एक दिन अचानक, आप सभी के बीच से अपने सीने में छिपी आग और पंख टूटे सपनों को दिल में समाए यह निकल जाएगा और विलुप्त हो जाएगा अपने एकांत में अदृश्य घाटी के बीच बसे अपने मकान में।
पवित्रन ठेक्कुनी, कोझिकोड जिले के ठेकूनी गांव में 1974 में जन्म। 35 साल की उम्र तक दस के करीब कविता संग्रहों का प्रकाशन। प्रतिष्ठित पुरस्कारों से - केरल साहित्य अकादमी के वर्ष 2005 का कनकश्री पुरस्कार, अशान पुरस्कार, इण्डियन जेसीज् पुरस्कार - सम्मानित। आजीविका चलाने के लिए तरह-तरह के कामों में संलग्न। फिर चाहे रेस्तरां में वेटर का काम हो, फोन केबिल के गड्ढे खोदना हो, अखबार डालना हो, पत्थर तोडऩा हो या सर पर माल ढोना हो। अय्यनचेरी मछली बाज़ार, जो कोझिकोड से लगभग 60 किलोमीटर दूर है, मैं बैठना शुरू करने के पहले वे सर पर मछली रखकर घर-घर बेचने जाते थे। पिछले दिनों मल्याली में छपे उनकी चुनिन्दा कविताओं के संकलन 'ठेक्कुनी कविथागल' (ठिक्कुनी की चुनी हुई कविताएं) की प्रस्तावना में प्रख्यात समीक्षक डाक्टर पी.के.पोक्कर ने पवित्रन् को मल्याली साहित्य की उस आधुनिक धारा के सशक्त प्रतिनिधि के तौर पर चिन्हित किया जिन्होंने अपनी अलग पहचान कायम की है, और जिसके तमाम रचयिता खुद मेहनतकश तबकों या वंचितों के बीच निकले हैं। कुछ अन्य समीक्षकों की निगाह में उनकी कविताएं 'आग से निकली कविताएं हैं' और 'झुलसी जिन्दगियों में महकती कविताएं हैं'। कुछ विरोधी आलोचक 'मल्याली साहित्य में उन्होंने लायी मछली की महक' के लिए उनकी भर्त्सना करने से भी बाज नहीं आते हैं। बचपन से ही उन्हें जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उसकी पूरी झलक उनके रचनाकर्म में दिखाई देती है। पवित्रन के पिता मानसिक असन्तुलन का शिकार थे। लगभग निर्वस्त्र रहते थे। और उसी हालत में उनकी मृत्यु हुई। मोहल्ले के लोग ही नहीं बल्कि इलाके के लोग भी उन्हें चिढ़ाते थे 'पागल का लड़का'। शायद इसी दौर को याद करते हुए वह 'पागल' नामक अपनी एक कविता लिखते है:
बाज़ार के किनारे उसे अकेले बैठा देख कर आने जाने वाले कहते हैं कि वह अपने बाप की तरह ही पागल है जब किसी परिचित लड़की को देख कर वह मुस्कराया तो फिर लोगों ने कहा कि अपनी मां की तरह यह भी पागल है। दिन में नदी किनारे खाली पेट टहलते देख कर लोग फुसफुसाते है अपनी बहन की तरह यह नदी में कूद जाएगा मैं खुद से खो जाता हूं सोचता हूं क्या मुझे अपने आप को पागल कह देना चाहिए * * *
बात है एक जमाने की
एक चरवाहा था किसी स्थान पर और एक लड़की भी थी जिसने तय किया था उसके साथ जीना वह ऐसी कहानी थी कि जहां जहां वह जाता था खिल उठती थी कविताएं नदियों के किनारों पर पहाड़ों की तलहटियों में पठारों पर और सपनों में भी, यह नृत्य कर रही होती और उसकी बांसुरी से स्वर्गिम संगीत फूट पड़ रहा होता था यहां तक कि जंगली पौधे भी उससे आकर्षित मालूम पड़ते थे किसी एक दिन की बात है जब उसने उससे कहा अलविदा और रची दोस्ती किसी दूसरे से, वह कहां अपनी हार माननेवाला था उसने भेड़ों के एक झुंड की तरह मुक्त किया अपने आप को दिन और रात के असमाप्त लगनेवाले सिलसिले से उछाल दिया अपनी बांसुरी को ऊपर बादलों की तरफ और एक विजेता की तरह खड़ा हो गया वह रस्सी के एक फंदे के सामने
व्यापार
पदमिनी से पप्पा के घर तक एलीस से मां के घर तक हसीना से टेलरिंग दुकान तक रीजा और सुसना जो गयी थीं अपने दोस्त को शादी का निमंत्रण देने लौटी नहीं उनमें से कोई भी रमणी सुलेखा बिन्दू बढ़ती ही गयी गांव में ऐसे न लौटे लोगों की तादाद डूब गया समूचा गांव गोया पूछताछ एवं चिल्लाहटों के सैलाब में गायब होते लोगों के चिन्ताजनक हालात को लेकर बढ़ाने के लिए जांच का दायरा बुलायी गयी एक मीटिंग पंचायत अध्यक्ष मेरी टीचर के यहां कल सुबह की ही बात है जब मेरी टीचर ने चौराहे से बस पकड़ी सूचित करने को मीटिंग के फैसले को जिला कमेटी कार्यालय में लेकिन अब तक वह भी * * *
कतल होने के पहले
सुबह तुम्हारा छुरा दर्ज करेगा मुझ पर अपनी जीत कई टुकड़ों में काट कर मुझे तौल दिया जाएगा, अपने खून सने हाथों से बंटोरोगे तुम पैसे अपनी सुविधा से अपनी मार्केटिंग सम्भावना के हिसाब से बदलते रहोगे तुम मेरा नाम भी, मारे जाने के बाद मैं इस फरेब को भी भूल सकता हूं लेकिन इसे कैसे बरदाश्त करें कि तुमने मुझे इस कदर सख्त बांध रखा है और हिलने भी नहीं दे रहे हो इस अंधेरे में इस बियाबान में
पवित्र ठेक्कुनी की कवितायें सुभाष गाताड़े ने उपलब्ध कराई हैं। गाताड़े जाने माने चिंतक लेखक और सक्रिय कार्यकर्ता हैं। दलित विमर्श में उनका काम विश्वसनीय और प्रतिष्ठित है।