मुखपृष्ठ पिछले अंक भौतिक विज्ञान और प्रकृति का द्वन्द्ववाद
जुलाई २०१३

भौतिक विज्ञान और प्रकृति का द्वन्द्ववाद

शोइची सकाता, अंग्रेजी से अनुवाद: - शीतेन्द्रनाथ चौधरी

 



इधर सर्न के महाप्रयोग और गॉड पार्टिकल पर काफी शोरगुल है। इससे संदर्भित झूठ का पर्दाफाश करने वाले और भौतिकवादी दृष्टि को प्रभावी तरीके से पुष्ट करने वाले दो छोटे आलेखों का अंग्रेजी से अनुवाद यहां प्रस्तुत है। पहला आलेख सुप्रसिद्ध जापानी वैज्ञानिक शोइची सकाता का है जो कण भौतिकी में 'सकाता मॉडल' के जनक हैं और जिन्हें 1965 में भौतिकी का नोबल पुरस्कार मिला है। यह अंश उनकी किताब ''भौतिक विज्ञान और प्रकृति का द्वंद्ववाद'' के प्रथम अध्याय का एक हिस्सा है। यह आंशिक लेकिन मुकम्मल है।
दूसरा लेख महाराष्ट्र के कुछ वामपंथी छात्र वैज्ञानिकों की ब्लॉग पत्रिका 'दि स्पार्क' के 2011 के एक अंक में प्रकाशित ''गॉड पार्टिकल अ फैटल फ्रायसिस एण्ड मेटेरियालिज्म'' का अनुवाद है जो संभवत: मिल जुलकर लिखा गया है क्योंकि उसमें लेखक का नाम नहीं है। ये वैज्ञानिक अपने बारे में लिखते हैं, ''हम छात्रों का एक ऐसा समूह हैं जो  विज्ञान को पूंजी की जंजीरों से मुक्त करने के लिए काम कर रहे हैं।''


पहले यह समझना जरूरी है कि प्रकृति किसी भी रूप में ऐसी वस्तुओं और घटनाओं का संयोगवश बना कोई संग्रह नहीं है जो कि परस्पर पृथक्कृत एक दूसरे से अलग और स्वतंत्र हों बल्कि एक बात यह होती है कि इसमें सारी चीजें परस्पर सम्बंधित, एक दूसरे पर निर्भर, सीमाबद्ध और जुड़ी हुई होती हैं।
प्रकृति का सबकुछ, सूक्ष्मतम से लेकर विशालतम तक, का अस्तित्व एक सतत प्रवाह, एक अविराम गति और परिवर्तनक्रम में शाश्वत रूप से पैदा होने और समाप्त हो जाने में है। दूसरे, प्रकृति के 'गति और विकास' के नियमों के वही रूप हैं जैसा कि हीगल द्वारा स्थापित विचार के विकास के नियमों के हैं।
अर्थात् ये नियम हैं : ''परिणाम का गुण में और उसके विपरीत गुण का परिणाम में रूपांतरण का नियम; विपरीतों के अंतर्वेधन का नियम; निषेध के निधेष का नियम,'' आदि।
आइए, इन्हें तनिक ठोस रूप में भी समझ लें। वर्तमान विज्ञान ने पाया है कि प्रकृति में गुणात्मक रूप से भिन्न स्तर या गति के रूप होते हैं। उदाहरण के लिए — स्तरों की एक श्रेणी जैसे कि मूलकण, नाभिक, परमाणु, अणु, द्रव्यमान, आकाशीय पिण्ड, निहारिकाएँ हैं। ये स्तर विविध संधिस्थल या केन्द्रबिन्दु बनाते हैं जो कि सामान्यत: पदार्थ के अस्तित्व की विविध गुणात्मक प्रणालियों को बाँधे रखते हैं। इस प्रकार वे केवल सीधे तरीके से जुड़े नहीं होते हैं जैसा कि ऊपर बताया गया है। ये ''स्तर'' एक ऐसी दिशा में भी जुड़े होते हैं जैसे कि अणु—कोलायड्स—कोशिकाएं— अंग या अवयव (organs)—व्यक्ति (इंडिविजुअल्स)—समाज होते हैं।
यहाँ तक कि द्रव्यमानों में ठोस-द्रव-गैस की स्थितियों के स्तर मौजूद होते हैं। रूपकीय ढंग से कहें तो इन परिस्थितियों को मछली के जाल की तरह एक प्रकार की बहुआयामी संरचना कहा जा सकता है अथवा यह कहना बेहतर होगा कि उनकी संरचना प्याज की तरह लगातार एक के बाद एक परत-दर-परत की तरह है।
ये स्तर किसी भी तरह से परस्पर पृथक्कृत और स्वतंत्र नहीं हैं, बल्कि ये आपस में जुड़े हुए हैं, निर्भर हैं और लगातार एक-दूसरे में ''रूपांतरित'' होते हैं। उदाहरण के लिए परमाणु मूलकणों से बना होता है और एक अणु परमाणुओं से बना होता है। और उसके उलट अणु का परमाणुओं में विघटन होता है और एक परमाणु मूलकणों में विघटित किया जा सकता है।
सतत परिवर्तनक्रम में इतर चीजों के नाश और नये गुण के सृजन के साथ इस प्रकार के रूपांतरण निरंतर होते रहते हैं। डेमोक्रिटस (460-370 ई.पू.) ने 'परमाणु' को स्थायी रूप से अपरिवर्तनीय पराभौतिक चरित्र का मान लिया था, पर अब तो यह सिद्ध हो गया है कि 'परमाणु' विभाज्य है और उसके कई सारे सूक्ष्म कण हैं जिन्हें मूल कण कहते हैं और यह भी कि परमाणु ही नहीं, यहाँ तक कि पदार्थ के सरलतम और अंतिम अवयव माने गये मूलकणों की प्रकृति भी पराभौतिक नहीं है। उदाहरण के लिए, कॉस्मिक किरणों के द्वारा वायुमंडल में उत्पन्न मिज़ान कण  2x10-6 सेकण्ड के इतने कम समय में एक इलेक्ट्रॉन और एक न्यूट्रिनो में रूपांतरित होता है।
भिन्न स्तरों पर इस प्रकार के रूपांतरण, नये गुणों की उत्पत्ति और अंतत: उनका नाश 'हीगल के नियम' का पालन करते हैं। कुछ भौतिकशास्त्री यह कहकर उपरोक्त बात पर आपत्ति जता सकते हैं कि ''परमाणुओं की रचना के लिये नियम है क्वांटम मेकानिक्स जबकि सौर्यप्रणाली को परिचालित करने वाला नियम न्यूटोनियम मेकानिक्स है।''
बिल्कुल सही, हर स्तर अन्तर्निहित उससे ही सम्बंधित किसी नियम से ही परिचालित होता है। ठीक इसी वजह से अलग-अलग विज्ञानों की आवश्यकता होती है। हालांकि यह ''द्वन्द्ववाद'' है जो कि सामान्य रूप से ''क्वांटम मेकानिक्स, न्यूटोनियम मेकानिक्स, जीवित प्राणियों के विकास के नियम, समाजों के विकास के नियम'', और यहाँ तक कि विचार के विकास के नियम'' में सार्वत्रिक रूप से पाया जाता है।
इसलिए इसे (यनी डायलेक्टिसको) ''प्रकृति के तर्कशास्त्र'' के रूप में माना जा सकता है। इस तथ्य की दृष्टि से क्वांटम मेकानिक्स, न्यूटोनियन मेकानिक्स और वस्तुत: हर विज्ञान केवल द्वन्द्ववाद के तर्कशास्त्र द्वारा ही समझा जा सकता है। क्वाटंम मेकानिक्स की व्याख्या पर उत्पन्न सारे भ्रम की बुनियाद इस तथ्य में है कि भौतिक शास्त्रियों के पास द्वन्द्ववादी तर्कशास्त्र नहीं रहा है।

ईश्वरकण : भौतिकवाद के लिए एक घातक संकट?
ब्लॉग पत्रिका - 'दि स्पार्क' से साभार

अंतहीन ब्रह्माण्ड की विचित्र पहेलियों ने हमेशा मनुष्य की कल्पना को उकसाया है। प्राचीनकाल से ही मनुष्य ने ब्रह्माण्ड के रहस्यों को अनावृत करने का प्रयास किया है। प्रारंम्भिक काल में यह काम मुख्य रूप से उन पुरोहितों/पादरियों और बुद्धिजीवियों ने किया जो अपने-अपने समाज की धर्म-सत्ताओं की सेवा में लगे हुए थे। इस प्रकार हम पाते हैं कि ब्रह्माण्ड की आरंभिक तस्वीर धर्मशास्त्र (थियोलॉजी) के ढाँचे में बनाई गई थी क्योंकि तब एकमात्र यही सिद्धांत और दर्शन संभव था।
आधुनिक विज्ञान की अधिकांश शाखाओं की तरह, विश्व प्रकृति के वैज्ञानिक अध्ययन के क्षेत्र में व्यवस्थित शोध का सम्बंध उस काल से है जब सम्पूर्ण यूरोप सामंती अंधकार युगों से जाग रहा था। चूंकि उस समय पैपल चर्च सबसे बड़ी और शक्तिशाली सामंती प्रभुसत्ता थी जो कि तेजी से बढ़ती हुई उत्पादक शक्तियों के विकास में रोड़े अटका रही थी, जिसके परिणामस्वरूप दो विरोधी शक्तियों के प्रतिनिधियों के बीच संघर्ष शुरू हुआ। हम मानव-चिंतन में भी इस संघर्ष का प्रतिबिम्बन देखते हैं। नये प्रेरक विचार और उनके बीजाणु अनोखे ईश्वरज्ञानीय खोल से बाहर निकलकर अवक्षेपित हो रहे थे। चर्च द्वारा प्रचारित पृथ्वीकेन्द्रित विश्व के सर्वमान्य दृष्टिकोणों के विपरीत सूर्यकेन्द्रित विश्व की अवधारणा का विचार ब्रह्मविद्या (थियोलॉजी) के पंजे से प्राकृतिक विज्ञान की मुक्ति की शुरूआत सूचित कर रहा था। हालांकि बहुतों को अभी भी इस बात का पूरा होना दूर की कौड़ी लगता था। शुरू से ही ब्रह्मविद्या से प्राकृतिक विज्ञान की मुक्ति की प्रक्रिया इतना आसान और निद्र्वन्द्व नहीं थी। इस दौरान वैज्ञानिक खोजों और अनुसंधानों को तमाम तरह के दमनों का सामना करना पड़ा तथा आधुनिक विज्ञान के नायकों को अपने विचारों के लिए अविस्मरणीय बलिदान देने पड़े। वस्तुत: आधुनिक बुर्जुवाज़ी के पूर्वज विद्रोही प्रोटेस्टेंट लोग भी अपने विरोधी समकक्ष कैथोलिकों की ही तरह प्रकृति के स्वतंत्र रूप से अध्ययन एवं जाँच-पड़ताल के खिलाफ थे। वे इन वैज्ञानिक अध्ययनों-पड़तालों को केवल तभी समर्थन देते थे जब वे उनके आर्थिक विकास में फायदेमंद साबित होते थे और जैसे ही उनके धार्मिक विश्वासों अर्थात् प्रोटेस्टेंटवाद के विभिन्न मतों को ये चोट पहुँचाते तो फौरन उनके खिलाफ हो जाते। रोमन धर्म-न्यायालय द्वारा ब्रूनो को और प्रोटेस्टेंट धर्मगुरू जॉन कैलविन द्वारा सर्विटस को (दंड के तौर पर) जीवित जलाया जाना इस तरह के अनगिनत मामलों के महज़ दो उदाहरण हैं और ये उदाहरण प्रोटेस्टेंटों और केथोलिकों की इस बात में समानता दर्शाते हैं।
पिछली कुछ शताब्दियों के अपने ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में बुर्जुवा वर्ग ने देख लिया था कि मेहनतकश वर्ग की धर्म में आस्था खतम हो जाना उनकी हुकूमत के अस्तित्व के लिए कितना खतरनाक हो सकता था। मिसाल के लिए 1789 की फ्रांसीसी क्रांति और 20 वीं सदी की समाजवादी क्रांतियां। इस प्रकार इस विरासत ने बुर्जुवा वर्ग को आम आदमी पर अपनी शोषणकारी हुकूमत जारी रखने के लिए उनके धार्मिक विश्वास को बनाये रखने तथा उसे और भी मजबूत करने के महत्व को सिखाया। आम आदमी द्वारा भोगे जाने वाले दु:ख-तकलीफों के लिए किसी अलौकिक सत्ता या ईश्वर में उनका विश्वास बनाये रखना अन्यायी व्यवस्था द्वारा उत्पन्न उनकी समस्याओं के वास्तविक कारणों से उनका ध्यान हटाने में सर्वाधिक कारगर भूमिका अदा करता है। इस प्रकार शासकवर्ग के सर्वाधिक दूरदृष्टि सम्पन्न विचारक सबसे ज्यादा इस बात की कोशिश करते रहे कि किस प्रकार प्रत्येक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज तथा अनुसंधान की धर्मविरोधी तथा भौतिकवादी प्रकृति को विकृत और धूमिल कर दिया जाय, और ठीक इसी वजह से ज्ञान के हर महत्वपूर्ण क्षेत्र में उन्होंने यही किया।
यही कारण है कि इक्कीसवीं सदी में भी, जबकि प्राकृतिक विज्ञान की प्रगति ने संभवत: उन्नीसवीं सदी के वैज्ञानिक खोजों के सर्वाधिक कल्पनादर्शियों के स्वप्नों को भी अतिक्रमित कर लिया है, तब भी, अब उन पर ईश्वर की मुहर लगाई जा रही है; वैज्ञानिक सिद्धान्तों को इस तरह मोड़ा जा रहा है कि जिससे ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो।
ईश्वर द्वारा विश्व के सृजन के प्रमाणस्वरूप सर्न के एल एच सी (लार्ज हेड्रॉन कोलायडर) प्रयोग में हिग्स बोसॉन की संभावित खोज की ब्रांडिंग करने का काम, इस क्षरणशील पूंजीवादी व्यवस्था की सेवा में लगे (घटिया काम करने वाले) भाड़े के लेखकों/पत्रकारों तथा इस पूंजीवाद के सचेत रक्षकों तथा अचेत समर्थकों  द्वारा ऐसा प्रचारित करना फिर से एकबार इसी बात को सिद्ध करता है। हिग्स बोसॉन के अस्तित्व का प्राक्कथन करने वाले इस सिद्धांत की झूठी और भ्रामक व्याख्या का आधार नोबल पुरस्कार विजेता कणभौतिकशास्त्री डा. लेडरमान द्वारा अपनी किताब; 'दि गॉड पार्टिकल : इफ द यूनिवर्स इज़ द आंसर, ह्वाट इज़ द क्वेश्चन?' में इस कण का नाम ''गॉड पार्टिकल'' रखा जाना है।
यद्यपि उन्होंने इसे इस अर्थ में ''गॉड पार्टिकल'' नहीं कहा था जैसा कि कुछ धर्मशास्त्रियों और मीडिया के एक वर्ग ने बाद में प्रचारित किया। इन कला-साहित्य विरोधी नासमझ लोगों ने जो कि वास्तविक भौतिक संसार में न जीकर विचारों के अमूर्त संसार में जीते हैं, और जो अपने-आप में दैहिक अस्तित्व से रहित महज़ विचारों के संग्रह हैं, यह दावा किया है कि ''गॉड पार्टिकल'' की खोज भौतिकवाद पर एक मारक प्रहार है क्योंकि यह विश्व के सृजन की उस धारणा को पुष्ट करती है जैसा कि अतीत में बतलाया गया था कि यह किसी बाहरी सत्ता या ईश्वर द्वारा किया गया था। इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि हिग्स बोसॉन की इस संभावित खोज के चारों ओर जो कुहरीला आवरण पैदा किया गया है उसे साफ किया जाय और इस तरह के किसी भी अनुसंधान के प्रति एक भौतिकवादी नजरिया रखा जाय।
हिग्स-बोसॉन कणभौतिकी के मानक मॉडल द्वारा प्राक्कथित (एस.एम.) कण भौतिकी के सफलतम मॉडलों में से एक है, और इस मॉडल द्वारा प्राक्कथित हिग्स-बोसॉन के अलावा सभी मूलकणों का अस्तित्व, प्रायोगिक रूप से स्थापित हो चुका है। इस मॉडल के अनुसार, विश्व के जन्म के बाद 10-43 सेकण्ड की कालावधि में (जिसके बारे में यह कुछ नहीं कहता है) सम्पूर्ण विश्व निर्वात (शून्य) की अवस्था में था जो कि उच्च ऊर्जा के एक सघन क्षेत्र से भर गया। यह क्षेत्र जिसे 'हिग्सफील्ड' के रूप में भी जाना गया, पूरे विश्व में समांगी रूप से फैल गया और जिसमें बहुत तेजी से उतार-चढ़ाव भी होता रहा।
हिग्स-बोसॉन हिग्सफील्ड का ही अवयवी कण है। स्टैंडर्ड मॉडल के मुताबिक, सभी मूलकण द्रव्यमान रहित थे और उन्होंने इस हिग्सफील्ड से अंतक्रिया करने के बाद ही मात्रा या द्रव्यमान प्राप्त किया। कणों में द्रव्यमान उत्पन्न होने की इस प्रक्रिया को हिग्समेकानिम कहते हैं। कोई कण हिग्सफील्ड से जितना ज्यादा अन्तक्रिया करता है उतना ही वह भारी होता है। यह कारण है कि हम फोटॉन (प्रकाशकण) को तो द्रव्यमानहीन पाते हैं जबकि क्वार्क (प्रोटॉन के सूक्ष्म अवयवी कण या मूल कण), तुलनात्मक रूप से काफी भारी होते हैं। इस प्रकार, यह मॉडल मूलकणों में द्रव्यमान के गुण पैदा होने का प्राक्कथन करता है या कि दूसरे शब्दों में, हिग्सफील्ड से भरे शून्य या निर्वात से द्रव्यमानयुक्त पदार्थ उत्पन्न होने की भविष्यवाणी करता है।
यह इस जटिल सिद्धांत का बहुत ही सरलीकृत और बहुत कुछ स्थूल चित्रण है, फिर भी हमारे वर्तमान प्रयोजन के लिए पर्याप्त है। हिग्सफील्ड की वजह से द्रव्यमान रखने वाले पदार्थ की उत्पत्ति की व्याख्या पराभौतिक या अलौकिक शक्ति अर्थात् ईश्वर में विश्वास करने वाले एक बाहरी कारक या सृजनकर्ता द्वारा पदार्थ की सृष्टि के रूप में करते हैं। इस प्रकार उनके अनुसार, हिग्सबोसॉन का यह अनुसंधान, भौतिकवाद का खण्डन होगा क्योंकि भौतिकवाद पदार्थ की प्रधानता को मानता है जो कि कभी भी कोई बाह्य शक्ति या कारक द्वारा नहीं सिरजा जाता है।
अब, इस सम्पूर्ण मामले में दो महत्वपूर्ण समस्याएँ हैं जिन्हें निबटाने की जरूरत है।
पहला बिन्दु है विश्व (की उत्पत्ति) के प्रारंभिक चरणों में शून्य या निर्वात की व्याख्या किसी बाह्य कारक या किसी प्रकार की चेतना या ईश्वर के रूप में किये जाने का।
दूसरा बिन्दु पदार्थ की अवधारणा पर आधारित भौतिकवाद की स्थापना का है।
जहाँ तक निर्वात को ईश्वर की उपस्थिति के रूप में मान्य किये जाने वाले तर्क का सम्बंध है, यह पूरी तरह से (झूठ को सच साबित करने वाला एक चालांकी भरा) कुतर्क है। इस बात की कल्पना करने या उसे समझने के लिए किसी को विज्ञान में कोई बड़ी विशेषज्ञता हासिल करने की ज़रूरत नहीं है कि निर्वात एक भौतिक वास्तविकता है जो महज़ पदार्थ की गैरमौजूदगी दर्शाता है, न कि वास्तविकता के उस खास हिस्से में किसी तरह की चेतना या ईश्वर की मौजूदगी।
निर्वात की उत्पत्ति विज्ञान के बहुत से क्षेत्रों में एक सामान्य घटना है। इसलिए अगर निर्वात किसी प्रकार की आत्मा या दिव्य चीज़ दर्शाता है तो इसका अर्थ है कि हर उस समय जब भी हम निर्वात उत्पन्न करते हैं हम उस दिव्य अस्तित्व को भी उत्पन्न करते हैं। अत: यह आसानी से समझा जा सकता है कि निर्वात को ईश्वर या चेतना की उपस्थिति के समतुल्य मानना पूर्णत: बेमानी है। विश्व की उत्पत्ति के प्रारंभिक चरणों में शून्य या निर्वात की मौजूदगी और इससे कणों में द्रव्यमान के गुणधर्म की उत्पत्ति पदार्थ की उत्पत्ति के पूर्व चेतना के अस्तित्व को सिद्ध नहीं करता है। निर्वात निर्वात है और चेतना चेतना। निर्वात की उपस्थिति का मतलब चेतना की उपस्थिति नहीं है। इसके विपरीत यह कहा जाना चाहिए कि केवल द्रव्यमानयुक्त पदार्थ ही सम्पूर्ण भौतिकसंसार नहीं है, बल्कि उसका एक हिस्सामात्र है। निर्वात भी भौतिक जगत का एक हिस्सा है और यह वस्तुनिष्ठ यथार्थ के रूपों में से एक रूप की तरह अपने-आपको व्यक्त करता है।
दूसरा बिन्दु तनिक और अधिक ध्यान दिये जाने की मांग करता है। भौतिकवाद का दावा है कि भौतिक संसार प्राथमिक है जो किसी भी प्रकार के बाह्य कारक या चेतना अथवा ईश्वर द्वारा नहीं रचा गया। वह समस्या जिससे भौतिकवाद मुकाबिल है, यह है कि पहले पदार्थ आया या चेतना आई; कि यह भौतिक संसार तकरीबन सही-सही या अपेक्षाकृत सच्चाई से हमारी चेतना में प्रतिविम्बित होता है या नहीं; अगर हाँ तो इसे स्वीकार किया जाना चाहिए या नहीं, हमारी चेतना भौतिकवाद के विकास के इतिहास (देखें — भौतिकवाद का संक्षिप्त इतिहास) को देखते हुए जान सकती है। यह स्पष्ट होता है कि भौतिकवाद ने कभी दावा नहीं किया है कि किसी चीज़ के पदार्थ होने के लिए हमारे मन के बाहर एक वस्तुनिष्ठ यथार्थ होने के अलावा द्रव्यमान का गुण या कोई और गुण-विशेष एक आवश्यक कसौटी है। भौतिकवाद के लिए ''पदार्थ की अवधारणा यह वस्तुनिष्ठ यथार्थ से ज्यादा कुछ नहीं व्यक्त करती है जो हमें इंद्रियानुभूति में दिया जाता है'' — और ''पदार्थ की पहचान के लिए एकमात्र ''गुण'' जिससे दार्शनिक भौतिकवाद बँधा हुआ है, वह है हमारे मन के बाहर अस्तित्वमान एक वस्तुनिष्ठ यथार्थ होने का गुण'' (लेनिन - मटेरियलिम एंड इम्पिरियो क्रिटिसिम)।
यह पता लगाना भौतिकवाद का काम नहीं है कि द्रव्यमानयुक्त पदार्थ काल के किसी बिंदु पर उत्पन्न हुआ है या नहीं अथवा यह पता लगाना कि वस्तुनिष्ठ यथार्थ किन विभिन्न रूपों में अपने को व्यक्त करता है। यह तो प्राकृतिक विज्ञान का विषय है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद जो कि भौतिकवाद का सर्वाधिक उन्नत और वैज्ञानिक रुप है, प्राकृतिक विज्ञान की किसी भी समस्या के समाधान के लिए सोचने की एक वैज्ञानिक दृष्टि या प्रविधि प्रदान करता है।
इस प्रकार यदि 'फील्ड्स थ्योरी' या 'क्षेत्र सिद्धांत' सही भी साबित होता है और हिग्सबोसॉन खोज भी लिया जाता है तो भी भौतिकवाद के लिए कोई संकट पैदा नहीं होगा। हिग्स बोसॉन की खोज केवल पूर्व में अज्ञात पदार्थ के एक नये दृष्टिकोण को अनावृत करना होगा। इस प्रकार यदि हिग्सबोसॉन खोज लिया जाता है और द्रव्यमानयुक्त पदार्थ की धारणा सही भी साबित हो जाती है तो भी भौतिकवाद के लिए कोई संकट पैदा नहीं होने जा रहा है। वस्तुत:, चाहे हिग्सबोसॉन खोज लिया जाता है या नहीं पर सर्न का एल.एच.सी. प्रयोग प्रकृति और विश्व की, दूसरे शब्दों में वस्तुनिष्ठ यथार्थ की, हमारी समझ को निश्चिय ही और प्रगाढ़ बनायेगा तथा इसके आगे के विकास के लिए है — ''प्रत्येक युगनिर्माणी खोज के साथ, यहाँ तक कि प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में भी (मानवजाति के इतिहास का तो कहना ही क्या) इसे (भौतिकवाद को) अपना रूप बदलना पड़ता है'', और ऐसा ही यह करेगा।

जरूरी टीपें

शोइची सकाता के निष्कर्षों पर 1964 में माओ ने एक वार्ता में कहा ''विश्व कोई ऐसी चीज नहीं है जो बिल्कुल ही परिवर्तित नहीं होता है या पूर्णत: अपरिवर्तित रहता है। परिवर्तन, अपरिवर्तन, तब फिर परिवर्तन और अपरिवर्तन मिलकर ही विश्व को बनाते हैं। ...विश्व में हर चीज परिवर्तित हो रही है। विश्व का उद्भव न्यूटन के नियमों के न होने की स्थिति से उन नियमों के होने की स्थिति तक हुआ, और उसके बाद न्यूटन के सिद्धांत से सापेक्षता के सिद्धांत तक हुआ। यह अपने-आप में डालेक्टिक्स है।''

स्टैंडर्ड मॉडल -
पदार्थ का सबसे छोटा कण जिसका आगे और विभाजन संभव नहीं, मूल कण कहलाता है। 6 क्वार्क और 6 लेप्टॉन मिलकर पदार्थ से सम्बंधित 12 मूलकण हैं जो फर्मियान श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। कुछ (द्रव्यमान रहित) बलवाहक मूलकण हैं जो बोसॉन श्रेणी के अन्तर्गत हैं।
फर्मियन श्रेणी के मूलकण फर्मी डिरैक स्टैटिस्टिक्स का अनुपालन करते हैं जबकि बोसॉन श्रेणी के मूल कण बोस-आइंस्टाइन स्टैटिस्टिक्स का अनुपालन करते हैं। इन दोनों ही श्रेणियों के मूलकणों को मिलाकर कणभौतिकी में प्रामाणिक या स्टैंडर्ड मॉडल बनाया गया है।
स्टैंडर्ड मॉडल में बोसॉन श्रेणी के अन्तर्गत इसी प्रकल्पित मूलकण 'हिग्स बोसॉन' को सर्न के एल.एच.सी. महाप्रयोग में 4 जुलाई 2012 को पुष्ट होने का दावा किया गया है।
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ढाका विश्वविद्यालय के अपने कार्यकाल में भौतिकी के प्रोफेसर सत्येन्द्रनाथ बोस ने सन् 1924 में बलवाहक मूलकण के अपने अनुसंधान पर एक शोधपत्र महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन को भेजा जिन्होंने इस शोध का अनुमोदन किया और जर्मन में उसका अनुवाद कर वहां के एक भौतिकी-जर्नल में प्रकाशित कराया। इस शोध की प्रकल्पना में क्वांटम स्टैटिस्टक्स की नींव पड़ी और बलवाहक मूलकण विषयक इस प्रकल्पना को बोस-आइंस्टीन स्टैटिस्टिक्स कहा गया। इस स्टैटिस्टिक्स का अनुपालन करने वाले कणों को भारतीय विज्ञानी सत्येन्द्र नाथ बोस के नाम पर बोसॉन नाम दिया गया।
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'हिग्स बोसॉन' का नामकरण वैज्ञानिक हिग्स और बोस दोनों के नामों को जोड़कर किया गया। पीटर हिग्स ने यह परिकल्पना की थी कि हिग्स फील्ड में एक ऐसा  बोसॉन कण मौजूद होता है जिसकी उपस्थिति की वजह से मूलकण द्रव्यमान प्राप्त करते हैं। यह प्रकल्पित कण ही हिग्स बोसॉन है जिसे सर्न के महाप्रयोग में गत पचास वर्षों से खोजा जा रहा था।
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'दि स्पार्क' - (मंथली मेगाज़ीन 'बाइ सायंटिस्ट्स फॉर सोसायटी') मई 11, 2011 में प्रकाशित आलेख ''दि गॉड पार्टिकल ) एक 'फेटल' क्रायसिस फॉर मेटेरियलिम?''
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दो साल पहले दुनिया के महान वैज्ञानिक स्टीफेन हॉकिंग्स का बयान आया - ''सृष्टि की रचना ईश्वर ने नहीं की, बल्कि इसका निर्माण भौतिकी या प्रकृति के बुनियादी नियमों से हुआ।''
(समयांतर, अगस्त 2012, पृ. 14)
स्टीफेन हॉकिंग्स की किताब ''ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम'' की भूमिका की अंतिम पंक्तियाँ हैं ''यह किताब ईश्वर के बारे में भी है... शायह यह कहना बेहतर होगा कि ईश्वर की अनुपस्थिति के बारे में भी है... ब्रह्माण्ड जिसका दिक् में कोई ओर-छोर नहीं है, काल में कोई आरंभ और अंत नहीं है, और किसी सृष्टिकर्ता को करने को कुछ नहीं है।'' इस किताब के पृष्ठ 144 पर हॉकिंग्स ने लिखा है-
''The boundary condition of the Usniverse is it has no boundary. The Universe would be completely self contained and not affected by anything outside itself. It would neither be created nor destroyed. It would just BE  .''
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शोइची सकाता - सुप्रसिद्ध जापानी वैज्ञानिक : जन्म 18 जनवरी 1911, हिरोशिमा के निकट। निधन - 16 अक्टूबर 1970 में।
सकाता परमाणु की संरचना के अपने सैद्धांतिक कामके लिए अंतराष्ट्रीय रूप से जाने जाते थे। उन्होंने परमाणु संरचना से सम्बंधित 'सकाता मॉडल' दिया जो कि बाद में विकसित 'क्वार्क मॉडल' का ही पूर्वरूप था। सकाता को 1965 में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया। द्वितीय विश्वयुद्ध का अंत हाने पर सकाता परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग करने के अभियान में लगे विश्व के भौतिक विज्ञानियों में शुमार हुए। सकाता तत्कालीन जापानी सरकार के परमाणु ऊर्जा नीति निर्धारण से भी सम्बद्ध थे। सन् 1956 में सकाता ने सोवियत यूनियन और चीन की यात्रा की थी जबकि उस समय इन दोनों देशों का जापान के साथ कोई औपचारिक कूटनीतिक सम्बंध नहीं था।
सकाता की चर्चित किताबों में 'फिजिक्स एण्ड डायलेक्टिक्स ऑफ नेचर' तथा 'फिलॉसफी एण्ड मथॅकॉलौजी ऑफ प्रेज़ेंट डे सायंस' प्रमुख हैं।
सकाता की किताब 'फिज़िक्स एण्ड डायलेक्टिक्स ऑफ नेचर' तथा 'फिलॉसफी एण्ड मेथॅडॉलौजी ऑफ प्रेज़ेंट डे सायंस' प्रमुख हैं।
सकाता की किताब 'फिज़िक्स एण्ड डायलेक्टिक्स ऑफ नेचर' का प्रथम अध्याय ''सैद्धांतिक भौतिकी और प्रकृति का द्वन्द्ववाद'' पहले आलेख के रूप में सन् 1947 में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की किसी विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। इस अध्याय में चार भाग हैं।


शीतेन्द्रनाथ चौधरी ने कहानियों से लेखन की शुरूआत की। अधिकांश जीवन आदिवासी इलाकों में बीता। विवेकानंद पर एक पुस्तिका 'पहल' से प्रकाशित हुई। सेवानिवृत होकर बिलासपुर में रहते हैं।


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