, एक एक्टिविस्ट की मौत  एक अल्पसंख्यक की मौत, एक स्त्री की मौत, एक कलाकार की मौत आदि। इस लिहाज से देखें तो इसमें शामिल कहानियों के लिए मौत, एक बहाना या कहानी का टोटका भर जान पड़ता है। पर मृत्यु इन कहानियों में अंत की तरह नहीं बल्कि एक शुरुआत की तरह है।
अपने दूसरे कहानी संग्रह 'साज-नासाज' (2006) के साथ एक कहानीकार के बतौर मूल्यांकन के लिए मनोज रुपड़ा फिर कुछ सहूलियतें मुहैया कराने के साथ कुछ नई चुनौतियां छोड़ जाते हैं। ऊपर 'युयुत्सा' के माध्यम से मनोज रुपड़ा की कहानी शैली पर जो बातें कही गई हैं, वह उनके दूसरे कहानी संग्रह को पढऩे के बाद की गई है। केवल पहले कहानी संग्रह  को पढ़ कर उपरोक्त नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता है। दूसरे कहानी संग्रह में शामिल 'मुस्कराहट' और  'दृश्य-अदृश्य' को पढ़ते हुए इस बात का भान होता है कि पहले संग्रह में शामिल 'युयुत्सा' वह प्रस्थान बिन्दु है, जहां इन दोनों कहानियों के शिल्प और शैली पैवस्त हैं। तात्पर्य यह कि पहली कहानी संग्रह में व्याप्त 'कहानीपन' और 'नाटकीयता' की जगह 'विचारों की आवाजाही का बढ़ता सिलसिला' और उसके लिए इस तर्क का ईजाद कि 'कई बार कहानी में आने-वाले विचार उस कहानी से ली गई उडऩें होती हैं।' ('युयुत्सा', पृ. 131 'दफन और अन्य कहानियों ' से)  मनोज रुपड़ा की आगामी कहानियों में कहानी को एक हवाई पट्टी की तरह इस्तेमाल करते हुए, उससे विचारों के उड़ान की जो अतिशय छूट ली गई है, उसके उत्स को और बुनियादी तर्क को यहां देखा जा सकता है। मनोज रुपड़ा की परवर्ती कहानियों में कहानी की जमीन छोड़ कर विचारों की उड़ान की बारम्बारत बढऩे से कहानी में कथेत्तर चीजों की आमद बहुत बढ़ी है। इस प्रवृत्ति ने पाठकों और आलोचकों के लिए अलग-अलग किस्म के संकट और चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। पाठकों के लिए पढ़े और समझे जाने के स्तर पर और आलोचकों के लिए अलग-अलग किस्म के संकट और चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। पाठकों के लिए पढ़े और समझे जाने के स्तर पर और आलोचक के लिए समझकर उसके प्रति एक पाठकीय समझदारी विकसित करने के स्तर पर। इस सन्दर्भ में थोड़ी बात आगे इसके तीसरी कहानी संग्रह पर बात करते हुए करेंगे क्योंकि दूसरे कहानी संग्रह में यह वैचारिक उड़ानें छिट-पुट हैं और क्षम्य हैं।
इन दोनों संग्रहों को एक साथ पढऩे पर दूसरे कहानी संग्रह में मनोज रुपड़ा की कहानी  यात्रा में जो एक महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिलता है, वह है, एक कहानी के साथ 'पिछले शिल्प के अतिक्रमण की एक अबूझ कोशिश'। शिल्प तो इन कहानियों को पढ़े जाने और समझे जाने की राह में रुकावट की तरह है ही, पर इस संग्रह में एक कहानी ऐसी भी है जो अन्तर्वस्तु के धरातल पर सम्प्रेषण के संकट से दो चार होती है। वह कहानी है, 'प्रेतछाया', जो खुद कहानी के स्तर पर उस अज्ञात शक्ति की कोई संगत व्याख्या नहीं कर पाती जिसे कहानी में बार -बार 'कल्पित दूसरा' और 'करने वाला कोई और' की संज्ञा दी है। 'प्रेत छाया' एक ऐसी कहानी है, जिसके लिखे जाने की वजह बहुत कोशिशों के बाद भी समझ में नहीं आती है कि आखिर इसके जरिये मनोज रुपड़ा कहा क्या चाहते हैं? कि सच में 'प्रेत छाया' जैसी किसी चीज पर वह विश्वास कराना चाहते हैं? या उनका  इशारा कहीं और है। क्योंकि इस कहानी में इशारे भी बहुत हैं। पर उन इशारों की तुतलाहट में जो धुंधलापन है, वह एक साथ खीज और उक्ताहट दोनों पैदा करता है। इसी संग्रह की एक अन्य कहानी 'मुस्कराहट' को पढ़ते हुए मनोज रुपड़ा की अब तक की  कहानियों में हँसी और मुस्कराहट के क्षण दुर्लभ हैं। लगभग न के बराबर। 'मुस्कराहट' को हम एक प्रेम कहानी कह सकते हैं। आमतौर पर प्यार जैसे अहसास को बरतने के लिए भाषा में जिस मुलायमियत की उम्मीद की जाती है, वह अप्रत्याशित तौर पर यहाँ अनुपलब्ध है। और तब हम पाते हैं कि मनोज रुपड़ा भले बतौर कहानीकार अपनी हर कहानी के साथ कुछ नये शिल्प के साथ नमूदार होते रहे हों, पर भाषा के मोर्चे पर वह सदैव सौ फीसदी मनोज रुपड़ा ही बन रहते हैं। इससे यह नतीजा कतई न निकाल लिया जाये कि मनोज रुपड़ा का भाषागत दायरा काफी सिमटा है। अंग्रेजी, हिन्दी और उर्दू की एक अच्छी खासी शब्द सम्पदा के वे मालिक हैं। 'आमाजगाह' जैसी कहानी और 'प्रतिसंसार' जैसा उपन्यास उर्दू और अंग्रेजी शब्द सम्पदा पर उनके मालिकाने हक को जताने के लिए काफी है। पर जो विडम्बना है, वह विन्यास के धरातल पर है।  वह चाहे जिस भाषा के शब्दों का इस्तेमाल करें पर उनके यहां शब्दों के मानक रूप के इस्तेमाल  का एक 'अचेत अथवा सचेत आग्रह' है। इस किस्म की भाषा को बरतने का जो आग्रह होता है तो उसकी सीमा के साथ-साथ उसकी संभावनायें भी हुआ करती हैं। अपने इस भाषागत आग्रह के कारण गर मनोज रुपड़ा बहुत-सी बातों से महरूम रह गये हैं तो वहीं उसकी भाषा में एक जबर्दस्त खासियत भी पैदा हो गई है। उनका यह भाषागत आग्रह 'देशजपने' की जगह 'तत्समपने' को उभारता है। इसकी वजह से इन कहानियों में बेतकल्लुफी की जगह औपचारिकता का एक अहसास तारी रहता है। औपचारिकता में जो एक निर्लिप्तता रहती है, उनकी निस्संगता को आद्यन्त  इनके यहां देखा जा सकता है। औपचारिकता में एक किस्म की सार्वजनिकता भी होती है, जो विचारों और विमर्शों को वहन करने की लिहाज से मुफीद हुआ करती है, तो वह भी इनके यहां देखी जा सकती है। औपचारिकता में निहित निर्मूलता के कारण मुहावरे और लोकोक्तियों की रिहाइश भी ऐसी भाषाओं में कम ही देखने को मिलती है। इसलिए मनोज रुपड़ा की कहानियों में एक मुहावराविहीनता को सहजता से लक्षित किया जा सकता है। ऐसी भाषा में किस्सागोई की जन्मजात क्षमतायें छीज जाती हैं। वह श्रव्य के बजाय पठ्य हो जाती हैं। मनोज रुपड़ा की कहानियां भी श्रव्य से ज्यादा पठ्य हैं। इसे उनके तीसरा कहानी संग्रह 'टावर ऑफ सायलेन्स' की कहानियों में और शिद्दत से महसूस किया जा सकता है।
मनोज रुपड़ा के दूसरे कहानी संग्रह की आखिरी कहानी है, 'आत्मग्रस्त', इस संग्रह की मेरी जानकारी में यह सबसे कमजोर कहानी है। कई बार प्रतिनिधि कहानियों की तुलना में कमजोर कहानियाँ भी किसी कहानीकार को समझने का एक बेहतर जरिया हो सकती हैं। यदि यह कहानी  उनके पहले संग्रह में होती तो कमजोर कहानी वाली बात नहीं कही जा सकती थी, पर दूसरे संग्रह में ऐसी सपाट शिल्प की कहानी कमजोर  कही जा सकती है। पर कमजोर कहने की बुनियादी वजह इसके शिल्प का सपाट होना उतना नहीं है जितना कि ' कथ्य को संप्रेषित कर सकने में व्याप्त अतिकथन।' कहानी जिस प्रदर्शनप्रियता, कृत्रिमता, बनावटीपने बाह्याडम्बर, दिखावट, आत्ममुग्धता को दर्शाना चाहती है। उसको स्थापित करने में वह जितना स्थान घेरती है। उससे मनोज रुपड़ा की कहानी कला के सन्दर्भ में यह बात ध्यान में आती है कि उनके यहां उस 'दो टूक पने का अभाव' है, जिसे 'संक्षिप्त और क्षिप्र' (ब्रीफ एंड डाइरेक्ट) कहते हैं। अपनी इसी कहानी में वे अपने  एक पात्र के मुंह से कहलवाते हैं कि ''मैं उस एब्सर्ड रियलिटी को व्याख्यायित करने के लिए कोई शब्द नहीं खोज पा रहा हूं।'' ('आत्मग्रस्त, पृ 126, 'साज-नासाज' से  ) इस 'एब्सर्ड रियलिटी' वाले नुक्ते को पकड़ लिया जाये तो अनायास मनोज रुपड़ा की कहानियों को खोलने के लिहाज से  एक विश्वसनीय औजार हाथ लगता जान पड़ता है।  'एब्सर्ड' शब्द की पैदाइश योरप में जिस विधा और जिस कालावधि में हुई थी और आगे चलकर उसका विकास जिन कला आंदोलनों में हुआ। उसकी ऐतिहासिकता, सामाजिकता और वैचारिकता से यदि हम थोड़ा परिचित हों तो अचानक से मनोज रुपड़ा की अगली-पिछली कहानियों में ऐसे दृश्यों की विम्बावलियां उभर आती हैं,जिसे हम 'एब्सर्ड'  कह सकते हैं। तब मनोज रुपड़ा की कहानियों में निहित कवायद का  एक मकसद मिलता नज़र आता है। एक तो, यह सब इसी 'एब्सर्ड रियलिटी' को व्याख्यायित करने का उपक्रम है।और दूसरा 'एब्सर्ड' या 'एब्सर्डिटी' के जो मायने आमतौर पर यूरोपीय संदर्भों में उभरकर सामने आये थे, वह बहुत व्यवस्थित तरीके से मनोज रुपड़ा की कहानियों में परिलक्षित होने लगते हैं।
योरपीय सन्दर्भ में 'एब्सर्डिस्ट फिक्शन' के नाम से जिस साहित्य ने अपनी पहचान दर्ज कराई  थी। उसके कुछ लक्षणों और विशेषताओं पर यहां थोड़ी बात जरूरी है। 'एब्सर्डिस्ट फिक्शन' की जड़ें दोनों विश्वयुद्धों के दौरान विकसित होनेवाली अस्तित्ववादी  विचारधारा में निहित थीं। युद्ध की विभीषिका ने मनुष्य (बीइंग) की  अर्थवत्ता को एक निरर्थकता, एक शून्यता (नथिंगनेस) में तब्दील कर  दिया था। 'एब्सर्डिस्ट फिक्शन' बात तो जीवन के उद्देश्यों या लक्ष्यों की करती थी, पर उससे जीवन की कोई संगति या जिन्दगी का कोई तर्क  हासिल नहीं होता  था। उसमें जीवन की अर्थहीन-सी लगने वाली क्रियाओं और घटनाओं का चित्रण हुआ करता था। इसलिए उसमें कोई आंतरिक संगति नहीं दिखाई पड़ती थी। एक किस्म की तर्कहीनता पसरी रहती थी। लेकिन इस व्याप्त तर्कहीनता के मूल में भी एक तर्क हुआ करता था और वह यह कि 'मनुष्य का स्वभाव उसकी परिस्थितियों की निर्मिति हुआ करता है। और 'एब्सर्डिस्ट फिक्शन' एक स्तर पर अलग-अलग जीवन स्थितियों में मनुष्य के इसी स्वभावगत अध्ययन की चेष्टायें थीं। इस कारण से अन्तर्वस्तु के स्तर पर 'एब्सर्डिस्ट फिक्शन' में एक किस्म की अव्यवस्था, अतार्किकता का समावेश देखने को मिलता है, जिससे सरंचना के धरातल पर किसी तारतम्यता का नितांत अभाव अक्सरहाँ इस साहित्य में देखने को मिला। बल्कि एकतरह से यह मान लिया गया कि इसमें क्रमिकता की तलाश, संगति की तलाश, अन्विति की तलाश आदि बेमानी है। इसकी संरचना को 'केओटिक स्ट्रक्चर' कहा गया। कुल मिलाकर संरचना के धरातल पर 'एब्सर्डिस्ट फिक्शन' परम्परागत 'प्लाट स्ट्रक्चर' से नितांत भिन्न प्रविधि थी। इसने कथा के परंपरागत संरचना (एक नियत आरम्भ, मध्याह्न और अंत) को एक तरह से ध्वस्त कर दिया। यदि विस्तार से आप 'एब्सर्डिस्ट फिक्शन' को जानने-समझने की कोशिश करें तो उसकी बहुत-सी विशेषताएं एकमुश्त मनोज रुपड़ा के यहां देखने को मिलती हैं। बल्कि यूरोप में भी 'एब्सर्डिटी' आगे चित्रकला में जिस दादावाद और सुरर्रियलिज्म अपना विस्तार पा रही थी। चित्रकला में दादावाद और सुररियलिज्म की ख्याति जिन कारणों से है, वैसे अनेक क्षण मनोज रुपड़ा के तीसरे कहानी संग्रह की एक कहानी 'रद्दोबदल' में देखी जा सकती है। 'रद्दोबदल' इधर आई भूमंडलोत्तर पीढ़ी की कायदन पहली सुररियलिस्ट' कहानी है।
अब अगर मनोज रुपड़ा की कहानियों को इस 'एब्सर्डिस्ट फिक्शन' (विसंगति का साहित्य), 'एग्जिस्टेंशियलिस्जम लिटरेचर' (अस्तित्ववादी साहित्य) और 'सुररियलिज्म' (अतियथार्थवाद/परायथार्थवाद) के आलोक में देखने की जहमत उठाई जाये तो उनके हिस्से अब तक आई 'नाकामयाबी' उनकी विषय वस्तुगत एप्रोच की स्वाभाविक परिणतियाँ जान पड़ती हैं। इस लिहाज से देखो तो उनकी कहानियों की कई समस्यायें, समस्यायें न लग कर उनके द्वारा अपनाये गये वस्तु-शिल्प की निष्पत्तियां जान पड़ती हैं। जैसे-उनकी कहानियां आसानी से खुलती नहीं हैं, 'अनफोल्ड' नहीं होतीं हैं। बतौर पाठक कहानियों से तादात्म्य स्थापित नहीं हो पाता है। कभी विषय-वस्तु अकहानीमूलक (कथेत्तर) लगती हैं, तो कभी असाहित्यिक (फिल्मी)। कभी कहानी प्रत्ययमूलक (आइडियलिस्ट) लगती है तो कभी फंतासीमूलक। जिसे 'संरचनात्मक अन्विति' (स्ट्रक्चरल यूनिटी) कहते हैं, उसका सिरे से अभाव दिखता है। कहानी में जो एक 'आवयविक अन्त:सम्बन्ध' (आर्गेनिक कोरिलेशन) हुआ करता है, वह सिरे से गायब दिखता है। कसावट की जगह एक किस्म का अतिकथन व्याप्त रहता है। कहानी में आगत का पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता है। कहानीपन कभी भी अवकास पर जाने को और विचार कभी भी उसकी जगह प्रतिस्थापित होने को तत्पर रहता  है। और इन सब दुश्वारियों के बाद कहानी का एक ऐसा अंत जहां चीजें सुलझने की बजाय और उलझाव और अनिर्णय की स्थितियाँ खड़ी करके दफा हो जाती हैं। परम्परागत किस्से-कहानियों से जो पाठकों का कथागत संस्कार विकसित हुआ है, मनोज रुपड़ा की कहानियाँ उन परम्परागत पाठकों के साथ संस्कार पर भयावह तरीके से प्रहार करती हैं। इसलिए मनोज रुपड़ा की कहानियां न सिर्फ अपार धीरज बल्कि समझदारी के एक स्तर की भी मांग करती हैं। हिन्दी कहानी के परम्परागत  पाठकों के लिए मनोज रुपड़ा की कहानियां कठिन कहानियां हैं, जो दुरुहता की सीमा को छूती हैं। पर बारीकी से मनोज रुपड़ा के कथा-यात्रा के पड़ावों पर गौर करें तो पायेंगे कि वे लगातार विरल विषयों की ओर उन्मुख हैं। 'टॉवर ऑफ सायलेन्स' (2011) मनोज रुपड़ा का तीसरा कहानी संग्रह है। इन संग्रहों के बाहर एक कहानी और है - 'अमाजगाह'। 'आमाजगाह' को तो उनकी ही कहानी 'साज-नासाज' और योगेन्द्र आहूजा के 'मर्सिया' के साथ मिलकर पढ़े जाने की जरूरत है, तब इधर की कहानियों ने समकालीन आलोचना के लिये जो चुनौती खड़ी की  हैं, उसका भी कुछ-कुछ अनुमान किया जा सकता है। यह सभी लम्बी कहानियां हैं।
समकालीन हिन्दी कहानी परिदृश्य में लम्बी कहानियों ने अपने लिए अलग  से जगह बनाई है। पर हर रचनाकार की लम्बी कहानी का अपना निजी तर्क है। संरचनागत विस्तार के पक्ष में जो सबसे मजबूत तर्क अब तक पढऩे-सुनने को मिला है, वह यह कि समकालीन यथार्थ इतना जटिल और संश्लिष्ट है कि उसे सुलझाने के क्रम में कहानी की संरचना एक विस्तार पाती चली जाती है। और इसी क्रम में कहानी लम्बी हुई जा रही है। युवा पीढ़ी के कुछ कहानीकारों के यहां ब्यौरों के कारण कहानी लम्बी हुई है, तो कुछ के यहां कथ्यगत खुदाई के कारण। पर मनोज रुपड़ा की कहानियों की लम्बाई के लिए कहानी के बीच से ली गई वैचारिक उड़ाने जिम्मेदार हैं। कई बार तो कहानी-पन को ताक में रख कर यह विचार  अपने लिए जगह बनाते हैं। 'टॉवर ऑफ सायलेन्स' को छोड़ 'सेकेण्ड लाईफ', 'रद्दोबदल' और 'आमाजगाह' को एक साथ देखें तो उसमें कहानी की संरचनागत विस्तार का कोई सहमतिपरक तर्क नहीं दिखता है। ऐसा प्रतीत होता है कि मनोज रुपड़ा की शिल्पगत अदा भर के लिए कहानियां लम्बी हो गई हैं। इन लम्बाइयों के प्रति मनोज रुपड़ा में  एक किस्म का इत्मीनान-सा दिखता है, पर यह खतरनाक है। क्योंकि कई बार कहानी में बिखरे विचारों के मध्य आपसी संगति बिठाने के लिए काफी दिमागी घोड़े दौड़ाने पड़ते हैं। कई बार संगति बिठा भी नहीं पाते हैं। संभव है कि रचनाकार कहे कि इस अव्यवस्थित और अराजक समय में कहानी में ही संगति और व्यवस्था की तलाश का आग्रह क्यों किया जा रहा है जबकि सारी व्यवस्थायें चरमरा गई हैं।  यह तर्क हो सकता है कि यह 'केओटिक स्ट्रक्चर' हमारी संरचनाओं का प्रतिरुप है। संभव है बाद में चलकर हमारे कथागत संस्कार के यह अंग बन जायें। हम अभ्यस्त हो जायें। और हमें इसमें कुछ भी असंगत दिखना बन्द हो जाये। पर यह अब भी एक संभावना भर है। दूसरी जरुरी बात यह कि मनोज रुपड़ा की लम्बी कहानियों में औपन्यासिकता को आरोपित नहीं किया जा सकता है। वह लम्बी होने के बावजूद कहानियां ही हैं।
'टॉवर ऑफ सायलेन्स' मनोज रुपड़ा की प्रतिनिधि कहानियों में शुमार किये जाने लायक है। आम तौर पर मनोज रुपड़ा के साथ ऐसा कम ही होता है कि उनकी कहानियों में एक खूबसूरत उद्गम देखने को मिले, जो चिन्ता की गलियारों से होती हुई, विचारों के मुहाने तक पहुँचती हो। इसके उद्गम, विस्तार और अंजाम के कुछ टुकड़े रख रहा हूं। टेम्पटन दस्तूर स्कूल आने-जाने के दौरान पारसी समुदाय के  बूढ़ों का पहनावा एक जैसा था। सबकी उम्र भी एक जैसी थी और इसमें कोई संदेह  नहीं कि सबके चेहरे भी एक जैसे थे। वे कभी किसी से कुछ कहते नहीं थे। चुपचाप एक समान सपाट भाव लिये वे सिर्फ देखते रहते थे। ''उनके इर्द-गिर्द जो 'एंटीक' किस्म की चीजें थी या जिन चीजों से उनका परिवेश बना था। उनके बारे में मनोज रुपड़ा लिखते हैं कि ''जिनकी उम्र उनसे कई गुना ज्यादा बड़ी थी, उनके आसपास ऐसी कोई चीज नहीं थी जिसकी उम्र सौ-डेढ़ सौ या दो सौ सालों से कम हो। लेकिन वे सब चीजें सिर्फ चीजों की तरह नहीं, पारिवारिक सदस्यों की तरह उन घरों में रहती थीं, उतने ही आदर-सम्मान के साथ, जितने आदर-सम्मान की एक मनुष्य को दरकार होती है।.. टेम्पटन दस्तूर जब  बड़े हुए तब उनके लिए यह एक शोध का विषय था। उपभोक्ता चीजों की बाढ़ और यूज एण्ड थ्रो के तेज प्रवाह में से सब पुरानी चीजें और पुरानी जीवन शैलियाँ और उनका अन्तर्मुखी समुदाय अभी तक डूबने से कैसे बचा हुआ है?... दूसरी बात जो इससे ज्यादा आश्चर्यजनक और विरोधाभासपूर्ण थी कि इस  देश के दूसरे समुदाय जब अपना वर्चस्व और शक्ति  बढ़ाने पर तुले हैं तब उनके समाज में खुद को समेट लेने की यह आत्मघाती वृत्ति और प्रजनन के प्रति इतनी विरक्ति क्यों है? वह हमेशा घरघुस्सू क्यों बना रहना चाहता है। उद्योग और अनुसन्धान में अपने बेहद महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद वह कभी किसी मुख्यधारा में शामिल नहीं हुआ जबकि उसने इस देश की सुदूर सांस्कृतिक जड़ों से सत हासिल किया है।..टेम्पटन दस्तूर सोचते-सोचते अकसर बहुत दूर तक चले जाते-क्या इतिहास सिर्फ आन्दोलनों, विद्रोहों, पुरुषोचित वीरता या विरोधी कौमों की आपसी मारकाट के जघन्य कारनामों, लड़ाइयों,  बंटवारों और बलिदानों का होता है? उद्यमिता, नियोजन और आत्मनिर्भरता का कोई इतिहास क्यों नहीं होता?'' ('टॉवर ऑफ सालयेन्स', पृ. 10 से 12)
इस अपेक्षाकृत लम्बे उद्धरण का एक मकसद यह था कि जिसे मनोज रुपड़ा की एक अदा कह रहा हूं, उसकी एक बानगी देखी जा सके। एक विरल और अन-अनुमेय (अनप्रेडिक्टबल) से लगनेवाली कहानी के धरातल से ली गई वैचारिक उड़ान को यहां देखा जा सकता है। मनोज रुपड़ा की कहानियों में इस किस्म के 'अंडरटोन' की मौजूदगी जबर्दस्त तरीके से है। पर वह इतना मद्धिम है कि पहले पाठ में कई बार वह अनसुना रह जाता है। यह 'अंडरटोन' मनोज रुपड़ा की कहानियों का मर्म स्थल है, पर उसके इर्द-गिर्द अन्य कहानी के तत्वों की इतनी   भरमार है कि यह गुम-सा हो जाता है। इसे ढूंढना 'गहरे पानी में पैठने' वाला उपक्रम है, जो एक आम पाठक के लिए किसी बौद्धिक कवायद से कम नहीं है,  जिसके लिए पर्याप्त मात्रा में धैर्य की दरकार होती  है। 'टॉवर ऑफ सायलेन्स' की एक साथ कई व्याख्यायें संभव हैं। पारसी समुदाय के केन्द्र में होने के कारण इसका एक अल्पसंख्यक और अस्मितावादी विमर्श वाला पहलू हो सकता  है। पर असल में यह जमशेद टाटा और रतन टाटा के मायनों को समझाती कहानी है। यह अपने जातिगत और अस्मितागत उत्स को भूलने की कहानी है। अस्तित्व की लड़ाई में उत्थान के मूल में निहित पतनों और समझौतों की कहानी है। अपनी जातीय स्मृति और अस्मितागत पहचान को बचाये रखने के क्रम में मिट जाने की कहानी है।
'दूसरा जीवन' इस संग्रह की दूसरी कहानी है। यह भी अपने किस्म की अनूठी कहानी है। यथार्थ और आभासीय यथार्थ के आपस में बेतरह घुल-मिल जाने की यह कहानी एक ओर तो कारपोरेट कल्चर प्रदत्त युवा संस्कृति के जटिलताओं से हमें रु-ब-रु कराती है, वहीं दूसरी ओर फिर इसमें व्याप्त 'अंडरटोन' की गहरी अनुगूंजों को भी सुना जा सकता है। मनोज रुपड़ा की कहानियों के कथ्य और 'अंडरटोन' के बीच इतनी बड़ी फांक होती है कि दोनों के मध्य तात्कालिक रुप से कोई पुल बनता नहीं दिख पाता है। मसलन् 'दूसरा जीवन' के पूरे कथ्य के साथ इन 'अंडरटोन्स' की संगति नहीं बैठती है कि ''मुझे दुनिया के झंझटों के बारे में ज्यादा मालूमात नहीं है। मेरा काम है  बच्चे पैदा करना। मैं उन्हें पैदा करती हूं, जो मार दिये गये थे। मैं अपनी कोख से बिना किसी भेदभाव के बच्चे पैदा करती हूं लेकिन सिर्फ उन्हें, जिनके साथ अन्याय हुआ,जो किसी न किसी तरह के हवस के शिकार बनाये गये। लोग कहते हैं  कि मौत सब कुछ बराबर कर देती है। मरने के बाद सब कुछ समान हो जाता है। 'डेथ इज अ ग्रेट लैवलर' और भी न जाने क्या-क्या। लेकिन मैं जानती हूं, कि यह एक गलत धारणा है। मरने के बाद भी असमानता पीछा नहीं छोड़ती  है। हर मौत में एक गुणात्मक अन्तर होता है। कौन मरा और किसने मारा यह जानना बहुत जरूरी है।'' ('दूसरा जीवन', 'टॉवर ऑफ सायलेन्स' में संग्रहीत पृ. 61) इस उद्धरण के आखिरी हिस्से में आये मृत्यु सम्बन्धी विचार को मनोज रुपड़ा की कहानियों में निहित मूल विचारों के तौर पर पहचाना जा सकता है। 'दफन और अन्य कहानियां' संग्रह की लगभग सभी कहानियों को इस निगाह से फिर से देखा जा सकता है। इसी कहानी से एक और हिस्सा रख रहा हूं। ''मैं उसे मृत्यु की कगार से घसीटकर रोजमर्रा के संघर्षों के बीच ले आता हूं और तब पहली बार उसे मालूम पड़ता है कि रिक्शा चलाने, ठेला खींचने, ईंट गारा ढोने, गन्ना पेरने पत्थर तोडऩे, लकड़ी चीरने, बोरे लादने और ऐसे ही दीगर हाड़-तोड़ काम करने के लिए शरीर में कितने पाइंट खून और कितनी ताकत लगती है और खून सूख जाने या ताकत चूक जाने के बाद लोगों से झूठ बोलकर पैसे उधार माँगने, साइकिल या जूते-चप्पल वगैरह चुराने, धोखाधड़ी करने, सट्टा लिखने, गाँजे और अवैध शराब की  हेराफेरी करने, भीड़-भाड़ वाली जगहों में चकमा देकर किसी का पर्स उठाकर गायब हो जाने, सब्जी खरीदने के बहाने रेहड़ी वालों की गुल्लक में हाथ साफ कर लेने, सार्वजनिक नलों से किसी बाल्टी या भगोना पार कर लेने, या किसी व्यस्त दुकानदार की रेजगारी के चक्कर में उलझाकर अपने दस के नोट के एवज में सौ रुपये भुना लेने, या किसी घायल आदमी की मदद के बहाने उसकी जेबें टटोल लेने जैसे बहुत  मुश्किल काम को अंजाम देने में कितनी हिम्मत की जरूरत पड़ती है और इस हिम्मत के चुक जाने के बाद भीड़ के लात-घूंसे खाने, बाल पकड़कर खसीटे जाने, कपड़े फाड़कर नंगा कर दिये जाने, मुँह में कालिख पोत कर पुलिस के हवाले कर दिये जाने और वहां से बुरी तरह और पूरी तरह टूट कर आने के बाद  गम्भीर रुप से बीमार पडऩे,  छीजने, तिल-तिलकर मरने या ट्रक के आगे खुद को कुचलवा लेने, या गले में फंदा डाल लेने या कीटनाशक वगैरह पी लेने या मिट्टी का तेल छिड़क कर खुद को जला लेने के विकल्पों में से किसी एक विकल्प को चुनने के लिए किस तरह के टैलेंट की जरुरत होती है।'' (वही, पृ. 45) मनोज रुपड़ा की कहानियों में अनायास आने वाले ऐसे सायास क्षणों को उनके कहानी को  बरतने का एक निजी तरीका कहा जा सकता है। इन निजताओं की संगति आसानी से कहानी के साथ नहीं बैठती है। मामला ऐसे क्षणों में मेरे तईं तो 'एब्सर्डिस्ट फिक्शन' वाला हो जाता है।
'रद्दोबदल' इस संग्रह की तीसरी कहानी है। 'रद्दोबदल' में ऐसे बहुत से तत्व मौजूद हैं, जिसे हिन्दी आलोचना का पारम्परिक संस्कार फौरी तौर पर 'फैंटेसी' कह सकता है। पर यहां मामला फंतासी से अधिक 'सुररियलिज्म' वाला है। कहानी, चाहे वह आम हो या खास हो हर पाठक को सिरे से 'अजीब' लग सकती है। और मनोज रुपड़ा के शिल्प के बारे में यह गंभीर सवाल उठाया जा सकता है कि यह शिल्पगत आग्रह किसके लिये है? कहानीकार गर शिल्पी है तो उसके शिल्प का प्रयोजन क्या है? यदि किसी किस्म की दुरुहता और जटिलता को रचना उसका अभीष्ठ है, तो ऐसे प्रयास सराहनीय तो कतई नहीं कहे जा सकते। एक कहानीकार के लिये कम से कम दुरुहता या जटिलता को मैं कोई प्रशंसनीय गुण नहीं मानता। शिल्प की सफलता  किसी कथ्य को सहजता से आत्मसात कर संप्रेष्य बनाने में है, न कि शिल्प और कथ्य के बीच ही ऐसी स्पर्धा रचने में कि दोनों में से कौन महान है। हर कहानी के साथ 'पिछले शिल्प के अतिक्रमण की अबूझ कोशिश' की जिद संभव है कि भविष्य में कुछ नायाब और बेशकीमती चीज दे जाये पर तब तक इस रियाज की कीमत  पाठकों और आलोचकों को चुकानी होगी। यदि मनोज रुपड़ा ने                               'साज-नासाज', 'दृश्य-अदृश्य' और 'टावर आफ सायलेन्स' जैसी कहानियां बीच-बीच में नहीं लिखी होतीं तो उनके सन्दर्भ में सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का कोई तर्क नहीं बनता था। पर मनोज रुपड़ा के हिन्दी कहानी परिदृश्य में न होने पर यह कहानियां कोई और नहीं लिख सकता था।
हर कहानीकार के पास यथार्थ को आयत्त करने का अपना तरीका होता है। मनोज रुपड़ा के पास यथार्थ को आयत्त करने का और उसे संशोधित-परिवद्र्धित कर कहानी में ढालने का जो 'प्रोसेसर' है। वह आमतौर पर वैसा नहीं है जैसा कि हम देखते आये हैं। वह 'अनयूजवल' किस्म का है। जिसके बारे में कोई मुकम्मल राय बनते-बनते बनेगी। संभव है कि कुछेक नुक्ते यहां से मिले बाकी बातें और कहीं और फिर कभी।


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