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अप्रैल 2021

मित्र शाह बालू

मुहम्मद अब्बास

उर्दू रजिस्टर

कहानी पाकिस्तान से/प्रस्तुति अजमल कमाल

 

अजमल कमाल भारतीय उप-महाद्वीप की साहित्यिक दुनिया का एक जाना-माना नाम है। कराची से प्रकाशित 1981 से लगातार साहित्य और विचार की पत्रिका 'आज’ के प्रकाशक-संपादक हैं। 2016 से दक्षिण एशियाई साहित्य की एक अंग्रेज़ी पत्रिका 'सिटी’ का संपादन और प्रकाशन भी कर रहे हैं। यूरोपीय भाषाओं के फ़िक्शन, नान-फ़िक्शन और कविता के अनुवाद का उल्लेखनीय कार्य किया है।  लैटिन अमेरिका, मध्य पूर्व, अफ्रीका और दक्षिण एशिया में अंग्रेजी, फारसी, हिंदी, पंजाबी, मराठी के माध्यम से उर्दू में, और साहित्यिक और सामाजिक विषयों पर उर्दू और अंग्रेजी में लेख भी लिखे हैं। 'पहल’ में साथी संपादक भी रहे हैं और रचनाओं से योगदान भी देते रहे हैं।

मुहम्मद अब्बास उर्दू के बहुत लोकप्रिय नये लेखकों में शुमार हैं।

 

 

गाड़ी में बैठते ही मैंने कह दिया था कि कोई अहमक़ाना हरकत नहीं चलेगी।

शब्ब-ए-बरात आ रही थी। मैं इन दिनों घर ही था। सो मित्र शाह बालू को घर लाना मेरे ही ज़िम्मे लगा दिया गया। मित्र शाह बालू मैंने अपनी छोटी बहन शगुफ़्ता का नाम रखा हुआ था। इस नाम की कोई ख़ास वजह ना थी। शफ़ता शफ़ता कहना मुझे अच्छा नहीं लगता था। बस एक दिन ज़हन में आया था कि अपनी तरफ़ से उसे कोई मीठा सा नाम देना चाहिए। बहुत मुद्दत तक सोचता रहा कि कोई ऐसा नाम हो जो बोलने में सुनने में मीठा लगे। जिस तरह बहन से मेरा प्यार मुनफ़रद है, इसी तरह नाम भी मुनफ़रद हो। यूं अपने तौर पर कई ऐसे लफ्क़ा जिनकी अदायगी ज़बान को भली लगती थी, आपस में मिला मिला के तजुर्बे किए और बिलआख़िर इस मजमूआ-ए-अलफ़ाज़ पे पहुंच के दिल मुतमइन हो गया। मित्र शाह बालू। इस के सूती तास्सुरात मुझे क्या, सभी को अच्छे लगे। सो सब उसे यही कह के पुकारने लगे और अब तो वो हमारे हाँ शगुफ़्ता की बजाय मित्र शाह बालू के नाम से ही जानी थी।

मित्र की शादी सिफ़र में हुई थी और रस्म के मुताबिक़ शादी के बाद आने वाली पहली शब्ब-ए-बरात उसने हमारे ही घर गुज़ारनी थी। लाना मेरे ज़िम्मे लग गया। वैसे तो मैं औरतों के साथ सफ़र करने से बहुत घबराता हूँ, लेकिन चूँकि काफ़ी अर्से से उसे देखा नहीं था, दल ने कहा, चलो ये भी कर लेते हैं और चांद की बारह को इस के घर पहुंच गया।

इस की शादी के बाद उस के ससुराल में दूसरी दफ़ा मेरा आना हुआ था। सबसे मिला जुला। तास्सुरात से पता चलता था कि मित्र शाह बालू वहां बहुत ख़ुश है। इस के ससुराली भी जो कि अपनी ख़ाला का घर ही था, इस से बहुत राज़ी थे। रात बड़ी मज़े से कटी, अगली सुबह उन्होंने ख़ुशी ख़ुशी मित्र को ले जाने की इजाज़त दे दी। सिर्फ ख़ाला ने चलते वक़्त मेरे कान में सरगोशी की ''बेटा इस का ध्यान रखना और एहतियात करना।’’ ख़ैर इतनी समझ तो मुझमें भी थी।

सफ़र काफ़ी तवील था। घर जाने के लिए हमने दो गाडिय़ां बदलनी थीं । पहले वैगन पर शहर तक और फिर लोकल बस पर अपने गांव । वैगन की तरफ़ से तो मैं बेफ़िकर था, आरामदेह और मुख़्तसर-सा सफ़र था। इस के बाद लोकल बसका हाल बहुत था। शब्ब-ए-बरात या इस तरह की किसी उमूमी छुट्टी से पहले तो इतना रिश् होता था कि लोग राकेट बस की साईडों पर भी चिमटे होते थे। 'पता नहीं सीट भी मिलेगी या नहीं। ख़ैर जब हम वैगन से उतर कर लारी अड्डे पहुंचे तो देखा कि सबसे अगली बस में अभी कई सीटें ख़ाली थीं, लगता था कि अभी अभी बारी पर लगी है, बहुत इंतिज़ार के बाद चलेगी, लेकिन ख़ैर, सीट तो मिल जाएगी। तीन वाली एक सीट पर सिर्फ एक औरत बैठी थी, मित्र को इस की तरफ़ बिठा के में भी इस के साथ बैठ गया। अभी बस के चलने में बहुत देर थी।

बैठते ही उसे बाहर पकौड़ों वाला नज़र आ गया। फ़ौरन चहकी: ''थोड़े से पकौड़े ले लें?’’

''कोई अहमक़ाना हरकत नहीं चलेगी। मेरा मिज़ाज तो तुम जानती होना मुझे ग़ुस्सा आ गया था।’’

उसे ख़बर थी कि मैं अहमक़ाना किसे कहता हूँ। इसी लिए मेरा जवाब सुनते ही वो समझ गई कि में इस का पकौड़े खाना क़तअन पसंद नहीं करूँगा। वो सीधी साकित बैठी रही।

अपनी बिरादरी की इन पेटू औरतों के साथ सफ़र करने से मुझे हमेशा चिढ़ रही है। ऐसी अहमक़ होती हैं कि ये मालूम होते हुए भी कि बस के चलते ही उल्टी आ जाएगी, बस में बैठते ही बिक्र बिक्र खाना शुरू कर देंगी। छोलों से लेकर पकौड़ों तक की कपुरें कुर्ती जाएँगी, और फिर रास्ते में जब एलर्जी होगी तो उछाल बाहर उलटींगी। गाड़ी में गंदगी, मुसाफ़िरों की तबीयत बे-ज़ार, और अपनी हालत खऱाब कर देंगी। अगर पेट नहीं झेलता तो मत खाओ, लेकिन शायद उन औरतों को घरों में भूक ही इतनी दी जाती है कि घर से निकलते ही उन्हें पेट का ख़्याल सताने लगता है। मित्र को मेरा मिज़ाज अच्छी तरह मालूम था। काफ़ी अरसा पहले हम चाचू की कार पर अब्बा जी को पिंडी आयर पोर्ट छोडऩे गए थे, रास्ते में उसने उल्टी कर दी तो मैंने उसे किस के कई थप्पड़ लगाए थे और सारे रास्ते झिड़कता रहा था कि अगर इसी तरह गंद ही करना था तो हमारे साथ आई ही क्यों। इस के बाद दो तीन दफ़ा हमारे इकट्ठी सफ़र करने का मौक़ा बना था लेकिन हर बार-ओ-ह इनकार जाती।

लोकल गाड़ी चलने का दारू मदार सवारीयों की तादाद पर ही होता है। मज़ीद एक भी फ़र्द गाड़ी पर सवार होने की गुंजाइश ना रहे तो कछवा हरकत में आता है। मौसम में अभी थोड़ी तपिश बाक़ी थी इसलिए गाड़ी के अंदर बीसियों अफ़राद की मौजूदगी ने घुटन बना दी थी। सब पसीने में नहा चुके थे। जब बस हरकत में आई तब तक लिबास बदन से चिपकने लगे थे।

बस हसब-ए-मामूल ठोंस के भरी गई थी। तंग राहदारी में कंडक्टर ने बड़ी महारत से लोगों की दोहरी क़तार खड़ी कर दी थी। सवारियां इस क़दर ठुँसी हुई थीं कि साँसों को भी आने जाने में दि$क्क़त होती थी। बस के चलने पर-उम्मीद होती है कि खिड़कियों से तेज़ हुआ आएगी तो घुटन का एहसास ना रहेगा मगर ये राकेट बस इतनी सुस्त रफ़्तारी से चलती है कि हुआ बे-चारी को ख़बर भी नहीं होती। गाड़ी के अंदर हब्स इसी तरह था कि सीने से निकलने वाली हुआ भी बाहर आकर घुटन महसूस करती होगी। बस के चलने पर मित्री ने सुख का सांस लिया, शायद इस ख़्याल से कि अब हम सिर्फ दो घंटों बाद अपने घर पहुंच जाऐंगे, और कपड़ों वाला बैग हाथों में जकड़ सीधी हो कर बैठ गई थी। मुझे ख़बर थी कि इस का दिल बातें करने को बहुत चाह रहा है लेकिन चूँकि जानती थी कि मैं यहां गाड़ी में इस से कोई बात नहीं करूँगा, इसलिए बस ख़ामोश सामने देखती रही। दूसरी तरफ़ में इसी कोशिश में लगा रहा कि राहदारी में खड़े शख़्स को, जिसका वज़न मेरे कंधों पर गिर रहा था, ख़ुद से दूर हटाऊं। कमबख़्त ऊपर ही लदता जा था।

लारी अड्डे से निकलने के बाद कैन्ट एरिया था जहां सवारी को बस के दरवाज़े में खड़ा कर के या छत के ऊपर बिठा कर गुज़रने पर पाबंदी थी। जिन लोगों ने छत के ऊपर बैठना था, वो भी फ़िलहाल अंदर ही ठूंसे गए थे। इस पर मुस्तज़ाद कैन्ट में जगह जगह बने स्पीड ब्रेकरज़ की वजह से बस टांगे की रफ़्तार से और बिलकुल इसी तरह हचकोले खा कर चल रही थी। बावजूद बस के चलने के हवा में ताज़गी महसूस ना होती थी। तपी हुई ख़ुशक हुआ से घबरा कर मित्री ने चेहरे से निक़ाब उठा दिया, उस का सारा चेहरा पसीने में तर था। मैंने उस की हालत देखकर एतराज़ भी ना किया। वैसे भी हमारे घर में कौन सा पर्दे की पाबंदी होती थी, ये तो उस के ससुराल ने इस पर लादा था। अगर उस का दिल नहीं चाहता तो ना करे। निक़ाब उतार कर उसने अपने ख़ास अंदाज़ में मुस्कुराते हुए, चुन्नी सी आँखें भेंच कर नाक सकोड़े हुए मुझे देखा गोया चिड़ा रही हो। इस का ये अंदाज़ मुझे बचपन से बहुत अच्छा लगता था। उसपे लाड सा आ आ जाता। जब वो यूं करती तो में इस के माथे को बे-इख्तियार चूम लिया करता था। अभी भी मेरा दिल चाहा कि एपी ''दे दूं लेकिन बस में बैठे होने के ख़्याल ने बाज़ रखा।

जिस चादर का उसने निक़ाब लिया हुआ था, इसी के पल्लू से वो अपने चेहरे को हुआ देने लगी और मैं किन अक्खियों से उसे देखता रहा।

बस अब कैन्ट एरिया से निकल आई थी। इंद्र राहदारी में खड़ी कई सवारियां ऊपर छत पे चली गई थीं और घुटन का एहसास कुछ कम हो गया था। बस ने कुछ रफ़्तार भी पकड़ ली थी। लेकिन लोकल गाड़ी लोकल ही होती है। ज़रा आगे बढ़ती कि कोई सवारी उतारने चिढ़ाने के लिए ब्रेक लग जाती। मैंने मित्री की तरफ़ देखा। इस के चेहरे की कैफ़ीयत थोड़ी सी बदल गई थी और आँखों में ख़ौफ़ झलक रहा था। मैंने नज़रों नज़रों में इशारा कर पूछा।

''किया हुआ?’’

''ऐसा लगता है कि मुझे उल्टी आजाएगी।’’ उसने डरते डरते कहा।

''उल्टी!! उफ़ ख़बरदार अगर ऐसा किया तो मार मार कर हुल्या बिगाड़ दूँगा। सारी गाड़ी में ड्रामा बुना दोगी मैं तप गया।’’ आख़िर ये तुम औरतों के साथ मसला किया है।’’

''पता नहीं क्यों मैं तो बहुत रोक रही हूँ।’’

''हाँ ख़ुद पर क़ाबू रखू। पता नहीं कितने लोगों का जी बे-ज़ार करोगी मैं झुँझला सा गया था।

औरतें कमअक़्ल होती हैं, औरतें बेवक़ूफ़ होती हैं, औरतों मैं समझ नहीं होती, औरतों की मत ही उल्टी होती है। ये बातें मेरे लिए ईमान का दर्जा रखती थीं और इस की वजह इसी तरह की कुछ बातें थीं। चलती बस में क़ै कर देना, चलते चलते सामान हाथों से गिरा देना, सड़क पार करते वक़्त पहले बाएं तरफ़ देखना, फ़र्दाएं, दुकानदारों से एक एक पैसे के लिए झगड़ा, खाने की कोई नई चीज़ देखते ही उसपे लपक जाना। ये सब आदात मेरे लिए औरतों के आलमगीर मसाइल का दर्जा रखती थीं।

मेरे साथ खड़े आदमी ने 'तलब’ से मजबूर हो कर सिगरेट सुलगा लिया।एक ऐसी मर्दाना हमाक़त जिसका जितना मातम किया जाए कम है। धोईं का एक ''बड़मबा’’ इस के मुँह से निकला और गाड़ी की घटेली हवा में थर्राने लगा। बेवक़ूफ़ आदमी! यहां पहले ही ऑक्सीजन की कमी है और इस शख़्स ने सिगरेट जला लिया है। इन जाहिलों को क्या ख़बर कि उनका अपना मज़ा दूसरे कितने लोगों का जी ख़राब कर रहा है, बस हर तरफ़ से बेनयाज़ धुआँ फांकते रहेंगे। मैं खो दुभी सिगरेट पीता हूँ लेकिन ऐसी किसी जगह हमेशा परहेज़ रखता हूँ । मुझे एहसास रहता है कि जब गाड़ी या किसी बंद कमरे में कोई दूसरा शख़्स सिगरेट पी रहा हो तो किस तरह मेरा जी मतलाता है। इसी लिए मैं ख़ुद ऐसी जगहों पर एहतियात रखता हूँ। मैंने मित्री की तरफ़ देखा तो उसने चादर का कोना हाथों में दबा कर मुँह के आगे रखा हुआ था। चेहरे पर कराहत के आसार वाज़िह नज़रा रहे थे। मैं इस की हालत पर घबरा गया और फ़ौरन उस आदमी से की।

''भाई जान! मेहरबानी कर के सिगरेट बुझा दें। मेरे साथ जऩाना सवारी है इस की तबीयत ख़राब हो रही है।’’

''क्यों बुझा दूं, मुफ़्त का आता है सिगरेट? पैसे नहीं ख़र्च किए मैंने?’’

अजीब बेहूदा आदमी था।मैं चिड़ गया ''पैसे तुम्हें में दे दूंगा लेकिन ये फ़ौरन बुझा दो।’’ Don't you know that smoking

उसने सहम कर फ़ौरन सिगरेट पांव तले दबा के बुझा दी।बेचारा इंग्लिश के दो लफ्क़ा भी ना झील सका था। मित्री ने सुख का सांस लिया और मुँह से चादर हटा ली। ''मुझे लगता था कि अभी उल्टी आ जाएगी। पेट से कोई चीज़ ऊपर की तरफ़ उछल रही थी।’’

''नहीं मेरी मित्री! अपने आप पर क़ाबू रखू। यहां गाड़ी में ये सब अच्छा नहीं लगता ना। जब तुम उलटी करोगी तो गाड़ी गंदी हो जाएगी, कंडक्टर की की बक बक सुननी पड़ेगी। देखने वालों का जी भी ख़राब होगा। ऐसे नहीं करना प्लीज़।’’ मैंने उस के सर को अपने दाएं शाने पर रख लिया और सर पर हाथ फेरने लगा।

गाड़ी चलते हुए घंटे से भी ज़्यादा हो गया था। अब नाला आने वाला था जिसके थोड़ा ही आगे हमारा गांव है। इस नाले से गाड़ी को गुज़रने में पंद्रह बीस मिनट लग जाते हैं। ये बरसाती नाला तक़रीबन तीन किलोमीटर चौड़े पाट का है। सावन भादों में पहाड़ों से इतना तेज़ रेला आता है कि अगर टैंक भी खड़ा हो तो उसे बहा ले जाये। दो महीने तक इधर के लोग उधरावर इधर के लोग इधर नहीं जा सकते। बारिशों के दिन छोड़कर ये अक्सर ख़ुशक ही रहता है। पूरे पाट पर रेत फैली होती है। सड़क यहां बन ही नहीं सकती और पुल बनाने में हुकूमत को कोई फ़ायदा नज़र नहीं आता। गाड़ी को यहां से गुज़रने के लिए तीन किलोमीटर का फ़ासिला रेत में तै करता पड़ता है। गाड़ीयों की मुसलसल गुज़रान से इस में आरिज़ी से रास्ते बन जाते हैं। टेढ़े-मेढ़े, ऊंचे नीचे। रोज़ के गुज़रने वाले ड्राईवर अपने तजुर्बे और मश्क़ के सहारे गाड़ी को निकाल ले जाते हैं लेकिन अगर कोई ड्राईवर पहली बार इस तरफ़ आए तो लाज़िमी गाड़ी रेत में धँसा है। अलिफ।

थोड़ी ही देर बाद गाड़ी नाले में दाख़िल हो गई। झटकूँ की कसरत और शिद्दत में बे-तहाशा इज़ाफ़ा हो गया। रेत में धँसती दाएं बाएं ऊपर नीचे झटके खाती गाड़ी प्यादे की सी रफ़्तार से आगे बढऩे लगी। इस नाले से गुज़रने को मैं पल सिरात उबूर करने के बराबर ही समझता था। तमाम वक़्त अल्लाह अल्लाह कर के गुज़रता था और इस दौरान बदन के सभी जोड़ हिल जाते थे। सभी सवारियां किसी ना किसी सहारे को मज़बूत पकड़े बैठी थीं, फिर भी सब के जिस्म डोल रहे थे। गर्द का एक बगूला अंदर दाख़िल हुआ और सांस लेना दुशवार होने लगा। मित्री कुछ ग़नूदा सी मेरे कंधे पर सर रखे पड़ी थी। बस नाले के दरमयान पहुंची तो उसने अपना बायां बाज़ू मेरे सर के गर्द घुमा कर मेरे कंधे को थाम लिया। मैंने उसे अपनी बान्हा के कलावे में ले लिया और दूसरे हाथ से धीरे धीरे उस का सर सहलाने लगा। गर्द की वजह से उसे सांस लेने में भी काफ़ी दिक्क़त हो रही थी।जब कोई झटका लगता तो में इस के सर को हल्के हल्के थपथपा देता।

चुनी मुनी आँखों वाली ये बहन अब कुछ दिनों बाद ही मुझे खेलने के लिए एक अदद भांजा देगी, में इस से खेला करूँगा, क्या वो भी इसी की तरह ख़ूबसूरत होगा? हो भी तो क्या, वो तो अपने दधियाल रहा करेगा, कौन सा उसने हमारे साथ रहना है? अब वो पराए घर की है तो इस की औलाद भी पराई ही ठहरेगी।

आख़िर इतनी प्यारी बहन मैंने दूसरों को क्यों दे दी। अपने घर में इस के होने से कितनी ज़िंदगी होती थी। मेरा तो बचपन और लड़कपन का सारा ज़माना इसी के साथ हँसने खेलने में गुज़रा था।खेल हो या शरारत, उस को साथ शामिल करने से ही मुझे मज़ा आता था। हमने इक_े क्या-क्या कुछ नहीं किया था। मेरे साथ जब कोई मसला होता तो बाक़ी घर वालों को बताए बग़ैर इसी से हल करवा लेता। दादी का अम्मां से, या अम्मां का दादी से लड़ाई पर मूड होता तो लड़ाई शुरू होते ही वो दरमयान में पड़ कर मुआमले को मज़ाक़ में टाल देती। वो थी तो हमारा घर था, वो गई तो घर कहाँ रहा था। अब तो हमारे घर में सिर्फ अम्मां और दादी दो ख़ामोश रूहें रहती थीं। पता नहीं क्यों ये मित्री हमें औरों को देनी पड़ी, ये चुनी मुनी आँखों वाली मित्र शाह बालू सारी ज़िंदगी भी हमारे घर रह लेती तो हमारे लिए भारी तो थी।

हम दोनों ही ख़ामोश बैठे थे। जब एक दूसरे के जज़बे बग़ैर बोले ही समझ आ रहे थे तो बोलने की ज़रूरत भी किया थी। वो बहुत घबराई हुई थी, ख़ून की गर्दिश इस क़दर तेज़ हो चुकी थी कि जहां-जहां उस की कोई रग मेरे बाज़ुओं से मस हो रही थी, लगता कि कोई साँप लहरीए लेता गुज़र रहा है। इस का बदन इस क़दर तप चुका था कि पसीने की जगह गर्म बुख़ारात निकलते महसूस हो रहे थे। ''नाज़ुक पैर मुलूक ससी दे, ज्यूँ थल विच भिन्न भटयारे।’’ ससी हर जगह हर दौर में नाज़ुक ही रही है और चाहे थल हो, चाहे थल जैसी ज़िदगी, हर जगह भूनी गई है।

मित्री ने एक हल्का सा मरोड़ा खाया, अभी में इस के सर को सहला ही रहा था कि 'ओग’ की हल्की सी आवाज़ आई और कोई गर्मगर्म शैय मेरे सीने पर फैल गई। कच्चा पक्का अध गला मवाद मेरी शर्ट पर और गिरेबान से हो कर मेरी छाती पर फिसल रहा था। कराहत पांव के नाख़ुनों से उठी और सिरके बालों तक किरकिरा गई। 'अअअअख़!! ये क्या हो गया’’ मुझे लगा कि अभी मेरा अंदर भी उछल कर्मणा के रास्ते बाहर आ जाएगा और मैं उसे रोक नहीं पाऊँगा। 'अइए है य ये लैसा! या मेरे ख़ुदाया मैं क्या करूँ।’ जी चाहा कि इस की ख़ूब ख़बर लूं । उसने डरे डरे अंदाज़ में मुझे देखा, निगाहों में वो ख़ौफ़ था गोया मौत देख ली हो। मेरा हाथ बे-जान उस के सर पर ही पड़ा रहा। अपने बदन पर फैलते लैसले माद्दे औराध हज़्मे टुकड़ों के साथ लिपटी ढेरों कराहत को महसूस कर के बेबसी की शिद्दत से मेरा दिल चाहा कि रोने लगूँ धाड़ें मार मार कर रोऊँ । पर अब हो भी किया सकता था। मित्री को देखा तो वो निढाल, अपने ही अंदर होती जंग में हार कर मेरे कंधे पर सर रखे बे-सुध पड़ी थी। इस के चेहरे पर फैली हुई सहमाहट और तरस अंगेज़ हालत मुझसे देखी नहीं गई। मैंने अपनी शर्ट पेंट से बाहर निकाली , उस के पल्लू से मित्री का मुँह साफ़ किया और फिर उस का सर अपने कंधे पर रखे धीरे धीरे थपथपाने लगा।

''भाई देख लू मैंने गाड़ी गंदी नहीं की। बहुत रोका था, लेकिन-लेकिन मेरे क़ाबू से बाहर हो गया था।’’ वो ठिसकते हुए बोली। ''किसी को पता भी नहीं चला।’’

''मेरी जान, मेरी मित्री! फ़िक्रना करो। कुछ भी तो नहीं हुआ। अभी हम कुछ देर में अपने घर पहुंचने वाले हैं। सब ठीक हो जाएगा।

गाड़ी अब नाले से निकल कर कुछ रफ़्तार पकड़ चुकी थी। मित्री मेरे कंधे से सर टिकाए बे-सुध लेटी थी। मुतमइन और नंदियाई हुई और मैं दुलार से इस के चेहरे को देखता रहा।

 


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