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दिसम्बर 2013

हैराँ हूँ मैं कि ऐसी ये मश्हद है कौन-सी

विवेक निराला

90' के दशक की परिस्थितियों, हिन्दी कविताओं और कवियों के रचनात्मक मानस पर पुनर्विचार


''मैं यों प्रयोजनमुखी काव्य का कदापि विरोधी नहीं हूं। ...परन्तु मैं सोचता हूं कि प्रयोजन को स्वयं परिस्थिति तथा कार्यकलाप में अपने को व्यक्त करना चाहिए, विशेष रूप से लक्षित किये बिना और लेखक अपने द्वारा वर्णित सामाजिक टकरावों का भावी ऐतिहासिक समाधान पाठक के सामने तैयारशुदा रूप में प्रस्तुत करने के लिए कर्तव्यबद्ध नहीं है। ... इसलिए समाजवादी प्रयोजनमूलक उपन्यास मेरी दृष्टि में उस समय अपने ध्येय की पूर्णतया पूर्ति करता है, जब वह वास्तविक संबंधों का सच्चा चित्रण कर इन संबंधों के स्वरूप के बारे में हावी रहने वाले प्रचलित भ्रमों को मिटा देता है, बुर्जुआ दुनिया के आशावाद को झकझोर देता है तथा अस्तित्वमान के आधार की शाश्वतता के बारे में शंका का समावेश करता है-भले ही लेखक ने इसके बारे में कोई निश्चित समाधान प्रस्तुत न किया हो, भले ही उसने कभी-कभी कोई पक्ष तक न लिया हो।''- मिन्ना काउत्स्की को एंगेल्स की 26 नवंबर 1885 को लिखी चिट्ठी से

पूरी दुनिया के लिए पिछले दो दशक बड़ी दुर्घटनाओं के दशक कहे जा सकते हैं। इसीलिए समकालीन कविता में 'कठिन समय' की बार-बार अनुगूंजें सुनाई देती हैं। इस समय का यथार्थ अधिक मारक और अविश्वसनीय है। परिवर्तन इतनी तेजी से हो रहे हैं कि अरुण कमल के शब्दों में 'एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया।' सोवियत संघ का विघटन और बाबरी मस्जिद का ध्वंस 90' के दशक के अधिकांश कवियों के महास्वप्न का ध्वंस था। कवियों की पृथ्वी उनकी पूर्ववर्ती पीढ़ी की पृथ्वी नहीं रह गयी थी। एक ध्रुवीय हो चुके विश्व में अमरीका ने नंगा नाच किया और नारंगी-सी गोल हमारी प्रिय पृथ्वी को चिपटी बना देने की गम्भीर साजिशें कीं। बढ़ता आतंकवाद, मानव-बम और क्लोनिंग ने जहां मनुष्य के समक्ष संकट उत्पन्न किये, वही सभ्यताओं के संघर्ष की मनुष्य-विरोधी अवधारणाएं बलात् आरोपित की गयीं। सभ्यता के विकास के नाम पर बर्बरता का विकास हुआ। उपभोक्तावाद की नयी संस्कृति ने कला और साहित्य को बाज़ार की वस्तु बना दिया। ठीक इसी समय विचार के अन्त, आख्यान के अन्त, इतिहास के अन्त और कविता के अन्त तक की घोषणाएं की गयीं। साहित्य से विचारधारा को खत्म करने का षड्यंत्र कई पद्धतियों से चलाया जाता रहा। बाज़ार की वस्तु बन जाने से साहित्य के क्रय-विक्रय पर भी बातें शुरू हुयीं, इधर 'बेस्ट सेलर' को लेकर चलायी जा रही बहसें शायद इसी का परिणाम है।
हिन्दी कविता में 1980 का दशक ऐसा नहीं था। समाजवाद का एक मॉडल तब तक मौजूद था। हिन्दी कविता में कई पीढिय़ों की इसी सामूहिकता के चलते कवि अशोक वाजपेयी 'भारत रत्न' से 'कविता की वापसी' का उद्घोष कर रहे थे। इसीलिए इस दौर की कविता किसी आन्दोलन पर निर्भर न होकर स्वत: एक आन्दोलन में परिणत हो चुकी थी, हालांकि उस समय के आन्दोलन भी आज की तुलना में ज़्यादा मज़बूत और प्रभावशाली थे किन्तु, 90' के दशक की स्थितियां भिन्न थीं। समाजवाद का वह विशाल वट-वृक्ष जिसके होने से फूल, पत्ती, चिडिय़ा और मनुष्य आश्वस्त थे, अब ढह चुका था। माक्र्सवाद की भौतिकता के अखण्ड विश्वासी संवेदनशील मन भी बाबरी मस्जिद के ध्वंस से भीतर तक टूट चुके थे। डंकल प्रस्ताव लाये जा रहे थे और हमारा कृषि प्रधान देश कृषि-क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुली छूट देने के समझौते कर रहा था। इनके परिणामों का आना भी शुरू हो चुका था और इसी के साथ आई कवि एकान्त श्रीवास्तव की वह कविता जिसमें वे कहते हैं - ''सिर्फ एक हस्ताक्षर किया जाता है/और नीली पड़ जाती है धरती की देह/बुझ जाता है चांद/सूख जाती हैं नदियां/अदृश्य हो जाते हैं हरे-भरे खेत/....सिर्फ एक हस्ताक्षर किया जाता है/और खो देते हैं हम/अपना देश।''
90' के दशक के अन्त तक कृषि-क्षेत्र में टर्मिनेटर बीजों ने अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया था, बीज अब अपने नहीं रह गये थे, विदर्भ से लेकर बुन्देलखण्ड तक किसानों की आत्महत्याओं का एक सिलसिला चल पड़ा था। पंकज राग के शब्दों में 'यह भूमण्डल की रात' थी। इसी समय हरीश चन्द्र पाण्डे कहते हैं - ''उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में/आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है/तब भी उन्होंने आत्महत्या की/क्या नर्क से भी बदतर हो गयी थी उनकी खेती.../ जो आरुणि की तरह शरीर को ही मेड़ बना लेते थे/मिट्टी में जीवन-द्रव्य बचाने/स्वयं खेत हो गये/कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना/और दुर्नीति को नीति!'' श्रम और ऋण किसानों के हिस्से में आया और लाभ पूंजीपति और महाजन के हिस्से में। यह नयी महाजनी सभ्यता थी और इस सभ्यता की समीक्षा करते हुए प्रेम रंजन अनिमेष लिख रहे थे- ''सभी के लिए थालियां/भरी हैं पृथ्वी की सेज पर/और सबके नाम के हैं दाने/भूख से नहीं मरता आदमी/कौर उठाने वाले हाथों से मारा जाता है।''
इस दौर के कवि हमारे देश में तेजी से हो रहे इन परिवर्तनों को देख भी रहे थे और अपने समय के यथार्थ की ठीक-ठीक शिना$ख्त करते हुए कविता में सक्रिय थे। एक ओर प्रतिपक्ष समूचे माक्र्सवाद को फ्लॉप बता रहा था और तमाम वामपंथी अपना आत्मविश्वास खो रहे थे वहीं दूसरी ओर फासिस्ट शक्तियां धर्मध्वजाधारियों के साथ कारसेवा और कीर्तन कर रहे थे ठीक इसी समय प्रकाशित अपने पहले ही संग्रह में बोधिसत्व की कविता थी - ''मुंह तोप कर/रोने का समय नहीं है यह/भजन गाने या भांट/बन जाने का समय नहीं है यह/लातर होकर पूंछ हिलाने का/हथियार रखकर चुपचाप/बादामी मुसकान मारने का समय/कत्तई नहीं है यह।'' महास्वप्नों के भ्रंश के इसी दौर में बोधिसत्व की 'बाकी है' शीर्षक कविता बचे हुए बहुत कुछ को सहेजने, बचाने और पाने को तैयार रहने को कहती है। इसी के साथ इस दौर की हिन्दी कविता में थोड़ी उम्मीद बची रही गोया सब कुछ होना बचा रहेगा। जनता पर भरोसा करने वाले, मनुष्य की जययात्रा के विश्वासी कवि ही यह उम्मीद कर सकते हैं क्योंकि वे लोकोन्मुखी हैं।
ऐसे दौर में किसी कवि का लोक की ओर जाना भला नकारात्मक कैसे हो सकता है? जब महानगरों से चली भूमण्डलीकरण की आंधी में गांवों तक के चराग बुझते जा रहे हों तो या इनकी बेनूरी का मर्सिया पढ़ा जाय या लोक में मौजूद तमाम वैकल्पिक दीप जलाकर अन्धेरे के खिलाफ एक लड़ाई छोटी ही सही छेडऩे की कोशिश की जाय। कवि शमशेर की एक कविता के हवाले से कहें तो ये कवि लोक से प्रेम करते हैं जैसे मछलियां लहरों से करती हैं, वे उनमें फंसने के लिए नहीं जातीं वैसे ही ये कवि लोक में फंसते नहीं। अशोक वाजपेयी के 'शहर अब भी संभावना है' की तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि बोधिसत्व, बद्रीनारायण, अष्ठभुजा शुक्ल, दिनेश कुमार शुक्ल, निर्मला पुतुल, एकान्त श्रीवास्तव, केशव तिवारी, अनुज लगुन तथा राकेश रंजन जैसे ग्रामीण परिवेश के कवियों के लिए लोक में सदैव अपार संभावनाएं हैं। भूमण्डलीकरण की एक विडम्बना यह भी है कि वह पूरी दुनिया को 'ग्लोबल विलेज़' में तब्दील करते हुए गांवों को इससे बाहर कर देना चाहती है। इसी विडम्बना के  बीच बोधिसत्व कहते हैं- ''मैं बात कहीं से भी/शुरू करूं/अन्त गांव की कोलियों में/होता है..../मेरा गांव/मेरा देश है मेरा देश/मेरी बपौती है।'' कवियत्री  अनामिका के हवाले से कहें तो - ''दो तरह के लोग लोकभाषाओं या आर्ष साहित्य और मिथकों से आए शब्दों-प्रतीकों या बिम्बों की भत्र्सना करते हैं-एक तो प्रस्तरकीलित किस्म के कट्टर प्रगतिवादी, दूसरे नागर इलीट! इनका मन रहता है कि भाषा या तो सैनिकों की वर्दी में मार्च-पास्ट करती रहे या फिर मॉडेल सुन्दरियों की तरह का कैटवॉक। नपे-तुले शब्दों में, कम न ज्यादा-जस्ट राइट।'' (उर्वर प्रदेश पर अम्ल वर्षा, आलोचना सहस्राब्दी अंक 36, जनवरी-मार्च 2010, पृष्ठ सं. 112)
इसी दौर के कवि बद्री नारायण जो आभिजात्य के बरअक्स लोक की प्रतिरोधी चेतना को पहचानते हैं, कविता और लोक पर विचार करते हुए लिखते हैं - ''नब्बे के दशक में छोटे-छोटे शहरों से अनेक नये कवि उभरे। उन्होंने अपने उभरने की लड़ाई को दिल्ली से शासित कविता से संघर्ष करते हुए संभव किया। चूंकि अनेक लोकभाषीय पृष्ठभूमि एवं अनेक जीवन भावों से ये कवि आये थे अत: उनमें भाषा, सांस्कृतिक भाव, लोकसंवाद, मुहावरे एवं डिक्शन की अनेकरूपता थी जो उसे एक सशक्त साहित्यिक हस्तक्षेप बना रही थी। औपनिवेशिक आधुनिकता बोध को समझते हुए भी ये कवि सूखी काव्यभाषा के दबाव को तोड़ कर लोकरागों से अपने को जोड़ रहे थे। ...हर कुछ जो स्थानीय है, वह स्थूल एवं सरल काव्यभावों का अवकाश है एवं हर कुछ जो महानगरीय आभिजात्य बोध से जनित है वह सूक्ष्म, जटिल एवं उत्कृष्ट साहित्यिक संस्रोतों का अवकाश है, जो लोक है उसका कोई सामाजिक यूनिवर्स नहीं होता, ऐसी समझदारियों ने नब्बे के दशक में हिन्दी कविता में आ रहे लोक मिथकों, प्रतीकों, शब्दों, सांस्कृतिक लयों के संघर्षमय प्रतिरोधी यूनिवर्स को नकार दिया।'' (फटी हुई जीभ की दास्तान, तद्भव अंक 20 जुलाई 2009, पृष्ठ सं. 96)। वे बताते हैं कि एकरूपीकरण कविता को नष्ट कर रहा है मगर फिर भी कविता में महानगर से इतर काव्यसंवेदना अपने सर्वाइवल की लड़ाई लड़ रही है। यहां यह भी कहना बेहद जरूरी है कि लोक एकदम पवित्र स्पेस नहीं है, लोक के अपने अंतर्विरोध होते हैं।
जहां तक इस दौर में गांव के बदल रहे यथार्थ का प्रश्न है यह सिर्फ हिन्दी कविता का नहीं अपितु समूचे हिन्दी साहित्य का संकट है। इस दौर में तेजी से हो रहे शहरीकरण और गांवों में कठिनतर होते जा रहे जीवन के कारण लोगों का शहरों की ओर प्रव्रजन बढ़ा है। इसलिए हिन्दी साहित्य से ही हल-बैल गायब होने लगे। कुछेक नामों को छोड़ दें तो कमोवेश यह स्थिति सभी विधाओं की है। बोधिसत्व की 'लाल भात' कविता के सहारे कहें तो - ''जैसे उच्छिन्न हुआ लाल भात/वैसे ही कहीं खो गए छोटे छोटे/देसी बैल देसी भैंस, देसी कुत्ते-देसी अन्न,देसी गाय/सबको कम गुणी कहकर/खतम किया गया... या किया जा रहा है...।/जो बचे हैं...देसी उन्हें खत्म होना है।''
कवियों का लोक में शरण लेना वस्तुत: भूमण्डलीकरण के प्रतिरोध का उनका अपना तरीका है। ये कवि 'ग्लोबल' के बरअक्स 'लोकल' को कविता में खड़ा करते हैं और इनका यही प्रयत्न बकौल नामवर जी 'उजड़ा में मनसायन' लाता है। कविता ही नहीं बल्कि स्वयं भाषा भी अन्तत: लोक पर निर्भर होती है। इसलिए साहित्य का भी एक प्रतिमान लोक है। कभी अशोक वाजपेयी ने हिन्दी कविता पर यह आरोप लगाया था कि वह मात्र दो हजार शब्दों की कविता है। ऐसे में अपने अंचल विशेष से लाये गए शब्दों से कवि हिन्दी कविता के शब्दकोश को ही नहीं बढ़ाता बल्कि वह हिन्दी कविता को भी 'राजभाषा की शब्दावली' से भी मुक्त करता है। अपने जल, जंगल और ज़मीन पर नव-साम्राज्यवादियों की घुसपैठ के विरोध के लिए लोक में उसका जाना ठीक वैसा ही प्रतिरोध है जैसे स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में औपनिवेशिक सत्ता के विरोध में अपनी आज़ादी के लिए अपने 'हिन्दुस्तान' के प्रति प्रेम और भक्ति के गीत रचे तथा गाए जाते थे। यह अकारण नहीं है कि वामपंथी पी.सी. जोशी 1857 की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को लोकगीतों के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं क्योंकि जनआकांक्षाएं लोकगीतों में ही अभिव्यक्त हो रही थीं।
जैसा कि मैंने कहा कि 90' के दशक के कवि प्राय: किसान परिवारों से आये थे। इस सन्दर्भ में यह भी जोड़ देना मुनासिब होगा कि किसानों की विश्व-दृष्टि उस पूरे समुदाय की विश्व-दृष्टि होती है जो अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए लड़ता है। माक्र्स कहते हैं कि - ''निम्न मध्यम वर्ग...किसान... क्रान्तिकारी नहीं होते, वे  रूढि़वादी होते हैं... वे... अपने वर्तमान के लिए नहीं, भविष्य के हितों की रक्षा के लिए लड़ते हैं।'' किसान परिवारों से आए हुए ये कवि अपने वर्तमान में तेजी से हो रहे परिवर्तनों के घटाटोप में, स्वप्नभंग से आहत होकर भविष्य की ही रक्षा के लिए लड़ाई लड़ रहे थे। इसी से उपजती है वह करुण पुकार जो सबकुछ नष्ट होते हुए देखते-देखते कवि-मन से फूटती है। 'बचाया ही जाना चाहिए' या बचा लेने की इस बेचैन मासूम ज़िद में वह सब कुछ शामिल है जिसे नष्ट किया जा रहा है अथवा  नष्ट किये जाने के षड्यन्त्र दीख रहे हैं। कोई सामान्य निहत्था आदमी भी जब एकदम असहाय होता है तो 'बचाओ! बचाओ!' की गुहार लगाता है। विनय दुबे की कविता पंक्ति है - ''सच को शायद सच/और कविता को शायद कविता कहो/ऐसा कहने से/शायद बच सकते हो तुम...।'' यह अनिश्चय भरा समय कवि को शायद नहीं बल्कि सचमुच बचा लेने की पुकार के लिए बाध्य करता है। इसी से 'न बचा पाने' पर कवि विलाप के लिए विवश होता है क्योंकि रुलाई का कविता से आदिम सम्बन्ध है। 'रुलाई' दुनिया के प्रतिरोध का एक अपना तरीका है। बद्रीनारायण 'आधी रात में रुलाई का पाठ' करते हुए बताते हैं कि - ''सृष्टि का आदि शब्द 'ओम' नहीं 'रुलाई' है।'' गालिब अगर कहते थे कि ''रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यों'' तो हमारे दौर के कवि पंकज चतुर्वेदी कहते हैं- ''क्योंकि कुछ नया और सार्थक रचने की/तमाम सच्ची कोशिशों की असफलता के बाद/फूट-फूट कर रो पडऩे की/एक अकाट्य तार्किक ज़िद है।''
90' के दशक के बारे में पंकज चतुर्वेदी कहते हैं - ''एक ऐसे समय में/जब सब-कुछ बिक रहा है/और इस बहुमुखी बिक्री में लोग/एक-दूसरे की नज़रें बचाकर भी/अपने को बिकने से बचा नहीं पा रहे'' तो इस दौर के कवियों की निराशा भी उम्मीद पैदा करती है। निराशा के इस दौर में कोई नकली, दिलासा देती क्रान्ति की मुद्रा भला क्यों और कैसे अख्तियार करे। इसी समय हमारी आज़ादी के पचास साल पूरे हो रहे थे और हालात ऐसे, फिर इसकी भी पड़ताल की जानी चाहिए कि जिन कवियों के लिए 'ज़मीन पक रही' थी और जो क्रान्ति के लिए 80' के दशक में ही महज़ एक चिन्गारी की तलाश कर रहे थे, 90' के दशक में उनका क्या हुआ? 80' के दशक के कवियों ने अपनी रचनाओं से कहीं भी सोवियत के विघटन की आहट नहीं दी। यह या तो 'सब ठीक हो जाएगा' का झूठा विश्वास था या यथार्थ की अनदेखी या उसे न पचा पाने की लाचारी या उस समय के राजनीतिज्ञों की भांति रोमानिया और सोवियत संघ के बारे में जनता को भुलावे में रखने की एक सोची-समझी रणनीति? 90' के दशक के तमाम हादसों में घायल होने के बाद 80' के दशक के कवि ने अंतत: कहा कि 'उजले दिन ज़रूर आएंगे' तो यह साफ हो चुका था कि फिलवक्त 90' के दशक की रातों के घनेरे अन्धेरे को वह समझ और स्वीकार चुका है। कविता में 80' के दशक तक गोली दागने वाले कवि 90' की सियाह रातों में अपनी सफेद रात की चमक के साथ कविता के प्रिय क्षेत्र में मौन क्यों हो गए? 90' के दशक के ही कवि रविकान्त की एक कविता इन कवियों पर ही जैसे टिप्पणी करती है - ''इस समूचेपन में बंद होकर/मेरा दम घुट रहा है/मेरे सपनों का जोश खत्म हो गया है.../मैं, जो कि अपनी बंदूक पोंछ कर/उसे अपने मुहल्ले की धूप में चमकाता हूं/हां, मैं ही, जो कि/शहर भर में मंडराते भूखे बच्चों को/महज़ संवेदना से देखकर/अपनी विचारधारा पर गर्व करता हूं।'' (इन कविताओं का कवि एक सपने में मारा गया)
यहीं से कवि का अकेलापन उस पर हावी हो जाता है। जिस राजनीति ने उसे जनपक्षधरता के साथ जोड़ा जब वही संकटग्रस्त हो गयी और क्रान्ति की नकली भंगिमाएं सब बेकार साबित हुयीं, यथार्थ में नव-साम्राज्यवाद अपने नए रूप में सामने आ रहा था, अपना माल खपाने के लिए नए बाजार तलाशे जा रहे थे, हथियारों को खपाने के लिए अफगानिस्तान से लेकर खाड़ी देशों तक नरसंहार किए जा रहे थे, दो पड़ोसी देशों के बीच तनाव की स्थितियां जबरन पैदा की जा रही थीं तब एक रचनाकार अपने अकेले होने को सहज ही महसूस कर सकता है। वैसे भी हर जेनुइन रचनाकार अपने समय की विभीषिकाओं से जूझने में अपना अकेलापन महसूस करता ही है। टैगोर अकेले थे, कबीर अकेले थे, गालिब अकेले थे और अपने समय की सामाजिक क्रूरताओं के  बीच निराला व मुक्तिबोध भी अकेले थे।
इसी अकेलेपन से टूटकर कवि पुन: अपने लोक और घर-परिवार की ओर लौटता है क्योंकि अभी तक क्रान्ति के एक बड़े सपने के लिए सबसे ज़्यादा यही उपेक्षित हुए थे। समय के दिये गए गहरे घावों के साथ वह उन्हीं माता-पिता और भाई-बहनों के पास पहुंचता है जो दुनिया को बदल देने की सैद्धान्तिकी में कहीं छूट गए थे। वह फिर जीवन-द्रव्य पाने उन्हीं माता-पिता के पास जाता है, जिन्होंने उसे जीवन दिया था। अपने इसी दौर के कविता संग्रह 'हम जो देखते हैं' में अग्रज पीढ़ी के कवि मंगलेश डबराल 'चेहरा' शीर्षक अपनी कविता में लिखते हैं - ''मां मुझे पहचान नहीं पायी/जब मैं घर लौटा/सर से पैर तक धूल से सना हुआ/मां ने धूल पोंछी/उसके नीचे कीचड़/जो सूख कर सख्त हो गया था साफ किया/फिर उतारे लबादे और मुखौटे/जो मैं पहने हुए था पता नहीं कब से/'' इसी पीढ़ी के कवि असद ज़ैदी बहनों पर कविताएं लिखते हैं तो वीरेन डंगवाल 'दुश्चक्र में सृष्टा' में 'मां की याद' करते हैं और अपने संग्रह 'स्याही ताल' तक आते-आते 'रुग्ण पिताजी', 'शव पिताजी' और 'खत्म पिताजी' जैसी कविताएं लिखते हैं। बड़ी लड़ाइयों को सामने रखने पर जो लड़ाइयां छूट गयी थीं या जो एक बड़े आन्दोलन के साथ ही नत्थी थीं अब कवि को वे सब याद आती हैं क्योंकि समाजवादी आन्दोलन की पस्त-हिम्मती के दौर में कवि अपने घर-परिवार से फिर एक छोटी-सी शुरूआत कर रहे थे। इन कविताओं में दु:खी माता-पिता या भाई-बहन-पत्नी की करुण छवियां इसलिए बार-बार आती हैं क्योंकि पूरी दुनिया की ही निस्तेज, प्रभाहीन और उदास छवि कवि के मानस में थी जिसे पुन: प्रसन्न करने की एक नई लड़ाई लड़ी जानी है। बाज़ार इस परिवार नामक संस्था का विरोधी है क्योंकि परिवार में सम्बन्ध आते हैं। वह कहता है कि मुझमें और आप में भी सम्बन्ध नहीं हैं, सम्बन्ध तो आप और वस्तु में है। महान् वैज्ञानिक मुनरॉड लॉरेंज ने अपनी पुस्तक ' When a man meets a woman he does not impregnate an egg, he impregnates the relationship '

इस परिवार के अन्तर्विरोधों पर भी इन कवियों की बराबर निगाह है। केशव तिवारी के लिए 'सदानीरा नदी थी मां जो बहती रही पितृ-संस्कृति के पहाड़ों के बीच...।' बोधिसत्व 'मां का नाच' में कहते हैं- ''पैरों में बिवाइयां थीं गहरे तक फटीं/टूट चुके थे घुटने कई बार/झुक चली थी कमर,/पर जैसे भंवर घूमता है/जैसे बवंडर नाचता है वैसे/नाच रही थी मां।/आज बहुत दिनों बाद उसे/मिला था नाचने का मौका।'' गगन गिल कहती हैं- ''हमारे लिए घर नहीं संताप है।'' अनिल कुमार सिंह स्वीकार करते हैं- ''इतने भारी नहीं हैं हम/कि हमारे घर की औरतें/एक आतंकित सौम्यता में बंधी रहें/...हमारी सत्ता के खिलाफ/हमारे ही घर में/सर उठाएंगी वे।'' पवन करण 'प्यार में डूबी हुई मां' के बारे में लिखते हैं। मेरा ख्याल है उपरोक्त उदाहरण उन सुधी जनों के लिए पर्याप्त होंगे जिन्हें परिवार जैसी संस्था के 'अन्तर्विरोध' इस दौर की कविताओं में ढूढ़े नहीं मिलते। यहाँ स्त्रियों के शोषण एवं परिवार के ढांचे के चित्र भी हैं और उनका प्रतिरोध भी। इसी दौर की कवयित्री अनामिका कहती हैं - ''झण्डे लेकर चलना अच्छी बात है, पर कविता में हम झण्डे उठाते हैं, तो कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आंधियां झण्डा तो उड़ा ले जाती हैं और हाथ में रह जाता है केवल डण्डा जो कम से कम कविता के स्वास्थ्य के लिए तो ठीक नहीं ही है।'' (उर्वर प्रदेश पर अम्ल वर्षा, आलोचना सहस्राब्दी अंक 36, जनवरी-मार्च 2010, पृष्ठ सं. 112)
अब जरा इस दौर की कविताओं में आए हुए धर्म और साम्प्रदायिकता पर भी बात कर लें। जिस माक्र्स को हम धर्म-विरोधी के रूप में चित्रित करते रहते हैं, उसी माक्र्स ने 'पेरिस कम्यून' का नेतृत्व किया था जिसमें संगठित मज़दूर के अलावा देहात का श्रमजीवी वर्ग था और उसमें छोटे स्तर के पादरी भी शामिल थे, जिन्होंने मज़दूरों की सत्ता कायम की। धर्म के स्तर पर क्या हम माक्र्सवाद का एक व्यावहारिक पहलू नहीं देखते हैं? जिन देशों में समाजवाद की विजय हो गई थी वहां भी धर्म की वापसी हुयी है। यह सब कहकर मैं कहीं भी धर्म को डिफेन्ड नहीं कर रहा हूं बल्कि इस दौर में धर्म के चतुर्दिक गहरे होते प्रभावों की बात कर रहा हूं। यह ऐसा दौर है जिसमें ह्यूगो शावेज जैसे वामपंथी नेता धर्म के प्रति उदार दृष्टि अपनाते हुए वामपंथ के पुन: उभार में उसका सकारात्मक उपयोग करते हैं और ईसा मसीह को सबसे बड़ा समाजवादी बताते हैं। हिन्दी नवजागरण को उसके तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद रामविलास शर्मा से लेकर मैनेजर पाण्डेय तक 'धार्मिक-साम्प्रदायिक नवजागरण' नहीं मानते जैसी कि वीर भारत तलवार की राय है। 90' के दशक में क्या हम नवजागरण की इसी चेतना का विस्तार नहीं देखते?
माक्र्स ने धर्म के बारे में कहा है कि 'रिलीजन इज़ द रिफ्लेक्स ऑव रियल लाइफ'। वे उसे अफीम कहते हैं तो पीडि़त मानवता की कराह भी। 90' के दशक में कविता को भारत की सामान्य आस्तिक जनता को सम्बोधित करना था, कम्युनिस्ट कैडर को नहीं। वे तो वैसे भी नास्तिक और भौतिकवादी थे। अंधविश्वास सिर्फ धार्मिक ही नहीं होते सामाजिक और राजनैतिक भी होते हैं। अनिल कुमार सिंह अपनी 'अयोध्या 1991' कविता में सामान्य आस्तिक जनता को ही समझा रहे थे कि अगर कण-कण में भगवान मानते हो तो मस्जिद जो तुमने ढहायी है वहां भी भगवान ही थे। तुमने अपने भगवान का ही घर ढहा दिया है। दरअस्ल, उस समय 'रियल लाइफ' में जो रिफ्लेक्स हो रहा था वह न तो तत्कालीन राजनीति संभाल पा रही थी न दर्शन। साम्प्रदायिकता के विरोध में ढेरों कविताओं का लिखा जाना भी 90' के दशक की कविता की उपलब्धि है।
साम्प्रदायिकता का विरोध इस दौर की कविता की ज़मीन थी क्योंकि साम्प्रदायिकता ने हमारे सांस्कृतिक ताने-बाने को ही छिन्न-भिन्न कर दिया था। ऐसे समय में देवी प्रसाद मिश्र यद्यपि अलग से पहचाने जाने वाले कवि हैं किन्तु, इस दौर के लगभग सभी कवियों ने साम्प्रदायिकता का विरोध किया है। हिन्दी कविता के इतिहास पर नज़र डालें तो 1947 में भारत-पाक विभाजन और उससे बने घोर साम्प्रदायिक माहौल में भी इतनी और इस तरह की कविताएं नहीं लिखी गयीं। उसका एक कारण यह भी था कि इस दौर के बहुत से कवि 'एक्टिविस्ट' थे। तमाम कवि अपने छात्र जीवन से ही कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र-संगठन अथवा लेखक संगठन से जुड़े थे। अधिकांश कवि जो आज स्थापित हो चुके हैं या पहचाने जाते हैं उनका रचनात्मक मानस इसी समय निर्मित हो रहा था। जैसा कि कहा जा रहा है कि 'गुजरात नरसंहार के बाद लिखी कविताओं में साम्प्रदायिकता की परिघटना की ज़्यादा बेहतर समझ नुमायां होती है' तो उसका कारण है कि तात्कालिक राजनीति और तात्कालिक युवा कवियों-दोनों की समझ अब तक विकसित हो चुकी थी क्योंकि इससे पहले तो 'जनता दल' के निर्माण और फिर उसके द्वारा सत्ता हासिल करने में कम्युनिस्ट और साम्प्रदायिक भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन हो चुका था। इसके बाद बने 'तीसरे मोर्चे' में आज का जद (यू) भी शामिल था। बिहार में इसी दौर में क्रान्तिकारी भाकपा-माले ने समता पार्टी से गठजोड़ किया जो बाद में भाजपा के करीब हुयी। कहने का आशय यह कि यह उस दौर के उहापोह और असमंजस का परिणाम था।
संस्कृति और इतिहास एक दूसरे से सम्बद्ध होते हैं। कभी-कभी संस्कृति और इतिहास की मिथकीय धारणाएं भी स्वस्थ सामाजिक-राजनैतिक वातावरण को गहरे आघात दे जाती है। सांस्कृतिक अस्मिता पर संकट दिखा कर जनता का ध्रुवीकरण करके अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति की जाती है। धर्म और जाति पूरे भारत की कमज़ोरी थी और आज भी है। अगर अतीत में अलग धर्म और संस्कृति के आधार पर अलग देश की मांग की जाती है तो आज भी जाति के आधार पर राजनैतिक दल हिन्दी पट्टी में राजनीति करते हैं। इसी कठिन समय में पवन करण चाहते हैं कि रामचरण नामक पिता और रामप्रसाद नामक उनके दोस्त अपना नाम बदल लें। हरीशचंद्र पाण्डे लिखते हैं - ''इतनी विशालकाय वह मूर्ति/कि सौ मजदूर भी नहीं संभाल पाये/उसे खड़ा करना मुश्किल/पत्थर नहीं/एक पहाड़ पूजा जायेगा अब।'' इसीलिए वे कबीर को याद करते हैं क्योंकि अपने समय में कबीर ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के कठमुल्लों को फटकारा था। इसी कविता में वे कहते हैं - ''जब केवल पांच प्रश्न हुआ करते थे हल करने को/अनिवार्य थे कबीर/आज अनगिनत प्रश्न हैं।'' यही है 90' के दशक की हिन्दी कविता का 'सर्व-धर्म समभाव?' साम्प्रदायिकता के विरोध की चेतना बोधिसत्व की 'पागलदास' से ही नहीं मापी जानी चाहिए बल्कि उसी संग्रह की पहली ही कविता को भी देखा जाना चाहिए जिसमें वे कहते हैं - ''जबकि/मिथक हैं, प्रतीक हैं, बिंब विधान हैं/वेद हैं, स्मृतियां हैं, कुरान है, पुरान हैं/जाता हूं मैं/सुकोमल पदावलियों के बाहर, खाली हाथ/जाता हूं कवियों! बेशऊर आंखों के साथ।''
हर समय बुश की भाषा में ही नहीं कहना चाहिए कि 'जो हमारे साथ नहीं, शत्रु हैं'। 'एक चीज़ 'एम्बी बैलेन्स' भी होती है। 'बाइनरी अपोजीशन' के बरअक्स सुधीर चन्द्र जैसे समाजविज्ञानी ने 'एम्बी बैलेन्स' को कई बार अधिक महत्वपूर्ण माना है। एक तीसरा पक्ष हो सकता है और बावरी मस्जिद विध्वंस के समय भी था जो न बदले के रूप में घोषित किये जा रहे विध्वंस और राम मन्दिर के निर्माण के उद्यम से प्रसन्न था और न ही पुन: उसी स्थल पर एक मस्ज़िद बनाने की ज़िद से। माक्र्सवाद में भी एक लम्बी बहस के बाद एक दौर में भक्तिकालीन साहित्य को स्वीकार कर लिया गया, उससे प्रगतिशील तत्व खोज निकाले गए। एक वाम लेखक संगठन कहता है कि शीतयुद्ध के बाद जो वृहद् सांस्कृतिक मोर्चा बनेगा उसमें मॉडरेट्स, डेमोक्रेट्स और प्रगतिशील साथ होंगे, एक वामपंथी पार्टी कहती है कि धर्म के प्रति अपने नज़रिए का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए। ऐसे में साहित्य में संबोधित आम जनता को 'सर्व-धर्म वर्जयेत' कहकर अपनी बात के लिए हम सचमुच कितना स्पेस ले पाएंगे? देखा यह जाना चाहिए कि इन कविताओं में अपने समय की शिराओं में छिपी सामाजिक गति की तरफ संकेत किया गया है या नहीं?
रचना और वैचारिक प्रतिबद्धता के बारे में अब ज़रा बाबा नागार्जुन का कहा भी जान लें - ''रचना के लिए विचार हमेशा महत्वपूर्ण होता है। रचना सिद्धांत नहीं है। वैचारिक प्रतिबद्धता का पहले से तैयार होकर रचना में आना खतरनाक होता है। उसका विकास स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। वैचारिक प्रतिबद्धता को किसी पार्टी या राजनीति की परिधि में नहीं समझा जा सकता। वह धरती की तरह विराट और समुद्र की तरह गहरी होती है। रचनाकार किसी का गुलाम नहीं होता। उसकी आभा फूटती है किरणों की तरह। रचना में वैचारिक प्रतिबद्धता होनी चाहिए पूरी मानव जाति के कल्याण के लिए। जो रचनाकार दूसरे के निर्देशों के अनुसार रचना करेगा उसके लेखन में अन्दर से ताकत नहीं पैदा होगी। वह भुरभुरी मिट्टी के ढेले के समान ही रचना लिख सकेगा। ...यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि हमारे वामपंथी नेता बहुत संकीर्ण हैं और अपने आपको लेखक और कवि के मुकाबले बहुत बड़ा मानते हैं।... हमारी वैचारिक प्रतिबद्धता मानव जाति के लिए है।'' (बाबा नागार्जुन से महावीर अग्रवाल की बातचीत, सापेक्ष अंक 34, जनवरी-मार्च 1995, पृ. सं. 278)
भारत में माक्र्सवाद के विशाल वितान की छाया में बैठे दलितों और स्त्रियों को उनकी मुक्ति के लिए सही और सार्थक पहलकदमी नहीं समझ में आई तो उन्होंने अपनी अस्मिता की राह तलाशी। माक्र्सवाद के भीतर वे अपनी पहचान के साथ ही रह सके। जो हाशिए के लोग हैं, जो निर्बल हैं उनके पक्ष में इस दौर की कविता अपने सहज स्वभाव के कारण खड़ी है फिर वे चाहे दलित हों या स्त्रियां या आदिवासी। अनामिका के ही हवाले यदि फिर कहूं ''एक खास तरह की विनय जो गहरे आत्म-विश्वास से ही पैदा हो सकती है - इधर की कविता का केन्द्रीय सत्य है। 'पर्सनल इज़ पॉलिटिकल' कहकर वैयक्तिक और सामाजिक के बीच का सारा झगड़ा ही यह कविता खत्म कर देती है तो शायद इसलिए कि जीवन का अंतिम सत्य जेब में लिये घूमने का दम्भ और ढकोसला इसके पास नहीं है। आदमी जब बहुत विचलित होता है तो इधर से उधर, उधर से इधर लगता है चहलकदमी करने। ऑपरेशन थियेटर के बाहर जिस बेचैनी से मरीज़ के आत्मीयजन टहलते हैं, प्राय: उसी बेचैनी से इस 'ध्रुवान्त' से उस 'ध्रुवान्त' तक खामखयाली में आज की कविता टहल-सी रही है। खेमों में बंटी इस कातरप्राण दुनिया के जितने भी ध्रुवान्त हैं, वर्ण-लिंग-जाति और भाषिक अस्मिता के जो भी दो तट हैं-उनके बीच भरपूर बेचैनी में चहलकदमी करती हुई लगातार यही सोचती है यह कविता कि इन दो ध्रुवान्तों के बीच पुल कायम भी किया जाए तो कैसे।'' (उपरोक्त)
कविता से हमेशा 'पॉलिटिकली करेक्ट' होने की मांग नहीं की जानी चाहिए क्योंकि कविता अंतत: 'मानवीय राग' है। कोई दर्शन या सैद्धान्तिकी चाहे कितने भी महान हों कविता नहीं हो सकते। अभी 'तहलका' के 15 जून 2013 के अंक में कवि नरेश सक्सेना अपने साक्षात्कार में कहते हैं - ''कविता कला है और यकीनन उसका सम्बन्ध आनन्द से है। ...कविता विज्ञान नहीं है, वह अंतत: कला है। यदि हम मोची होते तो अपना जूता खुद बनाकर पहनते, रसोइये होते तो अपनी खिचड़ी घी और अचार के साथ खाकर मगन रहते, लेकिन यह कविता है। यह बिना श्रोता के पूरी नहीं होती। हां, विचार भी हमें नयी दृष्टि देते हैं लेकिन केवल विचारों से कविता नहीं बनती।'' अब जबकि इक्कीसवीं सदी का पहला दशक बीत चुका है, नव-साम्राज्यवाद का रक्तपायी रूप सामने आ चुका है हिन्दी आलोचना ने भी तीसरा नेत्र खोल दिया है। शायद भूमण्डलीय आंधी में वह भी अपनी आंखों में पड़े तिनकों को साफ करने में व्यस्त थी।
ऐसा नहीं है कि 80' के दशक के कवियों में अन्तर्विरोध नहीं हैं किन्तु मेरा उद्देश्य यहां उनके अन्तर्विरोधों का उद्घाटन नहीं है। अन्तर्विरोध प्राय: कवियों में नहीं उस समय में होते हैं, जिसमें वह अवस्थित होता है। रामविलास जी नवजागरण का विश्लेषण कर हमें बता चुके हैं कि हमारे बड़े कवियों, लेखकों में पाये जाने वाले अन्तर्विरोध वस्तुत: नवजागरण के उस कालखण्ड के अन्तर्विरोध हैं। का. विनोद मिश्र लिबरेशन के अप्रैल 1995 के सम्पादकीय में लिखते हैं - ''हमें उन कठमुल्लावादियों की तरह आचरण नहीं करना चाहिए जो अपने व्यवहार की लगातार समीक्षा करने से इन्कार करते हैं और लगभग धार्मिक अंध-आस्था के बतौर पुराने पड़ गए घिसे-पिटे सूत्रीकरणों का जाप किया करते हैं।'' आलोचक इसके उलट साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में हार्डलाइनर क्यों हो रहे हैं-यह फिलहाल मेरी समझ के बाहर है।
अत: 90' के दशक में कवियों के जो अन्तर्विरोध बताये जा रहे हैं वे समग्रता में उस कालखण्ड के अन्तर्विरोध हैं-राजनीति के भी, साहित्य के भी, समाज के भी और कवियों के भी। साहित्य को इतना 'हार्डलाइनर' हो कर न देखा जा सकता है, न देखा जाना चाहिए। इतने सब के बावजूद 90' के दशक की कविता अगर हारी हुयी, पिटी हुयी है तो उसके कवियों की ओर से अन्त में मैं यही कहूंगा कि -
न गुल-ए-नग्म: हूं,  न पर्द:-ए-साज़
मैं हूं अपनी शिकस्त की आवाज़


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