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जुलाई २०१३

माध्यमों की समीक्षा

प्रकाश दुबे

 

हुआ यह था कि वंशावलियां खंगालते समय हिलेरी के हाथ तस्वीर लगी। साथ में लिखी इबारत से जानकारी मिली कि वह कुख्यात घोड़ा चोर था। रेलों में डकैती डालता था। वर्ष 1883 में इसे पकड़ा गया। शातिर अपराधी था। जेल की सजा भुगतने के दौरान चकमा देकर वर्ष 1887 में जेल से भागा। पिंकरटन डिटेक्टिव एजेंसी ने पड़ताल की। रेमस को ढूंढ निकाला। भगोड़े रेमस पर मुकदमा चला। आपराधिक कारनामों को देखते हुए सरकारी कानून के मुताबिक रेमस रोडहम को सरे आम चौराहे पर 1889 में सूली पर लटकाया गया।
भारत में नासिक और गया के पंडे वंशावली संभाल कर रखते हैं। हिलेरी वंशज भी हैं और वंशावली शोधकर्ता भी। हिलेरी ने खुराफात की। अपनी जीविका की महत्ता भुलकर पूर्वज की गौरव-गरिमा संवारने की इच्छा में उसने संतुलन खोया। हिलेरी का तिरस्कार करने से पहले पल भर रुकें। विचार करें। अपने देश और पूर्वजों का मात्र नाम ही नहीं, कारोबार चमकाने के लिए हम किस किस की वंशावली का सत्य छिपा लेते हैं? किस किस की वंशावली में फर्जी और अतिरेकी विशेषण और उद्धरण जोड़कर महामानव बनाने की जुगत भिड़ाते हैं? ज्यां बोंद्रिया ने सच ही कहा था — मीडिया, शब्द और अर्थ को भग्न करके उन्हें पुनर्निर्मित करता है, ताकि इच्छित प्रभाव उत्पन्न किया जाए। हमारे और परिपक्व यथार्थ के बीच मीडिया  मध्यस्थता करता है। वंशावली बनाने, संवारने, सजाने और बिगाडऩे का धंधा पत्रकारिता में आजकल जोरों से फूल फल रहा है। जन-माध्यम बिगड़ कर किस तरह का साहित्य बन जाते हैं? समझ गए न।
सब कुछ तत्काल चाहिए। तात्कालिकता और वैचारिकता के बीच किस तरह माध्यम रूप बदल रहे हैं। कितने बिगड़े और कितने बचे हैं जन-माध्यम? बहस छिड़ सकती है। माध्यमों की अभियानी सक्रियता तथा भूमिका पर शक करने से कुछ हासिल नहीं होगा। उम्मीद बाकी है। उम्मीद बाकी है, तभी तो शायर शहरयार लिख सके—
इस मोड़ से आगे भी कई मोड़ है वर्ना
यूं मेरे लिए तू कभी ठहरा नहीं होता।।
या इतनी तब्दील न हुई होती ये दुनिया
या मैंने इसे ख्याब में देखा न होता।।
- सैरे जहां पृष्ठ 135
शायर ने साहित्य की समझ बढ़ाई। यूं मानें कि माध्यमों की लगे हाथों समीक्षा कर डाली। तेजतर्रार आंखें तरेरती कारोबारी बहुराष्ट्रीय दृष्टि से समाचार की शक्ल तय होने लगी। जो विरोध में हो वह अपवाद, अल्पसंख्यक तथा अपरिचित बनकर रह जाए। कंपनी के लक्ष्य से सहमति ही समाचार हो। सत्य हो, न हो। और आज? अब तो विज्ञापन भी साहित्य है। वर्ष 1889 का भारत गुलाम था। जंजीरें तोडऩे का महा-प्रयास असफल रहा था। भारत में जवाहरलाल नेहरू का जन्म हुआ। जन्मतिथि 14 नवम्बर  1889। नेहरू ने अहमदनगर जेल से बेटी के नाम पत्र लिखे। पत्र तो निजी चीज है। बेटी को इतिहास और राजनीतिक दृष्टि से समाज की समझ देने के लिए लिखे गए पत्र। ये पत्र साहित्य में शामिल किए गए। पाठक ने इनमें भारत की खोज की। नेहरू की साहित्यकार बनने में रुचि कतई नहीं थी। वे आने वाले समय को भांप गए थे। उन्होंने नेशनल हेराल्ड नाम का अंग्रेजी अखबार आरंभ किया। भारत पर राज करने का सपना था इसलिए गांधी के नवजीवन को हिंदी में लखनऊ से प्रकाशित करना आरंभ किया। उर्दू में कौमी आवाज छापा जाने लगा। साहित्य की सम्मान दिलाने की करिश्माई ताकत भले कुछ हद तक कायम थी। सत्ता दिलाने की भूमिका और शक्ति घटती गई। नए माध्यम स्थान घेरते गए। समाचार के नाम पर विचार प्रेषित करने की कला को कल-कारखानों की ताकत ने समझा। समूची दुनिया की पत्रकारिता पर जबर्दस्त प्रभाव डाला।
1889 की ही एक घटना से साहित्य और जन माध्यमों की भूमिका और रिश्तों दोनों का खुलासा होता है। इस घटना का संबंध अमेरिका से है। हिलेरी नाम की महिला को वंशावली देखने का शौक है। यही उसका कारोबार है। पुराने दस्तावेज पलटते समय हिलेरी ने खोज निकाला कि रेमस रोडहम नाम के काउबाय उसके पूर्वजों में शामिल थे। अमेरिका के मांटाना क्षेत्र में रहते थे। हिलेरी ने पूर्वज रेमस की जीवनी पर साहित्य का मुलम्मा चढ़ाया। औपन्यासिक रोचकता के साथ अपने पूर्वज की कथा प्रस्तुत की। रेमस ने 1883 में चरवाही तथा किसानी काम आरंभ किया। घोड़ों के कारोबार तथा रेल से जुड़े व्यवसाय से जमकर कमाई की। इस यश-कथा के कारण पूरे इलाके में रेमस का नाम सबकी जबान पर था। उन दिनों पिंकरटन खुफिया एजेंसी ने जासूसी के धंधे में कदम रखा। पिंकरटन एजेंसी का मोंटाना में नाम चमका कर शोहरत दिलाने में रेमस का योगदान अद्भुत था। अनोखा। अविस्मरणीय। वर्ष 1887 में सिर्फ रेमस के कारण कंपनी की शोहरत में चार चांद लग गए। रेमस अलग ही जीवट के व्यक्ति थे। उन्होंने धन-संपत्ति का त्याग किया। उनके कामकाज की व्यापकता ऐसी थी कि सरकार ने उनके रहने, खाने सुरक्षा आदि की पूरी व्यवस्था की। छह वर्ष तक सरकारी सुविधा का लाभ मिला। सार्वजनिक कार्यक्रम के दारान 1998 में रोडहम का प्राणांत हुआ।
यह तो हुई जीवनी। पड़दादा के दादा को यशस्वी चरित्र के रूप में प्रस्तुत करते हुए जीवन का बखान करते हुए लिखा गया-साहित्य।
एनीमल फार्म और 1984 लिखकर राजनीतिक विचार में भूचाल लाने वाले जार्ज आर्वेल ने खुल्लमखुल्ला मान लिया-पत्रकारिता में जो नहीं लिख सका, वह मेरा साहित्य बना। नहीं बदला तो सरोकार। साहित्य और जन माध्यमों की भूमिका साहित्य से बहुत अलग नहीं है। सामाजिक सरोकारों को पाने में लक्ष्य के लिए जारी युद्ध में साहित्य तथा जन-माध्यमों की भूमिका किसी शस्त्र की है। कोई युद्ध तलवारों और बरछों से लड़ा गया। किसी में बंदूक और तोपें चलीं। साहित्य ने मूल्य, विश्वास, दृष्टिकोण एवं आचरण बदलने में सक्षम भूमिका का निर्वाह किया है। लोक नायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में बाबा नागार्जुन कवि मात्र नहीं थे। नुक्कड़ पर गा सकने वाले कलाकार ही नहीं थे। वे चलते फिरते सशक्त जनमाध्यम थे। स्वतंत्रता संग्राम को बिसार देने वाली सत्ता पर नाचते-गाते कटाक्ष करते थे- भूल गईं अपने ही बाप को। वर्ष 1947 में समाचार पत्र से मुनाफा कमाने का बोधिसत्व प्राप्त हुआ। वर्ष 1977 में समझ में यह भी आया कि राजनीति के लिए व्यापार और कारोबार के लिए अखबार का सहयोग आवश्यक है। एक से अधिक धंधे में हाथ डालने से लक्ष्मी जल्दी आती है। वर्ष 1989 में बोफोर्स और अन्य घोटालों के बाद भंडाफोड़ समाचार के साथ साहित्य को प्रभावित करने लगा। रचनात्मक साहित्य के अनेक माध्यम, अनेक विधाएं प्रौद्योगिकी के विस्फोट से पूर्व ही अपना आदर्श बदल चुके थे। राह बदलती गई। वर्ष 1989 से भारतीय शब्द-संसार के युद्ध शास्त्र में शस्त्रों की भूमिका बदलने लगी। भारत में बदलती भूमिका के लिए हम सौ वर्ष पीछे जाकर 1889 को याद करते हैं। संदर्भ - संयुक्त राज्य अमेरिका।
वालस्ट्रीट जर्नल नाम का अखबार वर्ष 1889 में आरम्भ हुआ। अंग्रेजी के इस अखबार में कारोबार, व्यापार, वाणिज्य उद्योग जगत की खबरें प्रमुखता से छापी जाती हैं। कारोबार, व्यापार आज से 222 वर्ष पूर्व न साहित्य में शुमार होता था और नही उसने समाचार की शक्ल में अहमियत पाई थी। इसके बावजूद वाल स्ट्रीट जर्नल ने नई राह बनाई। उद्योग एवं कारोबार का महत्व बढ़ रहा था। वाल स्ट्रीट जर्नल सफल कारोबार अखबार के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। व्यापार पर आधारित अखबारों की भरमार हो गई। दिलचस्प बात है कि वाल स्ट्रीट जीवनी, आत्मकथा, यात्रा वृत्तांत, रोचक कथा की श्रेणी में आने वाले साहित्य को निरंतर छापता रहता है।
वर्ष 1889 में अमेरिकी कारोबारी आसा केंडलर ने प्रेंबलर का पेटेंट खरीदा। जान प्रेंबलर ने पेटेंट मेडिसिन तैयार की। केंडलर ने कंपनी बनाई। कंपनी के उत्पादन को आज की दुनिया कोकाकोला के नाम से जानती है। कोकाकोला का साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कोई स्थान दृश्यमान नहीं है। यह जानते हुए एक प्रश्न से जूझना होगा — है कोई नामी सिने कलाकार जिसने विज्ञापन न किया हो? कोक को बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रतीक मानें तो इस खोज की गहराई में जाकर हैरान रह जाएंगे कि साहित्यका रूप बदलने में उनकी महती भूमिका है। बढ़ रही है। कोकाकोला ने एक नई समझ विकसित करने के लिए भरपूर निवेश किया। यह समझ गहरी जड़ें जमा चुकी है। इस दृष्टि से साहित्य का भुर्ता सीधे सीधे नहीं बना।
1980 के दशक में पत्रकारिता में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। पिछड़े राज्य के शहर से देश की राजधानी पहुंचा संपादक देश के विशाल, समृद्ध समाचार पत्र समूह में सर्वोच्च आसन पर विराजमान हुआ। संपादक ने कहा - मैं पत्रकार हूं। साहित्यकार नहीं। कलम उठाने का मतलब साहित्यकार बन जाना नहीं हो जाता। पत्रकारिता को अलग विधा मानने वाले राजेन्द्र माथुर ने अनेक प्रयोग किए। व्यंग्य शिल्पी शरद जोशी से प्रतिदिन स्तंभ लिखवाना आरंभ किया। समाचारों का छोर पकड़कर पूरे समाज पर चुटकी लेने वाला यह स्तंभ किसी भी समाचार की तुलना में अधिक पढ़ा जाने लगा। इससे पहले क्षेत्रीय समाचार पत्रों में हरिशंकर परसाई प्रति सप्ताह पैना व्यंग्य लिख रहे थे। पढ़े जा रहे थे। शुद्ध रूप से समाचारों के आधार पर देश की फजीहत और सत्ता के कुलाटी खाऊ हथकंडों का भांडाफोड़ करने वाला प्रतिदिन स्तंभ समाचार पत्र की पहचान बना। मुखौटा बना। सहस्राब्द बदलने से पहले ही सत्य समाचारों की सड़ांध और विद्रूप व्यंग्य की रोचकता पर हावी होने लगा। वर्ष 2000 में शरद जोशी ने नवभारत टाइम्स, मुंबई में चुनाव समितियों में सदस्यों की खींचतान की खबर पढ़ी। उन्होंने प्यारी सी शिकायत की— तुम लोग ऐसी खबरें छापोगे तो व्यंग्य कौन पढ़ेगा? जोशी जी अपने लहजे में संवाददाता का उत्साहवर्धन कर रहे थे। वास्तविकता यह है कि राजनीतिक प्रसंगों में घात एवं क्रूरता मुखर होती गईं। सुख्र्रियां बनती गईं। पत्रकारिता में दूसरा अनोखा प्रयोग हुआ। साप्ताहिक दिनमान की पहली खबर के रूप में राजेन्द्र माथुर का लेख प्रकाशित होने लगा। पढ़ा तथा सराहा जाता था। राजनीतिक लेखन में सरल भाषा, छोटे वाक्य, साहित्यिक लोच तथा देशज मुहावरों का प्रयोग पाठकों को भाया। धर्म, अध्यात्म, स्वास्थ्य, विज्ञान, कंप्यूटर पर जानकारी छपने से साहित्य का रूप बदलता रहा। कवि गोष्ठियां करते हैं। कविता न छपे। कवि गोष्ठियों एवं सम्मेलनों के समाचार निरंतर छपते हैं। इस तरह साहित्य छपने का स्थान और आकार बदलने लगा। गंभीर साहित्य की अनदेखी के बावजूद साहित्य की सनसनी और समाचारिकता अधिक स्थान पाने लगी।
साहित्य घट रहा है? अथवा साहित्य का क्षेत्र व्यापक हुआ है। राहुल सांस्कृत्यायन के नाम का उल्लेख किए बिना पर्यटन साहित्य की चर्चा की ही नहीं जा सकती। घुमक्कड़ शास्त्र नसीहत देता है आज भी - सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां? जिंदगानी रही भी तो ये जवानी फिर कहां? वोल्गा से गंगा की घर बैठे सैर कराने में समाचार पत्र एवं टीवी चैनल ही अपनी भूमिका नहीं निभा रहे हैं। फेसबुक और ट्विटर की हिस्सेदारी बढ़ी है। विज्ञान साहित्य का आज भी अभाव है। कविता-कहानी-उपन्यास-नाटक अभिव्यक्ति के माध्यम बने हुए हैं। गैर फिक्शन बढ़ा है। स्तम्भ या कालम साहित्य में शुमार है। व्यंग्य, उपन्यास और विश्लेषण का घालमेल साहित्य में जड़ें जमा चुका है। स्थान पा रहा है। पत्रिकाओं  का प्रसार सिकुड़ता गया। प्रकाशन बंद होता रहा। समाचार पत्र साहित्य और समाचारों के माल के रूप में विकसित होने लगे। सब कुछ एक ही छत के नीचे।
वेद और पुराणों को आप साहित्य मानें या कुछ और? इतना तय है कि विद्वानों की वाणी में निहित सूचना और निर्देश के संवहन का दायित्व मौखिक साहित्य निभाता रहा है। अनपढ़ समूहों से लेकर पिछली कुछ सदियों में अध्ययन से वंचित किए गए समुदायों ने साहित्य रचा। कुलीनता को साहित्य का एकमात्र गुण मानने का प्रतिकार किया। मौखिक और लिखित साहित्य में प्रतिकार को जगह मिलती गई। बीसवीं सदी का उत्तरार्ध साहित्य के किसी स्वरूप को नकारने तथा जनमाध्यमों की छत पर खड़े होकर पत्थर फेंकने की वारदातों का दौर था। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में मसिजीवी पत्रकार कहलाने वाला हर जीव साहित्यकार था। अधिकांश साहित्यकार किसी न किसी साप्ताहिक, मासिक या पुछल्ला-पत्र के मालिक, संपादक, लेखक थे। भारत की आजादी के बाद संवाद-माध्यम के बीजों में मुनाफे की फसल उगने की संभावना दिखने लगी। आपातकाल समाप्त होने के बाद कारोबारियों को संवाद माध्यमों के फार्म हाउस में बंपर क्राप की संभावना नज़र आई। सूचना-प्रौद्योगिकी के विस्फोट ने पत्रकारिता को पुनर्परिभाषित किया। गेहूं पैदा करने वाले खेतों में सोयाबीन और नकद फसलों के अंकुर फूटे। संवाद माध्यमों में रेडिओ, टीवी-इलेक्ट्रानिक चैनल, वेबसाइट, सोशल और समांतर मीडिया के कलवे हरिया गए। संवाद माध्यमों का विकास काल कहें या संवाद का विस्फोट। जन जन को साहित्य के माध्यम से संदेश देने वाले साहित्यकार ताड़ गए कि वास्तविक जन-माध्यम तो संवाद-माध्यम बनते जा रहे हैं। जनमाध्यमों में उनकी मर्जी का साहित्य हाशिये की तरफ खिसकने लगा। दैनिक और घंटों में रूप बदलने वाली पत्रकारिता में वार्षिक और मासिक पत्र-पत्रिकाओं में मोटे अक्षरों में प्रकाशित होने वाले नाम एवं विषय हाशिये पर खिसकने लगे। बखेड़ा मचा। पीपल पेड़ की हिलती पत्तियों में अमर महाभारत कालीन अश्वत्थामा का अस्तित्व मानने वाले आज भी हैं। सदियों की सीमा रौंद कर आस्था अपना स्थान बनाती है। पानीपत की बालू की ललामी को लड़ाइयों में मृत सैनिकों के खून के दाग मानने वालों के तर्क, धारणा और मान्यताएं आज भी आस्था से टंकी हैं। जीवित हैं। अक्षर अश्वत्थामा का निर्गुण शरीर नहीं है। इसलिए अक्षर का अर्थ बदलने और उसे क्षत-विक्षत करने के आरोपों से जनमाध्यमों पर पुन: प्रहार हुआ। कहा जा रहा है कि साहित्य रस का स्वाद एवं रंग बदल गया। कादम्बरी के लिए सुरक्षित रविवार अंकों के सिंहासन पर धननायक एवं जन नायक के किस्से विराजमान होने लगे। कविता सिकुड़ती गई। सिनेमा साहित्य, स्वास्थ्य साहित्य, डायरी साहित्य के नाम संवाद माध्यमों में बड़ा हिस्सा आने लगा। साहित्य विरुद्ध अन्य जन-माध्यमों की तू तड़ाक के बीच गौर करें कि आजादी के आसपास तक अधिकांश अखबार पत्रिका की तरह निकलते थे। छपने की अवधि सप्ताह थी। दैनिक दो दिन बाद पहुंचता था। फिर भी पढ़ा जाता था। उस युग की साहित्यकता की बानगी देखने हरिजन 23 सितम्बर 1939 का अंक खोलें। पूरा पहला पेज वर्किंग कमेटी मेनीफेस्टो को समर्पित है। इस अखबार में मान्य संपादक एम के गांधी थे - भारत के प्यारे बापू। आज अखबार के रूप में इस तरह का पृष्ठ पाठक सह पाएंगे? कदापि नहीं।

प्लास्टिक सर्जरी के कारोबार में जन-माध्यम
साहित्य और अन्य जन-माध्यमों के बीच बने या बिगड़े रिश्ते को नापने के दो पैमाने हैं। आस्कर वाइल्ड कहा करते थे कि पत्रकारिता पढऩे लायक नहीं होती और साहित्य पढ़ा नहीं जाता। अंग्रेजी लेखक ने यह बात तब कही थी जब संवाद के एकमात्र सारथी जन-माध्यम की हैसियत पत्रकारिता को प्राप्त थी। साहित्य को भाषा, क्षेत्र, काल, रचनाकार आदि जैसे अनेक वर्गो में बांटकर बहुरूपदर्शी (केलिडायस्कोप) से देखने की परम्परा सदियों पहले अपना ली गई। व्यंग्य या पश्चिमी मापदंड मानकर आस्कर वाइल्ड की उक्ति खारिज नहीं की जा सकती। पूर्व दृष्टि के हिमायती बेचैन हों तो पृथ्वीराज रासो के रचयिता चंद बरदाई को याद करें।
कवि ने गाया और सुनाया दोहा —
चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रणाम।
ता ऊपर सुलतान है, मत चूके चौहान।।
कवि की उस क्षण की भूमिका पृथ्वीराज के सखा की थी। मित्र को सूचना देने के लिए दोहा माध्यम बना। उस दिन गजनी के दरबार में जो कुछ घटा, साहित्य के इतिहास में समाचार बनकर दर्ज हुआ। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य के रूप में छंद की महत्ता रेखांकित की। हिन्दी साहित्य के आद्य विश्लेषक एवं लेखक ने पृथ्वीराज रासो को हिन्दी साहित्य का आदिकाल कहा। सबने स्वीकार किया।
लैटर से बना लिटरेचर। लैटिन के लैटर शब्द को लैटर एंड स्पिरिट में अंग्रेजी सहित अनेक भाषाओं ने शिरोधार्य किया। गेंद की तरह शब्द कभी साहित्य के पाले में जा गिरा और कभी जन-माध्यमों के। अजीब सी होड़ आरम्भ हुई। साहित्य और जन-संवादमाध्यमों के खिलाड़ी एक दूसरे पर आंखें तरेरने लगे। साहित्य ने डपटकर कहा — माध्यम भाषा के साथ खिलवाड़ करते हैं। उसका अंग-भंग करते हैं। यह बर्बरता है। जन माध्यमों ने उत्तर नहीं दिया। वे अपने खेल में व्यस्त रहे। लोकबोलियों की प्रचुरता, जगनिक, जायसी और तुलसी-सूर की भाषा का लुढ़कते-पुढ़कते भारतेंदु और हरिऔध तक नए परिधान में सजते जाना अपने आप में साहित्य के आक्षेप का उत्तर बना। साहित्य की दूसरी शिकायत रही कि संचार सुविधा बढऩे के साथ ही साहित्य में उथलापन और सतहीपन आ रहा है। इस पनीलेपन का बड़ा, और कुछ नामी साहित्यकों की दृष्टि में मानो एकमात्र कारण यह था कि पवित्र साहित्य-सरोवर में संवाद-माध्यमों का बाढ़ का पानी जा मिलता है। साहित्य की पैदाइश पर गौर करें। संस्कृत के सहित से साहित्य शब्द हिन्द ने अपनाया। हिन्द के साहित्य शब्द में सहित का भाव निहित है। अंग्रेज के साहित्य में कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक निश्चित ही साहित्य है। साहित्य किसी भाषा, किसी रूप में हो। कालान्तर में एक नई विधा प्रस्फुटित हुई। यथार्थ हुआ तो उसे यथार्थवादी साहित्य कहा जाने लगा। पत्रकारिता ने समय की धूल झाड़कर साहित्य में पैठ की। अकस्मात साहित्य में प्रवेश करने के दो द्वार बन कर खुल गए। फिक्शन तथा नान फिक्शन। नान फिक्शन को हिन्दी ने यथार्थवादी साहित्य नहीं कहा।


प्रकाश दुबे का लम्बा जीवन मूल्यवान पत्रकारिता में बीता है। वर्तमान में नागपुर भास्कर में समूह संपादक हैं।

 

 


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