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दिसम्बर 2013

शम्सुर्रहमान फारुकी और नदीम अहमद

हसन जमाल



उर्दू ज़बान व अदब में जो नामवर नक्काद हैं, उनमें शम्सुर्रहमान फारूकी का नाम सरे-फेहरिस्त है। प्रो. गोपीचंद नारंग, वारिस अलवी, प्रो. अतीकुल्लाह और अबरार रहमानी वगैरह के ज़िक्र के बगैर उर्दू तन्कीद पर बात नहीं की जा सकती है। मर्हूम कलीमुद्दीन अहमद और मर्हूम बाकर मेहदी के नाम भी उर्दू तन्कीद में नुमायां थे। पाकिस्तान के वज़ीर आगा, डा. जमील जालबी का भी बड़ा नाम है।
फारूकी साहिब जदीदियत-आधुनिकता के अलमबरदारों में माने जाते हैं। उनका रिसाला शबखून चालीस बरसों तक जदीदियत के पौधे की आबयारी करता रहा। फारूकी साहिब ने उर्दू अदब में इतना काम किया है, जितना एक अंजुमन भी नहीं कर सकती और ये सारे बड़े काम मुलाज़मत की मसरूफ़ियत के रहते अंजाम दिए गए हैं।
30 सितंबर, 1930 को पैदा हुए शम्सुर्रहमान फारूकी पोस्टल सर्विस में आने से पहले बलिया और आज़मगढ़ के कॉलेजों में अंग्रेज़ी के लेक्चरार रहे। 1990 में सीनियर सुपरिन्टेंडट पोस्ट ऑफ़िस रेलवे मेल में सिविल सर्वेंट के बतौर मुलाज़मत शुरू की और चीफ पोस्टर जनरल के ओहदे से रिटायर हुए। 1993 से 1994 तक पोस्टल सर्विसेज़ बोर्ड के मेंबर भी रहे। विदेशों में विज़िटिंग प्रोफेसर की हैसियत से अपनी सेवाएं दीं।
उनकी अदबी हैसियत बतौर उर्दू राइटर, नक्काद, नज़रियासाज़, शाइर, एडिटर और अनुवाद, अंतरराष्ट्रीय है। इनका अहम काम 18 वीं और 19 वीं सदी की उर्दू शाइरी, अदबी नज़रियात, क्लासिकी अरूज़ के अमली पहलू और दास्तानों के मुताल्लिक हैं। उर्दू के इलावा अंग्रेज़ी में भी लिखते हैं। इनकी किताबों की तादाद तकरीबन पचास है, जिसमें ''शेर-ए-शोरअंगेज़'' मीर तकी मीर की शाइरी बाबत चार जिल्दों में 1990-92 में शाया हुई। दास्तानों पर भी इन्होंने बड़ा काम किया है। कहानियों के इलावा उनके नॉवेल ''कई चांद थे सरे-आस्मां'' की भी बड़ी धूम रही। अनुवाद भी खूब किए हैं। अनगिनत सम्मानों से नवाज़े जा चुके हैं जिसमें बिड़ला फाउंडेशन का सरस्वती सम्मान भी है। विदेश यात्राएं भी खूब की हैं। गरज़ कि इनकी अदबी खिदमात को मुख्तसर से नोट में समेटना मुश्किल है।
इन दिनों सेहत दुरूस्त न होने के बावजूद कई बड़े कामों में मसरूफ है। ''शबखून'' भले बंद हो गया हो, मगर 'शबखून खबरनामा' वो बदस्तूर निकाल रहे हैं, जो किसी भी अदबी पर्चे से ज़्यादा पठनीय है। यही फारूकी साहब का कमाल है। जो काम हाथ में लेते हैं, उसे कमाल तक पहुंचा देते हैं। ज़ेरे-नज़र इंटरव्यू उनके नज़रियों का पुख्तगी का सुबूत है, हालांकि उनके दुश्मन बहुत हैं और मुखालफत भी बहुत होती है। इनका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि उर्दू अदब व तन्कीद में दो खेमे साफ तौर पर नज़र आते हैं। एक खेमा प्रो. गोपीचंद नारंग का है, दूसरा शम्सुर्रहमान फारूकी का है और परस्पर आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं। मज़े की बात यह है कि कभी दोस्त रहे दोनों हज़रात ज़ाती तौर पर एक दूसरे को सराहते हैं, मगर रकाबत का जबा तो है ही, जो छुपाए नहीं छुपता है। प्रो. गोपीचंद नारंग का पलड़ा इसलिए भारी है कि वो फारूकी साहब के बरअक्स ज़रूरतमंदों को नवाज़ने में बड़े माहिर हैं।
- हसन जमाल


शम्सुर्रहमान फारूकी से नदीम अहमद की गुफ्तगू

0 सौंदर्य मूल्यों के इलावा क्या अदब और आर्ट की तारीख में किसी ऐसी कद्र का तसव्वुर मुमकिन है जो क्लासिकी और जदीद अदब की तहरीक या फनकारी पर हावी न हो, लेकिन बहुत बड़ी हद तक उसमें तख्लीकी रूह बंद हो?
- किसी भी कद्र को, फन की कद्र को ये मुमकिन नहीं है। इसे हम किसी अदबी उसूल की रोशनी में देखे बगैर ये तै कर लें कि इसके अंदर तख्लीक की रूह बंद है। खुद तख्लीक की रूह का फ़िकरा गुमराहकुन है और मेरे खयाल से तख्लीक की रूह का बंद होना और भी गुमराहकुन है। गोया फनपारा कोई बोतल है जिसको आप खोल दें, तो रूह बाहर आ जाएगी। बहरहाल, बुनियादी बात ये है कि तख्लीक हमेशा किसी न किसी कलात्मक स्तर के अधीन होती है, चाहे वो फन्नी मेयार पर पुराने ज़माने का हो या नए ज़माने का हो।
0 ज़िंदगी की जुस्तजू, नए संतुलन, नए ढंग की तलाश फनकार को बोदलेअर के Etoile(सितारा)और Toile (बादबान) का सफर करने पर मजबूर करती है। लेकिन फनकार को ये नया संतुलन पूरी तरह हासिल न होने की सूरत में ज़िंदगी की तलाश मौत की ख्वाहिश में तब्दील हो जाती है। तो क्या इसका मतलब ये हुआ कि अदब और आर्ट मौत का ऐलान करता है?
- तवाजून की तलाश तो हर फनकार के लिए कोई बड़ी, बहुत बड़ी तलाश नहीं होती है। अव्वल तो फ्रांसीसी अदीबों की मिसाल देना और वो भी खास हालात के अंदर मिसाल देना उर्दू ज़बान के आज के हालात को देखते हुए कोई मुनासिब नहीं मालूम होता, लेकिन बहरहाल अगर आपने बोदलेअर की मिसाल दी है, तो आपको फिर रेमू का खयाल भी आना चाहिए जिसके यहां उसूलन 'तवाज़ुन से =इन्कार' बुनियाद है शाइरी की और फन की भी। संतुलन हो या असंतुलन हो, जिन चीज़ों को हम जानते हैं, फनकार को दरअसल अपने अंदरूनी तसव्वुरात, तज़िबात और अपनी ज़ात में जो कुछ गुज़र रही है, बाहर से जो कुछ उसको हासिल हो रहा है, उसको जिस तरह मुमकिन हो सकता है, बयान करने की कोशिश करता है। अगर कोई संतुलन की तलाश भी करता है, तो वो संतुलन लफ्ज़ों और खयालों में होगा। इस तरह से नहीं होगा कि ज़िंदगी में एक नया संतुलन लाया जाए। अक्सर तो ज़िंदगी के संतुलन से घबरा करके फनार या शाइर किसी और तरफ भागना चाहता है। मीर ने कहा था :
हम मस्त में भी देखा कोई मज़ा नहीं है
हुश्यारी के बराबर कोई नशा नहीं है
ज़ाहिर बात है कि आप देख रहे हैं यहां तवाज़ुन से इन्कार किया जा रहा है या एक नए तवाज़ुन की बात की जा रही है।
0  इन्सानी और नैतिक सम्बन्धों के, समाज में जो मूल्य हैं, उसको संदेह की नज़र से देखने और उनके बारे में अपनी बेइत्मीनानी का इज़हार करने का नतीजा ये होता है कि फनकार नैतिक समस्याओं और मूल्यों की उलझनों से कतराने की कोशिश करता है, लेकिन इस तरह जान बचा कर भागना एक बहुत बड़ा फन्नी मस्अला भी पैदा करता है, जो बड़े माने में मनोवैज्ञानिक और जैविक भी है, नैतिक मूल्यों और मेयार छोडऩे को तो छोड़ दिए जाएं, लेकिन सृजन के लिए कोई मेयार तो होना चाहिए, वो कौन देगा? नैतिकताओं को तो हम बहुत पीछे छोड़ आए हैं। ऐसी सूरत में फनकार कौन-सा नज़रिया ढूंढऩे की कोशिश करे जिससे वो खुद मुत्मईन हो और दूसरों को भी मुत्मईन कर सके?
- अव्वल तो ये कहना दुरूस्त नहीं है कि नैतिकताओं को हम बहुत पीछे छोड़ आए हैं। हम ये कह सकते हैं कि नैतिकताओं का तसव्वुर अब ऐसा नहीं है। अब दुनिया में कई तरह की नैतिकताएं जारी हैं और कुछ बुनियादी बातों पर इत्ति$फा$क होने के बावजूद नैतिकताओं के नाम पर बहुत सारी अनैतिक चीज़ें भी हो रही हैं। लेकिन अख्लाकी तसव्वुरात की रौशनी में कभी भी फनपारे की खूबी या खराबी नहीं तै होती। अक्सर ऐसा होता है कि किसी फनपारे के बतौर फन के और बतौर-इज़हारे-फन के उसमें जो खूबसूरतियां हैं, वो इन कथित अनैतिक तसव्वुरात या कद्रों पर हावी हो जाती हैं। आपको याद ही होगा कि हसन अस्करी साहब ने लिखा भी है कि सज्जाद अन्सारी एक ज़माने के बहुत बड़े होनहार, बड़े अच्छे उभरते हुए फनकार थे। उनका जो ड्रामा था - 'जज़ा' वो बर्नार्ड शॉ के ड्रामे की बुनियाद पर लिखा गया था, लेकिन ये कि नए अंदाज़, नई तरह से लिखा गया था। उसमें सारी बहस भी इन्सान, गुनाह की और सवाब की, अच्छाई की, बुराई की और खुदा आपका हिसाब करता है। ये सब उसकी चीज़ें ऐसी थीं, जो आप बहुत सख्त मज़हब की बुनियाद पर देखें, तो शायद एतराज़ के काबिल ठहरे। लेकिन इन्सानी रूह में जो कशमकश है, इन्सान के ज़ेहन में जो कशमकश है, अच्छे और बुरे की, तकदीर की और जब्र की - उन सब को देखते हुए इस ड्रामे में ऐसे सवाल उठाए गए हैं, जिनसे कि कम-अज़-कम हमें एक तरह से मुआमला करना पड़ेगा बहरहाल खैर, मगर ये बात हुई कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उर्दू डिपार्टमेंट में उसको रखा जाए बतौर एक कोर्स की किताब के तो मौलाना अब्दुल माजिद दरियाबादी को जब ये मालूम हुआ, तो उन्होंने उस पर सख्त एतराज़ कर दिया और सुरूर (आले अहमद) साहब ने उस एतराज़ को नहीं माना। और उन्होंने जिसको 'बोर्ड-ऑव-स्टडीज़' कहते हैं, उसके जलसे में उन्होंने कहा कि हमारा शोबा अदब का शोबा है। हम अदबी चीज़ें अदबी मे' यार देख कर पढ़ाना चाहते हैं। अगर उसमें कुछ चीज़ें ऐसी हैं, जो अख्लाकी तौर पर ना-मुनासिब हैं, तो हम उनका ज़िक्र कर देंगे, तालिबे-इल्म को समझा देंगे। लेकिन महज़ इस बिना पर कि किसी शख्स को या किसी एक फ़िरके को या किसी एक तबके को उसकी बातें पसंद नहीं हैं, हम उस किताब या उस फनपारे को कोर्स से खारिज कर दें, ये मुनासिब नहीं है। बिल्कुल ऐसी ही बात 1955-56 में हुई जब हसन अस्करी साहब ने 'तिलिस्मे-होशरूबा' का इंतिखाब शाए' किया, जो बहुत दिलचस्प इंतिखाब है और अब भी उसे अच्छा कहना चाहिए कि जिसमें समाज को दिखाने के जो रंग थे, उन्होंने दिखाए थे। उसके पहले एडिशन में उप-महाद्वीप के मशहूर मुसव्विर और अ$फसानानिगार और बाद में सियासतदां हनीफ रामे ने तस्वीरें बनायी थीं। तो, उन तस्वीरों में कुछ तस्वीरों को अश्लील और नंगा करार दिया गया और इस बिना पर उस किताब की मुखालफत की गयी और सुरूर साहब ने अगरचे फिर कोशिश की कि उसे कोर्स में आने दिया जाए, लेकिन कामयाबी नहीं हुई और वो किताब निसाब से खारिज कर दी गयी। बाद में वो किताब उर्दू एकेडमी लखनऊ ने छापी। तस्वीरें उसमें नहीं हैं। मतलब मेरे कहने का ये है कि इन तमाम बातों का लुब्बे-लबाब ये निकलता है कि फनपारे को किसी अख्लाकी या किसी गैर फन्नी  मे यार के अधीन करार देना ज़ाहिर बात है, ये सियासी तौर पर उस तबके को जो कि ताकत रखता है और जो चाहता है कि ताकत हासिल हो उसे। यकीनन ये चीज़ बड़ी अच्छी है कि वो अदब को अपने नैतिक तकाज़ों के अधीन बनाने की कोशिश करे। हमारे लिए ये कोई बहुत बड़ा मस्अला नहीं है और नैतिकताओं का कामयाब हो जाना या नाकाम हो जाना, ये अदब की कामयाबी या नाकामी की कोई दलील नहीं हो सकती।
0 अदब और आर्ट इन्सानी ज़िंदगी का एक हिस्सा है, मगर बाज़ लोग अदब और आर्ट को जिंदग़ी के शोबों से अलग एक मुस्तक़िल हस्ती समझते हैं। एक ऐसी हस्ती जो बजाए-खुद काबिले-कद्र भी है अपनी हदों के अंदर आज़ाद और खुदमुख्तार भी। ये लोग ज़िंदगी को अदब और आर्ट का ताबे बनाने की कोशिश करते हैं। ज़िंदगी के किसी अहम शोबे को बिल्कुल आज़ाद छोड़ देना और उस पर किसी क़िस्म की कद्रों को लागू न करना कहां तक दुरुस्त है? मेरे खयाल से डी.एच. लारेंस जैसे भारीभरकम आदमी के बारे में टी.एस. एलियट का ये कहना कि फनकार तो बहुत ज़बरदस्त है, मगर शैतान ने लोगों को गुमराह करने के लिए उसे दुनिया में भेजा है। महज़ तन्कीदी बयान नहीं, बल्कि अदब और आर्ट के नैतिक मेयारों से मुकम्मल आज़ादी के बारे में सोचने का अमल भी है, जो आगे चल कर एलियट से ये भी कहलवाता है कि - 'अदबी नक्काद के पास किसी धार्मिक व्यवस्था का होना लाज़िमी है।'- तो इस सिलसिले में आप के खयालात क्या हैं? अदब और आर्ट की मुकम्मल आज़ादी को आप किस तरह देखते हैं?
- ये बात जो आपने कही है कि ज़िंदगी को अदब और आर्ट तो ताबे बनाने की कोशिश करते हैं, मैं समझा नहीं कि इका मतलब क्या है कि ज़िंदगी और अदब या आर्ट अलग-अलग तो नहीं हैं। लेकिन ज़िंदगी का ताबे बनाने का मतलब यही निकलता है। ये ज़रूर है कि जैसा कि आपने बाद में एलियट का और क्या नाम है उसका आपने लिया है कि एलियट ने लारेंस के बारे में कहा कि वो फनकार तो बहुत ज़बरदस्त है, लेकिन दुनिया में वो लोगों को गुमराह कर रहा है। वर्ना सही मानों में देखिए, तो जिस बिना पर कि लारेंस को गुमराह बता रहा है, वो जिन्सी आज़ादी वगैरह का जो ज़िक्र है, तो उस पूरे समाज में जो तब्दीली आयी है, पश्चिम में, वो सारी की सारी थोड़े ही पश्चिम की देन है। तो बेचारा लारेंस क्या करेगा? उससे पहले भी लोग लिख चुके है, इस तरह की चीज़ें जिनको लोगों ने फहश करार दिया है। हमारे पास रागों, गानों के बारे में कितनी बार कहा जा चुका है कि उनसे होशियार रहें। हमारे अदब के बारे में लोग कहते हैं, इसमें बहुत ज़्यादा फहश चीज़ें हैं। तो इनसे कौन-सा अख्लाक में ज़वाल आ गया या बद अख्लाकी फैल गयी। फ्रायड के खयालात ने पश्चिम की दुनिया में इन्क़िलाब पैदा कर दिया और फिर ये कि खुद भी कुछ तरक़िकयां ऐसी हो गयीं। गर्भ निरोध जैसी चीज़ें आ गयीं सामने जिनकी बिना पर जिन्सी आज़ादी मुमकिन हो सकी और जिन्सी अमल में हिस्सा लेने वाले मर्द व औरत को खतरा न रहा, तो जन्म का, तो साहब ये चीज़ें थीं जिनसे कि ये चीज़ें आयीं। अगर आप इसे पश्चिम की बेहयाई और फहाशी और नंगापन वगैरह कहिए, तो बेचारा लारेंस तो बहुत छोटा-सा आदमी था। उनकी कौन सुनता था। तो ये सब महज़ कहने की बातें हैं। ज़िंदगी आर्ट के ताबे तो हो सकती नहीं, बल्कि आर्ट को ज़िंदगी का ताबे बहरहाल होना पड़ता है। बस, यही आप कह लीजिए कि आखिर हम लोग समझते हैं, आज जो गंदी चीज़ें हो रही हैं, आज भी हो रही हैं, पहले भी होती रही हैं। जाफर ज़टल्ली के ज़माने में आप देख लीजिए। जाफर ज़टल्ली यानी उर्दू की पहली और अकेली नस्र जो है उत्तर भारत में, वो जाफर ज़टल्ली की नस्र है। वो इतनी फहश है कि जिसको पढऩा-पढ़ाना बहुत मुश्किल है। हमारे अज़ीज़ दोस्त आलोकराय, जो हिंदी के प्रोफेसर हैं दिल्ली में, बहुत लायक आदमी हैं और आप सब जानते होंगे कि प्रेमचंद के बेटे (?) हैं और उन्होंने प्रेमचंद की किताब के खिलाफ अपनी किताब लिखी है। तो वो चाहते थे कि उर्दू का ऐसा गद्य जमा किया जाए जिसमें कि मज़हबी तौर पर नहीं, बल्कि गैर मज़हबी तौर पर बहुत-सी चीज़ें समाज के बारे में हों। वो कहते हैं, हम लोगों ने उसे भुला दिया है। पुरानी उर्दू को हम लोगों ने बिल्कुल भुला दिया है। पुरानी उर्दू में गैर मज़हबी अर आज़ाद रस्में थीं। बहरहाल, मुझ से उन्होंने कुछ मदद मांगी। मैंने अपने एक हमकार, जो उर्दू के साहब थे उनको उसमें लगा दिया कि आप ढूंढि़ए उन चीज़ों को। मैंने उनको निशानदही की कि फलां चीज़ें फलां चीज़ें ढूंढि़ए, ये मिलेंगी। फिर मैंने उनसे कहा कि भाई उत्तर भारत में गैर मज़हबी गद्य जो ऐसा मिलता है, सबसे पहले तो, वो जाफर का है। जो पेज था मैंने उनको दिया। उन्होंने उसको पढ़ कर सर पकड़ लिया। हालांकि वे बहुत लायक आदमी हैं, लेकिन उनकी भी हिम्मत नहीं पड़ी कि उसको अपने इंतिखाब में शामिल कर सकें। तो आज जो हम अपने यहाँ फहाशी और बुराई देख रहे हैं, वो पहले भी थी। दुनिया में ऐसा होता ही रहता है। ऐसा नहीं होता कि ज़िंदगी को हम फन का ताबे' बनाते हैं, हमेशा फन ज़िंदगी के अधीन होता है। ज़िंदगी जैसी होती है, फन वैसा ही बनता है।
0  एक ऐसे दौर में जब लोग अंग्रेज़ी शाइरी को शेक्सपीयर और रूमानी शाइरों का मज्मूआ समझने लगे थे। एलिएट ने लोगों को करनी व कथनी दोनों ज़रिए से एहसास दिलाया कि अंग्रेज़ी शाइरी की रिवायत जो चौसर से ले कर टेनीसन तक आती है, बहुत लंबी चौड़ी है और उस रिवायत से पूरी तरह जानकारी हासिल किए बगैर बड़ा अदब या बड़ी शाइरी नहीं पैदा हो सकती। आपके खयाल में उर्दू अदब पर ये तसव्वुर कितना लागू होता है और इन बातों को आप किस तरह से महसूस करते हैं?
- मैं समझता हूं कि उर्दू वालों के लिए गैर ज़रूरी है ये बहस करना कि चौसर और टेनीसन तक कौन-सी रिवायत आती है। ये तो एक बहुत मामूली बात है। अफसोस ये कि हम लोगों को ये बड़ी नयी बात मालूम होती है कि एलियट ने कहा। आपने कुछ चीज़ें बयान नहीं कीं। एलियट ने कहा था कि वही फनपारा सब से नया होता है जिसे कि उसके बनाने वाले को पुराने फनपारों का पूरा-पूरा एहसास व इल्म होता है, वही नयी शाइरी पैदा कर सकता है। एलियट ने कही ये बात, हम लोगों ने उसको पढ़ा, तो हम लोगों ने यहां बहुत खुशियां मनायीं। लेकिन अफसोस ये कि उर्दू में हम लोग इस बात से इन्कार करते रहे। हम लोगों को से बताया गया कि साहब अब आपकी पुरानी शाइरी, रिवायत गैर ज़रूरी नहीं, तो बेकार तो है ही, और इसके बगैर हम लोग शाइरी कर सकते हैं। मुमकिन है, बल्कि ज़रूरी है कि विलग हुआ जाए। उसमें जब बाज़ लोगों ने एलियट का कथन पढ़ा तो बहुत चौंके, अरे साहब। ऐसा भी होता है। हालांकि ये सामने की बात है। ये हमारे यहां बहुत पहले कहा जा चुका है। आपकी याद होगा कि 'मुतन्नबी' का जो उस्ताद था, जिसके पास मुतन्नबी गया कि शे'र कहना है और मैंने बहुत कुछ पढ़ लिया, मुझे अब इजाज़त दीजिए कि शे'र कहना शुरू करूं, तो उन्होंने कहा, अभी नहीं अभी तुम जा कर दस हज़ार शे'र याद करके आओ। पुराने उस्तादों के। और साहब, वो गए, अपनी मेहनत की और याद करके आए। और अब उनसे कहा, खलक अहमद (खलक अहमद उस्ताद का नाम था) तो मुतन्नबी ने जाकर उनसे कहा कि उस्ताद, अब मैंने आपका हुक्म पुरा कर लिया है और दस हज़ार शे'र याद कर लिये हैं। तो कहा, जाओ उनको भुला कर आओ। कहा, क्या मतलब? कहा, हां जाओ, बस उसको भुला दो। याद तो तुमने कर लिया, अब खुद तुम इनको अपने ज़ेहन से मिटा दो। खैर अब चूंकि मुतन्नबी को शे'र कहने का और शाइर बनने का बेइंतिहा शौक था और उसने कहा चलिए आपका हुक्म मानते हैं। फिर वो शहर छोड़ा, पता नहीं, किस गार में गया, जंगल में गया और पता नहीं कहां गया, दिल लगाया और पूरी तरह उस अश्आर को भुला दिया। फिर आ के उसने खलक अहमद से कहा, उस्ताद। मैंने वो अश्आर भुला दिए। तब जाकर उस्ताद ने कहा, हां, अब तुम शे'र कह सकते हो। तो ये बहुत सामने की बात है। हमारे यहां तो हमेशा से होता रहा। अब ये हुआ कि हमारे यहां चूंकि ये कह दिया गया कि हमारा सब शे'र मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली का 'मुसद्दस' में जो मिस्रा है ये - 'ये शे'र व हिकायात का नापाक दफतर हकीकत में संडास से है बदतर...।' अब ऐसा भी चल गया कि साहब हम लोगों ने कहा, सब को अलग ही कर दो। तो ये कोई मस्अला नहीं है हमारे लिए। ये आपको मुमकिन है कि एलियट क्या कहते हैं, इस कौल को आप बहुत बड़ी दरयाफ्त नहीं है। अच्छी बात है। लेकिन इसमें कोई हमारे लिए नयी बात नहीं है।
0 'तिलिस्मे-होशरूबा' और 'अलिफ लैला' जैसी दास्तानें, हािफज़ और मीर की शाइरी और खुसरो जैसे फनकार पैदा करने वाली कौम आज तख्लीक से डर रही है। इसमें शुब्ह नहीं कि तख्लीक एक दहशतनाक अमल है और अगर ये एक बेनुकसानी खेल न मालूम हो, तो फनकार उसके पास भी न फटके। लेकिन आज हम इस बेज़रर खेल को खेलने की कोशिश और ख्वाहिश से भी महरम नज़र आते हैं?
- अरे साहब, न तख्लीक चट्टान पर बैठती है, न दहशतनाक अमल है। रचने से डर कोई नहीं रहा है। डराए ज़रूर जा रहे हैं तख्लीककार। लेकिन अब कितना डर जाए, ये उनकी मरज़ी पर है और डराने वाले बहुत-से लोग हैं, जो नए-नए फल्सफे ले कर आते हैं। कोई संरचना ले कर आता है, कोई विखंडनवाद लेकर आता है। कोई उत्तर-आधुनिकता ले के आता है। कोई जदीदियत ले के आता है, कोई तरक्कीपसंदी लाता है और उसके डंडे से हांकता है। शुरू करता है, तो कोई मानता नहीं उन बातों को। शे'र तो लोग वही कहते हैं, अफसाना तो वही कहते हैं जो उनको अच्छा लगता है। तो उसको इतना ड्रामा बना कर मत रखिए। ये है कि जो बात कहने वाली थी, जो आपने नहीं कहीं, जो कहना चाहिए थी, आपको जो आज के तख्लीककार हैं, अगर वो डर रहे हैं तो डरने की वजह ये है कि वो बहुत कच्चे और कमज़ोर हैं। वो पूरी तरह से तख्लीक के फन से आगाह नहीं हैं। इसको कहते हैं कि वो चीज़ों को रचना की आंख से देखने की कुदरत नहीं रखते हैं। वो मोटी आंख से देखते हैं जिस आंख से कि मैं देखता हूं। उससे देखते है कि जिस आंख से आम आदमी देखता है। देखिए, वड्र्सवर्थ जैसा भी था, आपने पढ़ा ही होगा, लेकिन एक बात वो बड़े पते की कह गए थे कि साहब, शाइर वो होता है, जो आम लोगों की तरह से हैं, लेकिन उसका सोचने और देखने और महसूस करने का तरीका आम लोगों से अलग होता है। और हम लोग ये कह रहे हैं कि जो आम लोग सोच रहे हैं, जो अखबारों में लिखा जा रहा है, टी.वी. पर आ रहा है, उसी को फौरन अफसाना बना दो, उसी को नम नबा दो। तो इस तरह से नहीं हो सकता है ना।
0 इन्सान कल्पना से हकीकत को अफसाना बनाता है और अफसाना बन जाने के बाद ही हकीकत में मानी पैदा होते हैं। यही वजह है कि अदब और आर्ट की बड़ी श$िख्सयतों को हकीकत की निस्बत अफसानों से ज़्यादा चाव रहा है। क्या आपको ऐसा लगता है कि पिछले पचास साल की मुद्दत में हमने जो अदब पैदा किया है या जिस क़िस्म का अदब हम आज पैदा कर रहे हैं, उसमें इन्सानी तसव्वुर का अमल और रद्दे-अमल ऐसे अफसाने रचने की सलाहियत रखता है, जिन पर हकीकत का धोका हो और जो हकीकत से ज़्यादा जानदार हो?
- भई, ये अमल और रद्दे-अमल ये दोनों क्यों लगा रहे हैं आप? एक तो अल्फाज़ का कम इस्तेमाल करो भाई। इतना समझाता हूँ तुम सब लोगों को लफ्जों की कद्रों-कीमत समझो। उनको पैसे की तरह गिनते रहा करो। कम हो गए, तो कहां खर्च किए। अब सौ रुपए का, पांच सौ रुपए का, हज़ार रुपए का नोट बाज़ार में ले कर जाते हो, वापस आते हो तो उनको गिनते हो कि कितना बच गया। चार रुपए आठ आने, बारह आने बचे हैं। और कहां-कहां खर्च किए गए। लफ्ज़ के बारे में ऐसा कुछ नहीं है जो जी में आए लिखते चले जाते हो। खैर छोड़ो वो अलग बात है। लेकिन इस वक्त अस्ल बात ये है कि हकीकत से ज़्यादा जानदार होने से क्या मुराद है तुम्हारी? हकीकत किसे कहते हैं? आखिर? जो हकीकत शे'र में बयान हुई या अफसाने में बयान होती है, वो इस मुआमले में यकीनन जानदार होती है कि वो हमेशा से मौजूद रहती है। और हकीकतें जितनी भी हैं, वो तारीख में हैं या वो फल्सफे में हैं, किसी जगह, किसी जगह सही नहीं हैं। तख्लीक में सच्चाई जो होती है, अगर आप उस सच्चाई का तकाज़ा न करें कि साहब, आम का फल मीठा होता है, लेकिन जब कच्चा होता है, तो बड़ा खट्टा होता है। इस तरह की बातें जो आजकल शाइरी में लिखी जा रही हैं। इस तरह के तकाज़े उससे न करें आप। तो, तख्लीक यकीनन सच्ची होती है, ज़्यादा जानदार होती है, क्योंकि रहती है। अरे भाई। हम तो कितनी बार कह चुके हैं कि कई नक्काद ज़िंदा रहे और कई शाइर ज़िंदा रहे। आप गिन लीजिए। एक शे'र लोगों का ज़िंदा रह जाता है। एक अफसाना ज़िंदा रह जाता है। तो तख्लीक तो जानदार हमेशा होती है।
0 हमारे यहां बहुत से ऐसे फनकार हैं, जो दूर तक मार करने की सलाहियत रखते थे, मगर तख्लीकी सफर में कुछ दूर चलने के बाद उनकी सांसें फूलने लगीं और देखते-देखते लगातार चलने का अमल थक कर बैठ जाने के बाद एक आसान अमल में तब्दील हो गया। इन ताज्रिबों से क्या हम ये नतीजा निकालें कि तख्लीकी सफर में चलना और चलते रहना ही सब कुछ होता है, पहुंचना ना पहुंचना सब बराबर है?
- जो आप कह रहे हैं कि साहब, बहुत फनकार हैं, दूर तक मार करने की सलाहियत रखते थे, मगर कुछ दूर चलने के बाद उनकी सांसें फूलने लगीं। तो मैंने कहा है आपसे कि भई बुनियादी बात ये है कि अगर आप समझौता कर लेंगे, अगर आप अपने फन से या दुनिया से या समाज से समझौता कर लेंगे। मैं वही लिखूंगा जो आपको अच्छा लगता है, कि मैं वही लिखूंगा जो महफूज़ है जिसमें कोई खतरा नहीं है। मैं वही लिखूंगा जिसको पढ़ कर लोग कहें कि हां साहब, ठीक है, आप अच्छा कहते हैं। आप नेक आदमी हैं तो ये बात है ना। अच्छा, दूसरी बात ये है कि फनकार के लिए ये कोई ज़रूरी नहीं है कि वो ज़िंदगी भर लिखता रहे। भई, ऐसा भी तो होता है ना कि लोग जल्द मर जाते हैं। तो, क्या मतलब है कि जो कुछ उन्होंने लिखा है, जो कम लिखा है उन्होंने। अब ताबां जवानी में मर गए, तो क्या ताबां को हम शाइर नहीं मानेंगे, क्योंकि वो जवानी में मर गए और हम मीर को इसलिए शाइर मानेंगे कि वो बहुत दिन ज़िंदा रहे। हम ये कह सकते हैं कि हां भई, अगर ताबां ज़िंदा रहते, तो अगर, खुदा मालूम ज़िंदा रहते तो, मुमकिन है कि और खराब शे'र कहते या अच्छे शे'र कहते। तो शाइर या तख्लीककार की एक अपनी अंदर भी उम्र होती है ना। उस अंदर की उम्र को क्यों नहीं देखते हो? उस अंदर की उम्र को घटाने और बढ़ाने वाली चीज़ें उसके अंदर भी होती हैं। उसके समाज में भी होती हैं। मसलन पढ़ता नहीं अगर वो मान लो। अब पढ़े बगैर तो कभी शे'र होता नहीं है, अफसाना होता नहीं है, नॉवेल होता नहीं, पढ़ोगे नहीं तो कहां से लिखोगे? हमसे अभी एक साहब कहने लगे, कुछ दिन पहले की बात है। हिंदी की महफ़िल थी। मैं हिंदी वालों में अक्सर बुला लिया जाता हूं। तो ऐसे बातें होने लगीं, अफसाने के बारे में। कहने लगे, साहब, हम लोग क्या करें? हम लोग तो वही लिखते हैं जो कि हम सुनते हैं। तो मैंने कहा भाई हमारे ज़माने में तो ये कौल था कि हम वही लिखते हैं जो हम पढ़ते हैं। तो ज़ाहिर बात है, सुनने की बात करोगे, बाज़ार की ज़बान सुनोगे, तो वही लिखोगे। उसमें कितना दम फिर? आखिर कितनी अच्छी बात कही जनाब ऑडन ने कि 'आम ज़बान जो है, उसमें शाइरी नहीं हो सकती।' हम मसलन टैक्सी में बैठ रहे हैं। हम कह रहे हैं कि हमें एयरपोर्ट जा है, इसमें तो शाइरी मुमकिन नहीं है। इसमें इत्तिला मुमकिन है कि एयरपोर्ट जाना है। कितने घंटे में पहुंचेंगे वगैरह वगैरह। तो ज़बान को आप उसके तख्लीकी अमल से नहीं इस्तेमाल करेंगे तो जैसे ये कि मैंने आपसे कहा, बहुत-से लोग एग्रीमेंट कर लेते हैं कि भई हम कोई तकलीफ नहीं पहुंचाएंगे आपको कोई बुरी बात नहीं कहेंगे, कोई ऐसी चीज़ न करेंगे कि जिससे आपके ज़मीर को जनाब चौंकना पड़े। तो ये भी हो सकता है।
0 मौत व हयात, जिस्म व रूह, खैर व शर, अदम और वुजूद जैसे मस्अलों का ज़िक्र तो हमारे अदब में खूब मिलता है, लेकिन कुल मिलाकर कर ये मस्अले जिस इन्सान से मुताल्लिक हैं, उसके बारे में किसी गहरे प्रकटन की कमी हमारे अदब में साफ नज़र आती है। मीर को अलग कर दें, तो शायद ही हमारे कोई फनकार मलार्मे और वाल्येरी के आसपास भी पहुंचे।
- अरे भाई, काहे के लिए? अव्वल तो हमारी उम्र ही कितनी है। अगर आप मलार्मे और वाल्येरी को इतने बड़े शाइर मानते हैं कि दुनिया के सब से बड़े शाइरों में से हैं, तो चलिए मैं भी मान लेता हूं। मलार्मे के बारे में कुछ शक भी रखा जा सकता है, लेकिन चलिए बहरहाल शाइर वो भी फ्रांसीसी का है। तो अब मीर के बराबर रख रहे हैं कम से कम आप, तो आपकी उम्र ही कितनी है? अभी तो जुमा-जुमा आठ दिन आपको हुए हैं। पांच, छह सौ बरस आपकी कुल तारीख है। अब पांच छह सौ बरसों में आपने एक अदद मीर पैदा कर लिया तो क्या कम पैदा कर लिया? वैसे आपके यहां सिर्फ मीर नहीं हैं। आपके यहां तो यानी आप सिर्फ बड़े लोगों का नाम लीजिए, तो भी पांच सात आदमी ऐसे हैं जिनका बड़े फख्र से आप नाम ले सकते हैं। गालिब का नाम लेना पड़ेगा, आपको मीर असीन का नाम लेना पड़ेगा, सैदा का नाम लेना पड़ेगा। दक्खिणी में बहुत कम जानता हूं, लेकिन जहां तक मैंने सुना और पढ़ा है, नुस्रती का नाम हमको लेना पड़ेगा। वजही का नाम लेना पड़ेगा। तो ये सब बड़े शाइर हैं। इनको दुनिया में किसी भी जगह बिठा दीजिए, ये शर्मिन्दा नहीं होंगे। हमसे एक दफा, हमें याद है एक जलसे में हमारे दोस्त बहुत बड़े नक्काद अल्लाह जन्नत नसीब करे, वो मर्हूम हो गए। वो कहते हैं कि मीर कोई बड़े शाइर थोड़ी हैं। हमने कहा, भाई हम तो अभी आज ही एक अंग्रेज़ी रिसाले में एक मज़मून पढ़ आए हैं कि बिलियन कूपर जो कि मामूली शाइर है अंग्रेज़ी का, उसे करार दिया गया कि जीनियस था। तो वहां तो यह आलम है कि उनके यहां दूसरे दरजे के शाइर है। उनमें भी एक मामूली हैसियत रखते हैं उनको भी जीनियस कह रहे हैं और लोग अपने मुंह से अपने बड़े शाइर को कह रहे हैं कि वो बड़ा शाइर नहीं था। तो अस्ल में होता यही है ना कि अपने दही को खट्टा नहीं कहना चाहिए। हम से ज़्यादा वालेरी को कौन पढ़ा होगा या हसन अस्करी से ज़्यादा किसने पढ़ा होगा। अस्करी साहब तो ज़िंदगी भर बोदलेयर और वालेरी को पढ़ते ही रह गए। फिर भी वो बेदिल जितने कायल थे, जितने मीर के कायल थे आपको खूब मालूम है। आप, खुद ही अस्करी के बहुत अच्छे स्टुडेंट हैं, आप जानते हैं।
0 हमारे ज़माने के बाज़ फनकारों ने ज़िंदगी का इज़हार करने के बजाए, इज़हार के अमल और इज़हार के ज़रियों को उसका मौज़ू' बनाया है। आपके खयाल में ये रवैया कहां तक दुरूस्त है? क्या अदब और आर्ट के लिए यह रवैया किसी सेहतमंद भविष्य की तरफ इशारा करता है?
- क्या मतलब है भई इसका? इज़हार का अमल कौन बयान कर सकता है? इज़हार के ज़रिए जो हैं उसके मौज़ू' को कौन बयान कर सकता है? इज़हार के ज़रिए क्या हैं? रेडियो है, टी.वी. है। अरे भाई! हर अदीब की अपनी महदूद परवाज़ है। जहां तक पहुंचता है, पहुंचता है, पहुंचता है। अच्छा अब इस ज़माने में चूंकि जैसा कि हम सब जानते हैं, तुम खूब जानते हो ज़मीर अक्सर हद तक लोगों का या तो बेकार हो गया है या मुर्दा हो गया है या था ही नहीं शायद। अब यह कि जो चीज़ चल जाए तो लोग उसको मान लेते हैं। उसको शुरू करने लगते हैं, उसको बढ़ाने लगते हैं आगे। तो यह कोई अच्छी बात नहीं है लेकिन है। मगर मैं इन चीज़ों से डरता नहीं हूं। मैं यह कहता हूं कि जो बहुत बड़ी खूबी हमारे यहां उर्दू के समाज में है जो कि दूसरे समाजों में बहुत देर से आयी कि जितना समाज अपनी खुद-आगाही रखता है, जितना शुऊर उसको अपने बारे में है, उतना अंग्रेज़ी-वंग्रेज़ी वालों को बहुत बाद में हुआ। यानी 20 वीं सदी के बारे में जो शुरू में किताब लिखी गयी, बहुत मशहूर किताब हुई। एलियट नाम है उनका। तीन लेक्चर दिए उन्होंने, बड़े मशहूर हुए उस ज़माने में कि बीसवीं सदी के अदब की खासियतें क्या हैं? तो पहले उन्हों यही बयान किया कि साहब पहली बात तो ये है कि यह बहुत खुद-आगाह सदी है। अजी, अगर वो हमारे यहां आकर देखते, तो कल से शाइरी शुरू हुई है और आज जनाब, लोग तज़किरे लिख रहे हैं। तज़किरों में शाइरों के नाम लिख रहे हैं। उनके हालात बयान कर रहे हैं। तन्$कीद उनकी कर रहे हैं, उनकी धज्जियां बिखेर रहे हैं। झगड़े निबटा रहे हैं। जितना हम लोग खुद-अगाह थे, उतना भला वो लोग क्या होंगे। तो इसलिए ठीक है। हो रहा है भई, खोटा सिक्का चल रहा है, फरेबी चल रहे हैं। गलत-सलत भी हो रहा है। जिस चीज़ से मुझे खौफ है उसका ज़िक्र नहीं किया है आपने अब तक कि हम लोग अपनी ज़बान को भूलते जा रहे हैं। हम लोग हिंदी ज़बान पढ़ कर आते हैं और समझते हैं कि हिंदी, उर्दू में ग्रामर चूंकि एक ही है, तो ज़बान भी एक ही होगी। इसी को हम लिखना शुरू कर देते हैं। हम यह देखते ही नहीं कि जो हिंदी का मुहावरा है, उर्दू में नहीं है। या हिंदी में किसी और मानी में है, उर्दू में किसी और मानी में है, तो ज़बान इतनी हमारी खराब हो गयी है। जब आपके पास उर्दू के जो इतने अच्छे अल्फाज़ है, जब उसी को इस्तेमाल न करेंगे तो उर्दू में अच्छा अदब कैसे लिखिएगा?
0 इन्सानी ज़िंदगी के मुताल्लिक हर नज़रिए को कुछ स्थायी मूल्य मानना पड़ेंगे। माक्र्सवाद के साथ भी यही मुआमला है, लेकिन माक्र्सवादियों के यहां मस्अला यह था कि उन्होंने अपने लिए स्थायी मूल्य भी आर्थिक मुआमलों से ले लिए थे। जदीदियत को अगर एक नज़रिया तस्लीम करें तो आपके खयाल में वो कौन सी चीज़ें हैं जिनसे जदीदियत ने अपने स्थायी मूल्य हासिल किए?
- भई, सबसे पहली बात तो जदीदियत यही कहती रही थी कि हमें इससे कोई गरज़ नहीं कि आपकी कद्रें कौन-सी हैं। आपके माक्र्सी मूल्य हों तो बड़ी अच्छी बात है। हमने तो यहां तक लिखा कि साहब, अगर मान लीजिए कि कोई ऐसा नज़रिया हो किसी नॉवेल में जो मेरे उसूलों के बिल्कुल खिलाफ जाता हो, तो भी अगर वो नॉवेल अच्छा है, तो अच्छा कहा जाएगा। आखिर आपके सामने मिसाल मौजूद है कि दांते का जनाबेआली, 'डिवाइन कॉमेडी' हम लोगों न $खूब पढ़ा-ओढ़ा उसको, तर्जुमे उसके किए गए। टूटे-फूटे जैसे भी हो सकते हैं। आपको खूब मालूम है कि उसमें इस्लाम के बारे में और पैगंबरे-इस्लाम के बारे में कितनी खराब-खराब बातें लिखी गयी हैं। तो अगर स्थायी मूल्यों को पूछते हो कौन से मूल्य उसमें ऐसे हैं, जो तुम्हारे लिए अच्छे हों। तो मूल्य-वूल्य नहीं होते अस्ल में। कद्रें तो यह होती है कि आदमी क्या कर रहा है। आदमी के पास जो खज़ाना है। अब उसने आपको मालूम है कि दांते ने हज़रत शेख अकबर इब्ने अरबी ने उठाया तो कुछ चीज़ें मसीही से उठायीं और उसने उसको उठाकर अपने ऊपर लागू कर दिया और इससे पूरी कहानी तैयार कर ली। यानी फायदा उठाया इस्लाम से और सबसे ज़्यादा बुरा-भला उसने इस्लाम को कहा। तो कद्रें तो दरअस्ल कला की कद्रें होती हैं ना।
0 1960 ई. के बाद हमारे यहां जदीदियत का जो मैलान सामने आया उसका उर्दू की अस्ल रिवायत के किस हद तक रिश्ता था? जदीदियत के असर से जो लोग उर्दू अदब के मंज़रनामे पर उभरे उन्होंने उर्दू की अस्ल रिवायत को अपनी तख्लीक में किस तरह महफूज़ किया है और किया है भी या नहीं?
- इसमें ज़ाहिर है कि सबसे पहले यह बहस करना चाहिए कि हम लोगों को कि उर्दू की अस्ल और बुनियादी रिवायत क्या है। अगर मान लीजिए की अस्ल बुनियादी रिवायत से मुराद ली जाए उर्दू गज़ल की शाइरी तो 'मस्नवी' कहां जाएगी, 'कसीदा' कहां जाएगी, 'दास्तानें' कहां जाएंगी? तो इस तरह से लोगों के ज़ेहन में जो तसव्वुर उभरता है आम तौर पर और उसको हम लोग अस्ल रिवायत या बुनियादी रिवायत कहते हैं, तो दरअस्ल एक ज़ाती सोच और इन्तिखाब की बुनियाद पर होता है। आम तौर पर लोगों से पूछिए, तो वो बुनियादी और अस्ल रिवायत का जब ज़िक्र करेंगे साहब, बहुत दूर चले गए तो नज़ीर अकबराबादी का नाम लेंगे। लेकिन फकीर मुहम्मद 'गोया' का नाम नहीं लेंगे। मिसाल के तौर पर बदगोई यूं ही भूल जाएंगे। तो अदब में जो कुछ हो चुका है, उन सब को रिवायत में शामिल समझना चाहिए और देखना यह चाहिए जो कुछ हुआ है उसका अदब के बारे में क्या तसव्वुर और क्या नज़रिया था। मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली के ज़ेरे-असर, तरक्कीपसंदों के ज़ेरे-असर, थोड़ा बहुत इकबाल के ज़ेरे-असल के अदब का किसी खास मक्सद के तहत हासिल करने के लिए कोशिश होनी चाहिए।
इसमें मुश्किल यह आ पड़ी थी कि समाजी तब्दीली या सियासी तब्दीली से मुराद वो तब्दीली नहीं थी जो सर सैयद ने, मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने ली थी, वो कुछ और थी और यह मुराद सज्जाद ज़हीर ने या एहतिशाम हुसैन साहब ने ली, वो कुछ और थी। तो इस झगड़े में बहुत सारा अदब हमारा, हमारे लिए खतरे में पड़ गया और कभी किसी ने, अदब के किसी हिस्से को $गैर सेहतमंद रिवायत कहा। किसी ने कहा साहब, ये रिवायत है ही नहीं वगैरह, वगैरह। तो दो काम किए बहरहाल बड़े जदीदियत ने। एक यह कहा कि सारा अदब रिवायत में शामिल है। रिवायत कोई चीज़ नहीं है कि जिसको आप काट छांट कर अलग कर दें और कहें साहब यह रिवायत में है ही नहीं या यह है लेकिन खराब था। इसको हम काटें देते हैं, निकाले देते हैं। दूसरी बात उसने यह कहीं कि इस रिवायत के पीछे जो दरअस्ल तसव्वुर है अदब के लिए बाहर से कोई मक्सद ला के तामीर करें या कि दाखिल करें। तो अपनी-अपनी हद तक सब लोगों ने किया उसको फिर मालूम हुआ साहब ये नयी चीज़ें पहले हो भी चुकी हैं, किसी न किसी तौर पर। तो गज़ल के मैदान में खासकर हम देखते हैं। अब रह गया तो नए मैदान हैं, वो अफसाने का, और नम को। नए मैदान हैं, वो अफसाने का, और नम को। नए मैदान इस मानी में हैं कि इनके लिए कोई बहुत लंबी रिवायत उर्दू में नहीं मौजूद थी तो वहां ज़्यादा आज़ादी की गुंजाइश नज़र आती है। बहुत पहले खलीलुर्रहमान आज़मी ने कहा था कि अभी बड़ी शाइरी के वाकई जो इज़हार हैं, उनको पैदा होने में वक्त लगेगा।
0 बाज़ लोगों का जिसमें अस्करी भी शामिल हैं, यह ख्याल है कि जदीदियत, मज़हब हो या नैतिक समाजी ज़िंदगी हर जगह आखिरी मेयार फर्द और उसके तज्रिबे को ही समझती है। यानी जदीदियत की अस्ल रूह यही अद्वितियता है। अस्करी साहब ने अपनी किताब 'जदीदियत या पश्चिमी गुमराहियों की तारीख का खाका' में यहां तक कहा कि पिछले पांच सौ साल में पश्चिम ने गुमराहियों को जितनी भी शक्लें पैदा की हैं, वो सब उसी अलगपन के बीज से निकली हुई शाखें हैं।
- तो यह अस्करी साहब से पूछने का सवाल है। मैंने तो यह बात को बहुत बार समझा दिया है कि अस्करी साहिब जदीदियत से मुराद लेते हैं Inlightment  यानी रौशन फ़िक्री का वो ज़माना खासकर जो 17 वीं सदी के आखिर से शुरू होता है और बड़ी हद तक दूसरी जंगे-अज़ीम तक आते-आते खत्म हो जाता है। लेकिन तब तक उसने अपनी तमामतर नुकसानदेह और अच्छी-बुरी चीज़ें सब ज़ाहिर कर दी थीं। अच्छा इस रौशन फ़िक्री की मुखालफत करने वालों में अस्करी साहब नए नहीं हैं। इसकी मुखालफत करने वालों में इस्हाक बर्लिन साहब जैसे लोग शामिल हैं, जिन्होंने पूरी एक किताब लिखी है। इसकी मुखालफत करने वालों में सैयद हुसैन नसर भी शामिल हैं। उन्होंने भी पूरी एक किताब लिखी है। तो अस्करी साहब का एक नज़रिया इस मुआमले में अकेला नहीं था और जदीदियत है जिसके सिलसिले को हम पश्चिम से भी जोड़ते हैं। इसमें अंधेपन का एहसास नहीं है, बल्कि यह कि फर्द की ज़ात अपनी जगह एक वुजूद रखती है, एक कायनात रखती है और फर्द की ज़ात को इज़हार करने का हक हासिल है।
0 जब बाज़ हलकों की तरफ से जदीदियत पर यह एतराज़ किया गया कि उसने पाठक को पसे-पुश्त डाल दिया है, तो इस मैलान के हमनवाओं ने जिनमें आप भी पेश-पेश थे, यह कह कर इसका बचाव किया कि जदीदियत पाठक ने अपने संप्रेषण की सतह को बलंद करने की मांग करती है। इसका मतलब यह हुआ कि जदीदियत बहुत छोटे मकान बनाने के बजाए एक बड़ा महल तामीर करने पर ईमान रखती है। जदीदियत के मीरे-कारवां की हैसियत से इन बातों को आप किस तरह देखते हैं?
- ज़ाहिर बात है कि यह कहना चाहिए था कि जदीदियत पाठक को अहमियत देती है और उसको नज़रअंदाज नहीं करना चाहती और उसको रहम की निगाह से नहीं देखती। यह कहना गलत है कि पसे-पुश्त डाल दिया गया बल्कि यह कहना चाहिए कि जदीदियत ने पाठक के साथ वैसा रवैया नहीं रखा, जो पहले लोग रखते थे कि हर बात को तीन दफा खोल के जब तक न बयान करें, उनको यकीन नहीं आता कि पाठक समझ सकता है। पाठक की नाक पकड़ कर जब तक उसको चलाएंगे, वो चलेगा नहीं। जब तक पाठक की गर्दन में हाथ डाल कर दौड़ाएंगे नहीं, वो दौड़ेगा नहीं। क्या शाइरी और क्या अफसाना दोनों में आम तौर पर यह बात मशहूर थी कि साहब, हमको हर बात को साफ-साफ नतीजा बयान करके कहना है यानी पाठक बेचारा एक बच्चा है। एक नासमझ, नाफहम, जाहिल अगर जाहिल नहीं तो कम से कम एक गंवार क़िस्म का आदमी है, जो अदब की बारीकियों से वाक़िफ नहीं हो सकता। लिहाज़ा हर बात हम खोल-खोल के कहें। और एक यह है कि हम अफसाना लिखें या शे'र कहें और उसमें अपनी बातों को पूरी दलीलों से पेश करें। लेकिन हर जुमले और हर लफ्ज़ की कुंजी न पेश कर दें कि लीजिए साहब, यह कुंजी ले जाइए, इससे आपका मुआमला हल हो जाएगा, बल्कि हम उससे उम्मीद करें कि वो खुद अपनी तख्लीकी कुव्वत को इस्तेमाल में लाते हुए उसको पढ़ेगा और उसके मानी तक पहुंचेगा, वर्ना जदीदियत के बारे में यह इल्ज़ाम या यह नारा कि उसने पाठक को नज़रअंदाज़ किया, यह महज़ एक फार्मूला है जैसे बहुत से फार्मूले लगाए गए। जदीदियत में समाजी ज़िम्मेदारी का लफ्ज़ गाली की तरह इस्तेमाल होने लगा। जदीदियत को हर तरह से जुड़ाव से इनकार है, इस तरह क बहुत से फार्मूले बहुत-से नारे दिए गए तो कि एक तरह से जबाती तौर पर खौफ पैदा करने वाले थे। कुछ लोग अब भी कहते हैं कि साहब जदीदियत के कारी और अदब के दरमियान कोई पुल नहीं छोड़ा, हम पुल बना रहे हैं। अब ज़रा उनसे कोई जाकर पूछे कि जदीदियत ही के नाम पर आखिर 'शबखून' चालीस साल तक चलता रहा और दुनिया के हर कोने में जहां उर्दू पढ़ी जाती है, शबखून बढ़ा जाता रहा। और उसके पढऩे वाले सब पढ़े-लिखे और अदब फहम लोग हैं। तो जदीदियत ने उन लोगों को कहां से पैदा कर दिया। जदीयित के जो बड़े नाम है पाकिसतान में, हिन्दुस्तान में, उनका कलाम बार-बार छपता है। उनके अफसानों की, उनकी नग्मों की, उनकी गज़लों की तारीफ होती है। मुताअला उनका होता है, तो क्या आखिर हो रहा है? क्या ऐसे ही हो रहा है कि लोग उनको समझ नहीं रहे हैं?        (साभार : उर्दू चैनल, मुंबई)


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