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दिसम्बर 2013

ज़मीन का आखिरी टुकड़ा

जितेन्द्र भाटिया


ज़मीन का आखिरी टुकड़ा*
इब्राहीम शरीफ की एक चचित कहानी के शीर्षक से साभार

हमारे समकालीन मुहावरे में 'विकास' शब्द की परिभाषा कभी-कभी बहुत धोखादेह और विभ्रम में डाल देने वाली होती है। इस समय दुनिया में चल रहे सर्वव्यापी 'विकास' को यदि बहुत बारीकी से देखा जाए तो हम पाएंगे कि इसका अधिकांश हिस्सा पहले से सम्पन्न और प्रभुताशाली वर्ग के हितों के प्रति समर्पित है, जब कि दुनिया के बड़े खस्ताहाल वर्ग के पाले में इस चमकीले विकास का बहुत छोटा अंश या सिर्फ वह हिस्सा आता है जिसमें इस बड़े वर्ग के 'उपभोक्ता' बनकर सम्पन्न शक्तियों को और अधिक लाभ पहुंचाने की अपार संभावनएं दिखाई देती हों। समाज और खास तौर पर राजनीति में 'बहुजन सुखाय' का फार्मूला तब तक अस्पृश्य बना रहता है जब तक इसके ज़रिए किन्हीं खास लोगों, राजनीतिज्ञों और व्यवसायियों का कोई तत्काल या दीर्घकालीन स्वार्थ सधता न दिखाई देता हो। चुनाव के पांच वर्षीय चक्र में राजनीतिक पार्टियां पहले चार वर्षों तक भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी रहती हैं, फिर पांचवें वर्ष में उनके लिए अपने किए पर लीपा-पोती करने और यहां-वहां 'विकास' के नाम पर वोट खींचने वाली योजनाओं को झोले से बाहर निकालने का वक्त आता है।
मेरे अपने राज्य राजस्थान में इन दिनों विकास की लहर अपने चरम पर है। समाचार पत्रों के भीतर ऊपरी कोने पर आजकल एक सौ (या एक हजार?) सूत्री सीरियल चल रहा है जिसमें हर रोज़ हमें प्रदेश में उठाए गए एक अभूतपूर्व कदम की जानकारी दी जाती है, मुख्यमंत्री के सुशोभित चित्र के साथ, कि ऐसा 'राजस्थान में पहली बार' हो रहा है। स्वतंत्रता के 66 वर्ष गुज़र चुकने के बाद, प्रदेश में आम चुनावों से ठीक पहले, जनता-जनार्दन के जीर्णोद्धार की यह थोथी नौटंकी किन लोगों को विश्वसनीय लगती होगी, यह समझ पाना ज़रा कठिन है। लेकिन उतने ही शर्मसार, उतने ही जन-भावना में साष्टांग डुबकी लगाकर आए प्रतिपक्ष के नेता भी मौका लगते ही अपनी-अपनी दुधारी तलवारें भांजने के लिए उतने ही तत्पर दिखाई देते हैं। सांपनाथ और नागनाथ की इस नगरी में किसका यकीन करें? हमें बरबस ही मियां गालिब की याद हो आती है—

की मेरे कत्ल के बाद उसने जफा से तौबा
हाय उस जूद-पशेमां का पशेमां होना!

पिछले तीन-चार सालों में बांटे गए हजारों रुपयों के चुनावी वादों का कच्चा चिट्ठा खोलते हुए एक अखबार लिखता है कि 'चुनावी तोहफों में से 90 फीसदी' अंतत: धोखा साबित होते हैं। यदि यह सच है तो क्या इस देश का सर्वोच्च न्यायालय इन बेईमानों और झूठों और इनके द्वारा दिए गए वादों के विरुद्ध चार सौ बीस का मामला दर्ज नहीं कर सकता?
दिक्कत यह है कि दुकानदारी, वकालत और कोयले की दलाली की तरह राजनीति भी आज एक धंधा भर रह गयी है, जिसमें अलग अलग मतों और चुनाव चिन्हों के बावजूद सियासतदानों में से एक के वर्गचरित्र को दूसरे से अलग देखना या उसमें फर्क कर पाना लगभग असंभव हो गया है। सिनेमाई ज़बान का सहारा लें तो कमाल अमरोही, कैफी आज़मी और मजरूह की सम्मिलित कलम से निकले  फिल्मी गीत की तर्ज में हकीकत जान चुकने के बाद भी किसी माई के लाल में जुर्रत नहीं है कि रंगरेज, बजाज या सिपहिया में से किसी एक से सीधे-सीधे पूछ उसकी ओर उंगली उठा सके कि 'इन्हीं लोगों ने, इन्हीं लोगों ने छीना दुपट्टा मेरा...'
चुनावों का मौसम करीब आ रहा है और सियासत के नुमाइंदे वोट के बदले फर्ज़ी रेवडिय़ां बांटने की अनिवार्य कवायद में जुट गए हैं। आप किसी खास दल की ओर उंगली नहीं उठा सकते क्योंकि इस गुलशन की हर डाल पर आपको लक्ष्मी के वाहकों या एजेंटों की नायाब नुमाइश मिलेगी। हर नुमाइंदा अपनी कुर्सी सुरक्षित कर लेना चाहता है। जनतंत्र के इस सिद्धांत में उसका दृढ़ विश्वास है कि मतदाताओं में 90 प्रतिशत की याददाश्त बेहद कमज़ोर होती है और चुनावों में चंद महीने पहले की मशक्कत के ज़रिए पिछले पांच वर्षों की अयोग्यता और भ्रष्टाचार के सारे दाग, चुनाव प्रचार में 'सर्फ एक्सेल' की तरह इस बखूबी से हटाए जा सकते हैं कि ऐडवर्टाइजिंग की भाषा में अंतत: बहुत शान से सफेद चादर फैलाकर कहा जा सके कि 'दाग अच्छे हैं!'
राजनीतिज्ञों की नीयत पर पुनर्विचार करने की बची-खुची संभावना भी हाल ही में उस समय समाप्त हो गयी जब सभी दलों ने समवेत स्वर में फैसला लिया कि 2005 में बने सूचना के अधिकार संबंधी विधेयक (आर टी आई) में संशोधन कर राजनीतिक दलों को इसके दायरे से बाहर रक्खा जाए। दृष्टव्य है कि पिछली जून में ही केंद्रीय सूचना आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को आर टी आई के दायरे में लाने का फैसला सुनाया था। आयोग का मानना था कि राजनीतिक दल सार्वजनिक संस्थाओं की तरह काम करते हैं और इसीलिए इनकी गतिविधियों के बारे में जानने का अधिकार जनता को है। आर टी आई में अब जो संशोधन सभी राजनीतिक दलों के समर्थन से पारित किया जाएगा (शायद इस कड़ी के छपने तक वह पारित भी हो जाएं), उसमें राजनीतिक दलों को सार्वजनिक संस्थाओं की परिभाषा से बाहर रखने का प्रस्ताव है। यानी अब राजनीतिक दलों या उनकी पारदर्शिता को लेकर आप कोई सवाल नहीं उठा पाएंगे। फिर से फिल्मी ज़बान में कहा जाए तो —

पर्दे में रहने दो, पर्दा न उठाओ
पर्दा जो उठ गया तो राज़ खुल जाएगा
अल्लाह मेरी तौबा, अल्लाह मेरी तौबा!

यही नहीं, 10 जुलाई को उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया था कि जिस विधायक या सांसद को 2 साल से अधिक समय की जेल की सजा होती है, उसे जन-प्रतिनिधित्व के लिए अयोग्य मानते हुए तुरंत अपने पद से हटा दिया जाए और इसके लिए अपील तक का समय भी अस्वीकार्य हो! अभी हाल में 1 अगस्त को हुई सर्वदलीय बैठक में इस फैसले का विरोध किया गया है और बताया जाता है कांग्रेस सहित सभी दल इस फैसले को बदलने के पक्ष में हैं। सरकार और विपक्ष के बीच इतनी एकात्मता किसी दूसरे मुद्दे पर आज तक देखने को नहीं मिली है। जाहिर है कि धंधे की लड़ाई में प्रतियोगियों के बीच के वैचारिक मतभेद कोई मायने नहीं रखते हैं।  आपको याद होगा कि कुछ वर्ष पहले विज्ञान एवं पर्यावरण की सुनीता नारायण ने जब सॉफ्ट ड्रिंक्स के सैम्पलों में सूचित मात्रा से अधिक कीटनाशक होने का मामला उठाया था तो अदालत में यह मुकदमा पेप्सी ने अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी कोकाकोला के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ा था। कुछ इसी अंदाज़ में राजनीति के 'चोर-चोर मौसेरे भाई' आज अपने-अपने दागी सांसदों और विधायकों को बचाने के लिए एकजुट होकर उच्चतम न्यायालय का फैसला बदलने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। राजनीति में बेशर्मी की इससे बड़ी दूसरी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं देखने को मिले। राजनीतिज्ञों के भ्रष्टाचार ही नहीं, उनके आपराधिक रुझान को देखकर भी दांतों के तले उंगली दबानी पड़ेगी। हमारे देश में जो कुल 4807 सांसद और विधायक है उनमें से तीस प्रतिशत यानी 1460 के खिलाफ अदालतों में आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। लोकसभा के 543 सांसदों में से 162 यानी 30 प्रतिशत पर आपराधिक केस हैं और इनमें से 76 यानी 14 प्रतिशत पर गंभीर किस्म के आपराधिक मामले हैं। राज्यसभा में 232 में से 40 यानी 17 प्रतिशत पर आपराधिक मुकदमे दायर हैं और इनमें से 16 यानी 7 प्रतिशत के मामले अत्यंत गंभीर हैं। राज्यसभा में लोकसभा के मुकाबले दागी सदस्यों का प्रतिशत कम होने की एक वजह यह भी हो सकती है कि राज्यसभा में सामाजिक क्षेत्रों के प्रतिनिधि भी शामिल होते हैं और इनमें से अधिकांश की छवि साफ होती है। अब आइए राज्यों की विधान सभा पर। देश भर के 4032 विधायकों में से 1258 यानी 31 प्रतिशत विधायकों पर आपराधिक केस चल रहे हैं, जिनमें से 15 प्रतिशत (यानी दागी में से आधे) विधायकों पर काफी गंभीर आरोप लगे हुए हैं। अब जरा विभिन्न राजनीतिक दलों का जायज़ा ले लें। कांग्रेस की टिकट पर आए सांसद और विधायक में से 21 प्रतिशत दागी है। भाजपा के 31 प्रतिशत और समाजवादी पार्टी के 48 प्रतिशत सांसद/विधायकों पर आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं। उधर बिहार में 58 प्रतिशत और यू पी में 47 प्रतिशत विधायक आपराधिक मामलों में कठघरे में हैं। (सभी आंकड़े 'दैनिक भास्कर' और 'सोशल वॉच इंडिया' के सौजन्य से)
अब आप ही बताइये कि इतने सारे दागी नेताओं को यदि उच्चतम न्यायालय के अनुसार पदों और चुनावों के लिए अयोग्य ठहरा दिया जाएगा तो इन दलों में फिर बाकी कौन बचेगा? कुछ साल पहले अन्ना की टीम ने जब ये सवाल उठाए थे तो सांसदों का ेलगा था कि उनकी राजनीतिक सत्ता को चुनौती दी जा रही है। लेकिन यही हमारे देश की वास्तविक स्थिति है। दुखद यह है कि अपने साथियों के साथ-साथ अन्ना भी आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाना भूल, अमरीका में जा, वहां के स्टॉक एक्सचेंज की घंटी बजाने को अधिक तरजीह देने लगे हैं। ऐसे में नैतिक सवाल उठाने के लिए इस समाज में किसके पास वक्त बचा है?
व्यवसाय और राजनीति के हितों के बीच का चोली-दामन का साथ आज कदम-कदम पर देखने को मिल रहा है। अब इस भ्रष्टाचार के त्रिकोण की तदीसरी नोक पर 'अपराध' को सहज ही जोड़ा जा सकता है। यही नहीं, इस शुमारे में यदि कानून की दृष्टि से गलत समझे जाने वाले अपराधों के अतिरिक्त सत्ता के नाजायज़ इस्तेमाल से 'जल-जंगल और जमीन' की बंदर-बांट और नोच-खसोट को भी शामिल कर लिया जाए तो यू पी ए से एन डी ए और कांग्रेस से बी जे पी, समाजवादी और बहुजन समाज, इन सभी पार्टियों के प्रमुखों या उनके रिश्तेदारों के नाम एक सिरे से इस काली सूची में दिखाई दे जाएंगे। आप कहां तक और किस किस की गिनती करेंगे?
इस दहला देने वाले परिदृश्य का सबसे भयावह पक्ष यह है कि चुनावों से पहले बांटी गयी रेवडिय़ों के झांसे में आकर हम अपने प्रतिनिधियों के रूप में फिर-फिर उन्हीं सांसदों और विधायकों को चुनकर विजयी बनाएंगे, जिनकी सबसे उपयुक्त जगह संसद या विधान-सभाओं की जगह जेल की सलाखों के पीछे है।

* * *

यूं तो इस धरती पर 'जल', 'जंगल' और 'ज़मीन' की लड़ाई आदिकाल से चली आ रही है, लेकिन पिछली कुछ शताब्दियों के दौरान इंसान के साम्राज्यवादी इरादों के चलते, दुनिया के बहुत बड़े वंचित तबके के लिए इसे बचाने की यह लड़ाई अब जीवन-मरण का प्रश्न बनती चली जा रही है। इनमें भी ज़मीन की लड़ाई सबसे संगीन है क्योंकि जल और जंगल को तो एक हद तक पुनर्जीवन के द्वारा फिर से वापस लौटाया जा सकता है, लेकन ज़मीन का क्षेत्रफल सुनिश्चित है, इसमें इज़ाफे की बहुत कम संभावना है (यदि समुद्र से 'रीक्लेम' की गयी थोड़ी बहुत ज़मीन को नज़रअंदाज कर दिया जाए)। जीवन, समाज और टेक्नॉलॉजी का 'विकास' अपने हर कदम के लिए ज़मीन की मांग करता है और हम देखते हैं कि इस 'विकास' की सबसे बड़ी कीमत अपने कुल जमा पूंजी यानी ज़मीन देकर चुकाता है समाज का वह सबसे गरीब और पिछड़ा वर्ग, जिसकी इस तथाकथित 'विकास' से लाभान्वित होने की संभावना सबसे कम होती है। विकास की यह आँधी समीकरण सदियों से चली आ रही है। मानवता के इतिहास में लगभग सभी लड़ाइयां उपनिवेशवाद के लिए लड़ी गयी हैं और राजा महाराजाओं का युग चाहे खत्म हो गया हो, लेकिन उपनिवेशवाद के लिए ज़मीन की जद्दोजेहद आज भी उसी तरह बेदस्तूर चल रही है। 'विकास' के हथिया लेने की सैनिक कार्रवाई के अलावा भी छल-बल, कानून या छद्म से विकल्पहीन, निहत्थे सर्वहारा को अपनी पुश्तैनी जमीनों से बेदखल किए जाने की साज़िश हम हर ओर देख सकते हैं, भले ही इसकी भयावहता मीडिया की तमाम पहुंच के बावजूद हम जड़ हो चुके शहरियों की अंतरात्मा तक न पहुंच पाती हो। सदियों पहले कोलम्बस द्वारा लाखों रेड इंडियनों को कत्लेआम कर खाली की गयी ज़मीन के किस्सों से, ऑस्ट्रेलिया/न्यूज़ीलैंड में वहां के 'माओरी' जाती के मूल पर ढाए गए अत्याचारों, निवासियों हुगली के तट पर लंगर डालकर उतरी ईस्ट इंडिया फौज की भारतीय कार्रवाई या हाल ही में भारतीय सरकार द्वारा जोर-जबर्दस्ती से पूर्वी भारत में कोरियन स्टील दैत्य पोस्को के नाम स्थानांतरित की जा रही है सैंकड़ों-हज़ारों निरीह किसानों की छोटी-मोटी ज़मीनों की दर्दनाक कहानियां एकदूसरे से बहुत अलग नहीं हैं। अनेकानेक अंचलों में उग्र और नक्सलवादी कार्रवाईयों और स्थानीय ग्रामीणों द्वारा उनके प्रत्यक्ष या चोरी-छिपे समर्थन के मर्म में भी ज़मीन का यही दर्द शामिल है। और देखा जाए तो ज़मीन के साथ-साथ उसके भीतर दबे कोयले के भंडारों के पट्टे रिश्वत के आधार पर सरमाएदारों के नाम लिखे जाने के तमाम स्कैम, उपजाऊ जमीन को बंजर घोषित कराकर दलालों के जरिए बेचने की सीनाजोरी और सरकारी मिलीभगत से नदी के पाटों से रातों-रात ट्रकों से भर-भरकर चुरायी जाती बालू की अवैध वारदातें — इन सबके तार भी इक्कीसवीं सदी में ज़मीन या मिट्टी या कोयला उगाहने या जंगल काटने के उस महा अभियान से जुड़े हुए हैं जिसे आज हम वैश्वीकरण, निजीकरण, औद्योगिक विकास, प्रगति, 'क्रिएशन ऑफ वेल्थ', ग्राम जागरण, उदारीकरण और न जाने किन-किन सकारात्मक विशेषणों से पुकारते हैं।
अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद भी हम अंग्रेज़ी सरकार के जिन साम्राज्यवादी तौर-तरीकों को विरासत के रूप में लिए चले आ रहे हैं, उनमें से एक है हमारा भूमि अधिग्रहण संबंधी पुराना कानून। अंग्रेज़ों द्वारा यह अधिनियम सबसे पहले 1824 में बंगाल प्रांत के लिए लागू किया गया था। उस समय भारत में सड़कों और नहरों के साथ-साथ रेलमार्ग का जाल बिछाया जा रहा था और ब्रिटिश सरकार को इसके लिए लोगों से ज़मीन खरीदने और उन्हें एक नियम के अनुसार तयशुदा और जायज मुआवज़ा देने की ज़रूरत थी। कई संशोधनों और सुधारों के बाद 1894 में इसे भूमि अधिग्रहण अधिनियम या ऐक्ट के रूप में पारित कर पूरे देश पर लागू कर दिया गया। 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद भारतीय सरकार ने इस अधिनियम को ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया, हालांकि समय समय पर इसमें छोटे-बड़े संशोधन होते रहे हैं। स्वतंत्रता के लगभग 70 साल गुज़र जाने के बाद भी यह अधिनियम अपने चपेट में हजारों-लाखों विस्थापितों की करुण कथाएं समेटे उसी तरह चला जा रहा है। 'देश-निर्माण' और 'प्रगति' के नाम पर इस अधिनियम के अनुसार सरकार अपने समाज-संबंधी कार्यों के लिए कोई भी ज़मीन ले सकती है। इसी तरह इसमें ज़मीन लेकर उसे कारखानों या दूसरे व्यावसायिक कार्यों के लिए उद्योगपतियों को सौंप देने का भी प्रावधान है। कहना न होगा कि हमारे प्यारे भारतवर्ष में 'देश निर्माण' या 'प्रगति' का हर समाजसेवी कार्य अपने साथ भ्रष्टाचार और अवैध पैसा कमाने की अनंत संभावनाएं साथ लेकर आता है, फिर चाहे वह काम बांध या सड़कें बनाने का हो या कौडिय़ों के भाव अधिग्रहण की गयी ज़मीन पर नए कारखाने बनाने का। इस देश में हर सिविल और औद्योगिक ठेके के लिए बिचौलियों, एजेंटों, अंतर्राष्ट्रीय दलालों और योजनाओं को पास करवाने वालों का जो बृहद जाल बिछा हुआ है, उसके तार सीधे अधिकारियों और राजनीतिज्ञों से जुड़े हैं। हर काम के लिए ऊपर से नीचे तक घूस की दरें, अधिनियमों के अनुच्छेदों से भी अधिक स्पष्ट और सीधी हैं। यह तंत्र पूरी तरह से ईमानदार व्यक्ति को सड़ी हुई मछली की तरह तालाब से बाहर फेंक देता है और इस दुनिया की परिभाषा में ईमानदार और लोकप्रिय अधिकारी वह है जो 'पैसे तो लेता है, लेकिन उसके बदले पक्के तौर पर अभीष्ट काम भी कर देता है!'
लेकिन भूमि अधिग्रहण के इस भ्रष्ट जाल के दूसरी ओर हज़ारों-लाखों की वह अभिशप्त जमात है जिसने इस विकास की सबसे बड़ी कीमत चुकाई है। 'एवरीबडी लव्ज़ अ गुड ड्रॉट' के चर्चित लेखक पी साईनाथ के अनुसार 1951 से 1990 के चालीस वर्षों के अंतराल में बांधों, नहरों, थर्मल और परमाणु बिजलीघरों, अभ्यारणों, बड़े उद्योगों और खदानों के लिए भूमि अधिग्रहण से देश में दो करोड़ से भी अधिक लोग विस्थापित हुए हैं जिन्हें सहज ही 'विकास के मारे विस्थापितों' की संज्ञा से नवाज़ा जा सकता है। आज, जबकि सरकार एक नए भूमि अधिग्रहण प्रस्ताव को मंजूरी देने की भूमिका में है, स्वयं सरकार की 'नेशनल पॉलिसी ऑफ रिहेबिलिटेशन' (पुनर्वास की राष्ट्रीय नीति) का यह वक्तव्य पूरी पोल खोल देता है कि '1951 से विस्थापित लोगों में से 75 प्रतिशत लोगों का पुनर्वास किया जाना अभी बाकी है'! दृष्टव्य यह भी है कि जब कोई नया बांध प्रस्तावित होता है तो उसके इर्दगिर्द रहने वाले ज़मीनों के मालिक ही इससे प्रभावित नहीं होते, बल्कि वे हज़ारों मजदूर, मछुआरे और कारीगर भी इसकी चपेट में आ जाते हैं जिनकी ज़मीन में कोई हिस्सेदारी नहीं होती और जो इस 'विकास' के परिणामस्वरूप किसी भी तरह के मुआवज़े के हकदार नहीं बनते।
एक बड़ी त्रासदी यह भी है कि विकास की ये बड़ी-बड़ी योजनाएं सबसे अधिक एक वर्ग-विशेष को जाने-अनजाने में निशाना बनाती हैं। और यह वर्ग है इन प्रदेशों में सदियों से रहते आए आदिवासियों का! नयी बांध योजनाओं के लिए अक्सर सुदूर अंचलों में बहाव वाली नदियों को चुना जाता है। बड़े कारखाने भी हमेशा शहरों से दूर अधिसूचित पिछड़े इलाकों में लगाए जाते हैं क्योंकि यहां प्रदूषण के मानदंड अपेक्षाकृत आसान होते हैं और यहां कारखाने बिठाने के लिए सरकार इनके मालिकों को भारी 'सब्सिडी' देती है। इसके अलावा इन्हें सस्ती दरों पर ब्याज़ मिलता है और कई बार प्रारंभिक पांच या दस वर्षों के लिए करों में भी छूट दी जाती है। लेकिन मालिकों को मिलने वाली इन रियायतों में इन अंचलों और पिछड़े इलाकों या जंगलों में बसने वाले गरीब आदिवासियों की कोई हिस्सेदारी नहीं होती, जबकि ये सारी योजनाएं सबसे अधिक इस तबके को भी प्रभावित करती हैं। एक अनुमान के अनुसार आज हर दस आदिवासियों में से एक विस्थापित है। एक अन्य अनुमान के अनुसार 'विकास के मारे विस्थापितों' में से चालीस प्रतिशत या इससे भी अधिक आदिवासी हैं। सत्यजित सिंह अपनी अंग्रेज़ी की पुस्तक 'टेमिंग दि वॉटर्स' में बांध-दर-बांध उसके कुल जमा विस्थापितों और उनमें से आदिवासियों की प्रतिशत का ब्यौरा देते हैं। इन आंकड़ों के अनुसार भारत की पांच सबसे बड़ी बांध योजनाओं-सरदार सरोवर (गुजरात), पोलावरम (आंध्रप्रदेश), मैथोन (बिहार), पोंग (हिमाचल प्रदेश) और कोयल कारो (बिहार) में कुछ छ: लाख लोग विस्थापित हुए और इनमें से आधे से भी अधिक साढ़े तीन लाख लोग आदिवासी थे। याद रहे कि यह संख्या सिर्फ उन लोगों की है जिनकी ज़मीन इन बांधों के कारण डूब गयी। इन बांधों से प्रभावित होने वाले दूसरे मजदूर और जंगल पर निर्भर रहने वाले भूमिहीन आदिवासियों की तो सही गिनती भी लोगों को मालूम नहीं है। अंग्रेजों के काल से चले आ रहे साम्राज्यवादी भूमि अधिग्रहण अधिनियम की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें जिस तरह के मुआवज़े का प्रावधान है वह बेहद बेहद नाकाफी है। इसके अलावा अधिकांश आदिवासी अनपढ़ और कानूनी दांवपेंच से अनभिज्ञ होते हैं। इनके लिए सरकार या दलालों के दबाव को झेल पाना असंभव होता है। यही नहीं, पुश्तैनी ज़मीनों संबंधी कागज़ात भी अक्सर अपर्याप्त या अधूरे होते हैं, जिनके चलते मुआवाज़े की रकम को प्राप्त करने में कई मुश्किलें सामने आती हैं और जैसा कि आंकड़े बताते हैं, प्रोजेक्ट के पूरे हो जाने के कई-कई सालों के बाद भी बेचारे असहाय आदिवासी किसी भी तरह के आर्थिक लाभ से वंचित रह जाते हैं।
भूमि अधिग्रहण की दूसरी बड़ी वजह ज़मीनों पर बड़े-बड़े कारखानों का बिठाया जाना है। यूं तो इन कारखानों की योजनाओं में मंजूरी के समय आश्वासन दिया जाता है कि कारखाने के लिए इस्तेमाल में लायी जाने वाली ज़मीन बंजर और खेती के लिए अनुपयोगी है, लेकिन अनुभव हमें बताता है कि वास्तविकता इसकी ठीक उलट होती है। नक्शों और कागज़ों में उपजाऊ ज़मीन को बंजर, अस्पतालों की ज़मीन को बिल्डर की आवास योजना और अभ्यारण्य का हिस्सा बने घास के मैदानों को खेती के लिए मुहैया कर उसे नीलामी पर चढ़वाने में कितना समय लगेगा और इसकी फाइलों को पास कराने में कितना खर्च आएगा, इस अभूतपूर्व रचनात्मकता से लैस राज्य के सरकारी अधिकारी आपको आसानी से बता देंगे। और इस योजना के पीछे यदि किसी राजनीतिज्ञ या उसके किसी नज़दीकी रिश्तेदार का वरदहस्त हो, तब तो फाइलें और भी बिजली की तेज़ी से दौडऩे लगती हैं। उपजाऊ ज़मीनों पर कारखाने बनाने के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया अंतत: स्थानीय जनता और ज़मीन लेने वाले सरकारी प्रतिनिधियों के बीच संघर्ष और तनाव को जन्म देती है। इन संघर्षों में सरकार अपने समूचे तंत्र के साथ ज़मीनों को खाली करने की जिस अशांतिपूर्ण प्रक्रिया में जुटती है, उसमें अनिवार्यत: सैंकड़ों लोगों की जानें जाती हैं, मरने वालों को उग्रवादी या माओवादी या उनके प्रति सहानुभूति रखने वाला घोषित कर दिया जाता है, संघर्ष कर रहे नेताओं को कई तरह के फर्ज़ी अपराधों में फंसाकर जेल का रास्ता दिखा दिया जाता है और साम-दाम-दंड-भेद की सभी चालों के इस्तेमाल के बाद अंतत: कारखाना बैठा ही दिया जाता है। सुदर्शन फाकिर/जगजीत सिंह के शब्दों का सहारा लें तो —

चंद मासूम से पत्तों का लहू है 'फाकिर'
जिसको महबूब के हाथों की हिना कहते हैं!

लेकिन वक्त के साथ ज़ामीन के अधिग्रहण की यह लड़ाई पहले से कहीं अधिक मारक और कई अर्थों में आर-पार की हो चली है। एक ओर सरकारके आमंत्रण पर दुनिया की बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय शक्तियां मैदान में आ गयी हैं तो दूसरी ओर अभेद्य दीवार की ओर धकेले जाते लोगों के जुझारू तेवरों पर काबू पाना अब पहले से कहीं अधिक मुश्किल होता जा रहा है। और इन फैसलों के साथ-साथ जब राजनीति भी अखाड़े में उतर पड़ती है तो मामला कुछ और पेचीदा हो जाता है।
पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम को एक तरह से स्थानीय वाम सरकार का 'वॉटरलू' कहा जा सकता है। इसी के चलते राज्य में सरकार की 34 वर्षों से कायम सल्तनत हाथ से निकल गयी। नंदीग्राम में संघर्ष की शुरूआत उस समय हुई जब वहां की सरकार ने मिदनापुर जिले के एक ग्रामीण अंचल में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप की मदद से वहां रसायनों के लिए एक विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने का फैसला किया। क्षेत्र के लिए जब 10,000 हेक्टेयर भूमि को मुहैया करने का समय आया तो यहां के किसानों ने इसका विरोध किया। बताया जाता है कि यह इलाका लम्बे अर्से से माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गढ़ रहा है। अपनी ज़मीनों को बचाने के लिए किसानों ने 'भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमिटी' का गठन किया। बताया जाता है कि 14 मार्च 2007 को 3000 पुलिसवालों के साथ ही सी पी एम के सशस्त्र सदस्यों ने इस कमेटी को तोडऩे के इरादे से नंदीग्राम की ओर कूच किया। लेकिन गांव वालों को शायद इसकी खबर पहले ही लग गयी थी, लिहाजा पुलिसवालों का सामना 2000 लोगों की उग्र भीड़ से हुआ, जिसमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे। इस झड़प में 14 लोगों की मृत्यु हुई और कई घायल हुए। सरकार की विरोधी तृणमुल कांग्रेस ने सैकड़ों के मारे जाने का दावा किया और प्रतिहिंसा की आग इस तरह भड़की कि कमेटी के सदस्यों ने ढूंढ़-ढूंढकर सी पी एम से सहानुभूति रखने वालों के घर जलाए और सैंकड़ों लोगों को शरणार्थी कैम्पों में भागना पड़ा। इसके बाद नवंबर 2007 में जब ये सारे सदस्य घर लौटे तो एक बार फिर हिंसा भड़क उठी। बहरहाल, इस सारे प्रकरण का बहुत गंभीर खामियाज़ा सी पी एम और वाम फ्रंट को भरना पड़ा। 2008 के पंचायत चुनाव और उसके बाद 2011 में राज्य के चुनावों में वाम फ्रंट की करारी हार हुई और ममता बनर्जी की पार्टी सत्ता में आयी। दुखद यह भी था कि इस प्रकरण में बहुत सारे बुद्धिजीवियों और चिंतकों ने सी पी एम के रवैये से अपनी असहमति दर्ज़ की। वाम फ्रंट के भूतपूर्व वित्त मंत्री अशोक मित्र ने बेहद संवेदनात्मक स्वर में कहा है कि 'यदि मैं पिछले सप्ताहों की घटनाओं पर अपना अभिमत खुलकर व्यक्त नहीं करूंगा तो मेरी अंतरात्मा मुझे कभी माफ नहीं करेगी। मेरे लिए अपने कॉमरेडों के विरूद्ध बोलना बेहद तकलीफदेह है..'
इसी सारी हलचल के बीच तत्कालीन वाम फ्रंट को नंदीग्राम में किसानों की ज़मीनें लेकर वहां विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने का इरादा रद्द करना पड़ा। और सरकार बदल जाने के बाद तो अब शायद पूरी योजना ही रद्दी की टोकरी के हवाल हो चुकी है।
पश्चिम बंगल में ही सिंगुर मे टाटा की नैनो मोटरकार के प्लांट का किस्सा एक बार फिर उस समय सत्ताधारी वाम फ्रंट के लिए भारी साबित हुआ। जब टाटा ने कई राज्यों से 'नैनो' की नयी कार के लिए लगभग एक हज़ार एकड़ की मांग की तो पश्चिम बंगाल ने बहुत उत्साह के साथ सिंगुर में यह ज़मीन देने का वादा दिया और प्रोजेक्ट की गाड़ी आगे बढ़ गयी। लेकिन सिंगुर में ज़मीन का यह हिस्सा राज्य के सबसे उपजाऊ इलाकों में से है जहां किसान साल में दो-दो और कभी-कभी तीन-तीन फसलें उगाते हैं। सरकार ने 1894 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत यह ज़मीन किसानों से लगभग ज़बर्दस्ती ले ली। दरअसल 1894 के अधिनियम का हवाला देकर ज़बर्दस्ती ज़मीन लेना बहुत तर्कसंगत नहीं था क्योंकि इस अधिनियम में ज़मीन अनिवार्यत: सरकारी कार्यों या कारखानों के लिए ही ली जा सकती है, जबकि टाटा एक निजी क्षेत्र की कंपनी थी। कई महीनों तक किसानों और सरकार के बीच चले संघर्ष के बाद अंतत: 2008 में टाटा ने एक प्रेस सभा में 'नैनो' की फैक्टरी को सिंगुर और पश्चिम बंगाल से हटाने का अपना नाटकीय निर्णय सुनाया। ममता बनर्जी ने चुनावों के प्रचार में सभी किसानों को अपनी-अपनी ज़मीनें वापस करने का वादा दिया, लेकिन पश्चिम बंगाल में नयी सरकार में आने के बाद भी ज़मीन के इन मसलों को सुलझने में काफी समय लग गया।
पश्चिम बंगाल की इन दो स्थगित योजनाओं की पृष्ठभूमि में कोरिया की विशालकाय स्टील कंपनी पोस्को द्वारा ओडि़सा और कर्नाटक में प्रस्तावित कुल 180 लाख टन स्टील बनाने वाले कारखानों के भविष्य का जायज़ा लेना उचित होगा। 2005 में पोस्को ने ओडि़सा सरकार के साथ दो चरणों में 120 लाख टन स्टील बनाने के कारखानों का समझौता किया था। फिर इसके बाद 2010 में इसने कर्नाटक के गडग जिले में 32,000 करोड़ रूपयों की लागत से 60 लाख टन का एक और इस्पात कारखाना बनाने का प्रस्ताव रक्खा था। इस प्रस्ताव को 2011 में पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति भी मिल गयी थी। लेकिन कर्नाटक के कारखाने के लिए ज़मीन हासिल करने में लगातार अड़चनें आ रही थीं और किसान किसी भी सूरत में ज़मीन बेचने के लिए तैयार नहीं थे। सरकार ने कई दूसरी जगहों पर ज़मीन खरीदने की कोशिश की। लेकिन दो वर्ष के बाद भी जब सरकार ज़मीन पाने में नाकामयाब रही तो पिछली जुलाई में आखिरकार पोस्को ने कर्नाटक की इस योजना को रद्द करने का फैसला कर लिया। भारतीय योजना पर पोस्को की समूची अंतर्राष्ट्रीय कंपनी को कितना लाभ मिलने की संभावना थी, यह इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि कर्नाटक के प्रस्तावित कारखाने के रद्द होने की खबर के साथ ही विदेशी बाज़ारों में पोस्को के शेयरों के दाम दो प्रतिशत नीचे गिर गए।
पोस्को ने ओडि़सा में अपनी अधिक बड़ी स्टील योजना को बरकरार रखने का संकल्प दोहराया है, लेकिन किसानों के तीखे प्रतिरोध के चलते यह योजना भी पिछले आठ वर्षों से अधर में अटकी हुई है और इसके लिए किसी भी तरह ज़मीन हासिल करने की कोशिश में ओडि़सा सरकार पुलिस की मदद से कई तरह के हथकंडे आज़मा चुकी है। कुल 43000 करोड़ की लागत से 120 लाख टन इस्पात बनाने वाली इस योजना को तीन चरणों में पूरा होना था और इसके लिए 25 एकड़ (दफ्तरों के लिए), 400 एकड़ (कारखाने के लिए) और 2000 एकड़ (आवास के लिए) यानी कुल 6000 से अधिक एकड़ ज़मीन की दरकार थी। इस बड़ी योजना के लिए राज्य एवं केन्द्रीय सरकार ने पानी, बिजली और छोड़ी गयी ड्रेनेज के संयोजन की जिम्मेदारी ली थी। यही नहीं, सरकार ने कोयले और कच्चे लोहे का वादा देने के साथ-साथ रेलवे लाइन और प्लांट तक पक्की सड़कें बनाने का आश्वासन भी अपने कंधे पर लिया था। लेकिन सरकार जहां कोरियन कंपनी को ये सारी सुविधाएं देने के लिए तैयार थी, वहीं उसने उन हजारों लोगों की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं की ओर ध्यान देना बहुत ज़रूरी नहीं समझा था, जिनकी ज़मीन ज़ोर-ज़बर्दस्ती से सरकार और अंतत: इस विशाल कोरियन कम्पनी के नाम स्थानांतरित होने वाली थी। ऐसे में संघर्ष होना लाजिमी था।
2005 में ओडि़सा सरकार और पोस्को के बीच समझौता होने के कुछ समय बाद ही सरकार ने जंगल अधिकार अधिनियम पारित किया और इसके ज़रिए पोस्को की योजना का पुनर्निरीक्षण आवश्यक हो गया। मामला उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा, जहां फैसला पोस्को से हुए समझौते के पक्ष में आया। लेकिन साथ ही न्यायालय ने कहा कि चूंकि वह इलाका पर्यावरण की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है इसलिए इस क्षेत्र में आने वाले जंगलों, कोयले की खदानों और यहां से विस्थापित होने वाले लोगों के पक्ष को समझना ज़रूरी होगा। तब पर्यावरण मंत्रालय ने एन सी सक्सेना के नेतृत्व में एक सत्रह सदस्य की समिति का गठन कर उसे वास्तविक हालात पर एक प्रामाणिक रिपोर्ट देने को कहा। समिति ने कई बार प्रस्तावित क्षेत्र का दौरा कर वहां के किसानों, उनके परिवारों, पर्यावरण शास्त्रियों एवं भूगर्भशास्त्रियों से मशविरा कर चुकने के बाद 2010 में अपने फैसले में ओडि़सा सरकार की भत्र्सना करते हुए उसे जंगल अधिकार अधिनियम का उल्लंघन कर बेशकीमती जंगलों को पोस्को को दे डालने का दोषी पाया। समिति के फैसले के आधार पर सरकार के पर्यावरण विभाग ने भूमि स्थानांतरण और पोस्को इंडिया प्रोजेक्ट के सारे कार्य को रोक देने का आदेश दिया। इस पर ओडि़सा सरकार ने तिलमिलाकर कहा कि यह रिपोर्ट झूठे दस्तावेजों पर आधारित है। अपना पक्ष रखने के लिए मुख्यमंत्री पटनायक दिल्ली में प्रधानमंत्री से मिलकर आए। केंद्र सरकार के लिए कोरिया की बहुराष्ट्रीय कंपनी को नाराज़ करना मुश्किल था। उसने एक और नयी मीना गुप्ता कमेटी का गठन किया ताकि पहले की कमेटी के फैसले पर पुनर्विचार की गुंजाइश बन सके। एक तरह से यह नयी कमेटी किन फैसलों पर पहुंचेगी, यह सर्वविदित था क्योंकि सक्सेना कमेटी के कार्यकाल की परवाह किए बगैर ही उस दौरान ओडि़सा सरकार 400 एकड़ से अधिक ज़मीन स्थानांतरित कर चुकी थी। इसमें अधिकांश छोटे-मोटे किसान थे जो जंगल की सरहद पर फैली दलदली ज़मीन में पान की खेती कर रहे थे। सरकार ने जगह-जगह पुलिस का इस्तेमाल किया। एक बार फिर, गांवों की औरतों और बच्चों की ढाल अधिग्रहण के लिए आयी पुलिस की टुकडिय़ों के आगे बिछ गयी। जैसी कि उम्मीद थी, सरकार ने इस आंदोलन में माओवादियों का हाथ बताया। उधर अक्टूबर 2010 में आयी मीना गुप्ता समिति की रिपोर्ट ने अपनी पूर्ववर्ती कमेटी से ठीक विपरीत निष्कर्ष सरकार को पेश किए। इसका कहना था कि इस इलाके में सिर्फ मछुआरों के परिवार हैं, जिनमें कोई भी आदिवासी नहीं है। इसने कहा कि जिस क्षेत्र को कारखाने में शामिल किया जा रहा है वह जंगल नहीं, उजाड़ बालुई इलाका है जहां कहीं कहीं झाऊ के पेड़ हैं। मीना गुप्ता कमेटी ने यह भी कहा कि सरकार द्वारा दी जाने वाली आकर्षक राशि और बच्चों के लिए भविष्य में नौकरी की संभावनाओं को देखते हुए अधिकांश गांव वाले भूमि स्थानांतरण के समर्थन में थे, सिर्फ एक गांव धिनकिया में इसका विरोध हो रहा था, जहां लोग पुलिस वालों और पोस्को के अधिकारियों को गांव में दाखिल होने से रोक रहे थे। कमेटी ने इसी के साथ साथ पूर्ववर्ती रिपोर्ट की कई खामियां भी गिनवायीं। इन सबके परिणामस्वरूप, जैसी कि उम्मीद की जा रही थी, जनवरी 2011 में सरकार ने पोस्को योजना को विधिवत मंजूरी दे दी। नवंबर 2011 में पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के नेता अभय साहू को पुलिस ने कई आपराधिक मामलों का हवाला देकर, दहेज के सिलसिले में एक स्त्री की मृत्यु के मामले में गिरफ्तार कर लिया। कई अन्य नेताओं को भी हिरासत में लिया गया। लेकिन इससे आंदोलन की तेज़ी में कोई कमी नहीं आयी। अब हाल ही में साहू को एक और आपराधिक मामले का हवाला देकर फिर से जेल पहुंचा दिया गया है। इस सारे आंदोलन का सटीक उपसंहार प्रस्तुत करते हुए सुनीता नारायण कहती हैं—

''टेलिविजन पर पोस्को की करोड़ों लागत की योजना के विरोध में चिलचिलाती धूप में मानव ढाल बने लेटे बच्चों की कतारों का दृश्य हृदयविदारक था। इन निहत्थे बच्चों के मुकाबिल था राज्य सरकार द्वारा भेजी गयी सशस्त्र पुलिस का भारी-भरकम जत्था! अब जबकि सारी मंजूरियां प्राप्त की जा चुकी हैं, राज्य सरकार किसी भी सूरत में जल्दी से जल्दी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेना चाहती है, इसके लिए उसे चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े!
हमें सोचने पर बाध्य होना पड़ेगा कि ये सारे निर्धन लोग इस योजना का विरोध क्यों कर रहे हैं। क्यों ये कोल्हू के बैल की तरह पान उगाने की एकरसता को छोड़कर सरकार द्वारा दिया जा रहा अच्छा-खासा मुआवज़ा स्वीकार कर अपने और अपने बच्चों के लिए एक नयी और बेहतर जिंदगी नहीं चाहते? कहीं यह प्रगति और विकास के विरूद्ध अज्ञानी, नासमझ और नेताओं द्वारा गुमराह किए लोगों की लड़ाई तो नहीं है? सब कुछ क्या इतना ही आसान और सहज है?
मेरा जवाब है— नहीं! यह विकास के विरूद्ध विकास और अस्मिता की लड़ाई है। ये लोग निर्धन जरूर हैं, लेकिन उन्हें मालूम है कि यह परियोजना उन्हें और निर्धन बना देगी। हम आधुनिक अर्थशास्त्र से घिरे लोगों के लिए इस सच्चाई को पकड़ पाना कठिन है। यहां के अधिकांश जंगली इलाके में सरकारी ज़मीन पर पान की खेती की जा रही है। परियोजना को जिस 1620 हेक्टयर ज़मीन की ज़रूरत है, उसमें से 90 प्रतिशत यानी 1440 हेक्टेयर यही जंगल की ज़मीन है।
प्रोजेक्ट के लिए इस ज़मीन का चुनाव करते समय सरकार ने यह नहीं सोचा था कि इस ज़मीन के लिए उन्हें कोई मुआवज़ा देना पड़ेगा। लेकिन यह जंगल की ज़मीन थी जिस पर स्थानीय निवासी बहुत पहले से खेती कर रहे थे। तब इस पर जंगल अधिकार अधिनियम का लागू होना अनिवार्य था, जिसके तहत लोगों की अनुमति के बगैर यह ज़मीन सरकार द्वारा पोस्को को नहीं दी जा सकती थी। ऐसा स्वयं सरकार द्वारा गठित समिति ने स्वीकार किया था। लेकिन बाद में सरकार स्वयं इस निर्णय से मुकर गयी और उसने तय किया कि स्थानीय लोग पारम्परिक जंगलवासी नहीं थे। और तब ज़मीन के स्थानांतरण को सारी मंजूरियां दे दी गयी। लेकिन स्थानीय लोग, जिनसे इस बार उनकी  राय तक नहीं पूछी गयी थी, बहरहाल, इसका विरोध करते गए।
उधर सरकार का कहना था कि उसने लोगों की सारी मांगें मंजूर कर ली हैं। घरों और गांवों की ज़मीन का अधिग्रहण नहीं किया जाएगा, सिर्फ लोगों की जीविका जाएगी, जिसके लिए हम मुआवज़ा दे रहे हैं। यही नहीं, हालांकि लोगों को जंगल की ज़मीन के इस्तेमाल का कोई अधिकार नहीं है, फिर भी किसानों को इस अनाधिकार ज़मीन पर भी प्रति हेक्टेयर 28.75 लाख मुआवज़ा देना तय हुआ है और पानी की खेती के चले जाने पर इन्हें एक साल के लिए भत्ता भी मिलेगा। जिन 460 परिवारों के घर अधिग्रहित ज़मीन में जाएंगा, उन्हें नयी बस्तियों में जगह दी जाएगी। अब इससे ज़्यादा और क्या किया जा सकता है?
लेकिन किसान अब भी विरोध की मुद्रा में हैं। यही नहीं, जिन लोगों ने ज़मीनें दे दी हैं, वे भी अपने फैसले पर पुनर्विचार कर रहे हैं। अस्थायी कैम्प में अपने नए पक्के मकानों के बनने का इंतज़ार करते लोगों में गुस्सा है। हमारी जीविका का क्या होगा?
पूरे देश में जहां-जहां 'विकास' के नाम पर भूमि अधिग्रहण हुआ है, लोग अपनी आजीविका से हाथ धो बैठे हैं। पोस्को को दी जाने वाली ज़मीन में किसान पान की खेती से प्रति हेक्टेयर एक साल में दस से साढ़े सत्रह लाख रूपए कमाते थे। धान, मछली तालाबों और पेड़ों के फलों से होने वाली आमदनी इसके अतिरिक्त थी। खाली की गयी ज़मीन पर बैठाया जाने वाला इस्तपात कारखाना देश के आर्थिक विकास के लिए चाहे जितना ज़रूरी हो, वह स्थानीय लोगों को आजीविका नहीं देने वाला है। एक तो स्थानीय लोग कारखाने में काम करने के लिए उपयुक्त नहीं होंगे, दूसरे आधुनिक स्वचालित कारखानों में बहुत कम मज़दूरों की आवश्यकता होती है।
तो यह कमोबेश औद्योगिक विकास के विरूद्ध लोगों के जीवन-मरण की लड़ाई है। चीज़ों को समझने और कार्यान्वित करने की हमारी समझ में ज़मीन और आजीविका के बीच के रिश्ते के लिए कोई स्थान बाकी नहीं बचा है। औद्योगिक प्रगति जब अपने अभीष्ट वर्ग के जीवन के ही विरूद्ध खड़ी हो जाती है तो उसे 'विकास' की संज्ञा हरगिज़ नहीं दी जा सकती। पोस्को अभियान में संकेत बहुत स्पष्ट हैं— हमें यदि लोगों की ज़मीन चाहिए तो इसके बदले हमें उन्हें जीविका की स्थायी सुरक्षा देनी ही होगी!''
चुनावों के पहले खास-खास जिलों या क्षेत्रों में विकास की जो विभिन्न योजनाएं घोषित होती हैं, इनमें से अधिकांश का सीधा रिश्ता ज़मीन से होता है। सरकार से जुड़े या उसके अंदरूनी फैसलों के जानकार लोग अक्सर इन योजनाओं से बहुत सारे जायज़-नाजायज़ फायदा उठाते हैं। रॉबर्ट वडरा प्रकरण में ज़मीन की खरीद-फरोख्त को लेकर इसी तरह के आरोप लगाए गए हैं। इधर राजस्थान में नयी 'रिफाइनरी' की घोषणा के बाद से ही वहां जो 'ब्लैक कॉमेडी' चल रही है, उसके आखिरी प्रकरण का मंचन अभी बाकी है। बाड़मेर में तेल रिफाइनरी बैठाए जाने की राजनीतिक सूचना, बहुत सोच-समझकर, एकदम सही समय पर प्रचारित की गयी थी। इससे सत्ताधारी कॉग्रेस को आगामी चुनाव में भरपूर फायदे मिलने की उम्मीद थी। तीन साल पहले जब रिफाइनरी को लेकर त्रिपाठी कमेटी की रिपोर्ट आयी थी और बाड़मेर के लीलाला क्षेत्र में रिफाइनरी बैठाए जाने की संभावना बनी तो कारोबारियों ने इस संभावना को भांपते ही वहां ज़मीनें खरीदनी शुरू कर दी थीं और देखते ही देखते लगभग 30 किलोमीटर की पट्टी के इकरारनामे हो गए थे। अधिकतर ज़मीन नेताओं, उनके दलालों और रियल एस्टेट के मालिकों के हाथ लगी थी। लीलाला से कुछ दूर पर ही बायतू में 'शंकर सिटी' का ऐलान हुआ और रामदेवा रोड पर प्रोपर्टी डीलरों ने अपनी-अपनी ज़मीनों पर चाहरदीवारी भी बना ली। ये सब लोग बाहर से वहां आए थे। लेकिन रिफाइनरी की घोषणा के बाद जब उस क्षेत्र के किसानों से पूछा गया तो उन्होंने ज़मीन देने से इनकार कर दिया। कुछ अन्य किसान दस गुना अधिक यानी एक बीघा के लिए एक करोड़ रुपए की महंगी रकम मांग बैठे। किसानों का कहना था कि उन्हें वहां रिफायनरी नहीं चाहिए क्योंकि वे अपने पुरखों की ज़मीन को बेचकर बेघर नहीं होना चाहते। दिलचस्प यह भी है कि पेट्रोलियम विशेषज्ञों के अनुसार 'यह राजनीतिक रिफाइनरी है, क्योंकि पेट्रोलियम सेक्टर को इसकी आवश्यकता नहीं है (देश में पहले ही पर्याप्त रिफाइनिंग क्षमता है)। इस रिफाइनरी को न तेल कंपनियां चाहती हैं न अफसर।' बहरहाल, इस राजनीतिक रिफाइनरी की योजना के सियासी खेल में एक और चतुर चाल उस समय देखने को मिली जब मुख्यमंत्री ने इस रिफाइरी को लीलाला से हटाकर बाड़मेर में ही पचपदरा में लगाने का फैसला सुनाया। यूं तो सरकार कहती रही कि ऐसा लीलाला में किसानों द्वारा भूमि अधिग्रहण का विरोध समझने के बाद किया गया है। कहा गया कि पचपदरा में सरकार की अपनी जमीन है, जिससे वहां भूमि अधिग्रहण की आवश्यकता नहीं होगी। लेकिन इस सियासी चाल के पीछे मुख्यत: वोट की राजनीति जिम्मेदार बतायी जाती है। एक तो सरकार की नज़र निकटवर्ती जोधपुर जिले पर है जहां भाजपा का बहुमत है। पचपदरा जोधपुर के काफी नज़दीक है। समय के साथ रिफाइनरी से जोड़कर जोधपुर में पेट्रोलियम कॉम्प्लेक्स भी स्थापित हो सकता है। बाड़मेर में विधानसभा की कुल सात सीटों में से छ: कांग्रेस के पास हैं और एक भाजपा के पास। जब कि पचपदरा से सटे जोधपुर में कुल दस सीटों में से छ: भाजपा के पास हैं और केवल चार कांग्रेस के पास हैं। उम्मीद यह की जा रही है कि रिफाइनरी पर साढ़े सैंतीस हज़ार करोड़ लगाने के बाद कांग्रेस आगामी चुनाव में इस बड़े 'विकास' का हवाला देकर बाड़मेर और जोधपुर, दोनों ही में अपना बहुमत बनाने की इच्छुक है। लेकिन इस राजनीतिक नाटक का दूसरा दिलचस्प प्रकरण यह है कि रिफायनरी के पुराने स्थल लीलाला में रिफाइनरी को फिर से वही लौटाने के लिए बहुत सारे लोग अनशन पर बैठे हैं। अनशन पर बैठे ये लोग स्थानीय किसान नहीं, बल्कि वे सारे बाहरी लोग हैं जिन्होंने लीलाला में रिफाइनरी की वजह से ज़मीनें खरीदी थीं और अब इनके भाव बेतरह गिर जाने के बाद वे भारी नुकसान  के डर से रिफाइनरी के दुबारा लीलाला में लौटाए जाने की मांग के लिए धरने पर बैठे हैं। इनमें कांग्रेस के विरोधी एक कर्नल सोनाराम भी हैं जिन्होंने अकेले वहां 67 बीघा ज़मीन खरीदी थी। इसके अलावा भी कई राजनीतिज्ञों ने यहां ज़मीनों में 'इनवेस्टमेंट' किया है!
ज़मीनों को लेकर सियासतदानों की यह राजनीतिक नौटंकी स्वतंत्रता के बाद से ही बेरोक-टोक चली आ रही है। अंग्रेज़ों द्वारा 1894 में पारित भूमि अधिग्रहण अधिनियम का जितना बदइस्तेमाल स्वतंत्र भारत में हुआ है, उतना शायद अंग्रेज़ों के काल में भी नहीं हुआ। बांधों के जलाशयों की ज़मीन हो या बड़े-बड़े कारखानों के लिए जंगलों और खेतों को धकियाकर कारखानों के लिए जंगलों और खेतों को धकिया कर हासिल किया गया औद्योगिक संस्थान या 'फ्री ट्रेड ज़ोन', विकास के हर 'प्रगति-स्तंभ' के पिछवाड़े में आपको अशक्त वर्ग और आदिवासियों के कुचले जाने की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियां मिलेंगी, जिन्हें समझना तो दूर, उनके अस्तित्व को स्वीकार करना भी हम शहरवासियों के लिए मुश्किल रहा है। दरअसल इस समूचे वर्ग की ज़िंदा रहने की लड़ाई चिरंतन काल में हमारी 'विकास' की अभिजात परिभाषा के दायरे से बाहर रही है। यही नहीं, अंग्रेजों द्वारा बनाए अधिनियम को समय-समय पर आध्यादेशों से बदल-बदलकर हमने इसकी रही-सही प्रभाविकता भी नष्ट कर दी है। 1971 के पच्चीसवें संशोधन अधिनियम में पुराने कानून में दिए 'मुआवज़े' शब्द को बदलकर उसके स्थान पर 'एक निश्चित राशि' जोड़ दिया गया ताकि तय की गयी राशि पर किसी बहस की गुंजाइश न रहे। और इसके बाद 1978 में चौवालीसवें संशोधन अधिनियम में सरकार द्वारा ली गयी ज़मीन पर मुआवज़े का अधिकार भी व्यक्ति से छीन लिया गया। एक सौ बीस वर्ष पुराने 1894 भूमि अधिग्रहण अधिनियम और उसमें समय-समय पर लाए गए इन मारक संशोधनों के विरूद्ध आवाज़ें उठती रही हैं। प्रतिरोध के इन तीखे स्वरों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने आखिरकार 2011 में एक नया भूमि अधिग्रहण बिल पेश किया है। सरकार के अनुसार इसके द्वारा पुराने अधिनियम की सारी त्रुटियां दूर हो जाएंगी। 2013 के सत्र में इस बिल को अधिनियम में बदलने का भी प्रस्ताव है। देखना यह है कि ऐसा हो भी पाता है या नहीं।
2013 में संसद में पेश होने वाला 2011 के संशोधित भूमि अधिग्रहण बिल की समीक्षा करते हुए प्रसन्नजित बोस 'इकोनॉमिक ऐंड पोलिटिकल वीकली' में कहते हैं कि जिस रूप में यह बिल संसद में रक्खा जा रहा है उसमें कुछ अच्छाइयों के साथ बहुत सारे गतिरोध एवं विवादास्पद मुद्दे हैं। इस नए बिल के अनुसार भूमि अधिग्रहण के सभी मामलों में अब उसके 'सामाजिक प्रभाव आकलन' की व्यवस्था है जिसके तहत प्रभावित परिवारों को सरकार द्वारा सार्वजनिक सुनवाई का अधिकर मिल सकेगा, जो पहले संभव नहीं था। सामाजिक प्रभाव आकलन की रिपोर्ट का एक स्वतंत्र विशेषज्ञ समिति द्वारा पुनर्निरीक्षण भी किया जा सकेगा और ऐसा हो चुकने के बाद ही भूमि अधिग्रहण की स्वीकृति मिल सकेगी। दिक्कत यह है कि अधिग्रहण का अंतिम अधिकार अधिकारियों की एक उच्च स्तरीय समिति के हाथ में होगा, जिसका नेतृत्व राज्य के सचिव करेंगे। क्या इस तरह की सरकारी समिति सभी प्रभावित लोगों के हितों के साथ-साथ पर्यावरण के ज्वलंत मुद्दों को ध्यान में रख निर्णय ले सकेगी? प्रसन्नजित कहते हैं कि हमारा अनुभव इसका ठीक उलट है क्योंकि सरकारी अधिकारी हमेशा सरकार की राजनीतिक प्राथमिकताओं को आगे रखकर ही निर्णय लेते हैं। बिल में बहुत सारी समितियों और उनकी सुनवाई का तो प्रावधान है, लेकिन यह बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं है कि जब मामला आदिवासियों या वंचित वर्ग की भूमि का होगा तो उन्हें न्याय दिलवाने की जवाबदेही किसकी होगी। जवाबदेही एवं उत्तरदायित्व के अभाव में सिर्फ कागज़ी कार्रवाइयां ही होंगी जिनमें अंतत: कोई नतीजा नहीं निकलेगा।
संसद में 2013 में पेश होने वाले 2011 अधिग्रहण बिल में यह प्रावधान तो है कि 80 प्रतिशत भूमि-मालिकों की मंजूरी मिलने के बाद ही भूमि का अधिग्रहण किया जा सकेगा। लेकिन इसके साथ ही यह शर्त भी है 'सार्वजनिक उद्देश्यों' के लिए ली जा रही ज़मीन के लिए इस प्रावधान का पालन करना ज़रूरी नहीं होगा। यही नहीं, 'सार्वजनिक उद्देश्यों' की परिभाषा इतनी व्यापक है कि निजी कंपनियों द्वारा अपने व्यवसाय के लिए ली जा रही ज़मीन को छोड़कर अधिग्रहण के लगभग सभी उदाहरण इस परिभाषा के दायरे में लाए जा सकते हैं। यानी रेलवे, सड़कों, अस्पतालों, सार्वजनिक योजनाओं, बंदरगाहों, सिंचाई और बिजली योजनाओं और यहां तक कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए ज़मीन लेते समय 80 प्रतिशत प्रभावित लोगों की मंजूरी लेने की आवश्यकता नहीं होगी। इससे आगे, सार्वजनिक क्षेत्रों की कम्पनियों पर भी यह 80 प्रतिशत का नियम लागू नहीं होगा। 2011 बिल में मुआवज़े की रकम को बढ़ाने का प्रावधान तो है लेकिन यह रकम अब भी बहुत नाकाफी और अव्यावहारिक है और इसमें भूमि पर काम करने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए मुआवज़े का कोई प्रावधान नहीं है। प्रत्येक विस्थापित परिवार में से कम से कम एक सदस्य को लम्बे समय तक आजीविका देने का वचन देना तो बहुत दूर की बात है।
ज़ाहिर है कि सूचना अधिकार अधिनियम और कई दूसरे बिलों की तरह नए भूमि अधिग्रहण बिल में भी शासक वर्ग के वे सारे एकतरफा अधिकार सुरक्षित रक्खे गए हैं जिनके ज़रिए स्वतंत्रता के इतने सालों बाद भी आदिवासियों और पिछड़े तबके को अपने पारम्परिक जंगलों और ज़मीनों से खदेड़कर अनाश्रित किया जाता रहा है। प्रगति और विकास की यह एकतरफा परिभाषा इतने वर्षों के बाद भी इन वास्तविक भूमि संतानों को जीवन यापन की सुरक्षा मुहैया नहीं कर पायी है, जबकि हर नागरिक के लिए इसका मौलिक अधिकार हमारे संविधान में निहित है। आने वाले वर्षों में शासकों और शोषितों के बीच की यह लड़ाई और भी संगीन होती दिख रही है। भ्रष्ट सियासत की तमाम चालों के विरूद्ध साधनहीन वर्ग की आर्थिक स्वतंत्रता का यह आर पार का युद्ध हमें इस श्रृंखला के सर्वाधिक उद्धृत शायर फैज़ अहमद फैज़ की बंटवारे के समय लिखी गयी उन पंक्तियों की याद दिलाता है जो स्वतंत्रता के सत्तर वर्ष गुज़र चुकने के बाद आज भी उतनी ही सच और दर्दनाक दिखाई देती हैं—

अभी चिराग-ए-सर-ए-रह को कुछ खबर ही नहीं
अभी गिरानी-ए-शब में कमी नहीं आई
नज़ात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई।।


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