मुखपृष्ठ पिछले अंक वह काफिला भी वतन छोड़ कर अपने देश को जा रहा है
फरवरी 2014

वह काफिला भी वतन छोड़ कर अपने देश को जा रहा है

प्रियम अंकित

अगली बार बदीउज्ज़मां और अंत में शानी

 

 

''लो बहिनों पहुँच गये!'' कौशल्यादेवी ने सांत्वना की आह भर स्त्रियों को संबोधन किया, ''उतरो! तुम्हारा वतन तो छूटा पर अपने देश में, अपने लोगों में पहुँच गयीं। परमेश्वर को धन्यवाद दो।''
वतन और देश! तारा के मस्तिष्क में गूँज रहा था।
तारा कौशल्यादेवी की बात समझ नहीं पा रही थी। तारा कौशल्यादेवी को धन्यवाद दे सकती थी, परंतु कौशल्यादेवी चाहती थी कि तारा और उसकी साथिनें अपने पर बीती के लिये, अपना वतन छुड़ा देने के लिये परमेश्वर को धन्यवाद दें। वह चुप रही। उसके मस्तिष्क में गूँज रहा था, वतन और देश।
झूठा सच (खण्ड 1, पृ. 445, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद)

भारतीय इतिहास और राजनीति के सांप्रदायिक
आयाम : कितने सच्चे, कितने झूठे

सांप्रदायिकता या फिरकापरस्ती भारत के आधुनिक इतिहास और राजनीति का एक ऐसा सच है जिसने अपनी विश्वसनीयता कई किस्म के झूठों से अर्जित की है। भारत में सांप्रदायिकता अठारहवीं शताब्दी के अंत में औपनिवेशिक परिस्थितियों द्वारा निर्धारित की गयी ऐतिहासिक और राजनीतिक गतियों की उपज है जिसे फलने फूलने की खुराक इन्हीं परिस्थितियों से मिली। लेकिन इसने अपने यथार्थ को अर्जित और परिमार्जित करने के लिए भारतीय इतिहास, समाज और राजनीति के भीतर 'सनातन और शाश्वत विभाजनों' को गढऩे का शक्तिशाली अभियान चलाया। भारतीय समाज को एक दूसरे का विरोध करने वाले फिरकों और धर्मों के आक्रामक समूहों के रूप में परिभाषित किया गया। यह धारणा प्रचारित की गयी कि हर धर्म के सभी अनुयायियों के धार्मिक हित साझे होते हैं। एक ही समुदाय के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हित धर्मनिर्पेक्ष नहीं हो सकते, क्योंकि धर्मनिर्पेक्षता जैसी कोई चीज़ नहीं होती और धर्मनिर्पेक्ष हित भी नहीं होते। ऐसा प्रचार करने एक ही समुदाय के भीतर वर्गीय हितों पर आधारित आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अंतर्विरोधों पर संकीर्ण धार्मिक हितों की एकता का पर्दा डालकर एक समुदाय को दूसरे समुदायों के विरुद्ध खड़ा किया गया। भारतीय इतिहास की मज़हबी तंगनज़री के आधार पर छद्म व्याख्यायें प्रस्तुत की गयीं और उनके अंदर हिंदू और इस्लाम धर्मों के अनुयायियों के बीच रक्त-रंजित संघर्षों और इन संघर्षों में शहीद होने वाले बलिदानियों के मिथकों को गढ़ा गया। इतिहास के भीतर सांप्रदायिक विचारधारा की वैधानिकता को इस तरह सुरक्षित करने में औपनिवेशक शासकों के अपने हित थे। मिल की इतिहास की वह किताब अब अप्रासंगिक हो चुकी थी जो भारत में नियुक्ति के पहले हर ब्रिटिश नौकरशाह को पढऩी होती थी जिसमें भारतीयों को असभ्य बता कर उपनिवेशवादियों के शासन को वैधता प्रदान की गयी थी। भारतीय नवजागरण की जिस परंपरा ने असभ्यता के इस मिथक को ध्वस्त किया था, जब तक उसमें कोई सुराख न किया जाता अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकतांत्रिक मूल्यों के नये विन्यास के भीतर उपनिवेशवाद को वैधता न मिल पाती। साम्राज्यवाद चाहे कैसा भी हो मिथ्या-चेतना के रचाव-बसाव के बिना अपनी सार्थकता को साबित नहीं कर सकता। उन्नीसवीं सदी के अंत, खासकर 1857 के बाद और बीसवीं सदी के शुरूआत में बदलते औपनिवेशिक यथार्थ में, औपनिवेशिक शासकों को मिथ्या-चेतना के रूप में सांप्रदायिक विचारधारा का अमोघ अस्त्र मिल चुका था।
इस तरह सांप्रदायिकता साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के आधुनिक भारतीय राजनीति के उदय का परिणाम थी। इस आधुनिक राजनीति का मध्ययुगीन या प्राचीन, 1857 के पूर्व की राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं था। विपिन चंद्र के अनुसार सांप्रदायिकता ''राजनीति तथा विचारधारा के रूप में तभी उभर कर सामने आ सकी जब राजनीति के स्वरूप में संरचनात्मक व्यवधान आया। अर्थात यह तभी संभव हुआ जब जन लोकतांत्रिक प्रभुसत्ता जनभागीदारी की राजनीति, जनमत के निर्माण और उसे प्रभावित करने की राजनीति का प्रवेश हुआ, भले ही उस समय 'जन' शब्द का अर्थ बड़ा संकीर्ण रहा हो। इसके पूर्व राजनीति पूरी तरह उच्च शासक वर्गों के हाथ कैद में थी और आम जनता का काम युद्ध में झोके जाने तक ही सीमित था।'' (आधुनिक भारत में सांप्रदायिकता पृ. 7) अत: हिंदू और मुसलमानों को 'हिंदुओं', 'मुसलमानों' के रूप में, या भारतवासियों के रूप में भारतीय राजनीतिक दृष्टि से सोचना भी गलत होगा कि सांप्रदायिकता किसी पारंपरिक विचारधारा का पुनरुज्जीवन या पारंपरिक भारत का एक पक्ष थी जिसे अब त्याग देना चाहिए। हमारी परंपरा में तो सांप्रदायिक धारणा विद्यमान ही नहीं थी सांप्रदायिक वैमनस्य हमें विरासत में नहीं मिला था। यह हमारे इतिहास का अवश्यंभावी परिणाम नहीं था। (वही) सांप्रदायिकता तो आज के कतिपय समूहों, संसतरों और वर्गों की सामाजिक लालसाओं को अभिव्यक्त करती है तथा उनकी सामाजिक आवश्यकताओं और लक्ष्यों की पूर्ती करती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि सांप्रदायिकता उपनिवेशी राजनीति का पाँसा बन गयी जिसे किसी भी तरह विगत का अवशेष बनाकर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सांप्रदायिकता के सामाजिक मूल ही नहीं इसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लक्ष्य भी आधुनिक थे, वे वर्तमान काल में और वर्तमान काल के ही थे। (वही, पृ. 8) सांप्रदायिकता पिछले डेढ़ सौ सालों की ऐतिहासिक प्रक्रिया की छद्म चेतना है क्योंकि वस्तुगत रूप से हिंदुओं और मुसलमानों के हितों के बीच वस्तुत: कोई टकराव था ही नहीं। इसमें संदेह नहीं कि वास्तविक जीवन में सामाजिक विविधता और अनेकता के रूप में धर्म विद्यमान था, किंतु इस विविधता को राजनीतिक संगठन, आंदोलन या कार्यकलाप का आधार बना लेना अथवा इसे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के मुख्य अंतर्विरोध के रूप में देखना निश्चिय ही छद्म चेतना का पक्ष था, सांप्रदायिकता साम्राज्यवाद-विरोध अथवा वर्ग-चेतना की भाँति यथार्थ टकराव पर आधारित न होकर यथार्थ टकराव के विकृत रूप अथवा इसके 'प्रतिस्थापन' पर आधारित थी। (वही, पृ. 15) सांप्रदायिकता यथार्थ की आंशिक दृष्टि नहीं थी जो केवल सांप्रदायिक पक्ष को देखती थी और राष्ट्रीय पक्ष को नहीं, क्योंकि यथार्थ का कोई सांप्रदायिक पक्ष था ही नहीं। यह तो यथार्थ को देखने का गलत दृष्टिकोण था। (वही, पृ. 16)
मिथ्या-चेतना के रूप में विचारधारा को मार्क्स ने जिस तरह से व्याख्यायित किया था, उस पर टिप्पणी करते हुए पी. कारगिन का कहना है कि - ''मार्क्स के अनुसार विचारधारा का मूल इस बात में निहित नहीं है कि लोगों का विश्व-संबंधी निरीक्षण गलत होता है, अपितु वह बिल्कुल सही निरीक्षण पर आधारित होता है, जैसा कि विश्व उनके अनुभव में आता है। विचारधारा निश्चित रूप से अनिवार्य संबंधों के परिघटनात्मक रूपों से ही उत्पन्न होती है। मार्क्स के अनुसार परिघटनात्मक रूप भ्रामक हो सकते हैं। यदि अनुभव ही विचारधारा के उत्पादन का प्रमुख साधन हो जाता है।'' (सोशलिस्ट कॉस्ट्रक्शन एण्ड मार्क्सिस्ट थियरी, पृ. 21) यानि मिथ्या-चेतना  के रूप में विचारधारा निरीक्षण और अनुभव पर आधारित तो होती है मगर यह अनुभव और निरीक्षण अवैज्ञानिक होता है। इसलिए मिथ्या-चेतना सच तो होती है, मगर वह 'झूठा' सच होती है। इसीलिए पी. कारगिन के अनुसार विचारधारा या वास्तविकता का विश्लेषण करने के लिए निरीक्षण मात्र से परे जाना होगा - ''मार्क्स के अनुसार बाहर दिखाई देने वाले (अवैज्ञानिक निरीक्षण से उत्पन्न) क्रिया व्यापार को यथार्थ क्रिया-व्यापार का स्वरूप प्रदान करना विज्ञान का कार्य है।'' (वही, पृ. 14)
सांप्रदायिक विचारधारा की मिथ्या-चेतना के निराकरण के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मनुष्यों, उनके आपसी संबंधों और समाज के भीतर रहने वाले विभिन्न समुदायों के बीच संबंधों को परखने की विज्ञान सम्मत दृष्टि अपरिहार्य बन जाती है। भारतीय संदर्भ में यह दुर्भाग्य की बात है नवजागरण और स्वतंत्रता संघर्ष के भीतर यह विज्ञान-सम्मत दृष्टिकोण पनपा तो, मगर यह दूर तक और देर तक चल न पाया। आरंभ में यह भारतीय स्वाधीनता-संघर्ष की राजनीति के भीतर औपनिवेशिक आकाओं के मातहत पनपने वाली सांप्रदायिकता की मिथ्या-चेतना ही थी जिसे कई अवसरों पर इस संघर्ष के भीतर सक्रिय धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के समक्ष मुँह की खानी पड़ी। मगर 1946 में सांप्रदायिकता ने भारतीय राजनीति और इतिहास में निर्णायक रूप से अपनी उपस्थिति को उस पाशविक और खूनी विस्फोट के माध्यम से दर्ज़ कराया जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के दो टुकड़े कर दिये -हिंदुस्तान और पाकिस्तान के रूप में। तब से लेकर आज तक सांप्रदायिकता की यह मिथ्या-चेतना भारतीय राष्ट्र और राजनीति का नियंता होने का दंभ भरती बाबरी-विध्वंस और गोधरा दंगों को अंजाम दे चुकी है। सांप्रदायिकता की यह मिथ्या-चेतना आज भारतीय अर्थव्यवस्था एवं सामाजिक विकास के नव उपनिवेशी मॉडलों का केंद्रीय और सर्वाधिक संगठित तत्व बन चुकी है।
यशपाल का उपन्यास झूठा सच भारतीय समाज में सांप्रदायिकता की इस मिथ्या-चेतना के, भारतीय इतिहास की क्रूर सांप्रदायिक सच्चाईयों की झूठी बुनियादों के पनपे, फलने-फूलने और भारत के राजनैतिक भूगोल के भीतर अपनी उपस्थिति को निर्णायक रूप से दर्ज़ कराने में सफल होने का मार्मिक वृत्तांत तो है ही, साथ ही ऐसे अनेक 'मिथ्यात्वों' की सफलता के बावजूद उनके खिलाफ अपने 'सच' के हक में संघर्ष करती भारतीय जनता की उस अदम्य जीवनदायिनी उर्वरा शक्ति में अकूत आस्था की महाकाव्यात्मक अभिव्यक्ति भी है।

वतन और देश

झूठा सच भारतीय इतिहास के सबसे संवेदनशील कालखण्ड की मार्मिक गत्यातमकताओं में निहित 'मानवीय सच' का, और इस सच को चुनौती देने वाले निर्मम परिवेश में ढकेल दिये गये इंसान की यातना, संघर्ष और गरिमा का संधान करने वाली कृति है। इस बात को अनदेखा कर एकांगी दृष्टिकोण से झूठा सच के बारे में यह धारणा कई बार और कई तरह से प्रचारित की गयी है कि यह 1942 से लेकर 1957 तक की ऐतिहासिक घटनाओं को शिद्दत से दर्ज़ करने वाला महत्वपूर्ण मानवीय दस्तावेज़ तो है, मगर साहित्य के कलात्मक मानदण्डों पर यह खरा नहीं उतरता। इस धारणा के अनुयायी साहित्य की 'पवित्रता' से ग्रस्त हैं, वे साहित्य के भीतर इतिहास की मौजूदगी से परेहज भले न करते हों, मगर उसकी उपस्थिति के प्रति 'सहिष्णु' वहीं तक होते हैं जहाँ तक इतिहास की उपस्थिति कला को 'दूषित' नहीं करती। उनकी नज़रों में झूठा सच की सबसे बड़ी सीमा यही है कि इसमें इतिहास बहुत ज़्यादा है, शाश्वतता कम। सवाल यह है कि इतिहास क्या हमेशा कला के लिए प्रदूषण है, कोई 'अनहाईजेनिक' प्रभाव जो कला के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालता है? एक दौर में ऐसी ही धारणायें कला-आलोचना के मानदण्डों को तय करती थीं, कला की ताकत और सीमाओं का निर्धारण करती थीं। इन धारणाओं के अनुसार जो कला की शक्ति थी, आज के दौर में वही उसकी सीमायें बन गयी हैं, और जो सीमायें थी वही ताकत बन गयी हैं। इसका प्रमाण उत्तर-औपनिवेशिक चिंतन के पुरोधा चिंतकों में से एक एडवर्ड सईद का यह वक्तव्य है - ''कला चेतना अपने यथार्थ सामाजिक संसार और उस अभिधात्मक शरीर का अंग होती है जिसमें उसका निवास होता है, न कि इनमें से किसी एक से पलायन। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने वंशक्रम से मुक्त नहीं हो सकता, उसी प्रकार रचना अपने सामाजिक मूल और इतिहास से अलग नहीं हो सकती। अपने विशुद्ध रूपों में भी साहित्यिक पाठ का अस्तित्व ऐसा होता है कि वह परिस्थिति देश और काल में अवस्थित होता है। यानि कि वह संसार में होता है और संसार के लिये होता है। (सेक्युलर क्रिटिसिज़्म)। अर्थात सांसारिकता, सामाजिकता और ऐतिहासिकता कला को दूषित नहीं करती, बल्कि उसमें अर्थ भरती है। कला में कल्पना और व्यावहारिक यथार्थ का एक अर्थपूर्ण रिश्ता बनता है। यह ठीक है कि हमेशा इतिहास के दायरों से ही बँधी रहने वाली कला, इन दायरों का अतिक्रमण करने में विफल रहने वाली कला हीनतर होती है। मगर यह ध्यान रखना होगा कि अतिक्रमण और पलायन में अंतर होता है। अतिक्रमण हमेशा रिश्ते की मांग करता है, जबकि पलायन बिना कोई रिश्ता बनाये कतराकर निकल जाना है। यह कोई ज़रूरी नहीं कि इतिहास को अपने भीतर जगह देने वाली कृति उस इतिहास से रिश्ता कायम करके ही उसका अतिक्रमण करने का साहस करे। रचना का आंतरिक संरचनात्मक ढाँचा ही इस बात का पता देता है कि रचना ऐतिहासिक दायरों का अतिक्रमण करती है या उनसे पलायन। इतिहास के शर से बिद्ध हुए ब$गैर कोई रचना मनुष्यता की पीड़ा को (उसके उल्लास को भी) भोग नहीं सकती। रचना जब दायरों में कैद मनुष्य की पीड़ाओं, उल्लासों, आस्थाओं और अनुभूतियों को अपने साथ लेकर इन दायरों का अतिक्रमण करती है तभी कला के मानदण्डों पर खरी उतरती है। यानि रचना का इतिहासबद्ध न होकर, 'इतिहासबिद्ध' होना श्रेष्ठ कला के मानदण्डों पर खरा उतरने की समग्र और संपूर्ण न सही, सबसे मूलभूत शर्त तो है ही। झूठा सच इस मूलभूत शर्त पर खरा उतरता है। झूठा सच की तुलना अक्सर लेव तोलस्तोय के उपन्यास युद्ध और शांति से की जाती है। नेमिचंद्र जैन का मानना है - ''झूठा सच'' के संदर्भ में प्राय: तोल्सतोय के अमर उपन्यास ''युद्ध और शांति'' का स्मरण किया जाता है। पर दुर्भाग्यवश यह स्मरण ''झूठा सच'' के लिये बहुत प्रसंसात्मक सिद्ध नहीं होता। क्योंकि इसका केवल विस्तार ही युद्ध और शांति जैसा है। कलात्मक उपलब्धि इसकी इतनी सीमित है कि दोनों कृतियों में कोई तुलना ही नहीं हो सकती। (अधूरे साक्षात्कार, पृ. 80) यानि झूठा सच अपने विस्तृत आकार के चलते ही युद्ध और शांति की याद दिलाता है। यहाँ युद्ध और शांति के बारे में ई. एम. फॉस्र्टर के प्रेक्षण को याद करना अभीष्ट होगा - 'युद्ध और शांति' का असली नायक रूस का वह विस्तृत भूक्षेत्र है जिसकी जमी हुई नदियाँ, जंगल, पुल, सड़कें, बाग, मैदान, इस उपन्यास में जीवंत हो उठे हैं। उपन्यास के पात्र और घटनायें रूस के विस्तृत भूभाग के साथ लयबद्ध होकर रूसी चरित्र के वैशिष्ट्य की सांगीतिक अभिव्यक्ति में घुल जाते हैं। (एस्पेक्ट्स ऑव द नॉवेल, पृ. 46-47) क्या झूठा सच का असली नायक भारतीय उपमहाद्वीप का भूखण्ड नहीं है? क्या इस उपन्यास के पात्र और घटनायें भी इस भूखण्ड की ऐतिहासिक नियति के साथ लयबद्ध नहीं हैं? यह अकारण नहीं है कि झूठा सच के पहले खण्ड का शीर्षक 'वतन और देश' एवं दूसरे खण्ड का 'देश का भविष्य' है। 'वतन' और 'देश' दोनों ही भौगोलिक सत्तायें हैं। फर्क इतना है (और यह एक बड़ा फर्क है) कि एक भूगोल के राजनीतिकरण के पूर्व की अवस्था है तो दूसरी बाद की। इस तरह झूठा सच के दोनों खण्डों का नाम भारतीय भूखण्ड ही है। भूगोल को इतनी संवेदना और सजग बोध के साथ कला के भीतर विन्यस्त रखना तोलस्तोय और यशपाल दोनों की खासियत है। अत: झूठा सच और युद्ध और शांति की तुलना अस्वाभाविक नहीं, बल्कि नितांत स्वाभाविक है।''
झूठा सच में भोला पांधे की गली (लाहौर) में ''रहने वाले निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों और उनके विभिन्न सदस्यों के बाह्य जीवन, पारस्परिक व्यवहार और व्यक्तिगत आचरण, सामूहिक तथा वैयक्तिक संस्कार, चेतना और मान्यताओं को विभाजन के संदर्भ में - उससे पहले, दौरान तथा बाद में - देखा है, और फलस्वरूप होने वाले परिवर्तन या रूपांतरण को दिखाने का प्रयास किया है। भोला पांधे की यह गली जैसे एक समूचे समाज का प्रतीक है और लेखक ने उसके जीवंत सामूहिक व्यक्तित्व को रूपायित करने में बड़ा सचेष्ट परिश्रम किया है।'' (अधूरे साक्षात्कार, पृ. 70) भोला पांधे की यह गली उपन्यास में 'वतन' का बिंब बनकर उभरी है। यह मानवीय भूगोल की निहायत पारंपरिक और स्थानीय अवस्था है जहाँ भिन्नताओं और विसृदशताओं का प्रेमपूर्ण पारस्परिक सह-अस्तित्व संभव है। फिर से एडवर्ड सईद के शब्दों को उधार लें तो यह लंबी परंपराओं, अविच्छिन्न आवासों, नैसर्गिक भाषाओं और सांस्कृतिक भूगोलों की चिरस्थाई निरंतरताओं की अवस्था है। 'वतन' के भीतर संवेदना की जो हरियाली है उसमें किसी एक आवाज़ के अलावा 'बगीचे में रची-बसी अन्य दूसरी गूँजों' (टी.एस. ईलियट के शब्द) से वंचित होने का कोई अवकाश नहीं है। भोला पांधे की गली के किसी भी परिवार की खुशियां या गम नितांत निजी नहीं है, उसमें सबकी भागीदारी है - दौलू मामा ने गली के सभी जवानों, जवान लड़कियों और बच्चों को भी गोद में खिलाया था। गली में खूह वाली माई, गोविंदराम और मास्टर जी ही उसे नाम से पुकारते थे शेष सब लोग उसे 'मामा' संबोधन करते थे। दौलू को गोद के बच्चों को कंधे पर बैठा कर और होठों से अनेक तरह के शब्द निकाल-निकाल कर खिलाते रहने का शौक था। गली में किसी के घर लड़का-लड़की होता, बधाई मामा को भी मिलती। लोग कहते - ''मामा तेरा एक और भाँजा-भाँजी हो गयी।''
दौलू अपने बिना दाँत के जबड़े दिखाकर बड़े अभिमान से कहता - ''अरे मेरे सामने क्या बोलते हो, तुम सबने मुझ पर हगा-मूता है। (झूठा सच, खण्ड-1, पृ. 110)''
लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित आधुनिक राजनीति 'वतन' के 'देश' में रूपांतरण की माँग करती है। परंतु जब इस राजनीति को औपनिवेशिक परिस्थियों के भीतर साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के बीच आकार लेना होता है तो यह रूपांतरण लघुकारी अपवर्ज़न का शिकार बनता है। धर्म, जाति, संप्रदाय आदि संकीर्ण आधारों पर विसृदशता और भिन्नता के सह-अस्तित्व को साम्राज्यवादी ताकतें छिन्न-भिन्न कर देती हैं। इन संकीर्ण आधारों का निर्माण करने में साम्राज्यवादी हितों के अधीन मिथ्या-चेतना की सक्रिय भूमिका होती है। उपन्यास में सांप्रदायिक विचारधारा इसी मिथ्या-चेतना का प्रतिनिधित्व करती है। भोला पांधे की गली के निवासी 'वतन' से 'देश' तक की जो निर्मम, भयानक, क्रूर और यंत्रणाभरी यात्रा करते हैं वह भारतीय इतिहास की वीभत्स त्रासदी के इस यथार्थ को पूरी शिद्दत से अभिव्यक्त करती है। 'वतन' में कोई लावारिस और अनाथ नहीं होता। मगर जब यह 'वतन' जब सांप्रदायिकता से दूषित होकर टूटना शुरू करता है, तो दौलू मामा की लाश लावारिश बन जाती है - दौलू को लावारिस बता देना आवश्यक था, वरना गली के लोग तहकीकात में बंधे फिरते। (वही, पृ. 109) ऐसे जब 'वतन' टूट कर 'देश' बनता है, तो लावारिस लाशों और अनाथ कर दिये गये बच्चों के मंज़र से मानवीय स्मृतियाँ लहूलुहान हो उठती हैं। बंती जब अपनी त्रासदी को बयां करती है तो इस टूटते वतन की त्रासदी की कहानी भी नुमायां हो उठती है - बहिना, बाकर ही क्या,हम तो आस-पास के गाँवों में सबकी ही मदद करते थे। कौन काश्तकार, ज़मींदार वक्त पर हिंदुओं के यहाँ कर्ज़े के लिये नहीं आता? तुम जानती हो, मुसलमान क्या जो कर्ज़े न ले! इस बेईमान बाकर का बाप हमीदू कितना नेक आदमी था! हमीदू था तो कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ। दोनो फसलों पर ब्याज़े से अनाज, कपास, दो ढाई सेर घी, जो होता था दे जाता था। अरे सभी भले थे। आप भले तो जग भला। .... कहता था तुम्हारा दिया ही खाता हूँ। तुमसे आँख मैली करूंगा तो मरने के बाद खुदा को क्या मुँह दिखाऊँगा। देखो उसी का बेटा बाकर है... वही सबसे आगे बढ़कर आया, शर्म नहीं आई उसे। (वही, पृ. 413)
'वतन' के टूटने की कुत्सा बंती की इस आपबीती में मुखर हो उठती है - ''ज़ालिमों ने मेरे हाथ-पाँव बाँध कर कपड़े फाड़ दिये। क्या कहूँ उसने सब लोगों के सामने लकड़ी और लाठियों से मेरी दुर्गति की। मैं बेहोश हो गयी।'' बंती दोनो हाथ आँखों पर रखकर ज़ोर से रो पड़ी। (वही, पृ. 415)
''मुझे आधी रात अंधेरे में होश आया तो हाथ पाँव बँधे थे, कुएँ के पास पड़ी थी। पानी-पानी चिल्लाती रही। रोई चिल्लाई किसी ने नहीं सुना। वही पड़ोसी थे, जिसके सुख-दुख में, जापे-स्यापे (सोहर-सतूक) में दिन-रात का साथ था। रोटी-बेटी का नाता छोड़ कर सब नाता, साथ का उठना बैठना था। जाने लोगों के दिल कैसे फिर गये? (वही, पृ. 415)''
सामाजिक संबंधों की भारतीय विरासत में रोटी-बेटी का नाता न होना भिन्नताओं और विसृदशताओं के पारस्परिक सहअस्तित्व के मार्ग में $कतई बाधक नहीं था। झूठा सच की भूमिका में, जो 'तद्भव' अंक-9 में छपी थी, यशपाल का यह कथन बहुत मानीखेज़ है क्योंकि यह उपन्यास के लिखे जाने की प्रेरणाओं की ओर संकेत करता है - भुक्तभोगी लोगों से परिचय और उनकी आपबीती सुनने के अवसर मिलते रहते हैं। उन सब अमानवीय नृशंस काण्डों के पीछे ब्रिटिश कूटनीति तो थी परंतु ब्रिटिश कूटनीति ने जिन सांप्रदायिक भावनाओं और संस्कारों को लेकर सांप्रदायिक विरोध को तिल का ताड़ बना दिया, वह तो इस देश के सम्मिलित समाज में सदियों से चले आ रहे थे ... आखिर धर्म के नाम पर जमे संस्कारों ने जिनका प्रयोजन मनुष्य की पशुता को मानवता में बदलना था, उन्हीं संस्कारों को भड़का कर मनुष्यों को खूँखार दरिंदे बना दिया। (तद्भव, अंक-9, पृ. 37-38) मिथ्या-चेतना की सांप्रदायिक विचारधारा के विष में सहअस्तित्व के पारंपरिक आवासों को तबाह करके हिंदू को 'हिंदू' के रूप में, और मुसलमान को 'मुसलमान' के रूप में गढ़ा।
बंती का यह कथन कि तुम जानती हो, मुसलमान क्या जो कर्ज़ न ले ग्रामीण संदर्भों में सांप्रदायिकता की मिथ्या-चेतना के सामाजिक मूल की तरफ इशारा करता है। जैसा कि विपिन चंद्र का कहना है कि भारत के ग्रामीण समाज के अनेक भागों में संयोग से धार्मिक-भेद और वर्ग-भेद लगभग एक जैसे थे। संपत्तिधारी और शोषक वर्ग के लोग प्राय: उच्च वर्ग के हिंदू होते थे और शोषित तथा गरीब लोग प्राय: मुसलमान या निम्न जाति के हिंदू होते थे। (आधुनिक भारत में सांप्रदायिकता, पृ. 44) पंजाब में साहूकार ज़्यादातर हिंदू और काश्तकार प्राय: मुसलमान थे। ये गरीब काश्तकार समृद्ध हिंदू साहूकारों के कर्ज़दार थे। इस तरह यहाँ हिंदू-मुसलमानों के बीच जो वर्गीय अंतर्विरोध थे, वे अगर वर्ग-संघर्ष में परिणत होते तो औपनिवेशिक सत्ता के हाथ-पाँव फूल जाते। सांप्रदायिक विचारधारा ने इन वर्गीय-अंतर्विरोधों को धार्मिक-अंतर्विरोधों के रूप में व्याख्यायित किया। डब्ल्यू.सी. स्मिथ ने 1940 के दशक की शुरूआत में ही भाँप लिया था कि सांप्रदायिक दंगे प्राय: वर्ग-संघर्ष की छिटपुट घटनायें होती हैं, जिसे सांप्रदायिकता का ऊपरी या छद्म जामा पहना दिया जाता है। (मॉडर्न इस्लाम इन इण्डिया, पृ. 194) झूठा सच में बँटवारे की विभीषिका की शिकार स्त्रियों के विस्मय और आश्चर्य प्रकट करने वाले अनेक कथन भारत के ग्रामीण यथार्थ, उपनिवेशवाद और सांप्रदायिक विचारधारा के त्रिकोणीय संबंधों के बीच आकार लेने वाली मिथ्या धारणाओं के वीभत्स मारक असर की व्यंजना करते हैं।
झूठा सच सांप्रदायिक विचारधारा के शहरी वाहक के रूप में निम्न-मध्यमवर्ग की भूमिका की भी यथार्थ पड़ताल करता है। तानिक सरकार ने बंगाल में सांप्रदायिक दंगों के संदर्भ में जो निष्कर्ष निकाला है वह कमोबेश पूरे भारतवर्ष के संदर्भ में सही है - ''इस प्रकार जो मूलत: विदेशी साम्राज्यवाद द्वारा सुदृढ़ की गयी सामाजिक व्यवस्था के प्रति शहरी निम्न-मध्यमवर्ग का आक्रोश था वह अनाड़ी राजनीतिकरण के कारण सांप्रदायिक लड़ाई में बदल गया।'' (कम्यूनल रॉयट्स इन बंगाल, पृ. 298) शहरी हिंदू निम्न-मध्यम वर्ग में यह मिथ्या धारणा गहराई से जड़ जमा चुकी थी कि उनकी दुर्दशा का कारण सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को मिलने वाला आरक्षण है। सरकारी नौकरियों में सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की नीति में सांप्रदायिकता की यह मिथ्या अवधारणा बड़ी सूक्ष्मता से विन्यस्त थी। इसने शहरी निम्न मध्यम वर्ग के युवाओं के एक बड़े हिस्से को सांप्रदायिक तंगनज़री के दलदल में गर्क कर दिया - कौल ने कटुता से शिकायत की - ''यूनियनिस्ट मिनिस्टरी में हम लोगों के लिए नौकरियाँ कहाँ है? मुसलमान और जाट को थर्ड डिविज़न करके भी नौकरी मिल सकती है। हिंदू के लिये फस्र्ट डिविज़न करके भी जगह नहीं है।'' (झूठा सच, खण्ड - 1, पृ. 26)
उपन्यास विभाजन की त्रासदी के परिप्रेक्ष्य में स्वाधीनता संघर्ष के भीतर सांप्रदायिक विचारधारा के संदर्भ में धर्मर्निरपेक्षता और सहिष्णुता का दावा करने वाली शक्तियों की अवसरवादिता और पाखण्ड को बेबाकी से उबारता है। कांग्रेस पार्टी और कांग्रेसियों का चित्रण इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। काँग्रेस पार्टी के धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता के सारे दावे उस समय खोखले साबित होते हैं जब वह अपने झण्डे से हरा रंग हटा देती है - ''तुम्हें नहीं मालूम?'' अब्दुल ने अविश्वास प्रकट किया, ''शाम को यूनियनिस्ट कैबिनेट के कांग्रेस मिनिस्टर ने माल रोड पर जुलूस निकाला है। कांग्रेसियों ने अपने झण्डों से हरा रंग फाड़ दिया है। हम तो खुश हैं। अब तो कांग्रेस ने यह मान लिया है कि मुसलमान उनके साथ नहीं हैं। कायदे आज़म तो हमेशा से कहते हैं कि कांग्रेस मुसलमानों की नुमाएन्दगी नहीं कर सकती है वह हिन्दुओं की जमायत है।'' (झूठा सच, खण्ड 1, पृ. 104)
कांग्रेस के लीडरों के पाखण्डों, षडयंत्रों, चालाकियों, चालबाजियों और अवसरवादिता - ये सब - जयदेव पुरी के चारित्रिक विकास में सुघढ़ आकार लेते हैं। वह दुविधाग्रस्त और अनिश्चित मन से रचा हुआ नहीं है, बल्कि उसे स्वयं लेखक ने दुविधाग्रस्त तथा अनिश्चित मन वाले पात्र के रूप में गढ़ा है। अगर उसमें आंतरिक संगति का अभाव है, तो वह इसलिए कि स्वयं अवसरवाद में किसी तरह की आंतरिक संगति नहीं होती।

झूठा-सच और उसके स्त्री-पात्रों के अधूरे साक्षात्कार

झूठा सच अपने सशक्त स्त्री-पात्रों के लिये भी जाना जाता है जो विभाजन की त्रासदी को उसके सबसे उत्कट और कुत्सित आवेग के रूप में झेलती हैं। नेमिचंद्र जैन ने इन स्त्री-पात्रों का विश्लेषण करते हुए, इन पात्रों के संदर्भ में उपन्यास की सीमाओं को उजागर करने का प्रयास किया है। आलोचना की संभ्रांत और कुलीनतावादी दृष्टि के प्रभाव में आकर उत्कृष्ट मेधा भी किस तरह रचना की सामथ्र्य को उसकी सीमाओं के रूप में व्याख्यायित करने लगती है, यह विश्लेषण इसका उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह संभ्रांत और कुलीन दृष्टि  रचना में जीवन की कुत्सा और पाशविकता के चित्रण को अभीष्ट नहीं मानती, उसे जीवन की सुकुमारता में ही भावनाशीलता और संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। चूँकी झूठा सच भारतीय इतिहास के सबसे कुत्सित और पाशविक दौर को चित्रित करता है, अत: वह सुरूचि के दायरे से बाहर चला जाता है। जबकि असलियत यह है कि युद्ध, होलोकॉस्ट और विस्थापन को केंद्र में रखकर होने वाली रचनाओं ने मानव जीवन की हिंसा, कुत्सा और पाशविकता की कलात्मक सामथ्र्य को कई बार नये सिरे से पहचाना है। 'शिण्डलर्स लिस्ट', 'द पियानिस्ट' जैसी अनेकों फिल्में और क्वींतीन तारनतीनो का सिनेमा मानव जीवन की हिंसा, कुत्सा और पाशविकता में नये कलात्मक आयामों की तलाश सफलतापूर्वक करता है। झूठा सच अपनी दृश्यात्मकता में बहुत हद तक 'सिनेमैटिक' है। उसे सिनेमा के शिल्प में सहजता से ढाला जा सकता है।
उपन्यास में स्त्रियों के चित्रण पर नेमि जी की टिप्पणी है कि पूरे उपन्यास में स्त्री संबंधी विचारों की भरमार है, स्वयं स्त्री के, तथा उससे संबंधित पुरुषों के, विभिन्न आचरणों की अनगिनत छायायें प्रस्तुत की गयी हैं। और स्त्री के प्रति यह असंतुलित दृष्टि भी बड़ी स्थूल है, शरीर और सेक्स के स्तर पर ही अधिक है। (अधूर साक्षात्कार, पृ. 76) संभ्रांत दृष्टि की एक सीमा यह भी है वह शरीर और सेक्स जैसे मुद्दों के बेबाक अनवेशष को 'कृतित्व के स्तर को नीची गिराने' वाला मानती है। लेकिन आज जबकि स्त्री-विमर्श हिंदी साहित्य की रचनात्मक अंतर्धारा में प्रमुखता से अभिव्यक्त हो रहा है तो वहाँ सेक्स और शरीर स्त्री-अस्मिता की व्याख्या के महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके हैं। झूठा सच के नारी-पात्रों में स्त्री-विमर्श की गत्वरता पहले से ही मौजूद है।
अधूरे साक्षात्कार में तारा के विषय में यशपाल के इस कथन को भी झूठा सच के कलात्मक स्तर को नीचे गिराने वाला माना गया है - उसे जान पड़ रहा था कि वह जला हुआ मकान देश भर में नहीं, संसार भर में नारी पर अत्याचार का प्रतीक है, इसलिए भाग्य उसे यहां ले आया है। उसने ही नहीं, असंख्य नारियों ने पुरूषों की पाशविकता को सहा है। पुरूष को मनुष्य बना सकने के लिये स्त्री को कितना सहना पड़ेगा? (वही, पृ. 76) जबकि स्त्री-विमर्श के नज़रिये से देखें तो यह कथन पुरूष की संवेदनहीनता के प्रति स्त्री के आवेगमय विक्षोभ की सघनतम अभिव्यक्ति है।
जिस आपत्ति से संभ्रांत और कुलीनतावादी आलोचना की सीमित दृष्टि की संवेदनहीनता स्वयं ही उजागर हो उठती है, वो यह है - ''अपने को मार्क्सवादी कहलाने वाले लेखक के लिये यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि स्त्री के ऊपर बलात्कार से बड़ी बर्बरता और मूल्यहीनता की वह कल्पना नहीं कर पाता। (वही) आलोचना की अभिजात दृष्टि, जो यह कहते नहीं थकती कि किसी साहित्यिक-कृति का मूल्यांकन उसके शब्दों के आधार पर ही करना चाहिये, यहाँ चूक जाती है। स्वयं उपन्यास के ये शब्द इस बात के साक्षी हैं कि भुक्तभोगी स्त्रियों के लिये बलात्कार से अधिक बर्बर और ज़्यादा मूल्यहीन कुछ और नहीं होता - तारा को कल्पना में जीप में रखी टोकरी में पंजे बांधकर रखे हुए मुर्गों की आँखे दिखाई देने लगी। जान पड़ा कि उस मकान में बंद वह और दूसरी पाँचों स्त्रियां उन मुर्गों की अवस्था में ही थीं। जब चाहे उनकी गर्दन मरोड़कर उन्हें समाप्त कर दिया जा सकता था और खाने वाले मज़ा ले-ले कर खा सकते थे... मर जाने का उपाय भी क्या था? सिर फोड़कर मरने का यत्न किया था तो बेहोश होकर ही रह गयी। (झूठा सच खण्ड 1, पृ. 421)''
बलात्कार से बचने या दुबारा उसे न झेलने के लिए स्त्री सर फोड़ कर मरने की कोशिश करे, और इस कोशिश में असफल रहने पर बेहोश होने को अपना दुर्भाग्य माने! क्या किसी स्त्री के लिये बलात्कार से ज़्यादा बर्बर और भयानक मूल्यहीनता की कल्पना की जा सकती है।
झूठा सच की विषयवस्तु को अगर स्त्री-विमर्श के नज़रिये से गहराई से परखें तो उसका मूल स्वर स्त्री-स्वातंत्र्य का ही है जिसे विभाजन की त्रासदी का परिदृश्य और अधिक जटिल संसतरों पर प्रतिस्थापित कर देता है।
कुलीनतावादी दृष्टि जनता की परिवर्तनकामी ताकत में आस्था नहीं रख सकती। झूठा सच के अंतिम शब्दों में डा. प्राणनाथ देश के भविष्य को जनता के हाथ में सुरक्षित पाता है। इस पर आपत्ति करते हुए नेमिचंद्र जैन ने लिखा है - ''काश, यह बात सच होती! उपन्यास का समर्पण और उसका यह अंत लेखक की रचना-दृष्टि में उद्देश्यपरकता को तो सूचित करता ही है, साथ ही उसके दृष्टिकोण में अत्याधिक सरलीकरण और इच्छित चिंतन की प्रवृत्ति को भी दृढ़ करता है।'' (वही, पृ. 74) जनता के संभावनाशील पक्षों में गहरी आस्था को आलोचना की कुलीन, संभ्रांत और अभिजात दृष्टि हमेशा से ही सरलीकरण और कला-दृष्टि की संकीर्णता के रूप में व्याख्यायित करती रही है। इसके मुकाबले यह दृष्टि व्यक्ति के आंतरिक मनोलोक में चलने वाले आंतरिक अन्तद्र्वन्द्व को ही तरजीह देती है। निश्चित रूप से यह आपत्ति कला समीक्षा की व्यक्तिनिष्ठ सरणियों की सीमाओं को स्पष्टता से उजागर करती है।
इस आपत्ति के संदर्भ में उपन्यास के अंतिम शब्दों पर नित्यानंद तिवारी की यह टिप्पणी प्रासंगिक हो उठती है -
''दूसरे खण्ड की अंतिम पंक्तियाँ हैं - गिल, अब तो विश्वास करोगे, जनता निर्जीव नहीं है। जनता सदा मूक भी नहीं रहती। देश का भविष्य नेताओं और मंत्रियों की मुट्ठी में नहीं है, देश की जनता के ही हाथ में है।''
''यह चाहे जितना मंगलभाषी वक्तव्य हो लेकिन इससे अधिक विश्वसनीय क्या कोई दूसरा स्रोत है?''
''मुझे फिर रघुवंश के अंतिम शब्द याद आ रहे हैं। विलास और अधिकार के गर्क राजा को फूँक ताप कर जिस रानी में गर्भ के लक्षण थे उसका राज्याभिषेक कर दिया गया। आज जनता, चाहे जितनी उदासीन हो चुकी हो लेकिन उन्हीं में से कुछ समूहों में भविष्य के गर्भ के लक्षण मिल सकते हैं - बाकी सारी शक्तियाँ और संस्थायें क्रूर ता$कतों का संरक्षण और संवर्धन करते हुए मानवीय अर्थ में बाँझ हो गयी हैं। कम से कम बांझ और सृजन की पहचान तो इन अंतिम पंक्तियों में है ही।'' (प्रसंग और आलोचना, पृ. 22)
नि:संदेह हर महाकाव्य उर्वरा शक्ति के किसी न किसी मानवीय रूप में मनुष्य की आस्था की संभावनाओं के नये क्षेत्रों की तलाश करता है। झूठा सच में उर्वरा शक्ति का यह मानवीय रूप भारत की जनता में साकार होता दिखता है।


Login