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जुलाई २०१३

कुछ पंक्तियां

ज्ञानरंजन

साहित्य की वह दुनिया जो समकालीनता के घटाटोप और तात्कालिकता के मज़े से अलग अपना रचनात्मक और सांस्कृतिक संघर्ष कर रही है उसे पहल गाढ़ा करने का एक छोटा प्रयास कर रही है। हमारी रेख में कंपन हो सकता है क्योंकि इस रेखा को छोटा मोटा नहीं बड़ा होना है। यह चली भी आ रही है और बन भी रही है। यह उग भी रही है और रोपी भी जा रही है। पहल के इस अंक में और आगामी अंकों में यही कोशिश रहेगी। हमारी इच्छा है कि आप इस कोलाज को समृद्ध करने में हमारी मदद करें। अदूनीस ने लिखा है कि परम्पराओं में अनेक समस्याएं उपस्थित हैं। हमारे यहां भी व्यक्ति के मूल्यों को मान्यता नहीं मिली और लोकतांत्रिक परम्पराओं में शिथिलता है। हिन्दी भाषा में आदिवासी विचार और अभिव्यक्तियों के लिये कमजोर आवाजें हैं। आदिवासी जीवन अलग थलग, निर्बल और रक्तरंजित है। जब हमने वरिष्ठ उदयभानु पांडे और युवा उमा को छापा तो वह हमारी चाल और संकेत का प्रारंभ था। हम रुके नहीं हैं। अगले अंक में अनुज लुगुन की एक टिप्पणी और बहुत सारी कविताएं प्रकाशित होंगी। मुक्तिबोध की 'अंधेरे में' कविता जब लिखी गई थी तब छत्तीसगढ़ बस्तर संघर्ष की आधी शती समाप्त हो चुकी थी, उसके बाद 'अंधेरे में' की आधी शताब्दी पूरी हुई है। कविता और जीवन में कितना अंधेरा और बढ़ा है यह सब बिखरा हुआ है। इस आधार पर ही भविष्य की कविता पर मंगलेश जी ने लिखा है। अंक में निराला, हजारी प्रसाद द्विवेदी, बलराज साहनी, भीष्म साहनी, मुक्तिबोध, शरद जोशी, सुभाष पंत से लेकर नवतम व्योमेश शुक्ल, प्रियम अंकित, राहुल सिंह, अनिल यादव जैसे भविष्य की बड़ी संभावनाएं प्रकाशित हैं। युवा आलोचक मृत्युंजय का कविता पर जो लेख पिछले अंक में था, वह अधूरा था। उस पर एक संवाद विवेक निराला का अगले अंक में आयेगा। इस प्रकार हम नौवें दशक की कविता पर अपनी भूमिका भी बढ़ायेंगे। एक लम्बे अर्से के बाद पाठकों को विष्णु खरे की अनेक कविताएं पढऩे को मिलेंगी। विष्णु खरे जब भी प्रकाशित होते हैं, उस पर हिन्दी संसार का ध्यान आकर्षित होता है। पाकिस्तान के बड़े अफसाना निगार इंतजार हुसैन का एक जरूरी उद्बोधन इस अंक में है। उर्दू रजिस्टर के अन्तर्गत अगली बार शम्र्सुरहमान फारुकी का एक दुर्लभ साक्षात्कार पाठकों को मिलेगा। हमारा उर्दू रजिस्टर जारी रहेगा। पाकिस्तान की महान फहमीदा रियाज़ से पहल एक मुकम्मल और विचारोत्तेजक इंटरव्यू करने की प्रक्रिया में है।

और अंत में यह कि कभी पहल ने विज्ञान के वर्तमान जीवनोन्मुख सवालों और बहसों पर एक पुस्तिका जारी की थी जिसे आज तक याद रखा गया है। इस अंक में उसी परंपरा के मुताबिक गॉड पार्टीकल को लेकर एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप छापा गया है जिसे हमारे एक बुजुर्ग कहानीकार शीतेन्द्रनाथ चौधरी ने तैयार किया है।


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