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दिसम्बर 2013

गंगौली केवल एक गाँव ही नहीं है, वह मेरा घर भी है

प्रियम अंकित

पिछली बार भीष्म साहनी, इस बार राही मासूम रज़ा और अगली बार यशपाल



कहते हैं कि आषाढ़ की एक काली रात में तुगलक के एक सरदार सय्यद मसऊद गाज़ी ने बाढ़ पर आई गंगा को पार करके गादिपुरी पर हमला किया। चुनाँचे यह शहर गादिपुरी से गाज़ीपुर हो गया। रास्ते भी वही रहे, गलियाँ भी वही रहीं, मकान भी वही रहे, नाम बदल गया - नाम शायद एक ऊपरी खोल होता है जिसे बदला जा सकता है। नाम का व्यक्तित्व से कोई अटूट रिश्ता नहीं होता शायद क्योंकि यदि ऐसा होता तो गाज़ीपुर बनकर गादिपुरी को भी बदल जाना चाहिये या फिर कम से कम इतना होता कि हारने वाले ठाकुर, ब्राह्मण, कायस्थ, अहीर, भर और चमार अपने को गादिपुरी कहते और जीतने वाले सय्यद, शेख और पठान अपने को गाज़ीपुरी। परंतु ऐसा नहीं हुआ। सब गाज़ीपुरी हैं और अगर शहर का नाम न बदला होता तो सब गादिपुरी होते। ये नये नाम हैं बड़े दिलचस्प। अरबी का 'फतह' हिंदी के 'गढ़' में घुलकर एक इकाई बन जाता है। इसीलिये पाकिस्ता बन जाने के बाद भी पाकिस्तान की हकीकत मेरी समझ में नहीं आती। अगर 'अली' को 'गढ़' से, 'गाज़ी' को 'पुर' से और 'दिलदार' का 'नगर' से अलग कर दिया जायेगा ता बस्तियाँ वीरान और बेनाम हो जायेंगी और अगर 'इमाम' को 'बाड़े' से निकाल दिया गया तो मोहर्रम कैसे होगा!
आधा गाँव (राजकमल पेपरबैक्स, पृ. 12)

आधा गाँव का आरंभिक लगभग आधा हिस्सा विभाजन की राजनीतिक उथल-पुथल का सीधा चित्रण नहीं करता। कुछ युवा पात्र, जो अलीगढ़ की यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं और गंगौली में छुट्टियों में अपने घर आते हैं, जिन्ना और पाकिस्तान की बातें करते हैं, लेकिन उनकी बातें काफी हद तक बेअसर रहती हैं। उपन्यास का एक हिस्सा शिया मुसलमानों के सामंती कुलीन तंत्र के पतनशील ताने-बाने के भीतर संबंधों के व्यापक रचाव-बसाव को पूरी बेबाकी से उजागर करता है। विभाजन से जुड़ी राजनीतिक उथल-पुथल का असर उपन्यास के दूसरे हिस्से में दर्ज़ हैं। सांप्रदायिकता का ज़हर इस कदर फैलता है कि ''गंगौली मेरा गाँव है, मक्का मेरा शहर नहीं है। यह मेरा घर है और काबा अल्लाह मियाँ का।'' जैसे वाक्य बोलने वाला तन्नू पाकिस्तान चला जाता है, और सन 42 के आंदोलन में शहीद होने वाले फुन्नन मियाँ के बेटे मुमताज़ का ज़िक्र न तो काँग्रेसी नेता अपनी तकरीर में करते हैं और न ही कासिमाबाद की समाधि पर उसका नाम दर्ज़ होता है।
आधा गाँव अपनी विश्वसनीयता अर्जित करता है उस देशीयता से जिसकी जड़ें देश की मिट्टी में गहरी जमीं हैं। उपन्यास का शिल्प, उसकी संरचना, उसके शब्द, मुस्लिम यथार्थ की संवेदनशील अभिव्यक्तियाँ इस देशीयता की छाप और उसकी महक से सराबोर है। यथार्थ का यह ठेठ देशज ठाठ विभाजन के उस भाष्य को कड़ी चुनौती देता है जिसका प्रचार अंग्रेज़ों और मुस्लिम लीग के ''द्विराष्ट्र सिद्धांत'' और संघ परिवार के ''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'' की आधिकारिक अवधारणाओं ने पूरे ज़ोर-शोर से किया था। इसलिए उपन्यास को कुलीन शिया मुसलमानों के रीति-रिवाज़ों और यथार्थ को दर्शाने वाला मात्र एक महत्वपूर्ण आँचलिक दस्तावेज मानना भूल होगी।
राही मासूम रज़ा ने आधा गाँव में पात्रों के जिस जीवंत संसार को रचा है वह विभाजन के दौर की राजनीतिक और ऐतिहासिक जटिलताओं एवं उलझावों का, अपने विराट औपन्यासिक विस्तार में, समग्र रूप से संश्लेषण करने में सफल होता है। सन 37 में भारत की जनता को जो सीमित मताधिकार प्राप्त हुआ था, और उस पर आधारित प्रांतीय असेंबली के पहले चुनाव हुए थे, उनमें निहित राजनीतिक स्वार्थपरता से लेकर, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सरकारी तंत्र द्वारा चंदा उगाहने के नाम पर होने वाले अत्याचारों और भ्रष्टाचार को, भारत छोड़ो आंदोलन के समानांतर चलने वाली सांप्रदायिक राजनीति का जैसा चित्रण यहाँ मिलता है, वह स्वतंत्रता संघर्ष और विभाजन की त्रासदी के वैकल्पिक विमर्श की प्रस्तावना बनता है, जिसे आधिकारिक वृत्तांतों ने लगातार हाशिये पर ढकेला है। जहाँ तक विभाजन का सवाल है, गंगौली खुद एक हाशिया है, क्योंकि वह कोई सरहदी इलाका नहीं है जहाँ बंटवारे की भौगोलिक रेखाएं खींची गयीं हों, और जहां विभाजन की सांप्रदायिक हिंसा के खूनी रंगों से भरे वीभत्स लिबासों और लाशों को प्रत्यक्ष देखा जा सकता हो। यहाँ के बाशिंदे भी जिन्ना और पाकिस्तान के कट्टर समर्थक नहीं हैं। फिर भी ''लोगों के गले में पाकिस्तान की कटी हुई नाल जिस फाँस की तरह पड़ी हुई थी वह तमाम लोगों का दम घोटे जा रही थी।'' यह सांप्रदायिकता का ताना-बाना है जो सत्ता के केंद्रों से लेकर गंगौली जैसे हाशियों तक फैला है। अब तक इस ताने-बाने और फैलाव की व्याख्या सत्ता-केंद्रों के नज़रियों से ही होती आयी है। रज़ा हिंदी के उन मुस्लिम कथाकारों की कतार में संभवत: पहले लेखक हैं, जिन्होंने हाशिये की निगाह से भारतीय समाज में सांप्रदायिकता के फैलते ज़हर को देखने और दिखाने की कोशिश पूरे साहस के साथ की है।
जिस मज़हबी तंगनज़री को आधार मानकर पाकिस्तान का निर्माण किया गया, आधा गाँव में रज़ा उसे सवालों के कठघरे में खड़ा करते हैं। ''मुसलमान-मुसलमान भाई-भाई होता है। इस्लाम ऊँच-नीच को नहीं मानता।'' मगर गंगौली के सामाजिक ताने-बाने की बारीक बुनावट को रज़ा इतनी कुशलता से उधेड़ते हैं कि यह मिथक मुसलमानों के सामाजिक विभाजन के यथार्थ के सामने ध्वस्त हो जाता है। मुहर्रम की मज़लिसों के कई दृश्य ऐसे हैं, जहाँ सामाजिक विषमता मुखर हो कर सामने आती है - ''तीन दरे के जिस हिस्से में फर्श नहीं था, उसमें जुलाहे बैठे हुए थे। चमारों व भरों के लड़के प्रसाद के लालच में तीन दरे के बाहर ज़मीन पर उकड़ू बैठे आपस में लड़ रहे थे।'' आर्थिक संपन्नता भी इस सामाजिक विषमता को भेद पाने में लाचार थी - ''रक़ियाने वाले लागे इतने दौलतमंत थे कि जब चाहे खड़े-खड़े पूरे गाँव को खरीद लें लेकिन ये कपड़े वाली कुर्सी पर नहीं बैठ सकते थे, इन लोगों के लिए लकड़ी या टीन की कुर्सी रखी जाती थी।'' सैय्यद खानदान का अब्बास और नीची जाति के राकी अनवारूल हसन का बेटा फारूक अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में सहपाठी हैं। फारूक आल-इंडिया मुस्लिम स्टूडेंट फेडेरेशन का उपसभापति है और अब्बास उसके पाकिस्तान संबंधी नज़रिये का कायल भी है। मगर गंगौली आने पर अब्बास फारूक से मिलने उसके घर केवल इसलिए नहीं जा सकता क्योंकि राकियों के यहाँ सय्यदों के लड़के नहीं जा सकते - ''मियाँ लोगों के सामने तो यह रकियाने जा नहीं सकता था, बड़े जूते पड़ते।'' या फिर ''किसी सय्यद ज़मींदार का लड़का किसी राकी बच्चे को 'भाई' कैसे कह सकता था।'' जिस तरह हिंदुओं में सवर्ण और अवर्ण के बीच का विभाजन व्यापक है, सामाजिक भेदभाव की वैसी ही व्याप्ति भारतीय मुसलमानों के बीच भी है। मुसलमानों के धार्मिक अवसरों पर होने वाले आयोजन थोड़ी देर के लिये भी इस भेदभाव को भंग करके समरसता का क्षणिक माहौल भी रच पाने में अक्षम हैं। भेदभाव का यह ज़हर मासूमों को भी नहीं बख्शता, बचपने की सहज चेष्टायें जब इस भेदभाव के पार जाने की कोशिश करती हैं तो उसे वहीं कुचल दिया जाता है और यह अहसास कराया जाता है कि कितना बड़ा गुनाह करने से उन्हें रोका गया है - ''उस दिन मैं पहली और आखिरी बार जुलाहों के लड़कों के साथ कबड्डी खेला था। ... मैं कबड्डी बोल रहा था और लगातार पाले की तरफ घिसट रहा था, मेरी कुहनियाँ छिल गयी थीं, घुटनों की खाल उतर गयी थी ... फिर एकदम से दो बड़े-बड़े खुरदुरे हाथों ने लड़कों को इधर-उधर फेंक दिया - ''अब तुंह लोगन अइसन लाट साहब होगइल बाड़ा की मीर साहेब के लइकन से कबड्डी खेलबा?'' यह आवाज़ गया अहीर की थी। लड़के डरकर भाग गये। मैं मुजरिमों की तरह गर्दन झुकाकर खड़ा हो गया। ... 'आप मियाँ हईं, आपके ई ना चाही।' उसने मुझे समझाया।'' गया अहीर अपनी हिंदू बिरादरी में स्वयं इसी भेदभाव का शिकार है। मगर मियाँ के बच्चों को इस तरह समझाने में उसे कोई उलझन महसूस नहीं होती। यह सामाजिक विषमता की धर्मनिर्पेक्षता के मारक असर की विश्वसनीय तस्वीर है! मुस्लिम लीग के मुस्लिम विमर्श भी इस विषमता से परे नहीं है। इसकी कलई पाकिस्तान का प्रचार करने आये अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं के बीच का यह संवाद खोलता है -
''फुस्सू मियाँ से तो भुगत लिया हमने, जवाद मियाँ का घर भी देख लिया। अब्बू मियाँ गये हुए हैं गाज़ीपुर। बस हम्माद मियाँ से भुगत लिया जाये तो दक्खिन पट्टी का सिलसिला खत्म हो जाए। रहे उत्तर पट्टी के मियाँ लोग तो उसका वोट तो हमारी जेब में है।''
''मगर ये जुलाहे?''
''इनके लिये तो मौलाना आज़ाद सुबहानी और मौलाना अब्दुल बाकी कल ही आ रहे हैं। मैं जुलाहों और बिहारियों से बातें नहीं कर सकता। दोनों साले मादरजात चूतिये होते हैं।''
याने मुस्लिम लीग के पाकिस्तान अभियान ने मुस्लिम समुदाय के अभिजात वर्ग के विषमतामूलक रवैयों, विश्वासों और अवधारणाओं का अपने हित साधन के लिये किस तरह खुलकर इस्तेमाल किया, उसकी बानगी यहाँ देखने को मिलती है। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान निर्माण के मूल में इस्लामी भाईचारे के जिस मिथ को आधार बनाया था, वह यहाँ तार-तार होता है।
आधा गाँव मज़हबी तंगनज़री के तमाम आयामों को ध्वस्त कता है। ऐसा ही एक आयाम है लीग का भाषा संबंधी नज़रिया। भाषा संबंधी इस नज़रिये को चुनौती देकर राही मासूम रज़ा ने बड़े साहस का काम किया है। रज़ा अपने उपन्यास में इस  धारणा का बिना किसी लागलपेट के खण्डन करते हैं कि उर्दू भारत के सारे मुसलमानों की आम भाषा है। उपन्यास में पूरी साफगोई से यह बात स्पष्ट होती है कि आम मुसलमान जहाँ रह गया वहाँ की स्थानीय भाषा ही उसकी भाषा बन गयी, उर्दू केवल अभिजातवर्ग की ही भाषा है। मुस्लिम लीग के कुलीन चरित्र का यहां भण्डाफोड़ होता है। उपन्यास से इसकी कुछ बानगियाँ पेश की जा सकती हैं, जैसे फुन्नन मियाँ और वाहिद मियाँ के बीच का यह संवाद -
''ई का भाई, तू हियाँ कइसे बइठ गयो?''
''अरे, त कहीं अउर बैठ जाओ।''
''क्यों बैठ जाऊँ मैं कहीं और।'' वाजिद दा ठेठ उर्दू में बोलने लगे।
''हई ल्यौ, तूं त लग्यो उर्दू बोले।''
यहाँ 'तूं त लग्यो उर्दू बोले' में जो तंज है, वह लीग के अभिजातवर्गीय चरित्र की बखिया उधेड़ता है। ऐसा ही तंज तन्नू द्वारा लीग के प्रचारको को दिये गये जवाब में मिलता है - ''आप लोगों ने तो उर्दू को मुसलमान कर दिया है।'' यानि उर्दू अभिजातवर्ग की भाषा है, केवल मुस्लिम अभिजातवर्ग की भाषा नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो उर्दू का आभिजात्य केवल मुसलमानों तक ही सीमित नहीं है। वह भारत के किसी भी धर्म के कुलीनों की भाषा हो सकने का माद्दा रखती है। आगे तन्नू व्यंग्य करता है - ''पाकिस्तान बनने के बाद आप इस उर्दू को यहां छोड़ जायेंगे या अपने साथ ले जायेंगे?'' जब परशुराम चमार एम.एल.ए. बन जाता है और शहर की कुलीनों वाली भाषा बोलने लगता है तो फुन्नन मियाँ फिर व्यंग्य करते हैं - ''तैं त काँग्रेसी होके अपनी जबनियो भुल गया।''
आधा गाँव के औपन्यासिक विस्तार को राही मासूम रज़ा ने उन जगहों, घटनाओं और पात्रों से आबाद किया है जिनकी आज़ादी और विभाजन के आधिकारिक वृत्तांतों में जानबूझकर अवहेलना की गयी। आधा गाँव में कुलीन सैय्यद है, तो दूसरी तरफ राकियों, जुलाहों और अहीरों की भूमिका भी उनसे कम महत्वपूर्ण नहीं है। सैय्यद बीबियों और उनकी औलादों की कहानियाँ हैं, तो नीच समझी जाने वाली बो और रखैलों एवं उनकी संतानों तथा चमाइनों और जुलाहिनों के किस्से भी कम नहीं हैं। इन स्त्री पात्रों को ऐयाशी का साधन समझाने वाली कुलीन सैय्यदों की पितृसत्तात्मक दृष्टि को उपन्यास पूरी बेबाकी से उजागर करता है। इस पितृसत्तात्मक दृष्टि से दोगलेपन को उपन्यास वहाँ सबसे ज़्यादा चुनौती देता है, जहाँ वह नीच समझी जाने वाली स्त्रियों के सौंदर्य का वर्णन करने के लिए भाषा के बेबाक लहज़े का इस्तेमाल करता है। ''झंगटिया बो काली मगर बला की खूबसूरत, सोंधी और मीठी'' है, ''बिल्कुल ताज़ा गुड़ की तरह, जिसमें अभी भाप निकल रही हो। ''सैफुनिया नाईन की छातियाँ ''लंगड़े आमों की तरह तैयार'', ''बारीक कुर्ते के अंदर चोली से निकल पड़ रहीं थीं।'' या फिर जुलाहिन कुलसुम में ''क्या रखा है? उसकी कसी कसाई कच्चे अमरूद जैसी छातियाँ लटक चुकी थीं।'' भाषा के इसी बेबाक लहज़े के कारण आधा गाँव पर अश्लीलता का आरोप भी लगा था। मगर यह ध्यान रखना होगा कि भाषा के इस बेबाक लहज़े का इस्तेमाल रज़ा ने उपकरण की तरह किया है, स्त्रियों के प्रति सामंती नज़रिये के पाखण्ड की पोल खोलने के लिये।
कासिमाबाद के थाने को फँूके जाने की घटना महत्वपूर्ण है जो आधिकारिक वृत्तांतों में इसलिए जगह नहीं पा पाती क्योंकि चौरी-चौरा काण्ड की तरह थाने को फूँकने वाली भीड़ काँग्रेसियों और गांधी के अनुयायियों की नहीं थी। कासिमाबाद थाने को फूँकने वालों को न तो काँग्रेसियों से मतलब था और ही ब्रिटिश हुकूमत से। उनका रोष सीधे-सीधे उन सरकारी कारिंदों और मुलाज़िमों के प्रति था जो उनका शोषण किया करते थे - ''इस मजमें में ऐसे लोग कम थे, जिन्हें 'हिंदुस्तान छोड़ दो' के नारे की खबर रही हो। उनमें ऐसे लोग भी नहीं थे, जिन्हें आज़ादी का मफहूम मालूम हो। ये लोग वह थे जिनसे ड्योढ़ा लगान लिया गया था, जिनके खेतों से अनाज छीन लिया गया था, जिनसे ज़बरदस्ती वार फण्ड लिया गया था। जिनके भाई-भतीजे लड़ाई के काम आ गये थे या काम आने वाले थे और जिनसे थाना कासिमाबाद कई पुश्तों से रिश्वत ले रहा था। उनमें कोमिला चमार का बाप बाबूराम चमार था - बल्कि बाबूराम चमार थे। उनमें गोबर धन था।'' थाना फूँकने के जुर्म में झिंगुरिया को फाँसी की सज़ा हो जाती है और झिंगुरिया के बेटे को यह तक पता नहीं होता कि उसका बाप ''शहीद'' हुआ है। जब उसे यह समझाया जाता है कि उसका बाप वतन के लिये शहीद हुआ है तो वह यह मानने से इंकार कर देता है। वह कहता है - ''ऐसन मत करें, मास्टर साहिब इमाम साहिब गुसा गैलन ना त उपद्दरो हो जाई।'' कारण कि उसने शहादत के संदर्भ में हमेशा इमाम हुसैन का नाम ही सुना था।
झिंगुरिया का बेटा छिकुरिया अगर इमाम हुसैन को एकमात्र शहीद मानता है तो इसकी वजह उसी गंगौली की सामाजिक संरचना में मौजूद है, जिसका कि वह हिस्सा है। इस सामाजिक संरचना में ''सोजखानों के आगे लट्ठबंद अहीरों का एक गोल होता। यह ताजिया इतना बड़ा हुआ करता था कि गाँव की गलियों से नहीं निकल सकता था। उलतियाँ गिरानी पड़ती। लट्ठबंद अहीरों का गोल उलतियों को गिराने के लिये बड़े ताजिये के आगे-आगे चला करता था।'' हिंदु-मुस्लिम सद्भाव की जो तस्वीर यहाँ उभरती है, उसके मूल में भारतीय इतिहास के महज़ चंद राजवंशों, हुकूमतों और रजवाड़ों की सदिच्छा ही नहीं है। इसके मूल में वास्तविक भूमिका भारतीय इतिहास के हर दौर में पनपने वाले भौतिक उत्पादन के सामाजिक संबंधों की है। इन्हीं संबंधों ने विभिन्न धर्मों के बीच सद्भावना, सौहार्द और भाईचारे की संस्कृति को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। यह भी सही है कि कुछ राजवंशों ने इस सद्भाव को पुष्ट करने के लिये ज़रूरी कदम उठाये। मगर आधा गाँव में गंगौली के सामंती समाज के पतनशील उत्पादन संबंधों को बरकरार रखने के लिये, अपनी हुकूमत को बनाये रखने के लिये ज़मींदारों को लट्ठबंद अहीरों, चमारों और भरों का ही सहारा था। यह गंगौली की ही विशिष्ट सरंचना नहीं थी। अठारहवीं शताब्दी (जिसे भारतीय इतिहास के संदर्भ में 'अहंकार युग' की संज्ञा दी जाती है) से ही भारत में पतनशील सामाजिक संबंधों को बनाये रखने के लिये मुस्लिम शासकों को हिंदू मनसबदारों का सहयोग और हिंदू शासकों को मुस्लिम खिदमतगारों का सहयोग मिलता रहा है। लंबे समय से भारतीय ग्रामीणों के बीच यह धारणा व्याप्त रही है कि ज़मींदार शोषण करेगा ही, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। इसलिये रय्यत और ज़मींदारों के बीच प्रणय-कलह के जो भी संबंध बने और बिगड़े वह साम्प्रदायिक विद्वेष के दायरे से हमेशा बाहर रहे - चाहे रय्यत हिंदू रही हो और ज़मींदार मुसलमान, या फिर इसका उलटा रहा हो। हिंदू-मुस्लिम सद्भाव का एक यथार्थ यह भी है, जो गंगौली के सामाजिक संबंधों में अभिव्यक्त होता है। यही यथार्थ छिकुरिया चमार से कहलवाता है कि ''ज़मींदारन के जुलम के हम ना कहत बाड़ी, बाकी जेहेके पास ज़मींदारी होई उहके जुलुम करे का पड़ी। ना करी तो ज़मींदारी ना चली, औरी मियँहु लोग ज़मींदारे हौवन। हम त ई देखत बाड़ी कि बारिख पुर के ठाकुरो साहिब जुलुम करे में गंगौलीके मियों लोगन से कम ना हौवन...।'' इसी स्वीकृति का परिणाम है कि वह कहता है ''जहाँ फुन्नन मियाँ का पसीना गिरी न, हुआं समूचा भर टोली मर ना जाई।'' ठाकुर जयपाल सिंह भी इसी यथार्थ के कारण अपने गाँव के जुलाहों, कुंजड़ों और हज्जामों की रक्षा जी जान से करते हैं - ''गाँव से जाय का नाम लेवा लोग त माई चोद के न रख देइब। हई देखा भुसडिय़ावालन का। जात बाडऩ लोग मऊ मुबारकपुर गाँड़ मराये...।'' गाँव के चमार की यह प्रतिक्रिया कि ''हमनी के जीयत कोऊ मियाँ लोगन की बहन मतारी तरफ देख सकेला?'', यह यथार्थ के भीतर बड़ी सहज है। इस सहजता को 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' और 'हिंदू राष्ट्रवाद' के विमर्शकार कभी समझ ही नहीं सकते।
मुस्लिम लीग के इतिहासकारों ने विभाजन को मुसलमानों के हित में व्याख्यायित किया तो हिंदू राष्ट्रवादियों ने इसे हिंदू हितों पर करारे आघात के रूप में प्रचारित किया। मगर आधा गाँव विभाजन संबंधी तमाम शासकीय अवधारणाओं में सुराख करते हुए पूरी शिद्दत से इस बात को विश्वसनीयता से अभिव्यक्त करता है कि भारतीय उपमहाद्वीप का बँटवारा आम भारतीय मुसलमानों के हितों के पूरी तरह प्रतिकूल था। विभाजन आम भारतीय मुसलमानों पर गाज बनकर गिरा। लेखक की यह मार्मिक अभिव्यक्ति इसकी ताकीद करती है -
मेरे लिये यह बात दुखदायी नहीं कि सफिरवा पाकिस्तान में सय्यद हो गया। हो गया होगा। और कयन कह सकता है कि उसकी रगों में किसी खासुल-खास ज़ैदी सय्यद का खून न होगा? लेकिन मैं सल्लो और उसकी बेटी शाहिदा के लिये परेशान हूँ जिन्हें तन्नु यहाँ छोड़ गया है और जिन्हें रात दिन रब्बन बी कोसा करती है। सल्लो कोसने सुन-सुनकर शाहिदा को पीटती है - सवाल यह है कि शाहिदा बढ़कर कैसी माँ बनेगी? सवाल यह है कि कुद्दन ने जब पाकिस्तान में एक और शादी कर ली है तो हिंदुस्तान में ह$कीम अली कबीर के पोतों और पोतियों की  पूरी खेप का क्या बनेगा?... इसी तरह के और सवाल भी हैं।
जनसंघ का सवाल है कि मुसलमान यहाँ के नहीं हैं। मेरी क्या मजाल कि मैं उसे झुठलाऊँ! मगर यह कहना ही पड़ता है कि मैं गाज़ीपुर का हूँ। गंगौली से मेरा संबंध अटूट है। वह एक गाँव ही नहीं है। वह मेरा घर भी है। घर! यह शब्द दुनिया की हर बोली और भाषा में है और हर बोली और भाषा में यह उसका सबसे खूबसूरत शब्द है। इसलिये मैं उस बात को फिर दुहराता हूँ। मैं गंगोली का हूँ क्योंकि वह केवल एक गांव ही नहीं है। क्योंकि वह मेरा घर भी है। 'क्योंकि'... यह शब्द कितना मजबूत है। और इसी तरह के हज़ारों-हज़ार 'क्योंकि' और हैं और कोई तलवार इतनी तेज़ नहीं हो सकती जो इस 'क्योंकि' को काट दे! और जब तक यह 'क्योंकि' ज़िंदा है मैं सय्यद मासूम रज़ा आब्दी गाज़ीपुर ही का रहूँगा चाहे मेरे दादा कहीं के रहे हों। और मैं किसी को यह हक नहीं देता कि वह मुझसे यह कहे, ''रही! तुम गंगौली के नहीं हो। इसलिये गंगौली छोड़कर, मिसाल के तौर पर रायबरेली, चले जाओ।'' क्यों चला जाऊँ सहब मैं? मैं तो नहीं जाता।
आधा गाँव वह अकेला उपन्यास है, जो विभाजन के बरक्स भारतीय मुसलमानों के कठोर और संघर्षपूर्ण यथार्थ का राजनीतिक और ऐतिहासिक 'क्रिटीक' रचता है। यह 'क्रिटीक' आँचलिक है। मगर यह आँचलिकता क्षेत्रीय दायरों का अतिक्रमण करके विभाजन के संबंध में भारत की आम जनता के अनुभवों में घुल मिल जाती है। इस तरह यह 'क्रिटीक' पूरी तरह भारतीय है। पूरे साहस के साथ और तमाम शासकीय अवधारणाओं को चुनौती देते हुए आधा गाँव इस महाद्वीप के मुसलमानों के अनुभव की भारतीयता को महाकाव्यात्मक आयामों में अभिव्यक्त करता है।


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