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अप्रैल २०१३

कला, समय और समाज : युद्ध, अकाल और चित्रकला

अशोक भौमिक




भारत में अकाल का एक लम्बा इतिहास रहा है। छोटे छोटे अनेक राज्यों और प्रान्तों में विभाजित इस कृषि प्रधान उप महादेश में सामंती राजे रजवाड़ों के अपने निहित स्वार्थों के चलते आम जनता में भाषा, धर्म, संस्कृति और कला आदि सभी क्षेत्रों में व्यापक अंतर को इस हद तक पैदा किया गया, जिसके चलते पड़ोसी प्रदेशों में रहने वाले लोगों के बीच एक खास किस्म की प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा मिला, जो युद्ध क्षेत्रों में सैनिकों और आम जनों को अपने राजाओं और प्रान्तों के लिए मर मिटने के संकल्पों को एक मज़बूत आधार प्रदान करते रहे। पर बावजूद इन सब के भूख एक प्रमुख वजह रही, जिसके चलते लोगों का एक प्रान्त से दूसरे प्रान्तों में जाकर बसने का सिलसिला बना रहा। वास्तव में विस्थापन की इस प्रक्रिया ने व्यापक सांस्कृतिक विनिमय के माध्यम से 'भारतीयता' शब्द को एक सही अर्थ भी दिया। भारत के विभिन्न प्रान्तों की लोक कलाओं में 'भूख' एक महत्वपूर्ण विषय बन कर न केवल बार-बार आया बल्कि अपने समय और सामाजिक घटनाओं-दुर्घटनाओं के यथार्थ को कला में दर्ज कर कला को एक नयी ऊंचाई भी दी, और इस प्रकार आम जनों का एक सामानांतर इतिहास भी रचा जाता रहा
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इस देश में प्राचीन काल से ही अकाल संबंधी तमाम सन्दर्भ मिलते है। ऋग्वेद में भी अकाल से निजात पाने के उद्देश्य से देवों को तुष्ट करने के लिए प्रार्थनाएं मिलती हैं। केवल लोक कथाओं और लोक गीतों में ही नहीं बल्कि कई बौद्ध जातक कथाओं में भी इसका जिक्र आता है। भूखे अकाल पीडि़तों द्वारा अपने राजा के विरूद्ध युद्ध छेडऩे का प्रसंग भी किसी एक ऐसी ही जातक कथा में है। बुद्ध की प्रसिद्ध 'उपवास में बुद्ध' मूर्ति (देखें चित्र) निर्विवाद रूप से मूर्तिकार की कल्पना ही है, पर लम्बे समय से भूखे व्यक्ति की शारीरिक संरचना की इस सजीव प्रस्तुति को हम महज़ कल्पना नहीं कह सकते। मूर्तिकार का अपना अनुभव शायद किसी अकाल से गुज़र कर ही इतना सटीक हुआ होगा। इसी प्रकार सम्राट अकबर के दरबारी चित्रकार बसावन ने न केवल 'अकबरनामा' जैसी प्रसिद्ध चित्र श्रृंखला बनाई थी, बल्कि लैला-मजनू की प्रेम कहानी पर अनेक चित्र भी बनाये थे। इसी चित्र श्रृंखला का एक प्रसिद्ध चित्र 'शबीह कैस इब्ने आमीर उर्फ मजनूँ' (देखें चित्र-2) इस चित्र में चित्रित लैला के विरह में मजनूँ के साथ साथ उसका घोड़ा और कुत्ता भी बेहद जीर्ण और कमज़ोर दिखता है, यहाँ तक कि पेड़ की शाखें भी सूखी और पर्ण विहीन हैं। कुल मिला कर इस चित्र के सन्दर्भ में अनजान दर्शक के लिए यह एक अकाल का ही चित्र है। वैसे भी मुगल शासन के दौर में कई प्रान्तों में बड़े अकालों का उल्लेख मिलता है। पूरे विश्व में चित्रकला के ऐसे उदाहरण निश्चय ही सार्थक कला में कलाकार की कल्पना के साथ साथ उसके अपने अनुभवों की जरूरत को रेखांकित करते हैं, पर शुद्ध अनुभव को आधार मान कर चित्ररचना के श्रेष्ठ उदाहरण तो हमें अपने प्रागैतिहासिक गुफा चित्रों में ही देखने को मिलता है।
आधुनिक काल में भारतीय कलाकारों द्वारा सामंती और धार्मिक बंधनों से कला को मुक्त कर, अपने समय और समाज के यथार्थ को चित्रित करने की सार्थक शुरूआत को हम बीसवीं सदी के आरम्भ से ही देख पाते हैं। हालाँकि कला की मुक्ति की इन कोशिशों के विपरीत, औपनिवेशिक और सामंती शक्तियों ने पुनर्जागरण के नाम पर 'नव भारतीय कला' को जन्म (1902-1908) दिया, जो वास्तव में पारंपरिक शैलियों को भारतीयता के नाम पर चिन्हित कर उसे ही आदर्श के रूप में स्थापित करने की कोशिश थी। इस कोशिश में अंग्रेज शासन के बड़े अधिकारियों और बंगाल के नामी राजा और जमीदारों के सम्मिलित प्रयास ने 'भारतीय' चित्रकला को संकीर्ण 'हिन्दूवादी' चित्रकला के रूप में स्थापित करने की कोशिश की। अजंता से लेकर मुगल कला शैलियों तक को अपना आधार मानते हुए उन्होंने एक ऐसी कला धारा को जन्म दिया, जहाँ एक बार फिर राजा-रानियों और देवी देवताओं की लीलाओं की भरमार दिखने लगी। दक्षिण के चित्रकार राजा रवि वर्मा और नव-भारतीय चित्रकला के बीच की यह निरंतरता गौरतलब है क्योंकि इस समय के साहित्य, सोच और संस्कृति पर पश्चिम का प्रभाव कम से कम भारत के कुछ प्रमुख शहरों में स्पष्ट दिखने लगा था, पर चित्रकला का इन प्रभावों से अछूता रह जाना ही नहीं बल्कि कला में सदियों पुराने सामंती मूल्यों का पुनरुत्थान, निश्चय ही कई सवाल पैदा करता है।
यहाँ 1943 के पहले की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं पर ध्यान देना जरूरी होगा, क्योंकि बीसवीं सदी के शुरू से ही यूरोप की राजनीतिक-सामाजिक घटनाओं का व्यापक असर यूरोप की कला, साहित्य और सोच पर पड़ा था। औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन के अधीन भारत जैसे मुल्क के बुद्धिजीवी, साहित्यकार और कलाकारों तक इन परिवर्तनों की जानकारियों का पहुँचना स्वाभाविक ही था। कलकत्ता, मुंबई और मद्रास जैसे अंग्रेजों के शक्ति केन्द्रों में इन घटनाओं ने बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित किया। पर पूरे देश की विशाल जनता के लिए प्रथम विश्व युद्ध जैसी घटना की भयावहता को समझ पाना संभव नहीं था। उन्हें बाढ़, अकाल जैसी प्राकृतिक आपदाओं का अनुभव तो था, पर युद्ध, मृत्यु और क्षति की उनकी कल्पना सदियों से रामायण महाभारत और अन्य धार्मिक कथाओं में वर्णित युद्ध प्रसंगों तक ही सीमित थी। लिहाज़ युद्धों की इन कथाओं का, जो प्राय: देवी-देवताओं या राजे-रजवाड़ों के अतिरंजित शौर्य गाथाओं तक ही सीमित थे, और जनता के बीच इनका प्रभाव, सामूहिक मनोरंजन तक ही था। ऐसी स्थिति में कलाओं में समकालीन तत्वों का समावेश न होकर परिचित विषयों की पुनरावृत्ति को ही रचना का उद्देश्य और सीमा माना गया। इस प्रकार एक लम्बे समय तक धर्म, संप्रदाय या शासक विशेष के प्रचार प्रसार मात्र के लिए कलाओं का भरपूर उपयोग होता रहा। चित्र कला की उपयोगिता, स्वाभाविक रूप से अशिक्षित आमजनों के बीच धर्म कथाओं के वाचिक स्वरूप से कही ज्यादा प्रभावशाली रही है। और इसी कारण से भारतीय चित्रकला ने जिस 'प्रमाणिकता' के साथ राम, सीता, कृष्ण, राधा और हनुमान से लेकर रावण जैसे चरित्रों को तमाम धर्म कथाओं में एक निश्चित वर्ण, कद और काठी वाला रूप प्रदान किया है, वह सूर, तुलसी, चंडीदास, कृत्तिवास, विद्यापति जैसे महाकवियों द्वारा संभव नहीं था। लम्बे समय से धर्म और राज सत्ता के निहित स्वार्थों के चलते भारतीय चित्रकला का विकास कला के अन्य रूपों के सामानांतर नहीं हो पाया। चित्रकला में प्राकृतिक आपदाओं, सामाजिक-राजनैतिक तनावों और विध्वंस के हमारे अनुभवों को भी स्थान दिया जा सकता है, इसके बारे में भी भारतीय चित्रकार एक लम्बे समय तक अनजान बने रहे। इस प्रकार बीसवीं सदी के राजनैतिक सामाजिक उथल पुथलों का असर भारतीय कलाकारों पर कम से कम इस हद तक तो जरूर पड़ा था कि जिसके चलते चित्रकला के लम्बे इतिहास में पहली बार भारतीय चित्रकला में आम आदमी और उसकी समस्याओं को जगह मिल सकी। भारतीय कला इतिहास में इसे एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में चिन्हित किया जाना चाहिए, क्योंकि एक ओर जहाँ समाज और समाज के कठोर यथार्थ को भोगते हुए प्रतिबद्ध कलाकारों के एक दल ने प्रगतिशील कलाधारा को जन्म दिया, वहीं कलाकारों के एक दूसरे दल ने यूरोप की कला का कोरा अनुकरण कर अपनी कला को वैश्विक कला बाज़ार में एक 'माल' के रूप में स्थापित करने की कोशिश की।
यूरोप में इसाई धर्म के प्रचार प्रसार में एक लम्बे समय से कला की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, चित्रकला की विकास की प्रक्रिया कई मायनों में हमारे देश से भिन्न थी। पश्चिम में एक और समकालीन यथार्थ को कला में दर्ज करने की एक जीवंत धारा को हम अनवरत विकसित होते पाते हैं, वहीं विषय की विविधता के साथ हम चित्र कला में 'रूप' के अंतर्संबंध को भी बेहतर चिन्हित कर पाते है। युद्ध को अपने चित्रों का विषय बनाकर फ्रांसिसको गोइया (1746-1828) ने चित्रकला में आधुनिकता की नींव रखी (देखें चित्र 3 और 4)। गोइया ने चित्र कला के सबसे महत्वपूर्ण युग संधिकाल को एक सर्वथा नया आयाम दिया। पर जल्द ही चित्र कला को उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में, विज्ञान और तकनीकी विकास के चलते 'कैमरा' के आगमन से सबसे बड़ी चुनौती मिली, जिसने कला की शास्त्रीय अवधारणाओं को काफी हद तक ध्वस्त तो किया, पर साथ ही कला में सृजन के नए दरवाजे भी खोले। समकालीन यथार्थ को प्रमाणिकता के साथ दर्ज करने की क्षमता इस माध्यम (फोटोग्राफी) में न केवल ज्यादा थी, बल्कि यह निरन्तर विकास कर चित्रकला के उन सब क्षेत्रों में (रंगीन पोट्र्रेट और लैंडस्केप) सक्रिय हुआ, जहाँ सदियों से केवल चित्रकला का ही एकाधिपत्य था। प्रसंगत: यहाँ उल्लेखनीय यह भी है कि इस स्थिति ने चित्रकला की 'समझ' से जुड़े तमाम भ्रमों को भी जन्म दिया, जो आज भी जनता में व्याप्त हैं।
बीसवीं सदी के शुरू से ही, चित्र कला को दोहरी चुनौती यूरोप के तेजी से बदलते हुए राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों ने पेश की और इस महत्वपूर्ण दौर से गुजरते हुए चित्रकला ने एक जिम्मेदार चेहरा अख्तियार किया जो न केवल स्वतंत्र था बल्कि यथार्थ की प्रस्तुति में इसने एक नयी सृजनशीलता को भी जन्म दिया।
इस सन्दर्भ में, प्रथम विश्व युद्ध के यथार्थ को प्रस्तुत करते हम सर जार्ज क्लौसन (1852-1944) द्वारा बनाया गया प्रसिद्ध चित्र 'विलाप करता यौवन' (देखें चित्र 5) का उल्लेख कर सकते हैं। चित्र में सीधे तौर पर कहीं कोई युद्ध, आतंक या विध्वंस का जिक्र नहीं है, पर चित्र की पृष्ठभू्मि में युद्ध के दौरान हुई बमबारी से बने गड्ढों को देखा जा सकता है (जो, हालाँकि संदर्भ न जानने वाले दर्शकों को एक उजाड़ और वीरान मैदान ही लगेगा)। जार्ज क्लौसन ने 1916 में बनाये गए इस चित्र के द्वारा युद्ध में बड़ी तादाद में मारे गए युवा फौजियों को याद किया है। चित्र में एक नग्न स्त्री एक सलीब के सामने झुकी हुई है। वास्तव में इस चित्र में क्लौसन ने अपनी बेटी कैथरीन को दिखाया है, जिसका प्रेमी युद्ध में मारा गया था। इस चित्र के बहाने युद्ध में युवा पीढ़ी और उनके स्वप्नों के मर जाने को रेखांकित करते हुए युद्ध के कारण महिलाओं की करुण स्थिति को भी प्रस्तुत किया है। यह चित्र, हालाँकि चित्र के सन्दर्भों से अपरिचित दर्शक के लिए मात्र एक विषाद पूर्ण या फिर कुछ रहस्यमय से एक माहौल को पेश करता है, पर चित्र अपने सरोकारों में निस्संदेह अपने समय और समाज से सघन रूप से जुड़ा हुआ है।
क्लौसन का यह चित्र युद्ध में शहीद हुए केवल अंग्रेज युवा सैनिकों के लिए न होकर, युद्ध के विनाश के खिलाफ एक मर्मस्पर्शी कृति के रूप में याद किया जाता है। यहाँ जर्मन चित्रकार ओट्टो डिक्स (1891-1969) की कृतियों का जिक्र करना प्रासंगिक होगा। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जहाँ जार्ज क्लौसन जहाँ 'विलाप करता यौवन' जैसा चित्र बनाकर युद्ध के विनाश पर अपनी सामाजिक टिप्पणी करते है, वहीं अंग्रेजों के खिलाफ युद्धरत जर्मन सेना में शामिल चित्रकार ओट्टो डिक्स ने युद्ध और युद्ध के बाद उत्पन्न परिस्थितियों के भयावह यथार्थ को अपने चित्रों में दर्ज किया है। यहां प्रथम विश्व युद्ध के विनाश पर उपन्यासकार एरिक मारिया रेमार्क (1898-1970) की कालजयी कृति 'आल क्वाएट इन द वेस्टर्न फ्रंट' को हम याद कर सकते हैं, जिसे महज कल्पना से नहीं बल्कि युद्धक्षेत्र में मर रहे आम सैनिकों के बगल में खड़े होकर ही लिखा जा सकता था। ओट्टो डिक्स के चित्रों और रेमार्क के उपन्यास में युद्ध का प्रमाणिक चित्रण हमें विचलित करता है, और अंतत: अपने चरित्र में वे युद्ध के विनाश के विरोध में एक कारगर कलाकृति के रूप में महत्वपूर्ण हो जाती हैं।
ओट्टो डिक्स के चित्रों के दोनों पर्वों, यानी युद्ध के दौरान और युद्ध के बाद के चित्रों के सरोकारों में हम कलाकार के अनुभवों को कृतियों के मूल आधार के रूप में पाते है। और यही नहीं, यहाँ कलाकार अपनी राजनीति और रचना के बीच के अंतर्संबंध को बिना किसी नारे के स्पष्ट कर पाता है। ओट्टो डिक्स के असंख्य युद्ध चित्रों में एक महत्वपूर्ण पर अपनी संरचना में सरल से चित्र (देखें चित्र 6) को यहाँ हम देख सकते है। चित्र को समझने के लिए जहाँ दर्शक को किसी व्याख्या की जरूरत नहीं होती, वहीं चित्र के तीनों चरित्रों के चेहरों में एक मासूमियत और लाचारी को साफ देखा जा सकता है। युद्ध में शामिल हजारों सैनिकों जैसे ये तीनों इस युद्ध के लिए जिम्मेदार न होकर भी युद्ध से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। युद्ध में आम सैनिकों की दुर्दशा और मजबूरी को ओट्टो डिक्स ने युद्धक्षेत्र में स्वयं जीकर समझा था। चित्र में कलाकार का व्यक्तिगत अनुभव चित्र को एक ऐसी ऊर्जा प्रदान करता है जो घटना से पूरी तरह से विच्छिन्न व्यक्ति के मर्म को गहरे स्पर्श कर जाता है। ओट्टो डिक्स युद्धक्षेत्र की सीमा के बाहर सामाजिक परिसर पर युद्ध के विनाशकारी प्रभावों को अपने चित्रों में लाकर हमें विचलित करते हैं। ओट्टो डिक्स ने युद्ध मारे गए सैनिकों की पत्नियों की बदहाली और बेबसी को एक ऐसे तीखेपन से प्रस्तुत किया है जो चित्रकला के इतिहास में विरल है। ढलती उम्र की 'युद्ध विधवाओं' को जीने के लिए अपना देह बेचने के लिए मजबूर होने की घटना को न केवल अपने चित्रों (देखे चित्र 7 एवं 8) में दिखाया, बल्कि समाज को इन विधवाओं के प्रति संवेदनशील बनाने का काम भी किया। कलाकार के अपने समय और समाज को समझने और उस पर रचने की जिम्मेदारी का यह नि:संदेह एक और सार्थक उदाहरण है।
ओट्टो डिक्स जर्मन कलाकार थे, वही जॉन सिंगर सार्जेंट (1856-1925) अंग्रेजों की ओर से युद्ध में एक चित्रकार की हैसियत से गए थे। प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी ने युद्ध में रासायनिक शस्त्र 'मस्टर्ड गैस' का प्रयोग किया था। इस भयंकर गैस की खासियत यह थी कि इसके संस्पर्श में आते ही आदमी न केवल अंधा हो जाता था, बल्कि यह गैस उनके फेफड़ों को गला देता था जिससे गैस पीडि़त की दर्दनाक मृत्यु होती थी। गैस के इस प्रभाव को सार्जेंट ने अपने विशाल चित्र 'गैस्ड' में अत्यन्त मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है (देखें चित्र 8a)। चित्र में अन्धे सैनिकों के दल को एक चिकित्सा सहायक युद्ध क्षेत्र से बाहर ले जा रहा है। इस में सभी सैनिक अन्धे हो चुके हैं और कतार का सातवाँ सैनिक खून की उल्टियाँ कर रहा है। यह चित्र कल्पना से बनाना कतई सम्भव नहीं है। सामूहिक त्रासदी की ऐसी रचनाएँ अपने मूल्यांकन के लिए नए आलोचना सिद्धान्तों की मांग भी करते हैं।
इस युग के महान चित्रकार पाब्लो पिकासो (1881-1973) की कला यात्रा इस सृजन प्रक्रिया का एक ऐसा उदाहरण है, जहाँ हम कला को अपने समय और समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर एक अर्थपूर्ण यथार्थ के सृजन को संभव होते हुए पाते हैं। अपने 'नीले काल' के चित्रों में (1904) जिस अंदाज में वे 'बूढ़ा गिटार वादक' (देखें चित्र 9) को बनाते है उसी अंदाज़ से वे युद्ध की विभीषिका का चित्रण नहीं करते हैं। वे, प्रथम और दूसरे विश्व युद्ध के बीच के वर्षों में यूरोप के व्याप्क अशांत परिस्थितियों के दबावों को एक सजग कलाकार के रूप में समझने की कोशिश करते हैं, और इसीलिए 'ग्येर्निका' (1936) में हम उनके (देखें चित्र 10) स्त्री, पुरूष, बच्चे, जानवरों के साथ साथ लालटेन बल्व आदि सभी के चित्रण में एक नए 'फॉर्म' को बनते हुए पाते हैं। स्पेन के गृह युद्ध से जुडी तमाम अमानवीय घटनाओं को अपनी कला में दर्ज करने के लिए पिकासो का यह फार्म, यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर कलात्मक सृजन करने का एक नायाब उदाहरण है। इस चित्र में जहाँ 'कथ्य' की गहरी समझ के कारण हम एक नए 'रूप' को निर्मित होते देख पाते हैं, वहीं 'रोती हुई औरत' (1937) में इसी प्रक्रिया को अर्थपूर्ण सृजन के एक दूसरे आयाम में पाते हैं, जहाँ एक अकेली औरत का रोना (देखें चित्र 11) एक पूरी पीढ़ी के दर्द को बयां करता है। कला और कलाकार के समय के बीच के अंतर्संबंधों का विस्तार मूलत: कलाकार के मौलिक अनुभवों पर आधारित होता है। इसीलिए पिकासो के 'ग्येर्निका' में हम बारूद की बू को महसूस कर पाते हैं, मरे हुए बच्चे को अपने सीने से चिपकाये उस माँ के विलाप को सुन पाते हैं और एक ऐसे यथार्थ से परिचित हो पाते हैं जो न केवल हमारे अनुभव का हिस्सा नहीं है, बल्कि हम चित्र के संदर्भों से अपरिचित होने के बावजूद भी चित्र को 'समझते' हैं। यह समझ हमें युद्ध और नरसंहार के विरोध में खड़े होने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रकार ईमानदार कला अपनी स्थानीयता की सीमा के परे जाकर एक बड़े संसार से संवाद करने में समर्थ होती हैं।
पश्चिम में हुए चित्रकला के विकास की धारा को देखकर, हम हमारे देश की कला और सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियों के अंतर्संबंधों की बेहतर जाँच पड़ताल कर सकते हैं। जैसा की हमने पहले भी चर्चा की है कि बीसवीं सदी के आरम्भ के पश्चिम की व्यापक परिवर्तनों की जानकारियां निश्चित तौर पर भारतीय बुद्धिजीवियों की सोच को प्रभावित कर रही थी पर अपने सीमित देशज अनुभवों के आधार पर उन्हें पूरी तरह से समझ पाना कठिन था। प्रथम विश्व युद्ध का असर भारत पर सीधे नहीं पड़ा था, पर रूस की 1917 की अक्टूबर क्रांति ने उनके चिंतन को गहरे प्रभावित किया। विचारधारा और दर्शन के रूप में बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग माक्र्सवाद की तार्किकता से प्रभावित था। हालाँकि यहाँ यह मान लेना गलत होगा की ऐसे सभी बुद्धिजीवी किसी समर्पित माक्र्सवादी राजनैतिक दल से ही सम्बन्ध रखते थे।
1930 के आसपास ही रवीन्द्रनाथ ठाकुर का चित्र रचना में पूरी गंभीरता के साथ आना, भारतीय चित्रकला की एक बड़ी घटना के रूप में देखा जाना चाहिए। बीसवीं सदी के पहले में जिन शक्तियों ने नव भारतीय कला की आड़ में हिन्दूवादी कला प्रवृति को स्थापित करने की कोशिश की थी, रवीन्द्रनाथ उसमें शामिल नहीं थे। 1919 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शांति निकेतन की स्थापना के साथ साथ कला भवन की भी नींव रखी, जहाँ कला को पारंपरिक बंधनों से मुक्त करने के लिए उन्होंने निरंतर प्रयास किया (जो सफल भी हुआ, ऐसा कहना काफी हद तक गलत होगा)। 1930 तक आते आते नोबेल सम्मान से सम्मानित कवि रवीन्द्रनाथ ने ब्रह्मवादी और रहस्यवादी रूझानों से अपने को पूरी तरह से काट कर अपने चित्रों के माध्यम से एक आधुनिक भारतीय चित्र कला का सूत्रपात किया और हजारों वर्षों से चली आ रही परंपरा की तनिक भी परवाह किये बगैर कला इतिहास में पहली बार आम आदमियों को अपनी कला में स्थान दिया। यही नहीं अपने जीवन के अंतिम दशक में बेहद सक्रियता के साथ उन्होंने हज़ारों चित्र बनाये पर उनके एक भी चित्र में किसी देवी देवता या राज पुरूष को स्थान नहीं मिला। यहाँ यह गौरतलब है, कि जिस साहित्यकार की रचनाओं में देवी देवताओं और महाकाव्यों के नायकों का आना जाना लगा रहा; जिन्होंने कभी बेहिचक होकर अपने पराधीन देशवासियों के भाग्य विधाताओं गुणगान किया, अपनी हर रचना को जिन्होंने न केवल किसी सन्दर्भ के साथ जोड़ा, बल्कि नायक और अन्य पात्रों को यथा योग्य स्थान दिया, वही रचनाकार अपने चित्रों में न तो किसी भी परिचित सन्दर्भ का आग्रह दिखाते हैं और न ही किसी चित्र को शीर्षक देते हैं। रवीन्द्रनाथ 'रचना' शब्द को साहित्य में जिन अर्थों में प्रयोग करते हैं, चित्रकला में उनकी सोच अलग दिखती है। अपने चित्रों में, अपने बचपन से अति-परिचित इस 'विश्व के रचयिता' के लिए वे अपने चित्रों में एक चुनौती भी पेश करते हुए दिखते हैं। वे मनुष्य के चित्र तो बनाते हैं, पर वे ईश्वर द्वारा 'बनाये' गए मनुष्य से भिन्न हैं। यही बात उनके फूलों, पक्षियों, जन्तु-जानवरों के चित्रण में भी है, जहाँ हमें उनकी रचनाएँ, प्रकृति की अनुकृति न होकर एक सामानांतर जगत की रचना करती हुई दिखाई देती है। नव भारतीय चित्रकला के प्रतिनिधि चित्र, जहाँ एक ओर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की साहित्यिक  रचनाओं के बेहद करीब है, वहीं उनके स्वयं के चित्रों का उनकी साहित्यिक रचनाओं का कोई रिश्ता नहीं दिखता (देखें 12, 13 और 14)। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को देवासन पर प्रतिष्ठित करने की होड़ में, उनकी कला के इस क्रान्तिकारी पक्ष पर बहस करना लोगों से शायद छूट गया। बहरहाल, इसमें कोई संदेह नहीं, कि चित्रों में केवल चित्रांगदा, शाहजहां से लेकर इंद्र ही नहीं बल्कि भूखे-प्यासे, नाम परिचयहीन अकाल पीडि़तों को भी लाना संभव है, यह सच भारतीय युवा और प्रगतिशील चित्रकारों को रवीन्द्रनाथ ने ही बताया। ऐसा लगता है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कला के सच की तलाश, अपने जीवन के अंतिम दशक में चित्रकला में ही पूरी हो सकी थी, और यह भी कि साहित्यकार रवीन्द्रनाथ और चित्रकार रवीन्द्रनाथ का मूल्यांकन बिलकुल भिन्न दो ध्रुवों के व्यक्तित्वों के रूप में होना चाहिए।
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1943 के अकाल के काफी पहले भारतीय बुद्धिजीवियों में रूस की क्रांति, वामपंथी विचारधारा के प्रति रूझान और युद्ध विरोधी आंदोलनों के समर्थन में उनकी सांझेदारी सा$फ दिखने लगी थी 1936 में रोमां रोलाँ के नेतृत्व में ब्रासेल्स में विश्व युद्ध विरोधी मंच की स्थापना के घोषणापत्र में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरतचंद्र, मुंशी प्रेमचंद, जवाहरलाल नेहरू आदि लोग शामिल थे। इसी दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े रचनाकारों ने जनोन्मुख और वामपंथी कला चेतना के बारे में गंभीरता से सोचना समझना शुरू किया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी द्वारा रूस पर आक्रमण ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को जर्मनी के खिलाफ लड़ रहे राष्ट्रों के समर्थन में खड़े होने के लिए मजबूर कर दिया। पार्टी में 1941 में 'रूस मैत्री संघ' 1942 में 'फासीवाद विरोधी लेखक और कलाकार मंच' की स्थापना पर बड़े पैमाने में कलाकारों को गोलबंद करने का प्रयास किया गया। 1943 में मुंबई में 'जन नाट्य मंच (इप्टा) की स्थापना की गयी।' प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठन (प्रोग्रेसिव कल्चरल असोसिएशन), प्रगति लेखक संघ, इप्टा आदि पार्टी से सम्बद्ध सांस्कृतिक संगठनों के साथ साथ छात्रों, मजदूरों और किसानों को एकजुट करने के लिए भी संगठन बने। इन सब संगठनों के बीच प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी रंगकर्मियों और चित्रकारों पर थी। भारत का प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन के इस दौर में बंगाल का महाअकाल एक ऐतिहासिक चुनौती बन कर सामने आया।
दो सौ वर्षों शासनकाल में दूसरे विश्व युद्ध का दौर अंग्रेजों के लिए निस्संदेह सबसे कठिन था। औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन का दंभ कि उसका सूरज कभी भी अस्त नहीं होता, उसे अन्य युद्धरत देशों से कहीं ज्यादा मुसीबत में डाल चुका था। यूरोप से लेकर एरिया के कई युद्धक्षेत्रों में एक साथ उलझ जाने के कारण भारत उपमहादेश में उसकी पकड़ ढीली होने लगी थी। एक और पूर्वी भारत की सीमा में बर्मा (वर्तमान मयन्मार) की दिशा से जापानी थल सेना का आगे बढऩे का $खतरा बढ़ रहा था, वहीं आजाद हिन्द फौज़ का जापान के साथ समझौता, दूसरे विश्व युद्ध के इस निर्णायक मोड़ पर नई समस्या पेश कर रही थी। देश की अंदरूनी स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी। देश के अन्दर जहाँ 'भारत छोड़ो' का नारा बुलंद हो रहा था वहीं आजाद हिन्द फौ•ा की रण हुंकार 'दिल्ली चलो' अंग्रेज़ों के लिए एक नयी समस्या की स्थिति पैदा कर रही थी। अंग्रेज अधिकारियों ने भारत के पूर्वी सीमा में जापानी सेना को रोकने के लिए सरकारी और गैरसरकारी अन्न भंडारों को हटा लिया, यदि जापानी फौज इन इलाकों में दाखिल हो भी जाये तो उन्हें खाद्यान्न न मिल सके। बंगाल के पूर्वी इलाकों में (वर्तमान बांग्लादेश) जमाखोर अन्न व्यापारियों ने मौके का फायदा उठाकर अपने गोदाम भर लिए। इन सब परिस्थितियों के चलते बंगाल महा अकाल के गिरफ्त में आ गया। असहाय ग्रामीण लोग, जो अन्न की तलाश में शहरों की ओर पलायन नहीं कर सके, अपने गाँवों में ही भूख और बीमारी से मर गए। और जो लोग इस उम्मीद के साथ गाँव छोड़ शहर आये उनका अंत शहर के फुटपाथों में हुआ। इस आकाल और अकाल से उत्पन्न महामारी से कम से कम 30 लाख लोगों की जानें गई, जिसमें अधिकांश गरीब किसान, भू्मिहीन ग्रामीण मजदूर और उनके परिवारजन थे।
1943 का अकाल भारत की सांस्कृतिक चेतना के लिए एक ऐतिहासिक मोड था। भारतीय रचनाकारों के युद्ध, मृत्यु और विनाश आदि के सीमित अनुभवों के चलते, 1943 का इस मानव निर्मित महाअकाल जैसी दिल दहलाने वाली घटना की प्रतिक्रिया में उनके रचना कर्म को सर्वथा एक अपरिचित चुुनौती के सामने खड़ा कर दिया। रचना के इतिहास में मानव त्रासदी के ऐसे कई मौके आते है जहाँ यथार्थ, रचनाकारों की कल्पना की सीमा को बेमानी बना देता है। प्राय: रचनाकारों के लिए ऐसी स्थिति असहाय और एक मूक दर्शक की सी हो जाती है और उनके लिए रचना कर्म असंभव हो जाता है। हम युद्ध और प्राकृतिक विनाश की तमाम उन घटनाओं को अच्छी तरह जानते है, जिनका जिक्र जिस प्रमाणिकता और विस्तार से इतिहास में दर्ज है, उसके समान प्रभावशाली रचनाएँ हमें नहीं मिलती है। बावजूद इसके कि 'त्रासदी' कला का एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जिसमें संख्या और स्तर, दोनों लिहाज से असंख्य महत्वपूर्ण रचनायें हमें देखने मिलती है। इस तथ्य पर और गहराई से गौर करने पर हम पाते है कि व्यक्तिगत त्रासदी की सामूहिक अनुभूति एक बड़ी रचना को जिस तरह संभव बनाती है, सामूहिक त्रासदी की व्यक्तिगत अनुभूति (यहाँ रचनाकार का व्यक्तिगत अनुभव) प्राय: कोरे विवरणात्मक या एक 'रिपोर्ताज' जैसी रचना को ही जन्म देती है, जिसे शास्त्रीय कला आलोचना में कमतर मान की रचना का स्थान दिया जाता रहा है। बंगाल के महाअकाल ने इस उपमहादेश के रचनाकारों को पहली बार ऐसी परिस्थिति से रू-ब-रू की चुनौती दी, जहाँ रचना का एक नया उद्देश्य उनके सामने था और यह भी कि रचना के नए प्रतिमानों को भी उन्हें ही गढऩा था।
इस दौर में, भारतीय कलाकारों के एक बड़े समूह में, वामपंथी विचारधारा ने जिस जनोन्मुख कला चेतना को जन्म दिया था, उसके ही चलते रचनाकारों को ऐसे कठिन समय  में भी अपनी पक्षधरता और जिम्मेदारी को तय करने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। उनके लिए महा अकाल से जुड़ी तीन बातें सबसे महत्व की थीं। पहली बात जो वे स्पष्ट समझ सके थे वह यह, कि यह अकाल सत्ता और जमाखोरों के सम्मिलित साजिशों का नतीजा था, दूसरा यह, कि इससे ग्रामीण सर्वहारा वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित था और तीसरा यह कि इस अकाल से अप्रभावित देशवासियों को बंगाल की जनता की त्रासदी के बारे में सम्वेदनशील करने की बड़ी जिम्मेदारी उन्हीं पर थी। 1940 के बाद से निरंतर विकसित होते, भारतीय प्रगतिशील रचनाकारों का यह एक ऐसा राजनैतिक चेहरा था, जो प्रादेशिकता और भाषा के आधार पर विभाजित एक गुलाम मुल्क को गहरे स्तर पर जोड़ रहा था। यहाँ सहज ही उत्तर प्रदेश के जौनपुर के शायर वामिक जौनपुरी की रचना 'भूखा बंगाल' को इसकी एक ऐतिहासिक मिसाल के रूप में देख सकते है।
पर बंगाल के रचनाकारों के लिए यह अनुभव, स्वाभाविक रूप से भारत के अन्य प्रान्तों के रचनाकारों से कही ज्यादा तीव्र था। उनके लिए मानव सभ्यता, प्रगति, देश प्रेम, नैतिकता, शोषण-शोषित, पाप पुण्य से जुड़ी तमाम अवधारणाएं टूट फूट कर बिखरने लगी थीं। अखबारों में 1943 के फरवरी मार्च के महीनों में ही भूखमरी की छिटपुट खबरें आने लगी थीं। गाँव देहातों में चोरी-चकारी की घटनाएँ बढऩे लगी थीं। जुलाई आते आते गाँव से शहर भाग कर आये लोगों की संख्या बढऩे लगी और केवल अगस्त महीने में ही कलकत्ते की सड़कों से अकाल से मारे गये 120 लोगों की लाशें मिलीं। 26 अगस्त के सभी अखबारों की सुिर्खयों ने अंतत: मानो चीख कर ऐलान किया 'महाअकाल की गिरफ्त में बंगाल!' लोगों की जुबानों पर तांडव की दिल दहला देने वाली कथाएं सुनाई देने लगीं। पूर्वी बंगाल के जिलों से, मौत की व्यापक खबरों के साथ दु:स्वप्नों का हरकारा कई नयी किस्म की खबरें भी लाने लगा। पूर्वी बंगाल के 'नेत्रकोना में दस आने से लेकर डेढ़ रूपए में लड़कियाँ बिक रही हैं।' 'मानिकगंज तहसील के कोदालियार गाँव में लालू राजवंशी और उसकी पत्नी ने अपनी बेटी को एक वेश्या के हाथों दस रूपए में बेचा।' हताशा की चरम सीमा पर खड़े बंगालके बारे में किसी कवि ने लिखा, 'घर दुआर नहीं,/पर/विश्वविजयी हूँ।/ बीवी, बेटी गयी हैं दूसरे रास्ते/अनजाने नरक की ओर। अब जो बचा रहा, सो मैं ही हूँ/सख्त जान/नदी के पानी में डूब मरता हूँ।' कवि जीवनानंद दास ने अपनी कविता में इसे ही 'मोहिनी नरक' कहा। युवा कवि सुकांत भट्टाचार्य ने लिखा, 'मैं हूँ एक अकाल का कवि/रोज़ देखता हूँ दु:स्वप्न/मेरा वसंत बीतता है रोटी की राह ताकते लोगों की कतार में खड़े/मेरी उनींदी रातों में सतर्क सायरेन चीखते हैं।' बंगाल की कविता, अकाल और युद्ध के काले आसमान में बिजली बन कर कौंध रही थी। सुकांत भट्टाचार्य द्वारा सम्पादित विभिन्न कवियों द्वारा अकाल पर लिखी कविताओं का संकलन 'अकाल' एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। प्रख्यात लेखक प्रेमेन्द्र मित्र की एक मार्मिक कविता 'फैन' (चावल की माड़ी) शीर्षक से इसी संकलन में शामिल है, जो कलकत्ते की सड़कों पर भूख से बिलखते ग्रामीण लोगों का एक जीवंत चित्रण है। भोजन की तलाश में गाँव से शहर आने वाले मजबूर लोग भीख में रोटी चावल की उम्मीद नहीं करते थे, वे भीख में बस चावलकी माड़ी मांगते थे। प्रेमेन्द्र मित्र लिखते हैं, 'शहर की सड़कों पर देखें हैं कुछ अजीब जीव/बिल्कुल इंसानों जैसे/या, कि इंसानौं जैसे नहीं/मानों उनके व्यंग्य चित्र, विद्रूप विकृत!/फिर भी वे हिलते डुलते हैं बतियाते हैं, और/सड़क किनारे कूड़े जैसे ढेर बनाते हैं/जूठन के कूड़ेदानों पर, बैठे हांफते/और माड़ी मांगते।'
अकाल पर लिखे गये अनगिनत कविता, कहानी, उपन्यासों में, जहाँ एक ओर हमें रचनाकारों में उनके समय के यथार्थ की कोख से उत्पन्न, सर्वथा नए अनुभवों को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करने की जद्दोजहद दिखती है, वहीं पहली बार इतनी गहराई से राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों को हम कला के 'फार्म' को प्रभावित करते हुए भी पाते है। इस द्वंद्वात्मकता को हम बेहद प्रभावशाली ढंग से उस दौर के प्रगतिशील चित्रकारों की कृतियों में देख पाते हैं।
अकाल के प्रमुख चित्रकारों के रूप में हम ज़ैनुल आबेदिन, चित्तप्रसाद, रामकिंकर, सोमनाथ होड़, गोबर्धन आश, देबब्रत मुखोपाध्याय आदि को पाते हैं, पर यह सच है कि इनके अलावा तमाम और चित्रकार भी थे जिन्होंने अकाल पर चित्र बनाये थे। 1943 के अकाल पर बने लगभग सभी चित्रों को हम काले और सफेद रंग में बना हुआ पाते हैं, अकाल चित्रों का यह पक्ष यूरोप के युद्ध चित्रों से भिन्न, एक राजनैतिक तेवर प्रस्तुत करते है। ज़ैनुल आबेदिन के अकाल चित्रों में हम माध्यम और विषय के बीच के रिश्ते को सघनता से महसूस कर पाते हैं। ज़ैनुल आबेनिद ने सूखी कूंची (ड्राय ब्रश) से खुरदरे कागज़ में चित्र बनाए हैं। इस माध्यम के चलते कमज़ोर मानव शरीर की हड्डियों के उभार के साथ साथ, रेखाओं की लयात्मकता के बावजूद उसकी खास संरचना के साथ पूरे चित्र में एक रूखापन पैदा किया है, जो पूरी तरह विषय के अनुरूप ही है। ज़ैनुल आबेदिन के चित्रों में विषय के बारे में उनकी समझ हमें चकित करती है। एक चित्र में (देखें चित्र 15) ज़ैनुल आबेदिन ने एक अकाल पीडि़त ग्रामीण परिवार को गाँव छोड़कर शहर की ओर जाते दिखाया है। चित्र में दूर एक शहर, उजाड़ रेगिस्तान में एक नखलिस्तान जैसा लगता है। इस परिवार के साथ सब कुछ गवाँ चुकने के बाद जो कुछ सामान उनके साथ है, उससे ही उनकी असहाय स्थिति के बारे में पता चलता है। पर सबसे महत्वपूर्ण उपस्थिति के रूप में आसमान पर मंडराते गिद्धों का झुण्ड है, जो उनका सब कुछ लूट कर भी शांत नहीं है, जो शायद 'दस आने से डेढ़ रूपए में इनकी लड़कियों को खरीदने' की ताक में इन बेबस लोगों के ऊपर मंडरा रहा है।
अकाल पर ज़ैनुल आबेदिन के सभी अकाल चित्र भारतीय कला के ऐसे नमूने हैं, जहाँ हम सदियों पुराने सामंती मूल्यों पर आधारित कला को एक नए और सार्थक यात्रापथ पर अपना कदम बढ़ाते हुए पाते हैं।
चित्तप्रसाद के चित्र, जैनुल आबेदिन के चित्रों से कई मायनों में भिन्न होने के बावजूद वे अपने उद्देश्य में सामान रूप से राजनैतिक है। इस दौर के सभी चित्रकारों के चित्रों में असहाय अकाल पीडि़तों की दुर्दशा के चित्रण के माध्यम से चित्र में अनुपस्थित, अकाल की कारक शक्तियों के बारे में दर्शकों के मन में एक रोष और घृणा का भाव पैदा करता है। यहाँ हम इन अकाल चित्रों को गोइया के युद्ध चित्रों के साथ तुलना कर सकते हैं। गोइया के चित्रों में जहाँ दोनों परस्पर विरोधी शक्तियों को हम एक दूसरे से टकराते हुए पाते हैं, वहीं 1943 एक अकाल पर बने चित्रों में ऐसा नहीं दीखता। वास्तव में यहाँ यह अंतर चित्रों को रचने के उद्देश्यों के बीच के अंतर के कारण आया है। गोइया के चित्र अपने सन्दर्भ से गहरे रूप से जुडे हैं, इसलिए स्पेन के युद्ध का वे ऐतिहासिक विवरण हैं जो एक समय की सीमा के दायरे में बंधा भी है। अकाल के चित्रकारों ने इन चित्रों को उस जनता के लिए बनाया था, जो अकाल से न केवल अप्रभावित थी, बल्कि अकाल की भयावहता के  बारे में उनका कोई अनुभव भी न था। इसी कारण से अकाल के अधिकांश चित्र अपने कालकी सीमा के पार जानेका सामथ्र्य रखते हैं, और आज कालाहांडी से लेकर इथियोपिया सोमालिया आदि के अकाल और भुखमरी के साथ अपना रिश्ता सहज ही कायम करते हैं।
चित्तप्रसाद पार्टी से सघन रूप से जुड़े चित्रकार थे जो पार्टी मुखपत्रों 'पीपुल्स एज', 'पीपुल्स वॉर' के लिए चित्र बनाने के साथ साथ अकाल पीडि़त इलाकों में जाकरएक पत्रकार की हैसियत से रिपोर्ट भी भेज रहे थे। इस कारण से चित्तप्रसाद की प्रतिबद्धता अन्य चित्रकारों से भिन्न है। चित्तप्रसाद के इस दौर के चित्रों का स्वरूप रिपोर्ताज जैसा है और प्राय: वे अपने लेखों के साथ चित्र को जोड़ कर लेखों को प्रभावशाली बनाने का प्रयास करते दिखते हैं। ज़ैनुल अबेदिन फासीवाद विरोधी लेखक कलाकार संघ के सदस्य जरूर थे पर पार्टी से उनका कोई सीधा संबंध नहीं था। बावजूद इसके 'पीपुल्स वार' (17 सितंबर 1944) में ज़ैनुल आबेदिन के अकाल चित्र चित्तप्रसाद के चित्रों के साथ छपे थे। 'पीपुल्स वार' के ही जनवरी 21, 1945 वाले अंक में ज़ैनुल आबेदिन पर चित्तप्रसाद का लिखा यादगार लेख छपा था। चित्तप्रसाद और ज़ैनुल आबेदिन के चित्रों के अंतर को समझाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण चित्रों की चर्चा करना यहाँ प्रासंगिक लगता है। ज़ैनुल आबेदिन के इन (देखें चित्र 16 और 17) चित्रों को समझने के लिए अलग से किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं होती। ज़ैनुल आबेदिन ने अपने अकाल चित्रों में कुत्तों और कौओं को सत्ता और जमाखोरों के प्रतीक के रूप में दिखाया था। वहीं अपने चित्र में (देखें चित्र 18) चित्तप्रसाद इन ताकतों के खिलाफ सशस्त्र होते दिखते हैं और बच्चे के हाथों में कौओं को मार भगाने के लिए पत्थर थमाते हैं। चित्तप्रसाद के चित्रों का यह मिलिटेंट चेहरा निश्चय ही जनोन्मुख विचारधारा के साथ साथ वामपंथी संगठन से करीब से जुड़े होने के कारण आया था। चित्तप्रसाद के ऐसे असंख्य चित्र हैं, जहाँ उन्होंने घटनाओं को अपने चित्रों में सीधे सपाट ढंग से प्रमाणिकता (देखें चित्र 19) के साथ प्रस्तुत किया है। चित्तप्रसाद ने पत्रकारिता की एक नयी धारा को भी जन्म दिया था, जहाँ समाचार को और भी ज्यादा प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने के लिए चित्रों का प्रयाग किया। इसकी बड़ी मिसाल चित्तप्रसाद की पुस्तक 'हंग्री बंगाल', और सोमनाथ होड़ का 'तेभागा डायरी' में हम देख सकते हैं।
1943 के अकाल ने चित्रकारों को न केवल एक नए अनुभव से साक्षात्कार कराया बल्कि उन्हें विषय के अनुरूप नए फॉर्म तलाशने की प्रेरणा भी दी। रामकिंकर बैज के इस दौर के चित्रों (देखें चित्र 20) में अकाल की अमानवीय परिस्थितियों को दिखाने के लिए उन्होंने बेहद प्रभावशाली फार्म को चुना जो सहज ही हमें पिकासो के युद्धचित्रों के बदले हुए फार्म की याद दिलाते हैं। इसी तरह हम अकाल पर सोमनाथ होड़ (देखें चित्र 23), अतुल बसु (देखें चित्र 21), सुधीर खास्तगीर (देखें चित्र 24), गोबर्धन आश (देखें चित्र 25) और कमरुल हसन (देखें चित्र 22) के चित्रों में विषय की समानता के बावजूद फार्म की मौलिकता को आसानी से चिन्हित कर पाते हैं। अपनी सघन राजनैतिक प्रतिबद्धता के चलते, अपने इस दौर के चित्रों (1943-1944) में चित्तप्रसाद का, अपने चित्रों में मौलिकता का आग्रह नहीं दिखाई देता और इसीलिये वे फार्म के बारे भी सचेत नहीं दिखते।
1943 के अकाल ने जहाँ बड़ी संख्या में रचनाकारों को प्रभावित किया वहीं 43 के बाद के वर्षों में, तेलन्गाना किसान विद्रोह, तेभागा आन्दोलन, कराची-बम्बई का नाविक विद्रोह, आजाद हिन्द फौज के समर्थन में जन जागरण आदि का विभिन्न आंदोलनों के समान्तर भारत का प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन निरंतर विकसित होता रहा। ऐसा नए-नए अनुभवों से गुज़रते हुए हुआ था, इसलिए इसने अपनी कला अभिव्यक्तियों में समय के यथार्थ को, कल्पना से ज्यादा महत्व दिया। भारत के विभाजन की आग से झुलसे और विस्थापन के दर्द को झेलने वाले पंजाब और बंगाल ने कहानी, कविता, चित्रकला, संगीत सभी विधाओं में यथार्थ को दर्ज करने के लिए नए फार्म को अपनाया। इसके साथ साथ आन्ध्रप्रदेश और दक्षिण के कई प्रान्त, जहाँ किसान मजदूरों और छात्रों के विद्रोह ने नए राजनैतिक अनुभवों से रचनाकारों का परिचय कराया, उनकी रचनाओं ने नई ऊँचाइयों को छुआ। पंजाब के विभाजन और विस्थापन की त्रासदी पर सतीश गुजराल (देखें चित्र 26) के काले सफेद चित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। चालीस के दशक की राजनैतिक उथल पुथल ने कला में सदियों से उस वर्जित वर्ग को कला में प्रतिष्ठित किया, जिसकी कल्पना भारतीय चित्रकला में पहले नहीं की गयी थी। इसी दौर में सक्रिय चित्रकार के.के. हेब्बार (देखें चित्र 27), एन.एस. बेन्द्रे (देखें चित्र 28) और बी. प्रभा (देखें चित्र 29) जैसे तमाम अन्य चित्रकारों के चित्रों का सही मूल्यांकन होना अभी बाकी है।

चित्र सूची : -
चित्र 1 : उपवास में बुद्ध, चित्र 2 : बसावन, चित्र 3 : गोइया, चित्र 4 : गोइया, चित्र 5 : जार्ज क्लौसन, चित्र 6: ओट्टो डिक्स, चित्र 7 : ओट्टो डिक्स, चित्र8 : ओट्टो डिक्स, चित्र 9 : पाब्लो पिकासो, चित्र 10: पाब्लो पिकासो, चित्र 11 : पाब्लो पिकासो, चित्र 12, 13 14 : रबीन्द्रनाथ ठाकुर, चित्र 15, 16, 17 : ज़ैनुल आबेदिन, चित्र 18,19 : चित्तप्रसाद, चित्र 20 : रामकिंकर बैज, चित्र 21 : अतुल बसु, चित्र 22 : कमरुल हसन, चित्र 23 : सोमनाथ होड, चित्र 24 : सुधीर खास्तगीर, चित्र 25 : गोबर्धन आश, चित्र 26 : सतीश गुजराल, चित्र 27 : के.के. हेब्बार, चित्र 28 : एन.एस. बेन्द्रे, चित्र 29 : बी. प्रभा


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