मारिन सोरस्क्यू अपने मुल्क रोमानिया में इतने लोकप्रिय थे कि अपार श्रोताओं की भीड़ के कारण उनके काव्यपाठ स्टेडियम में आयोजित किये जाते थे। मृत्यु के कुछ पहले ही उन्हें साहित्य के लिये दिये जाने वाले नोबेल पुरस्कार के लिये नामित किया गया था। सोरस्क्यू की कविताओं में कौतुक और परिहास के अंश हैं पर अपनी कविताओं में वे मनुष्य और उसकी अस्मिता, उसकी स्वतंत्रता और उसके जीवन प्रश्नों से जूझते दिखाई देते हैं।
बहुत कुछ लिखा जा रहा है। हम लिखित शब्दों के युग में जी रहे हैं। आज से पन्द्रह हजार साल पहले जिस तरह आदिम मनुष्य बिना धारदार पत्थरों के या कोई बारह हजार साल पहले वह चमकदार पत्थरों के बिना नहीं रह सकता था, ठीक उसी तरह आज हम कागज के उस पुर्जे के बिना नहीं रह सकते जो कि विस्मयादिबोधक चिन्हों, अल्पविरामों और शब्दों से भरा हुआ है। हर दिन हम जल्दबाजी के साथ लिखते हैं। पुस्तकें अधूरे प्रस्तावों की तरह दिखाई देती हैं। इनमें से कुछ पुस्तकें विशेषण पर जाकर, तो कुछ सर्वनाम तक पहुंचकर रूक जाती हैं। बहुत थोड़ी ही क्रिया की जड़ को खोजने में सफल हो पाती हैं। साहित्य के खजाने में हम पुस्तकों की संख्या बढ़ाते ही जा रहे हैं। आप किसी बुकस्टोर में प्रवेश करते हैं: दुकान बुरी तरह से नए शीर्षकों से भरी पड़ी है। आप किसी अभिलेखागार में प्रवेश करते हैं : यहां भी पुराने शीर्षकों की भरमार है। धूल के पास वक्त नहीं कि वह पाण्डुलिपियों, अंतिम संस्करणों, दुर्लभ या साधारण पुस्तकों पर जाकर बैठे। यह सब देखकर निराशा होती है। इसके बाद आप अपने घर लौटते हैं, अपनी डेस्क के सामने बैठते हैं और लिखना शुरू कर देते हैं... किसके लिए? बहुत हो चुका, लोगों को अब और नहीं चाहिए। क्या आप जानते हैं, बहुत ज्यादा के क्या मायने होते हैं? दुर्भाग्यवश साहित्य में इस तरह की कोई चीज नहीं होती। एक व्यक्ति लिखना जारी रखता है, जब तक कि वह पागल नहीं हो जाता। उदाहरण के लिए बाथटब के बारे में। परन्तु हे ईश्वर, किसके लिए? प्रत्येक लेखक को स्वयं से यह प्रश्न जरूर पूछना चाहिए और इसका उत्तर भी असाधारण है : मैं स्वयं के लिए लिखता हूं। अपने विचारों का पाठक सिर्फ मैं हूं। यहां यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि हमें समझ ही कौन सकता है, जबकि हम स्वयं को ही थोड़ा बहुत समझ पाते हैं। सिर्फ इसीलिए मुझे कविता में वह पहली जमीन दिखाई देती है जहां कोई व्यक्ति सच कह सकता है : सिर्फ कविता ही पूरी सटीकता के साथ हमको अभिव्यक्त कर सकती है, एक इसी के माध्यम से हम स्वयं तक वापिस लौट सकते हैं, अपना पुनर्निर्माण कर सकते हैं ठीक उस घोंघे की तरह जो पत्तियों पर छोड़े अपने स्त्राव के सहारे अपने रास्ते का निर्माण करता है। वास्तव में यह एक कठिन काम है - हालांकि कुछ लोगों के लिए यह आसान भी होता है - यदि आप स्वयं से बात करना चाहें, यह जानते हुए कि संवाद के लिए आप स्वयं सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं। खुशी, सत्य, अस्तित्व, मृत्यु आदि के बारे में बातचीत करने का आशय मनुष्य की मूलभूत समस्याओं से ही साक्षात्कार करना होता है। इनके अतिरिक्त किसी और पर (अन्य बाह्य विषय) बात करना ठीक वैसा ही होता जब आप दुर्घटनावश मर्करी बाथ में गिर जायें और उत्तरी ध्रुव पर बर्फ में जमे हुए लोगों की पीड़ा के बारे में बात करें। मानवतावाद, सबके प्रति प्रेम, यह सब वाग्मिता है। अपने भीतर के पाशविक भाव दिखाने के लिए, अपने हृदय के गहनतम अन्धकार को दिखाने के लिए, अपने भय, अपनी वेदना और अंतरंग आकांक्षाओं को दिखाने के लिए हिम्मत चाहिए। कविता यहीं प्रकट होती है और शायद यह ज्यादा मानवतावादी है। मुझे लगता है लोग कलाकारों के शब्दों का अधिमूल्यांकन करते है (इसलिए सौन्दर्य विषयक नियंत्रण आवश्यक है)। यह गलत है। कला शक्तिहीन है। मध्ययुग के अंत में रेनेसाँ भी इटली की गरीबी को नहीं बदल सका। कोशिश करने से पहले ही हार मान लेना स्वयं को छलना है। कवि और दार्शनिक लूसिन ब्लागा ने कहा था ''जो लोग किसी सिद्धांत पर विश्वास करते हैं, वे विचारों पर निर्णय लेने की अपनी कसौटी से हाथ धो बैठते हैं।'' वास्तव में ऐसे लोग अंतत: ईमानदार (GENUINE) सर्जक साबित नहीं होते। चिन्ता की बात यह है कि ऐसे लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती ही जा रही है और कला संबंधी धारणा पाखंड या ढोंग में विलीन होती दिखाई दे रही है। आज कवि की हालत दब्बू की तरह हो गई है। यहां तक कि स्वयं को कवि कहते हुए भी उसे शर्म महसूस होती है। हर कोई उसे विचित्र नजरों से देखता है। इस एक सतत धोखे ने कविता को उसके पाठकों से दूर कर दिया है। वित्तीय सुधार के बाद जैसे पुराने सिक्के चलन से बाहर हो जाते है, ठीक उसी तरह कविता किसी प्रयोजन की नहीं रही। मैं रोज सामान्य बोलचाल के बहुत से वाक्यों को सुनता हूं। (आप कैसे है, सुप्रभात, बारिश होने वाली है) मुझे नहीं लगता कि इन विचारों (तुकान्त या अतुकान्त) को समझने के लिए मुझे किसी किताब को खोलना चाहिए। कविता का उद्देश्य ''ज्ञान'' (knowing) प्राप्त करना है। इसमें दर्शन शामिल है। कवि या तो विचारक है या फिर कुछ भी नहीं। अलग-अलग लोगों द्वारा लिखी गई कविता (मेरा मतलब लोककथाओं से है) का विश्लेषण करें, तो आप पायेंगे कि ये अंतत: विचार और चिन्तन हैं। वास्तविक कवि दार्शनिक होता है और इससे बढ़कर उसके पास अंत: प्रज्ञा (intuition) होती है। उसके विचार, भय, दु:ख सब शोध उपकरण में बदल जाते हैं। एक प्रतिभावान व्यक्ति अपनी कविता के संसार में एक नए तारे की खोज कर सकता है। बाद में जिसके अस्तित्व को वैज्ञानिक भी अपनी गणना से सिद्ध करते हैं। कविता के पास देने के लिए बस इतना ही है। अंतत: इसका अंतिम स्वाद तो एक कड़ावाहट ही है। यह निराशावाद नहीं, साफगोई है। आप जिन्दगी के मायने जानते हैं। मेरे कहने का आशय यह नहीं कि कविता को आम जीवन से या सामाजिक पक्ष से विलग कर देना चाहिए। कविता एक पौधा है, ठीक हमारी तरह उसे भी पानी चाहिए। जो लोग चाहते हैं कि कविता पूरी तरह जीवन के साथ बंधी रहे वे या तो अनाड़ी है या फिर अज्ञानी। ऐसे लोग कला के प्रबल सामाजिक चरित्र को नकारते हैं। इसी विचार को हम दूसरी तरह से भी रख सकते हैं। यह ठीक वैसा ही होगा जैसे आप किसी बुलबुल से आग्रह करें कि वह अपना पूरा समय किसी पेड़ पर ही गुजारे और सिर्फ इस पेड़ के बारे में ही गीत गाये। क्या यह पेड़ की ''थीम'' बार-बार उसके गीतों में अभिव्यक्त होगी? यह संभव है, परन्तु यदि कोई इस बात को सिद्ध करने में सक्षम होता है तो उसे यह करने दो। अब यह मत कहना कि यह अंतर्बोध (lucidity) का मामला है। या यह जरूरी है, परन्तु प्रतिभा भी अंतर्बोध होती है; किसी के पास होती है, किसी के पास नहीं होती। इसलिए मैं कविता की स्वतंत्रता और उसके विशिष्ट चरित्र के संरक्षण के लिए सहजता या पारदर्शिता (lucidity) का पक्षधर हूँ। हम इसे समझ के स्तर पर औसत या औसत से नीचे न ले जायें। जैसे सापेक्षता के सिद्धांत को समझने के लिए व्यक्ति को प्रशिक्षण प्राप्त करना होता है ठीक वैसे ही सौन्दर्यानुभूति के लिए कोशिश और अध्ययन की आवश्यकता होती है। चूंकि मैंने आइंसटीन के सिद्धांत का जिक्र किया है, मैं एक और बात कहने की जुर्रत करूंगा, कविता सूक्तिवत होती है, लगभग बीजगणितीय। दुनियां के बहुत सारे देशों के साहित्यिक आंदोलनों पर मेरी निगाह है और मुझे आधुनिक कविता में यह प्रवृत्ति दिखाई देती है। मेटाफर की तरफ झुकाव, तुलना नहीं, किसी एक पंक्ति में मेटाफर नहीं परन्तु संपूर्ण कविता का मेटाफर। लम्बी आलोचना का आनंद लेने के लिए कविता को संक्षिप्त होना चाहिए। मेरा मानना है कि अत्यधिक ज्ञान का न होना ही रचनाओं को यह सघनता प्रदान करता है। कुल मिलाकर मैं उस कविता के पक्ष में हूँ जो मनुष्य द्वारा झेली जाने वाली विराट समस्याओं पर विचार करे, किसी भी प्रकार का हल सुझाये बिना। कविता न तो युद्ध शुरू कर सकती है और न शांति स्थापना। कविता इन दोनों स्थितियों को सिर्फ देखती है, अपनी वस्तुनिष्ठता, विलगता और परिप्रेक्ष्य को खोए बिना। परिणामत: कविता मेरे लिए एक ऐसा साधन है जो मनुष्य को मनुष्य की तरह देखता है। यह सिर्फ निष्पक्ष चिन्तन, ईमानदार और उदात्त विचारशीलता के माध्यम से एकाकीपन में ही संभव है। कला से अधिक वैयक्तिक और कुछ भी नहीं होता। हम सब अलग-अलग रहते हुए अपने-अपने विशिष्ट अनुभव को जीते हैं। मैं अपना जीवन जी रहा हूँ, तुम्हारा नहीं। यदि हम एक ही शरीर से जुड़े हुये जुड़वा बच्चे (Saimese Twins) होते तब भी हमें यह कहने का अधिकार होता कि हम इस दुनियां को अलग-अलग दृष्टि से देखते हैं। मुझ पर कृपा करो और मुझे असाधारण ही रहने दो। कोरस तो बहुत पीछे प्राचीनता में ही छूट गया। लोगों के बीच उपस्थित समानताएं नहीं अपितु असमानताओं के परीक्षण के द्वारा ही आप मनुष्य की आत्मा की विविधता और वैभव का अध्ययन कर सकते हैं। इस मुद्दे पर अलग-अलग देशों और महाद्वीपों के कवियों से मुलाकात करना बेहद दिलचस्प होगा। जिस तरह पूरी दुनियां के चिकित्सक कैंसर जैसे रोग का समाधान खोज रहे हैं, ठीक उसी तरह तमाम कवि उसी शानदार, अतिसूक्ष्म जीवाणु के ऊपर झुके हुए हैं, उस सामान्य रहस्य के ऊपर जिसे जीवन कहते हैं। मैं कवियों और कविता पर सिर्फ संक्षेप में ही कुछ कहना चाहता था परन्तु यहां तो कुछ ज्यादा ही लिखा गया। यह भी तो इस बात का प्रमाण है कि हम लिखित शब्दों के युग में जी रहे हैं, जो कि प्रस्तर या ताम्रयुग से ज्यादा समय तक चलेगा।
शोक गीत
आंखों की रोशनी धुंधली पड़ चुकी है खत्म हो चुकी है होंठो की मुस्कराहट पर दिन अभी खत्म नहीं हुआ है सड़कों पर हंसी ठिठोली करते लोगों की आवाजाही जारी है यह सब कुछ कितनी अच्छी तरह से तयशुदा है कि मैं गायब हो जाऊंगा इस भीड़ से और कोई ध्यान नहीं देगा
कुछ भी नहीं होता इस दुनियां में सिवा इसके कि वस्तुओं की अवस्था, नहाई हुई है निर्दयता में
सिर्फ एक जीवन
दोनों हाथों से थामो रोज की यह ट्रे और आगे बढ़ा दो इस काउन्टर से
यहां पर्याप्त सूर्य है हर आदमी के लायक यहां पर्याप्त आसमान है और चन्द्रमा भी पर्याप्त है
इस धरती से फूटती है एक सुगंध सौभाग्य की, खुशियों की, सौन्दर्य की जो तुम्हारी नासिका को मदमस्त करती है
इसलिए कंजूसों की तरह सिर्फ अपने लिए मत जियो कुछ भी हासिल नहीं होगा उदाहरण के लिए, सिर्फ एक जीवन से तुम पा सकते हो सबसे खूबसूरत स्त्री साथ ही एक बिस्कुट
पासपोर्ट
सरहद पार करना सूर्यमुखी और डेजी के बीच हस्तलिखित घटनाओं और छपी हुई घटनाओं के अक्षरों के बीच
उन तमाम परमाणुओं से यारी करना जो रोशनी का हिस्सा हैं गाते हुए परमाणुओं के साथ गाना मरते हुए परमाणुओं के साथ रोना।
प्रवेश करना किसी की जिन्दगी के तमाम दिनों में बिना बाधा इस बात से फर्क पड़े बिना कि वे इस तरफ हैं या उस तरफ शब्द धरती के
यह पासपोर्ट मेरी हड्डियों पर लिखा हुआ है लिखा हुआ है मेरे कपाल, जांघ की हड्डी और रीढ़ पर सब कुछ व्यवस्थित मेरे मनुष्य होने के अधिकार की घोषणा करते हुए अनुवाद
मैं एक इम्तहान में बैठा था एक मृत भाषा के साथ और मुझे अनुवाद करना था स्वयं का मनुष्य से बन्दर में।
मैंने धैर्य रखा एक पाठ का अनुवाद करते हुए जो जंगल से था।
परन्तु अनुवाद कठिन होता गया जैसे-जैसे मैं खुद के करीब पहुंचा थोड़ी कोशिश के साथ मुझे नाखूनों और पैरों के बालों के लिए पर्याय मिल गए
घुटनों के आसपास मैंने हकलाना शुरू कर दिया हृदय की तरफ जाते हुए मेरे हाथ कांपने लगे और कागज पर रोशनी के दाग लगा दिए
फिर भी मैंने मरम्मत की कोशिश की बालों और छाती के साथ परन्तु बुरी तरह असफल हुआ आत्मा के मामले में।
मणिमोहन अध्यापक हैं। 1967 का जन्म है और मध्यप्रदेश के एक कस्बे गंज बासौदा में रहते हैं। सोरस्क्यू का अनुवाद करते हुये उनकी कोशिश थी कि कविता मात्र रूपांतरित न हो बल्कि उसका मुकम्मल सम्प्रेषण हो। |