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फरवरी 2014

स्त्रीवाची निराला

मंगलेश डबराल

कुछ समय पहले उत्तराखंड में राष्ट्रीय शैक्षणिक और अनुसंधान परिषद् (एनसीएआरटी) द्वारा आयोजित अध्यापकों के एक प्रशिक्षण शिविर में इन पंक्तियों के लेखक ने महाकवि निराला का प्रसिद्ध गीत 'वर दे वीणावादिनी वर दे' एक शिक्षिका के स्वर में सुना था, जो इस रचना की प्रचलित धुन से अलग और बहुत सुरीला था। उसे सुनते हुए लगा, यह सरस्वती की सबसे अधिक प्रचलित वंदना 'या कुंदेंदु तुषारहारधवला/ या शुभ्रवस्त्रावृता' से, उसकी परंपरा से कितना भिन्न है। इसमें कोई प्रार्थना नहीं है, सरस्वती का दिव्य वर्णन नहीं है, बल्कि लगभग वैदिक ऋचाओं के शिल्प में एक निरंतर नवता का आवाहन है - एक नयी गतिशीलता, एक नये राग और एक नये रव और एक नये प्रकाश की पुकार : 'नव गति नव लय ताल छंद नव/नवल कंठ नव जलद मंद्र रव/नव नभ के नव विहग वृंद को/नव पर नव स्वर दे।' निराला पृथ्वी पर नयी गति से लेकर एक नये आकाश और नये पक्षी-स्वर की मांग करते हैं। यह पारंपरिक वंदना या भक्तिगीत की दूसरी परंपरा है - अलौकिकता से बिलकुल अलग और लौकिक आग्रहों से भरपूर। हममें से जो लोग कभी-कभी कस्बाई  विद्यालयों में जाते हैं वे अक्सर देखते होंगे कि 'वर दे वीणावादिनी' संस्कृत की सरस्वती वंदनाओं जितनी ही या कभी-कभी उनसे भी अधिक लोकप्रिय है। दरअसल, यह हिंदी का सबसे अधिक गाया जाने वाला प्रार्थना गीत बन चुका है और हर बड़ी रचना की तरह अपने रचनाकार से विच्छिन्न होकर और एक स्वतंत्र व्यक्तित्व ग्रहण करके लोकक्षेत्र (पब्लिक स्फियर) में व्याप्त हो चुका है। वह भक्तिकाल की रचनाओं की याद नहीं दिलाता, बल्कि एक तरह की गैर-धार्मिक प्रार्थना है। इसी तरह की विशेषता निराला के 'तिमिर दारण मिहिर दरसो' जैसे गीत में भी दिखाई देती है जिसमें कवि फिर वैदिक ऋचाओं की तर्ज पर सूर्य का आवाहन करता है कि वह अपने प्रकाश के हाथों से छूकर इस संसार के अंधेरे कारागार को प्रकाशित करे। इसमें मनुष्य के खोये हुए जीवन को, उसके गिरते हुए स्वत्व को ऊपर उठाने, उसमें प्राणों का संचार करने और उसे ज्यादा गतिमान बनाने का आग्रह है। यहां तक कि निराला यह उदात्त कामना करते हैं कि सूर्य हर कली को फूलों की क्यारी में परिवर्तित कर दे। सूर्य के लिए ऐसी पुकार किसी दूसरी कविता में नहीं मिलती। यह सूर्य की एक नयी भूमिका है:
'खो गया जीवन हमारा/अंधता से गत सहारा/गात के संपात पर/उत्थान देकर प्राण सरसो
.... क्षिप्रतर हो गति हमारी/खिले प्रति-कलि कुसुम क्यारी।'
मैं या मेरे दूसरे समकालीन कवि अगर निराला की कविताओं का अपनी रुचि का एक संचयन तैयार करें तो वह कैसा होगा? उसमें कौन-सी कविताएं होंगी और क्यों? शायद यह भी देखना जरूरी हो कि उसमें कौन-सी कविताएं नहीं होंगी। ऐसा चयन करना आसान नहीं होगा क्योंकि निराला की ज्यादातर कविताएं हमारी पीढ़ी के कवियों को विभिन्न कारणों से विलक्षण और अद्भुत लगती रही हैं - कोई अपनी अपूर्व विषय-वस्तु के कारण, कोई सघन दृश्यात्मकता के लिए, कोई गहरी प्रतिबद्ध दृष्टि के कारण, कोई अकल्पनीय प्रयोगशीलता और कोई समृद्ध ध्वन्यात्मक गुण और सांगीतिकता की वजह से, कोई इस कारण से कि उसमें दलित जन के लिए अपार करुणा है और कोई इसलिए कि किसी पारंपरिक शैली के, तत्सम पदावली से भरपूर विन्यास में अचानक कोई ऐसी अभिव्यक्ति या शब्द-योजना आ गयी है जिसकी कल्पना उस दौर में संभव नहीं थी और जिसे अपने युग से आगे देखने वाला कोई कवि ही कर सकता था। मसलन, 'खड़ी है दीवार जड़ को घेर कर/बोलते हैं लोग ज्यों मुंह फेर कर' या 'देखते हैं लोग लोगों को/सही परिचय न पाकर।' ऐसे चयन में निराला की कई कविताएं इसलिए भी शामिल होंगी कि उनमें एक अपार मितव्ययिता के साथ बहुत कम शब्दों में इतने अधिक क्रियाशील बिंब भर दिये गये हैं कि उनका हर शब्द और अक्षर भी हलचल करता, स्पंदित और फडफ़ड़ाता दिखता है: 'मधुऋतु रात, मधुर अधरों की पी मधु, सुध-बुध खो ली... उठी संभाल बाल, लट, पट दीप बुझा, झट बोली, रही यह एक ठिठोली।'
एक उल्लेखनीय कारण शायद यह भी होगा कि निराला के बहुचर्चित और लगभग किंवदंती बन चुके शरीर-सौष्ठव और पौरुषेय छवि के बावजूद उनकी कविता में एक स्त्री-स्वर लगातार गूंजता है और वह दरअसल उनकी एक प्रमुख छायावादी रचना 'तुम और मैं' से ही शुरू हो जाता है, जिसमें कवि स्वयं को एक स्त्री-संवेदन के रूप में कल्पित करता है : 'तुम आशा के मधुमास और मैं पिक-कल-कूजन-तान/तुम मदन-पंचशर-हस्त। मैं हूं मुग्धा अनजान।' या 'तुम अंबर मैं दिग्वसना/ तुम चित्रकार घनपटल श्याम/ मैं तडि़त्तूलिका रचना।' पिक और तडि़त तूलिका जैसे प्रत्ययों में स्वयं को देखना एक स्त्री-संवेदना से ही संभव है।
मेरी पीढ़ी के बहुत से कवियों के दिमाग में निराला की कविता का ऐसा संचयन जरूर सुरक्षित होगा। कह सकते हैं कि हमारी पीढ़ी ने अपने लिए एक ऐसे निराला को ईजाद किया, जिसमें बहुत नयापन था। बहुत पहले 15 या 16 वर्ष की उम्र में मैंने जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत की बहुत सी कविताएँ पढ़ ली थीं क्योंकि हमारे घर का वातावरण ही ऐसा था, लेकिन निराला की सिर्फ एक कविता 'तुम और मैं' से मेरा परिचय हो पाया : 'तुम तुंग हिमालय श्रृंग और मैं चंचल गति सुर सरिता।' इस गीत में इतनी अलंकृति, प्रासमयता, ध्वनि-सुंदरता और इतनी चपलता थी कि मैंने सम्मोहित होकर उसकी नकल पर लगभग वैसा ही एक गीत लिख डाला। कई वर्ष बाद जब निराला को फिर से पढ़ा तो उनकी रचनाओं में नवता के आग्रह और सघन दृश्यात्मकता ने अभिभूत किया। यह कविता सिर्फ चित्रात्मक नहीं थी, सिर्फ बिंबपरक नहीं थी, बल्कि एक नया ही दृश्य निर्मित करती थी। इस दृश्य-कला में मूर्त और अमूर्त की अद्भुत आवाजाही थी, जैसे श्वेत-श्याम छायांकन के युग की कई महान सिनेमाई कृतियों में मिलती है - एक आत्यंतिक, सघन और चरम और अंतिम किस्म का दृश्यबंध, जो यथार्थ से कल्पना तक और जागरण से स्वप्न तक को समेट लेता है और जिसमें यथार्थ देखते ही देखते स्वप्न के कोनों-अंतरों में घूमने लगता है या स्वप्न अनायास एक यथार्थ के दरवाजे खोल देता है। निराला अनुभव के अमूर्तन को सहज ही मूर्तिमान कर देते हैं और मूर्त को बहुत आसानी से अमूर्त में बदल देते हैं : 'शिशिर की शर्वरी/हिंस्र पशुओं से भरी' या 'गाढ़ तन आषाढ़ आया' या 'आभा फागुन की तन सट नहीं रही है।' 'झूल चुकी वह खाल ढाल की तरह तनी थी/पुन: सबेरा एक और फेरा है जी का' या 'लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो/भरा दौंगरा उन्हीं पर गिरा/उन्हीं बीजों के नये पर लगे/उन्हीं पौधों से नया रस झिरा' भी ऐसी ही दृश्य-अभिव्यक्तियां हैं, जिन्हें हम न सि$र्फ पढ़ते हैं, बल्कि 'देख' भी सकते हैं।
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यह सर्वमान्य सी बात है कि निराला छायावाद के सबसे बड़े कवि हैं, लेकिन छायावाद के भीतर से उसका अतिक्रमण करने, उसमें तोडफ़ोड़ करने और उसके सांचों को ध्वस्त करने वाले सबसे बड़े कवि भी वही हैं। 'जुही की कली', 'बादल राग' और 'हिंदी के सुमनों के प्रति पत्र' जैसी तत्सम काव्य भाषा से लेकर 'महंगू महंगा रहा', 'कुकुरमुत्ता', 'राजे ने अपनी रखवाली की', 'झींगुर डट कर बोला' जैसी देशज और बोलीबानी वाली भाषा तक निराला का कैनवस इतना विस्तृत है कि एक बारगी यह विश्वास करना कठिन हो जाता है कि ये सब एक ही कवि की रचनाएं हैं। बल्कि निराला की एक विलक्षणता यह भी है कि वे लगभग एक ही समय में संस्कृतनिष्ठ 'उच्च' शब्दावली की कविता और 'मेरे प्रिय सब बुरे गये, सब भले गये' जैसी ठेठ कविताएं लिख सकते हैं। उनके समकालीन सुमित्रानंदन पंत की कविता भी विकास करती है, लेकिन वह 'स्वर्णधूलि' या 'स्वर्णकिरण' या 'लोकायत' तक ही आ पाती है और उसमें कोई गुणात्मक बदलाव नहीं दिखाई देता।
किसी अनुभव की भौतिकता को एक ऊंचाई पर ले जाकर एक अमूर्त लोकोत्तरता में बदल देना या एक निराकार भावना को ठोस भौतिक आकार में परिवर्तित कर देना निराला की ऐसी विशेषता है जो शेष छायावादी कविता में नहीं मिलती। शायद इसकी वजह यह है कि निराला किसी अनुभव को उसकी आवयविकता में, उसी तात्विकता-ऑर्गेनिकैलिटी- में देखते हैं और उस अनुभव का एक ऐसा नया आकार निर्मित कर देते हैं जो पाठक को पहले से जरा भी परिचित नहीं रहता। हम लोग जो कविता में जीवन के ज्यादा बुनियादी और अकाट्य दृश्यों और बिंबों को खोजते थे, उन्हें निराला की कविता एक साथ ठोस और पारदर्शी दिखाई देती थी:-  'रुग्ण तन, भग्न मन, जीवन विषण्ण वन' या 'जानता हूं नदी झरने/थे मुझे जो पार करने/कर चुका हूं।' दरअसल किसी बड़े कवि की एक पहचान इस बात से भी होती है कि वह जीवन-मृत्यु, आरंभ-अंत, करुणा-प्रेम और ऐसे ही दूसरे मानवीय आवेगों के कितने समग्र और मूलगामी रूपों तक जाता है। निराला की कविता जैसे इन आवेगों के आद्यरूपों के दृश्यालेख प्रस्तुत करती है। किसी भी भौतिक या मानसिक अनुभव के आद्यरूप को, उसके अंतर्तम को एक उदात्त सतह पर ले जाने की विशेषता निराला की कविताओं में अंत तक थी : 'पुष्प-पुष्प से तंद्रालस लालसा खींच लूंगा मैं/अपने नव जीवन का अमृत सहर्ष सींच लूंगा मैं।'
शायद यही कारण था कि जब हमारे साथ के लोग प्रसाद, पंत और महादेवी वर्मा की किताबों को हमेशा के लिए बंद कर चुके थे, निराला की कविताओं के पन्ने खुले ही रहते थे। उनकी दुख की कथा कभी समाप्त नहीं होती थी : 'दुख ही जीवन की कथा रही/क्या कहूं आज जो नहीं कही', और उनका वह अदम्य आशावाद भी कभी हार नहीं मानता था : 'अभी न होगा मेरा अंत/अभी-अभी तो आया है मेरे जीवन में मृदुल वसंत।' अंत और वसंत का यह द्वंद्व, विरोधाभासों की यह टकराहट एक ऐसा काव्य अनुभव था जिसने हमारी उस पीढ़ी को बुनियादी रूप से प्रभावित किया जो विडंबनाओं की अंतक्र्रिया और विरोधाभास को कविता के सबसे विश्वसनीय औजारों की तरह देखती थी।
इसी के साथ निराला की वह प्रसिद्ध कविता 'हिंदी के सुमनों के प्रति पत्र' भी याद आती है जिस पर आलोचकों ने बहुत कुछ लिखा है और जिसे आनेवाली पीढिय़ों से उनका एक मर्मस्पर्शी संवाद माना जाता है। इटली के प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक अंतोनिओ ग्राम्शी ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मनुष्य सभ्यता के सांस्कृतिक संकट के बारे में एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि 'पुराना नष्ट होने को है और नया जन्म नहीं ले पा रहा है।' निराला यह जानते हैं कि पुराना नष्ट हो रहा है या होनेवाला है इसलिए वे बार-बार नये जन्म, नये आरंभ की बेचैनी से गुजरते दिखते हैं। इस कविता में आगतों के प्रति एक साथ स्नेह और आशंका का भाव है। वे अपने को वसंत के अग्रदूत अर्थात् उसे संभव करने और उसकी सूचना देने वाले पतझड़ के रूप में चित्रित करते हैं: 'मैं हूं केवल पद-तल आसन/तुम सहज विराजे महाराज/ईष्र्या कुछ नहीं मुझे यद्यपि, मैं ही वसंत का अग्रदूत।' निराला की दृष्टि नयी पीढ़ी के भविष्य तक चली जाती है : 'देखो पर क्या पाते तुम फल/देगा जो भिन्न स्वाद रस भर/कर पार तुम्हारा भी अंतर/निकलेगा जो तरु का संबल।' सन् 1937 में लिखी हुई यह कविता शायद समूचे छायावाद की पहली 'भविष्यवादी' कविता भी रही होगी। इसमें निराला नयी पीढ़ी के लिए उस फल की परिकल्पना करते हैं जो 'भिन्न स्वाद और रस' से भरा हुआ हो। यानी एक नयेपन का आग्रह यहां भी मौजूद है। निराला की कविताओं से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले हमारे एक बड़े कवि त्रिलोचन ने निराला के जीवित रहते हुए अपने एक निबंध 'निराला की नयी कविता' में इसी नवीनता की ओर इशारा किया था : 'निराला जी ने चली आती हुई रूढि़ के प्रति थोड़ी-सी अनुरक्ति नहीं दिखायी। इसी कारण निराला जी को सबसे अधिक विरोध का सामना भी करना पड़ा। बहुत पहले निराला जी ने कहा था : 'जला दे जीर्णशीर्ण प्राचीन/क्या करूंगा तन जीवन विहीन।' जीर्णशीर्ण-जीवनहीन-प्राचीन के प्रति निराला जी के मन में कोई मोह नहीं है। इसी कारण वे आज जीवन की ढलती बेला में भी नव नवीन बने हुए हैं।'
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पौरुषेय छवि के नेपथ्य में एक स्त्री-छवि निराला की कविता का बेहद आकर्षक पहलू है। उद्दाम, उदात्त, भव्य, विराट और यूनानी वगैरह जैसे जितने भी विशेषण उनकी कविता और उनके व्यक्तित्व के संबंध में प्रयुक्त किये जाते हैं, उन सभी का चरित्र पौरुषेय ही है। निराला की यूनानी मूर्तिशिल्पों जैसी देह-यष्टि का काफी नख-शिख वर्णन हुआ है और डॉ. रामविलास शर्मा सहित कई आलोचकों ने उनके कसरती बदन और पहलवानी अभ्यास के चित्र भी खींचे हैं। लेकिन निराला की आरंभिक कविताओं में भी, मसलन 'सीख वसंत आया' या 'प्रिय यामिनी जागी' या होली गीत 'नयनों के डोरे लाल गुलाल भरे', 'प्रिय पथ पर चलती/सब कहते श्रृंगार/कण-कण किण-किण/किणन-किणन किंकिणी/रणन-रणन नूपुर, उर लाज/लौट रंकिणी' या 'जुही की कली' में 'विजन-वन-वल्लरी पर/सोती थी सुहाग-भरी-स्नेह-स्वप्न-मग्न-/अमल-कोमल-तनु तरुणी-जुही की कली/दृग बंद किये, शिथिल-पत्रांक में' जैसी पंक्तियां पढऩे पर लगता है जैसे वे एक स्त्री-संवेदना द्वारा अंकित की गयी हों। निराला की यह प्रारंभिक स्त्री, यह 'किसलय वसना नववय लतिका' बाद की कविताओं में कई नये, आधुनिक और कई बार बड़े दारुण आयाम ले लेती है और यह भी सिर्फ एक संयोग नहीं है कि निराला के जो गीत भक्ति और शरणागति की भावना से आप्लावित हैं, उनमें भी प्राय: सभी 'मां, मात:, जननि' जैसी मातृसत्ता को संबोधित हैं। छायावाद के दूसरे कवियों में मातृशक्ति के प्रति इस तरह की पुकार और गुहार नहीं सुनाई देती, बल्कि उनका स्वर अधिकतर पुरुषवाची ही है। निराला की 'मां, मात: या जनिन' में भी कोई साकार एक देवी-रूप नहीं है, उनकी सरस्वती भी कोई 'ब्रह्माच्युतशंकर प्रभृतिभिर्देवै सदा वंदिता' नहीं है, बल्कि वह एक आद्य मातृरूप है, उसका अमूर्तन, एक भावना, जो उनके भीतर की स्त्री का ही एक बाहरी प्रतिरूप है। दरअसल यह हिंदी पट्टी की नहीं, बल्कि बंगाल की मां है। कोमल-कांत-सुकुमार, सुमित्रानंदन पंत 'बाले तेरे बाल-जाल में अपने लोचन' नहीं उलझाना चाहते तो जयशंकर प्रसाद 'कामायनी' के मनु श्रद्धा को एक उदात्त धरातल पर स्थापित करने के बावजूद जिस समरस सभ्यता की परिकल्पना करते हैं, वह एक भव्य पौरुषिक अवधारणा ही है। पंत की अधिकतर कविताओं का स्वरूप भी हमेशा पुरुषवाची ही है और वे स्त्री को 'देवी, मां, सहचरी, प्राण' का संबोधन देकर पुरुष-आश्रित बने रहने देते हैं।
निराला की स्त्री-संवेदना का एक बेजोड़ उदाहरण 'तोड़ती पत्थर' नामक प्रसिद्ध कविता है जिसकी हिंदी में अनेक व्याख्याएं हुई हैं। पत्थर तोड़ती एक मजदूर औरत पर यह हिंदी में अभी एक मात्र कविता के रूप में बनी हुई है और इतनी आधुनिक है कि श्रम करनेवाले लोगों पर लिखने वाले परवर्ती कवि भी इस अनुभव को इस तरह नहीं बता पाये। इस कविता में मजदूर औरत के हथौड़े की चोटों के तीन अर्थ-स्तरों की काफी चर्चा हुई है: इलाहाबाद की मजदूरिन का वह हथौड़ा, जो एक साथ पत्थर पर चोट कर रहा है सामने खड़ी अट्टालिका पर चोट कर रहा है और एक चोट उस स्त्री के जीवन पर भी पड़ रही है। लेकिन उस मजदूरिन के जीवन का सबसे मार्मिक और आधुनिक वर्णन इस अंश में मिलता है:
'देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोयी नहीं।
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह कांपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
'मैं तोड़ती पत्थर!''
हम याद कर सकते हैं कि निराला की मजदूरिन की वह दृष्टि जो मार खा रोयी नहीं, बाद में रघुवीर सहाय की काव्य संवेदना में व्याप्त हुई और विष्णु खरे की एक कविता का जो शीर्षक ही 'जो मार खा रोयीं नहीं' है। यह कहना गलत नहीं होगा कि निराला की यह पंक्ति सत्तर-अस्सी के दशकों की कविता की प्रस्थापनाओं में शामिल हो गयी। इसी तरह वीरेन डंगवाल की 'आयेंगे उजले दिन जरूर' और ज्ञानेन्द्रपति की कुछ कविताओं में निराला की चेतना निवास करती है। निराला की लंबी और महाकाव्यात्मक मानी जानेवाली कविता 'राम की शक्तिपूजा' भी स्त्री-वाची स्वर से मुक्त नहीं है। यह राम-रावण युद्ध की पृष्ठभूमि में राम के द्वारा शक्ति के आवाहन की कविता है जिसमें आवेग, उदात्तता और पौरुषेय कही जानेवाली सुदृढ़ता भरी हुई है, लेकिन जिस महाशक्ति को प्राप्त करने के लिए राम अपने नेत्रों को अर्पित करना चाहते हैं वह एक स्त्री, मां और देवी का ही प्रतिरूप है।
निराला के स्त्री-स्वर की परम अभिव्यक्ति 'सरोज स्मृति' में मिलती है, जो अपनी बेटी की असमय मृत्यु पर रचा गया एक शोकगीत है। एक त्रासद एकालाप, जिसे विश्व के सर्वश्रेष्ठ शोकगीतों-एलेजी- में शुमार किया जा सकता है और जिस पर डॉ. रामविलास शर्मा, मलयज और दूसरे कई आलोचकों ने गंभीरता से विचार किया है। शायद यह कहना सही होगा कि स्त्री हुए बिना या अपने भीतर एक स्त्री की उपस्थिति को महसूस किये बिना या स्त्री के चेतन-अवचेतन में प्रवेश किये बिना ऐसी कविता की रचना संभव नहीं थी। अठारह वर्ष की, मातृ-विहीन और टीबी से ग्रस्त सरोज की मृत्यु के आइने में निराला अपने जीवन की दारुण यात्रा की भी कई प्रतिछायाएं देखते हैं: 'जाना तो अर्थागमोपाय/पर रहा सदा संकुचित-काय/लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर/हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।/शुचिते, पहनाकर चीनांशुक रेशमी/रख सका न तुझे अत: दधिमुख।/क्षीण का न छीना कभी अन्न,/मैं लख न सका वे दृग विपन्न,/अपने आंसुओं अत: बिंबित/देखे हैं अपने ही मुख-चित।' इस कविता में निराला की कविताओं की तमाम विशेषताएं- आद्य- बिंबात्मकता, इतिवृत्तात्मकता, करुणा, व्यंग्य, अमर्ष और आत्मग्लानि- भी समाहित हैं और उनकी जीवन यात्रा के कठिन द्वंद्व, उनकी निराशा और साहस, अपनी निर्धनता और ब्रह्मणत्व की जातीय बर्बरता भी अपने चरम रूप में दर्ज हुई हैं। यह भीषण टकराहट 'मैं कवि हूं पाया है प्रकाश' और 'धन्ये मैं पिता निरर्थक था/तेरे हित कुछ कर न सका' या 'हे इसी कर्म पर वज्रपात' के बीच है। यही द्वंद्व 'राम की शक्तिपूजा' में 'अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति' की विकट विडंबना के रूप में व्यक्त हुआ है। यह विडंबना इतनी सार्वभौमिक-सार्वकालिक है कि कई वर्ष बाद पोलैंड की नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कवि विस्वावा शिंबोस्र्का अपनी एक कविता 'यह सदी' में जैसी इसी को ध्वनित करती हैं: 'उम्मीद थी कि सौंदर्य और ताकत एक ही मनुष्य में होंगे। लेकिन सुंदर और ताकतवर आज भी दो अलग-अलग मनुष्य हैं।'
'सरोज-स्मृति' के उन अंशों में भी, जो सरोज के बचपन और उसके खेलों से संबंधित हैं, निराला की गहन मातृ-दृष्टि मिलती है। अपने बच्चों के क्रीड़ा-कौतुक को निराला के भीतर वास करने वाली स्त्री ही इस तरह देख सकती थी: 'तू सवा साल की जब कोमल/पहचान रही ज्ञान में चपल/मां का मुख, हो चुंबित क्षण-क्षण/भरती जीवन में नवजीवन/वह चरित पूर्ण कर गयी चली/तू नानी की गोद जा पाली/सब किये वहीं कौतुक-विनोद/उस घर निशि-वासर भरे मोद/खायी भाई की मार विकल/रोयी उत्पल-दल-दृग-छलछल/चुमकारा सिर उसने निहार/फिर गंगा-तट-सैकत-विहार/करने को लेकर साथ चला/तू गहकर चली हाथ चपला।' और इसी के साथ फिर अपने जीवन की एक भीषण विडंबना और हताशा : 'तब भी मैं इसी तरह समस्त/कवि-जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त/लिखता अबाध गति मुक्त छंद/पर संपादकगण निरानंद/वापस कर देने पढ़ सत्वर/दे एक-पंक्ति-दो में उत्तर।'
'सरोज-स्मृति' एक कवि और एक मनुष्य, कला और सांसारिकता के बीच द्वंद्व और विरोधाभास का जटिल विमर्श है। यह 'प्रकाश पाये हुए' एक कवि और 'एक निरर्थक पिता' का आमना-सामना है, जिसमें दोनों अपनी-अपनी दारुणता के तर्क रखते हुए भी एक दूसरे को अपने पक्ष में नहीं कर पाते, जीवन की गुत्थी को सुलझा नहीं पाते। रचना संसार और वास्तविकता के संसार की टकराहटों के कई परिणाम जब-तब विभिन्न विधाओं के अनेक रचनाकारों के जीवन में दिखते रहते हैं, लेकिन उनके बीच कोई संतुलन कभी नहीं खोजा जा सका है। हिंदी कविता में वर्षों बाद सरोज की स्मृति चार पंक्तियों की छोटी लेकिन विचलित करने वाली एक कविता का विषय बनी और वह थी असद जैदी की कविता-त्रयी। 'कला दर्शन' शीर्षक श्रृंखला की यह एक कविता इस तरह है:
'सरोज के लिए योग्य वर खोजना आसान नहीं था
ब्राह्मणत्व की आग से भयंकर थी कविता की आग
अंत में एक कवि अमर हो जाता है, एक पिता रोता-पीटता
मर-खप जाता है'
अमर कवि और रोते हुए पिता के बीच की इस विडंबना पर अलग से कुछ कहना बहुत प्रासंगिक नहीं होगा, सिवा इसके कि शायद पहली बार किसी कवि की कविता और उसके जीवन की इस फांक को इस तरह समस्याग्रस्त किया गया है और उससे भी आगे एक सार्वभौम सचाई को छुआ गया है।

हम सभी जानते हैं कि निराला ने परवर्ती कविओं को कितने बहुविध रूपों में प्रभावित किया। इस प्रभाव पर कवियों-आलोचकों ने बार-बार लिखा है और आगे भी लिखा जाता रहेगा। तमाम उल्लेखनीय परवर्ती कवि निराला का ऋण स्वीकार करते आये  हैं। शायद एक मात्र अपवाद अज्ञेय रहे हैं जिन्होंने निराला के प्रभाव को स्वीकार नहीं किया, बल्कि अंग्रेज़ी में लिखे गये एक आलेख में यहां तक कहा कि निराला की मृत्यु हो चुकी है - 'निराला इज़ डेड ऐज़ अ पोयट'। दरअसल, अज्ञेय निराला की अपेक्षा मैथिलीशरण गुप्त और सुमित्रानंदन पंत की कविता से प्रभावित रहे हैं - और उनकी प्रकृति संबंधी कविताएं जो पंत की पादुकाओं में ही पैर रख कर चलती हैं। लेकिन उस दौर के बड़े कवियों में निराला निरंतर प्रतिध्वनित होते हैं। शमशेर बहादुर सिंह उनके लिए 'तुम्हीं झलके हे महाकवि/सघन तम की आंख बन मेरे लिए' जैसा संबोधन देते हैं तो 'धरती' नामक संग्रह में अपने महाकवि को पुकारते ही त्रिलोचन की समस्त निराशा दूर हो जाती है : 'जब-जब हारा/तुम्हें पुकारा/तुम आये पूछा/क्या कमजोरी है/मैंने कहा कुछ नहीं।' इसी तरह, नागार्जुन की दो या तीन कविताएं निराला को संबोधित हैं और उनकी और त्रिलोचन की कविताओं में आये चरित्र और व्यक्तिवाचक नाम दुखहरण मास्टर, कल्लू रिक्शावाला, नगई महरा, चंपा जैसे निराला की ही कविताओं से निकल कर आये हैं। ये चरित्र रघुवीर सहाय की कविता में मैकू, कमला, दयाशंकर, दयावती जैसे  नामों में कुछ भिन्न परिवेश में अवतरित होते हैं। निराला की कविता के लोगों के बगैर परवर्ती कवियों की रचनाओं में लोगों का आना शायद संभव नहीं था। समाज की निचली तहों या हाशियों पर रहने वाले, ग्रामीण व्यक्तिवाचक अस्मिताओं को इतने ठोस रूप में अभिव्यक्त करनेवाले आदि-कवि निराला ही हैं: महंगू, झींगुर, कुली भाट, चतुरी चमार, बिल्लेसुर बकरिहा और कई जातिवाचक सर्वनाम धोबी, पासी, तेली, चमार भी हिंदी कविता में पहली बार निराला के यहां प्रकट हुए। तब क्या जिस कविता में निराला कहते हैं कि 'आज अमीरों की हवेली/किसानों की होगी पाठशाला/धोबी, पासी, चमार, तेली खोलेंगे अंधेरे का ताला', उसे हिंदी की पहली दलित कविता कहा जा सकता है?
यह बात भी बहुत आकर्षक लगती है कि निराला की कविता हिंदी परंपरा से काफी भिन्न है। हिंदी में निराला कोई प्रत्यक्ष पूर्वज नहीं, बल्कि उनके सीधे पुरखे रवींद्रनाथ हैं, और उनके प्रति उनके मनोभाव भी अत्यंत जटिल हैं- कभी उनके अनुसरणकर्ता, उनके गतानुगतिक, कभी उनके आलोचक और विरोधी, कभी उनकी तरह होने की इच्छा रखनेवाले, लेकिन उनके जैसी सुविधा और साधन-संपन्नता से पूरी तरह वंचित। उनके अवचेतन में रवींद्रनाथ अपनी पूरी भव्यता और समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ बसे हुए हैं। वे रवींद्रनाथ होने का स्वप्न देखते हैं, लेकिन उनका यथार्थ उन्हें रवींद्रनाथ नहीं होने देता और यह उनके विक्षोभ का कारण है, जो उन्हें रवींद्रनाथ की आलोचना करने के लिए भी प्रवृत्त करता है। निराला में अवधी या ब्रजभाषा का वह संस्कार लगभग नहीं मिलता, जिसने हिंदी कविता को संभव किया था। बेशक निराला ने तुलसीदास पर भी कविता लिखी, लेकिन तुलसी के प्रति उनकी अनुरक्ति बाद की घटना  है, जब उनका ध्यान अपनी बैसवाड़े की जन्मभूमि और उसकी अवधी परंपरा की ओर गया। और क्या उन्होंने तुलसी का  आश्रय इसलिए भी लिया कि इसके बगैर दिग्गज आलोचकों की एक सवर्ण सत्ता-संरचना में स्वीकार्यता पाना नामुमकिन था? आचार्य रामचंद्र शुक्ल से उनके असहज संबंध और निराला की कविता के प्रति शुक्ल जी के पूर्वग्रह में इसे देखा जा सकता है।
एक बड़े कवि का कहना है कि पुराने कवियों की संवेदना नये कवियों में स्थानांतरित नहीं होगी, लेकिन उनका विवेक हमेशा आगामी पीढिय़ों तक पहुंचता रहता है। हमारी पीढ़ी ने बेशक निराला के प्रति अपनी आस्था या अपनी प्रतिक्रिया प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त नहीं की, लेकिन निराला के विवेक और जीवन से वह अनुप्राणित होती रही। नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे, ज्ञानेंद्र पति, वीरेन डंगवाल की कई कविताएं और असद जैदी की 'कला दर्शन' निराला के काव्य विवेक के स्थानांतरण के कुछ उदाहरण हैं।


इलाहाबाद में निराला स्मृति व्याख्यान माला के तहत पढ़ा गया निबंध


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