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दिसम्बर 2013

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गजेन्द्र पाठक

सारे संतों का रुख सीकरी की ओर है...


एक दिन फेसबुक पर मैंने एक कार्टून देखा। किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी जब उसके अंतिम संस्कार के लिए किसी का इंतजार करते-करते थक जाती है तब उसका यह सोचना कि, ''इसके तो फेसबुक पर चार हजार मित्र थे'', मित्रता के इस आधुनिक संस्करण पर एक गंभीर टिप्पणी है। फेसबुक ने मित्रता का जो एक छद्म अहसास पैदा किया है और वह जिस बालू की भीत पर खड़ा है उसे समझने जानने के लिए यह कार्टून महज एक संकेत है। विनोद कुमार शुक्ल की कविता ''जो मुझसे मिलने मेरे घर नहीं आएंगे'' या अरुण कमल की कविता ''दोस्त'' और अमरकांत की कहानी ''मित्र मिलन'' को याद करें तो पता चलेगा कि हमारी सामाजिकता का मूल आधार तथाकथित तेज चलने वाले इस समाज में किस कदर लहूलुहान हुआ है। वैसे सच तो यह है कि इस संकट को महसूस करने के लिए अब किसी कविता और कार्टून की दरकार नहीं है। मिर्जा ग़ालिब ने जब 'मर्दूमगज़ीद:' की बात की थी; आदमी से काटे जाने की बात की थी तब भीतर से वे कितने आहत हुए होंगे इसका अनुमान किया जा सकता है। निराला जब हार खाकर भीतर से जहर बुझे संसार की बात करते हैं तब भी इस पीड़ा को समझा जा सकती है। प्रेमचंद इसी सिलसिले में इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि रिश्तों की ईमानदारी सार्वभौम होती है। जो ईमानदार होगा वह हर रिश्ते से ईमानदार होगा। तुलसी को रामचरित में इसी कारण से सबसे ज्यादा दिलचस्पी थी। बहरहाल इस बात पर विचार होना चाहिए कि रिश्तों में ईमान खोजने वाले हमारे इतने बड़े रचनाकारों के साथ इतना छल क्यों हुआ? स्वयं प्रेमचन्द के अन्तिम संस्कार में महज पांच छ: लोगों का पहुंचाना क्या कहता है? जीते जी जो उनके साथ हुआ होगा इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। बहरहाल यह सिर्फ कवि संकट नहीं है बल्कि जीवन संकट है।
-गजेन्द्र पाठक, हैदराबाद विश्वविद्यालय


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