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फरवरी 2014

भरम खुल जाये जालिम तेरे कामत की दराज़ी का*

मृत्युंजय

पहल-92 के लेख (और उसके विस्तारित ब्लॉग संस्करण) में विवेक निराला ने 90 दशक की कविता को लेकर की गई मेरी टिप्पणी से असहमति दर्ज करते हुए हैरानी व्यक्त की है। हैरानी, और वह भी मश्हद (शहादत की जगह) पर, कम दिलचस्प नहीं है। अपनी बात कहते हुए  उनकी हैरानी को सुलझाता चलूं, शायद यही बेहतर होगा।
इस बहस की प्रस्थापना में ही एक मुश्किल है। 90 दशक की कविता से क्या तात्पर्य? विवेक जी के मुताबिक  90 दशक में लिखी जा रही हर कविता इस पदबंध के भीतर समाहित होगी। तो क्या 90 के इर्द-गिर्द कविता लिखने वालों में नागार्जुन, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, इब्बार रब्बी, आलोकधन्वा, असद जैदी, अरुण कमल, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल आदि सारे कवि शामिल माने जाएं? यह एक वाजिब प्रस्थापना हो सकती है पर मुश्किल यह है कि पिछले कवियों के काव्य-बोध पीछे से बनते आए हैं। उनके काव्य-बोध में इस खास दौर में आए बदलाव को तो हम इस प्रक्रिया से पहचान सकते हैं, लेकिन इस दौर की नई उभरती काव्य-चेतना को सिर्फ उनके सहारे हम नहीं चीन्ह पाएंगे। 90 के इर्द-गिर्द फैले कवियों और कविताओं में से आलोचक को चुनना होगा। विवेक जी की प्रस्थापना में मुश्किल यह है कि 90 के कवियों/कविताओं पर बात करते वे न सिर्फ पिछली पीढ़ी के कवियों/कविताओं को सामने ला खड़ा कर देते हैं बल्कि रविकांत और अनुज लुगुन जैसे बाद के कवियों तक को भी इस सीमा में खींच लाते हैं। उनके 90 में 'छवि'- प्रेम रंजन अनिमेष, (2004),'रुग्ण पिता'- वीरेन डंगवाल (2009), इन कविताओं का कवि एक सपने में मारा गया- रविकांत (2009), लाल भात- बोधिसत्व, (2010) जैसी कविताओं के साथ आलोकधन्वा, असद जैदी, मंगलेश डबराल, बद्रीनारायण, देवी प्रसाद मिश्र, हरीशचन्द्र पांडे, गगन गिल, संजय चतुर्वेदी, अनिल कुमार सिंह, केशव तिवारी, निर्मला पुतुल, राकेश रंजन, अनुज लुगुन - सब शामिल हैं। इसका मतलब यह हुआ कि विवेक जी 90 का तात्पर्य 90 के बाद लिखी गई किसी भी कविता से ग्रहण करते हैं।
मैं ऐसा नहीं मानता। मेरी टिप्पणी का आधार यह न था। जब हम 90 कहते हैं तो कुछ खास सामाजिक-राजनैतिक घटनाएं हमारे दिमाग में होती हैं। उन्हीं घटनाओं से बने मानस-बोध के इर्द-गिर्द कविता में नए कवियों के हस्तक्षेप को 90 दशक के कवि या कविता कहा जाये, मुझे लगता है। अपनी उसी टिप्पणी की शुरुआत में इस जिच को भांपते हुए मैंने लिखा था कि - 'इस आलेख में मैंने नब्बे दशक के इर्द-गिर्द लिखी गयी कविताओं के साथ उस की हकीकी जमीन पर ठहरने की कोशिश की है। कोशिश यही है कि कवियों पर नहीं, बल्कि कविताओं में उभरे देश-काल पर अपने को केन्द्रित करूं। कारण यह कि मुझे निजी तौर पर एक $खास दौर की कवितायें पढऩा और उसमें डूबना हमेशा हिन्दी कविता की पीढिय़ों की बहस से बेहतर लगता है।' इस प्रस्थापना में अब इतना और जोड़ देना चाहूंगा कि जिसे हम 90 कहते हैं, उस दौर के बदलाव का प्रतिनिधि स्वर मेरे द्वारा उद्धृत कवियों/कविताओं में मिलता है। वे सारे कवि आज भी लिख रहे हैं, और समय के साथ उनकी कविता में लगातार परिवर्तन होते गए हैं। इन परिवर्तनों पर बात करने की बेहतर शैली कवियों के विकास पर बात करना होगी। इतने सारे कवियों/कविताओं का लंबा पसारा बनाने से अव्वल तो मैं अपनी बात केन्द्रित तरीके  से नहीं कर पाता और दूसरे यह एक किस्म का 'जोड़-बटोरवाद' होता, जिसमें कविताओं के विश्लेषण की जगह वे चकती की तरह आलोचना में टंकी रहतीं। विवेक जी के लेख में ऐसा ही हुआ है। वे समूची नब्बे-उत्तर कविता को 90 की कविता में लपेट देते हैं। साहित्यिक बहसों में ऐसे जोड़-बटोर से बचना चाहिए, मेरा यह मानना है।
90 के राजनीतिक परिदृश्य की उदासी-हताशा को वे भी चिन्हित करते हैं। वे भी भूमंडलीकरण और अस्मिताओं के उभार के साथ सांप्रदायिकता की समस्या को उफनाता देखते हैं। अंतर यह है कि उनके मुताबिक 90 दशक के कवि अपने समय में प्रत्याख्यान रच रहे थे और मेरे मुताबिक उस समय की कविता का मूल बोध हताशा-निराशा का है। मैंने इन कविताओं में नक्श सांप्रदायिकता, लोक और परिवार जैसी परिघटनाओं की धुरी के इर्द-गिर्द इनसे गुफ्तगू करने की कोशिश की थी, विवेक जी ने भी शायद यही किया है। लेख के आखिर में वे यह मानते हैं कि यह हताशा-निराशा और अंतर्विरोध कवियों का नहीं, उस समय का है, जिसमें ये कवि अवस्थित हैं। तब फिर बहस का बिन्दु क्या है? जहां तक मैं समझ पाया, वे कहना चाहते हैं कि 90 की परिस्थितियों में हताशा-निराशा तो है, पर कवि इससे लडऩे और इसका प्रतिरोध विकसित करने में कामयाब हैं! मुश्किल यह है कि एक तो वे 90 के परिधि की बाहर की कविताओं को उद्धृत करते जाते हैं, और दूसरे उनके भी ठोस विश्लेषण से कन्नी काट जाते हैं।
आइये, धर्म के सवाल से बात शुरू करते हैं। घपले तो बहुत हैं पर सबसे पहले एक तथ्यात्मक भूल की ओर इशारा करता चलूँ। विवेक जी के मुताबिक '1970 के दशक में एलान किया गया था कि 'God is dead'। पूरे योरप और अमेरिका में यह बात खूब चली लेकिन क्या हुआ?' हालांकि 'ईश्वर की मृत्यु' का विचार हीगल के यहां पहले मौजूद था, पर जर्मन दार्शनिक नीत्शे को विचारक इसका श्रेय देते हैं। नीत्शे के 'द मैडमैन' का पागल ईश्वर की खोज में घूमता हुआ पूछता है 'ईश्वर कहां है?' और खुद ही जवाब देता है, ईश्वर मर गया। हमने और आपने उसे मारा। हम सब उसके हत्यारे हैं। 'द गे साइंस' नाम की अपनी किताब में नीत्शे ने पहली बार इस विचार को अभिव्यक्ति दी। किताब 1882 में साया  हुई। दूसरे यह कि  'ईश्वर का अंत' नाम का आन्दोलन अमेरिका में छठें दशक में चला। तीसरे यह कि मार्क्स के धर्म संबंधी दृष्टिकोण की व्याख्या के पहले इस ऐतिहासिकता को जरूर ही देख लिया जाना चाहिए। 70 के दशक में इस विचार को लाने के बाद लेखक अगला काम करते हैं मार्क्स की घेरेबंदी। उनके मुताबिक 'जिस मार्क्स को हम धर्म-विरोधी के रूप में चित्रित करते रहते हैं, उसी मार्क्स ने 'पेरिस कम्यून' का नेतृत्व किया था जिसमें संगठित मज़दूर के अलावा देहात का श्रमजीवी वर्ग था और उसमें छोटे स्तर के पादरी भी शामिल थे, जिन्होंने मज़दूरों की सत्ता कायम की। धर्म के स्तर पर क्या हम मार्क्सवाद का एक व्यावहारिक पहलू नहीं देखते हैं?' जाने किस इतिहास-ज्ञान से आलोचक महोदय जैकोबियनों और ब्लांकीवादियों की अगुवाई में चले पेरिस कम्यून को मार्क्स को थमा देते हैं! मार्क्स के इस विद्रोह से संबंध जानने के लिए बेहतर हो, 'फ्रांस में गृहयुद्ध' नामक उनकी किताब का पारायण कर लिया जाये। खैर, प्रसंगत: मार्क्स की धर्म विषयक टिप्पणियों पर हजारहां बातें हुई हैं। उनको समूचा उद्धृत करने की जरूरत नहीं। जरूरत यह समझने की है कि मार्क्स पादरियों का नहीं, बल्कि जनता का संगठन बना रहे थे। कोई भी मार्क्सवादी पार्टी धार्मिक पार्टी नहीं होती। धर्म उसके लिए ऐतिहासिक प्रक्रिया में विकसित हुई एक पहचान है। इसकी समय-समय पर भूमिका बदलती रही है। धर्म में 'वास्तविक जीवन को प्रतिबिम्बित करने', 'पीडि़त मानवता की आह और कराह' को व्यक्त करने का गुण है, द्वंद्वात्मक रूप से इसीलिए वह 'जनता के लिए अफीम' है। धर्म के इस्तेमाल का मतलब धार्मिक होना कतई नहीं होता जब नए दौर का कोई कम्युनिस्ट नेता पोप को साम्राज्यवाद-विरोधी कहता है, तब वह धर्म के पीछे चलने की बजाय धर्म को अपने पीछे चलाता है। वह अपने विचार बदलकर पादरी नहीं हो जाता, बल्कि पोप की पहचान को साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में इस्तेमाल करता है।
धर्म के बारे में कविता के  भीतर की अभिव्यक्तियों पर नज़र टिकाये बिना हम लेख के मूल उद्देश्य से भटक जाएंगे। जैसा कि कह आया, धर्म के बारे में साफ-साफ ऐतिहासिक, द्वंद्वात्मक समझ के बगैर वह दुधारी तलवार साबित होगा। इस सिलसिले में फैज और निराला की एक-एक कविताओं का उदाहरण देना मौजूं रहेगा। फैज की कविता का शीर्षक है 'हम देखेंगे' और निराला की वही बहुचर्चित कविता 'राम की शक्तिपूजा'। 'हम देखेंगे' कविता धर्म का इस्तेमाल करती हुई इस्लाम के भीतर की विद्रोही परंपरा को न सिर्फ चिन्हित  करती है बल्कि समीकरण उलट कर खुदा को खल्क के मातहत कर देती है। जनता के सपनों के संसार बिम्ब रचते हुए इन सपनों की ताकत को पाठक/श्रोता में गहरे नक्श करती हुई यह कविता 'अनलहक' के नारे के सहारे मंसूर और इस्लामी परंपरा में प्रतिरोध दर्ज करती है 'और राज करेगी खल्के-खुदा/जो तू भी है, और मैं भी हूं' तक पहुंचती है। वहीं निराला की कविता धर्म के बोझ से चरमरा कर आखिर तक ढह जाती है। वह शुरूआती युद्ध-वैभव जो राम के दुख को और गाढ़ा और गहरा बनाता था, हनुमान प्रसंग से बिखर-बिखर जाता है और आखिर में देवी का त्वरित उदय राम की मानवोचित गरिमा को धूसर बना देता है।
ऐतिहासिक रूप से देखें तो कभी समाजों में धर्म की प्रगतिशील भूमिका भी रही थी। लेकिन 90 के दौर की ठोस परिस्थितियों  में धर्म के ठोस रूप का विश्लेषण ही मार्क्सवादी तरीका होगा। धर्म को किसी अन-ऐतिहासिक, एकांगी तरीके से देखना उसकी समझ को अधूरा रखेगा। लेखक कात्यायनी को उद्धृत करते हुए भी अपने ही तर्कों की भूल-भुलैया में उलझ जाते हैं। तो 90 के दशक में धर्म का ठोस विश्लेषण उन्हीं से सुनिए- '90 के दशक में कविता को भारत की सामान्य आस्तिक जनता को सम्बोधित करना था, कम्युनिस्ट कैडर को नहीं।' यह अद्भुत तर्क है! मजे के लिए अगर कोई पूछ ही ले तो क्या जवाब होगा कि क्या कवि आस्तिकों से संबोधित हो तो आस्तिक हो जाये, पाखंडियों से संबोधित हो तो पाखंडी। साधुओं के बीच साधू हो जाये,  लफंगों के बीच लफंगा और क्रांतिकारियों के बीच क्रांतिकारी। यह काव्यात्मक अवसरवाद विचित्र है! यह धर्म का इस्तेमाल न करके उसके पीछे भागने का तरीका है। समस्या यह है कि कविता किसके लिए है? विवेक जी के मुताबिक 'अयोध्या' कविता 'आस्तिक जनता' के लिए लिखी गई। जनता के आगे लगा यह विशेषण ही आलोचक की कविता की समझ को साफ करता है। तब तो निराला और फैज की ऊपर लिखी कवितायें आस्तिकों के लिए ही होंगी! मेरी समझ से कवि अयोध्या की जनता के आस्तिकता के कवच को भेदकर उसकी रोज़मर्रा की जिंदगी तक पहुंचना चाहता था। मूलत: इस प्रक्रिया में वह सांप्रदायिक मिजाज और सामान्य रोज़मर्रा के जीवन को आमने-सामने खड़ा करना चाहता था। ऐसा वह कर पाया या नहीं, यह अलग बात है। कठहुज्जत शैली में कोई पलट कर पूछे कि इस 'आस्तिक जनता' में अल्पसंख्यक भी आते हैं क्या? आस्तिकों में जो लोग बाबरी ध्वंस के खिलाफ थे, वे क्या कविता के संभावित लक्ष्य थे? अगर हां, तो 'आस्तिक' जनता क्या है, और अगर नहीं, तो क्या यह कविता 'कारसेवकों' के लिए थी? मुझे ऐसा नहीं लगता। उपरोक्त तर्क प्रणाली का सबसे बड़ा खामियाजा यह है कि सीधी बातें गोल हो जाती हैं। अपने लेख में 'अयोध्या' कविता पर बात करते हुए मैंने कहा था कि यह कविता यथार्थ को पीछे से पकडऩे की कोशिश करती है। चालू राजनीति की शिकारगाह अयोध्या की हकीकतों को छोड़कर कविता दूसरी अयोध्या रचती है। सवाल तब यह कि इस दूसरी अयोध्या में, रोज़मर्रा की जिंदगी को पहली अयोध्या से अलगाया जा सकता है? कविता का पेंच यही है। बोधिसत्व के संग्रह 'हम जो नदियों का संगम हैं' की जिस पहली कविता 'जाता हूं' (1995) में साम्प्रदायिकता की समझ 'पागलदास' (1997) में बढ़ी बताई गई है, यह कविता क्या सचमुच 'पागलदास' की चेतना से अलग है? मुझे तो उस कविता में हताश की बीहड़ता के चित्र और उसके विरुद्ध एक काव्यात्मक निरीह जिद ही दिखी।
अब एक और पहलू पर गौर करते चलें। सांप्रदायिकता एक आधुनिक परिघटना है। मध्यकाल में संप्रदायों के झगड़ों को हम साम्प्रदायिकता नहीं कहते। आधुनिक भारत में 'साम्प्रदायिकता' पद मध्यवर्ग के उदय के साथ उभरे धर्म-समुदायों के वर्गीय हितों और औपनिवेशिक हस्तक्षेप की ओर इशारा करता है। कहना न होगा कि इसके खिलाफ लड़ाई की अलग अलग रणनीतियां भी अख्तियार की जाती रही हैं। गांधी और भगतसिंह की साम्प्रदायिकता संबंधी समझ को आमने-सामने देखा जा सकता है। बाद में नेहरू की अगुवाई में आजाद मुल्क में साम्प्रदायिकता को लेकर एक समझ बनी, जिसे 'सर्वधर्मसमभाव' कहा जाता है। इस सूत्रीकरण में एक बड़ी समस्या है। बहुसंख्यक की सांप्रदायिकता से निपटने के लिए यह काम नहीं आता। जिस दशक की चर्चा हो रही है, उसमें स्वीकार्य वाम नारा था - 'राजनीति का धर्म से मेल, बंद करो यह खूनी खेल!' कहने का आशय यह कि 90 तक आते आते राष्ट्र-राज्य को धर्म से अलगाने की जरूरत अनिवार्य हो गई। राज्य का कर्तव्य धर्म को व्यक्तिगत दायरे की चीज मानते हुए उससे दूर रहना है। विवेक जी की मुश्किल यह है कि वे इस स्वीकृत वाम बोध से अलग उदारवादी व्याख्या में जुट जाते हैं। यह तर्क प्रणाली उन्हें यहां पहुंचाती है - 'एक तीसरा पक्ष हो सकता है और बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय भी था जो न तो बदले के रूप में घोषित किये जा रहे विध्वंस और राम मन्दिर के निर्माण के उद्यम से प्रसन्न था और न ही पुन: उसी स्थल पर एक मस्जिद बनाने की जिद से।' यह उदारवादी व्याख्या, मस्जिद के ढहने की पीड़ा और एक पूरे समुदाय के भीतर भरे गए डर को नहीं चीन्हती। शांति और अमन बनाए रखने के 'एम्बीबैलेंस' के लिए दिया गया यह तर्क अल्पसंख्यक समुदाय को बताना चाहता है कि चुप रहिए, दोयम दर्जे के नागरिक रहिए और शांति बनाइये। यह व्याख्या धार्मिक आस्मिता के परे जाकर राष्ट्र जैसी किसी बड़ी पहचान को स्थापित नहीं करती। 'बाइनरी अपोजीशन' के किसी एक पक्ष को कुचलकर 'एम्बीबैलेंस' कायम नहीं किया जाता। बेहतर हो कि इस नवेली लुभावन शब्दावली की बजाय आजमाई हुई मार्क्सवादी पद्धति द्वंद्वात्मकता का सहारा लें, और वाद-विवाद-संवाद के सहारे इस को समझने की कोशिश करें।
आइये दूसरे बिन्दु की ओर चलें! यह बिन्दु है 90 के गिर्दों-पेश लिखी कविताओं में परिवार की अभिव्यक्ति। परिवार की अभिव्यक्ति के बारे में बात करने के पहले परिवार नाम की संस्था पर समझ साफ करने की जरूरत है। विवेक निराला लिखते हैं - 'बाज़ार इस परिवार नामक संस्था का विरोधी है क्योंकि परिवार में सम्बन्ध आते हैं। वह कहता है कि मुझमें और आप में भी सम्बन्ध नहीं हैं,सम्बन्ध तो आप और वस्तु में है। जिस दिन मैं अपने सारे निजी सम्बन्ध डालर में परिभाषित कर दूंगा उसी दिन से मैं नव-उदारवादी व्यवस्था में होउंगा।' भारत जैसे देश में 90 के दौर में अवस्थित होकर किया गया परिवार का यह विश्लेषण पूंजी के गतिविज्ञान की अधूरी और एकांतिक समझ का आईना है। पूंजी को सारे सामंती मध्यकालीन बंधनों को तोड़कर नए वर्गीय सम्बन्धों में अपने को अभिव्यक्त करना था। पर मुनाफे के लिए पूंजी सामंती सम्बन्धों का इस्तेमाल करती है। पूंजी ने सामंती साधनों और सम्बन्धों को न सिर्फ बनाए रखा बल्कि उनसे भयावह गठजोड़ स्थापित किया। भारत में जिस 90 के गिर्दो-पेश की हम बात कर रहे हैं, वहां तक आते-आते संयुक्त परिवारों के टूटने की दर बेहद बढ़ गई, पूंजी ने पुराने पारिवारिक ढांचों को तोडऩे का एक चरण पूरा किया। एकल परिवार बने और परिवार संस्था के भीतरी अंतर्विरोध कम होने की बजाय बढ़ गए। तब परिवार के भीतर के संबंध अपेक्षाकृत ज्यादा पूंजी केन्द्रित हो गए। गांवों से शहरों की ओर पलायन का वेग बढ़ा। पति-पत्नी, माँ-बेटे, बाप-बेटे, सास-बहू और बच्चों के संबंंध बाजार के लिहाज से पुर्नपरिभाषित कर लिए गए। विज्ञापन इस मामले में सबसे ज्यादा आगे बढ़े हुए माध्यम साबित हुए। इस लिहाज से पूंजी और परिवार अंतर्विरोधी नहीं रहे, एकल परिवारों के बीच पूंजी दूसरे तरीके से काम करने लगी। पूंजी द्वारा बनाया जा रहा उपभोक्ता और उसके घर के भीतर की पिछड़ी संरचना में अंतर्विरोध नहीं था। 90 के दशक से ही इस नापाक मेल की शुरूआत हुई, जो बाद में आगे बढ़ा। कहिये तो संबंध पूंजी के रास्ते में खड़े नहीं हुए, जैसा कि समझा गया, वरन संबंध अब पूंजी के धरातल से परिभाषित होने लगे। आज भूमंडलीकरण के  इस आगे बढ़े हुए  इलाके में यह प्रक्रियाएं काफी आगे बढ़ गई हैं, जमुना में काफी पानी बह चुका है। आज के कवियों/कविताओं में इसकी समझ है पर जिस दौर की कविता हमारे जेरे-नज़र है, वहां परिवार संस्था के अंतर्विरोध कम हैं।
परिवार संस्था के अंतर्विरोध से मेरा आशय परिवारों के भीतर के तनाव और नए दौर में बढ़ रही खराबी से था। विवेक निराला का यह इंगित ठीक है कि किसान मन-मिजाज के पारिवारिक ढांचे बदल रहे थे। ऐसे में हमारे गांवों से पलायन किए, शहरों में रहने वाले, दुनिया के बदलावों के उदास-हताश मध्यवर्गीय कवि गांव और परिवार की कोई समग्र छवि नहीं अंकित कर रहे थे। जैसा कि मैंने कहा था, स्त्री की व्यथा कविताओं में दर्ज होनी शुरू हुई, पर परिवार संस्था के अंतर्विरोधों के उद्घाटित करने की बजाय कवि उस दौर में परिवार की आत्मछवि में विरमते हैं। ये परिजन दुनिया को बदलने की लड़ाई में छूट नहीं गए थे, जैसा विवेक जी का मानना है, क्योंकि 90 के पहले की कविता में भी पर्याप्त पिता-माता-भाई-बहन हैं। इस परिवार के पास कवि  इसलिए नहीं जाते कि वहां से लड़ाई की नई समझ, नया आवेग मिलेगा बल्कि विकल्पहीनता की हालत में एक पुराने ढांचे की ओर देखना है। माँ की दुख कथा सुनने वाला यह मन माँ की दुख कथा से अलग नहीं बंधा हुआ है।
तीसरा बिन्दु है लोक। 90 की कविताओं में लोक के मसले पर बोधिसत्व, बद्रीनारायण, अष्टभुजा शुक्ल, दिनेश कुमार शुक्ल, निर्मला पुतुल, एकान्त श्रीवास्तव, केशव तिवारी, अनुज लगुन तथा राकेश रंजन का नाम एक साथ लेकर जिस नब्बे की तस्वीर विवेक जी बना रहे हैं, वह 90 के बाद का समूचा काव्य परिदृश्य है। इस पूरे अंश में जाने किस अप्रितम मेधा से आलोचक महोदय ने मेरे लेख में लोक-विरोध खोज निकाला है, और अनामिका जी को उद्धृतकर शर-क्षेप-रण-कौशल का  अद्भुत नमूना पेश किया है। मैं तो यह कह रहा हूं कि 'अस्सी के दौर की तुलना में इस दौर में हिन्दी कविता में लोक की जगह काफी है। बद्रीनारायण की कविता इस दु:ख की पड़ताल करते हुए लोक की जमीन पकड़ती है। वहां से शायद ऊर्जा मिले या इन नई स्थितियों की 'क्रूरता' के सामने खड़े होने का थोड़ा साहस। कोई ऐसी जगह जहां से मौत से  'आइस-पाइस' खेली जा सके। लेकिन कवि का यह रोमानी बोध उसके  'निपट अकेलेपन' के पासंग में भी नहीं ठहरता। बद्रीनारायण और बोधिसत्व के पहले संग्रहों में यह बात एक सी है कि दोनों कवि लोक के पास जाते हैं, लोक-भाषा से अपनी कविता का खाका बुनते हैं। यथार्थ की जटिलता की अभिव्यक्ति के लिए वे बरास्ते लोक वहां तक पहुंचना चाहते हैं। इन संग्रहों में भूमंडलीकरण और अन्य भयावह परिघटनाओं के खिलाफ लोक एक शरण्य की तरह उभरता है पर आवयविक संबंध उससे कम ही बन पाता है।' पर इससे क्या? आलोचक महोदय को तो ज्ञान बांटना है, वह मौजूं हो या न हो। इस बहस के संदर्भ में अनामिका जी को उद्धृत करके वे क्या पुष्ट करना चाहते हैं -  'दो तरह के लोग लोकभाषाओं या आर्ष साहित्य और मिथकों से आए शब्दों-प्रतीकों या बिम्बों की भत्र्सना करते हैं- एक तो प्रस्तरकीलित किस्म के कट्टर प्रगतिवादी, दूसरे नागर इलीट!' ठीक बात, पर वे कौन लोग हैं जो लोक-भाषा की भत्र्सना कर रहे हैं? मैंने तो 90 के कवियों में लोक भाषा के इस्तेमाल पर किसी की भत्र्सना न पढ़ी, न सुनी। तब बहस में इस उद्धरण का क्या मतलब?
लोक-विरोध की बजाय उन्हें इस दौर की कविताओं में लोक की समूची बदलती हुई जमीन की अभिव्यक्ति पर बात करनी चाहिए थी। ऐसा क्यों है कि इन कविताओं के लोक में गांवों के भीतर के आपसी अंतर्विरोध कम दिखते हैं बनिस्बत दलित कविता के? एक नास्टेल्जिक गांव की झलक क्या इस दौर की कविताओं में नहीं दर्ज है? अगर ये कवि किसानों के बेटे थे, तो शहरों में आने के बाद गांव से  उनका संबंध क्या आवयविक रह पाया। विवेक जी खुद मानते हैं कि ऐसा नहीं हुआ। उनके दो वक्तव्य उनके तर्क की गांठ को स्पष्ट करते हैं । वे एक सांस में कहते हैं कि  'सि$र्फ स्मृतियों के सहारे गांवों के बदलते हुए यथार्थ को प्रमाणिक तौर पर कैसे प्रस्तुत किया जा सकता है?' और दूसरी ही सांस में कहते हैं कि '90 के दशक के कवि लोक से उर्जस्वित होकर भूमण्डलीकरण के प्रतिरोध की चेतना से सम्पन्न होते हैं।' अब कोई समझाये कि अगर ये कवि लोक को प्रामाणिक तरीके से पकड़ नहीं पाते तो उनसे ऊर्जस्वित हो प्रतिरोध-चेता कैसे हो जाते हैं?  'उजाड़ में मनसायन' किस कीमियागरी से  'उजाड़ में प्रतिरोध' में बदल गया, यह तो विवेक जी ही बता सकते हैं, पर यह 'उजाड़' और  'मनसायन' शब्द जरूर दिलचस्प हैं।
बेहतर होता कि वे बद्रीनारायण की तरह मानते कि 'चूंकि अनेक लोकभाषीय पृष्ठभूमि एवं अनेक जीवन भावों से ये कवि आये थे अत: उनमें भाषा, सांस्कृतिक भाव , लोकसंवाद, मुहावरे एवं डिक्शन की अनेकरूपता थी जो उसे एक सशक्त साहित्यिक हस्तक्षेप बना रही थी। औपनिवेशिक आधुनिकता बोध को समझते हुए भी ये कवि सूखी काव्यभाषा के दबाव को तोड़ कर लोकरागों से अपने को जोड़ रहे थे।' इस प्रस्थापना से यह सवाल कोई कर ही सकता है कि लोक से आए इन कवियों का मानस क्या लोक-मानस था? अगर नहीं, तो इनकी अवस्थिति शहरी मध्यवर्ग था। तब क्या ये कवि प्रतिनिधि की भाषा बोल रहे थे? पलट कर फिर वही सवाल मैं दोहराना चाहूंगा कि क्या इन कवियों का लोक से आवयविक संबंध था? मेरी समझ से इसका जवाब नहीं में है। उनकी स्मृतियों का लोक था यह। हां, उनकी भाषा में, उनके बिम्बों में टुकड़ा-टुकड़ा पसरा यह लोक उनके कहने को और गाढ़ा जरूर करता है।
90 के बाद काफी वक्त बीत चुका है। 90 के आशय अब अपनी सम्पूर्ण भयावहता में हमारे सामने हैं। तब से लेकर आज तक के 20-22 सालों में ऊर्जावान कवियों का एक भरा-पूरा समुदाय अब हमारे साथ है। 90 के बाद लिखने वाले इस दौर के कवि भी अपनी काव्य यात्रा में आगे बढ़े हैं। स्त्री और दलित जैसे समुदायों से कविता को नई धार हासिल हुई है। कारपोरेट फासीवाद के आसन्न खतरे के इस वक्त में कविता की जिम्मेवारी बढ़ी  है। ग्लोबल के खिलाफ लोकल के खड़े होने की परिघटना कविता में इस बदले हुए समय में आई है। ऐसे में हमारे आसन्न अतीत 90 के आस-पास की कविताओं में दर्ज प्रक्रियाओं को गहराई से देखने की जरूरत है क्योंकि बिना उस गहरी उदासी के आगे का रास्ता नहीं मिल सकता था। भाषण फटकारने की बजाय हमें गहराई और धैर्य से इस प्रक्रियाओं की पड़ताल करनी होगी।
आखिर में एक बात और। ऐसे में जब भारतीय राजनीति की धुरी केंद्र से दक्षिण की ओर खिसक रही हो, जब समूचे साहित्य जगत में लोटा-डोरी छोड़-फेंक कर प्रतिक्रिया का ताकतों की तरफ ललचाई नजरों से देखने वाले नजर आने लगे हों, तब सावधानी की जरूरत है। साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में उदारता बेहद जरूरी और मानीखेज चीज है, पर मजबूती से वैचारिक जमीन पर पैर टिकाये बिना यह उदारता हासिल नहीं की जा सकती। उदारता के नाम पर भाजपा में भी कट्टर और उदार की खोज के बहाने दक्षिण की तरफ सरकते लोगों का उदाहरण सामने रखें। विचारधारा की जमीन पर उदारतावाद आत्मघाती साबित होता है। इस अंधड़ में जब  बड़े-बड़े  'शैतानों के झबरे बच्चे' बनने के लिए आकुल हैं, तब विचार के इलाके में उदारतावाद, कई बार अवसरवाद की पूर्वपीठिका बन जाता है। और ऐसी विचार प्रक्रिया का अंत वर्ग को मार्क्स का अंधबिन्दु मानने जैसी दुर्घटनाओं में होता है।
* भरम खुल जाये जालिम तेरे कामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रए-पुर पेचो-ख़म का पेचो-ख़म निकले
- गालिब


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